किसान का कोड़ा

 किसान का कोड़ा 

महात्मा ज्योति राव फुले 


अनुक्रमणिका

उपोद्घात

१. पहला अध्याय :

सारे सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों का वर्चस्व रहने से, उनके भाई बान्धव ब्राह्मण अपने स्वार्थी धर्म के बहाने अनपढ़ किसानों को इतना तंग कर देते हैं कि उनके पास अपने नन्हें बच्चों को पाठशाला भेजने के लिए साघन ही • शेष नहीं रहते और यदि किसी एकाध के पास साधन होने पर भी उनके गलत उपदेशों से उनकी इच्छा भेजने की नहीं होती ।

१२. दूसरा अध्याय :

गोरे सरकारी अधिकारी प्रायः ऐशआराम में डूबे रहने से, उनके पास इतना समय ही नहीं रहता कि वे किसानों की वास्तविक स्थिति की जानकारी लें। उनकी इस लापरवाही से लगभग सारे सरकारी विभागों में ब्राह्मणों का ही वर्चस्व है। इन दोनों कारणों से किसानों का इतना अधिक शोषण होता है कि उन्हें पेटभर भोजन और तनभर वस्त्र भी नहीं मिल पाते।

३. तीसरा अध्याय :

आर्य ब्राह्मण ईरान से किस तरह आये और शूद किसानों की पूर्वस्थिति और आज की स्थिति क्या है, साथ ही हमारी सरकार अपने सारे कर्मचारियों को जिसतरह मनमाना वेतन और पेन्शन देती है और इस खर्च को पूरा करने के लिए अनेक प्रकार नित्य नये कर किसानों पर लादकर बड़ी ही चतुराई से धनसंग्रह करती है, उसी के परिणामस्वरूप किसान बुरी तरह कर्जदार हो गये हैं।

४. चौथा अध्याय :

किसानों व खेती की आजकल की स्थिति।

५. पाँचवा अध्याय :

हम शूद्र किसानों से सम्बन्धित ब्राह्मण पुरोहितों को कुछ सुझाव और इस समय किसानों के लिए सरकार क्या करे

परिशिष्ट :

इस चाबुक को लिखते समय कई व्यक्तियों से मेरी इस विषय पर बातचीत हुई। उनमें से दो बातचीत नमूने के रूप में।
(क) अच्छा विशिष्ट मराठा कहलानेवाला ।
(ख) कबीरपंथी शूद्र साधु ।


उपोद्घात

विद्या के बिना मति गयी, मति के बिना नीति गयी और नीति के बिना गति ही समाप्त हो गयी। गति के बिना धन गया, धन के बिना शूद निर्बल हो गये। ये सारे अनर्थ एक अविद्या के कारण हो गये। मेरा उद्देश्य, आज किसान के, इस दीन हीन स्थिति को पहुंचने के जो अनेक धार्मिक व राजनैतिक कारण हैं, उनमें से घोड़े बहुत कारणों की विवेचना करना है। इसी उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गयी है। शूद्ध किसान, बनावटी व अत्याचारी धर्म के कारण, सारे सरकारी विभागों में ब्राह्मणों की भरमार होने से, इन ब्राह्मण पुरोहितों व ऐशआराम में डूबे यूरोपियन सरकारी कर्मचारियों द्वारा सताये जाते हैं। इससे, इस पुस्तक को पढ़कर वे अपना बचाव कर सकें इसी उद्देश्य से इस पुस्तक का नाम " किसान का चाबुक" रखा गया है।

पाठको! आज किसान कहे जानेवालो के तीन प्रकार है- शुद्ध किसान अर्थात् कुर्मी, माली और गड़रिये। ये तीन भेद होने का कारण यह है कि शुद्ध किसानों में जो लोग पूरी तरह से खेती से ही जीवन निर्वाह करते रहे, वे लोग कुर्मी कहे जाने लगे। जो किसान अपनी खेती का काम संभालते हुए बागवानी करने लगे उन्हें माली कहा जाने लगा और जो किसान खेती व बागवानी दोनों भी करते हुए भेड़-बकरियों आदि के झुण्ड अर्थात् समूह रखने लगे वे गड़रिये कहलाये। इस तरह सर्व प्रथम अलग-अलग कामों के आधार पर किसानों के ये तीन वर्ग बने, पर ये आज अलग-अलग जातियाँ मानी जाती हैं। इन में आज केवल बेटी व्यवहार ही होता नहीं है, बाकी सारे खानपान आदि के व्यवहार होते हैं। इससे पता चलता है कि कुर्मी, माली और गड़रिये किसी एक ही वंश से निकले होने से एक ही जाति के थे। आज ये तीनों जाति के लोग अपना मूल धन्धा खेती को, निरुपाय होने से छोड़कर उदर निर्वाह के लिए तरह-तरह के धन्धे करने लगे हैं। जिनके पास थोड़ा बहुत साहस और धैर्य है वे अपनी खेती ही संभाले हुए हैं और बहुत से निरक्षर, भोले, नंगे भूखे रहने पर भी अपनी खेती ही संभाले रहते हैं। जिन्हें और कोई भी सहारा न बचा वे अपना देश छोड़कर जिधर जमा उधर जाकर, कोई घास का धन्धा करने लगे, कोई लकड़ी का और कोई कपड़े का धन्धा करने लगे। कोई ठेका (कण्ट्राक्ट) लेकर तो कोई लिखने का काम पकड़कर अन्त में पेन्शन लेकर गर्व करते फिरते हैं। इस तरह से पैसा कमाकर, जायदाद खरीद कर रखते हैं। पर उनके बाद उनके बच्चे, जिन्हें पढ़ने की चाव नहीं है, थोड़े समय बाद ही अपना बाबूपन भूलकरें भिखारी बन पिता के नाम पर पुकारते व भीख मांगते फिरते हैं। कितनों ही के पूर्वजों ने सिपाहीमिरी और समझदारी के बल पर जागीर, इनाम आदि पायी थी और कितने ही तो शिन्दे होलकर जैसे राजा ही बन गये थे। पर आज उनके वंशज अज्ञानी, निरक्षर होने से अपनी-अपनी जागीर और इनाम की जमीन गिरवी रखकर या बेचकर कर्जदार बन गये हैं। कितने तो अन्न के लिए भी मोहताज हो चुके हैं। बहुत से इनामदारों और जागीरदारों को, उनके पूर्वजों ने कैसे कैसे पराक्रम किये थे, कैसे संकट झेले थे आदि की कल्पना भी नहीं हो सकती वे बिना परिश्रम किये मिली सम्पत्ति पर, अनपढ़ होने से दुष्ट और लुच्चे लोगों की संगति में ऐशआराम करते हैं और दुर्व्यसनों में डूबे रहते हैं। इस तरह बिना कर्ज में कैसे बिरले ही जागीरदार इनामदार मिलेंगे। आज जो छोटे-मोटे संस्थानोंवाले हैं. उन पर भले ही कर्ज न हो तो भी उनके आसपास के लोग और ब्राह्मण कर्मचारी इतने स्वार्थी, धूर्त और चालाक हैं कि वे इन राजघरानों को विद्या प्राप्ति का शौक ही लगने नहीं देते। इस कारण ये लोग अपने सही वैभव का स्वरूप ही न पहचानकर, उनके पुरखों ने केवल उनके चैन आराम के लिए ही राज्य सम्पादन किया है, ऐसा समझकर और धर्म के कारण अन्धे होने तथा स्वयं राज्यभार सँभालने में असमर्थ होने से भाग्य के भरोसे, ब्राह्मण कर्मचारियों की अंजलि से पानी पीकर दिन बिता रहे हैं। दिन में गोदान और रात में प्रजा उत्पादन करते हुए स्वस्थ बने रहते हैं। ऐसे राजघरानों के लोगों द्वारा अपने भाईबन्धुओं का कल्याण होने की कल्पना ही संभव नहीं। इस तरह के कल्याणकारी कार्य का विचार भी उनके मस्तिष्क में तब तक आयेगा ही कैसे, जब तक "ब्राह्मणो मम दैवतं" का पागलपन उनके सिर पर सवार है। इसलिए उनके द्वारा ऐसे कल्याणकारी कार्य करवाने के लिए सिर पटकना एकदम व्यर्थ है। इतने पर भी यदि मान लो कोई शूद्र किसानों के कल्याण कार्य में प्रवृत्त भी हो जाय तो बचपन से पढ़े हुए और दृढ़ हुए संस्कारों के कारण इन्हें स्वार्थी धर्म के विरुद्ध चार बातें सुनकर, सोचविचार करना भी कैसे अच्छा लग सकता है? और दूसरी बात उनके आसपास के कर्मचारी भी ऐसे निस्पृह, सच्चे जाति के अभिमानी लोगों की दाल ही नहीं गलने देंगे। फिर भी कोई धैर्यशाली मुझे अवसर देगा तो मैं बड़ी ही प्रसन्नता के साथ अपनी बुद्धि के अनुसार उनके विचार इन शूद्रों व दलितों को बतलाऊंगा।

खैर, संसार के लगभग सभी देशों के इतिहास को यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो हिन्दुस्तान के अनपढ़, भोलेभाले शूद्र किसानों की स्थिति, अन्य देशों के किसानों की स्थिति से निकृष्ट, अस्वस्थ हो नहीं, पशुओं की स्थिति से भी बदतर दीख पड़ेगी।

इस पुस्तक को लिखने में अनेक अंग्रेजी, संस्कृत व प्राकृत के ग्रन्थों से, जिनमें वर्तमान अनपढ़ शूद्रों दलितों की दीनहीन अवस्था का चित्रण हुआ है, - सहायता ली गयी है। इन ग्रन्थों की सहायता के बिना यह पुस्तक तैयार ही नहीं हो सकती थी, यह एकदम स्पष्ट बात है।

इस पुस्तक में मेरी अल्पबुद्धि से मैंने जो कुछ भी खोजपूर्ण बातें लिखी हैं, उनमें हमारे विद्वानों, समझदार पाठकों को जो भी त्रुटियाँ या कमियाँ दिखाई दें, वे मुझे क्षमा करते हुए - ग्रहण करें, ऐसी मेरी उनसे विनम्र प्रार्थना है। और यदि उन्हें विषय से सम्बन्धित कोई भी भाग अयोग्य या मिथ्या दीख पड़े तो अथवा पुस्तक की और अधिक प्रभावोत्पादकता की वृद्धि के लिएं (आधार-ग्रंथ आदि संबंधी) सुझाव देना हो तो वे समाचारपत्रों के माध्यम से दें। मैं उन सुझावों का कृतज्ञतापूर्वक आभार स्वीकार कर, द्वितीय संस्करण के समय विचार अवश्य करुगा। श्रीमन्त सरकार गायकवाड़, सेनापति शमशेर बहादुर सयाजीराव महाराज ने मेरे बढ़ौदा जाने पर, अपने सारे सरकारी कामों में से अमूल्य समय निकालकर, अनुपम उत्साह व स्नेहभाव से मेरी यह पुस्तक मुझसे पढ़वाकर ध्यानपूर्वक सुनी और उदारतानुरूप मुझे धन की भी सहायता दी तथा मेरा यथायोग्य आदर-सत्कार भी किया। इसके लिए मैं उनका अत्यन्त ऋणी हूँ। 'पूना', 'बम्बई', 'ठाणा', 'जुन्नर', 'ओतूर', 'हड़पसर', 'बंगगी', 'माल का कुरूल' आदि स्थानों के शूद्र व्यक्तियों ने अनेकों बार मेरी यह रचना मुझसे सुनी और इसमें लिखी हुई बातें सही हैं, ऐसे अपने हस्ताक्षरों के पत्र मुझे भेजे हैं। 
-ज्यो. गो. फुले   

१. शूद्रों के कुलस्वामी खण्डेराव ने शूद्र कुल की दो पत्नियाँ ब्याही थीं जिनमें एक कुर्मी समुदाय की न्हाळसाई व दूसरी गड़रिया समुदाय की बानाबाई थी। इसलिए पहले इन दोनों समुदायों में ब्याह शादी होती थी।

पहला अध्याय

सारे सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों की बहुलता होने से उन्हीं की जाति के स्वार्थी ब्राह्मण पुरोहित, स्वार्थी धर्म के बहाने अनपढ़ किसानों को इतना तंग करते हैं कि उनके पास अपने नन्हें बच्चों को पाठशाला भेजने के साधन ही नहीं रहते। और कहीं किसी एकाध के पास साधन हों तो भी उन्हें गलत उपदेश देने से, उनकी बच्चों को पाठशाला भेजने की इच्छा ही नहीं होती।

