सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है ।

 यह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है । इसको समेटने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना पड़ेगा----

 1. पहली बात तो यह है कि कुछ आखिर इस तरह के बहुजन विमर्श की आवश्यकता क्या है जिसमें कुछ गिने चुने लोगों द्वारा अपने ज्ञान और अनुभव को आपस में ही साझा कर लिया जाता है,?
2. इस तरह के हमारे बौद्धिक विमर्श से आमजन को क्या मिल रहा है या क्या मिलने वाला है?
3. हम किन समस्याओं को चिन्हित किए हुए हैं जिसके लिए हम यह विमर्श कर रहे हैं,,?
4. इस तरह का विमर्श किस प्रकार से निचले स्तर तक जा पाएगा? इसकी क्या व्यवस्था  होनी चाहिए?
5. बहुजन विमर्श के लिए भारत के उन तमाम बहुजन लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम ज़रूरी है जिसमें कि आज हज़ारों-हज़ार जातियां हैं। हर जाति का अलग रीति रिवाज खानपान मान्यता तथा हिंदू वर्ण व्यवस्था में उसके पायदान की अलग सीढ़ी तय है जिसके कारण जिन लोगों को हम बहुजन समझते हैं उनके भीतर ही ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, श्रेष्ठ-हीन का भाव बना हुआ है।इस समस्या का निदान क्या होना चाहिए?
6.बहुजनों में आपसी भेद-भाव सामाजिक कारणों से अधिक किन्तु इससे आगे बढ़कर कुछ आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक कारण भी हैं जिसके कारण ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब तथा श्रेष्ठ-हीन का भाव स्थायित्व पाये हुए है, इसे दूर करने के लिए हमारे पास क्या ठोस कार्यक्रम हैं ?
    यह सत्य है कि समाज में एका तभी हो सकता है जब इसके तमाम लोग एक साझा (कामन) धरातल या प्लेटफार्म पर आएं । यह प्लेटफार्म आपस में बराबरी के व्यहार की मांग करता है। यह बराबरी-- सामाजिक बराबरी, आर्थिक बराबरी, राजनैतिक बराबरी तथा धार्मिक बराबरी के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जो ग़ैर बराबरी अभी तक क़ायम है इसे मिटाकर समानता क़ायम करने के लिए भी बहुजन विमर्श की आवश्यकता है ताकि आम लोगों के बीच जाकर के--- चाहे वह भाषणों के माध्यम से, चाहे वह साहित्य के माध्यम से, चाहे वह अन्य किसी भी माध्यम से हो --लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात डालनी पड़ेगी कि--- *)बहुजन में जितनी भी जातियां हैं उन सब में प्राकृतिक रूप से एक ही पुरखों की वंशावली है।
**) दूसरी बात यह है कि अल्पसंख्यक दलित बहुजन सभी लोग एक ही दुश्मन ब्राह्मणवाद के सताए हुए हैं जिसने उनकी मान,मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत सब कुछ छीन कर उन्हें पशु के समान जीने के लिए मजबूर कर दिया है।
    भारत में जात की सच्चाई है और इस सच्चाई को नजरअंदाज करके हम कोई भी पॉलिसी नियम या रणनीति बनाएंगे तो उसके सफल होने की न्यूनतम संभावना है। यह सच है कि बहुजन जातियों में भी मुख्य तक चार वर्ग शामिल हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा अन्य पिछड़ा वर्ग। 
#अनुसूचित जातियों में मुख्यतः वे जातियां शामिल की गई हैं जो सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक एवं राजनैतिक रूप से अछूत(inseeable, unapproachable, untouchable) तथा बहिष्कृत हैं।
 #अनुसूचित जनजातियों में वे जातियां शामिल की गई हैं जो जंगलों में निवास करती रही है तथा जो सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से मुख्य धारा से बाहर रही हैं। वे मूल रूप से किसी धर्म में आवाज नहीं है तथा प्रकृति पूजा के रूप में उनकी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक परंपराएं हैं। उनका समाज के साथ कोई सीधा संपर्क या वार्तालाप नहीं रहा है इसलिए उनके प्रति कोई ऐतिहासिक अछूत पंखा इतिहास नहीं है किंतु फिर भी उन्हें मुख्य समाज अपने साथ संपर्क में लाने के लिए प्रायः तैयार नहीं होता तथा वे भी किंचित भेदभाव के शिकार हैं। 
# धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग जिसमें मुख्यतः मुसलमान, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्ध शामिल हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक भेदभाव होता रहा है तथा यह वर्ग भी प्रधानतया  दलित पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के फुल शुरू फलस्वरूप निर्मित हुआ है अतः इनमें भी शिक्षा रोजगार आदि की कमी रही है। मुख्यतः इस्लाम धर्म के अनुयायियों में शैक्षणिक आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन लगभग उसी प्रकार से हावी है किस प्रकार से यह अनुसूचित जातियों में है, अंतर केवल इतना ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव न होकर धार्मिक भेदभाव होता है। 
#चौथा वर्ग- अन्य पिछड़ा वर्ग का है जिसमें बहुत सारी जातियां हैं तथा उनमें भी श्रेणीगत विभाजन के कारण श्रेष्ठता का सीढ़ीदार विभाजन है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन चार वर्गों का आपस में किस प्रकार संलयन किया जाए जिससे एक ऐसी शक्ति पैदा की जा सके जो पैदाइशी रूप से शासक कही जाने वाली जातियों के उन अधिकारों को चुनौती दे सके जिसके चलते हुए हमेशा शासक बने रहने का दावा करते हैं तथा वे बहुधा इसमें अभी तक सफल भी हैं।
  तात्कालिक रूप से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अनुसूचित जनजातियों के समाज से दूर वनांचल में बसे होने के कारण उनके साथ अनुसूचित जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों का भी सीधा सामाजिक संबंध नहीं के बराबर रहा है अतः उनके साथ कई मामलों में सामाजिक संलयन की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भी सामाजिक संलयन की प्रक्रिया का अभी कुछ कारगर उपाय तय किया जाना बाकी है।
        अत: फौरी तौर पर अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग जो अलग-अलग; कुछ दूरी बनाकर, रहते हुए भी समाज में कहीं न कहीं एक साथ उपस्थित होते रहे हैं तथा उनका आपस में संवाद भी होता रहा है क्योंकि इन दोनों वर्गों को हिंदू बाड़े में रखा गया है इसलिए उसके बहाने भी लंबे समय से इनके अंदर हिंदुत्व की एकता का मोह पैदा किया गया है जिसके कारण भी इनमें दूरियां कम हुई हैं। अतः यह दोनों वर्ग सामाजिक,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से एक साथ घुलने-मिलने के लिए ज़्यादा अनुकूल एवं मुफ़ीद प्रतीत होते हैं।
हां यह एक कठोर सच्चाई है की अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदू वर्ण व्यवस्था की चौथे वर्ण के रूप में अर्थात शुद्र वर्ण के रूप में पहचाना गया है किंतु अनुसूचित जाति समूह हिंदू वर्ण व्यवस्था के किसी पायदान  पर नहीं है अर्थात वह वर्ण व्यवस्था के बाहर है जिसे हम पारंपरिक रूप से ग़ैर हिंदू भी कह सकते हैं। यह वह वर्ग है जिसने ब्राह्मण धर्म के बदले हुए नाम हिंदू धर्म के साथ भी नहीं जुड़ सका जिसके कारण उसे बहिष्कृत ही रखा गया ।         जानने योग्य है कि ईशा के लगभग 600 साल पहले बौद्ध जीवन मार्ग के लोकप्रिय होने के बाद अनुसूचित जाति के  ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने हुए बौद्ध के जीवन मार्ग को ही अपनाया तथा उन्होंने हिंदू जैसे छद्म धर्म को अस्वीकार किया जिसके कारण ब्राह्मण धर्म ने बहिष्कृत तथा अछूत क़रार कर दिया । इसका ख़मियाज़ा वे आज तक भुगत रहे हैं। सनातन हड़प्पा संस्कृति को अपने गले से लगाए हुए इस वर्ग ने दुनिया भी धर्म को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह हिंदू धर्म के नए संस्करण के बाद भी वह प्राय: इससे अलग-थलग ही रहा। 
   अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है तथा जो जनसंख्या में भारत की कुल जनसंख्या का 50% से अधिक है। यह दूसरा वर्ग जो कि हिंदू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा गया है तथा जिसे सेवा करने के लिए ही मनु के क़ानून द्वारा विहित किया गया है, वह क्योंकि सवर्णों के साथ लगातार उनके कार्यकलापों में सहयोगी है इसलिए वह उन्हें(उच्च वर्णीयों को) छू सकता है- उसके छूने से किसी तरह का पाप या दोष नहीं लगता बताया गया है इसलिए वह सछूत  है। 
     इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच जो बड़ी सामाजिक खाई है वह यही है की अन्य पिछड़ा वर्ग सछूत है तथा अनुसूचित जाति अछूत। इस कारण भी लंबे समय तक अन्य पिछड़ा वर्ग अपने को हिंदू वर्ण व्यवस्था का अंग होने के कारण अनुसूचित जाति के लोगों से अपने को श्रेष्ठ कहकर उन्हें अछूतपन का शिकार बनाने के लिए ख़ुद को वैध मानता रहा है। इस प्रकार इन उत्पीड़क कार्यों के लिए उसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के अन्य तीन वर्णों का भीअनुमोदन एवं समर्थन प्राप्त होता रहा है । यही कारण है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को हथियार बनाकर हिंदू ब्राह्मणी सवर्ण व्यवस्था ने लगातार बहिष्कृत अंत्यज अनुसूचित जातियों पर तरह तरह के ज़ुल्म ढाए हैं । इस प्रकार अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच लंबे समय से आपसी रंजिश तथा दुश्मनी का वातावरण भी इसी ब्राह्मणी व्यवस्था ने तैयार कराया है। अतः इस खाई को पाटने के कारगर उपाय भी सोचे जाने चाहिए।
      इन दोनों वर्गों में जो एकता के मजबूत बंधन हो सकते हैं वह यही कि यह दोनों वर्ग ही ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा सताए गए वर्ग हैं । यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि मनु का सारा निषेधक कानून इन्हीं शूद्रों,स्त्रियों तथा अन्त्यज जनों के लिए है ।अतः इस दृष्टिकोण से देखने से यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों ही वर्गों को ब्राह्मणी व्यवस्था की नज़र में एक ही तरह का ट्रीटमेंट तथा व्यवहार दिया गया है केवल अपनी सुविधा के लिए एक को छूने योग्य बना दिया है तथा दूसरे को जो अधिक विद्रोही तथा नकारा है उसे अछूत बनाकर उसके साथ सारे कार्य व्यापार बंद कर दिया है। 
    यही दोनों के बीच एक साझा या कामन प्लेटफार्म बनाने वाली चीजें हैं। इसी प्लेटफार्म पर होकर इसका साझा शत्रु से लड़ाई के लिए एकता को मज़बूत किया जा सकता। यही नहीं बल्कि रोज़ी-रोटी, जीविकोपार्जन एवं मान-सम्मान के लिए भी दोनों के साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद को पराजित करना ज़रूरी है । अतः इसमें दोनों ही लोगों के स्वार्थ जुड़े हुएहैं। जब किन्हीं रूपों में भी  लोगों के स्वार्थ आपस में जुड़े हुए होते हैं तब ही आपस में एकता स्थापित होती है। इसीलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के शूद्र तथा हिंदू व्यवस्था के बाहर की अनुसूचित जातियों  के बीच प्राकृतिक रूप से एकता स्थापित होने के कुछ कुदरती उपादान पहले से ही उपलब्ध हैं, बस हमें उनका इस्तेमाल करना है। यह सच है कि शूद्र जातियां भी ब्राह्मणवाद के इशारे पर आपस में ही नहीं लड़ती रही हैं बल्कि वे एक दूसरे को भी उसी नज़र से देखती रही हैं जिस नज़र से देखना ब्राह्मणवाद ने उन्हें सिखाया है ।इसलिए उनके बीच में आपस में हज़ारों साल की वैमनस्यता भी है किंतु सबसे सुखद बात यह है कि इस तरह की वैमनष्यता ज़्यादा तर आर्थिक कारणों से ही रही है सामाजिक कारण इसमें बहुत ही कम रहे हैं। गांव में प्राय: देखा गया है कि दोनों लोगों का आपस में उठना-बैठना,प्रेम-व्यवहार तो बहुत दिनों से चलता आ रहा है ,एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी भी चलती आ रही है। लेकिन खानपान शादी-ब्या के मामले में अभी भी लोग अलग-अलग ही हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शूद्रों द्वारा पुराने कुटुम्ब भाइयों (अनुसूचित जातियों) के साथ छुआछूत का व्यवहार केवल इसलिए बरता जाता रहा है कि इससे उनके मालिक सवर्ण संतुष्ट रहें अन्यथा वे इस जुर्म में;कि वे बहिष्कृतों को छूते हैं, उन्हें भी अछूत बना सकते हैं। 
     आज ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के बीच आपसी समझ तथा ताल-मेल कायम हो, साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि इनके अंदर विद्यमान उप जातियों के बीच भी सौहार्द तथा एकता पैदा की जाए।यही नहीं इनके अंदर विद्यमान बहुत सी जातियां हैं जिनका आपस में भी खान शादी ब्याह नहीं होता है इसी प्रकार से सछूत शूद्रों में भी कई जातियां हैं जिनका आपस में शादी विवाह नहीं होता है, इस प्रकार हमें पूरे बहुजन को एक साथ लाने के लिए कम से कम एक कामन प्लेटफार्म एक कामन उद्देश्य  के लिए कुछ सांस्कृतिक परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी ।
    सबसे पहली समस्या तो यह कि जिस ब्राह्मणवाद से हम लड़ने चल रहे हैं उस ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा हथियार है वह है- वर्ण धर्म-- जिसके कारण उसने भारतीय समाज को जातियों में तोड़ा है तथा उनको अपने स्वार्थ, अपने फ़ायदे के लिए किसी टूल की तरह से इस्तेमाल करता रहा है। हमें लड़ना ज़रूरी है । इस लड़ाई में हमारी एकता भी साबित होगी और हमारा जो सांस्कृतिक परिवर्तन है वह भी नज़र आए यह ज़रूरी है। लड़ाई के अपने रणनीति बनाकर बनाकर चलें । इस रणनीति में जब तक हिंदूवर्ण व्यवस्था को समाप्त करने पर या हिंदू वर्ण व्यवस्था से अलग होने पर हम ठोस कार्यवाही नहीं करेंगे तब तक हमारी किसी भी तरह की विजय संदेहास्पद है। वर्णाश्रम का अर्थ है हिंदू धर्म अर्थात हमें सीधे टक्कर हिंदू धर्म से लेनी पड़ेगी। वास्तव में यह हिंदू धर्म कुछ भी नहीं है, यह ब्राह्मण धर्म ही है जो हिंदू नाम देकर ग़ैर ब्राह्मणों को ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनाने का एक महामंत्र बनाया गया है। इसलिए हमें इस ब्राह्मण धर्म के ख़िलाफ़ तुरंत लाम बंद होने की ज़रूरत है तथा ब्राह्मण धर्म द्वारा बताए-सुझाए गए धार्मिक कृत्यों जिसमें दान, पूजा,यज्ञ, हवन,तीर्थ,व्रत कथा वार्ता,भागवत-रामायण आदि शामिल हैं- इन को चुनौती देनी होगी। लोगों को संदेह है कि आख़िर हम यह सब एकाएक कैसे छोड़ सकते हैं? इसके लिए मेरा यही कहना है कि इसके बीच का कोई रास्ता नहीं है। या तो हम इसे छोड़ें या इसे गले से लगाए रहें। हिंदू धर्म में सुधार करने की प्रयास लगभग 1000 वर्षों में बार-बार हुए हैं तथा हज़ारों-लाखों लोगों ने इसे सुधारने-संवारने का प्रयास किया है किंतु सब कुछ व्यर्थ गया। इसलिए यह उम्मीद करना कि हम हिंदू धर्म को सुधार कर अपने लायक बना लेंगे, यह एक दिवास्वप्न है। बीच का रास्ता जो मुझे समझ आता है वह यही है की किसी भी तरह के कर्मकांड किसी भी तरह हिन्दू ब्राह्मणी रीति से शादी- व्याह आदि ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ेगी तथा इनका परित्याग करना पड़ेगा। तो फिर इसका हमें विकल्प भी देना पड़ेगा। इस विकल्प के रूप में हमें तीज त्यौहारों तथा शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों पर भी विचार करना पड़ेगा क्योंकि भारत की ग्रामीण परंपरावादी जनता बिना धर्म के नहीं रह सकती है। इसलिए उन्हें एक धर्म देने की भी ज़रुरत होगी। लेकिन कोई नया धर्म स्वीकार करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हम पुराने ओ वैज्ञानिक अंधविश्वासी विचारों तथा परंपराओं को त्याग दें तथा अपने हड़प्पाई सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीने का रास्ता बनाएं।

