मंगलवार, 18 जून 2019

संसदीय मर्यादाओं का खुला ऊलंघन।

भारत के संविधान के अनुच्छेद-99 में संसद के नवनिर्वाचित सदस्यों के शपथग्रहण का उल्लेख है। अनुच्छेद कहता है: 'संसद के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले  राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा!'

हमारे संविधान का यह खास अनुच्छेद और तीसरी अनुसूची में दर्ज शपथ का प्रारूप बहुत महत्वपूर्ण और जरुरी संवैधानिक प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं!

आमतौर पर शपथग्रहण की यह औपचारिक संवैधानिक प्रक्रिया शांत, संजीदा और गरिमापूर्ण माहौल में पूरी होती रही है! शपथ लेने और रजिस्टर पर हस्ताक्षर के अलावा इस दरम्यान सदन में और कुछ भी नहीं होना चाहिए! लेकिन इस बार नवनिर्वाचित माननीय सदस्यों के शपथग्रहण के दोनों दिन सदन में खूब आवाज़ें, विवादास्पद नारेबाजी और टिप्पणियां हुईं!

हमारे लोकतंत्र के महान् स्वप्नदर्शियों और संविधान-निर्माताओं ने लोकसभा में ऐसी आवाजों, ऐसी नारेबाजियों, ऐसे माहौल की शायद ही कभी कल्पना की होगी! ये शुरुआती दो दिन संसदीय मर्यादा, लोकतांत्रिक-प्रौढ़ता और बौद्धिक-सहिष्णुता के हिसाब से बहुत सुखद और आशाप्रद नहीं रहे!

 35 साल के अपने पत्रकारिता जीवन में मैंने विधानमंडलों (बिहार, पंजाब, हरियाणा) और संसद की कार्यवाही को तकरीबन दो दशक कवर किया! शपथ ग्रहण के दौरान सदन के अंदर ऐसे नारे, ऐसी आवाज़ें और ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा(जैसा सोमवार और मंगलवार को टीवी चैनलों के लाइव-प्रसारण में देखा)! इसे क्या माना जाये?

(साभार : श्री उर्मिलेश जी की फ़ेसबुक पोस्ट से।)

सोमवार, 3 जून 2019

प्रधानमंत्री बनने के एक सपने का जन्म।

बहन जी के सपने का दरक जाना।
........….................
प्रधानमंत्री ?
- डॉ लाल रत्नाकर

2019 लोकसभा चुनाव के लिए हुए गठबंधन में मनोवांछित परिणाम न मिलने के कारणों का सही मूल्यांकन करने पर या सही मूल्यांकन किए जाने के डर से ऐसा कह करके अपने को अलग कर ली हैं।
जिससे आने वाले दिनों में यह न कहना पड़े कि इनके सम्मीलन का जादू फेल कैसे हो गया।

अब जो मूल बात है कि सपा बसपा के रिश्ते तो खराब हो ही रहे हैं । लेकिन ग्राउंड लेवल पर जो समझ बनी थी या बन रही थी वह कितनी बनी रहेगी। मूलतः चिंता इस बात की हो रही है।

क्योंकि यह गठबंधन केवल नेताओं का गठबंधन नहीं था यह दोनों समाज के बुद्धिजीवियों और मतदाताओं के दबाव का गठबंधन था। जिसको इन्होने राजनीतिक रूप से अंगीकृत किया था लेकिन मायावती जी इसका गलत विश्लेषण करेंगी यह उम्मीद नहीं थी ।

हालांकि हर व्यक्ति यही कह रहा था कि जैसे ही मायावती को कोई ऐसा अवसर मिलेगा तब वह इस बंधन को तोड़ देंगी। वही हुआ जो लोगों को आशंका थी और दूसरी तरफ भाजपा रोज कह रही थी कि यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन है जो 23 मई 2019 के बाद टूट जाएगा।

बहन मायावती ने अपनी कला दिखा दी है और यह साबित कर दिया है कि वह लंबे समय तक किसी के साथ रिश्ता नहीं रख सकती हैं। इसका निहितार्थ क्या है उसको तो वह स्वयं अच्छी तरह समझती होगी । लेकिन लोगों को जो कुछ समझ में आ रहा है । वह यही आ रहा है कि आगे जो लड़ाई लड़नी है । ऐसे लोगों से जैसे लोगों से कभी : ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार और साहू जी महाराज ललई सिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा एवं जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने लड़ी थी।

मैं तो अखिलेश यादव की आदूरदर्शिता पर हमेशा लिखता रहा हूं । लेकिन इस बार लगा था कि उन्होंने एक अच्छा काम किया है जिससे जमीन पर कुछ बड़ा काम हो पाएगा । लेकिन इस गठबंधन की आयु इतनी कम होगी इसका अंदाजा नहीं था, कुछ बड़े नेताओं की राय में यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन नजर आ रहा था। जिसमें अंतर यही साबित हुआ था कि सब कुछ गवा देंगे मगर गठबंधन नहीं तोड़ेंगे। परीक्षार्थी भी यही थे और परीक्षक भी यही थे।

कहते हैं जिंदा कौम में 5 वर्ष तक इंतजार नहीं करती लेकिन इन दो कौमों के नेताओं ने 5 साल के लिए अपनी आवाम को बंधक बना दिया। अपने स्वार्थ और अपनी गलत नीतियों से राजनीति करने वाले का दिल हमेशा बड़ा होना चाहिए । और अकेले यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह सब कुछ फतह कर लेगा। जबकि यहां पर यही हुआ है, इस सौदे में बहन जी की आमदनी ज्यादा भले ही हुई हो लेकिन दलितों की भावी राजनीति को जितना उन्होंने नुकसान किया है । उसका खामियाजा भी उन्हें ही भोगना पड़ेगा।

अखिलेश यादव को भी चाहिए कि कुछ ऐसे लोगों से विमर्श करें जिससे उनका भविष्य का मार्ग सशक्त हो सके अन्यथा बहन मायावती जी का जो है सन 2014 में हुआ था वह आगे भी होना है । और अखिलेश जी को कितने समझौते करने पड़ेंगे इसका अंदाजा भी उन्हें अभी नहीं है।

मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि उनकी पार्टी में कितने महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपने लोगों को ही गाली गलौज और अनेकों प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं । और यह बात खुलेआम जनता के बीच भी उन्हीं के जरिए जाती है । एक दूसरे को नीचा दिखाने के साथ साथ कीचड़ उछालना और आस्तीन में सांप पालना उनकी एक बहुत बड़ी भयावह फौज वहां खड़ी दिखाई दी । जो आपका कहां पर किस तरह से विनाश करेगी उसका आकलन मैंने पहली बार जौनपुर जनपद में कथित रूप से सपायियो और बसपाइयों में देखा।

निश्चित तौर पर बसपा की 10 सांसदों की बडी फौज इस लड़ाई को लड़ने में कामयाब होगी यह बात बहन जी को अच्छी तरह समझ में आ गई होगी। 2014 में शून्य पर रही बसपा सपा के कंधे पर बैठकर 10 सांसदों की फौज खड़ी कर ली है। अब कह रही है कि यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया। बहन जी को भले ही यह लगता हो की यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया है, हो सकता है कहीं न भी किया हो ? लेकिन जिन्होंने नोट ट्रांसफर किया है उन्हें पता होगा कि किसके वोट से वह लोग जीते हैं?

मेरे ख्याल से जनता ने बहुत ईमानदारी से गठबंधन के प्रत्याशियों के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है । जिसमें आर्थिक लुटेरों को छोड़ दिया जाए तो निश्चित तौर पर जमीन पर एक ऐसा मतदाता समूह बन रहा था जो आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर बहुजन समाज के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में सफल होता।

सबसे दुखद तो यह है कि बसपा अपने प्रत्याशी प्रतिनिधि को अपने लोगों का वोट बेचती है। खरीददार कोई भी हो सकता है जिसकी टेट में पूंजी हो? मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस पार्टी से कोई वैचारिक संघर्षशील व्यक्ति चुनाव कैसे लड़ सकता है ? मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि जिस तरह से बसपा का कैडर प्रत्याशियों को चूसता है उससे तो यह नहीं दिखाई देता कि भविष्य में भी इस पार्टी का कोई कार्यकर्ता जो ईमानदार होगा संघर्षशील होगा और नैतिक होगा वह संसद में या विधानसभा में पहुंच पाएगा। क्या कांशी राम जी ने यही सपना देखा था और इसी तरह से बसपा की टिकट बेचने की योजना बनाई थी।

अब वक्त आ गया है जब यह विचार करना है कि बहुजन राजनीति का नायक कौन होगा और कौन उसको दूर तक ले चलने का साहस और नैतिक जिम्मेदारी महसूस करेगा उन्हीं लोगों के मध्य से नए नेतृत्व की तलाश करनी होगी जैसी कांशी राम जी ने महात्मा फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के बाद परिकल्पना की थी।

निश्चित तौर पर इस काम में बहन मायावती नाकाम हुई है और उन्होंने पूरी बहुजन वैचारिकी को व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में बदलकर के निजी लाभ के लिए पूरे समाज को अंधकार में धकेल रही है। यह काल बहुजन इतिहास का बहुत ही अंधकारमय काल होगा यह तो तय हो चुका है।

दूसरी तरफ अखिलेश यादव विशेष रूप से जितने कमजोर साबित हुए हैं । यह खामियाजा पूरे पिछड़े समाज को उठाना पड़ रहा है। यह वही पिछड़ा समाज है जो हमेशा अपनी उपस्थिति विपक्ष के रूप में दर्ज कराता रहा है। लेकिन इनकी राजनीति के चलते आज अधिकांश पिछड़े वर्ग का व्यक्ति उस दल की ओर चला गया है । जो दल उसके विनाश का काम करता है । इसकी जानकारी जब किसी से बात की जाती है। तो वह यही कहता है कि सैफई परिवार तो केवल अपने और अपने जाति के लिए सोचता है । उसके आगे उसका कोई विजन ही नहीं है। जबकि सच्चाई इससे भी आगे की यह है कि वह अपनी जात के लिए भी नहीं सोचता । और इस बार तो यह भी तय हो गया कि वह केवल अपने लिए सोचता है।

राजनीतिक निराशा का यह सबसे अंधकार का दौर है। अंधकार में पडा यह बहुजन समाज कैसे आगे बढ़ेगा इस पर विचार करना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। निश्चित तौर पर वह वर्ग इसके लिए सोचने को तैयार नहीं है । जिसके पास राजनीति का छोटा-मोटा उपहार पड़ा हुआ है। उसकी संघर्ष की क्षमता विरोधियों ने समाप्त कर दी है । चाहे वह शैक्षणिक,आर्थिक क्षेत्र हो चाहे प्रशासनिक क्षेत्र हो यह संघर्षशील समाज जिसको उसने गुंडे और मवाली के रूप में प्रचारित कर दिया है।

बहुजन नेताओं को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया है । और मुसलमानों को तो देश के प्रति संदेह के घेरे में डाल दिया है। कुल मिलाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दिया है जिससे बर्तमान सत्ता के खिलाफ बोलने वाला या तो देशद्रोही करार कर दिया जाए या उसे आधार्मिक बता दिया जाएगा।

इस गठबंधन से जो बहुत खतरनाक काम हुआ है। वह यह कि मायावती जी को देश का प्रधानमंत्री घोषित करके सवर्ण समाज को तो चौकन्ना और एकजुट करने का काम इन्होंने किया ही था। जिसमें अति दलितों और अति पिछड़े भी शरीक हो गए हैं। यह सब अज्ञानता भरा काम है । क्योंकि गठबंधन की कोई ऐसी तैयारी ही नहीं थी जिसमें बहन जी प्रधानमंत्री होने की लाइन में भी खड़ी हो पाती।

श्री अखिलेश जी को उत्तर प्रदेश में एक छत्र मुख्यमंत्री के रूप में बहुजन समाज स्वीकार कर लेगा । इस प्रत्याशा में उन्होंने भी बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने का बिना योजना के घोषणा करके वह सारा काम किया को कम दुश्मन करता है। यह सब तो ऐसे ही लग रहा था जैसे कोई संत महात्मा ने कह दिया हो कि आप लोग एक साथ आ जाओगे तो बहन जी प्रधानमंत्री और आप निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री बन जाओगे।