निरक्षर किसानों को ब्राह्मण पुरोहित हमारे देश में धर्म के बहाने इतना सताते हैं कि इस संसार में कहीं इस तरह के नमूने का उदाहरण दूसरी जगह मिलना कठिन है। पहले के धूर्त आर्य ब्राह्मण ग्रन्थ रचयिताओं ने अपने स्वार्थी धर्म के झंझट, किसानों के पीछे इतनी सफाई से लगा दिये हैं कि किसान के जन्म लेने के पहले ही उसकी माँ जब ऋतुमती होती है, तब उसके गर्भाधान संस्कार से प्रारंभ होकर उसकी मृत्यु तक ये झंझट नहीं छूटते और वह इन झंझटों के कारण कितनी ही बार लूटा जाता है। इतना ही नहीं इसके मरने के बाद इसके बेटे को श्राद्ध आदि के बहाने इस धर्म का बोझ सहते रहना पड़ता है। क्योंकि किसानों की स्त्रियाँ ऋतुमती होते ही ब्राह्मण पुरोहित जप-अनुष्ठान और उससे सम्बन्धित ब्राह्मण भोजन के बहाने उनसे इतना धन छीन लेते हैं और इस तरह के ब्राह्मण भोजन लेते समय ब्राह्मण पुरोहित अपने सगे सम्बन्धियों और इष्टमित्रों के साथ घी-रोटी (बढ़िया भोजन) और दक्षिणा की इतनी धांधलियाँ करते हैं कि उनके बचे-खुचे अन्न में से बेचारे अनपढ़ किसानों को भरपेट खट्टी दाल-रोटी मिलना भी कठिन हो जाता है। ऋतुमती स्त्री की ऋतुशान्ति के बहाने ब्राह्मण पुरोहितों की उदरशान्ति होकर उनके हाथ में दक्षिणा आते ही, वे किसानों को आशीर्वाद देकर उन्हें, उनकी स्त्रियों को शनिवार अथवा चतुर्थी का उपवास करना चाहिए, का उपदेश देकर घर चले जाते हैं। फिर ब्राह्मण पुरोहित हर शनिवार और चतुर्थी के दिन किसान की स्त्रियों के पास से रुई के पत्ते की माला हनुमान जी के गले में पहनवाकर और घास के गुच्छे गणेश जी के मस्तक पर रखवाकर अनाज के रूप में दक्षिणा स्वयं ले लेते हैं। फिर कभी-कभी अवसर ढूंढकर इन व्रत-उपवासों की समापन क्रिया (उद्यापन) करने की सलाह देकर किसानों से छोटेमोटे ब्राह्मण भोज ले लेते हैं। इसी बीच सृष्टिक्रम के अनुसार यदि किसान स्त्री गर्भवती हो जाय तो किसानों से ब्राह्मण पुरोहितों के पास ब्रह्मचारी ब्राह्मण भेजने के तरीके और बातों ही बातों में पहले कभी मांगी हुई मनौतियाँ निकालने की चालाकियाँ शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं किसान की स्त्री प्रसूति होने के पहले ही उनकी किसान के घर रात दिन चक्करें लगने लगती हैं और उनसे बड़े मीठे ढंग से बातें करके, यजमानी का नाता जोड़कर, पिछली माँगी मनौतियाँ भी करवा लेते हैं। किसान की स्त्री को कहीं बेटा हो जाय तो ब्राह्मण पुरोहित की धनरेखा उभर आती है। वह इस तरह पहले मुख्य उपाध्याय किसान के घर जाते हैं और उनके घर के कुएं और रस्सी से समय पता लगानेवाली अनपढ़ स्त्री से बच्चे का जन्म का समय पूछकर, जिस-जिस राशि में अनिष्ट ग्रहों का योग हो, ऐसी राशियाँ जमाकर, बच्चे की जन्मपत्री इस तरह तैयार करते हैं कि अनपढ़ किसानों की पुत्र जन्म से बढ़ी हुई खुशी मिट्टी में मिलाकर उन्हें घबरा देते हैं। दूसरे दिन पिण्ड के शिवलिंग के सामने अपने भाई बिरादरी, सगे सम्बन्धी या इष्टमित्रों में पुरोहित ब्राह्मण को पारिश्रमिक देकर जप अनुष्ठान के लिए बिठलाते हैं और उनमें से किसी को उपवास के बहाने फलाहार के लिए किसान से पैसे दिलवाते हैं। गर्मी की ऋतु हो तो पंखे देने लगाते हैं, वर्षाऋतु हो तो छतरियाँ और ठण्ड की ऋतु हो तो सफेद मोटी ऊन की धोतियाँ (लोई) देने लगाते हैं। इसके अतिरिक्त उपाध्याय की युक्ति चल गयी तो वह किसान के पास से पूजा के बहाने तेल, चावल, नारियल, खजूर, सुपारी, घी, शक्कर, फल आदि पदार्थ निकलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। किसान के मन पर मूर्तिपूजा का प्रेमभाव अधिक जमे, इस उद्देश्य से कुछ पुरोहित जप अनुष्ठान समाप्त होने तक अपनी दाढ़ी वाढ़ी बढ़ा लेते हैं, कुछ केवल फलाहार करके रहते हैं। इस प्रकार के अनेक झूठे थापे देकर अप-अनुष्ठान समाप्त होने तक ब्राह्मण पुरोहित किसानों से अच्छा खासा माल खींच लेते हैं। अन्त में जप समाप्ति के समय ब्राह्मण पुरोहित अनपढ़ किसानों से ब्राह्मण भोज के साथ-साथ अधिक से अधिक दक्षिणा लेने के लिए कैसी-कैसी चालाकियाँ करते हैं, वे लगभग सभी को पता है।

आर्य ब्राह्मण पुरोहित अपनी संस्कृत पाठशाला में शूद्र ? किसानों के बच्चों को लेते नहीं, परन्तु वे अपनी प्राकृत मराठी पाठशाला में किसानों के बच्चों को लेते हैं और उनसे हर मास के वेतन के अतिरिक्त हर अमावस्या और पूर्णिमा को मुट्ठी मुट्ठी भर अनाज, कई त्यौहारों को ब्राह्मणों को दिया जानेवाला अनाज और दक्षिणा और बच्चों के अपने खाने के लिए लाये हुए चने चबैने में से चौथाई भाग लेकर, उन्हें वर्णमाला, अंकगणित, मोड़ी लिपि पढ़ना, निरर्थक पुराणों के श्लोक- - सिखाकर उन्हें श्रृंगारयुक्त लावणी अथवा लावणी-प्रतियोगिता की लावणी सिखाकर उसमें मुकाबला करने के योग्य बनाकर छोड़ते हैं। उन्हें अपने घर का हिसाब रखने योग्य शिक्षा भी नहीं देते। इसलिए इन लोगों का मामलेदार कचहरियों में प्रवेश तो एक कठिन बात ही है।

किसान बच्चों की मँगनी (ब्याह की बातचीत) के समय जोशी (पुरोहित) ब्राह्मण हाथ में पंचांग लेकर उनके घर जाते हैं। फिर उनके सामने राशिचक्र बनाकर उनसे लड़की लड़के का नाम पूछकर, मन ही मन अपने हित का संकल्प लेकर, बड़े ठाठ से अंगूठे का अग्रभाग उंगलियों के पोरों पर नचाकर कोई एकाध अनिष्ट ग्रह उनकी राशि से जोड़कर, उस ग्रह को शान्त करने के लिए जप-अनुष्ठान करने और उसकी परिसमाप्ति के लिए कुछ धन किसानों से ले लेते हैं। तत्पश्चात् किसानों के बच्चे की तारीख निश्चित करते समय, वधू के घर पर कपड़े की चौकोन तह पर चावल की अल्पना से चौकोन खाका बनाकर, उस पर लड़की और लड़के के पिताओं को बिठलाकर, उनके सामने सूखा नारियल, हल्दी व कुंकुम के छोटे-छोटे ढेर सजाते हैं। हल्दी, कुंकुम व अक्षत मैगाकर लड़के व लड़की की आयु, रंग और गुण का तिल मात्र विचार न करके, कामचलाऊ सुपारी से गणेश की स्थापना कर, समर्पण की गड़बड़ी से किसान से पर्व के पैसे झड़ाकर, कागज के टुकड़े पर निश्चित की गयी तारीख लिखते हैं। उस पर हल्दी- कुंकुम लगाकर उन दोनों के हाथ में देते हैं। इसके बाद वहाँ का सामान पैसों के साथ, चौक के चावल अपने आंचल में भरकर, गणेश जी सहित घर में खाने के लिए कमर में बाँधकर चले जाते हैं। विवाह से पहले हनुमान जी के मन्दिर में वधू की ओर के कपड़े वर को देते समय ब्राह्मण पुरोहित आने दो आने कमर में खोंसकर, पान का बीड़ा पगड़ी में खोंस लेते हैं। इसके बाद वधू के मण्डप में वर के आने पर, विवाह वेदी के सामने उन दोनों को खड़ा करने के लिए, पैर के नीचे के पटले पर थोड़े थोड़े गेहूँ डालकर, उस पर उन दोनों को आमने सामने खड़ा करते हैं। सामने वधू-वर के मामाओं के हाथ में तलवारें देकर, उन्हें उनके रक्षक बनाते हैं और वहाँ एकत्रित लोगों में से किसी एकाध का अंगवस्त्र (दुपट्टा) लेकर उस पर हल्दी कुंकुम के आड़े तिरछे पट्टे खींचकर, उसे वधू-वर के बीच तानकर कपड़ा परदे के समान खड़ा करके, बारी-बारी से कोई राग कल्याण में तो कोई राग भैरवी में श्लोक व आर्या के साथ शुभमंगल का पाठकर उन अनपढ़ किसानों के बच्चों का विवाह लगाते हैं। कितने ही धनी किसान- माली के विवाह में, उनकी भाई बिरादरी, सगे-सम्बन्धी व बरातियों की चिन्ता या परवाह न करके आये हुए ब्राह्मण दक्षिणा के लिए गोद में शाल की जोड़ी लेकर, बड़े शान से मसनद का टेका लेकर बैठे हुए मण्डप में इतनी गड़बड़ी मचाते हैं कि वधू-वर के पिताओं को, आये हुए व्यक्तियों का स्वागत-सत्कार कर, उन्हें पान सुपारी देने का भी मौका नहीं देते।

ऐसे निर्लज्ज हट्टेकट्टे भिखारी किसी दूसरे देश या जाति में मिलेंगे क्या? थोड़ी देर में विवाह लगानेवाले पुरोहित वधू-वर को आमने-सामने बिठलाकर, अनेक प्रकार की विधियाँ करते हुए, बीच-बीच में "दक्षिणां समर्पयामि" बोलते हुए अन्त में थोड़े से तिनके जमा करके, सुलगाकर, उसमें घी आदि पदार्थ डालकर वधू-वर को लाजाहोम के बहाने जोरदार धूनी देकर उनके अनपढ़ पिता के पास से अन्त की जोरदार दक्षिणा -सामग्री लेकर घर जाते हैं। चौथे दिन वधू-वर को वस्त्र दिये जाने की रस्म के समय एक दो अड़ियल किसानों को पकड़कर, वधू-वर के पिताओं के पास से अड़ाकर मनमानी रकम वसूलते हैं और इसी तरह मण्डप निकालने के दिन भी उनसे पैसा लेते हैं। उनमें से धनी किसानों को दानी कर्ण आदि दानशूरों की उपमा देकर, उनके सामने तरह-तरह की मीठी बातें करके, उन्हें इतना उकसाते हैं कि विवाह के अन्त में उनके घर बड़ी-बड़ी सभाएं करके, उसमें वैदिक, शास्त्री, पुराणिक कथावाचक और भिक्षुक पुरोहित ब्राह्मणों में भेद उपभेद न करके, उनसे दक्षिणा निकालकर अपने-अपने घर जाते हैं। जाते-जाते कितने ही रंगीले पुरोहित ब्राह्मण रात में मण्डप में नाच का कार्यक्रम है या नहीं पता लगाकर सिर पर छोटी-सी पगड़ी और गोद में छोटी सी शाल की जोड़ी रखकर, निमंत्रित करनेवाले की जाँघ से जाँघ सटाकर, मसनद का टेका ले सारी रात नाक में नसवार चढ़ाते हुए, इधर उधर नसवार की धूल उड़ाते मस्त नर्तकी के गाने सुनते बैठते हैं। बाद में आयु बढ जाने पर किसान के मरते ही, उनके बच्चे जब से घर- संसार करने लगें तब से मरने तक उन्हें पुरोहित ब्राह्मण भुलावे दे-देकर कैसे और कितना लूटते हैं, उस पर यहाँ थोड़ा-सा प्रकाश डालता हूँ।