रविवार, 24 नवंबर 2024

बी एस पी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति Date : 24-11-2024




बी एस पी  द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति Date : 24-11-2024

(1) सुश्री मायावती जी की प्रेसवार्ता यह आमचर्चा है कि पहले देश में बैलेट पेपर के जरिये चुनाव जीतने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करके फर्जी वोट डाले जाते थे और अब ईवीएम के जरिये भी यही कार्य किया जा रहा है जो लोकतन्त्र के लिए बड़े दुःख व चिन्ता की बात। 
(2) इस बार महाराष्ट्र में विधानसभा के हुये आमचुनाव में भी इसको लेकर काफी आवाजें उठाई जा रही हैं.यह अपने देश में यहाँ लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ी खतरे की घन्टी भी है।
(3) देश में लोकसभा व राज्यों में विधानसभा आमचुनाव के साथ-साथ ख़ासकर उपचुनावों में तो अब यह कार्य काफी खुलकर किया जा रहा है और इसीलिए जब तक देश में फर्जी वोटों को डालने से रोकने के लिए केन्द्रीय चुनाव आयोग कोई सख्त कदम नहीं उठाता है तब तक बी.एस.पी. देश में अब कोई भी उपचुनाव नहीं लड़ेगी।
(4) साथ ही, कांग्रेस, बीजेपी व इनकी समर्थक सभी जातिवादी पार्टियों ने खासकर सन् 2007 में बी.एस.पी. की यू.पी. में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद, बी.एस.पी. को केन्द्र की सत्ता में आकर डा. भीमराव अम्बेडकर व इनके अनुयायी मान्यवर श्री कांशीराम जी का अधूरा रहा सपना साकार करने से रोकने के लिए अन्दर अन्दर आपस में मिलकर व पर्दे के पीछे से विशेषकर दलित समाज में से बिकाऊ व स्वार्थी किस्म के लोगों के जरिये अनेकों पार्टियाँ बनवा दी है जिनको चलाने एवं चुनाव लड़ाने आदि पर पूरा धन इन्हीं ही पार्टियो का लगता है, तभी ये पार्टियाँ कई-कई दर्जन गाड़ियों को साथ में लेकर चलती हैं और अब तो ये हेलिकोप्टर/प्लेन से चुनावी दौरा भी करते हैं यह भी आमचर्चा है ताकि दलित समाज के वोटों की शक्ति को खण्डित करके बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के कारवाँ को क्षति पहुँचाया जा सके।
(5) और अब तो ये विरोधी जातिवादी पार्टियाँ अपना खुद का भी वोट ट्रांसफर करवाके इनके हर राज्य में एक/दो सांसद व विधायक भी जितवा कर भेज रही हैं, जिस घातक प्रवृति को एससी, एसटी, ओबीसी व अकलियतों को आपस में मिलकर रोकना जरूरी, यही समय की माँग और 'सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय' के लिए इसकी ख़ास ज़रूरत भी है।
(6) इसके अलावा, कल यू.पी. में उपचुनाव के आये अप्रत्याशित नतीजों के बाद से ख़ासकर सम्भल ज़िला सहित पूरे मुरादाबाद मण्डल में काफी तनाव की स्थिति व्याप्त। ऐसे में शासन व प्रशासन को सम्भल में मस्जिद व मन्दिर विवाद को लेकर सर्वे कराने का कार्य थोड़ा आगे बढ़ाना चाहिये था तो यह बेहतर होता, लेकिन ऐसा ना करके आज वहाँ सर्वे के दौरान् जो कुछ भी हिंसा व बवाल हुआ है तो उसके लिए यू.पी. का शासन व प्रशासन पूरी तरह से जिम्मेवार है, यह अति-निन्दनीय है बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व सांसद सुश्री मायावती जी की प्रेसवार्ता। लखनऊ, 24 नवम्बर 2024, रविवार बहुजन समाज पार्टी (बी.एस.पी) की राष्ट्रीय अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व सांसद सुश्री मायावती जी ने आज यहाँ मीडिया को सम्बोधित करते हुए कहा कि : मीडिया को मैं यह अवगत कराना चाहती हूँ कि यू.पी. में 9 वि.सभा की सीटों पर हुये उपचुनाव में इस बार जो वोट पड़े है और उसके बाद, जो कल नतीजे आये हैं तो उसको लेकर अब यह आमचर्चा है कि यह मैं नहीं कह रही हूँ बल्किी यह लोगों में आमचर्चा है। पहले देश में बैलेट पेपर के जरिये चुनाव जीतने के लिए, सत्ता का दुरूउपयोग करके फर्जी वोट डाले जाते थे। और अब तो E.V.M. के जरिये भी यह कार्य किया जा रहा है। जो लोकतन्त्र के लिए बड़े दुःख व चिन्ता की बात है। इतना ही नहीं बल्किी देश में लोकसभा व राज्यों में विधानसभा आमचुनाव के साथ-साथ खासकर उपचुनावों में तो अब यह कार्य काफी खुलकर किया जा रहा है। और यह सब हमें हाल ही में हुये यू.पी. के उपचुनाव में काफी कुछ देखने के लिए मिला है। और इस बार, महाराष्ट्र स्टेट में वि.सभा के हुये आमचुनाव में भी. इसको लेकर काफी आवाजें उठाई जा रही हैं। यह अपने देश में, यहाँ लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ी खतरे की घन्टी भी है।
