अर्जक संघ

 

अर्जक विवाह पद्धति :

यह पद्धति ब्रह्मिणवादी पाखंड से अलग है जिसे उत्तर भारत में राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

इसके लिए पूर्वांचल में डॉ मनराज शास्त्री एवं श्री राम आश्चर्य यादव (नेता) ने प्रचारित और प्रसारित किये। 


अर्जक संघ : 

रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998), एक समाजवादी नेता थे जिन्होने अर्जक संघ की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का 'कबीर' कहा जाता है।

‘धार्मिक यंत्रणाएं, एक साथ और एक ही समय में वास्तविक यंत्रणाओं की अभिव्यक्ति तथा उनके विरुद्ध संघर्ष हैं। धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, निष्ठुर, हृदयहीन संसार का हृदय, आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है।  यह लोगों के लिए अफीम है। मनुष्य ने धर्म की रचना की है, न कि धर्म ने मनुष्य को बनाया है।’ᅳकार्ल मार्क्स 

दुनिया में अनेक धर्म हैं, लेकिन अपने ही भीतर जितनी आलोचना हिंदू धर्म को झेलनी पड़ती है, शायद ही किसी और धर्म के साथ ऐसा हो। इसका कारण है जाति-व्यवस्था, जो मनुष्य को जन्म के आधार पर अनगिनत खानों में बांट देती है।  ऊंच-नीच को बढ़ावा देती है। मुट्ठी-भर लोगों को केंद्र में रखकर बाकी को हाशिये पर ढकेल देती है। ऐसा नहीं है कि इसकी आलोचना नहीं हुई। बुद्ध से लेकर आज तक, जब से जन्म हुआ है, तभी से इसके उपर उंगलियां उठती रही हैं। जाति और जाति-भेद मिटाने के लिए आंदोलन भी चले हैं, बावजूद इसके उसे मिटाना चुनौतीपूर्ण रहा है। उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक जागरण के दौरान, यह मानते हुए कि बिना धर्म को चुनौती दिए जातीय भेदभाव से मुक्ति असंभव हैᅳजोतीराव फुले ने हिंदू धर्म तथा उसको संरक्षण देने वाले वर्चस्ववादी जाति-व्यवस्था पर सीधा प्रहार किया। उसके बाद उसे बहुआयामी चुनौती डॉ.  आंबेडकर, ई. वी. रामास्वामी पेरियार, स्वामी अछूतानंद, नारायण गुरु आदि की ओर से मिली। 

जिन दिनों देश में आजादी की राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही थी, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘त्रिवेणी संघ’  पिछड़ी जातियों और अछूतों के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संघर्ष कर रहा था। आजादी के बाद 1970 के दशक में गठित अर्जक संघ ने जातीय शोषण और धार्मिक आडंबरवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की। इसके प्रणेता थे रामस्वरूप वर्मा। आरंभ में उसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के कानपुर और आसपास के क्षेत्रों व मध्य बिहार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित था। पिछले कुछ वर्षों से उसकी लोकप्रियता में तेजी आई है। संचार-क्रांति के इस दौर में सैकड़ों युवा उससे जुड़ चुके हैं।  इसके फलस्वरूप वह उत्तर प्रदेश की सीमाओं से निकलकर बिहार, उड़ीसा जैसे प्रांतों में भी जगह बना रहा है। 

रामस्वरूप वर्मा

अर्जक संघ की स्थापना रामस्वरूप वर्मा ने 1 जून 1968 को की थी।  इसके प्रचार-प्रसार में उनका साथ दिया ललई सिंह यादव और बिहार के लेनिन कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने। इनके अलावा इस आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम महाराज सिंह भारती, मंगलदेव विशारद जैसे बुद्धिवादी चेतना से लैस नेताओं ने किया। इन सभी का एकमात्र उद्देश्य था, सामाजिक न्याय की लड़ाई को विस्तार देना।  ऊंच-नीच, छूआछूत, जात-पांत, तंत्र-मंत्र, भाग्यवाद, जन्म-पुनर्जन्म आदि के मकड़जाल में फंसे दबे-कुचले लोगों को, उनके चंगुल से बाहर लाना।  

दरअसल, जोतीराव फुले हिंदू धर्म की विकृतियों की ओर बहुत पहले इशारा कर चुके थे।  उसके बाद से ही उसमें सुधार के दावे किए जा रहे थे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब दलितों और पिछड़ों का नेता कहलाने की होड़-सी मची थी। उससे लगता था कि लोकतंत्र जातीय वैषम्य को मिलाने में सहायक होगा। लेकिन हो एकदम उलटा रहा था। जिन नेताओं पर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी थी, वे चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगते थे। पुरोहितों के दिखावे और आडंबर में कोई कमी नहीं आई थी।  कहां यह विश्वास जगा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण ऊपर से समाज के निचले वर्गों पर होने वाले जाति-आधारित हमलों में कमी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक प्रकार से उन्होंने साफ कर दिया था कि हिंदू धर्म के नेता अपनी केंचुल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। वे जाति और धर्मांधता को स्वयं नहीं छोड़ने वाले। लोगों को स्वयं उसके चंगुल से बाहर आना पड़ेगा। पिछले आंदोलनों से यह सीख भी मिली थी कि जाति-मुक्त समाज के लिए धर्म से मुक्ति आवश्यक है।  मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म मनुष्यता है। जियो और जीने दो उसका आदर्श है। मामला धार्मिक हो या सामाजिक, मनुष्य यदि अपने विवेक से काम न ले तो उसके मनुष्य होने का कोई अर्थ नहीं है।  

पिछड़ी जाति के किसान परिवार में हुआ रामस्वरूप वर्मा का जन्म

रामस्वरूप वर्मा का जन्म कानपुर(वर्तमान कानपुर देहात) जिले के गौरीकरन गांव में पिछड़ी जाति के किसान परिवार में दिनांक 22 अगस्त 1923 को हुआ था।  उनके पिता का नाम वंशगोपाल और मां का नाम सुखिया देवी था। चार भाइयों में सबसे छोटे रामस्वरूप वर्मा की प्राथमिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई।  हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। वहां से 1949 में हिंदी में परास्नातक की डिग्री हासिल की।  उसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। वे शुरू से ही मेधावी थे। हाईस्कूल और उससे ऊपर की सभी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थीं।  

छात्र जीवन से ही रामस्वरूप वर्मा की रुचि राजनीति में थी। वे समाजवादी विचारधारा के निरंतर करीब आ रहे थे। उनका संवेदनशील मन सामाजिक ऊंच-नीच और भेदभाव को देखकर आहत होता था।  लोहिया उनके आदर्श थे। माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उच्चाधिकारी बने। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए रामस्वरूप वर्मा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाएं दीं और उत्तीर्ण हुए।  उन्होंने प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने इतिहास को चुना था और सर्वाधिक अंक उसी में प्राप्त किए थे, जबकि परास्नातक स्तर पर इतिहास उनका विषय नहीं था। यह उनकी मेधा ही थी। एक अच्छी नौकरी और भविष्य की रूपरेखा बन चुकी थी, लेकिन नौकरी के साथ बंध जाने का मन न हुआ।  वे स्वभाव से विनम्र, मृदुभाषी तथा आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा था। इसलिए प्रशासनिक सेवा के लिए साक्षात्कार का बुलावा आया तो उन्होंने शामिल होने से इन्कार कर दिया।  

महज 34 साल की उम्र में बने विधायक

परिचितों को उनका फैसला अजीब लगा। कुछ ने टोका भी।  लेकिन परिवार को उनपर भरोसा था। इस बीच उनकी डॉ. राममनोहर लोहिया और सोशलिष्ट पार्टी से नजदीकियां बढ़ी थीं।  सार्वजनिक जीवन की शुरुआत के लिए उन्होंने अपने प्रेरणा पुरुष को ही चुना। वे सोशलिष्ट पार्टी के सदस्य बनकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए।  1957 में उन्होंने ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप में कानपुर जिले के भोगनीपुर से, विधान सभा का चुनाव लड़ा और मात्र 34 वर्ष की अवस्था में वे उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बन गए।  यह उनके लंबे सार्वजनिक जीवन का आरंभ था। अगला चुनाव वे 1967 में ‘संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी’ के टिकट पर जीते। गिने-चुने नेता ही ऐसे होते हैं, जो पहली ही बार में जनता के मनस् पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते हैं।  रामस्वरूप वर्मा ऐसे ही नेता थे। जनमानस पर उनकी पकड़ थी। लोहिया के निधन के बाद पार्टी नेताओं से उनके मतभेद उभरने लगे। 1969 का विधानसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और जीते। स्वतंत्र राह पकड़ने की चाहत में उन्होंने 1968 में ‘समाज दल’ नामक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की थी। उद्देश्य था, समाजवाद और मानवतावाद को राजनीति में स्थापित करना। लोगों के बीच समाजवादी विचारधारा का प्रचार करना।  उनका दूसरा लक्ष्य था, ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए अर्जक संघ की वैचारिकी को घर-घर पहुंचाना।  

समाज दल और शाेषित दल का विलय

रामस्वरूप वर्मा द्वारा समाज दल की स्थापना से कुछ महीने पहले जगदेव प्रसाद ने 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ का गठन किया था।  दोनों राजनीतिक संगठन समानधर्मा थे। क्रांतिकारी विचारधारा से लैस। ‘शोषित दल’ के गठन पर जगदेव प्रसाद ने ऐतिहासिक महत्त्व का, क्रांतिकारी और लंबा भाषण दिया था।  उन्होंने कहा था

‘जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डालने जा रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी।  चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी।  परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।  जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी। ’ 

जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा दोनों व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त थे। दोनों ने साथ आते हुए  7 अगस्त 1972 को ‘शोषित दल’ और ‘समाज दल’ के विलय कर बाद ‘शोषित समाज दल’ की स्थापना की। 1980 तथा 1989 के विधानसभा चुनावों में वर्मा जी ने ‘शोषित समाज दल’ के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया।  दोनों बार उन्होंने शानदार जीत हासिल की। 1991 में उन्होंने ‘शोषित समाज दल’ के उम्मीदवार के रूप में छठी बार विधान सभा चुनावों में जीत हासिल की। 

मानव-मानव एक समान का नारा 

राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

हालांकि यह कोई नई पहल नहीं थी। जाति मुक्ति के लिए पेशा-मुक्ति आंदोलन की शुरुआत 1930 से हो चुकी थी।  आगे चलकर अलीगढ़, आगरा, कानपुर, उन्नाव, एटा, मेरठ जैसे जिले, जहां चमारों की संख्या काफी थीउस आंदोलन का केंद्र बन गए।  आंदोलन का नारा था‘मानव-मानव एक समान’।  उन दिनों गांवों में मृत पशु को उठाकर उनकी खाल निकालने का काम चमार जाति के लोग करते थे।  जबकि चमार स्त्रियां नवजात के घर जाकर नारा(नाल) काटने का काम करती थीं। समाज के लिए दोनों ही काम बेहद आवश्यक थे।  मगर उन्हें करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अछूत मानकर उनसे नफरत की जाती थी। डॉ. आंबेडकर की प्रेरणा से 1950-60 के दशक में उत्तर प्रदेश से ‘नारा-मवेशी आंदोलन’ का सूत्रपात हुआ था।  उसकी शुरुआत बनारस के पास, एक दलित अध्यापक ने की थी। चमारों ने एकजुटता दिखाते हुए इन तिरस्कृत धंधों को हाथ न लगाने का फैसला किया था। इससे दबंग जातियों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक था। आंदोलन को रोकने के लिए उनकी ओर से दलितों पर हमले भी किए गए।  बावजूद इसके आंदोलन जोर पकड़ता गया। 

रामस्वरूप वर्मा अपने संगठन और सहयोगियों के साथ ‘नारा मवेशी आंदोलन’ के साथ थे।  जहां भी नारा-मवेशी आंदोलन के कार्यक्रम होते अपने समर्थकों के साथ उसमें सहभागिता करने पहुंच जाते थे। अछूतों के प्रति अपमानजनक स्थितियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए उन्होंने ‘अछूतों की समस्याएं और समाधान’ तथा ‘निरादर कैसे मिटे’ जैसी पुस्तिकाएं लिखी।उनमें जातीय आधार पर होने वाले शोषण और अछूतों की दयनीय हालत के कारणों पर विचार किया गया था। चमार जाति के लोगों द्वारा पारंपरिक पेशा जिसमें मरे हुए पशुओं की खाल निकालना और उनकी लाशों को उठाना आदि शामिल था, के बायकाट की सवर्ण हिंदुओं में प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी था। उनकी ओर से चमारों पर हमले किए गए। रामस्वरूप वर्मा ने प्रभावित स्थानों पर जाकर न केवल पीड़ितों के साथ खड़े रहे।  

रामस्वरूप वर्मा एक समतामूलक मानववादी समाज की स्थापना के लिए शिक्षा को आवश्यक उपकरण मानते थे। उनका जोर सामाजिक शिक्षा पर भी था। इसके लिए उन्होंने ‘अर्जक साप्ताहिक’ अखबार भी निकाला।  उसका मुख्य उद्देश्य ‘अर्जक संघ’ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना था।  

किसान सबसे अच्छे अर्थशास्त्री

1967-68 में उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सरकार बनी तो रामस्वरूप वर्मा को वित्तमंत्री का पद सौंपा गया।  उस पद पर रहते हुए उन्होंने जो बजट पेश किया, उसने सभी को हैरत में डाल दिया था। बजट में 20 करोड़ लाभ का दर्शाया गया था। उससे पहले मान्यता थी कि सरकार के बजट को लाभकारी दिखाना असंभव है।  केवल बजट घाटे को नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान में भी यही परिपाटी चली आ रही है। जहां घाटे को नियंत्रित रखना ही वित्तमंत्री का कौशल हो, वहां लाभ का बजट पेश करना बड़ी उपलब्धि जैसा था।  केवल ईमानदार और विशेष प्रतिभाशाली मंत्री से, जिसकी बजट निर्माण में सीधी सहभागिता होऐसी उम्मीद की जा सकती थी। बजट में सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे लोकोपकारी कार्यों हेतु, उससे पिछले वर्ष की तुलना में लगभग डेढ़ गुनी धनराशि आवंटित की गई थी। कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि का प्रस्ताव भी था। इस सब के बावजूद बजट को लाभकारी बना देना चमत्कार जैसा था।  उस बजट की व्यापक सराहना हुई। रामस्वरूप वर्मा की गिनती एक विचारशील नेता के रूप में होने लगी। पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान उनका कहना था कि उद्योगपति और व्यापारी लाभ-हानि को देखकर चुनते हैं। घाटा बढ़े तो तुरंत अपना धंधा बदल लेते है। लेकिन किसान नफा हो या नुकसान, किसानी करना नहीं छोड़ता।  बाढ़-सूखा झेलते हुए भी वह खेती में लगा रहता है। वह उन्हीं मदों में खर्च करता है, जो बेहद जरूरी हों। जो उसकी उत्पादकता को बनाए रख सकें। इसलिए किसान से अच्छा अर्थशास्त्री कोई नहीं हो सकता। जाहिर है, बजट तैयार करते समय सरकार के अनुत्पादक खर्चों में कटौती की गई थी। कोई जमीन से जुड़ा नेता ही ऐसा कठोर और दूरगामी निर्णय ले सकता था।  

देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता की चर्चा अकसर होती है।  मगर बौद्धिक आत्मनिर्भरता को एकदम बिसरा दिया जाता है।  यह प्रवृत्ति आमजन के समाजार्थिक शोषण को स्थायी बनाती है।  समाज का पिछड़ा वर्ग जिसमें शिल्पकार और मेहनतकश वर्ग शामिल हैं, अपने श्रम-कौशल से अर्जन करते हैं।  जब उसको खर्च करने, लाभ उठाने की बारी आती है तो पंडा, पुरोहित, व्यापारी, दुकानदार सब सक्रिय हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, तरह-तरह के कर्मकांडों, आडंबरों, ब्याज और दान-दक्षिणा के नाम परवे उसकी मामूली आय का बड़ा हिस्सा हड़पकर ले जाते हैं।  धर्म मनुष्य की बौद्धिक आत्मनिर्भरता, उसके वास्तविक प्रबोधीकरण में सबसे बाधक है।  लेकिन जब भी कोई उसकी ओर उंगली उठाता है, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तुरंत परंपरा की दुहाई देने लगता है।  इस मामले में हिंदू विश्व-भर में इकलौते धर्मावलंबी हैं, जो पूर्वजों के ज्ञान पर अपनी पीठ ठोकते हैं। कुछ न होकर भी सबकुछ होने का भ्रम पाले रहते हैं।  तर्क और बुद्धि-विवेक की उपेक्षा करने के कारण कूपमंडूकता की स्थिति में जीते हैं। अर्जक संघ कमेरे वर्गों का संगठन है। धर्म या संप्रदाय न होकर वह मुख्यतः जीवन-शैली है, जिसमें आस्था से अधिक महत्त्व मानवीय विवेक को दिया जाता है।  उसका आधार सिद्धांत है कि श्रम का सम्मान और पारस्परिक सहयोग। लोग पुरोहितों, पंडितों के बहकावे में आकर आडंबरपूर्ण जीवन जीने के बजाय ज्ञान-विज्ञान और तर्कबुद्धि को महत्त्व दें। गौतम बुद्ध ने कहा था‘अप्पदीपो भव। ’ अपना दीपक आप बनो।  अर्जक संघ भी ऐसी ही कामना करता है। 

सामाजिक शिक्षा पर रहा जोर

अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामस्वरूप वर्मा ने ‘क्रांति क्यों और कैसे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘मानवतावादी प्रश्नोत्तरी’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘सृष्टि और प्रलय’, ‘अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’,  जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। उनकी लेखन शैली सीधी-सहज और प्रहारक थी। ऐसी पुस्तकों के लिए प्रकाशक मिलना आसान न था। सो उन्होंने उन्हें अपने ही खर्च पर प्रकाशित किया। जहां जरूरी समझा, पुस्तक को मुफ्त वितरित किया गया। उत्तर प्रदेश की प्रमुख भाषा हिंदी है। रामस्वरूप वर्मा स्वयं हिंदी के विद्यार्थी रह चुके थे।  सरकार का कामकाज जनता की भाषा में हो, इस तरह सहज-सरल ढंग से हो कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी उसे समझ सके, यह सोचते हुए उन्होंने वित्तमंत्री रहते हुए, सचिवालय से अंग्रेजी टाइपराइटर हटवाकर, हिंदी टाइपराटर लगवा दिए थे। उस वर्ष का बजट भी उन्होंने हिंदी में तैयार किया था। जनता को यह परचाने के लिए कि प्रशासन में कौन कहां पर है, उसके धन का कितना हिस्सा प्रशासनिक कार्यों पर खर्च होता है—बजट में छठा अध्याय विशेषरूप से जोड़ा गया था।  उसमें प्रदेश के कर्मचारियों और अधिकारियों का विवरण था। उस पहल की सभी ने खूब सराहना की थी।  

1970 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ललई सिंह की पुस्तक ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ पर रोक लगा दी।  यह पुस्तक डॉ। आंबेडकर द्वारा जाति-प्रथा के विरुद्ध दिए गए भाषणों संकलन थी। सरकार के निर्णय के विरुद्ध ललई सिंह यादव ने उच्च न्यायालय में अपील की।  मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में था। रामस्वरूप वर्मा कानून के विद्यार्थी रह चुके थे। उन्होंने मुकदमे में ललई सिंह यादव की मदद की। उसके फलस्वरूप 14 मई 1971 को उच्च न्यायालय ने पुस्तक से प्रतिबंध हटा लेने का फैसला सुनाया। 

रामस्वरूप वर्मा ने लंबा, सक्रिय और सारगर्भित जीवन जिया था।  उन्होंने कभी नहीं माना कि वे कोई नई क्रांति कर रहे हैं। विशेषकर अर्जक संघ को लेकर, उनका कहना था कि वे केवल पहले से स्थापित विचारों को  लोकहित में नए सिरे से सामने ला रहे हैं। उनके अनुसार पूर्व स्थापित विचारधाराओं को, लोकहित को ध्यान में रखकर, नए समय और संदर्भों के अनुरूप प्रस्तुत करना ही क्रांति है।  

विचारों से कबीर, जीवन में बुद्धिवाद, तर्क और मानववाद को महत्त्व देने वाला, भारतीय राजनीति वह फकीर,  19 अगस्त 1998 को हमसे विदा ले गया। 

(संपादन : नवल)

आलेख परिवर्द्धित : 29 अगस्त, 2019 2:21 PM

---------------------------------------------------

अर्जक संघ
संस्थापक :
मा० रामस्वरूप वर्मा
(22 अगस्त 1923-19 अगस्त 1998)
स्थापना: 1 जून 1968

प्रस्तावना

अर्जक संघ मानव समता का हामी क्यों ? मानव की समृद्धि समता में अधिक होती है या विषमता में, यह सवाल अक्सर

विचारकों के चिंतन को उद्वेलित किया करता है। वैसे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर तो यही निष्कर्ष निकलता है कि मानव-मानव की सचेत समता का सिद्धांत जिस मानव समूह में अधिक प्रतिष्ठित हुआ है, समृद्धि उसकी ही अधिक हुई है। मानव-मानव की सचेत बराबरी का अर्थ है कि लोग सचेत रूप से बोलने चलने, उठने-बैठने और खान-पान में परस्पर समता बरतें और जो बात स्वयं को बुरी लगे; वह दूसरों के साथ न करें। इससे शोषण विहीन सभ्य मानव तैयार होते हैं। इस सम्बन्ध में इतिहास पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। महामना बुद्ध के बौद्ध धर्म में मानव-मानव की सचेत बराबरी का सिद्धान्त प्रतिपादित था इसलिए इस धर्म के मानने वाले दक्षिणी पूर्वी एशिया के देश उस समय सबसे अधिक समृद्ध हो गये। बाद में उनमें विकृति आई, तब उनके पतन का समय आया। उस समय ईसाई धर्म का उदय हुआ और उसमें मानव के प्रति प्रेम और मानव-मानव की सचेत बराबरी पर जोर दिया जाने लगा। फलस्वरूप रोमन लोगों ने उसी बराबरी के परिणामस्वरूप अच्छी समृद्धि प्राप्त की। ईसाइयत में मानव बराबरी में विकृति आने पर इस्लाम का उदय हुआ। इसके उदय से इस्लाम के मानने वाले लोगों ने पर्याप्त समृद्धि प्राप्त की। स्पेन से लेकर कम्बोडिया तक इनका साम्राज्य फैल गया। इसके बाद ब्रिटेन ने इस मानव बराबरी में एक अध्याय दास प्रथा को समाप्त करके और जोड़ा। क्योंकि मानव-मानव की सचेत बराबरी को मानने वाले ईसाइयत या इस्लाम में दास प्रथा थी और उसे मानव समाज का चाहे ऊपरी दोष कहें अथवा चिंतन की कमी कहें, किन्तु उसे समाप्त नहीं किया जा सका। ऐसे जनतांत्रिक पद्धति के पोषक विद्वानों ने भी दास प्रथा को उचित ठहराया। यद्यपि यह उनके चिंतन का दोष रहा, किन्तु इसे परिस्थितियों का दबाव भी कह सकते हैं। हर विचारक अपनी परिस्थितियों से भी कुछ न कुछ प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। शायद यही बात अरस्तू के चिंतन में रही। इस दास प्रथा के समर्थन से मानव-मानव की बराबरी के स्वाभाविक सिद्धान्त में ऐसी विकृति आई कि ग्रीक के स्पार्टा नगर में एक समय तीन हजार नागरिक और तीस हजार दास रह रहे थे। कहना न होगा कि यह मानव-मानव की बराबरी के नैसर्गिक सिद्धान्त का भयंकर उपहास था। ऐसी विकृतावस्था के कारण ही ग्रीक राज्य का पतन रोमन लोगों के हाथों हुआ, जो उनसे अधिक मानव समता पर विश्वास करते थे। इस्लाम में भी गुलाम को अलग रखा गया और मानव-मानव की बराबरी की श्रेणी में नहीं माना गया किन्तु उनका फर्क ऐसा तीखा न था और इस्लाम, ईसाइयत से अधिक मानव बराबरी पर जोर देता था।

इस प्रकार बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म में प्रतिपादित मानव-मानव की सचेत बराबरी पर जब-जब अमल हुआ; उस पर अमल करने वालों की समृद्धि लगातार हुई और जब उसमें विकृति आई तब उनका पतन हुआ। जब ब्रिटेन पर्णद प्रथा को समाप्त करने का एलान कर मानव-मानव की बराबरी को पूर्णता पर मानव-मानव की बराबरी के सिद्धान्त की धूम है। मानव के मौलिक अधिकारों का सृजन और उनकी व्यवस्था हर देश में होती जा रही है। जो देश आज मानव-मानव की बरबरी के सिद्धान्त को जितना कम अमल में ला रहे हैं वे उतने ही अधिक ि और दरिद्र हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस देश में मानव-मानव की सचेत बराबरी का सिद्धान्त जितना अधिक पुष्ट है, वह देश उतना ही अधिक शक्तिशाली और समृद्ध है।

मानव-मानव की बराबरी का राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर मानव-मानव की बराबरी का सिद्धान्त दो स्तरों पर प्रतिष्ठित हो सकता है। एक तो राष्ट्रीय स्तर पर दूसरे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक इस सिद्धान्त का विकास और अमल राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित रहा है। जिन राष्ट्रों ने इस पर अमल किया ये राष्ट्रीय समृद्धि की ओर तब तक बढ़ते चले गये जब तक उनमें इस सिद्धान्त के प्रति विकृति नहीं आई अथवा कोई दूसरा उनसे अधिक मानव-मानव की सचेत बराबरी का प्रतिपादक नहीं हो गया। जब कई राष्ट्र इस मानव-मानव की बराबरी के प्रतिपादक होंगे तब जो राष्ट्रीय सीमा पार करके इस सिद्धान्त को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने के पक्ष में होगा उसकी शक्ति व समृद्धि अधिक होगी। विश्व के प्रायः सभी विकसित एवं शक्तिशाली देश अपने राष्ट्र की समृद्धि के लिए प्रयत्नशील हैं और उनकी मानव बराबरी की आस्था राष्ट्र के बाहर जितनी है उसी मात्रा में वे बाहर सम्मान पा रहे हैं। मानव-मानव की बराबरी का सिद्धान्त शोषण का घोर विरोधी है। अतः जो राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के मानवों का शोषण न करके अपने बराबर समझेगा, आगे विश्व के इतिहास में वही समृद्ध होगा। वैसे तो आज के बड़े राष्ट्र अपने राष्ट्र के अन्दर मानव-मानव की सचेत बराबरी को अधिकाधिक लागू करने के लिए प्रयत्नशील हैं। किन्तु उनमें विकृतियाँ भी मौजूद हैं; जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका काले लोगों को गोरों के बराबर नहीं समझता। यदि यह भावना अमेरीकी गोरे लोगों की न बदली तो उसे उस राष्ट्र के हाथ पराजय का मुंह देखना पड़ेगा, जो पूर्ण मानव बराबरी का विचार और आचरण में हामी है। बहरहाल विज्ञान के कारण विश्व के मानवों की निकटता जल्दी ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव-मानव की बराबरी की होड़ पैदा कर देगी। यदि यह होड़ जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब सारे विश्व की समृद्धि हो सकेगी।

मानव समता नैसर्गिक कैसे ? उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्यों की समीक्षा थोड़े में सम्भव नहीं। अतः इस पर विचार मंथन के दौरान जो मुद्दे विवादास्पद प्रतीत होंगे उन्हें लेकर विवेचन किया जायेगा। किन्तु यहाँ उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्य यह स्पष्ट करने में पूर्णतया सक्षम है कि जिसने मानव-मानव की सचेत बराबरी के सिद्धान्त को जितनी प्रबलता के साथ अपनाया उसकी समृद्धि उतनी ही प्रबलता के साथ हुई। इस निष्कर्ष के निकालने पर यह प्रश्न अपने आप उठता है कि क्या मानव समता का सिद्धान्त नैसर्गिक है ?

उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर हाँ में है। फिर भी इतना कहने मात्र से संतुष्ट होना संभव नहीं है। इसके लिए इस नियम को नैसर्गिकता या स्वाभाविकता का पता निसर्ग यानी प्रकृति से लेना पड़ेगा। प्रकृति में दो तरह के जीव पाये जाते हैं-सहज बुद्धि वाले और विवेक बुद्धि वाले मानव को छोड़कर शेष सारे जीव सहज बुद्धि वाले हैं, यानी उनमें सोचने विचारने की शक्ति नहीं है, वे अपनी रक्षा सहज बुद्धि के द्वारा करते हैं। जैसे गहरी नदी में मानव को छोड़कर, किसी भी जीव के बच्चे को डालें, तो वह तुरन्त तैरने लगेगा, किन्तु मानव का बच्चा नहीं तैर पायेगा और डूबकर मर जायेगा। मानव को विवेक बुद्धि प्राप्त है, अतः वह सोच विचार कर तैरने की कला सीख सकेगा। सृष्टि के जीवों का यह अन्तर दोनों में भेद पैदा करता है। अतः मानव को छोड़कर सारे जीवों को लें तो पायेंगे कि उनमें कोई भी जीव हमजिन्स का गुलाम नहीं अर्थात चींटीं चींटी की गुलाम नहीं, बकरी बकरी की गुलाम नहीं, हाथी हाथी का गुलाम नहीं आदि। यानी सारी सृष्टि में हमजिन्स में बोलने चलने, उठने-बैठने और खान-पान में बराबरी का सिद्धान्त प्राकृतिक है, सहज है, स्वाभाविक है। अतः इस प्राकृतिक सिद्धान्त का उल्लंघन जब मानव करता है तो उसे उसका दण्ड भुगतना पड़ता है क्योंकि यह प्रकृति प्रतिकूलता है। जो दूसरों को नीच समझते हैं, वे स्वयं किसी के द्वारा नींच समझे जाने लगते हैं, जिसे संक्षेप में ऊपर दिया जा चुका है। इस सिद्धान्त का निरन्तर विस्तार हो रहा है। मानव समता का जो जितना अधिक विस्तार करता है वह उतना ही अधिक शक्तिशाली और समृद्ध बन जाता है।

उपर्युक्त नैसर्गिकता का तथ्य मानवीय जीवन से भी सिद्ध है। मनुष्य का तन पदार्थ से निर्मित है और इसकी गति है मन जब तक शरीर संगठित संरचना के रूप में चेतना संपन्न है तब तक मन शरीर में विद्यमान है। तन शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, पौष्टिक भोजन और चोट रहित रहने पर स्वस्थ रहता है और मन आदर मिलने पर प्रसन्न रहता है। आदर किसी से मिलने में यह निहित है कि दूसरा मनुष्य होना चाहिए। इसलिए समाज शास्त्रियों ने मन की इस आवश्यकता को जानकर ही सर्वसम्मति से घोषणा की कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यानी वह अकेले नहीं रह सकता, उसे और लोग चाहिए, तभी उसके मन की आदर की भूख शान्त होगी। इसीलिए मन से स्वस्थ समाज वही होगा जिसमें हर एक को आदर मिले और यह तभी संभव है जब मानव हर एक को आदर दे व ले। इस आदर देने व लेने की क्रिया को सचेत बराबरी की संज्ञा दी जाती है। यदि किसी ने किसी को आदर दिया और उसने बदले में आदर न दिया तो जिसे आदर नहीं मिलेगा उसका मन अस्वस्थ हो जायेगा। खोज करने पर ऐसी छः क्रियायें है जिनमें आदर का देन लेन स होता है। यानी बोलने व चलने में उठने व बैठने में खान व पान में इन क्रियाओं में पर के आदर का पता लगता है। अतः जब सचेत होकर समाज के लोग इन छः क्रियाओं में परस्पर समता बरतते हैं तो सबके मनों को आदर मिलने से मानसिक तुष्टि होती है और समाज मन से स्वस्थ बनता है। इसीलिए मानव समता इन छः क्रियाओं में लागू न प्राकृतिक आवश्यकता है। इसके विपरीत विषमता होना प्रकृति प्रतिकूल होने के कारण पतनकारी है। विवेक बुद्धि का प्रयोग करने पर मानव इस सत्य को बिना जाने न और विवेकबुद्धिहीन होने पर मानव इन्सान नहीं रह जायेगा।

ब्राह्मणवाद और गुलामी का अपरिहार्य संबंध

भारत के ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने विषमतामूलक ब्राह्मणवादी सिद्धान्त की पोल खुलते देख इतिहास की व्याख्या को बदलने की चेष्टा की। लेकिन उनका यह बाल-प्रयास ऐसा ही व्यर्थ सिद्ध हुआ जैसे सूर्य को हाथ से छिपाने की कोशिश करने पर असफलता ही मिलती है। ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने ब्राह्मणवाद को सहनशीलतापरक बताते हुए यह कहा कि ब्राह्मणवादी लोगों ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया, भले ही दुनिया के लोगों ने उन पर हमला किया हो। इतिहास का साधारण विद्यार्थी भी इस कथन के खोखलेपन को भाँप लेगा। पुनर्जन्म और भाग्यवाद के आधार पर टिके ब्राह्मणवाद ने मानवीय विषमता के घिनौने और जघन्य स्वरूप को उजागर किया। दुनिया के किसी हिस्से में इतनी अधिक विषमता मानव-मानव के बीच इतने बड़े पैमाने पर नहीं रही, जितनी भारत में मानव-मानव के बीच ब्राह्मणवाद ने पैदा की। यही कारण है कि मानव समता के नैसर्गिक सिद्धान्त के विपरीत चलने वाले ब्राह्मणवाद में यह दम नहीं था कि वह शक्ति या विचार के बल से दूसरे देशों के मानवों को प्रभावित करे। उल्टे ये ब्राह्मणवादी इस बचाव में अवश्य रहेकि बाहर के लोग आकर कहीं इनके ब्राह्मणवाद की पोल न खोल दें। ब्राह्मणवाद का सिद्धान्त अप्राकृतिक होने के कारण मानव को प्रभावित नहीं कर सकता। इसीलिए इनमें यह क्षमता ही नहीं रही कि अपने देश के बाहर के लोगों पर प्रभाव डाल सकते। वास्तव में ब्राह्मणवादी लोग अपनी अयोग्यता को महनशीलता रूपी मुलम्मे से ढकना चाहते हैं।

क्या इन ब्राह्मणवादियों को यह नहीं मालूम है कि बौद्ध धर्म को सम्राट अशोक ने एशिया के बहुत बड़े भाग में फैला दिया। आखिर अशोक तो भारत भूमि पर ही पैदा हुए थे। अहिंसा के औजार से ही उन्होंने मानव समता के प्राकृतिक विचार को फैलाया। यदि ब्राह्मणवाद में दम होता तो वह दुनिया के मानवों में फैलाया जा सकता था। उसके लिए हिंसा या आक्रमण का सहारा लेना कतई जरूरी नहीं था। अतः ब्राह्मणवादी इतिहासकारों का लिखा भारतीय इतिहास ब्राह्मणवाद की अक्षमता, अयोग्यता और दोषों को ढकने का ही एक प्रयास दिखाई देता है। उसे इतिहास कहना भारी भूल होगी। अर्जक संघ के विचारकों और विद्वानों को इस सच्चाई की कसौटी पर इतिहास को परखकर जो खरा उतरे, उसे स्वीकार करना और लिखना चाहिए। अर्जक संघ उपर्युक्त तथ्यों एवं तर्कों के आधार पर समतामूलक मानवतावादी विचारधारा का प्रबल समर्थक एवं प्रचारक है। ब्राह्मणवाद गुलामी का पोषक होने के कारण कभी गुलामी से मुक्ति नहीं दिला सकता। ब्राह्मणवाद संकोचनशील संस्कृति का जनक है। उसमें मानव सुलभ गुणों का न तो विकास सम्भव है और न वह सच्चे माने में इन्सान ही पैदा कर सकता है पुनर्जन्म और भाग्यवाद जैसे तर्क एवं तथ्यहीन सिद्धान्तों को मानने वाले लोग विवेक बुद्धि हीन हो जाते हैं। अतः सच्चे माने में उन्हें इन्सान कहना ही भूल होगी। ऐसे लोग गुलामी का वरण करते हैं। विवेकशील प्राणी एक क्षण भी गुलाम रहना पसन्द नहीं करगा। जो मानव-मानव की बराबरी के प्राकृतिक सिद्धान्त को मानता है वही विवेकशील होने के कारण सच्चा इन्सान है। इसीलिए प्रसिद्ध कवि गालिब ने कहा था-

'आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना। " गुलामी में पड़े और गुलामी कायम रखने वाले दोनों ही विवेक बुद्धिहीन होने के

कारण इन्सान कहे जाने के योग्य नहीं। एक दिन की इन्सानी जिन्दगी, सौ वर्ष की गुलामी की जिन्दगी से बेहतर है। अर्जक संघ इसी प्रकृत सत्य पर आधारित है कि 'समता बिना समाज नहीं।'

मानव समता के प्रकृत सत्य का उपर्युक्त विवेचन अर्जक संघ के प्रेमियों के लिए मार्गदर्शन का काम कर सके यही मेरी कामना है। आशा है अर्जक संघ का सिद्धान्त वक्तव्य, विधान और कुछ कार्यक्रम जो प्रस्तावों के रूप में दिया गया है, भारत के मानवों में मानव समता लाने में सशक्त साधन सिद्ध होंगे। पुनर्जन्म और भाग्यवाद पर आधारित विषमतामूलक ब्राह्मणवाद की जकड़ से भारत का निराद्रित व अभावग्रस्त बहुसंख्यक मुक्ति पायें और मानववाद की प्रतिष्ठा से सुख समृद्धि की ओर कदम बढ़ायें, यही अर्जक संघ की स्थापना का तात्कालिक अभिप्रेत है।

अर्जक संघ की स्थापना एक जून 1968 को की गयी और दस वर्षों में ही उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में फैल गया। यह अर्जक संघ के मानव समता के प्राकृतिक सिद्धान्त की सहज लोकप्रियता का प्रमाण है। जितनी जल्दी अर्जक संघ फैलेगा उतनी ही जल्दी ब्राह्मणवाद समाप्त होगा, इसमेंसन्दहे नहीं। अतः यह भारत की निरादृत और दरिद्र जनता का पुनीत कर्त्तव्य है कि वह अर्जक संघ को अधिक से अधिक अपनाये और इसके संगठन में शामिल होकर मानव समता लाने के लिए। प्रयास करे, ताकि भारत के करोड़ों निराद्रित लोगों का मन खिल सके।

रामस्वरूप वर्मा
संस्थापक, अर्जक संघ

अर्जक संघ का सिद्धान्त वक्तव्य

1. मानव निर्मित या उत्पादित जो भी है वह सब शारीरिक श्रम के द्वारा ही हो सका है इसमें सन्देह की गुन्जाइश नहीं। मन से हम चाहे जिस रचना की कल्पना करते रहें, लेकिन वह हो तभी सकेगी, जब शारीरिक श्रम उसमें लगाया जाय। अतः शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता मानना प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य हो जाता है। आखिर जो भी सपने साकार होते हैं शारीरिक श्रम के द्वारा ही तो होते हैं। मानसिक श्रम किसी रचना या उत्पादन में सहायक हो सकता है किन्तु इसकी 2.

स्थिति बिना शारीरिक श्रम के सम्भव नहीं; जबकि शारीरिक श्रम अपने सहज

भाव में भी रचना अथवा उत्पादन का काम करता रहता है।

3. किन्तु भारत में तथाकथित उच्चवर्णीय लोगों ने अपने को शारीरिक श्रम-द्रोही बनाकर उसी की श्रेष्ठता का गान किया और उनके प्रचार का प्रभाव आज यह है कि 'ब्राह्मण को धन केवल भिक्षा' में भी एक वर्ग स्वाभिमान का अनुभव करता है जबकि यह किसी वर्ग या व्यक्ति की गिरावट की अंतिम सीढ़ी है। यदि इस भिक्षा को सभी श्रेष्ठ समझकर अपना लें तो फिर उत्पादन या रचना कौन करेगा और फिर किससे भीख माँगी जायेगी ? प्रत्येक व्यक्ति का धन तो उसका उत्पादक शारीरिक श्रम ही हो सकता है न कि भीख माँगना ।

4. पर विडम्बना यह है कि भीख माँगने में भी स्वाभिमान का अनुभव करने वाला वर्ग आज भारत में समाज का अग्रणी होने का दावा करता है और जो कठिन शारीरिक परिश्रम करते हैं उन्हें हेय समझता है, नहीं तो "भंगी कैसे न छूने योग्य और द्विज कैसे पूज्य बन गया ?" भंगी के अभाव में तो सड़ांध और गन्दगी की घुटन से व्यापक विनाश हो सकता है किन्तु द्विजों के अभाव में समाज का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

5. धरती के पूत कही जाने वाली खेतिहर कौमों के पास चाहे खाने के लिए अन न हो लेकिन, शारीरिक श्रम को हेय कहने वाले द्विजों के पास बिना कमाए अन्न के भण्डार भरे रहते हैं। मकान बनाने वाले के पास रहने को मकान नहीं "और शारीरिक श्रम-द्रोही कौमों के सबसे अधिक विशाल भवन खड़े हैं। योग का दावा करने वाली कौमें भोग में लिप्त हैं और शारीरिक श्रमशील कौमें कमा

कर भोगने नहीं पातीं। दुनिया में काम ही पूजा है, और भारत में पूजा ही काम। 
6.जब तक उपर्युक्त असंगति को दूर नहीं किया जाता, तब तक भारत का भविष्य अन्धकारमय ही रहेगा क्योंकि 87 प्रतिशत शारीरिक श्रमशील कौमों का शोषण 13 प्रतिशत शारीरिक श्रमद्रोही कौमें कर रही हैं। आगे श्रमशील कौमों को' अर्जक और शारीरिक श्रमद्रोही कौमों को' अनर्जक' कहा जायेगा। 

7.अनर्जकों ने इस भय से कि उनकी अर्जकों के शोषण करने की पोल न खुल जाय, देश में जातिप्रथा को जन्म दिया और इसकी सार्थकता का इतना अधिक प्रचार पुनर्जन्म और भाग्यवाद के धामक सिद्धान्तों के जरिये किया कि अर्जकों में एक बुद्धि विभ्रम छा गया और वे परस्पर विभाजित हो गये, अर्थात् इस शारीरिक श्रमशोषण की दीवार में जाति भेद की सीढ़ियाँ लगाकर इसे गिरने से रोक दिया गया और यह अन्याय सदियों से निरन्तर चलता रहा। अर्जक संघ इस बुद्धि-विभ्रम को समाप्त कर अर्जकों में शारीरिक श्रम की समता के आधार पर एकता और शारीरिक श्रम की महत्ता को प्रतिष्ठित करना चाहता है, जिससे शारीरिक श्रम के शोषण का अन्त और अन्यायकी सीढ़ियों के रूप में विद्यमान इस निरर्थक जातिप्रथा की समाप्ति हो।

8. लोगों के पखाने को खाद के लिए सिर पर रखकर फेंकने वाली खेतिहर कीमों और भंगी की कौम में काम की दृष्टि से कोई मौलिक अन्तर नहीं; तो फिर इनकी असमानता भी एकदम अन्याय, कल्पित और दुर्भावना की द्योतक है। दुनिया के किसी भी देश में एक वर्ग के लोगों में इस प्रकार के कामों के आधार पर सामाजिक असमानता नहीं। फिर यहाँ एक ही काम को करते हुए भी सामाजिक असमानता सृजित करने के पीछे अनर्जकों के षड्यन्त्र के अलावा और कुछ नहीं। वैसे कठिन काम करने में प्रोत्साहन देने के नाते इन कामों को करने वाली कौमों को सद्भावना मिलनी चाहिए थी किन्तु यहाँ सद्भावना के स्थान पर दुर्भावना के ही दर्शन हो रहे हैं।

9. यह सामाजिक असमानता खाने पीने के अन्तर के साथ-साथ उठने-बैठने व बोलने चलने का भी अशिष्ट एवं असभ्य अन्तर करने से नहीं चूकती, जिसे अर्जक संघ को पूरी शक्ति के साथ समाप्त करना है, ताकि अर्जकों में परस्पर एकता के साथ-साथ सच्ची मानवीय सभ्यता का विकास हो सके और वे अनर्जकों के अमानुषिक अत्याचारों का अन्त कर सकें।

