सामाजिक चिन्तन


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उन संघर्षशील लोगों को समर्पित
 जो मज़लूमों को न्याय दिलाने के लिए इंसानियत के पक्ष में खड़े हैं। "फुले-अम्बेडकरी आंदोलन से भयभीत शासक जातियों का वर्तमान हिंसक चरित्र"
रू-ब-रू................
दलित दर्शन की वैचारिकी के भिन्न आयामों पर लिखे निबन्धों को
पुस्तकाकार संकलन के रूप में प्रकाशित करने के पीछे मंशा यही रही है कि इसके
भिन्न पक्षों पर चर्चा द्वारा भविष्य में आम सहमति के लिए एक सम्यक पृष्ठभूमि
तैयार की जा सके । केन्द्रीय विषय-वस्तु को भिन्न संदर्भों में देखना-समझना;
विषय से जुड़े तमाम सवालों का समुचित तथा संतोषजनक हल ढूढ़ने के लिए
एक समग्र दृष्टि देने वाला हो सकता है। समय के साथ बदलते जीवन मूल्यों
के परिप्रेक्ष्य में सदियों से सताई गई दलित-दमित तथा पीड़ित जनता के वर्तमान
सामाजिक समीकरणों की पड़ताल, उसकी गतिशीलता का भविष्य तय करने में
मददगार हो सकती है। इसीलिए समय सापेक्ष वैचारिकी के लिए इतिहास की
स्थापनाओं के साथ-साथ, आधुनिक बदलावों की जरूरतों को चिन्हित करना
वाज़िब लगता है। इस संकलन के आलेखों में भारतीय जीवन-पद्धति की प्राचीन
परम्पराओं को वर्तमान धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सच्चाइयों से
जोड़कर देखने की कोशिश की गई है।
यूँ तो दलित-विमर्श के भिन्न आयामों का विचार-क्षेत्रा इतना विशद है
कि सबको एक साथ ले आने का दावा करना ही बेमानी है। विषय के हज़ारों
पहलू भारतीय जीवन-जगत में क़दम-क़दम पर दिखाई दे जाते हैं। यही नहीं इन्हें
देखने और परखने की भिन्न संवेदना-दृष्टि भी इसकी तीव्रता और परिमाण में
ज़मीन आसमान का अन्तर पैदा कर देती है। लेकिन यह अन्तर दलित जीवन के
यथार्थ को अपने-अपने तर्कों और कुतर्कों पर मीमांशा के कारण है जिसमें
जीवन-मूल्यों को नापने-परखने के अलग-अलग पैरामीटर लिए जाते हैं। ऐसे
भिन्न आदर्शों एवं मान्यताओं की बहस के बीच यदि सामन्जस्य की कहीं कोई
गुंज़ाइश शेष रह जाती है तो वह केवल मनुष्य जीवन में शान्ति स्थापना के
आदर्शों को लेकर है। अन्यथा जंगली जीवन की मार-काट और कोलाहल भरे
उथल-पुथल के जीवन को स्वीकार कर लेने के बाद ऐसे किसी विमर्श की
आवश्यकता ही शेष नहीं रह जाती है।
इन चौदह निबन्धों की भिन्न-भिन्न विषय-वस्तु होते हुए भी इनमें
व्यक्त सामाजिक सरोकार दलित-पीड़ित मानवता की शोषण-मुक्ति तक सीमित
हैं। सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कारकों को ऐतिहासिक गलियारों में
खोजने की कोशिश, बहुसंख्यक जनता को आर्थिक-सामाजिक शोषण से नजात
दिलाने की ही एक और कोशिश है।8 : दलित दर्शन की वैचारिकी
‘बेचत फिरै कपूर’ शीर्षक के अन्तर्गत शोषक वर्ग के दोहरे चरित्रा के उस
पहलू को सामने लाने की कोशिश की गयी है जिसके बल पर वह मान-मर्यादा तथा
रीति-नीति के दो मानदण्ड अख़्तियार करता है - अपने लिए अलग तथा रियाया के
लिए अलग। ‘मिथकीय धुंध में छुपा इतिहास’ के अन्तर्गत वेदों, शास्त्रों और महाकाव्यों
के ज़रिए गढ़े गये झूठे मिथकीय चरित्रों की रचना का ज़िक्र है। ये मिथकीय चरित्रा
अशिक्षा के अंधेरे से इतिहास की सच्चाइयों को ढाँपे हुए हैं। झूठ को सच दिखाने का
यह नायाब नुस्खा भोली-भाली जनता पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का कारण
बना है। लम्बे समय से भारतीय इतिहास के वास्तविक चरित्रा आम-जन से प्रायः
अपरिचित रहे हैं तथा इन्हीं नकली चरित्रों को ही अपना हीरो मानकर एक खास वर्ग
की दासता के लिए बाध्य किया जाता रहा है। ‘दलित प्रतिरोध और कबीर की कविता’
के अन्तर्गत शोषित जनता के प्रतिरोध के स्वरों की खोज करते हुए कबीर की कविताओं
और पदों में इसकी निशानदेही की गयी है। इसी प्रतिरोध के स्वर ने दलित-पीड़ित
समुदाय में एकता बनाकर हिन्दू पाखंडवाद को ललकारने की ऊर्जा दी है। कबीर
की कविताओं के साथ किए जाने वाले भ्रामक अर्थों के धोखे द्वारा आम-जन से
उसके जुड़ाव को काटने की साजिश की पहचान की गयी है। ‘बहुजन का
सर्वनाम’ के अन्तर्गत शब्दों के घालमेल द्वारा एक ऐतिहासिक दर्शन को अवपथित
करने के उपक्रम को उजागर किया गया है। शोषण और शोषक के बीच के
अन्तर को पहचानते हुए उन हथियारों की पहचान ज़रूरी है जो एक सांस्कृतिक
आक्रमण का साधन बनकर शोषण की परम्परा को ज़बरन चलवाते हैं।
‘निर्गुण संतों की दलित वैचारिकी’ के अन्तर्गत उस सन्त-परम्परा की चर्चा
है जिसके अनीश्वरवादी तथा क्रान्तिकारी मानवीय सरोकारों के स्वरों को दबाने की
कोशिश की जाती रही है। धार्मिक शोषण को चुनौती देते इन सन्तों की वाणी को मूल
रूप में उनकी अपनी जनता तक न पहुँचने देने के षड्यन्त्रा का भंडाफोड़ करना ज़रूरी
जान पड़ता है। ‘योग्यता का अवसर या अवसर की योग्यता’ के अन्तर्गत योग्यता के
नाम पर श्रम-दोहन के छद्म-पाश पर चर्चा की गयी है। एक ख़ास वर्ग द्वारा गढ़े हुए
योग्यता और अयोग्यता के पैमाने उनकी अपनी सुविधा के अनुसार निर्मित किए जाते
रहे हैं। ऐसे में श्रम का अवमूल्यन तथा शोषण के बल पर परजीवी समाज का
ऐशो-आराम प्रगति का प्रतिगामी चिन्ता का विषय है। यही नहीं बल्कि शोषक वर्ग की
सहूलत के पैमाने पर खरा उतरना ही सबसे बड़ी योग्यता तय की गयी लगती है। संवैध्
ानिक दायरे में योग्यता और श्रेष्ठता के सवालों पर भ्रम-धारणाओं का खुलासा करने
की कोशिश की गयी है। ‘भाषाई वर्चस्ववाद का वैदिक संस्करण’ के अन्तर्गत भाषाई
वर्चस्ववाद की ऐतिहासिक पड़ताल करने की कोशिश की गयी है। अल्प भाषा-भाषी
लोगों की भाषाई श्रेष्ठता आम-जन की नज़र से कभी भी फलदायी और सर्वलाभकारीदलित दर्शन की वैचारिकी : 9
नहीं हो सकती। फिर ऐसा क्यों है कि एक बड़ी भाषा-भाषी जनता की भाषा को भी
हीन बताया जाता रहा है। ‘स्त्रा और दलित प्रश्नों के कठघरे में हिन्दी कविता’ के
अन्तर्गत हिन्दी साहित्य में दलित और स्त्रा प्रश्नों की लगातार अनदेखी पर सवाल
उठाये गये हैं। ‘अम्बेडकरी मिशन के सामाजिक रूपान्तरकार : मान्वयर कांशीराम’
शीर्षक के अन्तर्गत बाबा साहेब डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की वैचारिकी को सामाजिक
परिवर्तन के लिए ज़मीनी हक़ीक़त में बदलने वाले मान्यवर कांशीराम की सामाजिक
चिन्ताओं और उसके निदान के बारे में चर्चा की गयी है। ‘बुद्ध-कबीर-अम्बेडकरः
वैचारिक शंकाएँ एवं समाधान’ के अन्तर्गत जाने-अनजाने फैलाई गयी कई भ्रम धारणाओं
पर तर्क संगत समाधान प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है। ‘सामाजिक चुनौतियों
के बरअक्स धम्म की धुरी’ के अन्तर्गत अनीश्वरवादी वैज्ञानिक धर्म को सामाजिक
चुनौतियों के बरअक्स आँकने की कोशिश की गई है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में श्रमण-धम्म की
पारम्परिक मान्यताओं और उसके द्वारा आधुनिक वैज्ञानिक समाज के उत्थान पर
प्रासंगिक चर्चा की गयी है। ‘कबीर साहित्य के सामाजिक सरोकार’ के अन्तर्गत कबीर
की सामाजिक चिन्ताओं तथा उसके लिए उनके योगदान को चिन्हित करने की
कोशिश की गयी है। कबीर के साहित्य को सामाजिक बदलाव की चिन्ताओं के नज़रिए
से देखने-परखने की कोशिश की गई है तथा इसमें दलित-मुक्ति के संदेशों की खोज
की गयी है। ‘समान शिक्षा के ज़रिए सामाजिक न्याय’ के अन्तर्गत शिक्षा के स्तर पर
व्याप्त भेद-भाव और उससे पैदा होने वाले शोषणकारी दमन-चक्र की चर्चा की गयी है।
आज शिक्षा के नाम पर अशिक्षित रखने की नई तरक़ीबों को उजागर करना आवश्यक
हो गया है। ‘शोषण मुक्ति का धार्मिक विकल्प’ के अन्तर्गत व्यक्ति के द्वारा उसकी
धार्मिक मान्यताओं और धार्मिक चुनावों के विकल्प पर चर्चा की गयी है ताकि शोषण
से मुक्ति का हल ढूँढ़ा जा सके। इसके ज़रिए धार्मिक जड़ता से छूटकर मानवीय पक्ष
को स्वीकार करने की वैचारिकी पर मन्तव्य रखा गया है।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि दुनिया के प्रायः सभी धर्मों ने मनुष्य द्वारा
मनुष्य के शोषण का रास्ता अपनाया है। सामाजिक-आर्थिक शोषण का सबसे कारगर
और मज़बूत हथियार धर्म रहा है। यही नहीं धार्मिक उन्माद के कारण दुनिया के
बड़े-बड़े नरसंहार हुए हैं तथा एक से बढ़कर एक जघन्य कुकृत्य अंजाम दिए गये हैं।
यहूदियों, ईसाइयों, इस्लाम एवं हिन्दुओं के अन्तर्धार्मिक युद्ध को क्रूसेड, जेहाद, धर्मयुद्ध
या अन्य कोई भी नाम दें, यह मनुष्य और मनुष्य के बीच नफ़रत फैलाने का ही दूसरा
नाम है। इन बिन्दुओं पर भारतीय संदर्भ में विचार करते समय हिन्दू धर्म के पुरोहितवाद
और ब्राह्मणवाद का ज़िक्र किया गया है। ईश्वर और धर्म के नाम पर मनुष्यता की हत्या
को रोकने के सम्भव उपायों पर चर्चा करते हुए मानवीय स्वतन्त्राता को सर्वोपरि रखा
गया है। संग्रहीत आलेखों के माध्यम से मानव-मूल्यों की सार्वभौम स्वीकृति के आग्रह10 : दलित दर्शन की वैचारिकी
के साथ अमन और शान्ति के लिए शोषण-मुक्ति की आवाज़ को उन लोगों तक
पहुँचाने की कोशिश की गयी है जिनके विचार सामाजिक परिवर्तन के लिए निर्णायक
भूमिका अदा कर सकते हैं।
मेरे अभिन्न मित्रा तथा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकार डा॰ लाल रत्नाकर ने
अपनी तूलिका से केवल इस पुस्तक में ही रंग नहीं भरे हैं बल्कि मेरे सामाजिक सरोकारों
पर अपनी सूक्ष्म संवेदनशील सहृदयता से विचारों का साझा भी किया है। पुस्तक की
पाण्डुलिपि को पढ़कर सुधार हेतु सुझाव देने वालों में हमारे परमप्रिय मित्रा और अग्रज
भाई मूलचन्द सोनकर तथा भाई बसन्त जी का मुझ पर विशेष अनुग्रह रहा है। हमारे
शुभकांक्षी मित्रा रामदेव सिंह, भाई दिनेश चन्द्र विशेष रूप से हमारा हौसला बढ़ाते रहे
हैं। रामू सिद्धार्थ, रामजी यादव, डॉ॰ राम विलास भारती, मनोज कुमार मंजुल तथा हमारे
साहित्यिक मित्रों का विशेष सहयोग तथा सदभावना रही है जिसके कारण पुस्तक के
प्रकाशन का विचार बन पाया है। पुस्तक की शुरुआती परिकल्पना से लेकर अन्तिम
रूप देने तक जिस एक महानुभाव ने अपना पूरा सहयोग दिया है वे हैं हमारे परम सुहृद
श्री संतोष कुमार सिंह। उनकी मेहनत और लगन के कारण ही इसकी पाण्डुलिपि की
टाइपिंग से लेकर मुद्रण तक का सफ़र पूरा हुआ है। मेरी पुत्रा तुल्य बीनू कबीर, बेटी
डा॰ रचना, रजनीगन्धा तथा विप्लवी प्रकाशन की कर्ता-धर्ता एवं प्रोप्राइटर श्रीमती
दुर्गावती विप्लवी का विमर्श एवं सुझाव इस वैचारिकी में एक सम्बल रहा है। मैं इन
सभी महानुभावों का हृदय से आभारी हूँ जिनके कारण मेरे विचारों की अभिव्यक्ति इस
पुस्तक के रूप सम्भव हो पाई है।
पुस्तक आपके हाथों सौंपते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। आपके सुझावों
का हमेशा स्वागत करूँगा।
बी॰आर॰विप्लवी
मुगलसराय, चन्दौली, उत्तर प्रदेश

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इतिहास : 
जोतिबा फुले -11 अप्रैल 1827
डॉ बी आर अम्बेडकर -14 अप्रैल 1891

जोति बा फुले -
11 अप्रैल 1827 


नाम    – महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले
जन्म   – ११ अप्रैल १८२७ पुणे
पिता    – गोविंदराव फुले
माता   –  विमला बाई
विवाह  – सावित्रीबाई फुले

        महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता है. उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया. अछुतोद्वार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है.

आरंभिक जीवन:
        उनका जन्म 11 अप्रैल  1827  को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र  एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया. जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमे पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा  पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे.

        उन्‍होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।

        पेशवाई के अस्त के बाद अंग्रेजी हुकूमत की वजह से हुये बदलाव के इ.स. 1840 के बाद दृश्य स्वरूप आया. हिंदू समाज के सामाजिक रूढी, परंपरा के खिलाफ बहोत से सुधारक आवाज उठाने लगे. इन सुधारको ने स्त्री शिक्षण, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, संमतीवय, बालविवाह आदी. सामाजिक विषयो पर लोगों को जगाने की कोशिश की. लेकीन उन्नीसवी सदिके ये सुधारक ‘हिंदू परंपरा’ के वर्ग में अपनी भूमिका रखते थे. और समाजसुधारणा की कोशिश करते थे. महात्मा जोतिराव फुले इन्होंने भारत के इस सामाजिक आंदोलन से महराष्ट्र में नई दिशा दी. उन्होंने वर्णसंस्था और जातीसंस्था ये शोषण की व्यवस्था है और जब तक इनका पूरी तरह से ख़त्म नहीं होता तब तक एक समाज की निर्मिती असंभव है ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका लेनेवाले वो पहले भारतीय थे. जातीव्यवस्था निर्मूलन के कल्पना और आंदोलन के उसी वजह से वो जनक साबीत हुये.

        महात्मा फुले इन्होंने अछूत स्त्रीयों और मेहनत करने वाले लोग इनके बाजु में जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश जिंदगीभर फुले ने की है. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसन्मान देणे की, किसानो के अधिकार की ऐसी बहोतसी लढाई यों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज ये भारतीय सामाजिक क्रांती के लिये कोशिश करनेवाली अग्रणी संस्था बनी. महात्मा फुले ने लोकमान्य टिळक , आगरकर, न्या. रानडे, दयानंद सरस्वती इनके साथ देश की राजनीती और समाजकारण आगे ले जाने की कोशिश की. जब उन्हें लगा की इन लोगों की भूमिका अछूत को न्याय देने वाली नहीं है. तब उन्होंने उनपर टिका भी की. यही नियम ब्रिटिश सरकार और राष्ट्रीय सभा और कॉग्रेस के लिये भी लगाया हुवा दिखता है.

        महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद १८४८  में उन्होंने पुणे में लडकियों के लिए भारत की पहली प्रशाला खोली | २४ सितंबर १८७३ को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य  उद्देश्य समाज में शुद्रो पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था | महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्युकी अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बिज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए १८५४ में एक घर भी बनवाया था |  दुसरो के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाती तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे.

        ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्तिथि बहुत खराब थी क्योंक घर के कामो तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढने लिखने का तो सवाल ही पैदा नही होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताए ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढने पर जोर दिया था | उन्होंने विधवाओ और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानो की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा क्व लिये ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लडकियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नही मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चो को पढ़ा सके |

        ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था ।

        दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।

कार्य और सामाजिक सुधार:

• इनका सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिये था; और इनकी पहली अनुयायी खुद इनकी पत्नी थी जो हमेशा अपने सपनों को बाँटती थी तथा पूरे जीवन भर उनका साथ दिया।
• अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं के एक न्याय संगत और एक समान समाज बनाने के लिये 1848 में ज्योतिबा ने लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला; ये देश का पहला लड़कियों के लिये विद्यालय था। उनकी पत्नी सावित्रीबाई वहाँ अध्यापान का कार्य करती थी। लेकिन लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक उच्च असोचनीय घटना हुई उस समय, ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। हालाँकि इस तरह के दबाव और धमकियों के बावजूद भी वो अपने लक्ष्य से नहीं भटके और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में चेतना फैलाते रहे।
• 1851 में इन्होंने बड़ा और बेहतर स्कूल शुरु किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जाति, धर्म तथा पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और उसके दरवाजे सभी के लिये खुले थे।
• ज्योतिबा फुले बाल विवाह के खिलाफ थे साथ ही विधवा विवाह के समर्थक भी थे; वे ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति रखते थे जो शोषण का शिकार हुई हो या किसी कारणवश परेशान हो इसलिये उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिये अपने घर के दरवाजे खुले रखे थे जहाँ उनकी देखभाल हो सके।

मृत्यु:
        ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | यह बच्चा बड़ा होकर एक Doctor बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया | मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निश्वार्थ कार्यों के कारण May 1988 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधी प्रदान की | July 1988 में उन्हें लकवे का Attack आ गया | जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता जा रहा था लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नही हुआ था | 27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी हितैषियो को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यो को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाई की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मै इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ |” इतना कहते ही उनकी आँखों से आसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला | 28 नवम्बर 1890 को ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दिया और एक महान समाजसेवी इस दुनिया से विदा हो गया |
भारत मे आरम्भ से ही दो तरह की धाराएं चली आ रही थी। एक ब्राह्मणवादी धारा तो दूसरा समतावादी। इतिहास लेखन इन्ही धाराओं पर हुआ। बाद में विश्लेषण भी। वैसे महाराष्ट्र सन्तों और महापुरुषों की जमीन रही है। बावजूद इन सबके ब्राह्मणों, पेशवाओ, मराठो तथा सामन्तो ने सन्तों और महापुरूषों का लिहाज न कर अपनी ही तानाशाही चलाई, जो दलितों, पिछड़ो, और महिलाओं के लिए दुखद अध्याय था। वे पंडितों तथा पुरोहितों से परेशान थे। ऐसे समय जोती राव का जन्म हुआ था। उन्होंने समता और स्वतंत्रता के लिए शोषणकारी व्यवस्था को बदलने का व्यापक आंदोलन चलाया।
जोती राव फुले की एक पेंटिंग
उन्नीसवीं सदी में भारत मे जो समाज सुधारक तथा समाज विचारक हुए उनमें जोती राव का व्यक्तित्व अलग था। उनकी दृष्टि एक क्रांतिकारी चिंतक की थी। वे बहुजन समाज का सिर्फ सुधार नही चाहते थे बल्कि उनमें चेतना भी जगाना चाहते थे। वे आरम्भ से ही शिक्षा को महत्व देते थे। ऐसा इसलिए कि उन्होंने पढे लिखे ब्राह्मणों की काली करतूतों को नजदीक से देखा ही नही बल्कि झेला भी था। स्त्री हो या पुरुष वे सभी के लिए वे समान शिक्षा के हिमायती थे। उन्होंने कहा भी है-




विधा के अभाव से मति नष्ट हुई



मति के अभाव से नीति नष्ट हुई

नीति के अभाव से गति नष्ट हुई

गति के अभाव से वित्त नष्ट हुआ

वित्त के अभाव से शुद्रों का पतन हुआ

इतना अनर्थ अकेले अविधा के कारण हुआ

ऐसी शख्सियत का जन्म 11 अप्रैल, 1827 को पुणे की माली जाति के परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम गोविंद राव तथा माता का चिमनाबाई था। उनके पिता फूलों की खेती करते थे। इसलिए उनका परिवार फुले नाम से प्रसिद्ध हो गया था।

फुलेवाड़ा स्थित जोती राव फुले के आवास को संग्रहालय बना दिया गया है। यहां प्रदर्शित एक तस्वीर जिसमें वह सावित्री बाई फुले के साथ बच्चियों को पढा रहे हैं। (एफपी ऑन द रोड, 2017)



उस समय समाज में हिन्दू वर्चस्ववादी जड़तायें थीं। द्विज मनुवादी मनुस्मृति तथा वेद पुराणों का समर्थन करते थे। स्वयं अपने परिवार की औरतों को भी जानवरों से ज्यादा नही समझते थे। महिलाओं को पढ़ाने के हक में नहीं थे। महिलाओं को पर्दे में रहना पड़ता था। सबसे पहले महिलाओं को पढ़ाने की शुरुआत जोती राव ने अपने घर से ही की। उनका विवाह सावित्री से हुआ, जो अनपढ़ थीं। अपनी पत्नी को ही उन्होंने पढ़ाने की शुरुआत की। हालांकि इस कार्य मे उन्हें बहुत परेशानी भी हुई।।ब्राह्मणों के बहकावे में आकर उनके पिता ने पति-पत्नी दोनों को घर से निकाल दिया। वह समय पति पत्नी के लिए कष्ट से भरा था। लेकिन जोती राव ने हिम्मत नही हारी। वे सतत प्रयास करते रहे और अंत मे सफल हुए। महिलाओं विशेष रूप से लड़कियों को पढ़ाने लिखाने के लिए एक नही लगभग बीस स्कूल उन दोनों ने मिलकर खोले और व्यवस्थित रूप से उन स्कूलों को चलाया भी।

महिलाओं की मुक्ति की दिशा में जोती राव का यह पहला कदम था। इसके बाद वे इस संघर्ष को घर के बाहर ले गए। पहले अपनी बस्ती फिर दूसरी बस्तियाें,,शहर और राज्य। उस समय ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती थी। जिसकी शुरुआत शिवाजी ने 1674 की थी। देखा गया कि झूठे और चरित्रहीन ब्राह्मण भी यह धार्मिक खैरात लेते थे। जो विमर्श और संघर्ष का विषय बन गया था। जून 1849 में पुणे के ब्राह्मण गोपाल हरि देशमुख ने इस प्रथा का विरोध किया। जोती राव ने उन्हें सहयोग दिया। और उन्हें सफलता मिली।
फुलेवाड़ा में जोती राव फुले के घर के अंदर एक पेंटिंग (एफपी ऑन द रोड, 2017)
अब तक ब्रिटिश सरकार को भी जोती राव की प्रतिभा और उनके द्वारा किये जा रहे समाज सुधार कार्यो के बारे में जानकारी मिल चुकी थी। अतः ब्रिटिश सरकार ने उनके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे कार्यो के लिए उन्हें  सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने का निर्णय लिया। इस तरह 16 नवम्बर,1852 को पुणे के विश्राम बाग वड़ा में एक विशेष समारोह का आयोजन हुआ। जिसमें उन्हें शाॅल के साथ पुष्पमाला देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर उनके मित्रों, प्रशंसकों का आना हुआ। जिन्हें अच्छा लगा। पर ब्राह्मणों को बुरा लगा। वजह यह कि तब तक संस्कृत पंडितों को ही शाल देकर सम्मानित किया जाता था।
बहुजन समाज के बच्चों में शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जोती राव ने 16 दिसम्बर 1853 को बम्बई के गवर्नर सर विस्काउंट फाकलैंड को प्राथना पत्र भेज कर विद्यालय निर्माण के लिए पुणे में भूखण्ड तथा धनराशि की मांग की। कुछ माह बाद ही उनकी यह मांग मान जी गयी और विद्यालय का निर्माण किया गया। जोती राव एक शिक्षक और समाज सुधारक ही नही थे। वे एक साहित्यकार आैर नाटककार भी थे। 1855 में उन्होंने तृतीय रत्न नाम से नाटक भी लिखा। इसके माध्यम से उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा भगवान के नाम पर समाज में फैलायी जा रही झूठी धारणाओं तथा अंधविश्वास का पर्दाफाश किया।




एक महत्वपूर्ण प्रसंग के अनुसार पुणे नगरपालिका की स्थापना 1 जून, 1857 हुई। सभी सदस्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते थे। इनमें बहुजन समाज का कोई सदस्य न था। फुले ने इस बारे में आवाज उठाई । बाद में जोती राव फुले की नियुक्ति नगरपालिका सदस्य के रूप में हुई। वे 1876 से 1882 तक पुणे नगरपालिका के सदस्य रहे। इसके सदस्य के रूप में उन्होंने बहुत से सुधार कार्य करवाये। 



1885 के आरभ में उन्होंने एक दो पुस्तिकाओं का लेखन किया। उनमें से एक ‘अछूतो की कैफियत’ थी। यह पुस्तिका एक तरह से  अछूतों की शोचनीय स्थिति पर केंद्रित थी। बड़ोदा के नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने उनके बारे में कहा था,”बहुजन समाज का अज्ञान दूर करके उन्हें नया जीवन दान देने वाले ज्योति राव प्रथम व्यक्ति है। उनका कार्य विशाल है। जिस मार्ग पर वे चले, उसका अनुसरण कर राष्ट्र का कल्याण होगा।”

1885 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। जाेती राव ने कहा कि जब तक कांग्रेस बहुजन जातियों के कल्याण के लिए ईमानदारी से कोई कार्य नही करती है तब तक कांग्रेस को राष्ट्रीय मानना गलत है।

27 नवम्बर,1890 को उनका स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ गया। जोती राव ने ऐसे समय परिवार के लोगों को पास बुलाया और हर एक को नि:स्वार्थ भावना से अपने कर्तव्य पालन का उपदेश दिया। 28 नवम्बर, को प्रातः उन्होंने प्राण त्याग दिए। लेकिन उन्होंने जो महान कार्य किये, उन सब के कारण वे अमर हो गए। कहना न होगा कि वे इतिहास में दर्ज हो गए। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक गुलामगिरी तो साहित्य ही नही बल्कि आंदोलन के इतिहास में बहुजन दस्तावेज के रूप में याद की जाएगी। जहाँ उन दिनों हिन्दुओं के अनेक संगठन चल रहे थे और वे सिर्फ दिखावे के लिए ही थे। जोती राव ने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर बहुजन समाज को एकता के सूत्र में बांधा।

डॉ. बी आर अम्बेडकर -14 अप्रैल 1891

बी आर अम्बेडकर





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बी आर अम्बेडकर
Dr. Bhimrao Ambedkar.jpg
सन 1939 में भीमराव रामजी अंबेडकर
जन्म14 अप्रैल 1891
महूइंदौर जिलामध्य प्रदेशभारत
मृत्यु6 दिसम्बर 1956 (उम्र 65)
दिल्लीभारत
राष्ट्रीयताभारतीय
अन्य नामबाबासाहेब
शिक्षाबीए., एमए., पीएच.डी., एम.एससी., डी. एससी., एलएल.डी., डी.लिट., बार-एट-लॉ (कुल ३२ डिग्रियाँ अर्जित)
शिक्षा प्राप्त कीमुंबई विश्वविद्यालयभारत
कोलंबिया विश्वविद्यालयअमेरिका
लंदन विश्वविद्यालययु. के.
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, यु. के.
बर्लिन विश्वविद्यालयजर्मनी
राजनैतिक पार्टीभारतीय रिपब्लिकन पार्टी
धार्मिक मान्यताबौद्ध धर्म (मानवता और विज्ञानवाद)
जीवनसाथीरमाबाई आंबेडकर (विवाह १९०६)
डॉ॰ सविता आंबेडकर (विवाह १९४८)
पुरस्कारभारत रत्‍न (१९९०)
बोधिसत्व (१९५६)
‘पहले’ कोलंबियन अहेड ऑफ देअर टाईम (२००४)
‘चौथे’ द मेकर्स ऑफ दि युनिवर्स
दि ग्रेटेस्ट इंडियन (२०१२)
भीमराव रामजी आंबेडकर (१४ अप्रैल१८९१ – ६ दिसंबर१९५६बाबासाहब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे।[1] उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया।[2] वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे।[3][4][5][6] आंबेडकर विपुल प्रतिभा के छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की।[7] जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था।

अनुक्रम

प्रारंभिक जीवन



आंबेडकर का जन्म ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थित नगर सैन्य छावनी महू में हुआ था।[8] वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की १४ वीं व अंतिम संतान थे।[9] उनका परिवार मराठी था और वो आंबडवे गांव जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से संबंधित था।[10] वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी।
आंबेडकर को गौतम बुद्ध की शिक्षाओं ने प्रभावित किया था। अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छत्र भीमराव को अस्पृश्यता के कारण अनेका प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। रामजी सकपाल ने स्कूल में अपने बेटे भीमराव का उपनाम ‘सकपाल' की बजायं ‘आंबडवेकर' लिखवाया, क्योंकी कोकण प्रांत में लोग अपना उपनाम गांव के नाम से लगा देते थे, इसलिए भीमराव का मूल अंबाडवे गांव से अंबावडेकर उपनाम स्कूल में दर्ज किया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘अंबाडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आंबेडकर’ उपनाम जोड़ दिया।[11] आज आंबेडकर नाम से जाने जाते है।
रामजी आंबेडकर ने सन १८९८ में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई (तब बंबई) चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने।[12]

उच्च शिक्षा



सन 1922 में एक वकील के रूप में डॉ॰ भीमराव आंबेडकर
गायकवाड शासक ने सन १९१३ में संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय मे जाकर अध्ययन के लिये भीमराव आंबेडकर का चयन किया गया साथ ही इसके लिये एक ११.५ डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। न्यूयॉर्क शहर में आने के बाद, डॉ॰ भीमराव आंबेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। शयनशाला मे कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब मे रहने चले गए और उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया। १९१६ में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पीएच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंततः उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि उनकी पहला प्रकाशित काम, एक लेख जिसका शीर्षक, भारत में जाति : उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास है। अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर सन १९१६ में डॉ॰ आंबेडकर लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रेज् इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया। अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर बीच मे ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन मे अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आंबेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। १९२० में कोल्हापुर के महाराजा, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये। १९२३ में उन्होंने अपना शोध प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी (रुपये की समस्यायें) पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा "डॉक्टर ऑफ साईंस" की उपाधि प्रदान की गयी। और उनकी कानून का अध्ययन पूरा होने के, साथ ही साथ उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। उन्हें औपचारिक रूप से ८ जून १९२७ को कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी. प्रदान की गयी।

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष



भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। १९२० में, बंबई से , उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् १९२६ में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन १९२७ में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।
१ जनवरी १९२७ को अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन १९२८ में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।
1927 तक, अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के खिलाफ सक्रिय आंदोलन शुरू करने का फैसला किया था। उन्होंने सार्वजनिक पेय जल संसाधनों को खोलने के लिए सार्वजनिक आंदोलनों और मार्च के साथ शुरू किया। उन्होंने हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने के अधिकार के लिए एक संघर्ष भी शुरू किया। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के अधिकार के लिए शहर के मुख्य जल टैंक से पानी निकालने के लिए लड़ने के लिए महाड में एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। 1927 के अंत में सम्मेलन में, अम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "अस्पृश्यता" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए क्लासिक हिंदू पाठ, मनुस्मृति (मनु के कानून) की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जला दीं।[13] 25 दिसंबर 1927 को, उन्होंने हजारों अनुयायियों का नेतृत्व मनुस्मृति की प्रतियां जलाया।[14] इस प्रकार प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दीन (मनुस्मृति बर्निंग डे) के रूप में अम्बेडकरियों और दलितों द्वारा मनाया जाता है।

पूना संधि



दूसरा गोलमेज सम्मेलन, १९३१
अब तक अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास करमचंद गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। डॉ॰ आंबेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान डॉ॰ आंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।
हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।[9]
इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और मोहनदास गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको १९३१ मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया।(डा॰ भीमराव अंबेडकर ने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था ) उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए कुछ अवधि दी जानी चाहिए, यह गांधी का तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा।
१९३२ में जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,[15][16] तब मोहनदास गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। मोहनदास गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के दलिताधिकार विरोधी अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय नेअम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते डॉ॰ भीमराव अंबेडकर जी ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। मोहनदास गांधी ने अपने गलत तर्क एवं गलत मत से संपूर्ण अछूतों के सभी प्रमुख अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।
आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन १९३७ में चुनाव हुए। डॉ॰ आंबेडकर २०-२५ साल के लिये राजनैतिक आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र ५ साल के लिए ही लागू हुआ। पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु यहाँ अहिंसा तो डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने निभाई हैं।
पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योतीराव फुले थे।

राजनीतिक जीवन


13 अक्टूबर 1935, को येओला नासिक मे अम्बेडकर एक रैली को संबोधित करते हुए.
13 अक्टूबर 1935 को, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं।[17] इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दू तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया।[17] उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।[17] अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। 1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया।[18]
उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की।[19] उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?
अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमो मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,
बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।[20]
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें " भाईचारे " जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें " निचले दर्जे का " माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।[20]
"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।[20]
हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।
उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी||

संविधान निर्माण


मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं के लिए इस स्वतंत्रता? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरा है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।[21]
अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।
संघ रीति मे मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। अम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।
अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए धरा370व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, अम्बेडकर ने कहा :
मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।
1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

समान नागरिक संहिता


अम्बेडकर वास्तव में समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर के मामले में धारा 370 का विरोध करते थे। अम्बेडकर का भारत आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश होता, उसमें पर्सनल कानून की जगह नहीं होती।[22]

धर्म परिवर्तन (बौद्ध धर्म में)


दीक्षाभूमि, नागपुर; जहां भीमराव अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में परिवर्तित हुए।
सन् 1950 के दशक में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे।[23] 1954 में अम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने 'भारतीय बौद्ध महासभा' या 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम महान ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। डॉ॰ अम्बेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार पहले दिन लगभग 5,00,000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया।[23] नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] भीमराव ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को नागपूर में अपने 2,00,000 अनुयायीओं को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, फिर तिसरे दिन 16 अक्टूबर को भीमराव चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन में भीमराव ने 10 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया। अम्बेडकर का बौद्ध धर्म परिवर्तन किया। इस घटना से बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। में इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध या कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।


अम्बेडकर ने दीक्षाभूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर,14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म का एक सार या दर्शन है। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर द्वारा 10,00,000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था। उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। भीमराव की ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं। इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म, जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है। ये प्रतिज्ञाए बौद्ध धर्म का एक अंग है जिसमें पंचशील, मध्यममार्ग, अनिरीश्वरवाद, दस पारमिता, बुद्ध-धम्म-संघ ये त्रिरत्न, प्रज्ञा-शील-करूणा-समता आदी बौद्ध तत्व, मानवी मुल्य (मानवता) एवं विज्ञानवाद है।