ऐसी स्थिति में अब हमारी पार्टी ने यह फैसला लिया है कि जब तक देश में फर्जी वोटों को डालने से रोकने के लिए केन्द्रीय चुनाव आयोग द्वारा कोई सख्त कदम नहीं उठाये जाते है। तो तब तक हमारी पार्टी देश में खासकर अब कोई भी उपचुनाव नहीं लड़ेगी। यहाँ मैं केवल उपचुनाव की बात कर रही हूँ। जबकि आमचुनाव में अर्थात् जब जनरल इलेक्शन होते तो तब इस मामले में थोड़ा बचाव जरूर हो जाता है क्योंकि इनका अर्थात् सरकारी मशीनरी का सत्ता परिवर्तन के डर की वजय से अर्थात् जो पार्टी पावर में होती है जरूरी नहीं की वो पार्टी पावर में फिर से लौट के आ जाये दूसरी पार्टी भी आ सकती है तो फिर यह सोचकर सरकारी मशीनरी थोड़ा घबराती व डरती भी है साथ ही आमचुनाव में इनका जनता पर कोई ज्यादा दबाव एवं डर आदि नहीं होता है। जिसे खास ध्यान में रखकर ही हमारी पार्टी देश में लोकसभा व राज्यों में विधानसभा के आमचुनाव तथा स्थानीय निकायों आदि के भी चुनाव पूरी तैयारी भी व दमदारी के साथ ही लड़ेगी।
इसके साथ ही यहाँ मैं यह भी कहना चाहती हूँ कि यू.पी. में सन् 2007 में बी.एस.पी. की अकेले ही पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद से कांग्रेस, बीजेपी व इनकी समर्थक सभी जातिवादी पार्टियाँ यह सोचकर काफी घबराने लगी थी कि यदि BSP केन्द्र की सत्ता में आ गई तो फिर बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर का व इनके अनुयायी मान्यवर श्री कांशीराम जी का अधूरा रहा सपना जरूर साकार हो जायेगा। जिसे रोकने के लिए, फिर ये जो जातिवादी पार्टियाँ है अर्थात् कांग्रेस व बीजेपी एण्ड कम्पनी के लोग है इन्होंने अन्दर अन्दर आपस में मिलकर व पर्दे के पीछे से खासकर दलित समाज में से बिकाऊ व स्वार्थी किस्म के लोगों के जरिये अब अनेकों पार्टियाँ बनवा दी है जिनको चलाने व चुनाव लड़ाने आदि पर पूरा धन इन्हीं ही पार्टियो का लगता है। तभी ये पार्टियाँ कई-कई दर्जन गाड़ियों को साथ में लेकर चलती है। और अब तों ये हेलिकोप्टर व प्लेन से भी चुनावी दौरा करते हैं। ऐसी लोगों में यह आमचर्चा है। जबकि हमारी पार्टी बी.एस.पी. इसके लिए पार्टी के लोगों से BSP सदस्यता आदि के जरिये अपना खर्चा खुद उठाती है।
यहाँ यह भी गम्भीरता से सोचने की बात है। और इतना ही नहीं बल्किी फिर ये विरोधी पार्टियाँ अपने राजनैतिक लाभ के लिए उनके हिसाब से उनसे उम्मीद्वार खड़े करवाके अब बी.एस.पी. को कमजोर करने में लगी है। इसके साथ ही अब तो इन बिकाऊ व स्वार्थियों को मजबूती देने के लिए अब ये विरोधी पार्टियाँ, अपना खुद का भी वोट Transfer करवाके इनके हर राज्य में एक/दो MP व MLA भी जितवा कर भेज रही हैं। इसलिए ऐसी सभी चिकाऊ व स्वार्थीयों की पार्टियों को अब अपने भोले-भाले दलितों, आदिवासियों अन्य पिछड़े वर्गों व अकलियतों को भी
अपना एक भी वोट देकर खराब नहीं करना है और यह सब हमें अभी हाल ही में हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड के हुये वि. राभा आमचुनाव के साथ-साथ, उ.प्र. में भी 9 वि. राभा की सीटों पर हुये उपचुनाव में काफी कुछ देखने के लिए मिला है।
ऐसे में अब इन सभी वर्गों के लोगों को इन्हें जाति, बिरादरी, रिश्तेनातों, यार-दोस्तों आदि के भी चक्कर में ना पड़कर अपना वोट ऐसी किसी भी पार्टी को नहीं देना है। बल्किी अपनी एकमात्र हितेषी पार्टी बी.एस.पी. को ही अपना वोट देना है, जिसकी नीतियों व कार्यशैली आदि को यू.पी. में इन्होंने अर्थात् वीकर सक्शन के लोगों के साथ-साथ अन्य समाज के लोगों ने भी, यानि की सर्वसमाज के लोगों ने BSP के नेतृत्व में चार बार बनी सरकार में काफी कुछ आजमाया है।
इसके साथ-साथ इन सभी वर्गों के लोगों को अब पुनः सत्ता में आने के लिए विरोधी पार्टियों की इन सभी साजिशों से हमेशा सावधान रहना है और आपस में भाईचारा पैदा करके, अपनी पार्टी बी.एस.पी. को ही हर मामले में जरूर मजबूत बनाना है तथा इनकी इन सभी साजिशों से हमेशा सावधान भी रहना है। वर्तमान में समय की यही मांग है। और सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय के लिए इसकी यह खास जरूरत भी है।
और अब मैं विरोधियों की इन सभी साजिशों के बीच अपनी पार्टी के लोगों ने अपने उम्मीद्वारों को महाराष्ट्र व झारखण्ड स्टेट में तथा खासकर उत्तर प्रदेश में भी 9 वि. सभा की सीटों पर हुये उपचुनाव में जिताने के लिए, जो पूरे जी-जान से कोशिश की है। तो उनका में पूरे तहेदिल से आभार प्रकट करते हुये अब अपनी बात यहीं समाप्त करूँ लेकिन इससे पहले मैं यू.पी. सरकार को यह भी कहना चाहूँगी कि कल यू पी. में उपचुनाव को लेकर आये अप्रत्याशित नतीजों के बाद से खासकर सम्भल जिला सहित पूरे मुरादाबाद मण्डल में काफी तनाव की स्थिति व्याप्त थी। ऐसे में शासन व प्रशासन को सम्भल में मस्जिद व मन्दिर विवाद को लेकर सर्वे कराने का यह कार्य थोड़ा आगे बढ़ाना चाहिये था। तो यह बेहतर होता, लेकिन ऐसा ना करके आज वहाँ सर्वे के दौरान् जो कुछ भी बवाल हुआ है अर्थात् हिंसाा हुई है तो उसके लिए यू.पी. का शासन व प्रशासन पूरी तरह से जिम्मेवार है। जो यह अति-निन्दनीय है जबकि यह काम दोनों पक्षों को साथ में लेकर, शान्तिमय ढ़ग से किया जाना चाहिये था, जो नहीं किया जा रहा है। ऐसे में अब मैं खासकर सम्भल के सभी लोगों से वहाँ शान्ति-व्यवस्था बनाने की भी पुरजोर अपील करते हुये अपनी बात यहीं समाप्त करती है। 

