बुधवार, 16 नवंबर 2022

भारत जोड़ो यात्रा : श्री राहुल गांधी

 



भारत जोड़ो यात्रा : श्री राहुल गांधी 

(इस आलेख के लिखने के पीछे मेरे उस चित्र का बहुत योगदान है जिसको मैंने यहां पर संलग्न किया है जब मैं इस तरह का स्केच कर रहा था तो एक आकृति के पीछे और उसके आगे के संदर्भ मुझे द्रवित कर दिए और शब्दों के माध्यम से जो बन पड़ा उसे तो लिखा ही हूं लेकिन चित्र में अंतर्निहित भाव निश्चित रूप से शब्दों के माध्यम से नहीं व्यक्त हो सकते)

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आज मैं राहुल गांधी को इलस्ट्रेट कर रहा था जिसमें उनकी भारत यात्रा की पोजीशन और उनके पीछे खड़े उनकी नानी माननीय श्रीमती इंदिरा गांधी जी और उनके आगे उन्हें लाड और प्यार से दुलारते हुए उनके पिता माननीय राजीव गांधी जी जो अपनी मां की हत्या के उपरांत देश के प्रधानमंत्री बने थे और दक्षिण भारत में उनके साथ इतना बड़ा हादसा हुआ था। जिसमें उनकी जान चली गयी थी। 

राहुल जी दक्षिण भारत के केरल से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं। स्वाभाविक है कि इस विचार के पीछे कांग्रेस का  देश के शासन और आजादी का एक लंबा इतिहास है। तब जरूरी है कि हम सब लोग इस को गंभीरता से लें और इस पर अपने अपने तरह से काम करने की कोशिश करें। हमारे बहुत सारे साथी इस यात्रा में शरीक हैं और समय पर मुझे भी इस यात्रा में जुड़ना है।

यकायक मेरे मन में आया की राहुल के पिताजी को मैंने देखा था ऐसा व्यक्तित्व जो निहायत सरल और सादगी से भरा हुआ जिसको भारत की चिंता थी और उन्होंने न जाने कितने आधुनिक वैज्ञानिकों की मदद से भारत को आधुनिक बनाने का सपना देखा था। वहीं पर श्रीमती इंदिरा गांधी ने तमाम पूंजीपतियों को राष्ट्र से जोड़ करके देखा था और तमाम संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण करके एक मजबूत भारत बनाने का काम किया था। आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए पूरी दुनिया के सामने श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने यह साबित किया था कि एक महिला देश को कितने सशक्त तरीके से चला सकती है। उनका संबल भी राहुल गांधी के साथ है और एक ऐसे पिता का लॉड और प्यार भी जो उन्हें बचपन में छोड़कर चला गया हो।

सारे संसाधनों के बाद पिता का जो प्रेम और संरक्षण एक पुत्र के लिए जरूरी होता है, जब उस पर हम गौर करते हैं तब समझ में आता है कि यह कितना बड़ा संकट का दौर होता है। यह सवाल इसलिए भी खड़ा होता है कि एक देश जहां माता-पिता और परिवार का स्थान हमेशा सम्माननीय होता है और उसके अच्छे रास्ते पर चलने की सीख हर व्यक्ति को मिलती है जो उसके भविष्य की दिशा तय करता है। स्वाभाविक है इन हादसों के पीछे गांधी परिवार में राहुल जी की मां श्रीमती सोनिया गांधी जब निहायत अकेली हो गयी थीं उनका जिस तरह का सम्मान और विरोध राष्ट्र में खड़ा किया गया था वह किसी से छुपा नहीं था। वहीं से एक षडयंत्र की शुरुआत दिखाई देने लगी थी। जो लोग देश को आज विश्व गुरु बनाने की बात करते हैं उन लोगों ने उस परिवार के एक ऐसे बालक को जिसके पिता राष्ट्र की सेवा करते हुए शहीद हो गए हो और उनकी मां जिनको इस देश की माटी के गंध की वह खुशबू श्रीमती इंदिरा गांधी की पुत्र वधू होने के नाते मिली हुई हो पर अपार संकट का बादल घेर लेता है। जिसपर विदेशी का फतवा देने वाले यही लोग थे। ऐसे में उनके दोनों बच्चे छोटे थे जो तत्कालीन राजनीति को, शिक्षा को, समाज को, धर्म को, व्यापार को समझने की प्रक्रिया में थे। ऐसे में उनके ऊपर से पिता का साया टूट गया था पूरा देश इस घड़ी में इस परिवार को बहुत ही उदारता से देख रहा था। और यही कारण था कि इनकी पार्टी को देश ने सिर आंखों पर बैठाया और ऐसे में संरक्षण मिला देश के ही नहीं दुयि में जाने जाने वाले बहुत ही बुद्धिमान और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री मां.मनमोहन सिंह जी का जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में देश को ही नहीं इस परिवार को भी संरक्षित करने का कार्य किया।