मृत्यु


अन्नाल अम्बेडकर मनिमंडपम, चेन्नई
पुणे संग्रहालय में भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा।
1948 से, अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया। उनके अंतिम संस्कार के समय उन्हें साक्षी रखकर उनके करीब 10,00,000 अनुयायीओं ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, ऐसा विश्व इतिहास में पहिली बार हुआ।
मृत्युपरांत अम्बेडकर के परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर रह गयी थीं जो, जन्म से ब्राह्मण थीं पर उनके साथ ही वो भी धर्म परिवर्तित कर बौद्ध बन गयी थीं, तथा दलित बौद्ध आंदोलन में भीमराव के बाद (भीमराव के साथ) बौद्ध बनने वाली वह पहिली व्यक्ति थी। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ॰ शारदा कबीर था। डॉ॰ सविता अम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में 29 मई सन 2003 में 94 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई[24], अम्बेडकर के पौत्र, प्रकाश यशवंत अम्बेडकरभारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व करते है और भारतीय संसद के दोनों सदनों मे के सदस्य रह चुके है।
कई अधूरे टंकलिपित और हस्तलिखित मसौदे अम्बेडकर के नोट और पत्रों में पाए गए हैं। इनमें वैटिंग फ़ोर ए वीसा जो संभवतः 1935-36 के बीच का आत्मकथानात्मक काम है और अनटचेबल, ऑर द चिल्ड्रन ऑफ इंडियाज़ घेट्टो जो 1951 की जनगणना से संबंधित है।
एक स्मारक अम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। अम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद, आंध्र प्रदेश का डॉ॰ अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय- मुजफ्फरपुर, डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र नागपुर में है, जो पहले सोनेगांव हवाई अड्डे के नाम से जाना जाता था। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है।
मुंबई मे उनके स्मारक हर साल लगभग पंधरा लाख लोग उनकी वर्षगांठ (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र परिवर्तन् दिन (14 अक्टूबर) नागपुर में, उन्हे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं।

आंबेडकर लिखित प्रमुख किताबें


  • हू वेर शुद्रा?
  • द बुद्धा एंड हिज धम्मा
  • थॉट्स ऑन पाकिस्तान
  • अनहिलेशन ऑफ कास्ट्स
  • आइडिया ऑफ ए नेशन
  • द अनटचेबल
  • फिलोस्फी ऑफ हिंदुइज्म
  • सोशल जस्टिस एंड पॉलिटिकल सेफगार्ड ऑफ डिप्रेस्ड क्लासेज
  • गांधी एंड गांधीइज्म
  • ह्वाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल
  • बुद्धिस्ट रेवोल्यूशन एंड काउंटर-रेवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया
  • द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ बुद्धिइज्म इन इंडिया

आंबेडकरवाद


स्वतंत्र्यता, समानता, भाईचारा, बौद्ध धर्म, विज्ञानवाद, मानवतावाद, सत्य, अहिंसा आदि के विषय में आंबेडकर के कुछ सिद्धान्त थे जिसे अंबेडकरवाद के नाम से जाना जाता है।

फिल्में और नाटक


आंबेडकर के ऊपर फिल्मे और नाटक भी हैं जो निम्नलिखित है:
  • भीम गर्जना - मराठी फिल्म (१९९०)
  • बालक आंबेडकर - कन्नड फिल्म (१९९१)
  • युगपुरूष डॉ. बाबासाहब आंबेडकर - मराठी फिल्म (१९९३)[25]
  • डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर - सन २००० में मूल अँग्रेजी से बनी फिल्म।
  • डॉ. बी.आर. आंबेडकर - कन्नड फिल्म (२००५)
  • ए रायजिंग लाइट
  • रमाबाई भीमराव आंबेडकर - आंबेडकर की पत्नी रमाबाई के जीवन पर आधारित मराठी फिल्म। (२०१०)[26]
  • शूद्रा: द राइझिंग - आंबेडकर को समर्पित हिंदी फिल्म (२०१०)
  • अ जर्नी ऑफ सम्यक बुद्ध - हिंदी फिल्म (२०१३), जो आंबेडकर के भगवान बुद्ध और उनका धम्म पर आधारित है।
  • रमाबाई - कन्नड फिल्म (२०१६)
  • बोले इंडिया जय भीम - मराठी फिल्म, हिंदी में डब (२०१६)


इसके अलावा अंबेडकर के जीवन पर आधारित कई नाटक भी बने है।[27]

आंबेडकर का लेखन साहित्य


आंबेडकर बहूत प्रतिभाशाली एवं जुंझारू लेखक थे। भीमराव को 6 भारतीय और 4 विदेशी ऐसे कुल दस भाषाओं का ज्ञान था, अंग्रेजीहिन्दीमराठीपालिसंस्कृतगुजरातीजर्मनफारसीफ्रेंच और बंगाली ये भाषाएं वे जानते थे। भीमराव ने अपने समकालिन सभी राजनेताओं की तुलना में सबसे अधिक लिखा है। सामाजिक संघर्ष में हमेशा सक्रिय और व्यस्त होने के बावजुद भी उनकी इतनी सारी किताबें, निबंध, लेख एवं भाषणों का इतना बडा यह संग्रह वाकई अद्भुत है। वे असामान्य प्रतिभा के धनी थे और यह प्रतिभा एवं क्षमता उन्होंने अपने कठीन परिश्रम से हासित की थी। वे बडे साहसी लेखक या ग्रंथकर्ता थे, उनकी हर किताब में उनकी असामान्य विद्वता एवं उनकी दुरदर्शता का परिचय होता है।
आंबेडकर के ग्रंथ भारत में ही नहीं बल्की पुरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध है, और पुरे विश्व में पढी जाती है। उन्होंने लिखे हुए महान भारतीय संविधान को भारत का राष्ट्रग्रंथ माना जाता है, भारतीय संविधान किसी भी धर्मग्रंथ से कम नहीं है तथा ओ विश्व के प्रमुख महानत् किताबों में एक है। भगवान बुद्ध और उनका धम्म यह उनका ग्रंथ भारतीय बौद्धों का धर्मग्रंथ है तथा बौद्ध देशों में बहूत मशहूर एवं महत्वपुर्ण है। उनके डि.एस.सी. प्रबंध रूपये की समस्या से भारत के केन्द्रिय बैंक यानी भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई है। राजनिती, अर्थशास्त्र, मानवविज्ञान, धर्म, समाजशास्त्र, कानून आदी क्षेत्रों में उन्होंने किताबें लिखी है।[28]


हिन्दुत्व को खतरनाक बताने वाले तीन महापुरूष
अप्रैल महीने में हिंदुत्व पर करारा प्रहार करने वाले तीन चिंतकों की जयंती मनायी जाती है। राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893) जोती राव फुले (11 अप्रैल 1827) और डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल 1891)। फारवर्ड प्रेस इस खास महीने को फुले-आंबेडकर महीना के रूप में मना रहा है। इस कड़ी में पढ़ें सिद्धार्थ का यह आलेख :

फुले, अांबेडकर और राहुल सांकृत्यायन का साझा चिंतन 
भारत में हिन्दुत्व समाज के लिए अत्यंत ही घातक है। इस सच को उन सभी ने स्वीकारा है जो इंसान-इंसान में भेद के खिलाफ रहे।  हिन्दुत्व के आधार पर समाज की कोई भी संरचना असमानता पर ही टिकी होगी। इस सच को जोती राव फुले, बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन ने शिद्दत से पहचाना। इन तीनों ने, न केवल हिन्दुत्व को समाज के लिए घातक बताया बल्कि हिन्दुत्व को समूल खत्म करने का तरीका भी बतलाया।

मसलन 1873 में प्रकाशित अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में जोती राव फुले ने कहा है –
‘विद्या बिना मति गई
मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र टूटे
इतने अनर्थ
एक अविद्या ने किए’            
जोती राव फुले यह समझते थे कि चार वर्णों की व्यवस्था तभी तक कायम है जबतक कि अशिक्षा है। वह अशिक्षा को ही सभी समस्याओं की जड़ मानते थे। इसका कारण वह हिन्दुत्व को मानते थे। क्योंकि हिन्दू धर्म में तब पढ़ने का अधिकार केवल द्विज पुरूषाें को था। शूद्र तो इससे वंचित रखे ही गये थे, स्त्रियों को भी यह अधिकार नहीं था।

हिंदुत्व के मूल में ही विभाजन है। डॉ. आंबेडकर इस सत्य को मानते थे। 1936 में प्रकाशित अपनी किताब ‘एनाइलेशन ऑफ कास्ट’ में उन्होंने कहा था – ‘ मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इस लिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है, और गलत सामाजिक जीवन जीता हैं। मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं, झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है।’ डॉ. आंबेडकर के इस विचार से गांधी भी सहमत थे। वह मानते थे कि ‘डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के लिए एक चुनौती हैं।’ उनका यह विचार ‘जाति का उच्छेद’ में डॉ. आंबेडकर और उनके बीच हुए पत्र व्यवहार के रूप में प्रकाशित है।

आंबेडकर कहते हैं कि ‘हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबंधों की भीड़ है। हिंदू- धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों का खिचड़ी मात्र हैं। हिंदुओं का धर्म बस आदेशों व निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धांतों की विवेचना हो, जो वास्तव में सर्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिंदुओं में पाया ही नहीं जाता, यदि थोड़े से सिद्धांत पाए भी जाते हैं तो हिन्दुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती हैं। हिंदुओं का धर्म “आदेशों और निषेधों” का ही धर्म है, यह बात वेद और स्मृतियों में ‘धर्म’ शब्द के प्रयोग तथा व्याख्याकारों द्वारा उसकी व्याख्या से स्पष्ट है’।

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वे आगे कहते हैं कि ‘तो क्या हिंदू धर्म में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है, जिसके समक्ष आपस के तमाम भेदों के बावजूद  नतमस्तक होना सभी हिंदू, अपना कर्तव्य मानते हों? मुझे लगता है,ऐसा एक सिद्धांत है और वह है जाति का सिद्धांत’।

और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘ब्राह्मणवाद के जहर ने हिंदू समाज को बर्बाद किया है’।

राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963)

यायावरी लेखक राहुल सांकृत्यायन का जन्म ब्राह्म्ण परिवार में हुआ। लेकिन वे भी हिंदुत्व को समाज के लिए विभीषिका मानते थे। अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में उन्होंने लिखा कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में  हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल(बर्बाद) क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा हैं? और कौन गाय खाने वालों को गोबर खाने वालों से लड़ा रहा है। असल बात यह है कि “ मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को सिखाता है भाई का खून पीना”। हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं हैं’  

अप्रैल  महीने का पहला पखवाड़ा स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित आधुनिक भारत का सपना देखने वाले तीन महापुरूषों के जन्म दिन का समय हैं। 9 अप्रैल 1893 राहुल सांकृत्यायन. 11 अप्रैल 1827 जोती राव फुले और 14 अप्रैल 1891 बाबा साहब भीमराव अंबेडकर। इन तीनों महापुरूषों के सपनों, दर्शन, विचारों, इतिहास दृष्टि ,व्यक्तित्व और कृतित्व में बहुत कुछ साझा है, लेकिन साथ ही भिन्नता भी मौजूद है। इनके बीच के साझेपन और भिन्नता पर विचार करने से पहले हम थोड़ी सी निगाह आज के भारत पर डाल लें, देखें यह इतिहास के किस मोड़ पर खड़ा हैं और इस मोड़ से आगे भारत के भविष्य की क्या दिशाएं हो सकती हैं, और इन दिशाओं के निर्माण में इन नायकों के सपनों, विचारों, इतिहास दृष्टि और कृतित्व की क्या भूमिका बनती हैं।

पहली बात तो यह कि शायद की कोई जनपक्षधर और वैज्ञानिक भौतिकवादी विचारों से लैस  व्यक्ति इस बात से इंकार करे कि आज का भारत दो मनुष्य विरोधी संस्कृतियों के चंगुल में जकड़ा छटपटा रहा हैं। इसमें पहली संस्कृति का नाम हिंदू संस्कृति है, दूसरी का नाम विश्वव्यापी पतनशील पूँजी की संस्कृति है। एक को महान भारतीय संस्कृति के नाम पर पुनर्स्थापित किया जा रहा हैं तो दूसरी को सबके विकास के नाम पर स्थापित किया गया हैं। दोनों का आपस में पूर्ण मेल हो गया हैं। दोनों एक दूसरे को शक्ति और समर्थन दे रहे हैं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर टिका हैं। दोनों ने लगभग भारतीय जीवन के पोर-पोर पर नियंत्रण कर लिया हैं। अब हिंदू संस्कृति के नुमाईंदों ने भारतीय राजसत्ता पर भी लगभग पूर्ण नियंत्रण कर लिया है,  खुलेआम हिदुत्व की परियोजना को साकार रूप दे रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि हिंदुत्व का बुनियादी अर्थ उच्च जातीय वर्चस्व ही होता। उच्च जातीय हिंदू वर्चस्व जहां कांग्रेस ढंके-छुपे और नरम तरीके से अमल में ला रही थी। वहीं अब यह काम ढंके की चोट पर हो रहा है। राजसत्ता पर पहले काबिज पूंजी की संस्कृति के समर्थकों ने इनका जोरदार खैरमकदम किया है। दो टूक शब्दों में कहा जाए तो भारत में ब्रिटिश सत्ता के उप उत्पाद के तौर शुरू हुई और आजादी के आंदोलन के साथ जोर पकड़ने वाली , भारत के आधुनिकीकरण की परियोजना आजादी के लगभग सत्तर सालों बाद पूरी तरह असफल या पराजित हो गई है। इस पराजय या असफलता को आधुनिकीकरण के मूल तत्वों देश की संप्रभुता, जनसंप्रभुता, वर्ण-जाति व्यवस्था, जातिवादी पितृसत्ता, धर्म निरपेक्षता, उत्पादन संबधों-संपत्ति संबंधों और नई सृजित होने वाली संपत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। भारतीय पुनर्जागरण- सुधार आंदोलन और आजादी के आंदोलन के दौरान ही आधुनिकीकरण की परियोजना के बीज पड़े थे। देश का दुर्भाग्य यह था कि भारत के आधुनिकीकरण की परियोजना को समग्रता में समेट कर भारतीय जीवन-यथार्थ में तब्दील करने वाली कोई शक्ति नहीं थी। अलग-अलग समूह और व्यक्ति इन परियोजनाओं के भिन्न-भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करते थे। जिनकी आपस में तीखी टकराहट और असहमति थी। लेकिन एक ऐसी धारा भी थी, जो आधुनिकीकरण की पूरी परियोजना के ही विरोध में थी और देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना चाहती थी। उस शक्ति का नाम ही राष्ट्रीय सेवक संघ है, जिसे अब जाकर  सफलता मिली है। देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण उसने अपना पांव पसार लिया है और उसके अनुषांगिक संगठन भाजपा ने अपार बहुमत के साथ देश की राजसत्ता पर भी कब्जा कर लिया है तथा उसके अन्य विविध अनुषांगिक संगठनों का देश की विभिन्न औपचारिक एवं अनौपचारिक संस्थाओं पर कब्जा हो गया हैं।

जोती राव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890)

आधुनिकता के विविध मूल तत्वों में से किन तत्वों का प्रतिनिधित्व जोती राव फुले, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन करते थे, और आज का भारत उस संदर्भ में कहां खड़ा हैं, इसका जायजा लेने से पहले एक सरसरी नजर आधुनिकता के अन्य तत्वों और उनके हश्र डाल लेना जरूरी है। आजादी के आंदोलन के दौरान आधुनिकता का सबसे बड़ा तत्व यह था देश की संप्रभुता यानी देश देश के लोगों के द्वारा चलाया जाए। हम सभी जानते है कि 1990-1991 के बाद देश आर्थिक संप्रभुता पूरी तरह खो चुका हैं। रही बाद जनसंप्रभुता की जिसका पारिभाषित संवैधानिक अर्थ यह था कि देश में जन ही सर्वोपरि है, तो उसका अर्थ यह हो चुका है कि जनविरोधी विभिन्न गिरोहों ( राजनीतिक पार्टियों ) में जनता किसी एक को पांच साल में चुनने को विवश हैं, इन सब की आर्थिक नीतियां तो एक ही हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों और धर्म निरपेक्षता के संदर्भ में थोडे- बहुत मतभेद हैं। रही बाद धर्म निरपेक्षता की तो भारत मे आजादी के बाद से ही छद्म धर्म निरपेक्षता ही रही है, अब तो उसका मुखौटा भी कमोबेश उतार कर फेंक दिया गया हैं, अल्पसंख्यकों के प्रति विद्वेष, घृणा और नफरत रखने वाले और इन चीजों को कार्यरूप देने वाले देश के प्रधानमंत्री-मंत्री और कई सारे प्रदेशों में मुख्यमंत्री-मंत्री बन चुके हैं। रही बात उत्पादन संबंधों-संपत्ति संबंधों में बुनियादी परिवर्तन और नई सृजित संपत्ति के न्यायोचित बंटवारे का तो, इसका हाल तो यह है कि बुनियादी परिवर्तन की कौन बात कहे, सत्तर सालों में 1 अरब 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की कुल संपत्ति का 60 प्रतिशत पहले से ही संपत्तिशाली वर्गों और उच्च जातियों के चन्द लोगों ( 57 लोग ) के हाथों में सिमट गई है।

रही बात आधुनिकता की तो दो महत्वपूर्ण परियोजनाओं वर्ण-जाति और जातिवादी पितृसत्ता से मुक्ति अर्थात बर्बर मध्ययुगीन मानसिकता से भारतीयों की मुक्ति का प्रश्न, जो फुले, आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन के हमले का मुख्य केंद्र था, उस पर इन नायकों का संदर्भ लेते हुए हम विस्तार से बात करेंगे। हमारे देश में बहुत सारे लोगों से यह समझने में भारी भूल हुई कि जाति और पितृसत्ता दो भिन्न श्रेणियां हैं और समाधान अलग –अलग तरीकों से होगा। जबकि फुले, आंबेडकर और काफी हद तक राहुल सांकृत्यायन भी यह अच्छी तरह समझते और मानते थे कि हिंदू संस्कृति से दो प्राण तत्व हैं, जाति और जातिवादी पितृसत्ता।  इन लोगों का स्पष्ट तौर पर मानना था कि  वर्णों और जातियों को तभी कायम रखा जा सकता है उनकी पवित्रता-शुद्धता को तभी बनाए रखा जा सकता है,जब  स्त्रियों की यौनिकता पर पूर्ण नियंत्रण किया जाए। हमारे तीनों नायक इस बात पर जोर देते है कि हिंदुओं की मूल्य व्यवस्था, संस्कारों और सोचने के तरीके का केंद्र बिंदु जाति की रक्षा और स्त्री की यौनिकता पर पूर्ण नियंत्रण है।  इसी बात को लोहिया के शब्दों में कहें तो  ‘ हिंदुओं का दिमाग जाति और योनि के कटघरे में कैद है’।   