10. अर्जकों में सामाजिक गैर बराबरी का बीज बोने वाले अनर्जकों के द्वारा किये जाने वाले ऐसे सभी कामों या बातों का बहिष्कार करना होगा; जिनमें सामाजिक कुण्ठा, असमानता और आर्थिक शोषण को प्रोत्साहन मिलता है।

11. स्त्रियों को हेय समझने की कुप्रवृत्ति को समाप्त करना होगा और स्त्री-पुरुषों
को परस्पर एक दूसरे का अनुपूरक व सहायक समझते हुए समता के धरातल 
पर लाना होगा। 

12. अर्जक ऐसे सभी कामों व बातों को करेगा जिनसे सामाजिक समता और आर्थिक एवं सांस्कृतिक उन्नति में वृद्धि होती है। निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों ही प्रकार की बातें व काम करना आवश्यक है। क्योंकि विधिनिषेधमय मार्ग ही ज्ञान की परिपक्वता का परिचायक होता है।

13. भारत के पतन की सर्वाधिक जिम्मेदार इस जाति प्रथा ने वास्तव में भारतीय समाज को अर्जकों और अनर्जकों के रूप में ही नहीं विभाजित किया बल्कि अर्जक की कमाई का शोषण करने का प्रबल कुचक्र भी रचा; जिसके परिणाम स्वरूप उद्योग धन्धों और व्यापार में 93 प्रतिशत पर अधिकार 13 प्रतिशत अन ने कर लिया और केवल 7 प्रतिशत उद्योग धन्धे और व्यापार 87 प्रतिशत अर्जकों के पास रह गए।

14. इस प्रकार अनर्जकों द्वारा उद्योग धन्धों और व्यापार पर आधिपत्य कर लिये जाने के कारण अर्जकों का चिन्तन ही इस क्षेत्र से समाप्त हो गया और उनका उपयोग शक्कर, कपड़ा, लोहा, कोयला, कागज आदि के उत्पादक श्रम के रूप में हाता रहा; लेकिन उत्पादन, विनिमय और वितरण पर पूर्ण नियंत्रण अनर्जकों का ही रहा।

15. औद्योगिक और व्यापारिक आधिपत्य अनर्जकों का होने के कारण उन्होंने अर्जकों का दोहरा शोषण किया; यानी उत्पादक श्रम के रूप में उनके श्रम का तो शोधण किया ही, उपभोक्ता के रूप में 87 प्रतिशत अर्जकों का ही शोषण होता रहा। 16. औद्योगिक और व्यापारिक अज्ञान आज अर्जकों में इतना अधिक बढ़ गया है।

कि वे अनर्जकों के साथ प्रतियोगितात्मक मुकाबला करने में एकदम असमर्थ है। उद्योग धन्धों का तकनीकी ज्ञान भी उन्हें कुशलतापूर्वक देने वालों का अभाव है और इसीलिए यदि वे चेतनापूर्वक प्रतियोगितायें करना चाहते हैं तो कुशलता के अभाव में वे सफलता नहीं प्राप्त कर पाते। बिजली का सामान, खाद, कृषि व अन्य यन्त्रों के कारखाने, दाल, चावल, आटा, तेल आदि के मील तथा इसी प्रकार अन्य आवश्यकता की वस्तुओं के उत्पादन, , विनिमय और वितरण पर आज अनर्जकों का ही आधिपत्य है।

17. यदि आज कोई सरकार इस प्रकार के उद्योग धन्धों व व्यापार को सहायता देने की बात करती है तो उसका लाभ अनर्जक ही ले जाते हैं; क्योंकि वे इन क्षेत्रों में कुशल और परस्पर एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं। यदि कोई अर्जक इन उद्योग धन्धों या व्यापार में प्रवेश करने का दुस्साहस भी करता है तो अनर्जकों द्वारा तमाम अड़चने उपस्थित करके उसे निस्तेज कर दिया जाता है या फिर वह भी अर्जकों का शोषण अनर्जकों की भाँति ही करने में अनर्जकों का साथ देता है। इसीलिए भारतीय उद्योग धन्धों और व्यापार में सत्यता की नितांत कमी और आज तक मशीनरी में स्टैंडराइजेशन तथा वस्तुओं में क्वालिटी निर्माण का एकदम अभाव है। सारा राष्ट्र अनर्जकों की इस राष्ट्र विरोधी स्वार्थी प्रवृत्ति का शिकार है; और जब तक इस क्षेत्र में प्रबल राष्ट्र प्रेम के साथ अर्जकों का प्रवेश नहीं होता, तब तक सुधार होना असम्भव है।

18. अर्जक इस चुनौती को दो आधारों पर स्वीकार कर सकते हैं, जो राष्ट्र प्रेम के कारण उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि राष्ट्र तो अर्जकों का है। एक तो सारे अर्जक तकनीशियनों व व्यापारियों को सचेत होकर इस दिशा में प्रयत्न करना होगा ताकि अधिक से अधिक उद्योग धन्धे और व्यापार अर्जकों के द्वारा खोले जायें और इस विषय में सारा तकनीकी उच्च कोटि का ज्ञान उन्हें कराया जाय। दूसरे स्टैंडराइजेशन व क्वालिटी निर्माण के आधार पर उत्पादित वस्तुओं को अर्जक संघ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के आधार पर अर्जकों को सारे देश में उचित मूल्य पर उपलब्ध कराया जाय।

19. इसके लिए अर्जक उपभोक्ताओं में भी विश्वास उत्पन्न करना होगा कि अर्जक उद्योगपति अथवा व्यापारी अर्जक संघ के लोगों को उचित मूल्य पर वस्तुएं उपलब्ध करायेंगे और उनमें अनर्जकों की भाँति शोषण, बेईमानी अथवा तिकड़म का पुट नहीं होगा। इससे एक ओर राष्ट्र की उन्नति होगी और दूसरी ओर अर्जकों का शोषण समाप्त होगा।

20. अर्जक संघ को इसके लिए सचेत राष्ट्र प्रेमी अर्जकों का संगठन आर्थिक समितियों के रूप में करना होगा; ताकि उत्पादक, वितरक और उपभोक्ता अर्जकों का सचेत दल तैयार हो सके और समूचे देश में उद्योग और व्यापार में सच्चाई और शोषण रहित होने के कारण प्रगति के लक्षण दृष्टिगोचर हो सकें तथा अर्जकों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।

21. उद्योग से दरिद्रता का नाश होता है। अतः अर्जक संघ उद्योग व व्यापार पर अर्जकों का आधिपत्य कायम करने के लिए उपर्युक्त सभी विधियों का प्रयोग दृढ़ता व कुशलता के साथ करेगा और उनमें दक्षता लाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहेगा तथा आधुनिकतम उपभोग के स्थान पर आधुनिकतम उत्पादन

को लक्ष्य बनाकर देश की क्षरणशील अर्थ-व्यवस्था को समाप्त करेगा। 22. उपर्युक्त सामाजिक और आर्थिक जगत के मंसूबों की पूर्ति तभी संभव है जब सांस्कृतिक क्षेत्र में भी जीवन के पूर्व निर्धारित मूल्यों का पुनर्निर्धारण किया जाय। 23. अर्जक संघ सांस्कृतिक समितियों के द्वारा उपर्युक्त सांस्कृतिक क्रान्ति के पक्ष को प्रशस्त करेगा। इसके लिए उसे अर्जक कलाकार, कवियों, साहित्यकारों और उपदेशकों को देश भर में खोज निकालना होगा और अब तक उपेक्षित प्रतिभाशाली ऐसे अर्जकों को भी प्रकाश में लाना होगा, जो अजंकों की इस सांस्कृतिक क्रान्ति में योगदान कर सकें।

24.अनर्जकों ने सदियों से पुनर्जन्म और भाग्यवाद जैसे बुद्धि-विभ्रमकारक एवं विषमता मूलक थोथे सिद्धान्तों का प्रचार करके अर्जकों की क्रान्तिकारिता व चेतना को मूर्छित कर रखा है, इससे मुक्ति दिलाने के लिए सफल एवं सक्षम प्रचार साहित्य एवं धर्म के क्षेत्रों में करना होगा ताकि अर्जक इस मूर्छा से जाग उठे। नाटक, ड्रामा, सिनेमा जैसी दर्शनीय कलाओं का भी इसमें प्रबल योगदान लेना होगा। सभी ललित कलाओं द्वारा अर्जकों की इस समता मूलक सांस्कृतिक क्रान्ति को प्रतिष्ठित करना होगा।

25. अर्जक परस्पर समता के व्यवहार और आचरण पर विश्वास करें और चलें तभी शोषण रहित आदर्श समाज का निर्माण सम्भव है। इस हेतु अर्जकों में बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई आदि की धार्मिक रेखाएं बाधक नहीं होनी चाहिए। क्योंकि धर्म वैयक्तिक विश्वास का अंग है और अर्जक संघ कर्म के आधार पर राष्ट्रव्यापी सामूहिक संगठन।

26. अर्जक संघ सभी धर्मों के मूलभूत सिद्धान्तों में व्याप्त मानवहित की भावना के आधार पर अनर्जकों के ऐसे सभी प्रयत्नों को विफल करने की ओर अग्रसर होगा जो धार्मिक विभेद की आड़ में अर्जकों में वैमनस्य की आग भड़काकर उन्हें विभाजित रखने में अपना हित देखते हैं।

27. अर्जक संघ, जिससे मानव समाज की धारणा प्रतिपादित एवं समृद्ध हो उसे ही धर्म समझता है। अतः उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान हैं, जब तक कि वे मानव समाज की उन्नति व समृद्धि के लिये प्रयास करते हैं। इस अर्थ में कोई धर्म मानव समाज में गैरबराबरी या उसके संहार का प्रतिपादन नहीं करता; अन्यथा वह धर्म ही नहीं रह जायेगा। अर्जक संघ सभी धर्मों को इस व्यापक अर्थ में देखेगा और उनमें परस्पर सौहार्द की भावना लायेगा; क्योंकि सभी धर्मों के अर्जक एक-सी दरिद्रता और दुख के शिकार हैं और उन्हें इस दरिद्रता, निरादर के दलदल और वैमनस्य की आग से उबारने में ही अर्जकों का हित निहित है।

28. अर्जक संघ उक्त श्यों की पूर्ति में आवश्यक साहित्य एवं कलाओं का प्रकाशन व प्रदर्शन समय-समय पर कराता रहेगा ताकि जनमानस पर इन विचारों का स्थायी प्रभाव पड़ सके और नवीन मानववादी संस्कृति का प्रचार व प्रसार हो जाय। 29. अर्जक संघ प्रबल मानव मैत्री और देश भक्ति का हिमायती है; क्योंकि जहाँ

29. एक ओर इससे अनाचार, असत्य, आलस्य, अय्याशी और असमानता पर दारुण प्रहार होता है, वहीं दूसरी ओर सदाचार, सच्चाई, सचेष्टता, सादगी और समता में अपार वृद्धि होती है। कहना न होगा कि पहले किसी राष्ट्र अथवा व्यक्ति के अवनति के कारण और दूसरे उसकी उन्नति के सोपान होते हैं। 

30. शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता पर विश्वास रखने के लिए यह आवश्यक होगा कि प्रत्येक अर्जक जो मानसिक श्रम में लगा हुआ है कम से कम एक घंटा प्रतिदिन उत्पादक शारीरिक श्रम करे और मानसिक विकास के लिए भी यह अपेक्षित है कि शारीरिक श्रम में लगा हुआ प्रत्येक अर्जक एक घंटा मानसिक श्रम करे; जिसमें

पढ़ने-लिखने का काम हो। इससे तन और मन से स्वस्थ अर्जकों की वृद्धि होगी 1 

31. अर्जकों में स्वावलम्बन के फलस्वरूप स्वाभिमान का उदय करना होगा ताकि वे अनर्जकों से अपने को उत्तम समझें। 

32. अर्जक संघ सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उन्नति या विकास के पक्ष में आने वाली बाधाओं और रुकावटों को अहिंसक आन्दोलनों या सिविल  नाफरमानी द्वारा दूर करने में विश्वास करता है।


अर्जक संघ का विधान

1. संस्था का नाम अर्जक संघ है।

2. उद्देश्य शारीरिक परिश्रम को उत्तम मानने वाली सभी कौमों का संगठन एवं उनकी सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक उन्नति का पथ प्रशस्त करना।

3. संगठन- प्रखंड / विकास खंड, जिला/जनपद, सूबा और राष्ट्र स्तर पर शाखा, परिषद व समितियों का गठन होगा और वे अर्जक संघ के उद्देश्यों के लिये अपनी-अपनी अधिकार सीमा के अन्तर्गत कार्य करेंगी। दस हजार से अधिक आबादी वाले नगर को विकास खंड माना जायेगा इससे कम आबादी वाले नगर समीप के विकास खंड के अन्तर्गत माने जायेंगे।

4. सदस्यता प्रत्येक व्यक्ति जो शारीरिक श्रमशील कौम में पैदा हुआ है, इसका सदस्य बन सकेगा। जिस सूबे में जिस किसी कौम के 95 प्रतिशत स्त्री व पुरुष शारीरिक परिश्रम से जीविकोपार्जन करते हैं, उस सूबे में वह कौम " शारीरिक श्रमशील" या " अर्जक" कही जायेगी। सदस्यता शुल्क प्रति वर्ष 5 रुपया होगा।
वर्ष 1 जनवरी से 31 दिसम्बर तक माना जायेगा ।

5. सदस्यता का प्रतिज्ञापत्र - मैं शारीरिक श्रमशील कौम में पैदा हुआ हुई हूँ। मैं अर्जक संघ का सदस्य बनता / बनती हूँ, और प्रतिज्ञा करता/करती हूँ कि अर्जकों के साथ समता का व्यवहार व आचरण करूंगा/करूँगी। शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता पर मेरा विश्वास है। मैं प्रतिदिन उत्पादक शारीरिक श्रम करूँगा /करूँगी तथा आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में अर्जक संघ की रीति-नीति के अनुसार आचरण करूंगा/करूँगी।

6. विकास खण्ड शाखा/ प्रखण्ड शाखा अर्जक संघ का प्रत्येक सदस्य - प्रखण्ड शाखा का सदस्य होगा। सभी सदस्य मिलकर अपने में से एक प्रखंड समिति का चयन करेंगे, जिसमें 10 से अनधिक सदस्य होंगे। प्रखण्ड शाखा प्रत्येक गाँव में 5 सदस्यों से अन्यून की एक वीर अर्जक टोली भी बनायेगी।

7. जिला शाखा - जिला समिति प्रत्येक गाँव से एक सदस्य या एक निश्चित संख्या के आधार पर प्रतिनिधि का चुनाव करायेगी जो जिला शाखा का सदस्य होगा। जिला शाखा के सभी सदस्य मिलकर जिले में एक जिला समिति का निर्माण करेंगे। इसमें 20 से अनधिक सदस्य होंगे। जिला समिति 15 से अनधिक सदस्यों की एक आर्थिक समिति व 10 से अनधिक सदस्यों की एक सांस्कृतिक समिति का निरूपण करेगी। इन दोनों समितियों के सदस्य जिला शाखा में से होंगे; किन्तु वे जिला समिति के सदस्य न होंगे।