किसानों के बच्चे अपना नया घर बाँधते समय शूद्र बेगारी में कड़ी धूप में हुए छाती और पेट पर ईंट गारे डोते हैं। मिस्त्री और बढ़ई ऊँची-ऊँची तपते गगनचुम्बी पहाड़ियों पर, बन्दर से भी अधिक ऊपर चढ़-चढ़कर, दीवार बाँधकर, लकड़ी के कलश जोड़कर घर तैयार करते हैं इसलिए उन पर दया करके, उन बेचारों को गृह प्रवेश के समय घी रोटी का भोजन कराने का वचन देते हैं। यह भोजन खेतीहर किसानों को देने से पहले पुरोहित ब्राह्मण किसानों के घरों की चकरें लगा कर, उन्हें बहुत से धार्मिक भुलावे देकर, कितने ही ब्राह्मण अधिकारियों की बेकार की सिफारिशें लगाकर, उनके नये घर में होमविधि करके घर की छतों के किनारों से कपड़े की चिन्दियों की निशानियाँ लटकाकर, पहले अपने बालबच्चों, स्त्रियों के साथ घी रोटी छककर खाकर, बचा खुचा, बासीकूसी भोजन घर के भोले भाले अनपढ़ मालिक को, बालबच्चों और काम करनेवालों के साथ गुड़ के साथ खाने के लिए छोड़, पान के बीड़े चबाते हुए गन्ने के खेत में दुबकी लोमड़ी की आवाज जैसा आशीर्वाद देकर, किसान से दक्षिणा झड़ाकर, पेट पर हाथ फिराते हुए घर-घर घूमते हैं। और कितने ही पुरोहित ब्राह्मण बालक, किसानों के प्रिय व्यक्ति बनकर, उन्हें नाम और यश पाने की लालसा में लगाकर, उनसे छोटी-बड़ी सभाएं करवाकर, उसमें कुछ ब्राह्मणों-पुरोहितों को शाल के जोड़े दिलवाकर, शेष को दक्षिणा दिलवाते हैं। किसानों के नये बनाये शौचालयों को निकलवाकर, उनसे नये मन्दिर, पीपल अथवा वटवृक्ष के चबूतरे बनवा लेने पर वहाँ पर उनसे व्रत आदि की समाप्ति के हवन आदि के बहाने ब्राह्मण भोजन और दक्षिणा लेते ही हर चैत्र मास में वर्ष प्रतिपदा (युगादि) के दिन पुरोहित ब्राह्मण किसानों के घर-घर जाकर, उन्हें वर्षफल पढ़कर, सुनाकर उनसे दक्षिणा लेते हैं। इसी तरह रामनवमी और हनुमान जयन्ती के निमित्त से, यदि गली में हो तो अथवा गरीब किसानों से चन्दा एकत्रित करके, घी रोटी का ब्राह्मण भोजन लेते हैं।

जेजुरी की यात्रा में किसान अपने बाल-बच्चों के साथ, जब तालाब आदि में स्नान करता है, तब पुरोहित ब्राह्मण वहाँ संकल्प करवाकर, सभी से एक-एक शिवाजी का सिक्का दक्षिणा में लेता है। इस यात्रा में पौन लाख से कम यात्री नहीं होते और उनमें से कितने ही भोलेभाले सम्पन्न किसानों की गोद में अल्हड़ मुरळी (देवदासी) छोड़ने के लिए, उनसे सुहागिनियों के निमित्त घी रोटी के लिए धन उगाहते हैं। इसके अतिरिक्त किसानों के खजाने से सूखा नारियल, खण्डोबा के मन्दिर में चढ़ाने के लिए खरीदते समय, पुरोहित ब्राह्मण इस खरीदी में भीतर ही भीतर अपना कमीशन रखकर, उन्हें अच्छा लूटते हैं।

हर आषाढ़ महीने में एकदशी के दिन पुरोहित ब्राह्मण किसी प्रकार की दान दक्षिणा देने की क्षमता न रखनेवाले गरीब किसान से भी कम से कम एक पैसा तो दक्षिणा लेते ही हैं।

पंढरपुर में लगभग सभी किसान स्त्री बच्चों के साथ चन्द्रभागा नदी में स्नान करते हैं। उस समय पुरोहित ब्राह्मण नदी के किनारे पर खड़े होकर, संकल्प का पाठ करके सभी से एक-एक शिवाजी के सिक्के का पैसा लेते हैं। यह यात्रा भी लगभग एक लाख व्यक्तियों से कम की नहीं होती। इनमें से कुछ किसानों के पास से दस सुहागिनियों और कुछ किसानों से कम से कम एक सुहागिन के खाने के खर्च का पैसा खींच लेते हैं और उधर किसान के घर के भीतर पत्तलों पर इन्हीं की स्त्रियाँ बैठायी हुई रहती हैं, वहाँ हर किसान को अलग ले जाकर कहते हैं कि देखो आपके लिए सुहागिन ब्राह्मण भोजन के लिए बैठ रही है, उन्हें कुछ दक्षिणा देने की इच्छा हो तो दे दो, नहीं तो उन्हें दूर से नमस्कार करके बाहर निकलो, ताकि वह विठोबा देवता को भोग लगाकर भोजन के लिए बैठे। इस तरह के विश्वसनीय शास्त्रसिद्ध धंधे करके पंढरपुर के सैकड़ों पुरोहित ब्राह्मण पण्डे धनी हो गये हैं।

हर श्रावण महीने में नागपंचमी पर बिल में घुसनेवाले साक्षात् नागों के टोकरे बगल में दबाकर किसानों के मुहल्लों में 'नाग को दूध पिलाओ, नागदक्षिणा समर्पयामि' ऐसा कह कहकर पैसा इकट्ठा करते हुए फिरनेवाले पुरोहित ब्राह्मणों की पुरखों से चली आनेवाली प्रवृत्ति, वैद्यों और सपेरों की दबोची हुई होने पर भी, इसकी हानि की शिकायत न करते हुए, केवल पत्थर या मिट्टी से बने नागों की पूजा करवाकर अज्ञानी किसानों से दक्षिणा लेते हैं।

पूर्णिमा के दिन श्रावणी के बहाने अछूत के गले की काली डोरी की खबर न लेते, कितने ही ठाठबाटवाले कुनबियों के गले में सफेद तागे की गंगाभटीर जनेऊ लकर दानदक्षिणा के लिए टूट पड़ते हैं। लगभग सभी किसानों के हाथ में राखी बाँधकर उनसे एक एक पैसा दक्षिणा में लेते हैं।

वर्दी प्रतिपदा को बहुत से धनी किसानों को सत्संग का शौक लगाकर, ब्राह्मण पुरोहित उनके गले में वीणा लटकाकर, उनके मित्र मण्डली के हाथों में करताल पकड़ाकर उन सबको मृदंग का चस्का लगाते हैं। बारी-बारी से रातदिन तोतारटन्त गाने गाते हुए उन्हें नाचने और टनटना उछलने कूदने लगाकर स्वयं बड़े ठाठ से मसनद का टेका लेकर देखते रहते हैं। उनकी ये हरकतें थोड़ी देर देखकर प्रतिदिन फलाहार के बहाने उनसे पैसे झड़ाते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी के दिन रात में हरिविजय का तीसरा अध्याय पढ़कर यशोदा की प्रसूति से उत्पन्न अशुद्धि का बहाना न बताकर किसानों से दक्षिणा निकलवाते हैं। प्रातः काल व्रत पूर्ण करने के बहाने किसानों के खर्च से तैयार घी रोटी का भोजन पहले स्वयं करके, बचा हुआ बासी कूसी भोजन किसानों, करताल मृदंग बजानेवालों के लिए छोड़कर घर चले जाते हैं।

अन्तत: श्रावण मास के अन्तिम सोमवार को बहुत से पुरोहित ब्राह्मण अज्ञानी किसानों से, कम से कम एक सुहागिन को भोजन कराने के बहाने भरपूर अनाज आदि लेकर, पहले अपने स्त्री बच्चों के साथ भरपेट खा पीकर, प्रसाद योग्य एक दो पूरनपोली (मीठी रोटी) व चावल, ऐसी वैसी किसी भी पत्तल पर रखकर, दूर से बिना स्पर्श किये किसान की गोद में देकर, उसे बहकाते हैं।

हर भाद्रपद मास में पुरोहित ब्राह्मण हरतालिका के बहाने बच्चे, स्त्री, बूढ़े

किसानों से एक-एक, दो-दो पैसे लूटते हैं। गणेश चतुर्थी को किसान के घर में गणेश के सामने तालियाँ बजाकर आरती करने के लिए उनसे कुछ न कुछ दक्षिणा लेते हैं। ऋषि पंचमी के दिन किसान की विधवा स्त्रियों को पानी के डबरों में डुबकियाँ लगवाकर ये ब्राह्मण पुरोहित, किसानों के बल पर गणेश के रिश्ते से लड्डू, पूरी आदि का भोजन करके, दिखावटी कीर्तन सुनने की भावना बतलाते हैं। भीतर से रातदिन प्रसिद्ध वेश्याओं के मुख पर ध्यान लगा रहने से व उनके सुरीले गाने सुनने में डूबे होने से किसानों के घर की गौरी देवी की ओर झाँकते भी नहीं।

चतुर्दशी को अनन्त के बहाने किसानों से अनाज की दक्षिणा लेते हैं। पितृपक्ष अर्थात् श्राद्ध के दिनों में लगभग सभी किसानों से लूटखसोट करने के लिए पीछे पड़ जाते हैं। इतना ही नहीं मेहनत मजदूरी करके गरीबी में जीनेवाली निराश्रित विधवा किसान स्त्री से भी गणेश के नाम पर कम से कम अनाज की दक्षिणा, काशीफल की फाँके लेकर, चरण छूने लगाकर ही छुटकारा देते हैं। फिर भोंसले, गायकवाड़, शिन्दे आदि की क्या कथा कहें ?

इसी बीच कपिलषष्ठी का अवसर आने पर, ब्राह्मण पुरोहित कितने ही धनी किसानों को वाई, नासिक आदि तीर्थस्थानों को ले जाकर, उनसे दानधर्म के बहाने अच्छा खासा धन खींच लेते हैं। साथ ही शेष निर्धन किसानों से स्नान करते समय कम से कम एक-एक पैसा दक्षिणा तो ले ही लेते हैं।

अन्त में अमावस्या के दिन अनाज व दक्षिणा के लालच से किसानों के बैलों के पैरों की पूजा करवाते हैं।

दशहरे के दिन घोड़ों और आपटे (एक प्रकार का वृक्ष) के वृक्षों की पूजा के लिए किसानों से दक्षिणा लेते हैं। कोजागिरी के दिन किसानों के दूध के प्रयोग से हाथ साफ करते हैं।

हर कार्तिक मास में बलिप्रतिपदा के दिन ब्राह्मण पुरोहित, अछूतों के समान हाथों में पंच आरती लेकर किसानों की आरती उतारते हुए "इडा पीड़ा जाये और राजा बली का राज्य आये" ऐसा आशीर्वाद देकर किसानों की आरती न उतारते हुए, हाथ में शाल की जोड़ी लेकर, उनसे यजमान का रिश्ता जोड़कर किसानों के घर-घर जाकर साग सब्जी माँगते फिरते हैं।

आळन्दी की यात्रा में जब किसान अपने परिवार के साथ इन्द्रायणी नदी में स्नान करते रहते हैं, तब ब्राह्मण पुरोहित उनके सामने संकल्प पढ़कर एक-एक पैसा दक्षिणा जमा करते हैं। यह यात्रा कभी भी पौन लाख से कम व्यक्तियों वाली नहीं होती। इसके बाद द्वादशी के दिन देव ब्राह्मणी सुहागिनों के बहाने कितने भोलेभाले किसानों से पी पूरी की और बहुत अधिक निर्धन हो तो सीधे सादे अनाज की दक्षिणा लेकर, अपने परिवार के साथ भोजन से तृप्त होकर, उन अज्ञानी भावुक किसानों को मौखिक निरर्थक आशीर्वाद देते हैं।

इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे गाँव के अज्ञानी किसानों को पन्द्रह दिनों का चस्का लगाकर, उनसे वर्ष के बारह महीने हर द्वादशी को बारी-बारी से घी-रोटी (पूरी) का भोजन निकाल लेते हैं। इतना ही नहीं कितने ही दूसरे जिलों में घनी किसानों को जरा बढ़ा-चढ़ाकर उनसे भी हलवा-पूरी के हजारों भोजन निकलवाते हैं। अन्त में दूसरे गाँवों के किसान पंचों द्वारा दुश्मनी से अपराधी ठहराकर भेजे गये किसानों का सिर मुण्डवाकर उन्हें प्रायश्चित के बहाने क्या कम नंगा करते हैं ?