लेकिन इसी बीच उन लोगों की दृष्टि जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है इस परिवार के बड़े होते हुए पुत्र पर गई जो उनकी आंखों का कांटा ही बनने वाला था। उन्हे यह समय उपयुक्त लगा और यह प्रौढ़ होते उससे पहले ही उन्होंने इनकी छवि धूमिल करने के प्रचार प्रसार में अपार धन झोंक कर इतने षड्यंत्र किए कि एकदम से कैसे इन्हें पप्पू घोषित करके एक ऐसी इमेज बना दी जाय जिससे लोग यह मानने लगे कि यह सचमुच में पप्पू ही हैं।

यहां पर यह विचारणीय है कि समाज सदियों से पाखंड और अंधविश्वास के माध्यम से तमाम तरह के प्रतीक गढ़ता आया है और प्रतीक स्वयं कहीं पर अपने को उच्चारित नहीं करता बल्कि उसकी छवि ही उसकी पहचान होती है। अब सवाल यह भी है कि जिस छवि को राष्ट्र के ऐसे संगठन ने गढ़ने का पूरा प्रयास किया था। उसके बारे में सर्वविदित है जो हमेशा विवाद में रहा हो ? देश की आजादी में, गांधी जी की हत्या में और संविधान के प्रति उसकी निष्ठा और नियति में पूरे देश ने कभी विश्वास ही नहीं किया था। वह जुमले और झूठ के माध्यम से अपने को राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का दल साबित करने का जिस तरह का प्रचार प्रसार किया और उसके परिणाम विगत 8 वर्षों में देश के सामने हैं। जिस गति से शिक्षा, विज्ञान, स्वास्थ्य, राजनीति, अर्थ, जो विकास की ओर अग्रसर थे सबको उन्होंने अपने पूंजीपतियों को पहाड़ की तरह उनके ऊपर थोप करके पूरे देश की व्यवस्था को चकनाचूर कर दिया है। न जाने कितने ऐसे भक्त उन्होंने गढ़े, जो अब अवैज्ञानिक और अज्ञानी तौर तरीकों से नंगा नाच करते हुए हजारों हजार दलितों और अल्पसंख्यकों के हत्यारों के रूप में अपने हाथ काले किए हुए हैं। लेकिन उन्हें खुल्लम खुल्ला छूट देकर के जिस व्यवस्था को और आतंक को परोसा गया है उसका दुष्परिणाम आज पूरा देश भोग रहा है।

विपक्ष चुप है प्रदेशों में बहुत सारे नेताओं को सरकारी मशीनरी का उपयोग करके फंसाया जा रहा है और उन्हें जेल तक में डालकर रखा तो जा ही रहा है साथ ही साथ कितने बुद्धिजीवियों पत्रकारों और समाजसेवियों की हत्या की जा चुकी है। जब भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी जानी थी। यही उद्घोष करके जुमलों और आश्वासनों की झड़ी लगाकर जनमानस को गुमराह कर देश की कमान संभालते हुए देश के प्रमुख प्रधान सेवक ने यह उद्घोषणा की थी कि ना खाऊंगा ना खाने दूंगा। आज हालात यह है कि देश की वह हर संस्थाएं जो मुनाफे की हैं वह इनके पूंजीपति मित्रों की संपत्ति हैं। रेल वायुयान और वह सारी संस्थाएं उनके अपने लोगों के झोली में चली गई हैं जो संघ की अवधारणा की पूर्ति करते हैं और देश के चंद पू़ंजीपतियों के कब्जे में हैं।

ऐसे में कांग्रेस पार्टी के तमाम सुविधा भोगी जिनके ऊपर जांच और भ्रष्टाचार के आरोप थे वह सब उनके साथ जाकर पवित्र और हरिशचंद हो गए हैं। ऐसे समय में किसी भी व्यक्ति में उनका विरोध करने का साहस लगभग न के बराबर रह गया है। हां कुछ प्रदेश की सरकारों ने इनके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है जहां-तहां से उनका प्रतिकार हो रहा है। लेकिन केंद्र की सारी संस्थाओं को उन्होंने पंगु बनाकर अपनी उंगलियों पर नचाना आरंभ कर दिया है। यह सब बहुत कम समय में हुआ है।