8. प्रदेश शाखा - प्रदेश समिति द्वारा निर्धारित अर्जक संघ की सदस्य संख्या के आधार पर चुने हुए सदस्य प्रदेश शाखा के सदस्य होंगे। ये सदस्य अपने में से 
प्रदेश समिति का चयन करेंगे, जो 25 से अनधिक व्यक्तियों की होगी। प्रदेश समिति प्रदेश शाखा के सदस्यों में से 20 से अनधिक सदस्यों की एक आर्थिक समिति और 15 से अधिक सदस्यों की एक सांस्कृतिक समिति का निर्माण करेगी। इन दोनों समितियों के सदस्य प्रदेश समिति के सदस्य न होंगे।

द्वारा १. राष्ट्रीय परिषद राष्ट्रीय समिति द्वारा निर्धारित अर्जक संघ की सदस्य संख्या के आधार पर चुने हुए सदस्यों तथा उनके चौथाई प्रदेश समितियों समानता के आधार पर मनोनीत सदस्यों की अर्जक संघ की राष्ट्रीय परिषद होगी जो अपने में से 30 व्यक्तियों की एक राष्ट्रीय समिति का चयन करेगी। राष्ट्रीय समिति 25 सदस्यों की एक आर्थिक समिति तथा 20 सदस्यों की एक सांस्कृतिक समिति का निर्माण राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों में से करेगी इन दोनों समितियों के सदस्य राष्ट्रीय समिति के सदस्य नहीं होंगे।

10. विविध (क) किसी भी प्रखण्ड विकास खंड में कम से कम पांच पंचायतों में 75 सदस्य या पूरे प्रखण्ड में 100 सदस्य बनने पर प्रखंड संगठित माना जायेगा। किसी भी जिला / जनपद में कम से कम तीन प्रखंड संगठित होने पर या पूरे जिले में 300 सदस्य बनने पर जिला संगठित माना जायेगा। किसी भी प्रदेश/सूबा में एक तिहाई जिला संगठित होने पर या पूरे सूबे में जिला की संख्या गुणा 100 सदस्य बनने पर सूबा संगठित माना जायेगा। (ख) विकास खण्ड शाखा प्रति वर्ष विकास खण्ड समिति, जिला शाखा प्रति वर्ष जिला समिति, प्रदेश शाखा प्रति दो वर्ष में प्रदेश समिति एवं राष्ट्रीय परिषद प्रति दो वर्ष में राष्ट्रीय समिति का निर्माण करेगी। (ग) विकास खण्ड समिति और जिला समिति अपने में एक अध्यक्ष, एक मंत्री, एक सहायक मंत्री का चयन करेगी तथा प्रदेश समिति व राष्ट्रीय समिति अपने में से एक अध्यक्ष, एक महामंत्री और दो संयुक्त मंत्रियों का चयन करेगी। विकास खंड, जिला, प्रदेश व राष्ट्रीय समितियाँ अपने में से एक कोषाध्यक्ष चुनेगी जो सम्बन्धित समिति की ओर से सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त किसी बैंक में एकाउन्ट खोलकर समिति को प्राप्त होने वाला धन जमा करेगा; जिसका संचालन मंत्री या महामंत्री तथा कोषाध्यक्ष के संयुक्त हस्ताक्षरों से होगा। (घ) उपर्युक्त सभी चुनाव आवश्यक होने पर गुप्त मतदान द्वारा होंगे। (ङ) आवश्यक होने पर समिति का कार्यकाल अधिकतम छः महीनों के लिये ऊपरी समिति की अनुशंसा पर बढ़ाया जा सकता है। राष्ट्रीय समिति की अनुशंसा पर राज्य समिति का कार्यकाल विशेष परिस्थिति में छः महीनों के लिए दूसरी बार भी बढ़ाया जा सकता है। राष्ट्रीय समिति अपना कार्यकाल अधिकतम छः-छः महीनों की अवधि के लिये दो बार बढ़ा सकती है। (च) समिति का कार्यकाल पूरा होने पर शाखा या परिषद् के गठन नहीं होने पर समिति भंग कर दी जायेगी एवं उसके स्थान पर ऊपरी समिति द्वारा संयोजक बहाल किया जायेगा किन्तु किसी भी परिस्थिति में भंग समिति के पदाधिकारी संयोजक नहीं होंगे एवं इसके बाद संगठित होने पर ठीक पिछली समिति के पदाधिकारी उस समिति के सदस्य बनने के लिए योग्य नहीं होंगे।

(14)

कार्य प्रणाली

31 विकास खण्ड/प्रखंड शाखा अर्जक संघ की राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रतिपादित सिद्धानों का प्रचार करने व अर्जक संघ का सदस्य बनाने का कार्य करेगी तथा आर्थिक व सांस्कृतिक समितियों के निर्णयों को प्रखण्ड शाखा लागू करेगी। अर्जक स्वयंसेवक टोली इन कार्यों को पूरा करने के लिए सहयोग देगी।

12. विकास खण्ड/प्रखण्ड समिति प्रखंड शाखा की राय से सामाजिक,

आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति के सुझावों को जिला समिति के पास भेजेगी। राष्ट्रीय समिति के निर्णयों के अनुसार चलते हुए उन पर अपना मत व्यक्त करने का अधिकार प्रखंड शाखा को होगा। प्रखंड शाखा छः महीने में एक बार और प्रखंड समिति प्रति महीना अपनी बैठक करेगी।

13. जिला शाखा जिला शाखा की बैठक वर्ष में एक बार अवश्य होगी जो राष्ट्रीय परिषद् के निर्णयों व अर्जक संघ की सदस्यता की पात्रता के बारे में अपनी सिफारिश प्रदेशीय समिति को करेगी।

14. जिला समिति - जिले में राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार, अर्जक संघ के संगठन को सुदृढ़ करने का दायित्व जिला समिति का होगा। जिला समिति आर्थिक व सांस्कृतिक समितियों की बैठक बुला सकती है अथवा वे स्वयं आवश्यकतानुसार बैठक करेंगी। जिला समिति वर्ष में 9 बैठकें अवश्य करेगी।

15. प्रदेश शाखा- इसकी बैठक दो वर्ष में एक बार और प्रदेश समिति की वर्ष में 8 बार अवश्य होगी। प्रदेश शाखा, राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार व संगठन को सुदृढ़ करने का कार्य करेगी। प्रदेश की कौन सी कौमें शारीरिक श्रमशील हैं, जिनके लोग अर्जक संघ के सदस्य बन सकते हैं, इसका निर्णय भी प्रदेश शाखा करेगी।

16. प्रदेश समिति प्रदेश शाखा के निर्णयों तथा राष्ट्रीय समिति के आदेशों का पालन करना तथा कराना और अर्जक संघ के संगठन को सुदृढ़ करना, प्रदेश समिति का दायित्व होगा। प्रदेश समिति, आर्थिक व सांस्कृतिक समितियों की बैठक बुला सकती है अथवा समितियां स्वयं बैठक आवश्यकतानुसार करेंगी, व्यक्ति के खिलाफ अनुशासनहीनता की कार्यवाही करने का अधिकार प्रदेश समिति को होगा।

(15)

17. राष्ट्रीय परिषद यह दो वर्ष में एक बार अवश्य बैठेगी और अर्जक संघ की राष्ट्रीय नीतियों का प्रतिपादन करेगी साथ ही प्रदेश शाखा द्वारा निर्धारित अर्जक संघ की सदस्यता की अर्हता को मान्यता देगी।

18. राष्ट्रीय समिति - (अ) राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रतिपादित नीतियों पर सभी शाखाओं व समितियों द्वारा अमल करायेगी और समय-समय पर तदर्थ नियमों व आदेशों को प्रसारित करेगी। शाखा, समिति की अनुशासन होनता के विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकार राष्ट्रीय समिति को होगा जिसका निर्णय अन्तिम होगा। राष्ट्रीय समिति, आर्थिक व सांस्कृतिक समितियों की बैठक बुला सकती है; अथवा वे आवश्यकतानुसार बैठक करेंगी। राष्ट्रीय समिति वर्ष में छः बार अवश्य बैठेगी।

(ब) देश की तिहाई जनसंख्या के प्रदेशों में विधिवत संगठन बन जाने पर ही राष्ट्रीय परिषद व राष्ट्रीय समिति आदि का गठन अर्जक संघ के विधान के अनुसार किया जा सकेगा जब तक राष्ट्रीय परिषद व राष्ट्रीय समिति आदि नहीं बन जाती तब तक उनके सारे दायित्वों का निर्वाह तत्कालीन राज्य समितियों की संयुक्त बैठक द्वारा प्रदेश शाखाओं के सदस्यों में से चयनित तीन सदस्यों की राष्ट्रीय संयोजन समिति करेगी; जिसका कार्यकाल अधिकतम तीन वर्षों का होगा। आवश्यक होने पर राज्य समितियों की संयुक्त बैठक में फिर से व्यक्ति/व्यक्तियों का चयन करेगी। राष्ट्रीय संयोजन समिति के सदस्य किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी स्तर की, किसी भी समिति के सदस्य नहीं होंगे, न ही पदाधिकारी होंगे। वे विधान सभा, विधान परिषद, राज्य सभा, लोकसभा या भारतीय संविधान सम्मत किसी भी निकाय का न तो चुनाव लड़ेंगे; (वशर्ते चुनाव दलगत आधार पर हो रहा हो) न तो दल विशेष के लिए चुनावी मंच से या पर्चा द्वारा वोट देने की अपील करेंगे। राष्ट्रीय संयोजन समिति के तीनों सदस्य राष्ट्रीय संयोजक के कार्यों का निर्वाह करते हुए संयोजन समिति का संचालन करेंगे। प्रथम व्यक्ति के जिम्मे कार्यालय, पत्राचार, प्रचार एवं समिति की बैठक हेतु कार्यसूची तय कर बैठक बुलाने की जिम्मेदारी होगी। द्वितीय व्यक्ति के जिम्में संगठन एवं साहित्य की होगी। तृतीय व्यक्ति के जिम्में कोष, रचना एवं संघर्ष की होगी।

19. राष्ट्रीय आर्थिक समिति देश भर में अर्जक संघ के सदस्यों के लिए उद्योग धन्धों का विकास करने, देश के एक भाग से दूसरे भाग को आवश्यकतानुसार माल भेजने की व्यवस्था करने, प्रत्येक उद्योग धन्धों में लाभ का प्रतिशत निर्धारित करने और अर्जक संघ के व्यापारियों में संगठन का दायित्व वहन करेगी। प्रदेश व जिले की आर्थिक समितियों का तदनुसार निर्देशन भी

(16)

देगी। पूँजी निर्माण के लिए राष्ट्रीय आर्थिक समिति, प्रदेशीय आर्थिक समिति की सिफारिशों पर अर्जक व्यापारी से लाभ का एक अंश लेने का निर्णय कर सकती है। इस प्रकार एकत्रित धन राष्ट्रीय समिति के द्वारा निर्धारित अनुपात में उद्योग धन्धों के विकास हेतु सभी स्तरों पर बाँटा जायेगा।

20. प्रदेशीय आर्थिक समिति प्रदेश में अर्जकों के लिए नये उद्योग धन्धों का विकास करेगी तथा अर्जकों में व्यापारिक अनुशासन कायम रखने की जिम्मेदार होगी। जिला समिति की सिफारिश पर अर्जक व्यापारी होने की मान्यता देने या समाप्त करने का अधिकार प्रदेशीय आर्थिक समिति को होगा। किन्तु प्रदेशीय आर्थिक समिति के निर्णय के विरुद्ध अपील राष्ट्रीय आर्थिक समिति के पास की जा सकेगी जिसका निर्णय इस विषय में अन्तिम होगा ।

21. जिला आर्थिक समिति - जिले में अर्जकों के लिए नये धन्धों का विकास करेगी तथा अर्जक व्यापारियों को मान्यता देने की सिफारिश जिला समिति से कर अर्जकों को नियन्त्रित करेगी ताकि वे अर्जक व्यापारियों की दूकान से ही माल खरीदें और अर्जक व्यापारियों को ही माल बेचें, साथ ही राष्ट्रीय समिति द्वारा निर्धारित प्रतिशत से अधिक लाभ अर्जक व्यापारी न लें। इस क्षेत्र में अनुशासनहीनता के लिए दण्ड देने अथवा मान्यता समाप्त करने की सिफारिश प्रान्तीय आर्थिक समिति से करने का अधिकार जिला समिति को होगा।

22. राष्ट्रीय सांस्कृतिक समिति मानववादी संस्कृति को प्रतिष्ठित करने हेतु धर्म और साहित्य के क्षेत्रों में अर्जक संघ के विचारों को प्रचारित करने, प्रभावकारी साहित्य का सृजन करने और नीचे की शाखाओं में भेजने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सांस्कृतिक समिति की होगी।

23. प्रदेश सांस्कृतिक समिति - राष्ट्रीय सांस्कृतिक समिति द्वारा प्रचारित साहित्य को प्रान्तीय स्तर पर प्रभावकारी ढंग से सृजित व प्रसारित करने की जिम्मेदारी प्रदेश सांस्कृतिक समिति की होगी। सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए कदम उठाने की जिम्मेदारी प्रदेश सांस्कृतिक समिति की होगी ।

24. जिला सांस्कृतिक समिति - जिले भर में राष्ट्रीय व प्रदेश सांस्कृतिक समिति द्वारा अनुशंसित एवं प्रचारित साहित्य को सभी प्रखंड शाखाओं तक पहुँचाना जिला सांस्कृतिक समिति का दायित्व होगा। जिले में मानववादी संस्कृति हेतु सभाओं का आयोजन और अन्य प्रचार कार्य जिला सांस्कृतिक समिति के कार्य होंगे।

25. सभी स्तर की आर्थिक व सांस्कृतिक समितियों का एक मंत्री व एक सभापति होगा; जिसका चयन अपने में से स्वयं प्रत्येक समिति करेगी। सभी स्तर

(17)

की शाखाओं और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों में गण पूर्ति का प्रश्न नहीं उठाया जायेगा। किन्तु सभी स्तर की समितियों की बैठकों में गणपूर्ति समिति की एक तिहाई सदस्यों की संख्या होगी।

26. (अ) जिला, प्रदेश व राष्ट्रीय समितियों के सदस्य संबन्धित समितियों द्वारा लिये गये निर्णयों का पालन समिति द्वारा उल्लिखित अवधि के अन्दर तर्कपूर्ण कारण के अभाव में न करने पर अपने पद से पदमुक्त समझे जायेंगे और समिति उनके स्थान पर अविलम्ब अन्य सदस्यों को अनुमेलित करेगी। (ब) बिना तर्कपूर्ण कारण के संबन्धित समिति की तीन बैठकों में लगातार