धन्यवाद,

जयभीम व जयभारत
जारीकर्ता : बी.एस.पी. केन्द्रीय कैम्प कार्यालय
9 माल एवेन्यू, लखनऊ-226001

शनिवार, 27 जुलाई 2024

आम जीवन से जुडी कला

  •  https://www.forwardpress.in/2016/06/amjivan-se-judi-kala_omprakash-kashyap/
  • आम जीवन से जुडी कला
  • बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ.रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे
  • ओमप्रकाश कश्यप June 7, 2016
  • फारवर्ड प्रेस में महिषासुर, मक्खलि गोशाल, कौत्स, अजित केशकंबलि सहित अन्य कई बहुजन नायकों के चित्र बनाकर उन्हें जनसंस्कृति का हिस्सा बना देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित, प्रतिबद्ध कलाकार हैं. पिछले दिनों उनके आवास पर लंबी चर्चा हुई. देश की राजनीति से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर वे बड़ी बेबाकी से बोले.  बातचीत की प्रस्तुति और रत्नाकर  की कला-जीवन का विश्लेषण:
  • oil-lal-ratnakar (1)अपने चित्रों के माध्यम से उत्तर भारत के गांव, गली, घर-परिवेश, हल-बैल, खेत-पगडंडी, पशु-पक्षी, तालाब-पोखर, यहां तक कि दरवाजों और चौखटों को जीवंत कर देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर के बारे में मेरा अनुमान था कि उनका बचपन बहुत समृद्ध रहा होगा. समृद्ध इस लिहाज से कि वे सब स्मृतियां जिन्हें हम सामान्य कहकर भुला देते हैं या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं, उनके मन-मस्तिष्क में मोती-माणिक की तरह टकी होंगी. सो मैंने सबसे पहले उनसे अपने बारे में बताने का आग्रह किया. मेरा अनुमान सही निकला. उन्होंने बोलना आरंभ किया तो लगा, उनके साथ-साथ मैं भी स्मृति-यात्रा पर हूं. वे बड़ी सहजता से बताते चले गए. बिना किसी बनावट और बगैर किसी रुकावट के. जितने समय तक हम दोनों साथ रहे, मैं उनकी जीवन-यात्रा के प्रवाह में डूबता-उतराता रहा.
  • मध्‍यवर्गीय  परिवार में जन्मे डॉ. रत्नाकर के पिता डॉक्टर थे, चाचा लेक्चरर. गांव और ननिहाल दोनों जगह जमींदारी थी. जिन दिनों उन्होंने होश संभाला डॉ. आंबेडकर द्वारा देश के करोड़ों लोगों की आंखों में रोपा गया समता-आधारित समाज का सपना परवान चढ़ने लगा था. किंतु आजादी के वर्षों बाद भी देश के महत्त्वपूर्ण पदों एवं संसाधनों पर अल्पसंख्यक अभिजन का अधिकार देख निराशा बढ़ी थी. स्वाधीनता संग्राम में आमजन जिस उम्मीद के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की और कुर्बानियां दी थीं, वे फीकी पड़ने लगी थीं. दलित और पिछड़े मानने लगे थे कि केवल संवैधानिक संस्थाओं से उनका भला होने वाला नहीं है. इसलिए वे खुद को अगली लड़ाई के लिए संगठित करने में लगे थे. पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार सामाजिक-राजनीतिक चेतना के उभार का केंद्र बने थे. यही परिवेश किशोर लाल रत्नाकर के मानस-निर्माण का था. तो भी बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें उन दिनों तक उनकी समझ से बाहर थीं. बस यह महसूस होता था कि कुछ महत्त्वपूर्ण घट रहा है. परिवर्तन यज्ञ में भागीदारी का अस्पष्ट-सा संकल्प भी मन में उभरने लगा था.
  • पढ़ाई की शुरुआत गांव की पाठशाला से हुई. हाईस्कूल शंभुगंज से विज्ञान विषयों के साथ पास किया. उन दिनों कला के क्षेत्र में वही विद्यार्थी जाते थे जो पढ़ाई में पिछड़े हुए हों. परंतु रत्नाकर का मन तो कला में डूबा हुआ था. हाथ में खडि़या, गेरू, कोयला कुछ भी पड़ जाए, फिर सामने दीवार हो या जमीन, उसे कैनवास बनते देर नही लगती थी. लोगों के घर कच्चे थे. गरीबी भी थी, लेकिन मन से वे सब समृद्ध थे. तीज-त्योहार, मेले-उत्सवों में आंतरिक खुशी फूट-फूट पड़ती. सामूहिक जीवन में अभाव भी उत्सव बन जाते. रत्नाकर का कलाकार मन उनमें अंतर्निहित सौंदर्य को पहचानने लगा था. गांव का कुआं, हल-बैल, पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी, कुम्हार द्वारा बर्तनों पर की गई नक्काशी, सुघड़ औरतों द्वारा निर्मित बंदनवार, रंगोलियां और भित्ति चित्र उन्हें आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए लालायित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से अपनी कल्पना को उकेरकर उन्हें जो आनंद मिलता, उसके आगे कैनवास पर काम करने का सुख कहीं फीका था. जाहिर है, अभिव्यक्ति अपना माध्यम चुन रही थी. उस समय तक भविष्य की रूपरेखा तय नहीं थी. न ही होश था कि आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर, चित्र बनाकर भी सम्मानजनक जीवन जिया जा सकता है. गांव-देहात में चित्रकारी का काम मुख्यतः स्त्रियों के जिम्मे था. उनके लिए वह कला कम, परंपरा और संस्कृति का मसला अधिक था. उनसे कुछ आमदनी भी हो सकती है, ऐसा विचार दूर तक नहीं था.
  • माता-पिता चाहते थे कि वे विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाएं. उनकी इच्छा का मान रखने के लिए इंटर की पढ़ाई के लिए बारह-तेरह किलोमीटर दूर जौनपुर जाना पडा. कुछ दिन साइकिल द्वारा स्कूल आना-जाना चलता रहा. मगर रोज-रोज की यात्रा बहुत थकाऊ और बोरियत-भरी थी. सो कुछ ही दिनों बाद विज्ञान का मोह छोड़ उन्होंने वापस शंभुगंज में दाखिला ले लिया. वहां उन्होंने कला विषय को चुना. घर पर जो वातावरण उन्हें मिला वह रोज नए सपने देखने का था. कला विषय में खुद को
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  • अभिव्यक्त करने की अंतहीन संभावनाएं थीं. धीरे-धीरे लगने लगा कि यही वह विषय है कि जिसमें अपने और अपनों के सपनों की फसल उगाई जा सकती है. इंटर के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीए, फिर कानपुर विश्वविद्यालय से एमए तक की पढ़ाई की. तब तक विषय की गहराई का अंदाजा हो चुका था. मन में एक साध बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी थी. सो आगे शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए वे कला संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. आनंदकृष्ण से मिले. उन्होंने मदद का आश्वासन दिया. लेकिन विषय क्या हो, इस निर्णय में दिन बीतते गए.
  • उधर रत्नाकर को एक-एक दिन खटक रहा था. इसी उधेड़-बुन में वे एक दिन डॉ. आनंदकृष्ण के घर जा धमके. उस समय तक डॉ. रायकृष्ण दास जीवित थे. वे लोककलाओं की उपेक्षा से बहुत आहत रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने ही प्रोफेसर आनंदकृष्ण को लोककला के क्षेत्र में शोध कराने का सुझाव दिया. प्रोफेसर आनंदकृष्ण ने उनसे आसपास बिखरी लोककलाओं को लेकर कुछ सामग्री तैयार करने को कहा. इस दृष्टि से वह लोक खूब समृद्ध था. रत्नाकर ने यहां-वहां बिखरे कला-तत्वों के चित्र बनाने आरंभ कर दिए. चौखटों, दीवारों पर होने वाली नक्काशी, रंगोली, पनघट, तालाब, कोल्हू, मिट्टी के बर्तन, असवारी वगैरह. उस समय तक लोककला के नाम लोग केवल ‘मधुबनी’ को जानते थे. पूर्वी उत्तर-प्रदेश के गांव भी लोक कला का खजाना हैं, इसका अंदाजा किसी को न था. अगली बार वे आनंदकृष्ण जी से मिले तो उन्हें दिखाने के लिए भरपूर सामग्री थी. प्रोफेसर आनंदकृष्ण उनके चित्रों को देख अचंभित रह गए, ‘अरे वाह! इतना कुछ. यह तो खजाना है….खजाना, अद्भुत! लेकिन तुम्हें अभी और आगे जाना है. मैं तुम्हारा प्रस्ताव आने वाली बैठक में पेश करूंगा.’ उस मुलाकात के बाद रत्नाकर को ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा. विश्वविद्यालय ने ‘पूर्वी उत्तरप्रदेश की लोककलाएं’ विषय पर शोध के लिए मुहर लगा दी. शोध-क्षेत्र नया था. संदर्भ ग्रंथों का भी अभाव था. फिर भी वे खुश थे. अब वे भी इस समाज को एक कलाकार और अन्वेषक की दृष्टि से देख सकेंगे. बुद्धिजीवी जिस सांस्कृतिक चेतना की बात करते हैं, उसके एक रूप को पहचानने में उनका भी योगदान होगा. अथक परिश्रम, मौलिक सोच और लग्न से अंततः शोधकार्य पूरा हुआ. डिग्री के साथ नौकरी भी उन्हें मिल गई. अब दिनोंदिन समृद्ध होता विशाल कार्यक्षेत्र उनके समक्ष था.
  • डॉ. लाल रत्नाकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के चितेरे हैं. उनका अनुभव संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में समृद्ध हुआ है. इसका प्रभाव उनके चित्रों पर साफ दिखाई पड़ता है. उनके चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, हल-बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित हैं. स्त्री और उसकी अस्मिता को लेकर अन्य चित्रकारों ने भी काम किया है, लेकिन ग्रामीण स्त्री को जिस समग्रता के साथ डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों में उकेरा है, भारतीय कला-जगत में उसके बहुत विरल उदाहरण हैं. उनके अनुभव संसार के बारे में जानना चाहो तो उन्हें कुछ छिपाना नहीं पड़ता. झट से बताने लगते हैं, ‘मेरी कला का उत्स मेरा अपना अनुभव संसार है.’ फिर जीवन और कला के अटूट संबंध को व्यक्त करते हुए कह उठते हैं, ‘जीवनानुभवों को कला में ढाल देना आसान नहीं होता, परंतु जीवन और कला के बीच निरंतर आवाजाही से कुछ खुरदरापन स्वतः मिटता चला जाता है. जीवन से साक्षात्कार कराने की खातिर कला समन्वय-सेतु का काम करने लगती है.’
