एकता कुशवाहा की नज़र से :

एकता कुशवाहा की नज़र से :
एकता कुशवाहा

पार्ट : 1
मेरे साथ न्याय या अन्याय। 
                सभी लोग  खुश हैं, सभी लोग खुशियां मना रहे हैं,  मेरा भी मन चाह रहा है कि मैं बहुत खुशियां मनाऊँ। मैं भी चाहती हूंँ कि लोगों की तरह हैदराबाद पुलिस को धन्यवाद दूं, उनके ऊपर फूल बरसाऊं, उन्हें मिठाई खिलाऊँ और कहूं कि देश की बेटी के साथ न्याय हुआ है।
               उस लड़की के साथ न्याय हुआ जिसके साथ जघन्य अपराध हुआ था और वे चार दरिंदे वहां पहुंच गए जहां उन्हें पहुंचना चाहिए था।
                लेकिन, फिर भी मैं खुशी नहीं मना पा रही हूँ। मुझे इस बात का डर है कि कहीं ऐसा ना हो कि मेरी खुशी बाद में गम में तब्दील हो जाए, इस बात को जानकर कि कहीं देश की बेटी के साथ वास्तव में न्याय हुआ भी है या नहीं हुआ है ।
                     किसी भी तरह कल जाकर मुझे यह पता चले कि जिन व्यक्तियों की एनकाउंटर पर मैं खुश थी कहीं पुलिस ने राजनीतिक या पब्लिक के दबाव में आकर उन्हें गिरफ्तार तो नहीं कर लिया था और उनमें से कोई भी व्यक्ति यदि बाद में पता चले कि वारदात में  शामिल ना रहा हो, उस स्थिति में तो मैं उस बेटी को क्या जवाब दे पाऊंगी।
                  मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि अभी कुछ समय पूर्व ही दिल्ली के रयान पब्लिक स्कूल में एक बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी गई। पूरे देश मे न्याय की मांग उठने लगी, पब्लिक प्रेशर इसी तरह बढ़ने लगा। पुलिस ने बस कंडक्टर को गिरफ्तार कर अभियुक्त बना दिया । पुलिस के टॉर्चर के कारण उस कंडक्टर ने अपराध स्वीकार भी कर लिया। लोगो ने उसे फांसी देने की मांग का अभियान सोशल मीडिया पर अभियान छेड़ दिया। बाद में, सीबीआई जांच में पता चला कि वो व्यक्ति निर्दोष था और उसी स्कूल के सीनियर छात्र ने उस बच्चे की हत्या कर दी।
                अब मेरा सवाल है कि यदि इस केस में भी यदि ऐसा कुछ हुआ हो तो फिर उस लड़की के साथ जितना अन्याय हुआ, वह अकल्पनीय है क्योंकि बेगुनाह मारे जाए और गुनहगार बाहर घूमे इसे देखकर किसी के आत्मा को शांति मिलेगी, मैं ऐसा नही मानती।
                    मेरा ऐसा कहने का एक आधार यह भी है कि ये वही हैदराबाद पुलिस है जिसने इसी लड़की का FIR लिखवाने के लिए उनके घरवाले को थाने के चक्कर मरवाते रही।
                       बाद में जब प्रेशर बढ़ा तो चार लोगों को अरेस्ट कर लिया और उन्हें मीडिया ने बिना किसी ट्रायल के दरिंदा घोषित कर दिया जैसा कि रयान स्कूल मामले में हुआ।
                 अभी तक क्राइम सीन भी पुलिस बना नही पाई थी, डीएनए सैंपलिंग का स्वतंत्र जांच नही हुआ, सीसीटीवी फुटेज नही मिले, स्वतंत्र न्यायिक गवाही नही हुई, तो फिर कैसे ये माना जा सकता कि अपराधी वही थे। यदि 1℅ के लिए भी यह मान लिया जाए कि उनमें शामिल कोई एक या सभी को पुलिस ने अपना काम पूरा करने के लिए फँसाया और कोई अन्य अपराधी है तो फिर उन लड़कों को जिंदा करने का क्या उपाय होगा, उनके परिवार को हम क्या जवाब दे पाएंगे और अपराधी बाहर घूम रहा हो तो हम उस लड़की को क्या जवाब दे पाएंगे।
              न्यायालय के पास अधिकार है कि यदि कोई गलत निर्णय हो गया हो तो उसको सुधार जा सकता है। पर, किसी मार देने के बाद में गलती का पता चलने पर सुधार कैसे किया जा सकता है। यह सबसे बड़ा अन्याय है उस लड़की के साथ।
            यदि इंकॉउंटर इतना सही है तो फिर संसद में तीन सांसदों पर रेप का केस है और न्यायालय में लगभग एक लाख बत्तीस हजार रेप के केस लंबित है तो उन बेटियो के साथ भी त्वरित न्याय के लिए सभी आरोपियों को गोली मार दिया जाए। न कोर्ट की जरूरत है ना ट्रायल की ।

पार्ट 2:
कब तक करें इन्तेजार ?