अनुपस्थित रहने पर कोई भी समिति का सदस्य पदमुक्त समझा जायेगा और उनके

स्थान पर समिति अविलम्ब अन्य सदस्य को अनुमेलित करेगी।

(स) समिति से पदमुक्त समझे जाने वाले सदस्य अगले सत्र में उसी समिति के सदस्य के लिए योग्य नहीं होंगे।

27. (अ) अर्जक संघ की किसी भी शाखा सभा या राष्ट्रीय परिषद का उद्घाटन, सभापतित्व आदि कोई अनर्जक किसी भी अवस्था में नहीं कर सकेगा। फ्रैंटर्नल डेलीगेट् के अलावा कोई भी अर्जक जो अर्जक संघ का सदस्य नहीं है, अर्जक संघ के किसी भी सम्मेलन अथवा सभा में भाषण नहीं कर सकेगा।

(ब) सिद्धान्त वक्तव्य, विधान व कार्यक्रम में कोई भी संशोधन राष्ट्रीय परिषद दो तिहाई बहुमत से कर सकेगी, किन्तु राष्ट्रीय परिषद नहीं बनने तक राष्ट्रीय संयोजन समिति किसी प्रदेश शाखा द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर अपना मंतव्य प्रकट करते हुए तात्कालीन सभी राज्य समितियों के पास विचार के लिए भेजेगी एवं राज्य समितियों के मन्तव्यों पर विचार कर प्रस्ताव को सही स्वरूप देकर स्वीकार करेगी।

28. अर्जक संघ की किसी भी स्तर की किसी भी समिति का सदस्य किसी भी राजनीतिक दल का किसी भी स्तर की समिति का सदस्य या पदाधिकारी नहीं हो सकेगा।

(18)

अर्जक संघ का कार्यक्रम

कार्यक्रम के रूप में 9 प्रस्ताव दिये जा रहे हैं जो अर्जक संघ उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रदेश शाखा सम्मेलनों में स्वीकार किये गये हैं- उत्तर प्रदेश का पहला सम्मेलन 6 व 7 जून 1971 को त्रिलोकनाथ हॉल, लखनऊ में, दूसरा सम्मेलन 24 व 25 जून 1972 को सर इकबाल लाइब्रेरी हॉल, कानपुर में तथा तीसरा सम्मेलन 23, 24 एवं 25 मार्च 1979 को इलाहाबाद में संपन्न हुआ। 5 वां सम्मेलन 7 एवं 8 मार्च 1987 को ग्राम लाल कुआँ, जिला उन्नाव में हुआ। पुनः खीरी-लखीमपुर, बस्ती, बनारस, लखनऊ में हुआ।

इसी प्रकार बिहार प्रदेश का आठवां सम्मेलन 8 एवं 9 नवम्बर को पटना में एवं नवां सम्मेलन 4 एवं 5 नवम्बर 2000 को वैशाली जिला के सिन्दुआरी ग्राम में आयोजित किया गया।

उपरोक्त सम्मेलनों में विधान व कार्यक्रम में कुछ संशोधन और कुछ नये प्रस्ताव लिये गये। इन प्रस्तावों को तदर्थ राष्ट्रीय समिति ने स्वीकार किया। ये प्रस्ताव अर्जक संघ के सिद्धान्त को कार्य रूप में परिणित करने के लिए हैं जिसे अर्जक संघ के सभी सदस्य व कार्यकर्ता को अमल में अवश्य लाना चाहिए। THE

विषमतामूलक ब्राह्मणवादी संस्कृति को समाप्त करने के लिए मानववादी संस्कृति को अपनाना अत्यावश्यक है। व्यवहार और आचरण में स्वाभाविक रूप से समता आ जाये यानी बोलने चलने, उठने-बैठने और खान-पान में सचेत समता का भाव पूरी तौर से रहे ; यही मानववादी संस्कृति की सफलता है।

आशा है प्रस्तावों के रूप में जो कार्यक्रम अर्जकों को अमल के लिए दिया गया है वे उसका अनुपालन विवेकपूर्वक करेंगे ताकि ब्राह्मणवाद जन्य विषमता और शोषण का अन्त हो और वर्ण एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना हो सके जिसमें भी लोग स्वाभाविक रूप से परस्पर समता का व्यवहार और आचरण करें। जो मानव समूह सम+आज अर्थात् समाज उपर्युक्त छः कार्यों में बराबर है, वही समाज कहलाने का अधिकारी है। व्यवहार और आचरण में बराबरी मानव समता का मूल है। समाज में वे ही धन्य होंगे, जो अर्जक संघ की मानववादी संस्कृति के प्रचार व प्रसार में प्राणपण से जुटेंगे। उनका यश मानव इतिहास में अमिट रहेगा।

अर्जक संघ के लोगों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे कथनी और करनी में अन्तर न आने देंगे ताकि पाखण्डयुक्त ब्राह्मणवाद को अल्प समय में समाप्त किया जा सके. और मानववाद की स्थापना से अब तक पीड़ित बहुजन सुख की साँस ले सकें।

रामस्वरूप वर्मा
संस्थापक

(19)

प्रस्ताव संख्या-1

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश शाखा का यह प्रथम सम्मेलन इंसान इंसान की बराबरी का सिद्धान्त स्वीकार करता है। सम्मेलन की राय में देश में फैली गैर-बराबरी का मूल कारण ब्राह्मणवाद की नींव की ईंटें, पुनर्जन्म और भाग्यवाद हैं। पुनर्जन्म और भाग्यवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सम्मेलन यह महसूस करता है कि जाति-पाति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच और गरीब-अमीर की भावनायें यहाँ इसी ब्राह्मणवाद की देन हैं। पिछले जन्मों के शुभाशुभ कर्मों के आधार पर इस जन्म में प्रारब्ध या भाग्य मिला है जिसके कारण ऊँची-नीची जाति और अमीर-गरीब के घर में जन्म मिला। जाति की ऊँचाई, नीचाई, छुआछूत की गहराई से नापी जाती है। इस प्रकार जाति 'जो जाति नहीं' के रूप में खड़ी है और उसके साथ छुआछूत, फूल की गन्ध के समान सर्वत्र मौजूद है। इतना ही नहीं, जाति के साथ अमीरी और गरीबी जुड़ी हुई है, तभी तो अशुभ कर्मों से मिली नीची जाति के जिम्मे सारे कठिन परिश्रम के काम कम लाभ के हैं; और शुभ कर्मों से मिली ऊँची जाति के पास बौद्धिक या अल्प शारीरिक श्रम के काम अधिक लाभ के हैं। इसे भाग्य का लिखा कहा जाता है। सम्मेलन के विचार में ब्राह्मणवाद की उपर्युक्त तर्कों से युक्त पुनर्जन्म और भाग्यवाद की नींव की ईंटें मिथ्या और भ्रमकारक है। आज सारी दुनिया के सामने यह सच्चाई उभर कर आ गई कि जाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत और अमीर-गरीब भाग्य के कारण नहीं; बल्कि तिकड़मी समाज शत्रुओं की देन है। सम्मेलन पूर्ण विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पदार्थ से निर्मित इस विश्व में पुनर्जन्म सम्भव नहीं, जैसे सारी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है वैसे ही सारे जीव मरने के बाद पदार्थ में लीन हो जाते हैं जिससे उनके दोबारा पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जब पुनर्जन्म नहीं तो भाग्य कहाँ से आया।

अतः सम्मेलन दृढ़ निश्चय के साथ पुनर्जन्म के मिथ्या सिद्धान्त को अस्वीकार हुए उसके फलस्वरूप ऐसी सारी मान्यताओं को ठुकराता है जिनसे सामाजिक करते गैर-बराबरी और आर्थिक शोषण को बल मिलता है। उदाहरण के लिए पालागन या पैर छूना सामाजिक गैर-बराबरी को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ असभ्यता का भी प्रतीक है। क्योंकि इन्सान-इन्सान बराबर होने के कारण ऊँच-नीच की भावना से युक्त कोई अभिवादन असभ्यता का ही परिचायक होता है। इसी प्रकार सारे संस्कार मूल से लेकर तेरहीं तक ब्राह्मणों के आर्थिक शोषण के तरीके हैं। इनके जरिये पुनर्जन्म का मिथ्या सिद्धान्त पनपता है। विवाह, जन्म-जन्म का संयोग नहीं,

(20)

बल्कि स्त्री-पुरुष का एक प्रकार से रहने का इकरार है। अतः इसे कराने के लिए पुरोहित की जरूरत नहीं; साक्षी की आवश्यकता होनी चाहिए। कथा, भागवत पाठ, तीर्थ, जाप आदि कर्म पुनर्जन्म के मिथ्या सिद्धान्त के पोषक हैं। अतः यह सम्मेलन इस प्रकार के सारे ब्राह्मणवादी कामों को समाप्त करने का संकल्प लेता है।

सम्मेलन सारे तथ्यों एवं तर्कों पर विचार करने के पश्चात इस नतीजे पर पहुँचा है कि जनेऊ उच्चता की नहीं; वरन् पराश्रयता की निशानी है। जैसे पालतू जानवरों के दोगा, पट्टा या इसी तरह के निशान डाले जाते हैं, उसी तरह उन कौमों के, जिनका इरादा दूसरी कौमों की कमाई पर आश्रित रहना था जनेऊ डाला गया। जैसे पालतू कुत्ते की पहचान पट्टा देखकर हो जाती है वैसे ही जनेऊ देखकर पालतूपने की पहचान होती रही है। अतः सम्मेलन अर्जकों के लिए जनेऊ अपमान जनक समझता है, क्योंकि वह अपने बाहुबल की कमाई खाते हैं, और यह निश्चय करता है कि जनेऊ पालतूपने की पहचान माना जाय ।

प्रस्ताव संख्या - 2

अर्जक संघ, उत्तर प्रदेश शाखा का यह प्रथम वार्षिक सम्मेलन उठने-बैठने, व बोलने चलने में असमानता को ब्राह्मणवाद की देन मानता है क्योंकि ब्राह्मणवाद के अनुसार पाखाना खाने वाली गाय पवित्र, और भंगी अपवित्र है। इन्सान का कहीं ऐसा अपमान नहीं हुआ है जितना भारत में देखा जाता है। जातियों में घंटे भारत में अनेक जातियों के लोगों के सामने हजारों जातियों के लोग खाट पर या बराबर बैठने का अधिकार नहीं रखते। कैसी विडम्बना है कि लोग पाखाना खाले वाले कुत्ते को खाट पर बैठे देखकर उतने क्रोधित नहीं होते जितना किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को खाट पर बैठा देखकर जल उठते हैं। यही हाल बोलने में भी है। तथाकथित नीची जाति के लोगों का नाम बिगाड़ कर पुकारने की असभ्य आदत भारत के पतन की परिचायक है। यह सम्मेलन इस प्रकार के असभ्यतापूर्ण गैर बराबरी के व्यवहार को समाप्तकरने का संकल्प करता है और अजंक संघ के सदस्यों एवं कार्यकर्ताओं को आदेश देता है कि वे "बराबर बैठो, बैठाओ" व "जय अर्जक" अभिवादन आन्दोलन प्रारम्भ कर दें ताकि इन्सान इन्सान की बराबरी का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हो और असभ्य संस्कृति की परिचायक व्यवहार की गैर-बराबरी का अन्त हो जाय।

(21)

प्रस्ताव संख्या

www

3 अर्जक संघ उत्तर प्रदेश शाखा का यह प्रथम वार्षिक सम्मेलन, जिससे मानव समाज कायम रहे और तरक्की करे; उसे ही धर्म मानता है। इसलिए मानव के संहार का समर्थन करने वाला कोई सिद्धान्त धर्म नहीं हो सकता। और जो मानव-मानव की बराबरी के सिद्धान्त को स्वीकार न करे वह भी धर्म नहीं हो सकता। एक प्रकार से उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त धर्म के दोनों छोर हैं। इनके अन्दर रहकर सारे सिद्धान्त धर्म की संज्ञा पाते हैं। साथ ही मानव समाज को कायम रखने व उसकी तरक्की के लिए रास्ता बताते हैं। विश्व के महापुरुषों ने अपने-अपने विचार के अनुसार, ऐसे रास्तों का निरूपण किया है, जिन्हें विभिन्न धर्मो की संज्ञा दी जाती है। देश व काल का भी प्रभाव इन महापुरुषों पर ऐसे रास्तों के निरूपण पर पड़ा है। यही कारण है कि ऐसे महापुरुषों ने अपने विचार के अनुसार रास्ता बताते हुए यह अवश्य स्वीकार किया है कि जो बात तर्क और तथ्य की कसौटी पर सत्य न प्रतीत हो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उन महापुरुषों ने मानव की विवेकशीलता को सदैव जागृत रखना ही धर्म के लिए हितकर समझा।

अतः यह सम्मेलन इस तथ्य को स्वीकार करते हुए यह आवश्यक समझता है कि प्रत्येक व्यक्ति को धर्म चुनने की आजादी रहे, जिसे वह सोच समझकर चुने। 'चूंकि सोचने समझने की बुद्धि का विकास 18 वर्ष की उम्र तक हो जाता है। इसलिए प्रत्येक 18 वर्ष की अवस्था प्राप्त व्यक्ति को यह घोषणा करने का अधिकार रहे कि उसने कौन सा धर्म स्वीकार किया। बाप या माँ के धर्म के साथ जुड़ने की अनिवार्यता विवेक बुद्धि की मारक है। इससे असहिष्णुता और धर्मान्धता को बढ़ावा मिलता है।

अतः यह सम्मेलन केन्द्रीय सरकार से यह माँग करता है कि वह अविलम्ब धर्म-ग्रहण विधेयक लाकर उसे कानून का रूप दे जिससे 18 वर्ष के पूर्व के किसी व्यक्ति का कोई धर्म न माना जाय और इसके बाद वह जिस धर्म को ग्रहण करने की घोषणा करे उसका वह धर्म माना जाय यदि वह किसी धर्म के ग्रहण की घोषणा न करना चाहे तो उसे ऐसा करने की पूरी आजादी रहे और तब उसे मानव धर्म का माना जाय। सम्मेलन की राय में इससे मानव-मानव की बराबरी व धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धान्त पनपेगा और मनुष्य की विवेकशीलता अधिक विकसित होगी।

(22)

प्रस्ताव संख्या-4

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का द्वितीय सम्मेलन इस प्रदेश में लागू वर्तमान शिक्षा पाठ्यक्रम को ' भारत का संविधान' के विपरीत और ब्राह्मणवादी समझता है। 'भारत का संविधान' मानव-मानव की बराबरी पर जोर देता है क्योंकि मानववाद का यह सार है। ब्राह्मणवाद, पुनर्जन्म और भाग्यवाद के मिथ्या सिद्धान्तों पर टिके होने के कारण मानव-मानव की बराबरी का भयंकर विरोधी है; क्योंकि पूर्वजन्म के शुभाशुभ कर्मों का फल ब्राह्मणवाद के अनुसार किसी दो का एक नहीं हो सकता, उसमें मात्राभेद अवश्य रहेगा। इस सम्मेलन की राय में ब्राह्मणवाद के पुनर्जन्म के मिथ्या सिद्धान्त के कारण जाति-पाति और ऊँच-नीच और भेद भाव का जन्म हुआ है, जिसके कारण निरन्तर शोषण का पथ प्रशस्त होता रहा है।