  • डॉ. रत्नाकर के कृतित्व को लेकर बात हो और स्त्री पर चर्चा रह जाए तो बात अधूरी मानी जाएगी. उनके चित्रों में ‘आधी आबादी’ आधे से अधिक स्पेस घेरती है. इसकी प्रेरणा उन्हें अपने घर, गांव से ही मिली थी. दादा के दिवंगत हो जाने के बाद खेती संभालने की जिम्मेदारी दादी के कंधों पर थी. जिसे वह कर्मठ वृद्धा बगैर किसी दैन्य के, कुशलतापूर्वक  संभालती थीं. आप उनके चित्रों में काम करतीं, मंत्रणा करतीं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करतीं, नित-नए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन-संघर्ष हैं, सब उनके चित्रों में समाए हुए हैं. लेकिन उनकी स्त्री अबला नहीं है. बल्कि कर्मठ, दृढ़-निश्चयी, गठीले बदन वाली, सहज एवं प्राकृतिक रूप-सौंदर्य की स्वामिनी है. वह खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ-साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन में गुनगुनाहट है. गीत-संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज-सुलभ व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते. बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर-सलोना मनस् है, अपनों के प्रति समर्पण की उत्कंठा है—उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है. उनके चित्रों को हम ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद-बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में भी देख सकते हैं.
  • Gif.BBYadavआधुनिक कला में देह को अकसर बाजार से जोड़कर देखा जाता है. बाजार गांव-देहात में भी होते हैं. वहां वे लोगों को जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने के जरूरी ठिकाने कहलाते हैं. वे केवल मुनाफे को ध्यान में रखकर चीजें नहीं बनाते. यानी कुछेक अपवादों को छोड़कर गांवों में बाजारवाद की भावना से दूर बाजार होता है. ऐसे ही डॉ. रत्नाकर के चित्रों में स्त्री-देह तो है, मगर किसी भी प्रकार के देहवाद से परे. गठीली और भरी देह वाली स्त्रियों के चित्र  राजा रविवर्मा ने भी बनाए हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियों के, जिनका श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता. वे उस वर्ग से हैं जो परजीवी है. दूसरों के श्रम-कौशल पर जीवन जीता है. उन्हें बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म का. डॉ. रत्नाकर द्वारा रचे गए स्त्री-चरित्र बाजारवाद की छाया से मुक्त हैं. उनके लिए देह जीवन-समर में जूझने का माध्यम है. इसलिए वहां दुर्बल छरहरी काया में भी अंतर्निहित सौंदर्य है. इस बारे में उनका कहना है, ‘मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर उन्हें नहीं आता.’ देह और देहवाद के बीच असली और नकली जितना अंतर है. डॉ. रत्नाकर के शब्दों में, ‘बाजारीकरण देह में लोच, लावण्य और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे आत्मा गायब हो जाती है. वह निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी देखे हैं. वे मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे बनाए गए चित्र उन स्त्री-पुरुषों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप-सौंदर्य खेत-खलिहानों के धूप-ताप में निखारा है.’ डॉ. रत्नाकर के स्त्री-चरित्रों में प्राकृतिक रूप-वैभव है, इसके बावजूद वे किसी भी प्रकार के नायकवाद से मुक्त हैं. वे न तो लक्ष्मीबाई जैसी ‘मर्दानी’ हैं, न ‘राधा’ सरीखी प्रेमिका, न ही इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिज्ञ. वे खेतों-खलिहानों में पुरुषों के साथ हाथ बंटाने वाली, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं सारी जिम्मेदारी ओढ़ लेने वाली कमेरियां हैं. जो अपने क्षेत्र में बड़े से बड़े नायक को टककर दे सकती हैं.’
  • अपने कई चित्रों में डॉ. लाल रत्नाकर ने कृष्ण को विविध रूपों में पेश किया है. लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम-संस्कृति से उभरे लोकनायक हैं. वे गाय चरा सकते हैं, दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के लिए ‘गोवर्धन’ जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं.
  • अपने चित्रों के लिए वे जिन रंगों का चुनाव करते हैं, उसके पीछे पूरी सामाजिकता और जीवन रहस्य छिपे होते हैं. वे उन्हीं रंगों का चयन करते हैं, जो उनके जीवन-उत्सव के लिए स्फूर्ति दायक हों. वे बताते हैं कि लाल, पीला, नीला और थोड़ा आगे बढ़ीं तो हरा, बैंगनी, नारंगी जैसे आधारभूत रंग ग्रामीण स्त्री की चेतना का वास्तविक हिस्सा होते हैं. उत्सव और विभिन्न पर्वों, मेले-त्योहारों पर ग्रामीण स्त्री इन रंगों से दूर रह ही नहीं पाती. प्रतिकूल हालात में इन रंगों के अतिरिक्त ग्रामीण स्त्री के जीवन में, ‘जो रंग दिखाई देते हैं, वे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. उन रंगों में प्रमुख हैं—काला और सफेद, जिनके अपने अलग ही पारंपरिक संदर्भ हैं.’ समाज विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ‘काला’ और ‘सफेद’ आधारभूत रंग न होकर स्थितियां हैं. पहले में सारे रंग एकाएक गायब हो जाते हैं; और दूसरी में इतने गडमड कि अपनी AJC-6-300पहचान ही खो बैठते हैं. भारतीय स्त्री, खासतौर पर हिंदू स्त्री जीवन से जुड़कर ये रंग किसी न किसी त्रासदी की ओर इशारा करते हैं. रंगों के साथ स्त्री का सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. अपनी प्रेरणाओं के लिए डॉ. रत्नाकर भी लोक पर निर्भर हैं. यह सवाल करने पर कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने चित्रों के माध्यम से लोक को संस्कारित कर रहे हैं, वे नकारने लगते हैं. उनकी दृष्टि का लोक स्वयं-समृद्ध सत्ता है, ‘अपने आप में वह इतना समृद्ध है कि उसे संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’ किसी भी बड़े कलाकार में ऐसी विनम्रता केवल उसके चरित्र का अनिवार्य गुण नहीं होती, बल्कि लोक को पहचानने की जिद में आत्म को बिसार देने के लिए भी यह अनिवार्य शर्त है.
  • एक बहुत पुरानी बहस है कि ‘जीवन कला के है या कला जीवन के लिए’ के बारे में लोगों के अपने-अपने तर्क हैं जो विशिष्ट परिस्थिति के अनुसार अदलते-बदलते रहते हैं. हमारे समय की विडंबना है कि गरीब और साधारणजन के नाम पर रची गई कला, उसके किसी काम की नहीं होती. ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी समझ नहीं होती. दरअसल कलाकार की परिस्थितियां और उसका विशिष्टताबोध किसी भी रचना को जिस खास ऊंचाई तक ले जाते हैं, उसका मूल्य चुकाना जनसाधारण की क्षमता से बाहर होता है. यह त्रासदी कमोबेश हर कला के साथ जुड़ी है. संभ्रांत होने की कोशिश में कला उस वर्ग की पहुंच से बाहर हो जाती है, जिसकी संवेदनाओं से वह वास्ता रखती है. यह कला की विडंबना है. इसलिए डॉ. रत्नाकर हमें याद दिलाना नहीं भूलते कि ‘समस्त कलाएं और जीवन के बाकी सभी उपक्रम अंततः इस दुनिया को सुंदर बनाने के उपक्रम हैं….आखिर वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो.’
  • पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं. वे संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की साहित्यिक अवधारणा को चित्रों के जरिए साकार कर रहे हैं. उन्होंने विशेषरूप से ‘फारवर्ड प्रेस’ के प्रिंट संस्‍करण के लिए ऐसे चित्र बनाए हैं, जिनके बुनियादी सरोकार आम जन की राजनीति और सामाजिक न्याय से हैं. यह समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है—उन्होंने परंपरा से हटकर ऐसे लोक-उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. अपने स्वार्थ की खातिर, अभिजन संस्कृति के पुरोधा उनका जमकर विरूपण करते आए हैं. अतः जरूरत उस गर्द को हटाने की है जो वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों ने बहुजन संस्कृति के
  • नायकों के चारित्रिक विरूपण हेतु, इतिहास के लंबे दौर में उनपर जमाई है. डॉ. रत्नाकर ने बहुजन संस्कृति के जिन प्रमुख उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, उनमें   बुद्धकालीन  दार्शनिक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल अजित केशकंबलि, पौराणिक जन नायक  महिषासुर आदि प्रमुख हैं. कुछ और चित्र जो उनसे अपेक्षित हैं, उनमें महान आजीवक विद्वान पूर्ण कस्सप, बलि राजा, पुकुद कात्यायन आदि का नाम लिया जा सकता है.
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  • लाल रत्नाकर द्वारा सभी चित्र
  • यह ठीक है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इन बहुजन विचारकों एवं महानायकों  के चित्र तो दूर, सूचनाएं भी बहुत कम उपलब्ध हैं. लेकिन असली चित्र तो देवी-देवताओं के भी प्राप्त नहीं होते. उनके बारे में प्राप्त विवरण भी हमारे पौराणिक लेखकों और कवियों की कल्पना का उत्स हैं. मूर्ति पूजा का जन्म व्यक्ति पूजा से हुआ है. इस विकृति से हमारा पूरा समाज इतना अनुकूलित है कि उससे परे वह कुछ और सोच ही नहीं पाता है. हर बहस, सुधारवाद की हर संभावना, आस्था के नाम पर दबा दी जाती है. मूर्तियों और चित्रों में गणेश, राम, सीता, कृष्ण, विष्णु आदि को जो चेहरे और भंगिमाएं आज प्राप्त हैं, उनमें से अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी के कलाकार राजा रविवर्मा की देन हैं. अतः बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे. वरिष्ठ साहित्यकार से.रा. यात्री लिखते हैं—‘भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवनचर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है. आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है.
  • मैं समझता हूं देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक से .रा. यात्री  की प्रामाणिक टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को रह ही नहीं जाता.