जबकि ऐसा है नहीं इसके लिए पार्टियों की और जनता की टीम के साथ साथ बुद्धिजीवियों बहुत जबरदस्त समर्थन चाहिए होता है।

रविवार, 2 जून 2019

सवाल तो बहुत हैं।

बहुत ही खेद के साथ कहना है कि जब यादवो का राज्य आता है तो उन्हें अति पिछड़ा दलित और अति दलित नजर नहीं आता जो सामाजिक रूप से सोचता हो और ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करने का माद्दा रखता हो। यही सबसे बड़ी विडंबना है कि उसके यहां प्रमुख सलाहकार भी ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण अपने अनुसार उसके कामकाज को प्रभावित करता है और थोड़े दिनों के बाद वह परास्त हो जाता है।।
दूसरी तरफ भाजपा नकली ओबीसी लाती है ऐसा ओबीसी जो कहीं पाया नहीं जाता और जरूरत पड़ने पर वह अपने को दलित भी बना लेता है अफसोस है कि आप लोग अखिलेश यादव अखिलेश यादव बार-बार कर रहे हो अखिलेश यादव अपने को पिछड़ा तब मानते हैं जब उन्हें भाजपा बताती है।
यह दौर देखा जाए तो मूलतः संक्रमण काल का दौर है। पिछड़ों में एक ऐसे नेता का नाम बताइए जो ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार या बाबा साहब अंबेडकर को ठीक से पढ़ा हो बाकी रही ललई सिंह यादव रामस्वरूप वर्मा या जगदेव प्रसाद कुशवाहा उनकी नीतियों पर चलने का कभी प्रयास मात्र भी किया हो।
वास्तविकता तो यही है कि हमारे महापुरुषों के संघर्ष को इन अपढ़ अग्यानी राजनेता अपहर्ताओं, नेताओं या नेतपुत्रों ने अपहृत कर लिया है। जिन्हें मौजूदा संविधान विरोधी सरकारें अपने संरक्षण में राजनीति करवा रही हैं।

खुला पत्र अखिलेश के नाम

अभिषेक सिंह, 
पूर्व अध्यक्ष, मुलायम सिंह यादव, यूथ ब्रिगेड-

भावनाओं का बलात्कार हुवा है ,इस हार से दुखी हूँ, दिनरात निःस्वार्थ पार्टी के लिए एक छोटे से कार्यकर्ता की हैशियत से पार्टी के लिए मोबाइल और लैपटॉप पे  आँखे फोड़ी है मोहल्ले ,दोस्तों और मोदी भक्तो से गालिया खायी है, इसलिए आज लिखने पे मजबूर हूँ ,कोई ज्ञान नहीं बांटेगा..........

प्रिय अखिलेश भैया पार्टी के पक्ष में कोई भी राजनितिक पोस्ट नहीं आएगी जब तक आप  सड़क पे नहीं दिखोगे ,और लखैरा टाइप के लौंडो को पार्टी कार्यलय से लात मार कर बाहर नहीं करोगे ,अपने सलाहकार बदल दीजिये ,आपने जिन जिन को पार्टी में जिम्मेदारी  दिया था ये छेत्र में या तो जाते नहीं थे और अगर जाते भी थे  तो सिर्फ उसके यंहा जिसका पार्टी कार्यलय में भौकाल होता था या उनके यंहा जाते थे जिनको ये जानते थे , जिनकी छवि खुद गाँव मोहल्ले में स्वजातीय लोगो को तंग करने की रही हो ,हालांकि मै इस बात पे घमंड करता हूँ कि मैंने आज तक न आपके साथ सेल्फी लेने की कोशिश किया न प्रदीप ,सुनील साजन,दिग्विजय ऐबाद जैसे भैया लोगो से पद के लिए सम्पर्क किया ,आपके मुर्गे कभी अंडा नहीं देंगे इनका आमजनमानस से दूर दूर तक कोई लगाव नहीं था ,पार्टी का उमीदवार का कनेक्शन वोट दिलाने वाले फर्जी ठेकेदारों से था मेहनत  करने वाले कार्यकर्ताओं से तो था ही नहीं !! और आप कृपया सादगी वाला चोला उतार ही लीजिये अगर आप मुख्तार अंसारी को पार्टी में नहीं ले सकते तो उनको चुनाव में जिताने की अपील क्यों करते रहे ?? राजनीति में इतना सभ्यता और नैतिकता उस दौर में नहीं चल सकती जिस दौर में गांधी को भला बुरा कहने वाले चुनाव में जीत दर्ज करते हो  | मुझे  राजेंद्र चौधरी ,नरेश उत्तम पटेल ,तथाकथित ज्ञानी राय साब ,डिजिटल फाॅर्स , और २-३ प्रवक्ताओं को छोड़कर बांकी के प्रवक्ताओं के फायदे भी जानना है | आज गली गली लड्डू बंट रहा था भाजपा कार्यकर्ताओं की तरफ लेकिन यही जीत अगर समाजवादी पार्टी के किसी नेता की होती तो वो सिर्फ अपने छुट भय्ये नेता के साथ जश्न मना रहा होता ,आपकी हार उस दिन हो गयी थी जब आपने मोदी जी को बनारस में वॉकओवर दिया था | आप पार्टी कार्यलय से बाहर निकलकर खुद संगठन देखिये क्योंकि पार्टी संगठन का काम तो शिवपाल चाचा जी के जाने के बाद किसी ने देखा ही नहीं ,साइकिल यात्रा की बजाय अगर कुर्बान गैंग अपने मोहल्ले के लोगो से टच रहते तो बूथ पर १०-२० वोट बढ़ते | आज तक पार्टी के नेताओं को रैली में टेंट कुर्सी की ब्यवस्था के आलावा कोई  काम ही नहीं बांटा गया , ये जो वोट मिल रहे हैं वो नेताजी ,माननीय कांशीराम के पसीने से पैदा हुए नमक की वजह से मिल रहे हैं| अब जब सब कुछ खत्म हो चूका है तो  तो कुछ बदलाव कीजिये प्रदेश संगठन ,अपने सलाहकार , ढर्रा , तो तुरंत बदलाव मांग रहे हैं ,छोटी मुँह बड़ी बात आप में एक बहुत बड़ी कमी है उस कमी का नाम ओवर कॉन्फिडेंस अगर आपको कोई मेहनती कार्यकर्त्ता कोई सलाह देता है तो आप ऐसा शो करते थे जैसे आपको सब मालूम हो इसकी वजह थी आपके अगल -बगल के फर्जी नेता ,उनकी हर बात आप सुनते रहे लेकिन वो नहीं सुना जो बहुत जरूरी था ,जंहा आपके अगल बगल चंद्रशेखर भीम आर्मी वाले युथलीडर को होना चाहिए था वंहा आपके साथ एमएलसी वाले भैया लोग थे जिन्होंने नेताजी की २०१२ वाली जीत की बहती गंगा में हाँथ धोये लेकिन १०० नए वोट न पैदा कर  पाए ना किसी को जोड़ पाए बस  जुगाड़ वाले नए नए लौंडो को गुड़ की तरह पद बांटते रहे भगा दीजिये ऐसे लोगो या तो इनसे काम लीजिये ,ऐसा नहीं है की लोगो को जोड़ा नहीं जा सकता ,आत्म मंथन कीजिये बदलाव कीजिये वही कीजिये जो सही हो ,सही तब होगा जब आप चाह लेंगे, सलाहकारों द्वारा पार्टी को चलाना सबसे बड़ी गलती रही है आपकी ,आपके सलाहकार बेकार और नकारा हैं  | 