द्वादशी वदी के दिन ब्राह्मण पुरोहित किसानों के जगन के तुलसी- वृन्दावन के सामने धोती का परदा फैलाकर मंगलाहक (विवाह-पद) के बदले दो चार श्लोक व आर्या बोलकर तुलसी का विवाह लगाते हैं और किसानों से भारती के पैसों के साथ गोद भरने का जो कुछ सामान मिल सके बटोरकर ले जाते हैं।

हर पौष मास में मकर संक्रान्ति के दिन ब्राह्मण पुरोहित किसानों के घर पर संक्रान्ति फल पढ़कर उनसे दक्षिणा लेते हैं और कितने ही निरक्षर भोले-भाले किसानों को अगाध पुण्य प्राप्ति का लोभ दिखाकर उनके गन्ने की फसल बड़े उत्साह से लुटवाते हैं।

हर माम महीने में महाशिवरात्रि को ब्राह्मण पुरोहित कितने ही किसानों के • मुहल्ले के मन्दिरों में शिवलीलामृत दुहराकर सूर्योदय से पहले समाप्त करते समय, उनसे ग्रन्थ पढ़ने के बदले दक्षिणा और अनाज ले लेते हैं।

हर फाल्गुन महीने में होली की पूजा करने के बाद किसानों का धन उदाने के लिए कहो या हिन्दूधर्म के नाम का डंका बजाने के लिए कहो मुँह पर हाथ मार मारकर शोर करते हैं अर्थात् उननन आवाज करके चीखते चिल्लाते हैं। फिर भी ये ब्राह्मण पुरोहित उन किसानों से कुछ दक्षिणा लिये बिना, उन्हें अपने-अपने सिरों पर मिट्टी धूल बल लेने की छूट नहीं देते।

उपरोक्त प्रतिवर्ष आनेवाले तीज-त्योहारों के अतिरिक्त बीच-बीच में चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण वा ग्रहों के उलट पलट प्रभावों के नाम पर ब्राह्मण पुरोहित किसानों से तरह-तरह के दान लेकर लगभग पर्वों के निमित्त मिली सामग्री बगलों में दत्नाकर, अपशगुन के प्रभाव की शक्ति से डराकर किसानों के मुहल्लों में भिक्षा माँगते रहते हैं। इसके अतिरिक्त किसानों के मन में हिन्दूधर्म के शक्तिशाली विधि- निषेध को भर देते हैं। ताकि वे इनके चंगुल में आ जाय। धनी किसानों के घर पर कभी-कभी ब्राह्मण पुरोहित पाण्डव प्रताप आदि व्यर्थ की पुराण कहानियाँ पढ़कर, उनसे पगड़ी व धोती के साथ धन भी झपटकर चल देते हैं। कितने ही नमकहरामी पुरोहित ब्राह्मण अपने किसान यजमानों के बहू-बच्चों को इसका चस्का लगाकर उन्हें पीछे लगने की आदत डाल देते हैं। उनसे बीच-बीच में मिलने का अवसर निकालकर, किसानों के घरों में सत्यनारायण की पूजा करवाकर, पहले किसान की गांठ से सवा सेर के लगभग शुद्ध साफ रवा, खालिस दूध, मक्खन का तैयार घी और शक्कर से तैयार किया प्रसाद गले में गिटककर, फिर अपने बालबच्चों के साथ पूरी खीर का भोजनकर, उनसे यथासाध्य दक्षिणा लेकर, उलटा उनके हाथ में लालटेन थमाकर घर-घर जाते हैं।

इसी बीच किसानों में से कुछ सामर्थ्यहीन स्त्री-पुरूष भूल से छूट जाने पर, ब्राह्मण पुरोहित उन सबको किसी मन्दिर में प्रतिदिन एकत्रित करके उन्हें राधाकृष्ण लीला से सम्बन्धित पुराण सुनने का चस्का लगा देते हैं। कथा समाप्ति के समय उन सबको होड़ा होड़ी में फँसाकर, उनसे किसी ट्रे ( तबक) में बहुत-सी दक्षिणा जमा करके, अन्त में उनके अलग से जमा किये खर्च से, बड़े ठाठबाट से पालकी में बैठकर, सारे श्रोताओं को पालकी के आगे पीछे चलाते हुए जोरदार जुलूस निकालते हैं।

कितने ही निरक्षर ब्राह्मण पुरोहितों को पंचांग से पेट भरने की बुद्धि न होने पर, वे अपने में से किसी एक बेवकूफ को शरीर में संचार हुआ देवता बनाकर, उनके पैर में खड़ाऊं और गले में वीणा डालकर, उस पर किसी शूद्र से छतरी तनवाकर, शेष सभी उसके पीछे झांझ, करताल ढोलक बजाते हुए "जय जय राम, जय जय राम " नाम का घोष करते हुए किसानों के मुहल्लों में भीख माँगते फिरते हैं।

कितने ही ब्राह्मण पुरोहित बड़े-बड़े मन्दिरों के विस्तृत सभा मण्डप में, अपने में से किसी आकर्षक लगनेवाले युवक को दिल की बात जाननेवाले का स्वांग रचाकर, हाथ में करताल थमाकर, बाकी सब उसके पीछे ताल मृदंग बजाते हुए उसकी धुन में "राधा कृष्ण राधा" बोलते हुए, नर्तक के समान हावभाव करते हैं। दर्शन के लिए आई हुई किसी धनी विधवा को अपने पीछे लगा लेते हैं। इस तरह पेट भर कर मौज उड़ाते रहते हैं।

कितने ही मन्दमति ब्राह्मण पुरोहित पुरोहिताई करने की भी बुद्धि न रहने के कारण अपने में से ही किसी भोले कारकून शरीर में देवता आने का रूप देकर, बाकी के ब्राह्मण गाँव-गाँव घूमकर किसानों से देवालय के अधिकारी की मनौती मनवाकर, उस बहाने काफी कुछ कमा लेते हैं।

कितने ही ब्राह्मण पुरोहित वेदशास्त्रों का अध्ययन करके प्रतिष्ठित ढंग से जीवन निर्वाह की क्षमता न होने पर, अपने जैसे अर्धविक्षिप्त अच्छे संस्कारवाले को दिल की बात जाननेवाला स्वामी बनाकर, शेष ब्राह्मण पुरोहित गाँव-गाँव जाकर "स्वामी सबके मन की इच्छाओं को जानता है "कहकर फँसाते हैं समझकर, उनमें से कुछ इच्छापूर्ति के विषय में ढंग से समझा देते हैं और उपाय बतलाते हैं, ऐसी अनेक भुलावे की बातें बनाकर अज्ञानी किसानों को स्वामी के दर्शन के लिए लाकर, उनसे पैसे झड़ा लेते हैं।

उपरोक्त वर्णित सभी ब्राह्मण पुरोहितों के चक्कर से किसानों की हेकड़ी समाप्त नहीं हुई तो, ब्राह्मण पुरोहित उन्हें बद्री केदार की तीर्थयात्रा की धुन लगा देते हैं। अन्ततः उन्हें काशी- इलाहाबाद - बनारस की यात्रा पर ले जाकर, हजारों रूपये खर्च करवाकर, उनकी अच्छी दाढ़ी मुंडवाकर घर लाकर पहुँचाते हैं। और अन्त में उनसे यात्रा पूरी करने के निमित्त बड़े बड़े ब्राह्मण भोज करवाते हैं।

अन्त में किसान की मृत्यु के बाद ब्राह्मण पुरोहित श्मशान भूमि में अन्त्यविधि। कराने का ढोंग रचाकर, उनके बेटों से अनेक विधियाँ करवाकर, प्रतिदिन उनके घर पर गरूड़ पुराण का पाठ करके, दसवें दिन से चौदहवें दिन तक की क्रियाओं के लिए कौए पुरोहितों से काँव काँव करके, पिण्डदान के लिए मान सन्मान देकर, उनसे गरूड़ पुराण की मजदूरी सहित कम से कम, ताँबा, पीतल, छतरी, लकड़ी, गादी, जूते आदि का दान लेते हैं। इसके बाद भी किसानों के लगभग सभी बच्चे मरने तक उनसे मरनेवाले के बाद्ध पर पिण्डदान करते समय उनके सामर्थ्य के अनुसार, दान-दक्षिणा प्रतिवर्ष लेते रहने की परम्परा इन पुरोहितों ने बनाये रखी है। अपना मतलब पूरा करने के लिए किसी को प्रबन्धक, किसी को पटेल, किसी को देशमुख आदि केवल मौखिक पद देकर ये पुरोहित ब्राह्मण अपने बेटे बेटियों के ब्याह शादी के अवसर पर, सागसब्जी, पत्तलों के लिए केले के पत्ते आदि मुफ्त ले लेते हैं। उन पर अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए अन्ततः विवाह के अवसर के अन्तिम भोजन-समारम्भ में उन्हें बुला लेते हैं और मण्डप में बैठा देते हैं। फिर पहले स्वयं और अपने सगे सम्बन्धी स्त्री पुरूषों की भोजन की पंक्ति निबटाकर, पत्तलों पर छोड़ी हुई झूठन समेटकर, फिर इनकी भोजन पंक्ति बिठलाते हैं। अपने पत्तलों की समेटी हुई झूठन बड़ी ही चालाकी से इन्हें परोस देते हैं। स्वयं को बचाकर, उनका स्पर्श न करते हुए पत्तल पर ये झूठन भी दूर से परोसते हैं। इन किसानों की बाजारू झोंपड़ी में रहनेवाली वेश्या के मुखस्पर्श में भी संकोच न करनेवाले ये लोग, किसानों को इतना नीच समझते हैं कि अपने आँगन के पानी के हौज या कुएं का उन्हें स्पर्श भी नहीं करने देते। फिर रोटी-बेटी के व्यवहार की बात तो कौन करेगा ?

उपरोक्त वर्णन पढ़कर मन में प्रश्न उत्पन्न होगा कि ये किसान लोग आजतक अज्ञानी रहकर ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा किस तरह लूटे जाते हैं? इसके लिए मेरा उत्तर है कि, पहले पहले ब्राह्मण पुरोहितों की इस देश में सत्ता प्रारंभ होते ही, उन्होंने अपने अधिकार में आये शूद्र किसानों को पढ़ाने पर पूरी पाबन्दी लगा दी और हजारों वर्ष उन्हें मनमाने ढंग से सता-सताकर लूट-लूटकर खाते रहे। इसके प्रमाण हमें उनके मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में मिलते हैं। आगे चलकर कुछ समय के बाद निष्पक्ष कुछ विद्वानों को ब्राह्मणों का यह व्यवहार अच्छा न लगने से उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की तथा आर्य ब्राह्मणों के इस कृत्रिम धर्म की दुर्गति बनाकर पीड़ित अज्ञानी शूद्र किसानों को आर्य पुरोहितों के बन्धन से मुक्त करने का जोरदार आन्दोलन चलाया । इसी बीच आर्यों के मुकुटमणियों में से एक महाधूर्त शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के सज्जनों के साथ अनेक प्रकार के वितण्ड़ावाद (निरर्थक तर्क) करके हिन्दुस्तान में परिवर्तन लाने का बहुत प्रयत्न किया। फिर भी बौद्ध धर्म की अच्छाई को रत्तीमात्र धोखा न होकर, इसके विपरीत बौद्धधर्म दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करता चला गया। तब फिर आखिरकार शंकराचार्य ने तुर्की लोगों को मराठों में मिलाकर, उनके द्वारा तलवार के बल पर यहाँ के बौद्धों को परेशान किया। आगे चलकर आये पुरोहितों पर गौ मांस और मद्यपान पर पाबन्दी लगाकर, अज्ञानी किसानों के मन पर वेदमन्त्रों की जादुई शक्ति और ब्राह्मण पुरोहितों की धाक जमा दी।

इसके बाद कुछ काल बीत जाने पर हजरत मुहम्मद के जवाँमर्द शिष्य, आर्य पुरोहितों के कृत्रिम धर्म और सौराष्ट्र के सोमनाथ जैसी मूर्ति को तलवार से ध्वस्त करके, शूद्र किसानों को आर्य पुरोहितों की ठगी चाल से मुक्त करने लगे, तब पुरोहित ब्राह्मणों में से मुकुन्दराज व ज्ञानोबा ने भागवत के ऐतिहासिक लेखों के कुछ कल्पित भाग लेकर, उनका प्राकृत भाषा में विवेकसिन्धु और ज्ञानेश्वरी इस नाम से दाँवपेंच का ग्रन्थ तैयार करके किसानों के मन को इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि वे कुरान और मुसलमान लोगों को नीच समझकर, उनसे द्वेष करने लगे। इसके बाद थोड़ा समय बीत जाने पर तुकाराम नाम का साधु किसानों के भीतर तैयार हुआ। वह किसानों में के शिवा जी राजा को ज्ञान देकर योग्य बनाने लगा। यह देखकर ब्राह्मण पुरोहित सहम गये कि कहीं यह शिवाजी महाराज को ज्ञानी, समझदार बनाकर उनके द्वारा ब्राह्मण पुरोहितों के कृत्रिम धर्म को उखाड़ने का काम न करे और किसानों को हमारे बन्धन से मुक्त न करवा दे। इस भय से ब्राह्मण पुरोहितों में के कट्टर वेदान्ती स्वामी रामदास ने महाघूर्त गंगाभट से सांठगांठ करके तुकाराम बाबा से शिवाजी का स्नेह बढ़ने नहीं दिया। आगे चलकर शिवा जी महाराज के बाद उनके प्रमुख पुरोहित पेशवा सेवकों ने, शिवा जी के उत्तराधिकारी को सातारा की गढ़ी में कैद कर रखा। पेशवाओं की अन्तिम कारगुजारी में उन्होंने गाजर-शकरकन्दी वरू (एक प्रकार का धान) खाकर और चटनी रोटी पर गुजारा करनेवाले, फटीचर (निर्धन) किसानों से कर वसूल किये हुए धन का एक पैसा भी, खेत की सिंचाई आदि कामों के लिए बाँध बाँधने का काम न करके, पर्वती के चहुँओर के क्षेत्रों में बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस हजार ब्राह्मण पुरोहितों को अवश्य शाल आदि से पुरस्कृत करने का जोरदार आयोजन चलाया। और हमेशा पंण्डारियों ने लूटमार कर ध्वस्त कर दिये गये किसानों से सख्ती से वसूल किये गये वस्त्रालंकार रखने के खाते में से, अज्ञानी किसानों को कम से कम सहज शिक्षा देने के लिए भी दमड़ी खर्च नहीं की, पर पुरोहित ब्राह्मणों के धर्मशास्त्रों का अध्ययन करनेवाले ब्राह्मणों को सैकड़ों रूपये खर्च करके ब्राह्मण भोजन देकर मौज उड़ायी।