शनिवार, 30 दिसंबर 2023

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन 

दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना)
अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 को पटना में हो गया।
उनके हम सब प्रशंसक बहुत दुखी हैं।
प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से सेवानिवृत थे। उनके उच्च शिक्षा लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से हुई थी। वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़कर उन्होंने जेएनयू में प्रोफेसर का दायित्व संभाला।
नेताजी ने इन्हें कई जिम्मेदारियां दी थी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निदेशक बनाया था, उन्हें बांग्लादेश पाकिस्तान और भारत के एकीकरण की जिम्मेदारी दी थी। 
यद्यपि समाजवादी सोच के सभी नेताओं से गहरे से जुड़े रहे इतने नाम है कि उन्हें लिखना यहां संभव नहीं है। वह प्रखर समाजवादी थे और उनकी कई किताबें : किसान आंदोलन, शूद्र राजनीति का भविष्य। सामाजिक न्याय आंदोलन आदि तो है ही अनेकों पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख निरंतर छपते रहते थे।

प्रोफ़ेसर ईश्वरी प्रसाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से सेवानिवृत्त हुए हैं विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने जितना संघर्ष किया वह "द्विज और शूद्र" की एक महत्वपूर्ण कथा है। स्वाभाविक है जे एन यू एक ऐसा केंद्र रहा है जहाँ से देश को अपनी दिशा तय करनी थी। यह अलग बात है की जवाहर लाल नेहरू ने इसके स्थापना के साथ जो सपना देखा होगा उसे निश्चित तौर पर वामपंथी "द्विजों" ने अपने हिसाब से आगे बढ़ाया होगा। नेहरू जी संघ के प्रति कितने नरम रहे होंगे इसका लेखा जोखा तो मौजूदा सत्ता में बैठे लोग आये दिन नेहरू नेहरू करके बताते रहते हैं.

प्रो ईश्वरी प्रसाद जी का पूरा वैचारिक आधार बहुजन उत्थान का रहा है यही कारन है की उन्हें अपने जीवन में द्विज वामपंथियों और कांग्रेसियों ने बहुत परेशां किया और अनेक षडयंत्र किये होंगे। यही कारन रहा होगा की वह अपने जीवन में सामाजिक न्याय को बहुत ही तकनिकी तौर पर लडे, जबकि बहुतों ने चापलूसी करके सुविधा और सोहरत हासिल की। सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक ऊंचाई तक पहुंचाया यहां तक कि देश के तमाम समाजवादियों से उनके बहुत अच्छे रिश्ते रहे और पूरी जिंदगी कांग्रेश के खिलाफ लड़ते रहे. और उनका अपना सपना है कि कांग्रेश नस्त नाबूत हो जाय क्योंकि वः एक परिवार की पार्टी है. उनके अनुसार कांग्रेस का खत्म होना जरूरी है ?
हम इस दुख में उनके परिवार के साथ हैं।
सादर नमन।
सादर
डॉ लाल रत्नाकर




मंगलवार, 31 अक्टूबर 2023

बात करें अब कामकाज की।

बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।
सदियों सदियों का पाखंड।
नऐ कलेवर में आया है।
भक्तजनों की अंधभक्ति ने,
जनमानस को छलने खातिर!
विविध रूप का वेश धरा है।
अगवा करने वाला भी !
अब भगवा पहन पहन के।
गायों को छुट्टा छोड़ दिया।
इंसानों को जो बांध दिया है।
बुलडोजर का भय दिखलाकर।
हौसला ही सबका तोड़ दिया है।
लाठी डंडा कंकड़ पत्थर।
व्यवस्था पर प्रहार का था सिम्बल ।
जनता का सबसे माकूल हथियार रहा है।
अब उसके बदले मोबाइल पर।
व्हाट्सएप के हुए गुलाम सब।
ट्विटर ट्विटर कर कर के।
जब नेताजी हो गए बेहाल।
आओ हम सब मिलकर के,
वैज्ञानिक उपचार पर करें विचार।
बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।

डॉ लाल रत्नाकर

 

बात करें अब कामकाज की।

बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।
सदियों सदियों का पाखंड।
नऐ कलेवर में आया है।
भक्तजनों की अंधभक्ति ने,
जनमानस को छलने खातिर!
विविध रूप का वेश धरा है।
अगवा करने वाला भी !
अब भगवा पहन पहन के।
गायों को छुट्टा छोड़ दिया।
इंसानों को जो बांध दिया है।
बुलडोजर का भय दिखलाकर।
हौसला ही सबका तोड़ दिया है।
लाठी डंडा कंकड़ पत्थर।
व्यवस्था पर प्रहार का था सिम्बल ।
जनता का सबसे माकूल हथियार रहा है।
अब उसके बदले मोबाइल पर।
व्हाट्सएप के हुए गुलाम सब।
ट्विटर ट्विटर कर कर के।
जब नेताजी हो गए बेहाल।
आओ हम सब मिलकर के,
वैज्ञानिक उपचार पर करें विचार।
बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।

डॉ लाल रत्नाकर


 

सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

एक युद्ध जहां मानवता अब परीक्षण पर है

एक युद्ध जहां मानवता अब परीक्षण पर है


सोनिया गांधी
(कांग्रेस संसदीय दल के अध्यक्ष हैं)

7 अक्टूबर, 2023 को योम किप्पुर युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर, हमास ने इज़राइल पर क्रूर हमला किया, जिसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर नागरिक थे, और 200 से अधिक लोगों का अपहरण कर लिया गया। यह अभूतपूर्व हमला इज़राइल के लिए विनाशकारी था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दृढ़ विश्वास है कि सभ्य दुनिया में हिंसा का कोई स्थान नहीं है, और अगले ही दिन हमास के हमलों की स्पष्ट रूप से निंदा की।
हालाँकि, यह त्रासदी गाजा में और उसके आसपास इजरायली सेना के अंधाधुंध अभियानों के कारण और भी गंभीर हो गई है, जिसके कारण बड़ी संख्या में निर्दोष बच्चों, महिलाओं और पुरुषों सहित हजारों लोगों की मौत हो गई है। इज़रायली राज्य की शक्ति अब उस आबादी से बदला लेने पर केंद्रित है जो काफी हद तक असहाय होने के साथ-साथ निर्दोष भी है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली सैन्य शस्त्रागारों में से एक की विनाशकारी ताकत बच्चों, महिलाओं और पुरुषों पर लागू की जा रही है, जिनका हमास के हमले में कोई हिस्सा नहीं है; इसके बजाय, अधिकांश भाग के लिए, वे दशकों के भेदभाव और पीड़ा के केंद्र में रहे हैं।
"मानव जानवर"। यह अमानवीय भाषा चौंकाने वाली है जो उन लोगों के वंशजों से आ रही है जो स्वयं नरसंहार के शिकार थे।

फिलिस्तीनियों और इजरायलियों दोनों को न्यायपूर्ण शांति से रहने का अधिकार है। हम इज़राइल के लोगों के साथ अपनी दोस्ती को महत्व देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी यादों से उस दर्दनाक इतिहास को मिटा दें, जो सदियों से फिलिस्तीनियों को उनकी मातृभूमि से बेदखल करने के लिए मजबूर किया गया था, और गरिमा और आत्म-सम्मान के जीवन के उनके मूल अधिकार के वर्षों के दमन को भी मिटा दिया गया है।
मानवता अब परीक्षण पर है. इजराइल पर क्रूर हमलों से हम सामूहिक रूप से कमजोर हुए थे। इजराइल की असंगत और समान रूप से क्रूर प्रतिक्रिया से अब हम सभी कमजोर हो गए हैं। हमारी सामूहिक चेतना को जगाने और जगाने से पहले और कितनी जानें लेनी होंगी?