जाति और पितृसत्ता के बीच क्या संबंध है। इस बात को आधुनिक युग में जिन व्यक्तित्वों ने सबसे पहले समझा, वे थे – फूले दंपत्ति। जोती राव  फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फूले। जाति/ वर्ण के साथ स्त्री की स्थिति को जोड़कर देखने का, जहां बड़े इतिहासकारों ने नहीं के बराबर प्रयास किया, वहीं जाति- व्यवस्था की दलित चिंतकों-सुधारकों ने जो समझ विकसित की और जमीनी स्तर पर जो कार्य किया उसमें स्त्री की पराधीनता और जाति के बीच का गठबंधन स्पष्ट होकर सामने आया। जोती राव फुले ने शूद्रों, अति-शूद्रों और स्त्रियों को ब्राह्मणों द्वारा खड़ी की गई व्यवस्था में शोषित- उत्पीडित की तरह देखा। फुले ने जाति और स्त्री प्रश्न को एक ही सिक्के के दो पहलूओं के रूप में देखा और दोनों को अपने संघर्ष का निशाना बनाया। हिंदू समाज व्यवस्था को उसकी समग्रता में समझने और बदलने की कोशिशों और जाति को भौतिक संसाधनों, ज्ञान और जेंडर –संबंधों के जटिल तानेबाने के तहत समझ विकसित करने के फुले के प्रयासों के कारण गेल ऑम्वेट ने उन्हें जाति का पहला ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धांतकार कहा है। जाति और जातिवादी पितृसत्ता के बीच के संबंधों को  रेखांकित करते हुए आंबेडकर कहते है कि ‘ जाति- व्यवस्था के लिए सजातीय विवाह और स्त्रियों की यौनिकता के नियंत्रण के लिहाज से उँची जातियों खासकर ब्राह्मणों में सती, बलात् विधवापन, बाल-विवाह जैसे अस्त्र ईजाद किए गए। जो जाति ब्राह्मणों के नजदीक हैं उन्होने स्त्री पर ये तीनों ही कायदे लाद रखे हैः जो उनसे तनिक दूर है उन्होंने विधवापन और बाल विवाह अपना रखा है; जो और भी दूर हैं उन्होंने बाल-विवाह अपना रखा है, और जो सबसे दूर हैं वे केवल जाति के नियमों में आस्था बनाए रख कर जाति- व्यवस्था के परिचालन में सहयोग करते रहे हैं’। हिंदू धर्म ग्रंथों, मिथकों , स्मृतियों, पुराणों आदि ने शूद्र और स्त्री को एक ही श्रेणी में रखा।

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956)

आंबेडकर ने विस्तार से हिंदू समाज में स्त्री की स्थिति और जाति/ वर्ण के पितृसत्ता से उसके संबंधों को समझा और उसे तोड़ने की कोशिश की। उन्होंने अपनी किताब ‘हिंदू नारी उत्थान और पतन’ में तथ्यों-तर्कों से यह प्रमाणित किया कि बौद्ध धर्म के अन्दर स्त्रियों को बराबरी का अधिकार प्राप्त था और स्त्रियों को पराधीनता और दोयम दर्जे की स्थित में ब्राह्म्णवाद ने डाला। राहुल सांकृत्यायन भी अपनी विविध किताबों में स्त्री-पुरूष के बीच पूर्ण बराबरी की हिमायत करते हैं और भोजपुरी के अपने नाटक ‘ मेहररूअन की दुरदशा’ में स्त्री पराधीनता के विविध रूपों पर कड़ा प्रहार करते हैं।

भारत की आधुनिकता की परियोजना के इन महानायकों के साझा तत्वों पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हिंदू संस्कृति, ब्राहमणवादी मूल्य व्यवस्था, संस्कारों, परंपराओं, वर्ण-जाति व्यवस्था, पितृसत्ता और इसका समर्थन करने वाले ईश्वरी अवतारों, धर्मग्रन्थों और इनके रचयिता ऋषियों-महाऋषियों पर इन लोगों ने निर्णायक प्रहार किया है। फुले की किताब ‘ गुलामगिरी’, ‘ तृतीय रत्न’ ,  आंबेडकर ने अपनी किताब ‘ जाति का विनाश’ और अन्य किताबों और राहुल ने अपनी किताब ‘ तुम्हारी क्षय’ में वर्ण-जाति व्यवस्था पर तीखा हमला बोला है। यह सभी एक स्वर से स्वीकार करते थे कि हिदुओं के धर्म, ईश्वर, मूल्य व्यवस्था में बुनियादी तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बेहतर मानव समाज के निर्माण में मददगार हो। तीनों जातिवाद और ब्राहमणवादी मूल्य व्यवस्था के समूल उच्छेद के पक्ष में थे। इसके बरक्स किस चीज की स्थापना की जाए, इस बारे में तीनों के दृष्टिकोण में भिन्नता के कुछ तत्व हैं।

आज की चुनौतियों, कार्यभारों और इन व्यक्तित्यों के ऐतिहासिक योगदानों के संदर्भ में इनका मूल्यांकन करने के लिए जरूरी है कि इनके व्यक्तित्व की विशिष्टताओं और इनके बीच की भिन्नताओं को भी रेखांकित किया जाए। इसके लिए संक्षेप में ही सही इन तीनों का अलग विश्लेषण, आकलन और मूल्यांकन किया जाए। ध्यान रहे कि तीनों इतिहास और परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं, विभिन्न व्यक्तियों का इनके उपर प्रभाव है, लेकिन इस सब के बावजूद ये तीनों स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व हैं। सबसे पहले जोती राव फुले को लेते हैं।

जोती राव फुले आधुनिक भारत के पहले व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने ब्राह्म्णवाद पर निर्णायक हमला बोला और ब्राह्म्णवाद की गुलामी, अवमानना, अपमान, लांछन, उपेक्षा और शोषण- उत्पीड़न के शिकार शूद्रों, अन्त्यजों और स्त्रियों की मुक्ति और पूर्ण बराबरी का आह्वान किया तथा उसके लिए आजीवन संघर्ष किया। फुले का जन्म शूद्र वर्ण की माली जाति में हुआ था। उनके जन्म ( 1827 ) के नौ वर्ष पहले (1818 )  ही पेशवाओं के शासन का अन्त अंग्रेजों ने अन्त्यजों और शूद्रों के सहयोग से किया था। हम सभी जानते है कि पेशवाई शासन एक खुला ब्राहमणवादी शासन था, जिसमें मनु-याज्ञवल्क्य की स्मृतियों को अक्षरशः लागू करने की कोशिश की गई थी। अंग्रेजों ने पेशवाई का तो अन्त कर दिया था, लेकिन सामाजिक, धार्मिक सांस्कृतिक जीवन में ब्राह्मणवादी परंपरा और मूल्य व्यवस्था कायम थी। फुले एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे, जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न था, अछूत  नहीं माना जाता था, आज के संदर्भ में पिछड़ी जाति।लेकिन उस जाति को द्विजों की बराबरी करने का अधिकार नहीं था, जिसके चलते उन्हें सामाजिक अपमान का भी सामना करना पडा, लेकिन अछूतों और स्त्रियों के पक्ष में निर्णायक तौर खड़े होने के चलते उनके परिवार ने उन्हें, उनकी पत्नी सहित घर से बेघर कर दिया। उसके बाद का उनका पूरा जीवन अन्त्यजों, शूद्रों और स्त्रियों के लिए संघर्ष करते बीता। इस दौरान उन्हें पग-पग पर ब्राह्मणवादियों से जूझना पड़ा। जाति और किसानों के प्रश्न पर बाल गंगाधर तिलक जैसे महारथी से टकराना पड़ा। जिनके स्वराज का अर्थ द्विजों,मर्दों और उच्च वर्गों के लिए स्वराज था। तिलक अंग्रेज सरकार द्वारा किसानों के पक्ष में जमींदारों और साहूकारों के लगान और सूद में थोडी सी भी कटौती के पक्ष में नहीं थे, जिसकी कोशिश जोती राव फुले ने किया था। उन्होंने अछूतों और स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोला। यह दुनिया जानती है, ब्राह्मणी विधवाओं के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। व्यापक गरीब किसानों के दर्द को अपनी किताब ‘ किसान का कोड़ा’ में व्यक्त किया और आजीवन उनके लिए संघर्ष करते रहे।

फुले की दृष्टि अत्यन्त व्यापक थी। थापस पेन की किताब ‘ राइट्स ऑफ मैन’ का उनके उपर गहरा प्रभाव था, अमेरिका में काले गोरों के संघर्ष में वे कालों का पक्ष लेते और वहां से अपने संघर्षों की प्रेरणा भी ग्रहण किया। पेशवाई की तुलना में अग्रेजों की उदारता उन्हें आकर्षित करती थी। जो लोग इस बात के लिये उनकी आलोचना करते हैं कि वे अंग्रेजों के पक्ष में खड़े थे, 1857 के संघर्ष में भारतीयों का साथ नहीं दिया। वे लोग इस बात का जवाब नहीं देते हैं कि क्या उन्हें अन्तिम पेशवा नाना साहब की वापसी का यानी पेशवाई या ब्राह्मणशाही की पुनर्स्थापना का समर्थ करना चाहिए था या कि उसके बाद तिलक का समर्थन करना चाहिए था, जो जाति और जातिवादी पितृसत्ता का पुरजोर समर्थन करते थे और हर प्रकार के सामाजिक सुधारों के विरोधी थे। फुले ने धर्म और ईश्वर का निषेध तो नहीं किया, लेकिन उनकी ईश्वर विषयक कल्पना पूर्णतः निर्गुण, निराकार थी। ठीक कबीर जैसी। उनका मानना था कि ईश्वर ने किसी को ऊंच या नीच नहीं बनाया हैं, और उसकी खोज करना भी व्यर्थ है। वे एक पूर्णमानवतावादी और समतावादी थे। वे भारतीय पुनर्जागरण की निम्म जातीय और निम्न वर्गीय परंपरा के जनक थे।

आंबेडकर एक मुकम्मिल चिन्तक, सामाजिक क्रान्तिकारी के साथ-साथ राजनेता भी रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर वे उदारवादी लोकतंत्र के समर्थक हैं, आर्थिक व्यवस्था के तौर पर राज्य नियंत्रित पूंजीवाद के समर्थक है या ज्यादा से ज्यादा राजकीय समाजवाद के समर्थक हैं। वे कृषि भूमि के पूर्ण राष्ट्रीयकरण और बुनियादी एवं बड़े उद्योग धंधों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन करते हैं। एक अनिश्वरवादी समतावादी धर्म के रूप में बौद्ध धर्म की पैरवी करते हैं।

इन दोनों के विपरीत राहुल सांकृत्यायन ( 9 अप्रैल 1893 ) का जन्म भारत की गाय पट्टी इलाके में एक ब्राहमण परिवार में हुआ था। वह वेदान्दती, आर्य समाजी, बौद्ध मतावलंबी से होते हुए मार्क्सवादी बने। विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासा वृति ने पूरी तरह से ब्राहमणवादी जातिवादी हिंदू संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया। फुले और आंबेडकर से विपरीत उन्हें जातिवादी अपमान का सामना तो नहीं करना पड़ा, लेकिन सनातनी हिंदुओं की लाठियां जरूर खानी पड़ी। राहुल सांकृत्यायन अपने अपार शास्त्र ज्ञान और जीवन अनुभवों के चलते हिंदुओं को सीधे ललकारते थे, उनकी पतनशीलता और गलाजत को उजागर करते थे। उन्होंने अपनी किताबों में विशेषकर ‘तुम्हारी क्षय’ में हिंदुओं के समाज, धर्म, भगवान, सदाचार, जात-पांत और तुम्हारी जोंकों की क्षय में हिंदुत्व के अमानवीय चेहरे को बेनकाब करते हैं। ‘तुम्हारी जात- पांत की क्षय’ में वह लिखते है कि ‘ हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात- पात भी एक है। …पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होता है कि हिंदुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था। जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़ों- टुकड़ों में बांट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊंच- नीच का भाव पैदा करता है। ब्राहमण समझता है कि हम बड़े हैं,राजपूत छोटे हैं। राजपूत समझता है हम बड़े हैं,कहार छोटे हैं। कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं। चमार समझता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटा है और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को छोटा कह ही लेता है’।

राहुल सांकृत्यायन आधुनिकता के परियोजना के अनेक तत्वों को अपने में समेटे हुए हैं,  वे हिंदू संस्कृति के मनुष्य विरोधी मूल्यों पर निर्णायक हमला तो करते ही है, वह यह भी मानते है कि मनुष्य को धर्म की कोई आवश्यकता नहीं हैं, इंसान वैज्ञानिक विचारों के आधार पर खूबसूरत समाज का निर्माण कर सकता है, एक बेहतर जिंदगी जी सकता हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वह उत्पादन- संपत्ति संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के हिमायती हैं,क्योंकि मार्क्स की इस बात से पूरी तरह सहमत है कि भौतिक आधारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए बिना राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया नहीं जा सकता है और जो परिवर्तन लाया जायेगा, उसे टिकाए रखना मुश्किल होगा। जाति के संबंध में भी उनकी यही धारणा थी। हां वे वामपंथियों में अकेले व्यक्ति थे, जो इस यांत्रिक और जड़सूत्रवादी सोच के विरोधी थे कि आधार में परिवर्तन से अपने आप जाति व्यवस्था टूट जायेगा। इसके साथ ही हिंदी क्षेत्र के वे एक मात्र वामपंथी थे, जो ब्राहमणवादी हिंदू धर्म-संस्कृति पर करारी चोट करते थे और भारत में सामंतवाद की विशिष्ट संरचना जाति को समझते थे और आधार और अधिरचना ( जाति ) दोनों के खिलाफ एक साथ निर्णायक संघर्ष के हिमायती थे। इस समझ को कायम करने में ब्राहमण विरोधी बौद्ध धर्म के उनके गहन अध्ययन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी तीन किताबें ‘ बौद्ध दर्शन’,  ‘दर्शन- दिग्दर्शन’ और ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।


जो लोग भी दो पतनशील जीवन दर्शन के नाभिनाल संबंध पर निर्मित हो रहे, आज के भारत की जगह स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित भारत का निर्माण करना चाहते है, उनके लिए ये तीनों व्यक्तित्व के सपनों, विचारों और कृतित्व को व्यापक तौर पर जानना, आत्मसात करना और प्रेरणा लेना अनिवार्य एवं अपरिहार्य हैं।     
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दलित प्रतिरोध और कबीर की कविता
(काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधा कृष्णन सभागार में  (दिनांक 29.09.2013) समय 14.00 बजे दलित प्रतिरोध और कबीर की कविता विषयक संगोष्ठी में दिया गया व्याख्यान।)


-बी॰आर॰विप्लवी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का दलित-साहित्य-चैप्टर एवं हिन्दी पत्रिका अनिश के संपादक-प्रकाशक डाॅ॰ विपिन कुमार इस आयोजन के लिए बधाई के पात्र हैं। वास्तव में समस्याओं का हल तो बातचीत के ज़्ारिए आपसी समझ-बूझ एवं विश्वास पैदा करके ही सम्भव होता है। यह संगोष्ठी इस दिशा में महत्वपूर्ण क़दम है। 

 इसके पहले कि विषय पर बातचीत शुरू की जाय विषय और वक्ता से श्रोताओं का संवाद सानिध्य बनाने के लिए जरूरी है कि अपने बारे में बता दिया जाय। रेल विभाग में एक टेक्नोक्रैट की हैसियत से मुलाज़्ामत के नाते शुष्क खुरदरे तकनीकी कार्यों की खटर-पटर में रात-दिन खपाना प्रायः स्वभाव बन गया है जहाँ साहित्यिक सोच-समझ के लिए न तो समय है न तो समुचित अवसर। फलतः ऐसे आयोजनों में शिरकत कर पाने की कम ही गंुजाइश बन पाती है। यूँ भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय में हिन्दी के प्रोफेसर, रीडर, विभागाध्यक्ष लोगों के बीच ख़ुद को इतर व्यावसायिकता के कारण रूप से अकेला और अलग-थलग ही पा रहा हूँ। लगता है कि दूसरों कीे स्व-परिभाषित एवं पूर्व-निर्धारित निषिद्ध सीमा में जाकर अकादमिक ज्ञान-मीमांसा की बहस में टांग अड़ाने के लिए खड़ा हूँ। फिर भी कोशिश रहेगी कि साहित्यिक पोथियों में लिखी-पढ़ी बातों को सामाजिक संदर्भों में परिचर्चा का विषय बनाऊँ। इसलिए बता दूँ कि मेरी चर्चा की सीमाएँ कबीर के सामाजिक सरोकारों तक होंगी और कविताओं को देखने की दृष्टि भी वही होगी ताकि़ कबीर की विरासत के असली-नकली पैराहन की भीतरी शिनाख़्त उनके लोगों की राज़मर्रा की उठने-बैठने, बोलने, सोचने, खाने-पीने से लेकर लोकाचार तक के माध्यम से भी की जा सके। सबसे पहले यह साफ़ हो जाना चाहिए कि यदि अगरबŸाी, लोबान जलाकर कबीर का भूत उतारना है या फूल-माला चढ़ाकर कबीर के विचारों का गला घोट देना है तो इन आयोजनों को छलावा ही कह सकते हैं। कबीर की कविता पर बातचीत होगी तो दलित-शोषण की बात अवश्य ही होगी। यदि दलित की बात होगी तो साथ में ब्राह्मणवाद की भी बात होगी ही अन्यथा इसके विना यह चर्चा कबीर के सच के साथ आँख-मिचैली का खेल और लुकाछिपी जैसा धोखा बनकर केवल मन-बहलाव जैसा ही का साधन मात्र होगी। यदि इस भ्रमवाद की चर्चा को पर्दे में रखकर बात की जाएगाी तो कबीर पर बातचीत अधूरी, ग़ैरवाजिब़ तथा आत्मवंचना बनकर असंगत ही रहेगी। ऐसी स्थिति में कबीर को ईमानदारी से समझ पाने के लिए हमें उनके शब्दों, संबोधनों, ध्वनियों, मुहावरों, कहावतों, उलाहनों, गालियों और व्यंग्योक्तियों को सहलाना-पुचकारना होगा और उनको जीना होगा। ब्राह्मणवाद सरीखे शब्दों को व्यक्तिगत या सामूहिक अवमानना का संबोधन न समझकर इस शोषणवादी विचारधारा को समझना होगा वरना कबीर की कविता और कबीर की आरती उतारकर यहाँ से विदा हो लेना ही ज़्यादा अच्छा होगा। ठीक इसी प्रकार धम्म और धर्म की मूलभूत और लोक स्वीकृत धारणाओं को समझे विना भी कबीर की कविता और आध्यात्म पर बात-चीत न्यायसंगत नहीं हो पाएगी। जहाँ कबीर होंगे, वहाँ उनकी जुझारू-भाषा की हनक भी होगी ही। मनमाफि़क कहानी या अख़्यान गढ़कर किसी को अच्छा या बुरा बनाने में कबीर की आड़ ली जाय या उन्हें मिस कोट किया जाय, यह परम्परा बन्द होनी चाहिए, वरना यूनिवर्सिटी ग्रान्ट कमीशन के पैसे पर दलित और स्त्री विमर्श की काग़जी ख़ानापूरी का समाजिक न्याय से कोई लेना देना नहीं रह जाएगा। कबीर की दलित-मुक्ति के स्वर को दबाने के लिए दलित-विमर्श का दिखावा कबीर के साथ फिर से एक धोखा ही साबित होगा।