पर्वती क्षेत्र के मवेशीघर (कांजी हाउस) में कटोरीनुमा गोल चमचे से खिचड़ी परोसकर खिलाने की पेशवाओं ने अवश्य धूम मचायी थी। इसमें कोई नयी बात नहीं; क्योंकि राव लोग असली आर्य जाति के ब्राह्मण थे। इसीलिए उन जैसे पक्षपाती दानशूर ने पर्वती जैसे किसी संस्थान में किसानों के अनाथ, विधवा व निराश्रित बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं की। केवल अपनी जाति के पुरोहित ब्राह्मणों, पुजारियों और चार-पाँच आनेवाले पुरोहित ब्राह्मणों को प्रतिदिन प्रात:काल स्नान के लिए गरम पानी, दो समय उत्तम भोजन की सुविधा, हर व्रत की समाप्ति के समय दूध-पेड़े आदि फलाहार तथा व्रत समाप्ति व पर्व-त्योहारों के अवसर पर उनकी इच्छानुसार पक्वान्तों की धूम, उन सभी के लिए आठों प्रहर, नगाड़े के साथ गायकों के गाने बजाने, सुनने, बैठकर आनन्द करने की व्यवस्था कर रखी थी। इस परम्परा को हमारी कायर अंग्रेज सरकार जैसी की तैसी रखकर चल रही है। आज भी इस परम्परा को निभाने के लिए मेहनती किसान-मजदूरों के पसीने की कमाई, कर के रूप में जाकर, उसमें हजारों रुपये खर्च होते हैं।

आज भी कितने ही किसान-मजदूर ईसाई धर्म स्वीकार करके मनुष्यपद पा चुके हैं। इससे पुरोहित ब्राह्मणों का महत्व कम होकर, अब स्वयं मेहनत- मजदूरी का काम करके पेट भरने के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं। यह देखकर कितने ही ब्राह्मण पुरोहित अपंग हिन्दूधर्म के पीछे लगना छोड़कर, अनेक तरह के नये समाज खड़े करके, उनके द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से मुस्लिम व ईसाई धर्म को बदनाम कर, उनके विषय में किसानों के मन में दुर्भाव पैदा करते हैं। जाने दो। परन्तु पुराने मूर्तिपूजा के समर्थक अथवा प्रचारक ब्राह्मण समाज के चाचा और सार्वजनिक सभाओं के नेता जोशी बाबाओं ने हिन्दूधर्म के भीतर के जातिभेद के दुरभिमान के पर्दे को अपनी आँखों से हटा यदि किसानों की स्थिति देखी होती तो उनके एकपक्षीय धार्मिक प्रतिबन्ध से ठगे जानेवाले दुर्भागी किसानों को अज्ञानी कहने की हिम्मत न होती। और यदि वे अपनी अंग्रेज सरकार को उन पर होनेवाले धार्मिक अत्याचार की सही-सही जानकारी देते तो शायद उनकी दया का झरना फूटकर, वे राजा लोग ब्राह्मण पुरोहितों को, शूद्रों को विद्यादान का काम न सौंप इसके लिए और कोई अलग उपाय ढूँढते ।

सारांश यह है कि पीढ़ियों से अज्ञानी किसानों के धन व समय की ब्राह्मणों द्वारा इतनी हानि होती आई है कि उनमें अपने बच्चों को पाठशाला भेजने की शक्ति ही नहीं रह गयी है। और आर्य पुरोहितों ने बहुत प्राचीन काल से "शूद्रों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं" कहकर शुरू की गयी परम्परा की दहशत किसानों के दिल में जैसी की तैसी बनी रहने से, उन्हें अपने बच्चों को विद्यालय भेजने का साहस भी नहीं होता। वर्तमान अपने दयालु गवर्नर जनरल साहब ने पाताल लोक के अमेरिकन प्रजातन्त्रात्मक राज्य के परमप्रतापी जार्ज वाशिंगटन महोदय का आदर्श लेकर, यहाँ के ब्राह्मण जो कहें वही धर्म और अंग्रेज जो बनाये वे नियम स्वीकार करनेवाले अज्ञानी मजदूर-शूद्रों दलितों को विद्वान पुरोहित ब्राह्मणों की तरह ही म्युनिसिपालिटी में अपनी ओर से सर्वाधिकारी चुनकर देने का अधिकार अवश्य दिया है। परन्तु इस विषय में पुरोहित ब्राह्मण अपनी विद्या के अभिमान व नशे में, शुद्ध पवित्र अनेक प्रकार के उसकों से, अज्ञानी शूद्रों-दलितों के साथ छक्के-पंजे करके ठगने से हमारे दयालु गवर्नर जनरल साहब के सिर पर अपयश न आये, तब हम समझेंगे कि हम ब्राह्मण-पुरोहितों की गंगा में घोड़े नहला आये हैं।

1. Sir William Jones, Vol. IV, Page III.

२. शूद्रों में जनेऊ पहनने की प्रथा महाराष्ट्र में नहीं थी। गांगामट ने शिवाजी राजा से सुवर्णतुला दान लेकर उन्हें जनेऊ पहनाया था। तभी से जनेऊ की प्रथा शुरू हुई है।

दूसरा अध्याय

सरकारी अंग्रेज अधिकारी अधिकतर ऐश-आराम में डूबे रहते हैं। इसलिए उनके पास किसानों की वास्तविक परिस्थिति की जानकारी लेने के लिए भी समय नहीं होता और उनकी इस असावधानी के कारण लगभग सभी सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों की ही बहुलता है। इन दोनों कारणों से किसान इतने लूटे जाते हैं कि उन्हें भरपेट भोजन और शरीर ढाँपने के लिए वस्त्र भी नहीं मिल पाता।

लगभग पूरे भारत में पहले कुछ विदेशी और मुसलमान बादशाह और कितने ही स्वदेशी राजे रजवाड़े थे। इन सभी के पास शूद्र किसानों में से लाखों सरदार, सन्मानित अधिकारी, सैनिक, अश्वारोही, पैदल सैनिक, तोपची, महावत, ऊंटवालों के रूप में और दलित प्रमुख नौकरियों पर रहने से, लाखों शूद्र और दलित किसान परिवारों को लगान देने में प्राय: अड़चन नहीं होती थी। क्योंकि अधिकतर परिवारों का एकाध सदस्य तो भी छोटी-मोटी सरकारी नौकरी में रहता ही था। परन्तु आज प्रमुख बादशाह, राजे रजवाड़े समाप्त हो जाने से लगभग पच्चीस लाख से अधिक शूद्र-दलित, किसान आदि लोग बेकार हो गये हैं और इन सबका बोझ खेती करनेवालों पर आ पड़ा है।

हमारी बहादुर अंग्रेज सरकार के कारण, सारे हिन्दुस्तान में हमेशा चलती रहनेवाली युद्ध-लड़ाइयाँ, जिनमें मनुष्यों का विनाश हो जाता था, बन्द हैं। इससे यह सत्य है कि चारों ओर शान्ति छा गयी है, पर इस देश में आक्रमण, शिकार आदि बन्द हो जाने से, लगभग सभी लोगों की वीरता और जवांमर्दी का क्षय होकर राजे रजवाड़े, घबराकर छिपकर बैठनेवाली स्त्री के समान, दिन में पवित्र शुद्ध वस्व (सोंवळा) पहनकर पूजापाठ करने के शौक में पड़ गये हैं और रात में निरर्थक सन्तानोत्पत्ति के लम्पटपने में डूबे होने से देश में जनसंख्या भी बढ़ चली है। परिणामस्वरूप किसानों की खेती के बँटवारे इतने बढ़ गये हैं कि पता नहीं कितने किसानों को आठ-आठ, दस-दस हिस्सों में आयी खेती पर गुजारा करना पड़ता है। और इस आठ-आठ, दस-दस हिस्सों में बैटकर नगण्य हो आयी खेती की फसल के लिए उनका एक दो बैल रखने का भी सामर्थ्य न होने से वे अपने पास- पड़ोसियों को साझे पर अथवा पट्टे पर अपने खेत देकर, अपने बाल-बच्चों के साथ किसी दूसरे गाँव में नौकरी चाकरी करके पेट भरने के लिए चले जाते हैं।

पहले जिन किसानों के पास बहुत थोड़ी खेती रहती थी और जिनका अपनी सेती से निर्वाह नहीं हो सकता था, वे आसपास के जंगल, टेकड़ी पहाड़ी पर के टीलों, दरों से गूलर, जामुन आदि के पेड़ों के फल खाकर और पलाश, महुए आदि पेड़ों के फूल, पत्ते तथा जंगल से तोड़कर लायी गयी ईंधन के योग्य लकड़ी बेचकर पैसा जमा करते थे। गाँव के चरागाह में खिलाकर पालने योग्य एक दो गाय, दो चार बकरियां पालकर, किसी तरह गुजारा कर लेते थे। इस तरह बड़ी ही ख़ुशी के साथ गांवों में जीवन बिता लेते थे। परन्तु हमारे माता-पिता के जैसी सरकार के यूरोपियन कर्मचारी, अपनी विलायती अठपहलू सारी बुद्धि खर्च करके नये-नये, बड़े बड़े जंगल - विभाग बनाकर, उनमें पर्वत, टेकड़ी, जंगल, घाटियाँ, खाली खुली जगह, चरागाह भर कर जंगल विभाग बढ़ाते जाने से, दोन होन गरीब किसानों की बकरियों भेड़ों को इस पृथ्वी पर जंगल की हवा खाने लायक भी जगह बची नहीं है। अब वे जुलाहे, बुनकर, कम्बल बुननेवाले, तुहार, बढाई आदि, चालाक आदमियों के कारखानों में, उनके साथ चुटपुट काम करके अपने पेट भर रहे हैं। और इंग्लैण्ड के कारीगर अपने देश से अनेक स्वादोंवाली शराब की बोतलें, डबलरोटी, बिस्कुट, मीठी चीजें, अचार, छोटी-बड़ी सुइयाँ, सुए, चाकू, कैंची, सिलाई मशीनें, धौंकनिया, अंगीठिया, रंगबिरंगे कीमती शीशे, तागे, डोरियाँ, कपडे, शाल, दस्ताने, मोजे, टोपी, छड़ी, छतरी, पीतल, ताम्बे, लोहे के टुकडे, ताले, जाभी, डॉबरी कोयला, तरह-तरह की गाड़ियाँ, हारनिस (वस्तुविशेष), जीन लगाम और जूते मशीनों से तैयार करके, यहाँ लाकर सस्ते दामों में बेचने से, यहाँ के लगभग सभी माल में मन्दी आ गयी है। इस कारण बुनकर, जुलाहे, मोमिन आदि इतने गरीब हो गये हैं कि उनमें से कितने ही बुनकर लोग अत्यन्त मन्दी के दिनों में भूखे मरने से, इज्जत की रक्षा करते हुए चोरी छिपे अपना निर्वाह, दाल की चूरी, चावल और गेहूं के भूसे और कई आम की गुठली साकर करते है। कई जुलाहे घर पर दाँत पर दौत रखकर घर में बैठे स्वी-बच्चों की दशा न देख सकने के कारण, शाम के समय निर्लज्ज होकर दो चार पैसे की उधार ताड़ी (ठर्रा) पीकर बेसुध हो घर पहुँचकर मूर्ख के समान पड़े रहते हैं। कितने ही जुलाहे गुजराती मारवादियों से मजदूरी पर कपड़े बुनने के लिए लाये रेशम व कलाबत्तू, जिस दाम में बिके बेचकर, बालबच्चों का गुजारा करके, गुजराती मारवाड़ी को झाँसा देकर रातों रात किसी दूसरे गाँव को भाग जाते हैं। इस तरह पेट के पीछे लगे भूखे बेकार किसानों को कैसी और कौनसी सहायता की जाय ?