कुछ शरारती सुझावों के विपरीत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थिति लंबे समय से चली आ रही और सैद्धांतिक रही है: यह एक संप्रभु स्वतंत्र के लिए सीधी बातचीत का समर्थन करना है। फ़िलिस्तीन का व्यवहार्य और सुरक्षित राज्य, इज़राइल के साथ शांति से सह-अस्तित्व में। 12 अक्टूबर, 2023 को विदेश मंत्रालय द्वारा भी यही रुख अपनाया गया था। उल्लेखनीय है कि फिलिस्तीन पर भारत की ऐतिहासिक स्थिति की पुनरावृत्ति इजराइल द्वारा गाजा पर हमला शुरू करने के बाद ही आई थी। प्रधान
इजरायली सरकार हमास के कार्यों की तुलना फिलिस्तीनी लोगों से करके गंभीर गलती कर रही है। हमास को नष्ट करने के अपने दृढ़ संकल्प में, इसने गाजा के आम लोगों के खिलाफ अंधाधुंध मौत और विनाश को अंजाम दिया है। अगर फ़िलिस्तीनियों की पीड़ा के लंबे इतिहास को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो भी किस तर्क से एक पूरी आबादी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है कुछ लोगों के कार्यों के लिए? यह लगातार दोहराया जाता है कि फ़िलिस्तीनियों को जिन जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है - वे समस्याएँ

मंत्री ने इज़राइल के साथ पूर्ण एकजुटता व्यक्त करते हुए प्रारंभिक बयान में फ़िलिस्तीनी अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गाजा में इजरायली बलों और हमास के बीच "शत्रुता की समाप्ति के लिए तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम" के लिए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत की अनुपस्थिति का कड़ा विरोध करती है।
बाहरी शक्तियों द्वारा संचालित अशांत साम्राज्यवादी इतिहास में निहित हैं-केवल बातचीत के माध्यम से हल किया जा सकता है। यह भी लगातार दोहराया जा रहा है कि इस वार्ता में फिलिस्तीनियों की वैध आकांक्षाओं को शामिल किया जाना चाहिए, जिसमें एक संप्रभु राज्य की आकांक्षा भी शामिल है।
दशकों से उन्हें इससे वंचित रखा गया है, साथ ही साथ इज़राइल की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा रही है। दुनिया को कार्रवाई करनी चाहिए

इस पागलपन को ख़त्म करने के लिए दोनों तरफ से आवाज़ें उठ रही हैं। कई इजरायली, हार चुके हैं, न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती। आतंकी हमलों में इजराइल के मित्र और परिवार अब भी मानते हैं कि फिलिस्तीनियों के साथ बातचीत ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। कई फ़िलिस्तीनी स्वीकार करते हैं कि हिंसा से केवल और अधिक पीड़ा होगी और यह उन्हें आत्म-सम्मान, समानता और सम्मान के जीवन के उनके सपने से और भी दूर ले जाएगी। 

कांग्रेस का रु

न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती. डेढ़ दशक से अधिक समय से इजरायल की निरंतर नाकाबंदी ने गाजा को घने शहरों और शरणार्थी शिविरों में बंद अपने दो मिलियन निवासियों के लिए "खुली हवा वाली जेल" में बदल दिया है। यरूशलेम और वेस्ट बैंक में, इजरायली राज्य द्वारा समर्थित इजरायली निवासियों ने दो-राज्य समाधान की दृष्टि को नष्ट करने के एक स्पष्ट प्रयास में फिलिस्तीनियों को अपनी ही भूमि से बाहर निकालना जारी रखा है। शांति तभी आएगी जब नीतियों और घटनाओं को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाले देशों के नेतृत्व में दुनिया दो-राज्य के दृष्टिकोण को बहाल करने की प्रक्रिया को फिर से शुरू कर सकती है और इसे वास्तविकता बना सकती है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्षों से अपने दृढ़ विश्वास पर कायम रही है कि फिलिस्तीनियों और इजरायलियों दोनों को न्यायपूर्ण शांति से रहने का अधिकार है। हम इज़राइल के लोगों के साथ अपनी दोस्ती को महत्व देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी यादों से फिलिस्तीनियों को सदियों से उनकी मातृभूमि से जबरन बेदखल करने के दर्दनाक इतिहास और सम्मान और आत्मसम्मान के जीवन के उनके मूल अधिकार के वर्षों के दमन को मिटा दें।

कुछ शरारती सुझावों के विपरीत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थिति लंबे समय से चली आ रही है और सैद्धांतिक है: यह इजरायल के साथ शांति से सह-अस्तित्व में फिलिस्तीन के एक संप्रभु स्वतंत्र, व्यवहार्य और सुरक्षित राज्य के लिए सीधी बातचीत का समर्थन करना है। 12 अक्टूबर, 2023 को विदेश मंत्रालय द्वारा भी यही रुख अपनाया गया था। उल्लेखनीय है कि फिलिस्तीन पर भारत की ऐतिहासिक स्थिति की पुनरावृत्ति इजराइल द्वारा गाजा पर हमला शुरू करने के बाद ही आई थी। प्रधान मंत्री ने इज़राइल के साथ पूर्ण एकजुटता व्यक्त करते हुए प्रारंभिक बयान में फिलिस्तीनी अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गाजा में इजरायली बलों और हमास के बीच "शत्रुता की समाप्ति के लिए तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम" के लिए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत के बहिष्कार का कड़ा विरोध करती है।

दुनिया को कार्रवाई करनी चाहिए

इस पागलपन को ख़त्म करने के लिए दोनों तरफ से आवाज़ें उठ रही हैं। आतंकी हमलों में दोस्तों और परिवार को खोने के बाद भी कई इजरायली मानते हैं कि फिलिस्तीनियों के साथ बातचीत ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। कई फ़िलिस्तीनी स्वीकार करते हैं कि हिंसा से केवल और अधिक पीड़ा होगी और यह उन्हें आत्म-सम्मान, समानता और सम्मान के जीवन के उनके सपने से और भी दूर ले जाएगी।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई प्रभावशाली देश पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं जबकि उन्हें युद्ध समाप्त करने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। सबसे ऊँची और सबसे शक्तिशाली आवाज़ें सैन्य गतिविधि की समाप्ति के लिए होनी चाहिए। अन्यथा, यह चक्र जारी रहेगा और आने वाले लंबे समय तक इस क्षेत्र में किसी के लिए भी शांति से रहना मुश्किल हो जाएगा।


(हिन्दू  अंग्रेजी* से साभार)  


A war where humanity is on trial now

Sonia Gandhi

is Chairperson of the Congress Parliamentary Party

October 7, 2023, on the 50th anniversary of the Yom Kippur War, Hamas launched a brutal attack on Israel, killing more than a thousand people, mostly civilians, and kidnapping over 200 more. The unprecedented attack was devastating for Israel. The Indian National Congress strongly believes that violence has no place in a decent world, and the very next day unequivocally condemned Hamas's attacks.

This tragedy is, however, being compounded by the Israeli military's indiscriminate operations in and around Gaza that have led to thousands of deaths, including large numbers of innocent children, women and men. The power of the Israeli state is now focused on exacting revenge from a population that is largely as helpless as it is blameless. The destructive might of one of the world's most potent military arsenals is being unleashed upon children, women and men who have no part in the Hamas assault; they, instead, for the most part, have been at the heart of decades of discrimination and suffering.

"human animals". This dehumanising language is shocking coming from the descendants of those who themselves were the victims of the Holocaust.

both the Palestinians and Israelis have the right to live in a just peace. We value our friendship with the people of Israel. But this does not mean that we erase from our memories, the painful history forced dispossession of the Palestinians from what was their homeland for centuries, and of years of suppression of their basic right to a life of dignity and self-respect.

Humanity is on trial now. We were collectively of diminished by the brutal attacks on Israel. We are now all diminished by Israel's disproportionate and equally brutal response. How many more lives will have to be taken before our collective conscience is stirred and awakened?

Contrary to some mischievous suggestions, the position of the Indian National Congress has been long standing and principled: it is to support direct negotiations for a sovereign independent. viable and secure state of Palestine coexisting in peace with Israel. This is also the stand taken by the Ministry of External Affairs on October 12, 2023. It is noteworthy that the reiteration of India's historic position on Palestine came only after Israel began its assault on Gaza. The Prime

The Israeli government is making a grievous error in equating the actions of Hamas with the Palestinian people. In its determination to destroy Hamas, it has unleashed indiscriminate death and destruction against the ordinary people of Gaza. Even if the long history of the suffering of the Palestinians is ignored, by what logic can a whole population be held responsible

for the actions of a few? It bears constant repeating that the complex problems faced by Palestinians - problems that

Minister had made no mention of Palestinian rights in the initial statement expressing complete solidarity with Israel. The Indian National Congress is strongly opposed to India's abstention on the recent United Nations General Assembly Resolution calling for an "immediate, durable and sustained humanitarian truce leading to a cessation of hostilities" between Israeli forces and Hamas in Gaza.

are rooted in a troubled imperial history orchestrated by outside powers-can only be solved through dialogue. It bears constant repeating, too, that this dialogue must accommodate the legitimate aspirations of the Palestinians, including that of a sovereign state,

that have been denied to them for decades, while at the same time ensuring the security of Israel. The world must act

There are voices on both sides speaking for an end to this madness. Many Israelis, having lost There can be no peace without justice. Israel's friends and family in the terror attacks, still believe that a dialogue with the Palestinians is the only way forward. Many Palestinians acknowledge that violence will only lead to more suffering and take them further away from their dream of a life of self-respect, equality and dignity.


बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है ।

  यह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन व...