जैसे हर किसी के मन मे ये सवाल उठता है, मैं भी परेशान रहने लगी हूँ कि कब तक तारीख पर तारीख मिलती रहेगी? कब तक हमारी बहने- बेटियां निर्भया और दिशा बनती रहेगी? क्यों उम्मीद करें उस कानून से जिसकी खुद की आंखों पर काली पट्टी बंधी है?
          क्या बुरा किया हैदराबाद पुलिस ने? आज यदि निर्भया को 7 साल बाद भी इंसाफ नही मिल पाया तो क्यों न करे यह मांग कि आज सिंघम की जरूरत है जो न वकील न दलील न अपील की परवाह करता है बल्कि फैसला '’ऑन द स्पॉट'' दे दे।
            यदि कोई चोरी करे तो उसका तुरंत हाथ काट दिया जाए। व्यभिचार करे तो पत्थर से और कोड़ो से मारा जाए और बलात्कार करे तो एनकाउंटर कर दिया जाए। ये व्यवस्थाएं कई इस्लामिक देशो में है, जो शरीयत पर आधारित कानूनों को मानती हैं।
            फिर क्यों ना हम बाबा साहेब के संविधान को कचरे में फेंक दे और शरीयत को अपना कानून की सर्वोच्च किताब बना लें? जब त्वरित न्याय के लिए एनकाउंटर सही हो सकता है और न्याय का कार्य पुलिस ही कर सकती है तो फिर न्यायालयों, संविधान, IPC, CrPc की क्या जरूरत है?
           लेकिन कभी आपने सोचा है कि जब उत्तर प्रदेश में एक सत्ताधारी दल का विधायक एक लड़की का बलात्कार करता है, उसके परिवार को सरेआम मार देता है, लड़की को जान से मारने का प्रयास करता है तो फिर यही खून आपका क्यों नही खौलता है? क्यों नहीं उसके एनकाउंटर की कोई बात करता है? 
          आज यदि इस पुलिस को ये अधिकार दे दिया जाए कि अपराधी के साथ जो करना है करो तो सोचिये कि यही वो पुलिस है जो चिन्मयानंद को हॉस्पिटल पहुँचाती और शोषित लड़की को जेल में डालती है।
         और जिस पुलिस के एनकाउंटर पर हम इतना खुश हो रहे है , जिस दिन उसको लगने लगेगा कि ये पगलाई हुई जनता को बस एनकाउंटर चाहिए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब पुलिस कभी पैसे के लिए तो कभी प्रोमोशन के लिए, कभी आपसी दुश्मनी के लिए तो कभी रसूखदारों के हितों की रक्षा के लिए बिना किसी न्यायिक डर के और जांच के धड़ाधड़ एनकाउंटर करेगी।
               आज मरने वाला कोई हैदराबाद का भले हो सकता है। पर, बस आप अपनी बारी का इंतजार कीजिए जनाब। जब कभी आतंकवाद के नाम पर तो कभी नक्सली के नाम पर तो कभी गुंडई के नाम पर तो कभी बलात्कार के नाम पर एनकाउंटर करेगी ये पुलिस। 
             आपको लगेगा कि मेरे भाई को,  मेरे बाप को झूठे केस में फंसा कर मारा गया है। पर, हर कोई ये मानेगा कि पुलिस ने अगर मारा है तो जरूर अपराधी ही होगा। क्योंकि आज आप भी यही मानते हैं और आपको भी यही लगता है। 