दूसरी बात यह कि ब्राह्मणों ने, शूद्रों व दलितों पर, प्राचीन काल में उनके पुरखों ने जो बड़े प्रयत्न और चालाकी से वर्चस्व जमाया था और जिसे वे चिरकाल तक चलाना चाहते थे ताकि ये लोग केवल घोडे, बैल आदि जानवर जैसे चुप रहकर उन्हें सुख देते रहें या फिर निर्जीव खेत जैसे बनकर उनके लिए आवश्यक और आरामदायक चीजें पैदा करते रहें, इस उद्देश्य से, अटक नदी के आगे कोई हिन्दू जा न पाये, यदि जायगा तो वह भ्रष्ट हो जायगा, ऐसी बातें हिन्दूधर्म में घुसेड़ दी हैं। इससे ब्राह्मणों का उद्देश्य अवश्य पूरा हुआ पर अन्य लोगों का बहुत नुकसान हो गया है। अन्य लोगों के चालचलन आदि का सान्निध्य अथवा परिचय न मिलने से, वे सही में अपने को मनुष्य प्राणी न समझते हुए, केवल जानवर समझने लगे हैं। अन्य देशों के लोगों से व्यापारधंधा बिल्कुल न होने से वे एकदम कंगाल हो गये हैं। इतना ही नहीं परन्तु "अपने देश में सुधार करो, अपने देश में सुधार करो" इस तरह की केवल ऊपरी दिखावे का सुधरे हुए ब्राह्मणों का शोर-शराबा जो होता है, • उसका कारण भी ऊपर कही गयी धर्म की बात ही होनी चाहिए, यह निर्विवाद सत्य है। इस बनावटी बात के कारण, बुनकर, बढ़ई आदि कारीगरों का तो बहुत ही नुकसान हुआ है और यह बात आगे उन्हें किस स्थिति तक पहुँचायेगी इसका अनुमान सच्चे देश का भला चाहनेवाले के अतिरिक्त कोई नहीं लगा सकता।

कोई ऐसा कह सकता है या राय दे सकता है कि गरीब किसानों ने, जिन किसानों के पास भरपूर खेती हो, उनके पास काम करके गुजारा करना चाहिए। परन्तु लगभग सभी जगह सन्तान में वृद्धि होने से कुछ वर्ष बारी-बारी से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के लिए बिना बोये छोड़ने के लिए भरपूर खेती की जमीन किसानों के पास बची नहीं इस तरह खेती की भूमि को विश्राम न मिलने से उसकी उपजाऊ शक्ति भी क्षीण हो चुकी है। उसमें पहले जैसी फसल देने की शक्ति नहीं रही है। इसलिए उन्हें अपने परिवार का निर्वाह करते-करते नाक में दम आ रहा है। फिर यह कैसे संभव है कि वे अपने गरीब किसानों को मेहनत-मजदूरी देकर उनका भी पालन करें ? इस तरह चारों ओर से परेशानी में पड़े हुए बहुत से किसानों को अपने नंगे भूखे बच्चों को पाठशाला भेजने का समय ही नहीं मिल पाता। इस स्थिति को अपने दूरदर्शी सरकारी कर्मचारी अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए वे अपने अज्ञानी और चुप रहनेवाले किसानों को पढ़ाने के बहाने, लाखों रूपये लोकल फण्ड में जमा करते हैं और इसका एक तृतीयांश भाग शिक्षा विभाग में लगाकर, कहीं-कहीं मामूली मामूली पाठशालाएं चला रहे हैं। इन पाठशालाओं में थोड़े बहुत किसान अपने बच्चे भेजते हैं, परन्तु उनको पढानेवाले अध्यापक स्वयं किसान न होने से, उनमें पढ़ाने के काम के प्रति जैसी आस्था होनी चाहिए, वह संभव हो सकती है क्या ? जो लोग अपने धर्म की शेखी बघारकर, किसानों को नीच समझ, हर समय शुद्धता, पवित्रता (सोवळे) के लिए स्नान-संध्या व पवित्र वस्त्रधारण करने में ही लगे रहते हैं उनसे यथासमय योग्य शिक्षा न मिलने से, किसानों के बच्चे जैसे के तैसे मूर्ख ही रह जायेंगे, कहना कोई नयी बात कहना नहीं है। क्योंकि आज तक किसानों से लोकल फण्ड के लिए जमा किये गये पैसों के अनुपात में, क्या किसानों में से सरकारी कर्मचारी तैयार हुए हैं? यदि हाँ तो वे किस विभाग में किस पद पर काम कर रहे हैं, इसका विवरण, शिक्षा विभाग के जानकार डायरेक्टर साहब को चाहिए कि नाम और काम का ब्योरेवार पत्रक तैयार करके, सरकारी गजट में छापकर, प्रसिद्ध करें। इसे देखकर किसान अपने माता-पिता जैसी सरकार को बहुत उत्साह से आशीर्वाद देंगे और सरकारी अधिकारियों की आँखें खुलेंगी। क्योंकि छोटे-छोटे गाँवों में लगभग जितने भी अध्यापक रहते हैं, वे प्रायः ब्राह्मण ही रहते हैं। उनका वेतन आठ-बारह रुपयों से अधिक नहीं रहता। और जिनकी योग्यता पूने जैसे शहर में चार-छ: रुपये से अधिक नहीं रहती, ऐसे भूखे अविद्वान ब्राह्मण अध्यापक, अपने स्वार्थी धर्म व बनावटी जातीय अभिमान मन में रखकर, किसानों के बच्चों को पाठशाला में पढ़ाते-पढ़ाते खुलेआम उपदेश देते हैं कि तुम्हें पढ़कर, यदि मुंशीगिरी अर्थात् क्लर्क की नौकरी न मिली तो क्या हमारे जैसा पंचांग हाथ में लेकर घर-घर भोल माँगोगे ?

ऐसे अनपढ़ किसानों के खेतों की हर तीस वर्ष बाद पैमाइश करते समय, हमारी धार्मिक सरकार की आँखें बन्दकर प्रार्थना करनेवाले यूरोपियन कर्मचारी, किसानों के सिर पर थोड़ा तो भी लगान का बोझ बढ़ाये बिना तयास्तु की आरती करके छुटकारा पाते नहीं। परन्तु हमेशा के चलनेवाले काम चाललू रखकर शिकार के शौकीन अंग्रेज कर्मचारी ऐशभाराम, मौजमस्ती में डूबे रहने से, उनके अधीनस्थ धूर्त ब्राह्मण कर्मचारी क्या किसानों को कम नंगा करते हैं? और क्या अंग्रेज कर्मचारियों की इस पर बारीक नज़र है ?

जब अनपढ़ व मूर्ख किसानों में, खेती में बाँध (सीमा) या साझेदारी के कुँए के प्रश्न को लेकर भाई-बिरादरी में झगड़ा शुरू हो जाता है और मारपीट हो जाती है, तो कलयुगी नारदमुनि पुरोहित ब्राह्मण, दोनों पक्षों के किसानों के पास जाकर, उन्हें अनेक तरह से समझाकर, दूसरे दिन किसी एक पक्ष को बढ़ावा देकर, उनके नाम का प्रार्थनापत्र तैयार करके मामलेदार के पास भिजवाते हैं। इसके बाद प्रतिवादी व गवाहदार, समन्स लेकर आनेवाले पट्टेदार को साथ लेकर अपना- अपना सम्मन पेश करने के लिए कुलकर्णी के घर पहुँचते हैं और अपने समन्स पेश करके सिपाही को दरवाजे के बाहर ही रखते हैं। दोनों पक्षों के लोगों को अलग- अलग एक ओर ले जाकर अलग-अलग समय पर अकेले में मिलने के लिए कहते हैं और विश्वास दिलाते हैं कि इसका कोई न कोई तोड़ निकालेंगे। इसके बाद निश्चित किये हुए समय पर वादी और प्रतिवादी के घर आने पर कहते हैं "आप अधिक नहीं पर इतनी रकम तक मन बड़ा करो तो, मामलेदार के मुंशी से कहकर तुम्हारे प्रतिवादी को कुछ न कुछ सजा देने लगाऊंगा। क्योंकि यह सब फड़नवीस (मुंशी) के ही हाथ में रहता है। मेरे कहने के अनुसार कुछ न होने पर, मैं आपकी रकम उसके पास से वापिस लाकर तुम्हें दे दूंगा और मेरे प्रयत्न के लिए भैरव देवता तुम्हें जो कुछ भी समझ दे, दे देना या फिर न भी दें तो कोई चिन्ता नहीं। मेरी इस बारे में कोई शिकायत नहीं। आपको सफलता मिले, तो मुझे सब कुछ मिलने के समान ही होगा"। उसके बाद प्रतिवादी पक्ष के लोगों के पास से वादी पक्ष से दुगनी और अपने प्रयत्न के लिए थोड़ी बहुत रकम लेकर उससे अपने कथनानुसार शिकायत पत्र तैयार करते हैं और उसके लिए दो तीन बनावटी साक्षीदार (गवाह) देने का आग्रह करते हैं। ताकि फड़नवीस (मुन्शी) से कहकर, उनका बाल बांका भी न होने दें। कहते हैं उसका मामलेदार पर कितना अधिक प्रभाव है, तुम जानते ही हो। और इस समय मैंने तुमसे जो कुछ ठहराया है, उसके अनुसार काम न बनने पर, उसी दिन तुम्हारा पैसा उसके पास से लाकर तुम्हें दे दूंगा। परन्तु यह मैं अभी कह दे रहा हूँ। मेरे प्रयत्न के लिए दिये हुए पैसों में से एक कौड़ी भी वापिस नहीं दूँगा। नहीं तो इस झंझट में पड़े बिना मेरा कोई काम नहीं अड़ता। इसके बाद मामलेदार की कचहरी में जाकर ब्राह्मण कर्मचारी ऐसे अनपढ़ वादी प्रतिवादियों व गवाहदारों के बयान लेते समय, जिस पक्ष ने उसकी मुट्ठी गरम की होगी, उनके बयानों में कुछ निर्देशक प्रश्न करके अनुकूल बयान तैयार करते हैं और जिस पक्ष के लोगों से उनकी मुठ्ठी गरम नहीं हुई हो, उनके बयान तैयार करते समय, उनकी दलीलों को आगे पीछे करके ऐसा बयान तैयार करते हैं कि पढने या सुननेवाले के मन में अभियोग का वास्तविक रुप न आये और वे कुछ उल्टा ही समझ लें। कितने ही ब्राह्मण क्लर्क अनपढ़ किसानों का बयान लिखते समय कुछ दलीलों की धाराएं •अथवा पैरेग्राफ बिल्कुल निकाल देते हैं। कितने ही ब्राह्मण क्लर्क किसानों के बयान अपने घर ले जाकर, रात में दूसरे बयान तैयार करके सरकारी कार्यालय में लाकर रख देते हैं। ऐसा होने पर यदि कोई निष्पक्ष अफसर होने पर भी उसके हाथ से अन्याय होना संभव होता है। इसके बाद जेब टटोलनेवाले बगुला वकील के बढ़ावा देने पर उनके द्वारा अंग्रेज कलेक्टर के पास अपील करने पर, उनके जिन दफ्तर के प्रधानों की जिस पक्ष के लोगों द्वारा मुट्ठी गरम होगी, वे उसके अनुसार अपील करनेवाले के बयान की सुनवाई कलेक्टर के सामने करते हैं और उस समय बयान की बहुत-सी बढ़िया दलीलें, पढ़ते समय, हटा देते हैं। फिर कलेक्टर के मुख से ये सुनहरी वाक्य "आपकी शिकायत तर्कपूर्ण है " निकलता है। अपने अनुसार निर्णय का अवसर न मिलने पर दफ्तर का प्रधान उस पर अपनी इच्छानुसार गिचपिच मराठी लिखकर, शाम के समय जब कलेक्टर अपनी पत्नी के साथ सायंकालीन भ्रमण पर जाने की गड़बड़ी में रहता है तब या फिर कोई अच्छी मराठी समझनेवाला जबर्दस्त साहब रहने पर, दूसरे दिन बड़ी-सी दावत या भोज से लौटकर, जागने के समय जब वह सुस्त और गुंगी में रहे अथवा शिकार के लिए जाने की गड़बड़ में रहे, पहले पहले उसके कहे मन्तव्य को जैसा का तैसा पढ़कर, उस निर्णय पर उनके हस्ताक्षर ले लेता है।