 कबीर-परम्परा की बोली-बानी और शब्दों की अवधारणा उन लोगों पर सही नाजि़ल होगी जो उन्हें अनायास ही जीते हैं, तथा वही जिनका ओढ़ना-बिछौना है। कबीर की आम फ़हम भाषा को अनपढ़-असभ्य-गँवार कहकर उनके आंदोलन की आँच को ठंडा कर देने का काम हुआ ताकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंचित समुदाय को उनकी शाश्वत ज्ञान परम्परा से दूर रखा जा सके। इसी उद्देश्य से सर्व-स्वीकृत शब्दों के रूप को बदलकर एक जि़न्दा परम्परा की जड़ काटने का काम हुआ। इसी क्रम में धम्म के बर-अक्स धर्म को गढ़कर खड़ा किया गया तथा बार-बार सर उठाती आवाज़ों का दमन करने का उपक्रम हर दौर में किया गया।

 ज्ञातब्य है कि धर्म का आधार भूत संरचना एवं मान्यता परा प्राकृतिक है जबकि धम्म का आधार विशुद्ध प्राकृतिक है। धम्म आदमी से सीधा संवाद स्थापित करता है किन्तु धर्म में उसके ठेकेदारों के ज़रिए ईश्वर तक पहुँचने की बंदिश है। बुद्ध तो कहते हैं कि धम्म की धुरी मनुष्य और ईश्वर के बीच न होकर मनुष्य और मनुष्य के बीच है। दुनिया के इसी जीवन में मानवता की सेवा-सहायता ही सच्चा धम्म है। कबीर की कविता भी इसी मानव-धम्म की वकालत करती दिखाई देती है जो धर्म की कृत्रिमता की पोषक नहीं बल्कि उसकी उन्मूलक है। यहीं से कबीर की परम्परा एक मज़बूत प्रतिरोध पैदा करती है तथा कबीर का समाज इसी प्रतिरोध को अधिक विकसित करता हुआ आगे बढ़ता है। यही प्रतिरोध उसे भयंकर झंझावातों में भी अडिग एवं दृढ़ रखता हैै तथा जड़ों समेत उखड़ जाने से बचाता  है। 

 अब आज की विषय-वस्तु पर आते हैं अर्थात दलित-प्रतिरोध और कबीर की कविता पर! आखि़र यह दलित प्रतिरोध है क्या ? इसकी व्याख्या ज़रूरी है। रोध से अवरोध, प्रतिरोध और गतिरोध जैसे शब्द बने हैं; जिनके अर्थों के बोध की अलग-अलग लोक-स्वीकृतियाँ हंै। शब्दों की अभिव्यक्ति-क्षमता को सम्पूर्ण लोक-परिवेश ही लोकाचार हेतु तय करता है। समय के साथ शब्दों की स्वीकृत अवघारणा भी बदलती रहती है। यहाँ प्रतिरोध का भाव अवरोध के भाव से भिन्न है। अवरोध किसी के मार्ग में जान बूझकर रुकावट डालने या पैदा करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है जबकि प्रतिरोध स्वयं के ऊपर आत्मस्वीकृत एवं स्वयं पर अध्यारोपित ऐसी रुकावट है जो स्वयं पर औरांे द्वारा अनधिकृत और अवांछित आवेगों, भावांे और वृŸिायों के संचरण और प्रभाव को रोकती है या कहें कि ऐसा कवच बनाती है जिसपर अवांछनीय आक्रमणों को स्वतः बेअसर करने की ताक़त होती है। विज्ञान की भाषा में प्रतिरोध किसी घातु या चालक का वह प्राकृतिक गुण है जो उष्मा या विद्युतधारा के स्वतंत्र बहाव को अंशतः या पूर्णतः रोकता है। ध्यान रहे कि वह धारा को नहंीं रोकता बल्कि धारा को अपने अंदर प्रवाहित होने से अपनी क्षमता की सीमा तक बचाता है। ऐसी ही प्रतिरोधक-क्षमता विकसित करने की बात कबीर की कविता मंे भी देखी जा सकती है। दलित आक्रमण नहीं करता, ज़बरदस्ती किसी का रास्ता नहीं रोकता बल्कि स्वयं को इस स्तर तक मज़बूत और अभेद्य बना लेता है ताकि आक्रामक शक्तियों का कोई भी हथियार निष्क्रिय और अप्रभावी हो जाए। इसीलिए कबीर के यहाँ दलित द्वारा आक्रामकता की बात नहीं कही गई है, बल्कि स्वयं को दूसरों की आक्रामकता से बचने के लिए भीतरी कवच पैदा करने और उसे मज़बूत करने की बात है। यदि आक्रामक तत्वों के प्रत्यावर्तन के कारण आक्रमणकारी स्वयं को घायल कर लेता है तो इसमें उस प्रतिरोधकता को जि़म्मेदार नहीं ठहराया जा सकता जिसने स्वयं की मात्र रक्षा हेतु कवच विकसित किया है। बिजली का बहाव कम प्रतिरोध चाहता है। जहाँ उसे कम प्रतिरोध का सुगम मार्ग मिलता है उसी से होकर बहती है। यही हालत दलितों पर अत्याचारों की है। लेकिन अतिवादी आक्रामक संस्कृति उसके इस प्रतिरोध पर भी एतराज़ करती है। उसे तो ऐसी जमात चाहिये जो आसानी से प्रतिकार-शून्य होकर सभी तरह के अत्याचारी हमलों को बर्दाश्त ही न करे बल्कि आततायियों का जयकारा भी करे। सुनने में यह आज अजीब भी लगता है तो केवल दूसरों को ही। कुछ लोगों का तो यह शगल ही है, जो आज भी उस दमन को ही सामाजिक शान्ति का एक मात्र रास्ता बताते हैं।

 यह बताना प्रासंगिक होगा कि जहाँ भी दलितों के साथ अत्याचार में ख़ून-ख़राबा होता है, द्वन्द्वात्मक प्रतिकार होता है, वहाँ के दलित-पिछड़ों को तथाकथित भद्र समाज के लोग प्रायः निरीह, कमज़ोर और डरपोक समझते हैं। जबकि इसे तो क्रान्तिकारी परिवर्तन हेतु इंक़लाब का शुभ संकेत माना जाना चाहिए। वास्तव में जहाँ प्रतिकार नहीं है, वहाँ अत्याचार भी नहीं हो रहे हैं, यह भी एक भ्रामक तथ्य है। प्रतिकार-शून्य समाज द्वारा अत्याचारों को सहने का आदी होने से ही संतुष्ट होकर यह मान लेना कि यहाँ पर अत्याचार नहीं है, एक आत्म-वंचना की स्थिति है। जहाँ प्रतिकार, प्रतिशोध और अन्याय के विरुद्ध तन कर खड़े होने की प्रवृŸिा होगी, संघर्ष वहीं होगा।  शेर-बकरी के बीच संघर्ष नहीं हो सकता। वहाँ एकतरफ़ा हमला होता है तथा जंगल की शांति में खलल केवल में़़़...में.... के चंद शब्दों भर होता है और उसके पल भर में बुझ जाने तक ही रहता है। किन्तु एक शेर और सुअर की लड़ाई से जंगल प्रायः थर्रा उठता है। शोर दूर तक पहुँचता है। शेर की मृत्यु भले ही न हो किन्तु अपनी जि़दगी बचाने के लिए जूझता सुअर, शेर को मुश्किलों में डाल देता है। ऐसे में जंगल का राजा यूँ ही, तफ़रीहन, सुअर की अस्मिता पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं करता। यही इन संघर्षो का सबक़ है।

  अभी-अभी एक वक्ता के हवाले से बताया गया है कि बीते कल को उन्होंने (त्रिपाठी जी ने) अपना वक्तव्य दिया जिसमें सवाल उठाया कि ’’लोग ब्राह्मणवाद की बात तो करते हैं लेकिन यह क़तई नहीं बताते हैं कि वे किस ब्राह्मणवाद की बात करते हैं ? ब्राह्मणवाद के भी कई भेद हैं आदि-आदि..........। श्इस संबंध मंे इतना अवश्य कहना होगा कि ब्राह्मणवाद केवल ब्राह्मणवाद है तथा इसमें हिन्दु जातियों की भाँति तरह-तरह के भेद गढ़ कर भारी-भरकम शब्द-जाल में तथ्यों को उलझाना तो ब्राह्मणवादी परंपरा ही है। ऐसे शब्दों के अवगुंठन में छिपी ख़तरनाक नीयत वंचितों-दलितों-मज़्लूमों को लक्ष्य से भटकाने के लिए ताक लगाये बैठी है। इसे पहचानना ज़रूरी है। वह अपने चोले को समयानुसार एवं परिस्थिति-अनुकूल बदल-बदल कर प्रगट होती रहती है। उसे तो उसके हर रूप में ही चुनौती मिलनी चाहिये। परजीवी संस्कृति की यह विशेषता होती है कि वह अपना हर शिकार अपनी इकलौती स्ट्रेटेजी के बार-बार दोहराव के अन्तर्गत नहीं करता है। इससे पहले कि शिकार उसकी पूर्व में अपनाई गई तकनीकों को समझे और उससे बचने का रास्ता तलाशे, वह अपनी सम्पूर्ण रणनीति को ही बदल लेता है। कई बार शिकार की अपनी ही बिरादरी सा रूप धर लेता है और साथ चलता हम सफ़र एकाएक शिकारी के बाने में नमूदार हो जाता है। परजीवी संस्कृति अपने लक्ष्य में एक बार फिर से सफल हो जाती है। इसीलिए आजकल दलित-ब्राह्मणवाद, दलितों में ब्राह्मणवाद आदि नये-नये उत्पादों की ओर ध्यान खींचा जा रहा है ताकि मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान हटया जा सके। ऐसे हथकंडे कोई नये नहीं हैं। इस संदर्भ में एक छोटी सी ग्रामीण कहानी का जि़क्र करना चाहूँगा। शायद इन उपक्रमों को समझने में यह काफ़ी मदद कर सकती है। हुआ यूँ कि एक बार उस गाँव के पुरोहित ने बस्ती के लोगों में यह बात फैला दी कि फलाँ-तारीख़ की रात बारह बजे के बाद पिशाच की बेटी का ब्याह सिवान के पीपल के पेड़ पर होने का मुहुर्त है। तदनुसार आगन्तुक पिशाच बारात लेकर आएगा। वह पूरी शान-शौक़त से आसमान मार्ग से आएगा। उनके आते ही आसमान में चकाचैंध करता उजाला हो जाएगा। इस बात को नमक-मिर्च लगाकर अफ़वाह की सूरत फैला दिया गया। मुक़र्रर तारीख़ को रात बारह बजा नहीं कि पहले से ही बस्ती के लोग एक-एक कर इक्ठ्ठा होने लगे। देखा-देखी समूची बस्ती के बाल-वृद्ध, नर-नारी एकत्र हो गये।  सिवान में जैसे मेला लग गया। बस्ती में सन्नाटा था और सिवान में चहल-पहल! सयानों (जानकारों) नेे सबको ख़ामोश रहने की हिदायत दी ताकि पूरा तमाशा बिना टोक-टाक के देखा जा सके। ख़बर यह भी थी कि पिशाच की बारात जब गगन-मार्ग से आयेगी तो उस समय आसमान में एकाएक उल्का पिंड जैसा अप्रतिम उज़ाला पीपल के पेड़ तक आ जायेगा। सबकी आँखो को तेज़ मशाल की सूरत में रौशनी चका-चैंध कर देगी। औरत-मर्द ख़ामोशी की हिदायत के बावज़्ाूद खुसर-फुसर करने से बाज़ नही आ रहे थे। सबके दिमाग में बस उसी ब्याह के भावी दृश्य पर मंथन चल रहा था। समय बीतता रहा और लोग साँसे रोके इंतज़ार करते रहे। रात के बारह बज गये। उसके बाद पिछले पहर के एक, दो और तीन बज गये। बारात में देर-सबेर होने के व्यावहारिक कारणों पर चर्चा होती रही। भिनसार की चुक चुकिया चिरई भी बोल उठी। कहीं कोई रोशनी नहीं। रोशनी दिखी तो बस सबेरे के सूरज की। सारी बस्ती रत जगा करके उदास-निराश अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगी। बस्ती वाले अच्छे-भले, खाते-पीते लोग थे। बस्ती के कमासुतों ने एक दूसरे से आगे निकलते की ठानी थी। लेकिन यह क्या ? लौटकर बस्ती के लोगों ने देखा कि उनका सारा माल-असबाब तो उसी रात लुट चुका था। लगता है ष्पिशचवाष् की बारात पीपल के पेड़ पर न आकर बस्ती की ओर रुख कर ली। एक गुनिया ने शक ज़ाहिर किया कि कहीं पुरोहित की पिशचवा के बारातियों से दोस्ती तो नहीं थी ? रोना-पीटना-कोसना तो दिन भर चला लेकिन किसकी मज़ाल कि पंडित जी को दोष मढ़े? गुनिया ने प्रवक्ता के तौर पर बयान बदल दिया कि बारात आने के समय गाँव के किसी मर्द ने छींक दिया था जिसके कारण अपसकुन हुआ और क्रोधित पिशचवा ने पूरी बस्ती को तबाह कर डाला।

 कहना यह है कि ऐसी कहानियाँ भी कई हक़ीक़तों और अनुभवों के बाद ही बनती हंै। ठगे-लुटे लोग कुछ समझ पायें, इसके पहले ही पिशचवा स्वयं देवता का रूप धर लेता है, और भारत भर का दूध अकेले ही पी जाता है। कभी दूध पीता है, कभी टोपी लगा कर भष्टाचार मिटाने के लिए अवतार ले लेता है। कभी योग-विद्या और आयुर्वेद विज्ञान से सशक्त भारत बनाते-बनाते चुनाव लड़ने या लड़ाने का मंत्र-फूँक नारा लगाने लगता है। वह जब कभी बौद्ध भिक्षुओं का नया नकली दल तैयार करके आत्म-विस्फोटक बम का रूप दे देता है, तो भी उसका चोला सामयिक एवं प्रथम दृष्टया प्रासंगिक ही लगता है। ऐसे में उसका शिकारी स्वरूप खाल और खोल के नीचे घात लगाये बैठा रहता है। मठों, ठगों और स्वनाम-धन्य बाबाओं की अश्लील हरक़तों को बताना भी कठिन, छुपाना भी भारी। ऐसी बट-मार धर्मधारियों की टीम नियोजित प्रबंधन के तहत काम करती है। वेदवानों (विद्वानों ?) की ऐसी ही परम्परा अपने मायाजाल में उलझाकर बड़े-बड़े आन्दोलनों की हवा निकाल चुकी है।

 एक प्रश्न यह उठाया गया है कि आखि़रकार बुद्ध ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसे प्रश्नों को अव्याकृत रखकर उनसे टकराने से क्यों बचते रहे तथा क्या उन्होंने भी वर्णवादी व्यवस्था को सीधे चुनौती न देकर मूक रहकर उन्हीं का साथ नहीं दिया। कहना यह है कि किसी भी विचारक,  अन्वेषक, मनीषी या दर्शन-शास्त्री के विचारोें का मूल्यांकन समय के सापेक्ष सामाजिक-राजनैतिक एवं धार्मिक परिवेश में ही किया जाना चाहिये। ईसा के 600 वर्ष पहले जब वैदिक प्रभाव ने अपना विस्तार और प्रभाव सशक्त कर लिया थाय धर्म के एकमात्र ज्ञाता, वाचक, प्रकाशक  और व्याख्याता केवल ब्राह्मण ही थे जिन्होंने राजनैतिक सŸााओं को भी अपने काबू में करने का उपक्रम कर रखा था। ऐसे में मंद-मति दलित पीडि़त जनता को प्रशिक्षित करने के बजाय उनके भरोसे वेदवाद से भैतिक संघर्ष कदाचित आत्मघाती ही होता। इसी तारतम्य में वैदिक ब्राह्मणी मान्यताओं की अस्वीकृति या अव्याकृति को देखा जाना चाहिए। बुद्ध भी एक मनुष्य ही थे कोई पराप्राकृतिक या आसमान से उतरनेवाली चमत्कारी शक्ति नहीं। वेे देश-काल की नब्ज़ पकड़कर पीडि़त मानवता को दुःखों से छुड़ाने हेतु अपने कार्य में लगे थे। कुतर्कियों से निरर्थक बहस न करने के कारण कुतर्कों को उनकी मौन स्वीकृति मानना भी एक कुटिल और कपटपूर्ण टिप्पणी है। उन्होंने बार-बार आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, ईश्वर, पुनर्जन्म की मान्यताओं को नकारा।  ऐसे ही निरर्थक प्रश्नों को बार-बार उठाने के कारण ही उन्होंने इसे अनुत्पादक और लोक हित में बाधक कहा। अव्याकृत का उनका आशय यह था कि वे ही अन्तिम निर्णायक नहीं है जो बता दंे कि इस धरती और आसमान के उस पार क्या है ? यह कब से अस्तित्व मेें है तथा कब तक रहेगी ? इसे बनाने वाला कौन हैै, आदि-आदि.......। क्योंकि इसके बाद भी बहुत से बुद्धिमान आएँगे और शायद बहुत से प्रश्नों का उŸार देंगे तथा समस्याओं को हल करेंगे, उनका निदान बताएँगे। इसीलिए वे ऐसे प्रश्नों को बार-बार चिन्तन-मनन के लिए लोगों पर छोड़ते थे ताकि वे अपनी स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बुद्धि-विवेक तथा तर्क से यह जानें  कि सच्चाई क्या है। किसी के द्वारा बताए गये सच को विना ख़ु़द संतुष्ट हुए न मानें। अव्याकृत को इस संदर्भ, में समझे जाने के बजाय भगवान बुद्ध द्वारा दुनिया के तमाम अनुपयोगी, निरर्थक और समय-बर्बाद करने वाले विषयों पर अनुत्पादक बहस में न पड़ने को यह कहना कि वे उन प्रश्नों से जूझने के बजाय उनसे बचते रहे, ठीक नहीं है। भगवान बुद्ध ने अपने समय की ख़ामियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों तथा किम्वदन्तियों का जितना स्पष्ट उŸार दिया है, उससे आगे की सोचना भी शायद आज तक संभव नहीं हो पाया है। बुद्ध का दर्शन केवल बुद्धि-विलास या शब्दों की जुगाली का संसाधन नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का अस्त्र बन कर उभरा जिससे बहुजन समाज को सशक्त और आत्म-चेतनायुक्त करने का अस्त्र मिला। निश्चित रूप से इन उपादानों से परजीवी वंचक-संस्कृति के निहित स्वार्थ पूरे नहीं होते, इसीलिए उनके द्वारा बुद्ध और बौद्धों की निन्दा, आलोचना को समझा जाना चाहिए।