             आप हजारो दलीले देंगे, सुबूत देते रहेंगे। कोई दिल्ली में तो कोई लखनऊ में सोचेगा कि सही हुआ क्योंकि न तो कोई अदालत होगी न्याय के लिए और ट्रायल के लिए तथा  न ही कोई मीडिया होगी, सही रिपोर्टिंग के लिए। आपका "ऑन द स्पॉट" का आज का उन्माद आपके और हमारे परिवार के लिए क्या कर सकता है, ये केवल आप और हम कल्पना ही कर सकते है।
             आपने कभी सोचा है या कभी सर्च करने की कोशिश की है कि एनकाउंटर में मरने वाले वाले लोगों की पृष्ठभूमि क्या होती है? क्या कभी अपने सुना है कि किसी कैबिनेट मंत्री के बेटे का एनकाउंटर हुआ हो या किसी आईएएस के लड़के का, चाहे उसने कितना भी संगीन अपराध किया हो।
               चाहे उसने किसी लड़की का बलात्कार किया हो या किसी लड़की को गोली मार दी हो। कभी आपने क्यों नहीं पूछा कि एक लड़की को सरेआम गोली मारने वाले मनु शर्मा ( वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विनोद शर्मा के पुत्र) का या गोपाल कांडा (हरियाणा के बाहुबली नेता) का एनकाउंटर क्यों नही हुआ?
    मैं कुछ फेक इंकॉउंटेर का उदाहरण देती हूँ। 2012 में नक्सली कहकर छत्तीसगढ़ के बीजापुर के सरगुड़ा में 17 निहत्थे 
आदिवासियों को एनकाउंटर में मार दिया गया। जब सुधा भारद्वाज जैसे सामाजिक कार्यकर्ता ने इस पर सवाल उठाया तो लोगो ने उन्हें एन्टी नेशनल, अर्बन नक्सल कहना शुरू कर दिया। कभी
काफी हंगामा होने पर इसके न्यायिक जांच के आदेश दिये गए। अभी हाल में 10 दिन भी नहीं हुए , इस कमीशन के अध्यक्ष मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज माननीय श्री वी के अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ये एक फेक एनकाउंटर था । जिसमें नाबालिग बच्चे भी शामिल थे। 
          आप यदि फेक एन्काउंटर में मारे गए लोगो को देखे तो दिलचस्प रूप से पता चलता है कि अधिकांश मारे जाने वाले लोग समाज के हाशिए पर खड़े लोग हैं, कोई आदिवासी है तो कोई बस ड्राइवर है तो  कोई अत्यंत गरीब।
           आपकी तरह मुझे भी लग रहा है तो क्या करे? क्या इन हवसी दरिंदो को छोड़ दे? वर्षों तक तारीख पर तारीख लगने दिया जाए।
       मैं पूर्ण विरोध करती हूं इसका। अंग्रेजी में एक कहावत है - "justice delayed, justice denied".
         पर मैं किसी एनकाउंटर का मांग नहीं करती हूँ। मैं पुलिस को ये अधिकार नहीं देना चाहती हूँ। मेरा मानना है कि जितना हम खुश हुए इनके एनकाउंटर पर, इससे बेहतर होता कि हम मांग करते कि दिशा के गुनाहगारों को पांच दिन के अंदर न्यायालय द्वारा मुकदमा चलाकर फैसला दिया जाए। आप सोचेंगे कि क्या बकवास है ये ? निर्भया को आज सात साल बाद भी न्याय नही मिल पाया तो पांच दिन में क्या पॉसिबल है ?