कितने चिड़चिड़े कलेक्टरों के सामने धूर्त प्रधान अधिकारी का न चलने पर, वे कुछ बेढंगे अनपढ़ किसानों का मामला मुख्य कार्यालाय में न लिखकर, उस किसान को कलेक्टर की सवारी के पीछे, पैरों को पत्ते बांधकर, बासी टुकड़े चबाते हुए घुमा घुमाकर, हड्डी हड्डी ढीली करके मस्ती कम कर देते हैं। और कितने ही एकदम अज्ञानी किसानों की दरख्वास्त एक दो दिन फाइल में न लगाकर, उसके प्रतिपक्षी से थोड़ी बहुत रिश्वत लेकर उस दरख्वास्त को गायब ही कर देते हैं। अन्ततः दोनों पक्षों में से जो अधिक पैसा खर्च करे वह विजयी होता है, तब तक लगभग सारे गाँव के लोगों में ईर्ष्या पैदा होकर गाँव में दो दल बन जाते है। इसके बाद पोले (जानवरों का त्यौहार) के दिन बैलों को सीधा हाथ और आधी रोटी कौन दे, इस बात को लेकर दोनों दलों में जबर्दस्त मारपीट हो जाती है। कितनों के ही सिर फूटने पर पुरोहित ब्राह्मण (लगभग सभी फौजदारी, दीवानी आदि के झगड़े फिसाद किसानों में पैदा करनेवाले ये कलयुगी नारदमुनि पुरोहित ब्राह्मण ही रहते हैं) कुलकर्णी दोनों दल (गुट) बालों को दिखावटी शाबाशी देकर, भीतर ही भीतर खोखले पुलिस पटेलों से हाथ मिलाकर तालुके के मुख्य पुलिस गुण्डे को भड़काते हैं। तब वहाँ से भीतर कच्छा बांधकर, ऊपर से काली पीली पतलून व जूते चढाकर, सिर पर पगड़ी सुशोभित करके, हाथ में रंग बिरंगी बेंत ले मरे भूसे सिपाहियों के पीछे भागते हुए एक दो मतवाले असभ्य हवलदार और जमादार बगल में धार मिटी हुई तलवारें लेकर पहले गाँव में आते हैं। दलितों और पुलिस पटेल की सहायता से लगभग गाँव के दोनों गुटों के लोगों को पकड़कर चौबारे पर कैद करते हैं और पहरेदारों को छोड़ बाकी सारे सिपाही व अमलदार अनपढ़ पटेल की सहायता से, मारवाड़ी की दुकान से मनमाने दाम और वजन से भोज्य सामग्री लेकर चौबारे पर लौटते हैं। यदि किसी ने शराब की दावत दी हो तो झूमते हुए, छककर खाते हैं। फिर थोड़ी-सी पूछताछ, घाँस घपट्टी, रौब दिखाकर सारे कैदियों को मुख्य थाने में ला, फौजदार के सामने खड़ा कर, उनकी आज्ञानुसार पूरी जांच होने तक उन्हें कच्ची कैद में रखते हैं। इसके बाद कैदी किसानों के घर के लोग अपनी पत्नी व बच्चों के पहने हुए छोटे मोटे आभूषण तोड़कर लायी हुई रकम, फौजदारी की कचहरी के कर्मचारियों को समझाने में कैसे बरबाद करते हैं, उसके कुछ उदाहरण यहाँ देता हूँ। किसी एक गुट के आदमी अधिक जख्मी हो जाने पर धूर्त कर्मचारी कुलकर्णी के दरवाजे पर दूसरे गुट से कुछ पैसा खाकर उनके सारे घाव भर देते हैं और उनका सुराग मिटाकर मामला तैयार करके मजिस्ट्रेट के पास भेजने में देरी कर देते हैं। कभी-कभी किसी धूर्त कर्मचारी की मुट्ठी गरम होने पर वे दूसरे गुट के दलील के गवाहदारों को उनके मुकदमें में गवाही दे ही नहीं, कहकर उनके साहूकार को समझाकर तैयार करते हैं। वे कभी-कभी दलील गवाहों को अपने गवाह पेश करने (हाजिर करने) से पहले उन्हें कुलकर्णी के माध्यम से अनेक तरह की डरावनी धमकियाँ देकर, किसी अच्छे दूर गाँव को भगा देते हैं। उनमें से कुछ अनपढ़ किसान कुलकर्णी द्वारा ब्राह्मण कर्मचारियों की चेतावनी की परवाह न करके, कचहरी में अपनी गवाही देने के लिए आ जाय, तो एक निरक्षर होने से उनकी स्मरणशक्ति ठीक नहीं रहती और दूसरी बात उन्हें आगे पीछे के प्रश्नों का सन्दर्भ जोड़कर बयान देने की फुर्ती नहीं आती, इसलिए उनके बयान लेते समय धूर्त कर्मचारी उन्हें इतना घबरा देते हैं कि उन्हें 'माँ धरती जगह दे दे' की भावना घेर लेती है। वे कभी-कभी अज्ञानी किसानों की गवाही लेते समय, उनकी तरह- तरह से परेशानी बढ़ाकर, उन्हें इतना अधिक घबरा देते हैं कि उन्होंने जो सचमुच आँखों से देखा और कानों से सुना था, उसी रूप में गवाही देने की उनकी हिम्मत नहीं होती। इसके अतिरिक्त साहसिक कर्मचारियों के हाथ में भरपूर पैसा आ जाने पर, वे कुलकर्णियों की सहायता से कानून के नियम के अनुसार, अनेक प्रकार के बनावटी प्रमाण व गवाह तैयार करके, दिल में आये अनपढ़ किसानों को दण्ड या जुर्माना देने लगाते हैं। उस समय उन लोगों के पास जुर्माना भरने के पूरे पैसे नहीं होते, उनमें से बहुत से किसान अपने इष्ट मित्र और रिश्तेदार जो जुर्माना के पैसे पूरे करने के लिए घर चलकर देने आते हैं, उनके उधार लिये पैसे वापिस करके जेल की सजा पाये लोगों को छुड़ाने के लिए साहूकार से कर्ज माँगने जाते हैं। हमारी सरकार के पक्षपातपूर्ण कानून के कारण तब इज्जतदार साहूकार इन किसानों को अपने द्वार पर भी खड़ा होने नहीं देते। क्योंकि अपने पैसे किसानों को कर्ज में देकर, उसके बाद वापिस लेते सम्मन ये जेब टटोलनेवाले गँवार शूद्र, बेलिफ को समझा लेते हैं। उस समन पहुँचानेवाले और किसानों के सामने बन्द होकर साहूकारों को अपनी फजीहत कर लेनी पड़ती है। कितने ही ब्राह्मण नौजवानों ने कानून की पुस्तकें तोते के समान रट ली हैं, उनके कानूनी परीक्षा में पास होते ही, हमारी भोली सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी शानदार न्यायाधीशों की जगह देती है। परन्तु ये लोग सार्वजनिक जीवन के मौलिक महत्वपूर्ण भाईचारे के सम्बन्ध को तोड़कर, हम यहाँ के ब्राह्मण के वैध उत्तराधिकारी पुत्र हैं समझकर, लगभग दूसरी जाति के वयोवृद्ध, बुजुर्ग, निर्धन कमजोर व्यक्ति को तुच्छ समझकर, उसकी ओर लापरवाही करते हैं। पहले ये सरकारी प्रथा के अनुसार लगभग सभी गवाहदार लोगों को, कोर्ट में दस बजे हाजिर रहने का आदेश देते हैं और स्वयं लगभग बारह बजे कोर्ट में आते हैं। कोर्ट के किसी कमरे में उल्टे-सीधे लोट कर, बाद में आँखें पोंछते हुए बाहर निकलकर मंच की कुर्सी पर आसन जमा, जेब से पान का बीड़ा निकालकर मुँह में डाल, बन्दर से अधिक दाँत कचकचाकर चबाते हुए, पैर पर पैर रख जेब से डिबिया निकाल सुंघनी (नास) नाक में चढ़ाते हुए, लाल पगड़ी, काला चोगा, पतलून और बूट से रौबदार बनकर बैठते हैं। आये हुए वकील उनके सामने खड़े होकर मूँछों पर ताव देते हुए 'युवर ऑनर' रौबदार ढंग से कहते हैं। ये ब्राह्मण जज साहब अपने पेट पर हाथ फिराकर अपने जातभाई वकील से पूछते हैं "आपका क्या कहना हैं?" इसके बाद वकील अपनी जेब में हाथ डालते हुए कहता है।" आज एक खूनी मुकदमे के बारे में हमें आपके सेशन में हाजिर होना है। इसलिए आप मेहरबानी करके हमारी ओर के यहाँ के अभियोग को आज स्थगित रखें। " इतना कहते ही ब्राह्मण न्यायाधीश अपनी गर्दन हिलाकर स्वीकृति देता है। और वकील अपनी घोड़ागाड़ी पर सवार होकर अपना रास्ता नापता है और न्यायाधीश अपना काम शुरू करते हैं। इसके मैं यहाँ कुछ नमूने देता हूँ। कितने ही ब्राह्मण न्यायाधीश अपनी ऊंची जाति के घमण्ड में अथवा कल के ताजे नशे के बहाव में न्याय करते समय, बाकी सारी जातियों के बहुत से व्यक्तियों से भरे तुरे के बिना बात ही नहीं करते। कितने ही घमण्डी लोग कोर्ट में आते ही इन खूबसूरत ब्राह्मणों को झुककर नमस्कार नहीं करते। तो उनके जबानी बयान लेते समय उन्हें ये लोग व्यर्थ में ही सताते हैं। उसमें भी ब्राह्मण धर्म के विरूद्ध किसी जगह कोई समस्या उपस्थित हो जाने पर, उसमें शरीक बड़े-बड़े व्यक्तियों को कोर्ट में उपस्थित होने में थोड़ी-सी देर हो जाने पर, उन्हें सताने के लिए उनकी सम्पन्नता की अथवा उनके बुजुर्गपन की तिलमात्र चिन्ता न करते हुए खचाखच भरे कोर्ट में उनका बयान लेते हुए बुरा हाल कर देते हैं। उसमें ये ब्राह्मण, बौद्धधर्मी मारवाड़ियों की फजीहत कैसी करते हैं, इसे तो सारा संसार जानता है। कभी-कभी इन कपटी ब्राह्मणों के सिर में यदि वादी प्रतिवादी का कथन न घुस सका अर्थात् ये उसे समझ न सकें, तो ये स्नान संध्याशीलवाले ब्राह्मण कुत्ते के समान चिढ़कर उनके हृदय को कठोर शब्दों से घायल कर देते हैं। वह ऐसा कि "तू मूर्ख है, तुझे बीस कोड़े लगाकर एक ही गिनना चाहिए। तू लाल मुँह का भाई तीन चुटियाबाला लुच्चा है।" इस पर उनके चूँ चपट करने पर उस गरीब का मुकदमा रद्द कर देते हैं। इतना ही नहीं परन्तु इन विद्वेषी न्यायाधीशों के मन में आ जाय तो उनके सारे बयान घर ले जाकर कुछ दलीलों के पैरेग्राफ निकालकर, उनके बदले दूसरे बयान तैयार करके, उस पर मनमाने निर्णय नहीं देते होंगे? क्योंकि आजकल किसी भी बयान पर बयान देनेवाले के हस्ताक्षर या चिन्ह बनाने की प्रथा या परम्परा निकाल दी गयी है। सारांश यह है बहुत से ब्राह्मण न्यायाधीश मनमाने घासीराम कोतवाल जैसे निर्णय करने से कितने ही खानदानी सभ्य साहूकारों ने अपना लेनदेन का व्यापार ही बन्द कर दिया है। फिर भी बहुत से ब्राह्मण और मारवाड़ी साहूकार न्यायालय के अपमान का विधिनिषेध मन में न लाते हुए निरक्षर किसानों से लेन देन करते ही रहते हैं। वह इस तरह कि पहले परेशानी में फँसे किसानों को फूटी कौड़ी नहीं देते। बाद में उनसे लिखा लिये हुए कर्जदारी पत्र के आधार पर सरकारी विभाग से सेवा निवृत्त मामूली सी पेन्शन लेनेवाले लोगों से, सुशोभित पंचों के कोर्ट से हुक्मनामा लेकर, बाद में ब्याज के पैसे काटकर बाकी के पैसे उनके आँचल में डाल देते हैं।

इन्हीं दिनों कितने ही ब्राह्मण व मारवाड़ी साहूकार सामान्य निरक्षर किसानों से कहते हैं कि सरकारी कानून के कारण तुम्हें कुछ गिरवी रखकर हम कर्ज में रुपये दे नहीं सकते। इसलिए यदि तुम अपने खेत हमारे नाम खरीदीपत्र कर दो तो हम तुम्हें कर्ज दे दें। और जब तुम हमारा कर्ज चुका दोगे तो हम फिर तुम्हारे नाम खरीदीपत्र करके तुम्हारे खेत लौटा । इस तरह कसमें खाकर बोलते हैं। पर इन पवित्र व अहिंसक साहूकारों के पास से परिवार प्रेमी अनपढ़ भोले किसानों के खेत वापिस खरीदीपत्र करके शायद ही कोई ले पाता हो।