माफ़ी चाहता हूँ ये सब लिखने के लिए लेकिन इतना तो डिजर्व करता हूँ की सच्चाई लिख सकूं जो फील किया।

शनिवार, 1 जून 2019

ईवीएम क्या हैं?

स्क्रॉल व्याख्याता: 
आप सभी को नवीनतम ईवीएम विवाद के बारे में जानने की जरूरत है
कुछ स्थानों की रिपोर्टों ने सुझाव दिया है कि ईवीएम को सुरक्षा के उचित स्तर के बिना ले जाया जा रहा है।
स्क्रॉल व्याख्याता: आप सभी को नवीनतम ईवीएम विवाद के बारे में जानने की जरूरत है
भारत के पूर्वी राज्य, पश्चिम बंगाल में 11 अप्रैल, 2019 को अलीपुरद्वार जिले में आम चुनाव के पहले चरण की समाप्ति के बाद एक मतदान केंद्र पर एक मतदान अधिकारी ने एक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को सील किया। रायटर / रूपक डी चौधुरी
22 मई, 2019 · सुबह 09:33 बजे
रोहन वेंकटरामकृष्णन

भारत में चुनाव कराने के लिए जिन उपकरणों पर भरोसा किया जाता है, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें पिछले कुछ वर्षों से ख़बरों में हैं, क्योंकि राजनेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस बारे में सवाल उठाए हैं कि क्या उनके साथ छेड़छाड़ होने का खतरा है। गुरुवार को होने वाले वोटों की गिनती के साथ, समाचार चक्र पर यह मुद्दा हावी हो गया है, विशेष रूप से नए आरोपों के साथ कि बिना उचित सुरक्षा के ईवीएम को ले जाया जा रहा है।


ईवीएम क्या हैं?
भारतीय चुनाव वोट दर्ज करने के लिए इन कम लागत, सरल मशीनों पर निर्भर करते हैं। हालांकि दुनिया भर के बहुत कम देशों ने राष्ट्रीय चुनावों में पूरी तरह से पेपर बैलट से मशीनों में बदल दिया है, भारत में ईवीएम को पुराने सिस्टम के तहत होने वाले मतदाता धोखाधड़ी की मात्रा को कम करने का श्रेय दिया जाता है। इसे आमतौर पर "बैलट स्टफिंग" के रूप में जाना जाता था, क्योंकि ठगों ने मतदान केंद्रों पर कब्जा कर लिया, वास्तविक मतदाताओं को बाहर रखा और उनके द्वारा चुने गए उम्मीदवार के नाम के साथ बैलट पेपर को चिह्नित किया।

मशीन के तीन भाग हैं।
पहला नियंत्रण इकाई है, जो प्रत्येक बूथ पर चुनाव अधिकारी द्वारा आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक वोट को इकट्ठा और रिकॉर्ड करता है, और इसमें एक बैटरी होती है ताकि मशीन काम करने के लिए अनियमित बिजली की आपूर्ति पर निर्भर न हो। दूसरा मतपत्र इकाई है, जो कि बटन की एक श्रृंखला के साथ एक पैनल है, जिसके नाम, पार्टी के प्रतीक और इस वर्ष, उम्मीदवारों की तस्वीरें हैं।

एक बार मतदाताओं ने उम्मीदवार का बटन दबाया, एक कागज़ की पर्ची बनती है और भंडारण बॉक्स में छोड़ने से पहले सात सेकंड के लिए प्रदर्शित की जाती है। यह वोटर वेरिफ़िएबल पेपर ऑडिट ट्रेल मशीन मतदाताओं को यह जांचने की अनुमति देती है कि क्या उन्होंने जिस पार्टी को चुना था, वह उसी वोट के रूप में थी जिसे ईवीएम ने पंजीकृत किया था। बाद में, इन पर्चियों को वास्तव में ईवीएम द्वारा गिना गया वोट सुनिश्चित करने के लिए वोटों के खिलाफ ऑडिट किया जा सकता है।


सबसे महत्वपूर्ण बात, ईवीएम का कोई भी हिस्सा "नेटवर्केड" नहीं है। ये अत्यंत सरल मशीनें हैं, जैसे पॉकेट कैलकुलेटर, इंटरनेट से कोई संबंध नहीं, कोई ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं और मशीनों के भौतिक उपयोग के बिना किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता।