इस सम्मेलन की राय में ब्राह्मणवाद का स्वरूप एक वृक्ष के समान है जिसकी जड़ पुनर्जन्म है, तना भाग्यवाद व वर्ण व्यवस्था डालियाँ हैं। जाति-पाति के पत्ते और ऊँच-नीच के भेदभाव के फूल खिल रहे हैं। शोषण ही इसका फल है। इस ब्राह्मणवाद का विनाश किये बिना भारतीय संविधान कल्पित मानव-मानव की बराबरी का मानवीय सिद्धान्त पनपना असम्भव है। किन्तु उत्तर प्रदेश के वर्तमान शिक्षा पाठ्यक्रम में इसी ब्राह्मणवाद की शिक्षा दी जाती है। 'हमारे पूर्वज' नामक पुस्तक व अन्य पुस्तकों के जरिये पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जाति-पाति, ऊंच-नीच का भेदभाव और वैज्ञानिक ज्ञान मारक अन्धविश्वास की शिक्षा दी जाती है। सम्मेलन की राय में ऐसी शिक्षा अविलम्ब बन्द की जानी चाहिए ताकि ब्राह्मणवाद का विष हमारी वर्तमान पीढ़ी को भी न मूर्छित कर दे और वह वैज्ञानिक चिन्तन से ही दूर न हट जाय, वरन मानव-मानव की बराबरी के मानवीय सिद्धान्त को भी न अपना सके। इस सम्मेलन की राय में शिक्षा का उद्देश्य तय हुए बिना सही दिशा में शिक्षा नहीं दी जा सकती। चूंकि इस समय उद्देश्य हीन शिक्षा पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है, इसलिए पहले से चली आ रही ब्राह्मणवादी विचारधरा का ही उसमें प्राथ न्य है। अतः यह सम्मेलन शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं एकता कायम करना निर्धारित करता है। सम्मेलन की राय में उपर्युक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिए देश के हर बालक को शिक्षा देनी जरूरी है। इसलिए यह सम्मेलन आठवीं कक्षा तक की शिक्षा अनिवार्य और सारी शिक्षा निःशुल्क समान एवं मानववादी करने पर बल देता है।

(23)

यह सम्मेलन शिक्षा पाठ्यक्रम में आठवीं कक्षा तक राष्ट्रीयता, नागरिकता, अर्थमेटिक, भूगोल और वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों को ही रखना उचित समझता है, जिससे अल्हड़ बच्चों के मस्तिष्क पर अनावश्यक बोझ न पड़े और उन्हें एक अच्छे नागरिक बनने की आवश्यक शिक्षा भी मिल जाय। कहना न होगा कि वर्तमान शिक्षा पद्धति से उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति होना असम्भव है। अतः वर्तमान शिक्षा पद्धति को समाप्त कर नयी शिक्षा पद्धति को लागू किया जाय जो उपर्युक्त उद्देश्य की प्राप्ति करा सके।

यह सम्मेलन वर्तमान शिक्षा संस्थाओं में व्याप्त छुआ-छूत और ऊँच-नीच के भेदभाव की कड़े शब्दों में निन्दा करता है और सरकार से यह अपेक्षा करता है कि शिक्षालयों में परस्पर समता का व्यवहार और आचरण करना अनिवार्य हो और मानव-मानव की बराबरी के मानवीय सत्य का प्रतिपादन हर स्तर की शिक्षा में हो। इसका उल्लंघन करने वाला अध्यापक या विद्यार्थी समुचित दण्ड का भागी हो ।

सम्मेलन इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि जब तक सारे देश में एक सी शिक्षा उपर्युक्त उद्देश्य के अनुसार नहीं दी जायेगी, तब तक समता, मानवता और राष्ट्रीय एकता की भावना प्रबल नहीं होगी और बिना इन भावनाओं के राष्ट्र दृढ़, समृद्ध और सुरक्षित नहीं हो सकता। अतः सम्मेलन की राय में वर्तमान 'भारत का संविधान' में संशोधन करके शिक्षा को केन्द्रीय विषय रखा जाये ताकि देश भर में एक सी शिक्षा और शिक्षा पद्धति लागू की जा सके और राज्यों की अलगाव की भावना समाप्त हो ।

प्रस्ताव संख्या-5

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का यह द्वितीय सम्मेलन वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ब्राह्मणवादी शिक्षा पाठ्यक्रम न बदलने की दुर्नीति की घोर निन्दा करता है। यह सम्मेलन ब्राह्मणवादी शिक्षा पाठ्यक्रम को चलने देना, 'भारत का संविधान' के प्रतिकूल समझता है। सम्मेलन की राय में वर्तमान शिक्षा पाठ्यक्रम राष्ट्रहित विरोधी और विषमता पोषक है। ऐसी स्थिति में यह सम्मेलन सारे प्रदेश के अर्जकों का आह्वान करता है कि वे वर्तमान ब्राह्मणवादी शिक्षा पाठ्यक्रम के खिलाफ प्रदर्शनों और आन्दोलनों के जरिये जहाँ एक ओर उसके राष्ट्रहित विरोधी चरित्र को जनमानस तक पहुँचाए वहीं दूसरी ओर, सरकार को भी प्रबल जनमत के जरिये बाध्य करें कि वह इस पाठ्यक्रम को समाप्त कर निम्नांकित आठ माँगों को स्वीकार करें-

(24)

1. शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं एकता कायम करना हो। 
2. वर्तमान ब्राह्मणवादी शिक्षा पाठ्यक्रम को तुरन्त समाप्त किया जाय और मानव समता परक, मानववादी पाठ्यक्रम लागू किया जाय।

3. कक्षा 1 से 8 तक राष्ट्रीयता, नागरिकता, भूगोल, अर्थमेटिक और वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों की ही शिक्षा दी जाय और ब्राह्मणवादी पंचांग-पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जाति-पाति, ऊँच-नीच का भेदभाव और चमत्कार की शिक्षा

किसी स्तर पर न दी जाय।

4. "संपूर्ण भारतीय शिक्षा" में एकरूपता लाने के लिए वर्तमान 'भारतीय संविधान' में संशोधन करके शिक्षा को केन्द्रीय विषय बनाया जाय ताकि सम्पूर्ण देश की एकता के लिए एक सी राष्ट्रीय शिक्षा दी जा सके और सभी लड़के व लड़कियाँ एक से राष्ट्रीयकृत विद्यालयों में पढ़ सकें।

5. हर स्तर की शिक्षा में मानव-मानव की बराबरी का मानवीय सिद्धान्त प्रतिपादित रहे और इसके विपरीत मान्यता को निन्दनीय कहा जाय ।

6. उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु आठवीं कक्षा के पश्चात् शिक्षा के दो भाग कर

दिये जायें-

(क) तकनीकी और औद्योगिक शिक्षा

(ख) माध्यमिक और उच्च शिक्षा ।

7. आठवीं कक्षा तक की शिक्षा अनिवार्य और सारी शिक्षा मुफ्त हो ।

8. शिक्षालयों में परस्पर समता का व्यवहार और आचरण करना अनिवार्य हो, यानी बोलने चलने, उठने-बैठने और खान-पान में परस्पर सचेत समता बरतें।

यह सम्मेलन प्रदेशीय समिति को प्रदेश में 'वर्तमान शिक्षा पाठ्यक्रम से ब्राह्मणवाद हटाओ' आन्दोलन को सुचारु रूप से चलाने का आदेश देता है।

(25)

प्रस्ताव संख्या 6

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का यह द्वितीय सम्मेलन विवाह को एक आवश्यक संस्कार समझते हुए इस बात पर जोर देता है कि विवाह में सादगी इस सीमा तक होनी चाहिए, जिससे गरीब-अमीर का फर्क न दिखाई दे। सम्मेलन की राय में वर्तमान ब्राह्मणवादी विवाह संस्कार इतना खर्चीला और शोषण पर आधारित है कि उस पर चलकर समता कायम करना और शोषण से बचना निहायत मुश्किल है। सम्मेलन इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता है कि अर्जक विवाह पद्धति में दहेज या दिखावे की फिजूलखर्ची को रंगमात्र स्थान नहीं है। अतः सम्मेलन "आदर्श अजंक विवाह पद्धति का विवरण निम्न प्रकार स्वीकार करता है।

विवाह तय होने पर कन्या पक्ष आमतौर पर वर पक्ष को एक निमन्त्रण पत्र भेजे जिसमें विवाह की तिथि, स्थान व समय का जिक्र हो। बारात का स्वागत गाँव या मुहल्ले के बाहर किया जाय, जनवासे में बारात को सुव्यवस्थित करने पर ठण्डा या गरम पेय यथास्थिति दिया जाय। इसके बाद बारात निर्धारित समय पर विवाह मंच के निकट जाय, जहाँ पर उभय पक्ष के लोगों के समक्ष लिखित प्रतिज्ञा वर-वधू करें। तत्पश्चात् प्रतिज्ञापत्र की कार्यवाही पूरी कर वधू-वर के और वर- वधू के गले में पुष्पमाला डालें। इसके बाद उभय पक्ष के लोगों को भोजन कराकर बारात विदा कर दी जाय। धन या सामान का आदान-प्रदान बिल्कुल नहीं होना चाहिए।

सम्मेलन की राय में इस विधि से विवाह में दोनों पक्षों की फिजूलखर्ची समाप्त होगी, शोषण पर रोक लगेगी और दहेज के लोभ में बधुओं का कत्ल या निरादर सदैव के लिए समाप्त हो जायेगा। इससे वर-वधू का सही में जोड़ा छोटा जा सकेगा।

यह सम्मेलन मानववादी संस्कृति की स्थापना हेतु "अर्जक विवाह पद्धति" को महत्वपूर्ण समझते हुए सारे प्रदेश व देश के अर्जकों का आह्वान करता है कि वे अर्जक विवाह पद्धति को अपनाकर मानववादी संस्कृति के विकास में सहयोग दें। विवाह प्रतिज्ञापत्र का प्रारूप अगले पृष्ठ पर दिया है।

(26)

वर

विवाह प्रतिज्ञा पत्र

दिनांक ...........

वधू

स्थान..

डाकघर..

पुत्र श्रीमती एवं श्री....

पुत्री श्रीमती एवं श्री

..का हूँ।

मैं

निवासी मैं सुश्री

प्रदेश.

निवासिनी....... डाकघर. ...... थाना....... जिला. .. प्रदेश ...............को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ और सत्य निष्ठा के साथ प्रतिज्ञापन करता हूँ कि अपनी पत्नी के साथ समता का व्यवहार एवं आचण करते हुए वैवाहिक जीवन को मधुर और अविच्छिन्न बनाने का सतत प्रयत्न करता रहूँगा तथा मानव-मानव की बराबरी वाले समाज के विकास व समृद्धि में सदैव योगदान देता रहूँगा

वर के हस्ताक्षर/ नि. अंगूठा, .yat situat va sit.............

डाकघर.. थाना जिला प्रदेश........की हूँ।

.. पुत्र श्रीमती एवं श्री

थाना.. .. जिला.......... प्रदेश...

डाकघर..

निवासिनी..

मैं श्री....

निवासी..........

अपन पति के रूप में स्वीकार करतो हूँ और सत्य निष्ठा के साथ प्रतिज्ञापन करती हूँ कि

अपने पति के साथ समता का व्यवहार एवं आचरण करती हुई वैवाहिक जीवन को मधुर

और अविच्छिन्न बनाने का सतत् प्रयत्न करती रहूँगी तथा मानव-मानव की बराबरी वाले

समाज के विकास व समृद्धि में सदैव योगदान देती रहूँगी।

वधू के हस्ताक्षर / नि. अंगूठा ...........

उपरोक्त प्रतिज्ञा मैंने वर-वधू को कराई जो उन्होंने स्वेच्छापूर्वक की।

प्रतिज्ञापन कराने वाले के हस्ताक्षर...

साक्षी 1 नाम तथा पूरा पता.... साक्षी 2 नाम तथा पूरा पता..

साक्षी 3 - नाम तथा पूरा पता..

... पूरा पता

हस्ताक्षर / नि. अंगूठा ..

हस्ताक्षर / नि. अंगूठा ..

हस्ताक्षर/नि. अंगूठा..

साक्षी 4 नाम तथा पूरा पता.. हस्ताक्षर / नि. अंगूठा .. नोट- यह उत्तम कागज पर वर के लिए गुलाबी, वधू के लिए पीला व अर्जक संघ

के प्रादेशिक कार्यालय के लिए हरा तीन प्रतियों में 10 विवाहों के लिए तैयार केन्द्रीय कार्यालय अर्जक संघ लखनऊ से केवल अर्जक संघ के कार्यकर्ता को 50 रु० प्रति किताब व डाक खर्च देने पर भेजा जा सकेगा। प्रतिज्ञा पत्र न मिटाने वाली स्याही से सुन्दर व स्पष्ट लिखा जाय। किताब भर जाने पर प्रादेशिक कार्यालय को भेज देना चाहिए। यदि कोई उत्साही व्यक्ति विवाह के पश्चात् अर्जक संघ की सहायता के लिए चन्दा देना चाहे तो कार्यालय वाली प्रति की पृष्ठ पर उक्त रकम लिखवाकर उनसे में नियमानुसार बाँट लें। उक्त रुपया समिति द्वारा निर्दिष्ट कार्यों में ही खर्च किया जा दस्तखत करवा ले और प्रदेश समिति द्वारा निर्धारित तरीके से उक्त रकम का चार भागों

ताकि संगठन सुदृढ़ और स्वच्छ हो।.. (27)

प्रस्ताव संख्या-7

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का यह द्वितीय सम्मेलन मरणोपरान्त संस्कारों के नाम पर शोषण का अन्त करने का संकल्प लेता है। जो कार्य विवेक बुद्धि से मानवहित में किया जाय उसे धर्म कहते हैं। इस दृष्टि से मरने के बाद शव को सुभीते लगाना ही धर्म कार्य है चाहे उसे गाड़ा जाय या उसे फूंका जाय या निर्जन स्थान में पशु-पक्षियों के खाने के लिए रखकर उसे सुभीते से लगाया जाय ताकि शव की संड़ाध समाज को रोग ग्रस्त न कर दे।

यह सम्मेलन यह भी स्पष्ट कर देना चाहता है कि 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति के मरने के बाद शोक सभा का बुलाया जाना उचित है ताकि नात हित यह जान लें कि उनके सम्बन्धी के परिवार में अमुक व्यक्ति मर गया है और वे अपनी संवेदना शोक सन्तप्त परिवार के पास भेजकर उन्हें सान्त्वना दे सकें। इस सम्मेलन की रास में यह शोक सभा शव को सुभीते से लगाने के पाँचवे दिन के बाद होनी चाहिए। इसमें भाग लेने वाले सम्बन्धीगण शोक सन्तप्त परिवार पर बोझ न बनकर यथा संभव सहयोग करें।