 ब्राह्मणवाद के बदलते चेहरे और चोले का जि़क्र करते हुये पहले ही कहा जा चुका है कि इसके बोलने के अर्थ और इसके करने के अर्थ बहुधा एक ही नहीं होते हैं। वह जो कहता है वही करता नहीं और जो करता है उसे बताता नहीं। ऐसी ही उसकी रणनीति और चाल है। किन्तु कबीर जो कहते हैं, वही करते हैं जो करतें हैं वही कहते हैं। इसीलिए कबीर का उपदेशक रूप अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए दूसरों की माल-मलाई उड़ानेवाला स्वरूप नहीं है। बल्कि वह श्रमण संस्कृति का अनुगामी है। अपनी कठिन मेहनत की कमाई से ही अपना भरण-पोषण करता है। यह कबीर कपड़ा बुनता है, और उसे लेकर ख़ुद बाज़ार में बैठता है, बेचता है और अपने श्रम की क़ीमत पर अपनी जि़न्दगी बशर करता हैं। इसीलिए कबीर ब्राह्मणवाद की दोगली चाल को सरेआम दुत्कारता और खण्डन करता है। ठीक यही बुद्ध के यहाँ भी है। बुद्ध जो स्वयं करते हैं, वही और उतनी ही शिक्षा भिक्षुओं को देते हैं। आपको बताना चाहता हूँ कि भगवान बुद्ध के अग्रिम पंक्ति के भिक्खु सुभद्र ने  कुशीनारा में भगवान बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद ही अपने मूल ब्राह्मणी चरित्र को छुपा न सका था। अभी भगवान का भौतिक शरीर वहीं (कुशीनारा में) रखा ही था कि उस भिक्खु ने कहा श्अच्छा ही हुआ कि यह महान् श्रमण अब नहीं रहा। मत रोओ, मत विलाप करो। हम सब श्रमण गौतम से मुक्त हुए। हमें उसके इस कहने पर बड़ी हैरानी होती थी कि यह तुम कर सकते हो और यह नहीं कर सकते। अब हम जो चाहेंगे करेंगे और जो नहीं चाहेंगे नहीं करेंगे। क्या यह अच्छा नहीं है कि वह चल बसा है। रोना किस लिए। विलाप किस लिए। यह तो खुशी की बात है1।श् यह सुनकर भिक्खुओं ने तत्काल इस पर चर्चा की तदन्नतर समय पाकर संघ की सभा बुलाकर यह निर्णय लिया कि भगवान के वचनों को तत्काल लिपिबद्ध कर लेना चाहिए, वरना इनमें मनमाने परिवर्तन कर इसे नकली बनाने में देर नहीं लगेगी।  धम्म के विरोधी इसे अपनी सुविधा के अनुसार लिखकर मूल वचन गायब कर दंे तो आश्चर्य क्या

आज़ दुनिया हमें भगवान बुद्ध के कारण ही सम्मानपूर्वक जानती-पहचानती है। किन्तु इस देश के ब्राह्मणवाद ने उसी भगवान बुद्ध का देश निकाला कर दिया जिसके द्वारा उपदेशित बुद्ध-धम्म के कारण हम अपने आप को विश्वगुरु कहते हुए शेखी बघारते हैं। उन्हीं को ही तिरस्कृत करने और उनके विचारों को नेस्नाबूद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। ऐसा करना ब्राह्मणवाद के ही बूते की बात है। इस प्रकार का दोहरा चरित्र पग-पग पर और भारतीय वातावरण की साँस-साँस में व्याप्त है या तो अपने पाँव पूरी तरह फैलाने में प्रयासरत देखा जा सकता है। इसीलिए कबीर कहते हैं कि - श्बिन देखे वहि देस की बात करत है कूर / आपै खारी खात है बेचत फिरै कपूर।श् अर्थात तुम हमसे स्वर्ग की अच्छी-अच्छी लुभावनी बातें करते हो और वहाँ ख़ुद जाने को तैयार नहीं हो। यदि इतनी अच्छी चीज़ हमें मिलने के उपाय बता रहे हो तो पहले तुम्हें ही प्राप्त करनी चाहिए थी। खुद तो ख़ारी (अखाद्य) खा रहे हो, हमें कपूर की सुगंध से बहला रहे हो। इस प्रकार तुम्हारी कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का अन्तर स्पष्ट है। कहना यह है कि भगवान बुद्ध ने जिस प्रचीन श्रमण-मार्ग को प्रशस्त किया, उसी को कबीर ने भी अपनाने की सलाह दी। कबीर ने भगवान बुद्ध के दर्शन को अपने समय की माँग के अनुसार परिभाषित-परिचालित किया। कबीर की अहिंसा स्वयं मार खाकर चुप रह जाने वाली नहीं है। कबीर ष्लुकाठाष् लेकर चैराहे पर खड़े हैं और दुश्मन से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। कबीर ने तो भगवान बुद्ध के विचारों को परिष्कृत करके उसमें वही प्रतिरोधात्मक क्षमता पैदा की है, जिससे लैस होकर हम अपने को अपसंस्कृति के हमले से स्वयं को सुरक्षित रख सकते हैं। कबीर ने बुद्ध-दर्शन का परिष्कार किया-संस्कार किया। इसीलिए भगवान बुद्ध दलित-अस्मिता के प्रथम संस्करण हैं, कबीर उन्हीं के द्वितीय संस्करण और बाबा साहब डाॅ॰ भीमराव अम्बेडकर सबसे नवीन ;स्ंजमेजद्ध संस्करण हैं। कहीं कोई भिन्न नहीं है। धम्म के प्रतिपूरक और शोधक बनकर नये अवरोधों को चुनौती देते कबीर कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं ओर शायद कल भी रहेंगे। बस डर है कि कहीं हम कबीर को भी पत्थर का बुत न बना दें और उनके महिमा-मंडन के घने जंगल में उनके कीमती विचारों को भटका न दें। केवल विचारों की पूजा से ही भला होगा अन्यथा कबीर को लाल झंडे वाले, गेरुआ या नीले रंगों के झंडे वाले इस बुत को लपेटकर एक बिजूका बना देने को तैयार खड़े हैं। इन विचारों के अन्तिम संस्कार करने को अमादा बहु रूपिए आज अपनी हर तिकड़मी चाल के ज़रिए बुद्ध-कबीर-अम्बेडकर को अगवा करने की हर जुगत भिड़ाए पड़े हैं। भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहना कबीर को विधवा ब्राह्मणी का बेटा कहना इन्हीं कुटिल करतूतों का परिणाम है। आज इसी परजीवी संस्कृति द्वारा अम्बेडकर भी किसी कद्दावर भगवान के चोले में बैठाए जाने की प्रतीक्षा सूची में रखे गये हैं। इसी प्रकार के अभियान वैचारिक आंदोलनों को भस्मीभूत कर देने में लगातार कामयाब होते दिखाई दे रहे हैं तथा कबीर के वारिस ठकुआए यह तमाशा देखे जा रहे हैं।

 दोहरे चरित्र को जीवन के केवल एक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है जिसने एक चरमोत्कर्ष पर पहुँची संस्कृति को मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी तथा आज भी सक्रिय है। शब्दों को बदलना, तीज त्योहारों को बदलना, वेश-भूषा को बदलना, पूूजा-मान्यता को बदलना, साहित्य-इतिहास को अपनी सुविधा के अनुसार बदलते रहना, इसी अपसंस्कृति की दूरगामी रणनीति रही है। कोई विचार करे कि भिक्खु, भिक्खा, सिक्खा, मूसा, खेत आदि शब्दों में क्या ग़लत, क्या अशोभन, क्या कर्ण-कटु है जो त्यागने लायक है? साहित्य में भी तद्भव और तत्सम का ईजाद किया गया ताकि बुद्ध-कबीर  की परम्परा को भाषा के स्तर पर ही पटखनी दे दी जाय। तद्भव के मायने हुआ श्वैसा ही जैसा था या हैश् और तत्सम का मायने हुआ श्उसी के समान।श् विचारणीय है कि जो वही हैं वह मौलिक है या जो श्वैसा ही हैश् वह मौलिक है। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि किसी शब्द और भाषा को दोयम दर्जे की कहना, एक साजिश है। एक भरी-पूरी भाषा-संस्कृति को अशुद्ध कहकर अमर्यादित किया गया है। इनकी भाषा अशुद्ध, इनकी बोली अशुद्ध, इनकी वेष-भूषा अशुद्ध, इनकी वाणी अशुद्ध, इनका देखना अशुद्ध, इनको छूना अशुद्ध, इनका वचन-प्रवचन, गुण सभी कुछ अशुद्ध। इस प्रकार से एक प्रतिकारात्मक हीगोमोनी ;भ्महवउवदलद्ध का निर्माण भी इसी षड्यंत्र की एक कड़ी है जिसके ज़रिए यह यवस्था अपने वर्चस्व को परवान चढ़ाती आयी है और इसी के शिकार कबीर हैं, नानक हंै, रैदास हंै, दादू हंै, चोखा मेला हैं। बार-बार के क्रान्ति प्रयासों को इसी हथियार से निष्क्रिय किया जाता रहा है और आज भी दलित-जागृति को धता बताने को नये-नये तरीके खोजे जा रहे हैं।

 आजकल दलित-संकीर्णतावाद, दलित-ब्राह्मणवाद, दलित-जातिवाद, दलित-वर्चस्ववाद और दलित आक्रामकता पर बहस ज़्यादा तेज़ कर दी गयी है ताकि मुख्य मुद्दे की गरमाहट को पानी डालकर ठंडा कर दिया जाय। इस प्रकार के वादों से इन्कार नहीं किया जा सकता किन्तु यह भी प्रकारान्तर से ब्राह्मणवाद की ही प्रस्तुतियाँ हैं। क्यों? क्योंकि हमारे देश-समाज का आदर्श ही ब्राह्मण है। यहाँ हर व्यक्ति ब्राह्मण बनकर सम्मान पाना चाहता है। बिना श्रम के मलाई उड़ाना चाहता है। समाज का अगुवा बनना चाहता है और हर तरह से अपना प्रभुत्व औरो पर थोपना चाहता है। निश्चित रूप से किसी भी समाज में जो विकसित या समादृत है, वही हमारा आदर्श या माडल रोल बनता है। हम उसी की नकल करते हैं और उसी के नक्शें-कदम चलते हैं या चलने की कोशिश करते हैं। यदि किसी गाँव में एक युवक कड़ी मिहनत करके आई.ए.एस., आई.पी.एस. जैसा उच्च पद पा जाता है तो उसकी देखा-देखी दूसरे घरों के युवक भी पढ़ाई की ओर ध्यान लगाते हैं या कोशिश करते हैं। यही नहीं पास-पड़ोस के युवक भी इससे प्रेरित होकर उसी तरफ़ बढ़ते हैं। बच्चों और नौजवानों के अभिभावकगण भी बार-बार उसी युवक की मिसाल देते हैं और अपने पाल्य से वैसा ही बनने की चुनौती देते रहते हैं। तो आखिर आई.ए.एस. बनने में ऐसी क्या ख़ास बात है ? चूँकि आई.ए.एस. की छवि यही है कि वह पूरे जि़ले में अपनी हुकूमत चलाता है, बड़े-बड़े लोग उसकी चरण-रज लेते नहीं अघाते तथा वह बड़े बंगले, अच्छी गाड़ी और नौकर-चाकरों की फ़ौज का मालिक होता है। सारे पुलिस-दरोगा-कोतवाल डिप्टी कलेक्टर उसके हुक्म के गुलाम होते हैं। उसे धूप-बारिस-सर्दी का कोई डर नहीं क्योंकि उसका सब काम जबान चलाने से हो जाता है। उसे पैसे की कोई कमी नहीं। बल्कि किसी चीज़्ा की कोई कमी नहीं है। ऐसे सुविधा सम्पन्न और पूजनीय व्यक्ति की नकल कौन नहीं करना चाहेगा। ठीक यही उदाहरण सामाजिक प्रभुत्व का भी है। ब्राह्मण के लिए श्रम किये बिना ही सारी वस्तुएँ उपलब्ध हैं तथा वह पृथ्वी का पूरा उपभोग करने का अधिकारी है। उसकी चरण-रज लेकर या आशीर्वाद लेकर लोग धन्य हो जाते हैं। उनके घर की लुगाइयाँ पर्दे में रहती हैं। वे कभी श्रम नहीं करतीं इसलिए उनकी इज्जत भी सबके ऊपर है। कामगारों की जनानियाँ दिन-रात मालिक के खेत-खलिहानों, घर-आँगन, मरनी-जीवनी जैसे हर श्रम साध्य कार्य में अपने को खपाती हैं, वह भी अपने श्रम की माकूल मज़दूरी पाये बिना। उनकी मिहनत-मशक्कत ही उन्हें नीच-अछूत और अनादरणीय बनाने की बाह्मणी मान्यता हैं। वे भी चाहती हैं कि हम ब्राह्मणी बनकर वही सम्मान और सामान हासिल करें जो एक क़ामचोर अभिजात्य पुरुष और उसकी लुगाई को मिलता है। ऐसी स्थिति सारे समाज में कामचोरी फैलाने का मूल कारण क्यों न बने ? इतिहास गवाह है कि हमने श्रम की तौहीन की है तथा कामचोरी, बेईमानी, जालसाजी, लफ्फ़ाजी की पूजा की है इसीलिए हमारे आदर्श और हमारे हीरो ब्राह्मण हैं। हम सभी ब्राह्मण बनने की ओर उन्मुख हैं। यह भी मुख्य मुद्दे से भटकाने की चालाकी है कि लोग चाहते हैं कि कोई क़ानून, कोई संविधान या कोई लोकपाल जैसा जादू इस देश से भ्रष्टाचार मिटा देगा। यह मात्र दिवा-स्वप्न ही है। भ्रष्टाचार का क़ानून से एक सीमा तक ही लेना-देना है। यदि क़ानून लागू करने वाले लोग ही भ्रष्ट हों तो कौन रोकेगा? अभी तो हम आर्थिक भ्रष्टाचार की ओर मुँह उठाये अंधी दौड़-धूप का हिस्सा बनकर भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम में अपना नाम लिखाना चाहते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक, धार्मिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक भ्रष्टाचार से आँखें मूँदे पानी पर लाठी पीट रहे हैं तथा उठती लकीरों की गिनती करना चाह रहे हैं। हम पेड़ के पŸो को काट-छाँट रहे हैं और उसकी जड़ को मिलने वाली ऊर्जा की ओर से या तो बेख़बर हैं या जानबूझकर लोगों को मूल-प्रश्न से भटकाए रखना चाहते हैं। इस देश की नींव ब्राह्मणवाद पर है जिसे आजादी के बाद समाजवाद में तब्दील करने का सपना देखा गया था। लोकतांत्रिक सेकुलर क़ानून के पुलिन्दे को आज भी ब्राह्मणवाद ही धता बताए हुए है। क़ानून तो उसकी मर्जी से चलता रहा है, और आज भी वह, भीतर से इस जनतांत्रिक क़ानून को मानने में हिचकिचाता है क्योंकि इसे मानने का अर्थ है ब्राह्मणवाद की अर्थी निकालना जो वह कभी नहीं चाहेगा। इस गुत्थी को सुलझाये बिना हमारी मुश्किलें दूर नहीं होने वाली हैं। क़ानून पर चलने वालों की मनसा, नीयत ओर उनका नैतिक चरित्र ही इसे लागू करने या न करने के लिए निर्णायक हो सकता है। जहाँ का हर व्यक्ति बिना श्रम के अन्न, बिना मिहनत के दुनिया की हर सुविधा, बिना गुण के सारा सम्मान हासिल करने की ओर उन्मुख है, वहाँ पर नैतिक-चरित्र की शुचिता की उम्मीद भी बेमानी है। इसीलिए क़ानून के साथ नैतिक मूल्यों की स्थापना हेतु मानवतावादी धर्म या धम्म की आवश्यक्ता होती है। जहाँ का धर्म भौतिकता को ही मान्यता देता है। ख़ुद के भ्रष्टाचार को अपना आभूषण मानता है, ऐसे धर्म से उम्मीद भी क्या की जाय। कुल मिलाकर आप देखें कि भारत का ज़र्रा-ज़र्रा ब्राह्मणवाद के मकड़ज़ाल में उलझा-फँसा हुआ है। फिर उद्धार कैसे हो ? इसी कारण कोई भी सच्चा भारतीय, सच्चा राष्ट्रवादी हमेशा ही उन पतित धार्मिक मूल्यों पर कुठाराघात करेगा जिसके कारण जीवन का हर क्षेत्र दूषित हो गया है। कोई भी परजीवी अपनी प्रकृति के अनुसार अपना भोज्य प्राप्त करने हेतु अपने शिकार की तलाश करता है। एक जगह से भोज्य बन्द होते ही दूसरा शिकार तलाशता है। खटमल कुर्सी से निकलेगा तो चारपाई में जाएगा, चारपाई से निकलेगा तो सोफ़ा में जाएगा, सोफ़े से निकलेगा तो तख़त में जाएगा। यह सुनने में सबके लिए कर्ण-प्रिय नहीं होगा कि जब तक वह जि़न्दा रहेगा, ख़ून ही पिएगा। ऐसी परजीवी संस्कृति को समाप्त करने के उपाय सरल नहीं हैं। इस पर विचार किया जाना चाहिए। शायद यहीं से वामपंथी विचारधारा की हिंसक प्रवृŸिा को औचित्य सिद्ध करने का मौका मिलता है। देश को ख़ूनी-क्रान्ति की ओर धकेलने के इस कुचक्र को रोकना है, तो सच्चे मन से इस फासीवादी पुरोहित्व को उखाड़ फेंकना होगा।

 कबीर बार-बार इसी परजीवी संस्कृति को नेस्तानाबूद करने की बात कहते हैं। श्साधो वाभन, निपुन कसाईश् इससे कठोर चोट और क्या हो सकती है ? वे ब्राह्मणवाद को और ब्राह्मण को केवल कसाई कहकर सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि कहते हैं कि वह तो कसाईपने में निपुण है। कबीर की ऐसी कविता में कबीर को ढँूढना कोई मुश्किल नहीं है, शर्त इतनी है कि हम ईमानदारी से देख पाने का साहस करें। कबीर अपनी कविता के माध्यम से बार-बार दलितों शोषितों को भी सचेत करते हैं तथा उनकी उदासीनता तथा भाव-शून्यता को लानत भेजते हैं - श्साधों यह मुर्दों का गाँवश्। वे जीते जी मुर्दा बनने वाली कौम को धिक्कारते हैं तथा चेतना के स्तर पर इन्हें सावधान करते हैं। यही कबीर की कविता की विशेषता है जिसमें दलित प्रतिरोध की अनगिनत संजीवनियाँ हैं, बस उन्हें सही संदर्भों में समझने की ज़रूरत है।