            पर मैं आपको बताना चाहती हूँ "गया मॉडल" के बारे में जहाँ  रेप केस में सात दिन के अंदर अभियुक्त को सजा हो गई। सात दिन में गया पुलिस ने साक्ष्य जुटाए, चार्जशीट दाखिल की और न्यायपालिका ने बारीकी से गौर करते हुए फैसला दिया।
        अब आप कहेंगे कि फाँसी तो मिलती नहीं है। तो मैं आपको बताना चाहती हूं कि बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद, 1980 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि रेयरेस्ट ऑफ द रेयर अर्थात जघन्य में भी जघन्यतम अपराधों में ही फाँसी की सजा मिलनी चाहिये।
      अब यदि हैदराबाद वाले मामले पर गौर करे तो एक लड़की के साथ गैंगरेप हुआ और फिर उसे बेरहमी से जलाकर मारा गया। तब ये केस स्वतः ही जघन्यतम श्रेणी में आ जाता है और दोषियों को मौत की सजा मिलती ही, जैसा कि निर्भया केस में फाँसी मिलनी तय है। लेकिन, वैसी स्थिति में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के सभी मानकों को पूरा किया जाता।
           तब तो मांग ये होनी चाहिए कि जिन निकम्मी सरकारों को हमने चुना है, उनसे ये मांग होनी ही चाहिए कि फैसला न्यायपालिका ही करे, पर न्याय त्वरित हो, सजा असली गुनहगार को मिले और शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत ( संसद या विधानमंडल का कार्य कानून बनाना, कार्यपालिका या पुलिस का काम कानून को लागू करना एवं न्यायपालिका का काम न्याय करना) का कतई उल्लंघन नहीं हो। 
           नहीं तो संविधान और उसके मूल ढांचे का क्या होगा? जैसा कि केशवानंद भारती वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है। यदि न्यायपालिका का कार्य भी कार्यपालिका करने लगे तो अन्य देशों को अनुभव रहा है कि डेमोक्रेसी को मोबोक्रेसी में तब्दील होते देर नहीं लगती। 
            तो फिर क्यों नही मांग करते हम कि हमें तो न्याय 5 दिन में ही मिलनी चाहिए। गुनाहगार बस असली हो ताकि अपराधी बाहर न घूमे और किसी गरीब को बली का बकरा न बना दिया जाए, किसी रसूखदार को बचाने के लिए ताकि दिशा की आत्मा को दर-दर न भटकना पड़े और न्याय तुरंत हो सके।

पार्ट 3 : 
मुझे विद्रोह नहीं क्रान्ति चाहिए?
            विद्रोह का अर्थ है क्षणिक सुधार, जैसे किसी ने बलात्कार किया और किसी का एनकाउंटर कर दिया जाए और क्रांति का अर्थ है दीर्घकालिक और स्थायी बदलाव । जैसे कि ऐसी परिस्थितियाँ  पैदा की जाए कि  कोई बेटी  न निर्भया बने  न दिशा ।
          अब सवाल उठता है कैसे ? चलिए शुरू करते हैं खुद अपने ही घर से। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट ये कहती है कि रेप के लगभग 93% मामलो में आरोपी पीड़िता के रिश्तेदार, दोस्त या जानकर होते है। ऐसे में बदलाव कहाँ से होना चाहिए?
          कभी आपने सोचा है कि जब आपकी बहन या बेटी घर से बाहर निकलती है तो आप हजार सवाल पूछते है, कहाँ जा रही हो, कब तक आओगी….इत्यादि। सवाल पूछना आपका लाजमी है, आपका डर भी वाजिब है।
         पर, क्या यही सवाल आप अपने लड़के से पूछते हैं? कभी लड़का बाहर कहीं से लड़ कर आता है तो आपने क्यों नहीं उसे वहीं सही दंड दिया ताकि वह आगे यदि कोई गलती करे तो उसे पता होना चाहिए कि उसका घर उसके साथ नहीं बल्कि विरोध में खड़ा होगा।
         क्यों नही आपने बैठ कर उसे समझाया कि यदि राह चलते  उसने किसी लड़की पर फब्तियां  कसी या किसी तरह की मनचली हरकत की तो आप पहले व्यक्ति होंगे जो उसे जेल के सलाखों के पीछे भेजेंगे।
       आपने क्यों नही अपने लड़के को समझाया कि इस घर में जितनी तुम्हारी इज्जत और जरूरत है, उतनी ही तुम्हारी बहन की भी है, शायद उसके संस्कार में ही जेंडर सेंसिटिविटी आ जाती।
      जब किसी दूसरे की बहन या बेटी के साथ कोई रोड पर आपके सामने छेड़खानी करता है तो आप सोचते है कि मुझे क्या लेना देना ? पर, जब आपके परिवार में किसी के साथ कोई अपराध हो जाता है और कुछ लोग देखकर गुजर जाते है आप ही की तरह तो आप कहते है कि सबको क्या हो गया है?