इसके अतिरिक्त ये पक्के धार्मिक साहूकार निरक्षर किसानों पर अनेक प्रकार के नकली जमाखर्च की कापी के साथ, नगद रोकड़ के प्रमाण देकर जब ब्राह्मण के कोर्ट में शिकायत लाते हैं, तब अनपढ़ किसान अपने आपको सच्चा न्याय मिलना चाहिए, इस दृष्टि से घर के गहने तोड़ मरोड़कर चाहे जितना पैसा इस टण्टे झगड़े में लगा देते हैं। परंतु उनकी जाति के विद्वान सिफारिशदार व सही सलाह देनेवाले समझदार व्यक्ति अर्थात् वकील न रहने से अन्त में उन पर ही आईर निकलता है। तब वे विचारशून्य चार पेट भरनेवाले बगुला भगत वकीलों के फुसलाने में आकर, न्याय मिलेगा इस आशा से उच्च न्यायालय में अपील करते हैं। परन्तु उच्च न्यायालय के अधिकतर अंग्रेज कर्मचारी ऐशोआराम में डूबे रहने से अनपढ़ किसानों को उच्च न्यायालय के लगभग सभी सरकारी विभाग के ब्राह्मण कर्मचारी कितना लूटते हैं, बतलाने के लिए यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। वे ये हैं-पहले धूर्त वकील अनपढ़ किसानों से स्टॅम्प कागज पर वकालतनामा और इनाम के लिए कर्ज की रकम लिखवा लेते हैं और फिर सरकार व मूल फरियाद के लिए स्टॅम्प आदि छोटे मोटे खर्च के लिए अगाऊ नगद पैसे लेते हैं। बाद में कितने ही धूर्त वकील, पेशकार की रखैल के घर पेशकार के सामने ही उसके गाने करवाकर किसानों से उन्हें पैसे दिलवाते हैं।

अनपढ़ किसानों को अड़ाकर रिश्वत खानेवाले सरकारी कर्मचारी और विवश होकर रिश्वत देनेवाले निरक्षर किसानों को कानून के अनुसार दण्ड मिलता है। हथियार बन्द पुलिस की छाती पर डाका डालनेवाले पुरोहित जो बुद्धि की अपेक्षा शक्ति से लाचार परिस्थिति से त्रस्त उसके हिस्सेदार बासीकूसी रोटी के टुकड़े खानेवाले डरपोक शस्त्रहीन गरीब किसान भाई के सिर पर जिस तरह कानूनी ढंग से पुलिस खर्च का पैसा लादते हैं, किसान के घर चोरी करनेवाले सभी जाति के चोरों को जिस तरह कानून के अनुसार दण्ड मिलता है, उसी तरह जब किसान अपनी पहली नींद के जोर में रहता है, तब उसके घर में इस तरह के चोरों के चोरी करने पर उसे कानूनन दण्ड क्यों नहीं मिलना चाहिए ? यदि ऐसी कानूनी व्यवस्था हमारी विधान कौन्सिल करके लगभग सभी पुलिसों का गला छुड़ा दे तो हमारी न्यायप्रिय सरकार का स्वर्ग के पास के शिमला में शंखनाद गूँजेगा ।

कितने ही कट्टर ब्राह्मण कर्मचारी अपनी जाति के पुराणिक को, कथावाचक को कितने ही अनपढ़ धनी किसानों से पैसा दिलवाते हैं। कितने ही दूरदर्शी धूर्त अनपढ़, भोले, धनी, किसानों को गांठकर उनसे गाँव गाँव में राधाकृष्ण के नये मन्दिर बंधवाते हैं, कुछ पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाते हैं और उनसे व्रत समाप्ति के उत्सव के निमित्त बड़े-बड़े ब्राह्मण भोजन करवाते हैं। कितने ही धूर्त कर्मचारी अंग्रेज कर्मचारियों की नजरें बचाकर लगभग सभी अनपढ़ किसानों को तरह तरह से कष्ट देते हैं। इस कारण किसान भीतर ही भीतर दुःखी रहने पर भी, उन कर्मचारियों के रातदिन अंग्रेज अधिकारियों के आगे-आगे चापलूसी करने या चुगली करते ही, वे उनके लिए उल्टा सिफारिश करके उनकी उन्नति करवाते हैं। उनमें से बहुत से अंग्रेज कर्मचारियों को जिन्हें दस बीस मिनट तक धाराप्रवाह मराठी बोलने में भी परेशानी होती है, ऐसे "टुम हम" करनेवाले अंग्रेज कर्मचारियों को, सातारकर छत्रपति महाराज, हिम्मत बहादुर, सरलश्कर, निम्बाळकर, घाटगे, मोहिते, दाभाडे, घोरपड़े आदि किसान जवांमर्दी के विशेष सिपाहियाना भाषणों में सारी शिकायतें उन्हें ढंग से समझाकर, कैसे दूर करते हैं, यह भगवान ही जाने। कितने ही धूर्त ब्राह्मण कर्मचारी अपने सिद्धान्तों से हमेशा हर समय व्यवहार करनेवाले जिले के कितने ही कुटिल बदमाश वाचाल (बोलने में पटु) पुरोहित ब्राह्मणों को आगे करके, उनके द्वारा स्थान-स्थान पर प्रचण्ड विशाल सामाजिक संगठन बनाते हैं और भीतर दूसरी तरह से शूद्रों में से किसानों, घसियारों, बढ़इयों, गुत्तेदारों, पेन्शन लेनेवालों व जायदादवालों पर अपना सिक्का जमाकर, उन्हें जोरदार खर्च में डालकर, जिस संगठन के चाहिए. सदस्य बना लेते हैं। अंग्रेज कर्मचारियों के घरेलू नाजुक कामों में सहायक उपयोगी कितने ब्राह्मण, पेशकार बनते ही, अंग्रेज कर्मचारी उनकी सिफारिश करके सरकार से उन्हें रावसाहब की पदवी दिलवाते हैं।

सरकारी विभाग के अंग्रेज उच्च कर्मचारियों की जब दूसरे जिलों में बदली हो जाती है, तब ये खुशामदी रावसाहब मनमाने मानपत्र तैयार करके उस पर शहर के चार पांच खोखली प्रतिष्ठा में घूमते रहनेवाले अनपढ़, धनी कुनबी-किसानों, मालियों, तेलियों व तम्बोलियों के टूटे-फूटे हस्ताक्षर लेकर, किसी निरक्षर शूद्र ठेकेदार के विशाल दीवानखाने में बड़ी बड़ी सभाएं करके, उन्हें मानपत्र देते हैं।

इससे आकाश छुनेवाली सुल्तानी के कारण की मार, अथवा टिड्डीदल से हुए नुकसान की कमी की तो पूर्ति हो जाती है। परन्तु लगभग छोटे बड़े सभी सरकारी विभागों में बहुत से अंग्रेज कर्मचारी ऐशआराम में डूबे रहने से, उन विभागों में पुरोहित ब्राह्मणों की भरमार हो जाती है और वे कोंकण के ब्राह्मण जमींदारों के समान यहाँ के निरक्षर किसानों का जो नुकसान करते हैं, उसके कभी भरने की आशा नहीं दीख पड़ती। इस विषय पर कच्चा चिट्ठा लिखने पर "मिस्ट्रीज ऑफ दी कोर्ट ऑफ लण्डन ” जैसी पुस्तकें तैयार हो जायगी। जब इन अनपढ़ किसानों की दयनीय स्थिति ईसाई लोगों से देखी नहीं गयी तब उन्होंने ग्रेट ब्रिटेन में यहाँ के शिक्षा विभाग के नाम से होली का संस्कार करना प्रारंभ किया। तब यहाँ के कुछ सभ्य व्यक्तियों सहित कितने ही बड़े सरदारों ने हिन्दुस्तान के शिक्षा विभाग के प्रमुख अधिकारी की थोड़ी धूल झाड़नी शुरू की। सभी स्थानों पर यह शुरूवात की गयी तब उसी दयावान गवर्नर जनरल साहब ने यहाँ के शिक्षा विभाग की पक्की जाँच के लिए, चार-पाँच बड़े-बड़े विद्वान व्यक्तियों की कमेटी बनाकर उसके प्रमुख पद पर मि. हण्टर साहब को बिठलाया। हण्टर साहब ने अपने साथियों को साथ लेकर अधूरे शिकारी के समान तीनों प्रेसिडेन्सियों में रेलगाड़ी से घूमना शुरू किया। परन्तु लगभग यहा के सभी शूद्र और दलित किसान निरक्षर रहने से, वे किस-किस तरह की विपत्तियों के संकट को झेलते हैं, वे सही रूप में जान ही न सके। इस विषय की बारीकी से खोज करने के लिए यदि वे किसानों की गन्दी झोपड़ियों में नाक पर थोड़ा कपड़ा लगाकर जाते और अपनी आँखों से उनकी वास्तविक दैन्य स्थिति को देखते तो ठीक होता। उन्होंने वहाँ के किसी निरक्षर नंगे किसान की साक्षी न लेकर हिन्दू, पारसी, ईसाई धर्म के बहुत से सौभाग्यशाली ब्राह्मणों की साक्षी लेने में, शक्ति लगाकर, स्थान-स्थान पर मिले मानपत्र बगल में दबाकर, अन्त में अपने पैर की धूल कलकत्ते की ओर झटक दी है। इसलिए उनकी रिपोर्ट से अनपढ़ किसानों को उचित लाभ मिलेगा, ऐसा हम अनुमान नहीं लगा सकते। तात्पर्य यही है कि मि. हण्टर साहब ने हमारे महाप्रतापी गवर्नर जनरल साहब महाराज को मि. टक्कर (साल्वेशन आर्मी के) साहब जैसे धूर्त लोगों से टक्कर लेने के लिए अपने काम से त्यागपत्र देकर, स्वयं दीन दरिद्र अनपढ़ किसानों के छकड़े में बैठकर, उन्हें अज्ञान अन्धकार से मुक्त करने के प्रयत्न का अवसर नहीं दिया। अर्थात् उनके नौबत का बाजा बजेगा और उस आवाज के प्रजातांत्रिक पाताल के राज्य के कान में पढ़ते ही, उनकी आँखें खुलेंगी और उनके हृदय में हमारे दीनबन्धु काले लोगों (रेड इण्डियन्स) के लिए दया उत्पन्न होगी, इसका अवसर नहीं दिया।

इस विषय के लिए सरकारी ब्राह्मण कर्मचारियों के लिए लिखी गयी बातों के लिए प्रमाण चाहिए तो स्थान-स्थान पर आज तक रिश्वत लेने अथवा झूठ लिखने के लिए ऐसे अपराधों के लिए सजा पाये व फरियाद दाखिल हुई घटनाओं को देखें तो प्रमाण आसानी से मिल जायेंगे।


तीसरा अध्याय

आर्य ब्राह्मण ईरान से कैसे आये और शूद्र किसानों की मूल वंश परम्परा बतलाते हुए हमारी वर्तमान सरकार जो अपने कर्मचारियों को मनमाना वेतन और पेन्शन देने के उद्देश्य से, नित्य नये-नये नाना प्रकार के कर लगाकर किसानों के सिर पर खर्च का बोझा कैसे लाद रही है, उनका पैसा चतुराई से जमा कर लेने से बेचारे किसान किस तरह पूरी तरह से कर्जदार बन चुके हैं, यह देखना है।

इन सब अगम्य, अतर्क्स, आकाश के विस्तृत खोखलेपन में अनेक प्रकार के तत्वों के संगठन व विघटन से असंख्य सामाजिक सूर्यमण्डल और उनके अनेकों उपग्रहों का निर्माण होकर ये शूद्र लोग विनाश की ओर जा रहे हैं। इसी तरह हर एक उपग्रह अपने-अपने प्रमुख सूर्य के अनुरोध से, घूमते हुए एक दूसरे के सान्निध्य व संयोग के अनुरूप इस भूग्रह पर एक ही माता-पिता से उत्पन्न एक बच्चा मूर्ख और दूसरा सयाना इस तरह की विरोधी गुण व स्वभाव की सन्तान को जन्म देता है। तो यह कहना कि मूर्खपन या सयानापन यह वंशानुगत है, उचित नहीं लगता। स्त्री पुरूष के संगम के समय उन दोनों की कफ वातादि से दोषगत प्रकृति के •अनुसार और उस समय के उनके मन पर सत्व, रज आदि त्रिगुणों में से, किसी भी गुण की प्रबलता आदि के परिणामों से गर्भ की स्थापना होती है। इसीलिए एक ही माता-पिता की भिन्न-भिन्न स्वभाव व प्रकृति की सन्तान होती है। यदि उपरोक्त वंशानुगत के सिद्धान्त को ही स्वीकारा जाय तो इंग्लैण्ड के प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तियों में टामस पेन व अमरीकी किसानों में जार्ज वाशिंगटन ये दोनों बुद्धिमानी व वीरता से वंशानुगत माननेवाले विलासी ऐशमाराम की जिन्दगी बसर करनेवाले राजा व

किसान का चाबुक - ३३

किसान का चाबुक - १९
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क्रमशः 


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