क्या ईवीएम को हैक किया जा सकता है?
सरल उत्तर हाँ है, क्योंकि किसी भी मशीन को हैक किया जा सकता है। लेकिन यह बहुत मुश्किल होगा। जैसा कि इस लेख में विस्तार से बताया गया है, क्योंकि ईवीएम को नेटवर्क नहीं किया जाता है, इसलिए उनके कामकाज में बदलाव करने के लिए खुद मशीनों तक पहुंच की आवश्यकता होगी। इसका मतलब है कि ईवीएम को हैक करने की कोशिश करने वाली संस्थाएं रिमोट एक्सेस का उपयोग नहीं कर सकती हैं, जैसे कि इंटरनेट के माध्यम से, और स्वयं या उनके केबल को मशीनों तक भौतिक पहुंच की आवश्यकता होगी, जबकि अधिकारियों (या अन्य पार्टी एजेंटों) द्वारा किसी का ध्यान नहीं जाना चाहिए।

वोट में हेरफेर करने का एक सरल तरीका है: किसी और के लिए बटन दबाना। चुनाव आयोग ने हरियाणा के फरीदाबाद में फिर से मतदान करने का आदेश दिया है क्योंकि मतदाताओं को मतदान करने से पहले एक भाजपा पोलिंग एजेंट के वोटिंग यूनिट तक जाने और वीडियो बटन दबाए जाने का वीडियो क्लिप सामने आया था। इस तरह की ज़बरदस्त धोखाधड़ी को आयोग के सूक्ष्म पर्यवेक्षकों और अन्य दलों के पोलिंग एजेंटों द्वारा रोका जाना चाहिए।

नवीनतम चिंता क्या है?
देश भर के कुछ स्थानों से वीडियो और रिपोर्ट में पाया गया है कि ईवीएम को दिशानिर्देशों के अनुसार सुरक्षा के उचित स्तर के बिना ले जाया जा रहा है। इससे यह आशंका पैदा हो गई है कि सत्तारूढ़ पार्टी ने उन ईवीएम को हैक नहीं किया है जिन पर लोगों ने वोट दिया था, लेकिन किसी तरह वास्तविक ईवीएम को अन्य लोगों के साथ स्वैप करने की कोशिश कर रहा है।

 हरियाणा के फतेहाबाद में ईवीएम का एक ट्रक लोड दस्तावेजों के सत्यापन के बिना स्ट्रांग रूम में घुस गया।
चुनाव आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार, जब तक कि मतगणना खत्म नहीं हो जाती है, तब तक ईवीएम (किसी भी / मजबूत कमरे के लिए) का कोई भी आंदोलन राजनीतिक दल के प्रतिनिधि की उपस्थिति में होना चाहिए

@AAPBangalore
 बिहार के सारण और महराजगंज लोकसभा क्षेत्रों में ईवीएम में गड़बड़ी से भरी एक जीप, जिसे घुमक्कड़ कमरे के पास छिपाया गया था, राजद-कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ लिया गया। इसके साथ ही सदर बीडीओ भी थे जिनका कोई जवाब नहीं है। क्या @ECISVEEP इस पर कार्रवाई करेगा?

रवि नायर
@t_d_h_nair
 यूपी का एक और ईवीएम वीडियो (झांसी से)
अधिकारियों का दावा है कि ये आरक्षित मशीनें हैं। लेकिन उनके पास कोई जवाब नहीं है कि उम्मीदवारों को ईवीएम के आंदोलन की सूचना क्यों नहीं दी गई।

शनिवार, 25 मई 2019

क्या भाजपा की जीत को ‘भारत की जीत’ कहा जा सकता है?

भारत राजनीति 
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क्या भाजपा की जीत को ‘भारत की जीत’ कहा जा सकता है? 
-सिद्धार्थ वरदराजन
May 25, 2019 |