 कबीर की कविता का स्वर नितान्त मानवतावादी है। वह न तो ब्राह्मणवादी है न ही शूद्र-दलितवादी। कबीर को किसी वाद में उलझाना कबीर के विचारों को अपहृत करने जैसा है। वाद हमेशा किसी व्यक्ति या विचार की तरफ झुका ;।सपहदमकद्ध होता है इसलिए उसका चरित्र व्यक्ति, विचार और पंथ निरपेक्ष नहीं रह जाता। कबीर जब कहते हैं कि श्हिन्दू कहो तो हौं नहीं मुसलमान मैं नाहिं / पाँच तत्व का पूतरा गैलनि खेले माहिंश् तो उनकी यह घोषणा सच्चे अर्थों में पंथ-निरपेक्ष है, सेकूलर है। भारत का धार्मिक-राजनैतिक घराना परम्परागत रूप से अपनी ही जाति-धर्म के व्यक्ति का नेतृत्व स्वीकार करता है। इसीलिए कबीर का सेकूलर नेतृत्व हमारे देश के लिए एक आदर्श नेतृत्व हो सकता है। ऐसा नहीं होने देने का कारण भी यही है कि कबीर के भरोसे किसी धर्म या पंथ की रोटी नहीं सेंकी जा सकेगी और सारा गुरूडम धरा-का-धरा रह जाएगा । भारत का साम्प्रदायिक-वर्चस्ववादी वर्ग इसे क्यों क़बूल करेगा? ऐसे में कबीर की कविता, कबीर की भाषा, कबीर की बोली-बानी, कबीर की वेष-भूषा, कबीर के विचार, कबीर की साधना यहाँ तक की कबीर की ज़ाति और जन्म तक को अशुद्ध घोषित करने वाले लोग उपरोक्त कारणों से ही कबीर के आलोचक हैं। साहित्य में कबीर की आलोचना भी पूर्वाग्रही है। धर्म में उनका कोई स्थान नहीं है।

 क्योंकि कबीर गलत के साथ समझौतावादी नही है।  वह लुकाठी हाथ में लेकर काशी के चैराहे पर पाखंडियों को ललकारता है, तो भला कबीर की आलोचना नहीं होगी तो क्या होगी। कबीर का मध्यम मार्ग दो अतियों से बचाने का मार्ग है, दो नावों पर पाँव रखने का नहीं । कबीर अपनी मान्यता में स्पष्ट हैं, अपनी अभिव्यक्ति में सादा हैं किन्तु अपनी सच्चाई पर दृढ हैं। कबीर द्वारा आत्मा-परमात्मा, राम, ईश्वर, यमराज, स्वर्ग, नरक आदि की उक्ति पारम्परिक मान्यताओं को नकारने के लिए ही उद्धरण में आई है। सामाजिक स्वीकृतियों को बिना नाम लिए ख़ारिज करना भी प्रायः भ्रामक ही होता है। इस रूप में कबीर की रण-नीति न तो भुलावा देने की है न ही रहस्यवादी। उनका संदेश उनके लोगों की जन-भाषा में हैं, जहाँ कोई लाग-लपेट, कोई छुपाव या कोई बचाव नहीं है। इसीलिए कबीर अँखियन देखी बातऔर सुरझावनवारी बातें ही अपने पदो ंके माध्यम से करते दिखाई देते हैं। उनकी भाषा का संबोधन सन्त को, साधु को होता है किसी धर्म गुरु या ज़ाहिद को नहीं। कबीर की ताक़त उनकी साफ्रगोई और सपाट बयानी है। कबीर की साहित्यिक आलोचना में जब रूढि़वादी विचारों का पुट होता है तो कबीर पर आक्रमण ही होता है। कबीर जैसे मज़बूत विचारक को हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं में अग्रगण्य, रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे लोगों ने अक्खड़ी स्वभाव, खिचड़ी भाषा, ब्राह्मणी पुत्र, अहंकारी जैसे विशेषणों से लांछित-गर्हित किया है। कबीर को अपने समय की षडयंत्रकारी ताक़तों के सामने भी इसी रूप में विहित किया गया। अन्त में उन्हें काशी छोड़कर मगहर में शरण लेनी पड़ी। वहाँ भी उनकी हत्या नहीं बच पायी। इस प्रकार हम कबीर की सामाजिकी को अधिक मुखर पाते हैं जिसकं ज़रिए केवल दलित प्रतिरोध का विकास ही नहीं बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों के हमले से बचने के लिए अपने ऊपर भी ऐसा प्रतिरोधक कवच लगा सकता है, जहाँ से झूठ, प्रपंच को जड़ से उखाड़-फेकने की उद्यमशीलता वजूद में आए।

 कुछ मित्रों ने अभी कहा कि जिस दलित की चर्चा हम कर रहे हैं, वह आज वैसा नहीं रह गया है। काफ़ी बदलाव हुआ है तथा भेद-भाव में कमी आयी है। मेरा कहना है कि बदलाव तो प्रकृति का नियम है। इसलिए बदलाव या परिवर्तन हर जगह, हर समय घटित होना एक सत्य है। देखना यह है कि इस बदलाव में क्या लाभकारी या दलित-उद्धारक बदलाव हुआ है ? हम उसी का स्वागत करेंगे और इसीलिए उसकी पड़ताल ज़रूरी है। हमने शारिरिक छुआछूत को कम करके मानसिक छुआछूत में बदल दिया है। हम आपके साथ उठेंगे, बैठेंगे, बोलेंगे, बतियाएँगे, पीएँगे-खाएँगे लेकिन अपना शिकार करने अनयत्र कहाँ जाएगें? हू-ब-हू ऐसी ही स्थिति है। ऐसी स्थिति में ऊपर से देखने पर या प्रचार के लिए यह कहना बड़ा अच्छा लगता है कि दलित-उत्पीड़न और जातीय भावना में कमी आयी है। मैं एक उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहता हूँ। यह कि़स्सा नहीं इक्कीसवी सदी की सच्चाई है।

 आप जानते ही हैं कि किसी न किसी पंथ की महंथगीरी करने का चस्का पुरोहिताई का पुराना शगल है। माल-मलाई अलग और पाँव-छुवाई अलग मिलती है। इसमें पंथ की छोटाई या बड़ाई नहीं देखते। ये देखते हैं कि वहाँ की गद्दी मिले, बस! तर्क यह है कि नरक में भी रहो तो राजा बनकर। तो एक स्वनामधन्य पुरोहित ने कबीर पंथ को पकड़ा और धीरे-धीरे पकड़कर ज़्ाोर से जकड़ लिया। अपनी विद्वता के सारे हथकंडे कबीर पंथियों पर आज़माए ताकि चुग्गा-चारा कहीं फिसल न जाय। उन्होंने बड़े नेताओं और अफ़सरों (दलित-शूद्र) को अपनी वाणी से प्रभावित किया और चन्दा से लेकर आश्रम की ज़मीन तक का उपहार पाकर कबीर नाम की नैया के खेवनहार बन बैठे। आश्रम की महिमा दूर-दूर तक फैलायी गई।  कबीर पर किताबों की झड़ी लगा दी और कबीर के दर्शन के एक मात्र पारखी बनकर अपने आभा-मंडल के नीचे बड़ों-बड़ों को चैंधिया दिया। कबीर-बानी का गायन होता और उनका प्रवचन चलता तथा जगह-जगह उनका भण्डारा भी होता रहता था। पंथगुरु एक बार गोरखपुर पधारे थे। भंडारे का कार्यक्रम था। पता लगा कि कुछ दलित कार्यकर्ता रसोई में हाथ बँटाना चाह रहे हैं। महंथ जी ने साफ़ मना कर दिया। भंडारा सम्पन्न होने के बाद जब इस बावत उनसे पूछा गया कि कबीर के यहाँ तो ज़ात-पात का भेद नहीं है, फिर कबीर के नाम पर भंडारे में इस प्रकार का जाति-बर्ताव क्यों ? उन्होंने अपना स्टैन्ड क्लीयर किया कि श्कबीर-पंथ में होने के नाते मैं भी जाँत-पाँत में विश्वास नहीं करता किन्तु यहाँ पर हमारे ही परिवार और गाँव के लोग जुटे हैं। अगर उन्होंने अछूत का बनाया हुआ खाने से मना कर दिया तो क्या होगा। मैं ब्राह्मण होकर उन्हें अपने से दूर तो नहीं  भगा दूँगाश्। तो यह चैकी और चैका की बात सामने आ गयी। महंथ जी अब इस दुनियाँ में नहीं हैं, लेकिन इस घटना में उनकी मज़बूरी या उनके भीतर छुपे हुए पुरोहितत्व के पक्ष और प्रतिपक्ष में बहस ज़रूर की जा सकती है। 

 कहना यह है कि बस इसी स्तर पर माहौल में परिवर्तन या सुधार हुआ है। चलिए मैं अपना ही उदाहरण देता हूँ। मेरी (नौकरी वाला) पद भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर का है। मेरे एक बाॅस जो ब्राह्मण थे, मुझे दिन में कम से कम तीन या चार बार अपनी उच्च बुद्धिमŸाा और वाक्पटुता के ज़रिए इशारों-इशारों में यह जता देते थे कि मैं कुछ भी हो जाऊँ किन्तु उनकी कुलीनता के नीचे ही हूँ। कभी वे अपने नौकर की कहानी बनाकर, कभी बनिहार की, कभी अपने सहपाठी की, यही दर्शाते थे कि कुछ भी हो मैं ब्राह्मण हूँ और आप गै़र-ब्राह्मण हैं। तो इसी तरह के सतही स्तर पर भेद-भाव मिटने का भ्रम फैलाया गया है। भौतिक-छुआछूत ने अब मानसिक-छुआछूत का रूप ले लिया है। अब तो लगी हुई चोट का दर्द अरसे बाद पता चलता है, जब कि डैमेज-रिपेयर के सभी रास्ते बन्द हो गये रहते हैं।

 एक प्रश्न उठाया गया है (संचालक की ओर स)े कि पिछले दिन के वक्तव्य में डा॰ काली चरन स्नेही’ (विभागाध्यक्ष, हिन्दी, लखउऊ विश्व विद्यालय, लखनऊ) द्वारा अपने संबोधन में यह कहा गया कि जो दलित तिवारी जी, शुक्ला जी, मिश्रा जी, चैबे जी के इर्द-गिर्द ही पिछलग्गू बनकर रहेंगे उन दलितों के सुधरने की क्या आशा की जाय? यही नहीं श्री स्नेही ने अपने वक्तव्य के बाद पूछे गये प्रश्नों का उŸार देने से भी कथित रूप से इंकार कर दिया था। इस बारे में यही कहा जा सकता है कि वक्ता स्नेही जी ने ब्राह्मणी जंजाल में दलित के फँस जाने की अपनी आशंका के कारण ही शायद ऐसा कहा होगा। अभी भी दलित के पास उस तरह की षड्यंत्रवोधक बुद्धि शायद नहीं है। उसके भोलेपन के कारण उसके ठगे जाने की संभावना कहीं अधिक रहती है। चूँकि ब्राह्मण हमेशा इसी प्रकार की बुद्धि का परिचालन एवं संस्करण करता रहा है अतः यह सम्भव है कि उसके पास जाने पर या रहने पर दलित स्वयं उसका शिकार हो जाए और उसका प्रतिरोधक स्वर आत्महंता बन जाय। इस तरह की नसीहत के पीछे यही उद्देश्य दिखाई देता है कि दलित-चिन्तक-विचारक भी इस सच्चाई को पूरी शिद्दत से स्वीकार करें।

 यह विज्ञान का सिद्धान्त है कि उच्च विभव से वोल्टेज नीचे विभव वाली वस्तु में जाता है, या उँची टंकी का पानी निचली सतह की टंकी में जाता है। चूँकि छल-छद्म विद्या में शूद्र-दलित बिल्कुल कोरा काग़ज है। ब्राह्मण के पास तो छल-बुद्धि है। अब चाहे वह इसे भले के लिए इस्तेमाल करे या बुरे के लिए। इस प्रकार दलित-शूद्र जब ब्राह्मणी संगत में पड़ता है तो वह उसी ब्राह्मणी बुराई का शिकार होने के लिए ज़्यादा संवेदनशील  ;ैनबमचजपइसमद्ध हो जाता है। उसकी रोधक क्षमता को आक्रामकता की उच्च क्षमता के सामने पंगु होने का ख़तरा रहता है। इसी कारण सावधानी के लिए आगाह किया होगा। दलित-शोषित यदि बल-बुद्धि में ज्यादा मज़बूत हो जाएगा तो उसके पास बुऱाइयों के आक्रमण से बचने की प्रतिरोधकता भी पैदा हो जाएगी। यह स्वयं को बुलंद करने का मामला है। दलित के लिए यही चुनौती है कि वह अपने को बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से प्रबलतर करे तथा देने वाला बने, माँगने वाला नहीं। आप जब तक माँगने वाले बने रहोगे, तब तक आपको निन्दा-प्रतारणा झेलनी पड़ेगी। सशक्तीकरण में ही प्रतिरोध की शक्ति भी निहित होती है। 

 संचालक ने जिन दो मुद्दों पर प्रश्न उठाए हैं तथा उनका उŸार चाहा है, वे हैं - 

पहला प्रश्न -

यह कि श्एक तरफ तो आपने बुद्ध को मनुष्य कहा तथा अपने पूरे वक्तव्य में पाँच से सात बार भगवान भी कहा, यह विरोधाभाष क्यों ? आपने बुद्ध के बचाव में कहा कि आखि़रकार बुद्ध भी मनुष्य ही थे।श्

दूसरा प्रश्न -

श्आपने कहा कि ब्राह्मणों के पास बुद्धि तो होती ही है फिर वे इसे अच्छी ओर लगावें या बुरी ओर, यह उनका अपना मामला है। दूसरी तरफ़ आपने ब्राह्मणों को, बुरा ही बुरा कहा जिससे किसी भी ब्राह्मण को बुरा क्यों नहीं लगेगा!श्

इन प्रश्नों का पैदा होना स्वाभाविक है। हाँ, विश्वविद्यालय के तथा-कथित विद्वानों द्वारा उठे पहले प्रश्न पर आश्चर्य अवश्य होता है। वर्तमान भारतीय वातावरण में ईश्वर, भगवान, आत्मा, परमात्मा, महात्मा, अवतार आदि शब्दों के अर्थ और अभिधारणा को एक सोची समझी रणनीति के तहत इतना भ्रामक और गड्ड-मड्ड किया गया है कि यहाँ विद्वानों, प्रोफेसरों, आचार्यों, शोधार्थियों की भीड़ में भी इनके सही अर्थ या भाव को तलाशना कठिन है। यदि मैं हिन्दू मिथकों की भी बात लूँ तो वहाँ भी ईश्वर संसार का सृजनकर्ता है। भगवान तो कई हंै। जिसमें कुछ पूर्व निर्धारित आचरण-शुचिता, पराक्रम और विवकेशीलता हो, वही भगवान हो सकता है। आत्मा या आत्मन, परमात्मा या परमात्मन के अर्थ भी जीव-जगत के बोध तथा परम-सŸाा बोध से हैं। स्पष्ट है कि ईश्वर और भगवान में बहुत बड़ा फ़र्क है। इसी क्रम में बुद्ध को मनुष्य से भगवान बन जाने को समझा जाना चाहिए -

भग्ग रागो - भाग दोसो भग्ग मोहो अनासवो
भग्गस्य पापका धम्मा भगवा तेन पउच्चति (बुद्ध चरित ले॰ अश्वघोष)

अर्थात् जिसने अपने भीतर के राग-द्वेष को भग्न कर दिया हो, चकनाचूर कर दिया हो, वही भगवान है। कोई भी मनुष्य इस बुद्धत्व के ज़रिए भगवान बन सकता है। इसीलिए मैंने बुद्ध को भगवान कहा और मनुष्य भी कहा। किसी भी भगवान को बनने-बनाने की पहली शर्त ही है कि वह मनुष्य हो। कोई परा-प्राकृतिक ईश्वर, जिसे किसी ने देखा भी नहीं वह ईश्वर हो सकता है भगवान नहीं हो सकता। भगवान राजनीश की पुस्तक श्मैं अपने को भगवान क्यों कहता हूँश् कृपया आप पढ़ें। इससे भी बहुत से भ्रम-धारणाएँ शायद ख़त्म हो जायेंगी। ब्राह्मणवाद ने ही बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार बताकर पूरे आन्दोलन को ही हाईजैक कर लेने की कोशिश किया।  इतना गोलमाल दुनिया के किसी भी अन्य इतिहास ने शायद नहीं देखा होगा। बच्चों को स्कूलों में यही दुुविधा का इतिहास रटाया जाता है। आज हमारी बातों को सुनकर लोगों को ऐसा लगता है, जैसे वे किसी सिरफिरे की बात सुन रहे हैं।  इस प्रकार इतिहास, संस्कृति, साहित्य को शामिल-गमला कर दिया गया है। सही-ग़लत का निर्णय करने के लिए विवेक के साथ बड़ी हिम्मत चाहिए। तर्क को भी अंध-भक्ति और आस्था के नीचे दबा दिया गया है। न तराजू रहेगा न तौल होगी। दाम बस कूतेगें और मनमाफि़क सौदा होगा। यही इन भ्रमधारणाओं के प्रचार-प्रसार के पीछे है।

 दूसरे प्रश्न का उŸार देते हुए मैं यह कहूँगा कि सच को सच कहने में यदि किसी को बुरा लगता है तो उन्हें खुश रखने के लिए झूठ बोलना तो उचित नहीं कहा जाएगा। आज तक सच का गला भी इन्हीं चाटुकार-चापलूस जमातों ने घोटा है। यदि खरा-खरा सच नहीं सुनना हो तो दलित-विमर्श नामक नाटक को बन्द किया जाना चाहिए। सदियों से व्यवहार में घृणा और अनाचार करने वाले लोग अब अपनी करतूत को कान से सुनना भी गवारा नहीं कर रहे, प्रायश्चित तो दूर की बात है। अपनी करतूतों के उजाग़र होेने से उन्हें असुविधा ज़रूर हो रही होगी किन्तु इसे गाली तो न समझा जाए।