        हमारे स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाया जाता, जेंडर सेंसिटिव सिलेबस? क्यों नही अनिवार्य किया जा रहा, सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग? क्यों नहीं इतना मजबूत बनाया जा रहा किसी लड़की को कि यदि किसी मनचले ने रेप तो दूर छेड़खानी की भी कोशिश करने से पहले हजार बार सोचें ।और यदि लड़की ने  कभी सख्त एक्शन लिया तो उससे ये नहीं कहा जाए कि चुपचाप अनदेखी करके निकल नही सकती थी क्या? क्या जरूरत थी उलझने की?
          इतनी हिम्मत एक लड़की में तभी आ पायेगी जब परिवार, समाज और शासन लड़की के पीछे खड़ा हो। जब परिवार में भी बच्चे देखते है कि घरेलू हिंसा के नाम पर रोज बहन-बेटियों को मारा जा रहा हो तब ऐसे में इन घरो के लड़कों से किस प्रकार के संस्कार और स्त्री के प्रति सम्मान की उम्मीद की जा सकती है? जब समाज में स्त्री के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता बढ़ाई जाएगी तभी संभव है कि एक लड़का वास्तव में कोई गलत कृत्य करने से पहले सौ बार सोचेगा।
        लेकिन, इसके बावजूद यदि किसी ने किसी लड़की को निर्भया या दिशा बनाने का दुस्साहस किया तो क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना मजबूत होना चाहिए कि न्याय त्वरित मिले, सजा वास्तविक दोषी को मिले और उसे पता चले कि कानून से आप किस भी हाल में बच नहीं सकते, चाहे आप कितने भी रसूखदार हो, तभी विधि के शासन की स्थापना संभव है।
        जितनी सततता, तीव्रता, एकमयता से हैदराबबाद पुलिस को बधाई दे रहे हैं क्यों नहीं कभी इतनी ही सततता, तीव्रता, एकमयता से सरकार से यह सवाल पूछा, कि निर्भया कांड के बावजूद अब तक एडवांस फोरेंसिक लैब्स की स्थापना सभी राज्यो में क्यों नहीं हुई? माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद महिला अपराधों के लिए समर्पित 1023 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स अब तक क्यों नही स्थापित हुए? क्यों नहीं अब तक राज्यों द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह वाद, 2006 में फैसले के बावजूद पुलिस के कानून व्यवस्था और आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को पृथक किया गया।
           अनजान स्थानों पर हुए बलात्कार की घटनाओं पर नजर दौड़ाई जाए तो एक पैटर्न दिखता है, जैसे की हैदराबाद मामले में भी दिखा कि ऐसी घटनाएं मूलतः सुनसान, अंधेरे, रास्तों पर ही होते हैं। मंदिर-मस्जिद की मांग करना हो तो हम सबसे पहले झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं। क्यों नहीं अपने जनप्रतिनिधियों या दलों से या सरकारों से आप मांग करते कि हर जगह स्ट्रीट लाइट्स लगाओ, सीसीटीवी कैमरे लगाओ, हर बस या ट्रैन में महिलाओं की रक्षा के लिए सुरक्षा बलों की नियुक्ति करो, हर 100 मीटर पर यूरोपीय देशों के तर्ज पर पैनिक बटन एवं वन स्टॉप सेंटर की व्यवस्था हो ताकि आपात काल मे महिला को त्वरित सहायता मिल सके।
        प्रकाश सिंह वाद में आदेश के बावजूद अब तक केंद्र सरकार (UT के मामले में) एवं सभी राज्यों द्वारा पर्याप्त पुलिस बलों की नियुक्ति नहीं की गई है ताकि गलियों, मुहल्लों में रात में निरंतर पेट्रोलिंग हो सके।
            जरूरत है बस दृढ़ इच्छाशक्ति की, साफ नियत की और ईमानदारी से कार्य करने की। फिर देखते हैं कैसे किसी दिशा के दरिंदे को 5 दिन में सजा नहीं मिल सकती। कैसे नहीं संभव होगा, जब गया पुलिस कर सकती है तो दूसरी जगह कैसे नहीं संभव हो सकता ? जरूरत है सही मांग करने की इन सरकारों से। तभी एक सिस्टम आएगा और गुलाबी क्रांति (pink revolution) संभव हो पायेगी।

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