नरेंद्र मोदी की जीत का भारत के लिए क्या अर्थ निकलता है? एक हद तक यह उन्हें और भाजपा को दावा करने का मौका देता है कि पिछले पांच सालों में उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसके प्रति जनता ने अपना विश्वास जताया है. पर क्या यह सच है?नई दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)300 सीट और 2014 में भारतीय जनता पार्टी को मिले मतों से ज्यादा मत प्रतिशत के साथ नरेंद्र मोदी के पास 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से संतुष्ट होने की तमाम वजहें हैं. किसी भी दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा वे बेहतर जानते हैं कि यह नतीजे कैसे आए हैं.अकूत धनबल के सहारे चलाए गए उनके चुनाव अभियान में बहुत होशियारी से पांच साल पहले 2014 में उनके किए गए विकास के वादों का कोई जिक्र नहीं किया गया. इसकी जगह उनका भरोसा हिंदुओं के दिमाग में मुसलमानों को लेकर भय पैदा करने और खुद को आतंकवाद को हराने में सक्षम एकमात्र भारतीय नेता के तौर पर पेश करने पर ज्यादा था.मोदी ने खुले तौर पर पुलवामा आत्मघाती हमले में शहीद हुए अर्धसैनिक बलों के जवानों का इस्तेमाल एक चुनावी हथियार के तौर पर किया और मर्यादाओं को तार-तार करते हुए उनके नाम पर वोट मांगने से भी नहीं चूके. उन्हें इस बात से भी मदद मिली कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पास इस सनकी रणनीति का कोई तोड़ नहीं था.वर्धा में मोदी ने यह दावा करते हुए खुलेआम धर्म के नाम पर हिंदू मतदाताओं से वोट मांगा कि आतंक फैलाने के आरोप में प्रज्ञा सिंह ठाकुर के खिलाफ मुकदमा चलाकर उनके धर्म को बदनाम किया गया. उन्होंने वायनाड सीट से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने का मजाक बनाया, ‘वहां अल्पसंख्यक बहुमत में है’, मानो मुस्लिम इस देश के बराबरी के नागरिक नहीं हैं. 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बढ़ते हुए प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर खड़ा कर दिया.उनकी उम्मीदवारी न सिर्फ हिंदू कट्टरता बल्कि हिंसा और मुस्लिमों के खिलाफ आतंक को बढ़ावा देने का प्रतीक था. उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रज्ञा ठाकुर का पहला बयान 2008 में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की (पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा) हत्या के समर्थन का था, क्योंकि उन्होंने उन पर (प्रज्ञा ठाकुर पर) मुस्लिमों को मारने के लिए बम रखने का आरोपी बनाया था.इसके बाद उनके द्वारा महात्मा गांधी के हत्यारे की प्रशंसा ने ऐसी शर्मिंदगी भरी स्थिति पैदा कर दी कि मोदी को उनसे दूरी बनाने की कोशिश करनी पड़ी. लेकिन मोदी ने यहां भी काफी सचेत तरीके से उस राजनीति की कोई आलोचना नहीं की, जिसकी नुमाइंदगी नाथूराम गोडसे करता था.प्रज्ञा की तरह ही उनके पास भी गांधी या उनके सिद्धांतों के लिए वक्त नहीं है; लेकिन उनकी रणनीति गांधी को हथियाने और जहां संभव हो उनका इस्तेमाल करने की है, न कि उनकी हत्या को सही ठहाने की कोशिश करने की.अगर मोदी नियमों के दायरे में रहते हुए, पूरी तरह से अपनी ‘उपलब्धियों’ और उनको लेकर जनता की धारणा और विपक्ष के नेताओं पर जनता के विश्वास के न होने पर पर भरोसा करते हुए यह चुनाव जीतते तो बात अलग होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि शायद वे जानते थे कि यह काफी नहीं होगा और अन्य बातों की भी जरूरत होगी.किसी के लिए चुनाव में भाजपा की जीत को ‘विजयी भारत’ कहना कैसे संभव है- जैसा कि मोदी चाहते हैं- जबकि इसका मतलब भोपाल से प्रज्ञा सिंह ठाकुर की जीत को ‘भारत की जीत’ के तौर पर स्वीकार करना है?भाजपा का बचाव करनेवाले अब यह अनुमान लगा रहे हैं कि मोदी अब चुनाव के आखिरी चरण से पहले की गई अपनी कोशिश से भी ज्यादा शिद्दत से प्रज्ञा ठाकुर से दूरी बनाएंगे. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.ठाकुर को भी उसी तरह से दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर कर दिया जा सकता है, जैसे प्रवीण तोगड़िया को गुजरात में किया गया था. हो सकता है कि वे मंत्री भी बन जाएं. मोदी का उद्देश्य इस देश की रगों में एक वायरस घोलने का है, एक बार उद्देश्य पूरा हो जाने के बाद व्यक्ति का कोई महत्व नहीं रह जाता है.मोदी की अचंभित कर देने वाली जीत के तीन और पहलू हैं, जिनसे हमें चिंतित होना चाहिए. पहला, धनबल का अब तक न सुना गया इस्तेमाल, जिसमें उनकी मदद उनके ही द्वारा बनाए गए कानून ने की, जो जनता को प्रधानमंत्री के धनवान और शक्तिशाली दोस्तों की पहचान जानने से रोकता है.इन कॉरपोरेट मित्रों ने ही भाजपा के बेहद खर्चीले चुनाव अभियान और विज्ञापन बजट का खर्चा उठाया. इस विज्ञापन बजट में एक 24 घंटे का प्रोपगैंडा चैनल भी था जो रहस्यमय तरीके से टीवी के पर्दे पर आया और गायब हो गया और चुनाव आयोग हाथ पर हाथ रखकर नियमों की धज्जियां उड़ते देखता रहा.चूंकि हमें यह नहीं मालूम है कि भाजपा के अभियान का खर्चा किसने उठाया था, इसलिए इसके बदले में नीतियों के रूप में क्या दिया जाएगा, यह समझ पाना मुश्किल है.दूसरी बात, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा मोदी की महापुरुष की छवि गढ़ने और उसे फैलाने में साथ देने और विभिन्न ‘योजनाओं’ के आधार पर सरकार का स्तुतिगान करने के लिए तैयार है. निजी टीवी चैनलों द्वारा मोदी और शाह की रैलियों को बाकियों की तुलना में बहुत ज्यादा समय दिया गया.इसके अलावा, पिछले पांच सालों में मीडिया के बड़े वर्ग ने भाजपा के बांटने और भटकाने वाले एजेंडा को आगे बढ़ाने, सार्वजनिक क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने और सरकार की असफल नीतियों के आलोचनात्मक मूल्यांकन को भोथरा करने में सक्रिय तरीके से मदद की है.पिछले कुछ वर्षों में मीडिया के इस धड़े ने संघ परिवार के सांप्रदायिक संदेश- ‘लव जिहाद’ से लेकर अयोध्या तक- और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भाजपा के बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावों को आगे बढ़ाने के रास्ते के तौर पर काम किया है.मंत्रियों द्वारा बोले जाने वाले सफेद झूठों- जैसे निर्मला सीतारमण का यह दावा कि मोदी के कार्यकाल में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ- पर किसी ने कोई सवाल उठाना मुनासिब नहीं समझा.पुलवामा में सुरक्षा और इंटेलिजेंस की नाकामी या बालाकोट में भारत की सवाल उठाने वाली जवाबी कार्रवाई, जिसमें भारत का एक मिग विमान मार गिराया गया, एक कैप्टन पकड़ा गया और भारतीय पक्ष द्वारा अपने ही एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया गया, जिसमें वायु सेना के छह जवान और एक आम नागरिक की मौत हो गई, को लेकर किसी ने कोई कड़ा सवाल पूछना जरूरी नहीं समझा.मीडिया के जिस धड़े ने मोदी सरकार के एजेंडा को आगे बढ़ाने का इंजन बनने से इनकार कर दिया, उसे मानहानि के मुकदमों, सीबीआई या टैक्स पड़ताल या ऐसी ही किसी कार्रवाई का सामना करना पड़ा. कई पत्रकारों और संपादकों को अपनी नौकरियों से हाथ गंवाना पड़ा.सोशल मीडिया पर, जो आलोचना का एक स्रोत है, पर एक डर का माहौल बनाने के लिए और उस पर पहरेदारी बैठाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं और दंडवत पुलिसकर्मियों द्वारा देश के साइबर कानूनों का नियमित तौर पर और गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया.तीसरा, हाल के इतिहास में इस बार चुनाव आयोग का कामकाज सबसे ज्यादा पक्षपातपूर्ण रहा. चुनाव आयोग न सिर्फ मोदी और भाजपा द्वारा जन-प्रतिनिधि कानून और आदर्श आचार संहिता के खुलेआम उल्लंघनों पर कार्रवाई करने में नाकाम रहा, बल्कि इसने कई ऐसे फैसले भी लिए, जो सीधे तौर पर पार्टी को फायदा पहुंचानेवाले थे.मसलन, पश्चिम बंगाल में कानून और व्यवस्था पर आपातकालीन संकट के आधार पर चुनाव प्रचार को पहले बंद करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 324 का इस्तेमाल, लेकिन इसकी मियाद को इस तरह से तय करना कि राज्य में प्रधानमंत्री की रैलियों में कोई व्यवधान न आए.इन सबको मिलाकर देखा जाए तो इस तरह की जीत का भारत के लिए क्या अर्थ निकलता है? एक सीमा तक यह मोदी और भाजपा को यह दावा करने का मौका देता है कि पिछले पांच वर्षों में उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसके प्रति जनता ने अपना विश्वास जताया है.ऐसे में यह देश के ज्यादा सांप्रदायीकरण, निर्णय लेने के ज्यादा केंद्रीकरण, ज्यादा मनमानेपन से भरे नीति-निर्माण, कॉरपोरेटों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ज्यादा गुंजाइश, आजाद मीडिया के प्रति ज्यादा दुश्मनी भरा भाव और निश्चित तौर पर विरोध के प्रति ज्यादा असहिष्णुता के लिए मंच तैयार करनेवाला है.मिसाल के लिए चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने राजद्रोह के लिए और ज्यादा कठोर कानून बनाने की बात की थी. यह भी साफ है कि संस्थानों के खिलाफ मोदी सरकार की लड़ाई को अब अगले स्तर पर ले जाया जाएगा.पिछले पांच वर्षों में मोदी की यथासंभव कोशिशों के बावजूद दो किले अभी तक किसी तरह से खुद को ध्वस्त होने से बचाए हुए हैं- उच्च न्यायपालिका और केंद्र-राज्य संबंध. अब ये निशाने पर होंगे. अर्थशास्त्री नितिन देसाई का अंदेशा है कि अपने नए बहुमत का इस्तेमाल मोदी राज्य के विषयों में नीतियों को ‘लागू करने’ के मामले में केंद्र को ज्यादा शक्ति देने की कोशिश करने के लिए करेंगे. वे शायद इसके लिए वित्त आयोग का इस्तेमाल करें.जहां तक न्यायपालिका का सवाल है, यह तय है कि भाजपा नियुक्तियों पर प्रभाव डालकर इस पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करेगी. इस विनाशकारी एजेंडा के खिलाफ विपक्ष का अनमने ढंग से चलाया जाना अभियान कारगर नहीं होगा.अमित शाह ने जिस चुनावी मशीन को तैयार किया है, उससे रणनीतिक स्तर पर जाति आधारित या दल आधारित गठजोड़ों के सहारे नहीं लड़ा जा सकता. भाजपा की रणनीति जातिगत वफादारियों को तोड़ना और सभी जातियों के सदस्यों को ‘हिंदू’ में बदल देने की है.पहले की मंडल राजनीति अपने चतुर जाति समीकरणों के बल पर इस कमंडल राजनीति को रोकने में कामयाब रही थी, लेकिन आज यह संभव नहीं है. अगर भाजपा मतदाताओं को हिंदू (और मुसलमान) के तौर पर देखती है, तो शायद विपक्ष को उन्हें उनके भीतर के कामगार या स्त्री या किसान या युवा के तौर पर के तौर पर संबोधित करना होगा. लेकिन यह बहस किसी और दिन के लिए सही.
(साभार दि वायर हिंदी से)