 मैंने यह ज़रूर कहा कि ब्राह्मण पराया माल खाकर बैठा-बैठा केवल दिमाग़ी ख़ुराफ़ात ही करता रहा है। इसलिए इस मामले में उसका दिमाग तेज़ है। दलित उसके पास कितनी भी सावधानी से रहे, उसकी कुटिल-नीति का शिकार होने को अभिशप्त है। इसीलिए इस छल-कपट के निरोध हेतु भी उन चालाकि़यों से बढ़कर दिमाग विकसित करना होगा। यदि दलित बुद्धिवादी होकर अपनी समझदारी एवं विवेक को उनसे ऊँचा उठा लेता है तब उसे डरने की ज़रूरत नहीं होगी बल्कि उससे वंचक स्वयं ही डरेगा। हर मोर्चे पर, हर तरह सशक्त और बुद्धिवादी होना सबसे पहली ज़रूरत है। इसके बिना दलित उद्धार असंभव है। देने वाला अपनी मर्जी से देता है; माँगने वाले की मर्जी नहीं चलती, इसलिये मांगनेवाला नहीं बनना है।  बौद्धिक सशक्तीकरण ही इसकी कुंजी है। इसीलिए अम्बेडकरवाद, कबीरवाद या बुद्धवाद की पहली सीख है कि आप प्रज्ञावान बनो। बिना प्रज्ञा के प्रकाश के आप अँधेरे में भटकते हुए सही-गलत की पहचान नहीं कर सकते।

 आपने ब्राह्मणवाद पर मेरी ख़री बातों को बुरा समझा तथा बताया कि मैंने ब्राह्मण को विद्वान तो माना है। हाँ ब्राह्मण को मैं बुद्धिमान तो नहीं हाँ वेदवान ( वेद वाला/वेद मानने वाला/ वेद जानने वाला) ज़रूर समझा है। जो वेदों का ज्ञाता है, उसकी लोक-कल्याणकारी बुद्धि का आकलन आप स्वयं करें। जहाँ वेदों में शत्रुओं के नाश की2, बरसात होने की3, कृषि अच्छी होने की4, गायों को दूध देने वाली होने5 की प्रार्थनाएँ हैं जिनमें अपनी स्वार्थ-परक चाहत एवं लोक-अमंगल की पराकाष्ठा है। लोग चाहें तो वेद पढ़कर तस़दीक कर लें। सबसे पुराने ऋग्वेद के छः मंडल ही प्रामाणिक जान पड़ते हैं उसमें भी प्रथम मंडल को छोड़कर। तो प्रश्न यह उठता है कि यदि वेदों में दुनिया का सारा ज्ञान भरा पड़ा है तो यह वेदवान (ब्राह्मण) जो अपने को बुद्धिमान भी मानता है, आज तक समाज के लिए उसका सकरात्मक योगदान क्या है ? सारे वैज्ञानिक अविष्कारक केवल अमरीका, यूरोप, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इंगलैण्ड, जापान में ही क्यों हुए ? हमारे विद्वान कहाँ व्यस्त थे ? पिछले ढाई हज़ार साल का इतिहास देखें तो बात समझ में आ जाएगी कि ज्ञान के ठेकेदारों के द्वारा नकारात्मक-वंचक व्यवस्था के अलावा और क्या ख़ोज की गयी ? धर्म में, दर्शन में, विज्ञान में, कृषि में, उत्पादन में इनका क्या योगदान रहा है ? अपकृत और अपहृत धर्म-कर्म पर आधारित यह व्यवस्था सच्चे आँकड़ों के द्वारा भेद खुलने पर शर्मशार होने की जगह उलटे आक्रामक हो रही है। यही इसकी प्रकृति भी है। आज पुरातत्वविदों ने तो साबुत भौतिक वस्तुओं को दुनिया के सामने ला पटका है जिसे विज्ञान ने भी स्वीकार करते हुए समय की विभिन्न श्रेणियों में क्रम बद्ध कर रख दिया है। ऐसे सच ने झूठे इतिहास को नेस्तानाबूद कर दिया हैं। हड़प्पाई संस्कृति या सैन्धव-सभ्यता का शतांश भी आर्य-सभ्यता या ब्राह्मण-विद्वŸाा ने यदि स्वयं में पैदा किया होता तो भी मानते इनकी बुद्धि का लोहा। लेकिन नहीं, बस दूसरों का अन्न चाहिए, दूसरों का वस्त्र चाहिए, दूसरों की स्त्री चाहिए, दूसरों का धन चाहिए, दूसरों का घर चाहिए और दूसरों को गुलाम बनाने की स्वतंत्रता चाहिए - बस यही इनकी खोज है, इतनी ही समझ है। दूसरों की चीज़ों पर अपना ट्रेडमार्क लगाना, दूसरे का रैपर बदलना इनकी फितरत है। ऐसे में इतिहास और साक्ष्य के अन्य माध्यमों की शुद्धता किस प्रकार निरपेक्ष एवं खाँटी सच मानी जा सकती है। आज के पाँच हजार साल पहले हमने लोथल गुजरात में पŸान के जल-स्तर नियंत्रण वाला तकनीक बन्दरगाह बना रखा था, ऊँचे कामोडवाले शौचालय जिनमें चमकदार तथा जोड़ विहीन(ज्वांटलेस) दिखने वाली टाइल्स का काम सामने रखा, सोने चाँदी की महीन कारीगरी रखी, अपनी स्वतंत्र लिपि रखी, अपना योग-दर्शन रखा। हमारी वह विरासत एकाएक कहाँ लुप्त हो गयी ? ऐसी सभ्यता को नष्ट करने वाले क्यों फिर से उसका शतांश भी विकसित नहीं कर पाए? तो इसे कौन सी मनीषा-विवेक और वैज्ञानिक-बुद्धि की मिसाल माना जाय? ऐसा शायद इसीलिए है कि सारा ध्यान, सारा विवेक, सारा प्रयास, सारा प्रय़ोजन, केवल दूसरों को विनष्ट करके उनकी धन-सम्पŸिा लूटने तक ही सीमित थी। यह नकारात्मक बुद्धि भारतीय इतिहास-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, व्यापार-शिल्प में कोई पहल करनी तो दूर अनुसरण करके भी एक उच्च संस्कृति को आगे नहीं ले जा सकी, वरन उसे दफ़्न करने का ही यत्न किया। उनकी भाषा, उनका शिल्प, उनका योग, उनके तीज त्योहारों पर अपने मिथकों का ट्रेड मार्क चढ़ाकर उन्हें अपमानित करने की कथाएँ गढ़ लीं गईं। स्पष्ट है कि इस अप संस्कृति ने विद्वŸाा का इस्तेमाल निर्माण-निर्णय के लिए कभी भी नहीं किया। हमेशा विघ्वंश करने में ही ख़ुद को खपाया। ऐसी विनाशक षड्यंत्रकारी चाल को यदि बुद्धिमŸाा कहेंगे तो अवश्य ही बुद्ध को बुद्धू या बुद्ध के अनुयाइयों-प्रसंशकों को बुद्धू कहना उनकी अपनी धारणा और परिभाषा के मुताबिक ही है। केवल बुद्ध विहार और बुद्ध से सम्बन्धित अवशेषों को ही निन्दित नहीं किया गया बल्कि एक ऐसे प्रदेेश को जहाँ बुद्ध ने सबसे अधिक प्रचार-प्रसार का कार्य किया, वहाँ के निवासियों को बुद्धू कहकर बुद्ध का अर्थ ही उलट दिया गया। वह सिर मुँड़ाने की बौद्ध परम्परा को मृत्यु बाद ष्मुण्डनष् कराने की प्रथा चलाकर सिर मुड़ाने वाले बौद्ध अनुयायियों को लज्जित करने का उपक्रम किया। गया में बुद्ध की ज्ञान-स्थली को ष्पिण्डपातष् पाने वाले भिक्खुओं की तेजस्विता की हँसी और माखौल उड़ाकर वहाँ मृत आत्मा की तृप्ति के लिए ष्पिण्ड-दानष् नाम के कर्मकाण्ड की रचना की। ऐसे हज़ारों-लाखों उदाहरण जीवन की हर साँस में मौजूद हंै, जहाँ पर विनाशक प्रयत्नों के अलावा निर्माण के चिन्ह नहीं मिलते। ऐसी घृणा, बँटवारे और ऊँच-नीच के ख़ानों में क़ैद लोगों के अलग-थलग समुदायों में कभी भी राष्ट्रीयता की भावना मजबूती से नहीं उभर पायी न उभर सकती है। यहाँ न तो एक धर्म है, न एक नस्ल है, न एक जाति है, न एक सामाजिकता है, नहीं एक शिल्प है, न तो एक भाषा है। इतने विभाजनों में एकता को मज़बूत करना साँपों को गट्ठर में बाँधकर तराजू में तौलने जैसा जटिल काम है। आज तक हमने भाषा के मामले में भी अलगाव को ही प्रश्रय दिया है। यदि तमिल, तेलगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी भाषाओं के बोलने वाले द्रविड़-संस्कृति के वाहक लोग हिन्दी-संस्कृत को अपनाने से परहेज कर रहे हैं या विरोध कर रहे हैं तो इसके पीछे भी भाषाई ब्राह्मणीकरण ही जिम्मेदार है। यदि हम भारत की एकता और राष्ट्रीयता को मजबूत करने के प्रति ईमानदार हैं तो हमें सबको साथ लेकर चलना ही होगा। अपने पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देकर; यदि राजभाषा के रूप में हम दक्षिण भारतीय भाषाओं तथा अन्य भाषाओं के शब्दों, मुहावरों को शामिल करें तो किसे आपŸिा हो सकती है?  यदि राष्ट्र में सबकी भागीदारी और राष्ट्रीयता में सबकी ईमानदार भागीदारी चाहते हैं तो हमें खुले मन से सबकी भाषाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित करनी होगी। एक मज़बूत और अखंड भारत बनाने और इसे बनाये रखने की यह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। सभी भारतीय बनकर अपनी भिन्न-भाषा संस्कृति के पूर्वाग्रहों को त्यागंे तथा कम से कम समान भाषा पर संवैधानिक स्वीकृति को लोक-स्वीकृति में बदलकर एक ही देश के वासियों का आपस में विदेशीपन और अजनबीयत छुड़ाकर संवाद स्थापित करने का, मेल-जोल करने का मार्ग प्रशस्त करें। यही राष्ट्र के हित में है और यही सबके हित में है। इस प्रकार के मनन-चिन्तन को कार्य-रूप देने की नज़ीर कबीर से इतर कहाँ मिल सकती है। कबीर केवल दलित प्रतिरोध का ही ओजस्वी स्वर नहीं है बल्कि राष्ट्रीय एकता की जागृति का नाम है। 

शौके दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर।।
भवत्तु सब्ब मंगलङ् !!
ऐसा ही हो।

(बी॰आर॰विप्लवी)
अपर मंडल रेल प्रबंधक
पूर्व मध्य रेल, मुगलसराय

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राय की राय: बेहतर सम्मान के हकदार होमगार्ड


फरवरी या मार्च 1977 की किसी दोपहर, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर में दिन अभी न तो पूरी तरह से गरम हुआ था और न ही पठारी चट्टानों की ठंड हाड़ कंपा रही थी। पर इस फगुनाहट में एक खास तरह की सनसनी घुली हुई थी। आपातकाल खत्म हुआ ही था और देश में आजादी के बाद के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव होने जा रहे थे। मेरे जीवन का भी यह एक दुर्लभ अनुभव था। पहली बार किसी चुनाव में मैं एक पुलिस अधिकारी की हैसियत से ड्यूटी दे रहा था। कुछ तो अपरिपक्वता और कुछ जवानी का जोश कि पुराने शहर की गलियों में मैं घिर गया। आपातकाल के बंधनों से ताजा-ताजा मुक्त हुई। जनता हर तरह के बंधनों को तोड़ने पर आमादा थी और ऐसी ही किसी स्थिति में मैं अपनी टुकड़ी के साथ पतली-सी गली में ईंट-पत्थरों की बौछार के बीच में था। ऐसे समय में, जब साथियों के हौसले पस्त नजर आ रहे थे और सभी उपलब्ध आड़ के पीछे छिपकर खुद को चोटिल होने से बचा रहे थे, मैंने देखा कि हमारी टुकड़ी में से चार-पांच लठैत लड़के निकले और बलवाइयों से भिड़ गए। ढीली-ढाली वर्दी और कई तो जूतों की जगह चप्पलों में थे। ये किसानों के बेटे थे और उन्हीं की तरह निपुणता से लाठियां भांज रहे थे। जल्द ही उन्होंने शहरी उद्दंडता को शिकस्त दे दी।
यह होमगार्ड से मेरा पहला पेशेवर परिचय था। अगले तीन दशकों से अधिक इन्हें करीब से देखने और इनके साथ काम करने का मौका मुझे मिला। अभी जब अखबारों में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 25,000 होमगार्डों को नौकरी से निकाले जाने की खबरें पढ़ीं, तो मिर्जापुर जैसे कई प्रसंग याद आ गए। अनगिनत मेलों-ठेलों, चुनावों या ट्रैफिक नियंत्रण में मैंने इनका इस्तेमाल किया है और हर बार इनकी उपस्थिति किसी करुण सिंफनी की तरह लगी है। दिहाड़ी मजदूरी के बराबर वेतन, मौसम के लिहाज से अपर्याप्त वर्दी, थकाऊ  ड्यूटी के बाद खाने-पीने या आराम की व्यवस्था का अभाव और बाज वक्त तो पुलिस वालों के बंधुआ मजदूर होने का भ्रम- गरज यह कि जितने महत्वपूर्ण रोल की अपेक्षा पुलिस विभाग और समाज उनसे करता है, उसके लिए अपेक्षित सुविधाओं का शतांश भी उन्हें नहीं मिलता। कुल मिलाकर, अपनी दयनीय उपस्थिति में कभी-कभार ही मीडिया का ध्यान आकर्षित करने वाले इस संगठन पर अचानक सभी की नजर गई, जब सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय उनके दैनिक भत्ते बढ़ाने का आया और उसके बाद यूपी सरकार ने उनकी संख्या 25,000 घटाने का फैसला किया। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए संगठन के इतिहास पर एक सरसरी नजर डालना उचित होगा।
दूसरे महायुद्ध के समय ब्रिटिश समाज ने काफी बड़ी संख्या में गृहरक्षकों की फौज खड़ी कर दी थी। थोड़ी-बहुत फौजी ट्रेनिंग प्राप्त यह विभिन्न नागरिक क्षेत्रों से आए ऐसे लोगों का समूह था, जिन्होंने युद्ध के दौरान नागरिकों को आसन्न हवाई हमलों की चेतावनी देने, घायलों को प्राथमिक सुविधाएं प्रदान करने, ट्रैफिक संचालन में पुलिस की मदद करने या महत्वपूर्ण इमारतों, पुलों आदि की सुरक्षा जैसे बहुत से काम किए। भारत में सबसे पहले 1946 में बंबई प्रांत के तत्कालीन प्रीमियर (आज के मुख्यमंत्री) मोरारजी देसाई ने एक छोटे स्तर पर इसका प्रयोग किया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक राष्ट्रीय संगठन के रूप में इसकी परिकल्पना की गई। भारत सरकार ने नागरिक सुरक्षा और होमगार्र्ड का एक अलग निदेशालय बनाया और राज्य सरकारों को आर्थिक मदद की कि वे भी अपने यहां इसी तरह के संगठन खड़े करें। इनके पीछे योजना यह थी कि नागरिकों के बीच 18 से 50 वर्ष आयु के सुरक्षित स्वयंसेवकों की एक ऐसी फौज हर समय उपलब्ध हों, जिन्हें युद्ध, प्राकृतिक आपदा, मेलों जैसे मौकों पर पुलिस के सहयोग के वास्ते अल्प अवधि के लिए बुलाया जा सके। आजकल इनका इस्तेमाल सबसे अधिक चुनावों या परीक्षाओं के संचालन में किया जा रहा है। साल में एक छोटे से प्रशिक्षण कार्यक्रम के अतिरिक्त उनका अपने संगठन से कोई खास संबंध नहीं रहता और अलग-अलग रोजगार से जुडे़ रहकर ये अपना जीवन यापन करते हैं।
विकीपीडिया के अनुसार, देश में इस समय होमगार्ड की कुल स्वीकृत संख्या 5,73,793 है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या एक लाख के आस-पास बैठती है। जिन वर्षों में चुनाव नहीं होता, उन्हें छोड़कर शायद ही कभी एक होमगार्ड को दो-तीन महीने से अधिक की ड्यूटी मिलती है। हाल तक उन्हें 500 रुपये प्रतिदिन का भत्ता मिलता था, अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, 672 रुपये मिलेंगे। यूपी सरकार बजट की उपलब्धता के अनुसार प्रदेश के 25,000 होमगाड्र्स की सेवाएं खत्म करने की बात कही। यह भ्रम पैदा करने वाला निर्णय था। वे कोई नियमित सरकारी कर्मचारी तो थे नहीं कि उनकी सेवाएं समाप्त करने जैसा कदम उठाने की जरूरत थी। हर होमगार्ड को मिलने वाली ड्यूटी में इस प्रकार कटौती की जा सकती थी कि निर्धारित बजट में ही सबकी सेवाएं बची रहतीं। आलोचना झेलने के बाद सरकार ने यही किया भी।
वैसे इस कटौती की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए थी। उत्तर प्रदेश पुलिस में हर समय 25,000 से ज्यादा रिक्तियां रहती हैं। होमगार्ड तो पुलिस के सहायक के रूप में ही काम आते हैं और बड़े आराम से इन्हें पुलिस की रिक्तियों के सापेक्ष खपाया जा सकता है। बेहतर प्रशिक्षण और संसाधनों के साथ होमगार्ड एक अत्यंत उपयोगी मशीनरी में तब्दील हो सकते हैं। आज जब सरकारों में नागरिकों के दरवाजे तक सुविधाएं पहुंचाने की होड़ लगी है, होमगार्ड एक अच्छे संवाहक बन सकते हैं। दुर्भाग्य से वे ज्यादातर भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के चंगुल में फंसे रहे हैं और जिस पुलिस के साथ वे सड़कों पर दिखते हैं, उसके लिए भी इनकी हैसियत बंधुआ मजदूर जैसी रही है। इन स्थितियों में स्वाभाविक रूप से पहली क्षति उनके आत्म-सम्मान की होती है। इसका सीधा असर उनके काम पर पड़ता है। यदि सरकारें पारदर्शी तरीकों से भर्ती किए गए होमगार्ड को बेहतर प्रशिक्षण और संसाधन मुहैया कराएं, तो वे समाज के लिए बड़ी पूंजी बन सकते हैं। तभी वह लक्ष्य भी हासिल हो सकेगा, जिसे ध्यान में रखकर 1962 में इस संगठन की परिकल्पना की गई थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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