यह सम्मेलन प्रवेश व देश के अर्जकों को निर्देशित करता है कि वे मरणोपरान्त उपर्युक्त संस्कार को स्वीकार करें और सारे ब्राह्मणवादी संस्कारों का परित्यागकर मानववादी संस्कृति के विकास में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करें।

प्रस्ताव संख्या-8

मानववादी त्योहार

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का यह तृतीय समेलन वर्तमान तमाम ब्राह्मणवादी त्योहारों को पुनर्जन्म और भाग्यवाद जैसे बुद्धि विभ्रमकारक मिथ्या विचारों को मजबूत करने वाला और जाति-पाँति, मानव-मानव के बीच गैर बराबरी व छुआ-छूत को बढ़ावा देने वाला समझता है। इन ब्राह्मणवादी त्योहारों को मानने वाले मानववाद को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते और बिना मानववाद को प्रतिष्ठित किये समाज नहीं बन सकता। बिना समाज के मनुष्य सही माने में सामाजिक प्राणी नहीं बन पायेगा; जिससे उसके मन को सुख मिल सके। सम्मेलन की राय में जब तक हर मनुष्य को आदर नहीं मिलता तब तक उसका मन प्रसन्न नहीं होता। यह तभी सम्भव है जब हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मिलने पर बोलने चलने, उठने-बैठने और खान-पान में परस्पर समता बरते। यह बराबरी आज जिस मानव समूह में सचेत रूप से बरती जा रही है वही समाज (सम+आज यानी आज बराबर) कहे जाने का अधिकारी है। ब्राह्मणवादी त्योहारों से या तो ऊँच-नीच का भेदभाव पुष्ट होता है या फिर पुनर्जन्म और भाग्य पर भरोसा बढ़ता है। अतः इन्हें छोड़े

(28)

बिना समाज का निर्माण असम्भव है। इसलिए यह सम्मेलन देश के ऐसे अर्जकों से जो ब्राह्मणवादी त्योहार मनाते आ रहे हैं, उनसे यह पुरजोर अपील करता है कि वे ब्राह्मणवादी त्योहारों का परित्याग कर निम्नलिखित चौदह त्योहार मनाय जिससे मानव समता की भावना पुष्ट हो और मानव मात्र के कल्याण के लिए संकल्प में दृढ़ता आये। चौदह त्योहारों में से 11 उत्तर प्रदेश के तृतीय सम्मेनन में पारित किये गये थे; तीन त्योहार 'क्रान्ति दिवस", "विज्ञान दिवस" और "जागृति दिवस", बिहार एवं उत्तर प्रदेश के विभिन्न सम्मेलनों में पारित किये गये।

मानववादी त्योहार

1. गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) भारतीय संविधान लागू होने की तिथि -

2.

उल्लास दिवस (1 मार्च) फसल उपजने की खुशी में

3. 4. चेतना दिवस (14 अप्रैल) डॉ० अम्बेडकर का जन्मदिवस मानवता दिवस (15 मई) -

महामना बुद्ध का जन्मदिवस

अर्जक संघ का स्थापना दिवस

भारत की आजादी की तिथि

5. समता दिवस (1 जून) - 6. स्वतन्त्रता दिवस (15 अगस्त)-

7. क्रांति दिवस (22 अगस्त) - महामना रामस्वरूप वर्मा का जन्मदिवस

8.

शहीद दिवस (5 सितम्बर) इसी दिन बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद

मानववाद के लिए शहीद हुए

9. लाभ दिवस (1 अक्टूबर) - फसल व व्यापार के लाभ की खुशी में

10. एकता दिवस (31 अक्टूबर) भारतीय एकता के शिल्पी सरदार पटेल का - जन्म दिवस

11. विज्ञान दिवस (1 नवम्बर) चौधरी महाराज सिंह भारती का जन्म दिवस 12. जागृति दिवस (15 नवम्बर) वीर बिरसा मुंडा का जन्म दिवस

13. शक्ति दिवस (28 नवम्बर) महामना ज्योतिराव फले का यश: कायी दिवस 14. विवेक दिवस (25 दिसम्बर) पेरियार रामास्वामी नायकर का यश: कायी दिवस सम्मेलन की राय में उपर्युक्त पाँच त्योहार विशेष रूप से समता की भावना पुष्ट करने वाले और 9 त्योहार मानव कल्याणकारी संकल्प को दृढ़ करने "वाले हैं। इन त्योहारों को अपनाने से मानव में समता व दृढ़ संकल्प के कारण उसके सुख में वृद्धि होगी।

सम्मेलन की राय है कि इन त्योहारों को इस प्रकार मनाया जाय कि मानव ममता में वृद्धि और मानव कल्याण के संकल्प में दृढ़ता हो। यह सम्मेलन अर्जकों के उन सुझावों को आमन्त्रित करता है जिनसे उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु त्योहार मनाने के तरीके, देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप तय किये जा सकें।

(29)

-रामस्वरूप वर्मा

प्रस्ताव संख्या-9

लोकशक्ति जगाओ-मानववाद लाओ

अर्जक संघ बिहार प्रदेश के आठवें एवं नौवें सम्मेलन की राय में, आज भारत घोर व्यक्तिवाद, घिनौना अवसरवाद एवं निन्दनीय क्षेत्रीयतावाद की चपेट में है। सिद्धान्त के तहत कार्य करना और उसके परिणाम की प्रतीक्षा करना कल्पना का विषय बनकर रह गया है। समाज व राष्ट्र निर्माण का मुद्दा, अप्रभावी हो गया है।

लोकशक्ति पर राजशक्ति हावी है। राजशक्ति स्वेच्छाचारी एवं भ्रष्ट हो गई है। अपराधी तत्वों का सहारा लेने का परिणाम है कि राजशक्ति अपराधी तत्वों के हाथ गिरवी है। अच्छे लोग किंकर्त्तव्यविमूढ़ हैं। उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान है।

गिनती में समस्यायें बहुत हैं पर सबों का मूल निरादर और दरिद्रता है। अर्जकों की स्थिति दयनीय, सोचनीय और अवर्णनीय है। लोक शक्ति को अपनी समस्याओं की स्पष्टता नहीं है। वह समस्याओं के कारण और निदान से पूर्ण अनभिज्ञ है। लोकशक्ति को अपनी समस्याओं का एहसास होना आवश्यक है। लोकशक्ति जब जगेगी तभी राष्ट्र की सर्वांगीण तरक्की होगी।

भारतीय संविधान में चौदह वर्ष तक के बालक-बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा का संकल्प दर्ज है, पर भारत निरक्षरों का देश है। अधिकांश बालवृन्द विद्यालय न जाकर मजदूरी करने को विवश है। अमीरों और गरीबों के लिये अलग-अलग विद्यालय चलाये जा रहे हैं। यह जनतंत्र का सबसे बड़ा उपहास एवं मजाक है। यह बात ज्ञात है कि मानव स्वयं में एक संसाधन है, जिसका परिष्कार शिक्षा से ही संभव है। तब भी विद्यार्थियों से रकम वसूली जाती है। विद्यार्थियों से रकम लेना साधन संपन्न लोगों को प्रोत्साहित कर उनके एकाधिकार को बढ़ावा देना है और स्वस्थ प्रतियोगिता को हतोत्साहित करना है। समान अवसर के सिद्धान्त के विपरीत भी है। आज सोच का दिवालियापन है कि ऊँची रकम वाली फीस को कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है।

आज भारत में जनतंत्र खतरे में है। बूथ लूट, गुण्डागर्दी एवं ठप्पा मार चुनाव के सामने आज लोग असहाय हैं। आज देश में अस्थिरता कायम हो गई है। सरकार बनाओ, गिराओ और मंत्री बनो एक मात्र मुद्दा है। देश में बेरोजगारों की फौज खड़ी है। नौजवान स्वावलम्बन के अभाव में स्वाभिमानी नहीं हैं। पूरा राष्ट्र कहीं से एक नहीं दिख रहा है। आबादी भी उग्र रूप से बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक संसाधन

(30)

सीमित हैं, जिनका असंतुलित दोहन किया जा रहा। इसी का परिणाम है कि असुरक्षित पर्यावरण की भयंकर समस्यां सामने है। अशुद्ध हवा, अशुद्ध पानी एवं जहरीला भोजन सामने है। विश्व बाजार के बढ़ते प्रभाव से राष्ट्र का दम घुट रहा है।

प्राकृतिक रूप से दुनिया का सबसे साधन संपन्न मुल्क होते हुए भी भारत आज सबसे कमजोर राष्ट्र बना हुआ है। उपज लायक जमीन का 70 प्रतिशत भाग बाढ़ या सुखाड़ से प्रभावित है। आज सम्पूर्ण आय का 80 प्रतिशत कृषि से प्राप्त होता है परन्तु खेती अलाभकर धंधा बन गयी है। दुनिया का 15 प्रतिशत जल भारत में है किन्तु उसका उपयोग नहीं के बराबर है।

ऊपर वर्णित समस्याओं के कारण और निवारण की अस्पष्टता एवं बेजारी पैदा न होने का प्रबल कारण पुनर्जन्म जन्य भाग्यवाद पर आधारित वर्ण-व्यवस्था की विचारधारा है जिसका उद्देश्य असमानता को प्रतिष्ठित एवं सहनीय बनाना है। लोकशक्ति के मन में विश्वास प्रबल है कि वही होगा जो भाग्य में लिखा है। निरादर और दरिद्रता के प्रति बेजारी पैदा न होने की वजह यही भाग्यवाद है। स्त्रियों एवं शूद्रों को 'शिक्षा न दो' की मान्यता के चलते देशवासी निरक्षर रहने के लिए विवश हैं।

पुनर्जन्म जन्य भाग्यवाद का जो कुहासा छाया हुआ है, उसे हटाने के लिए लोकशक्ति को गोलबंद करना आवश्यक है। राष्ट्रीय एजेंडा के रूप में परिष्कृत संसाधन, स्वच्छ जनतंत्र, स्वावलंबन, राष्ट्रीयता एवं जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर निश्चित रूप से लोकशक्ति गोलबंद होगी, समस्याओं का एहसास होगा, कारण और निवारण की सही सोच पैदा होगी। इन मुद्दों को हम रचनात्मक कार्य के रूप में लेकर लोकशक्ति के बीच पैठ बना सकते हैं। विभिन्न वर्गों के बीच इन मुद्दों पर गाँव से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाकर पूरे राष्ट्र को आंदोलित किया जाना संभव है।

अतः यह सम्मेलन संकल्प लता है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा निम्नलिखित मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठायेंगे, ताकि जनतंत्र की रक्षा हो, राष्ट्रीयता का भाव जन-जन में प्रवेश करे और सभी स्वावलम्बी एवं स्वाभिमानी बनें। 1. परिष्कृत संसाधन के लिए आठवीं तक की शिक्षा अनिवार्य, सम्पूर्ण शिक्षा

निःशुल्क एवं राष्ट्रीयकृत हो । 2. स्वच्छ जनतंत्र के लिए चुनाव निष्पक्ष एवं भयरहित हों। प्रत्येक मतदाता को बहुउद्देशीय फोटो वाला परिचय पत्र दिया जाय। वोट देने के समय-परिचय पत्र पर पदाधिकारी का हस्ताक्षर हो। मत पत्र की अधकटी पर मतदाता के अंगूठे का निशान लिया जाय । प्रत्येक बूथ पर सुरक्षा का पुख्ता इन्तजाम हो। मतदान अनिवार्य किया जाय। विधायक सांसद यदि दल बदलता है तो अनिवार्य रूप से उसकी सदस्यता समाप्त हो जानी चाहिए।

(31)

3. स्वावलंबन के लिए निराद्रितों को जंगलों के नाम पर 12 करोड़ एकड़ परती जमीन पर इंसानी बस्ती के रूप में बसाया जाय। परती जमीन पर फलदार वृक्ष लगाये जायें। प्रत्येक परिवार को दो एकड़ जमीन, रसोई घर, शौचालय, एवं स्नान घर के साथ एक कोठरी वाला मकान दिया जाय। प्रत्येक परिवार को कुटीर उद्योगों का प्रशिक्षण दिया जाय। सरकार कच्चा माल दे एवं बना माल खरीदने की जिम्मेदारी ले। इस प्रकार एक तिहाई लोग स्वावलंबी हो जायेंगे, जमीन एवं घर के पुश्तैनी प्रयोग का अधिकार होगा पर बेचने का अधिकार न होगा। देश में आधुनिक टेक्नोलॉजी के आधार पर लघु गृह उद्योगों का जाल बिछाया जाय। जिन चीजों का उत्पादन लघु उद्योग में संभव है वैसी चीजों का उत्पादन बड़े कारखानों में करने की मनाही हो। प्रत्येक बालिग को साल में कम से कम 300 दिनों का रोजगार न्यूनतम मजदूरी के आधार पर अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराया जाय।

4. समता के बिना राष्ट्रीयता संभव नहीं है, पर पूरा राष्ट्र कम से कम एक दिखे, इसके लिए सारी भारतीय भाषाओं को एक चिह्नित राष्ट्र लिपि में लिखा जाय । 5. जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए व्यापक रूप से आम लोगों को

परिवार कल्याण के कार्यक्रमों से अवगत कराया जाय एवं साधनों को घर-घर तक उपलब्ध कराया जाय। जनसंख्या नियंत्रण का दस वर्षीय कालबद्ध कार्यक्रम एवं लक्ष्य तय किया जाय। इसके बाद दो से अधिक बच्चा पैदा करना गैर कानूनी घोषित किया जाय। उल्लंघन करने वाले दम्पत्ति को सख्त दंड दिया जाय। 6. बढ़ती आर्थिक विषमता को रोकने के लिए न्यूनतम और अधिकतम वेतन

के बीच का अनुपात किसी भी हालत में 1 : 10 से ज्यादा नहीं होना चाहिए। 7. सरकारी कर्मचारी/पदाधिकारी एवं संगठित मजदूर की ही तरह भारत के प्रत्येक असंगठित मजदूर, किसान एवं अन्य नागरिकों को भी 60 वर्ष की आयु के बाद पेंशन की व्यवस्था सरकार की ओर से की जाये जिससे बुढ़ापा में जीने के लिए एक आशा दीप उनके पास उपलब्ध हो सके।

8. किसी भी स्तर के मंत्रिमंडल के मंत्रियों की संख्या कुल प्रतिनिधियों (लोकसभा, एवं विधान सभा) के दसवें हिस्से से अधिक संख्या न हो।

9. जन प्रतिनिधियों (विधायक, सांसद, पंचायत, प्रखंड एवं जिला प्रधान) को वेतन एवं पेंशन की सुविधा से वंचित रखते हुए उन्हें मात्र यथोचित भत्ता एवं अन्य आवश्यक सुविधायें ही प्रदान की जायें।

- रामबाबू कनौजिया 
अध्यक्ष 
राष्ट्रीय सांस्कृतिक समिति
अर्जक संघ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...