इस आलेख के साथ कुछ और आलेख संलग्न करा रहे हैं जो "नवजीवन" से लिए गए हैं। 













रविवार, 21 अप्रैल 2019

बहुजन राजनीति और बहुजन समाज पार्टी की आर्थिक संरचना ।


इस बात को समझने के लिये हमें अलग अलग वैचारिक आलेखों का अध्ययन ही स्पष्ट करेगा ?

दुसाध की अपील 
बेगुसराय से कन्हैया को ख़ारिज कर तनवीर साहब को ही संसद में भेंजे! 
                                          -एच.एल दुसाध
डियर सर/मैडम , 
संयोग से कल बेगुसराय के जिस भूमिहार लौंडे के पीछे वर्षों से एनजीओ और प्रगतिशील गैंग दीवाना है, उससे जुड़ा मेरा 3 साल पुराना एक पोस्ट दिख गया, जिसे मैंने यह सोचकर अपनी टाइमलाइन पर शेयर कर दिया कि 17 वीं लोकसभा के निर्णायक चुनाव में लोगों को उसे जानने-समझने तथा उसपर राय बनाने के लिए कुछ नयी सामग्री मिल जाएगी. खैर !अपनी टाइम लाइन पर डालने के बाद मैं एक खास आर्टिकल लिखने में व्यस्त हो गया.  
पिछले पांच-छह महीनों से सिगरेट छोड़ने के बाद लिखने के लिए कंसेन्ट्रेशन बनाने हेतु मैंने टीवी का सहारा लेना शुरू किया है. अब मैं लो वॉल्यूम में टीवी चलाकर लिखता हूँ. लिखते-लिखते मैं टीवी स्क्रीन पर नजर दौड़ा लेता हूँ.इससे विषय पर कांसेंट्रेट करने में सहूलियत होती है. बहरहाल आज भी लो वॉल्यूम में टीवी चलाकर एक आर्टिकल लिख रहा था कि अचानक मेरी नजर एक जाने-पहचाने दृश्य पर टिक गयी. वह दृश्य कल टीवी पर देखा था. इसी दृश्य को देखकर कल मैंने फेसबुक दो पोस्ट डाला था.एक,’भूमिहार लौंडे के गाँव में उसका मीडिया फादर,देखे मजा आएगा!’ दूसरा,’watch battle of begusarai through eye of rubbish !’.जी हाँ,आपने सही पकड़ा. वह दृश्य कल कन्हैया की गरीबी को राष्ट्र के समक्ष लाने के रबिश कुमार के उपक्रम से जुड़ा था. गोदी मीडिया के आविष्कारक रबिश कुमार ने कल बेगुसराय पहुंचकर जिस तरह भूमिहार लौंडे को हाईलाइट किया, वह देखकर मैं चकित था. उसके अभियान का मजा लेने के लिए कल शायद आधा घंटा लगातार एनडीटीवी देखता रहा. लेकिन आज जो देखा शायद कल नहीं देख पाया.

कन्हैया से मोहित : बड़े-बड़े बहुजन लेखक और एक्टिविस्ट !

आज रबिश ने उसके चुनावी राजनीति में उतरने का मकसद जानने के लिए उससे कुछ सवाल किये थे. जिसके जवाब में उसने जो कुछ कहा था, उसका अर्थ यह था कि वह संसद में पहुंचकर मोदी की आंख में आँख डालकर सवाल करेगा. वह पूछना चाहेगा कि देश में इतने बेरोजगार लोग क्यों हैं..आदि आदि? मुझे ऐसा लगा यह प्रोजेक्टेड सवाल था. रबिश उसके मुंह से वह कहलवाकर सन्देश देना चाहता था कि लोगों देखो आपके बीच एक ऐसा नौजवान है जो मोदी से सवाल कर सकता है अर्थात इस देश में मोदी से सवाल करने की कूवत और किसी में नहीं है. यह एक अजीब संयोग है कि बेगुसराय के लौंडे की हिमायत करने वाले असंख्य लोगों का यही तर्क है कि वह मोदी की आंख में आँख डालकर सवाल कर सकता है.ऐसा तर्क देने वालों में बहुजन समाज के बड़े-बड़े स्वनाम-धन्य लेखक से लेकर एक्टिविस्ट तक शामिल हैं. बहरहाल अगर लोगों के जेहन में उसकी यह छवि बनी है तो निश्चय उसमें सबसे बड़ा योगदान रबिश का है.

आम भारतीयों की नजर में : भाषणबाजी कर सकने वाला ही नेता!  

मेरा बहुत ही गहरा अध्ययन है कि भारत में जो लोग खुलकर भाषण दे लेते हैं, लोग उनको नेता मान लेते हैं. लोगों के ऐसा मानने से बकैती करने वाला भी खुद को नेता मानने लगता है. बेगुसराय  के लौंडे के साथ भी यही सुखद संयोग है. मैं शायद पहला वह व्यक्ति हूँ जिसने इस लड़के और इसके गॉडफादर रबिश को लेकर तीन साल पहले से ही सवाल उठाना शुरू किया. मैंने शायद पचासों बार फेसबुक पर उसके समर्थकों को ललकारा कि देश की बुनियादी समस्यायों पर उसकी राय क्या है, बताएं ? पर,कोई भी सामने नहीं आया. मेरी धारणा थी कि यह लौंडा, जो जेएनयू से पीएचडी होल्डर है, कभी कोई आलेख लिखेगा तो जान पाऊंगा सामाजिक परिवर्तन एवं गुलामी से आजादी पर उसकी राय जान पाऊंगा. पर मुझे ताज्जुब है इसका कोई लेख आजतक पढने को नहीं मिला,जिससे पता चले कि देश की बेसिक समस्यायों को लेकर उसकी राय क्या है? अब जहाँ तक उसकी भाषणबाजी का सवाल है, मैंने नोट किया है कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी देश के जिन तीन युवाओं में भगत सिंह की छवि देखते हैं, वे तीनो - कन्हैया, उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी- अपने सतही भाषणों से यदि कुछ किये हैं, तो सिर्फ और सिर्फ हिन्दू ध्रुवीकरण! इसलिए दुसाध बेगुसराय के लौंडे के साथ उमर और जिग्नेश को कभी गंभीरता से नहीं लिया. इन तीनो लौंडों के साथ मैंने इनके मीडिया फादर ,रवीश को भी इनके ही जैसा पाया. 

रबिश : सोशलाईट ब्राह्मण ! 

मैंने रवीश को लेकर भी पचासों बार सवाल उठाये, किन्तु कोई भी मुझे भ्रांत प्रमाणित नहीं कर पाया: रवीश को लेकर उठाये गए मेरे हर सवाल का समर्थन करने के लिए लोग विवश रहे .किसी ज़माने में ‘दलित व्वाईस ’ के संपादक वी.टी. राजशेखर कहा करते थे,’बहुजनों के लिए सोशलाईट ब्राह्मण की तुलना में कट्टर ब्राह्मण कम खतरनाक होता है.’ रबीश खतरनाक ब्राह्मणों की श्रेणी में आता है.

मोदी की आँख में आंख डालकर कन्हैया क्या उखाड़ लेगा!

कन्हैया के भक्त उसमे भगत सिंह की छवि देखते है./क्या दक्षिण अफ्रीका की आर्थिक-सामाजिक हालात पर पीएचडी करने वाले इक्कीसवीं सदी के भगत सिंह ने यह बताया कि दक्षिण अफ्रीका में भारत के सवर्णों सादृश्य जिन गोरों का वहां शक्ति के स्रोतों-आर्थिक,राजनीतिक, धार्मिक और शैक्षिक -80-90 प्रतिशत कब्ज़ा रहा, उन्हें मंडेला के लोगों ने तानाशाही सत्ता के जोर से इस हालात में पहुंचा दिया है कि गोरे अब दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भागने लगे हैं! इक्कीसवीं सदी के इस भगत सिंह ने क्या कभी यही बताया कि दक्षिण अफ्रीका के संसद ने वर्ष 2018 के फरवरी में एक निर्णय लेकर जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का भूमि पर 72 प्रतिशत कब्ज़ा था, उसे बिना मुवावजा दिए मूलनिवासियों के मध्य बांटने का काम अंजाम दे दिया है? क्या कन्हैया ने कभी यह बताया कि दक्षिण अफ्रीका के गोरों जैसे अल्पजन सवर्णों ने धर्म और ज्ञान सत्ता के साथ अर्थ और राज-सत्ता पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा जमा कर भारत में विषमता का बेनजीर साम्राज्य कायम कर दिया है और सांसद बनकर वह इसके खिलाफ संग्राम चलाएगा? नहीं ! अतः जो कन्हैया सांसद बनकर जैकब जुमा की भांति जन्मजात शोषकों(सवर्णों) के खिलाफ संग्राम चला

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...