अब अगर हम राहुल गांधी की बात करें तो निश्चित रूप से भावनात्मक रूप से हमें उनके उद्भव और विकास पर गौर करना होगा ऐसा व्यक्ति जिसके पीछे राजनीति समाज और भारतीय इतिहास का गौरवशाली अतीत मौजूद है का दायित्व और बढ़ जाता है। और इस दायित्व पर जब हम विचार करते हैं तो हमें लगता है कि नेहरू गांधी और राजीव जी की परंपरा जो देश के वैज्ञानिक और वैश्विक विकास में देश को निरंतर आगे ले जाने का प्रयत्न कर रही थी। उस विचारधारा को कैसे इस बाजारू और व्यवसायिक कालाबाजारी के मर्मज्ञ जो गलती से राजनीतिज्ञ बन गए हैं। उन लोगों के हाथ से बाहर लाया जाए। इस पर निरंतर विचार करते हुए भारत जोड़ो यात्रा का संकल्प लेकर हमारे अतीत को बचाने और संविधान की रक्षा के लिए जिस तरह की यात्रा पर राहुल गांधी निकले हैं उस पर हमें नए सिरे से विचार करने की जरूरत है और यही एक रास्ता है जहां से हम इस देश और संविधान को बचा सकते हैं।

मेरे ख्याल से यही कारण है कि देश की वह आवाम जिसे बुद्धिजीवी कहा जाता है वह श्री राहुल गांधी की इस यात्रा में कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ चल रही है और स्वतः स्फूर्त जनमानस इस यात्रा को बहुत सफल यात्रा के रूप में आगे ले जाने का काम कर रहा है। अब तो तमाम सोशल मीडिया की बहस में भी यह बात निकलकर आगे आने लगी है कि इस समय जो लोग देश की सत्ता पर बैठे हुए हैं। उनमें बेचैनी बढ़ गई है और पिछले दिनों हमने देखा कि प्रधान सेवक और उनके मुख्य साथी किस तरह से प्रदेशों में अपने को यह साबित करने में भी नाकाम हो रहे हैं कि उन्होंने जनहित का कोई काम किया है। कहते हैं कि काठ की हंड़िया बार-बार नहीं चढ़ा करती। इसी तरह से अब इनके जुमलेबाजी से जनता वाकिफ हो गई है और देश के प्रधानमंत्री जैसे व्यक्ति को वह संदेह की नजर से देखने लगी है। जिसकी बातों का कोई भरोसा नहीं, विश्वास नहीं और कह क्या रहा है करेगा क्या ऐसे ही व्यक्तियों के लिए हमारे यहां कहावत है मुंह में राम बगल में छुरी। ऐसे आचरण करते हुए जब देश बर्बाद करने की पूरी साजिश जिनके मन में बैठी हुई हो और यह अपने उस राष्ट्रवादी संगठन जिसका राष्ट्र निर्माण में कोई योगदान नहीं है कि सौंवी वर्षगांठ मनाने का सपना संजोए हुए हैं। 2024 में फिर से देश को गुमराह करने की हर योजना पर काम कर रहे हैं।


राहुल गांधी जी भारत जोड़ो यात्रा में इसी बात से लोगों को आगाह कर रहे हैं कि यदि हमारी विचारधारा चली गई तो जिसे हमारे बुजुर्गों ने इस देश को इतना मजबूत एक सुंदर संविधान दिया है न्याय व्यवस्था दी है तमाम ऐसी संस्थाएं दी हैं जिससे देश निरंतर प्रगति कर रहा था। आज उनका दुरुपयोग करके यह अपनी सत्ता को बचाए रखने का षड्यंत्र कर रहे हैं। उन्हें पहचानने की जरूरत है और देश को अपने देश को बचाने के लिए मजबूती के साथ खड़ा होना है।

मैंने बात शुरू की थी अपने स्केच से तो बात वहीं पर खत्म करता हूं चित्र अभिव्यक्ति के सबसे सरल माध्यम होते हैं मैंने इस चित्र के माध्यम से राहुल गांधी के लिए उनके भावनात्मक पृष्ठभूमि पर जो चित्र बनाया है उसमें जो संबल है उनके पास, वो केवल नेहरू का नहीं है इंदिरा और राजीव गांधी के साथ-साथ उनकी मां और उनकी बहन का भी है। जिसके साथ देश की आशाएं जुड़ी हुई हैं। पूरी उम्मीद है कि भारत यात्रा से जो नए राहुल गांधी निकलेंगे वह देश को निराश नहीं करेंगे जब देश उनके साथ मजबूती से खड़ा होगा।

जय हिंद

डॉ लाल रत्नाकर 

(नोट : आज की तारीख में समाजवादी विचारधारा के एक स्तंभ के रूप में कांग्रेस के साथ भी सभी विपक्षी दलों का गठबंधन कई बार हुआ है और जरूरी है कि हमें सजगता के साथ वर्तमान राजनीतिक संकट से निकलने के लिए आगे आना चाहिए।)



मंगलवार, 15 नवंबर 2022

फुले वादी मूलभूत सिद्धांत एवं उनका प्रस्तुति करण ; प्रो. श्रावण देवरे

 फुले वादी मूलभूत सिद्धांत एवं उनका प्रस्तुति करण 

प्रो. श्रावण देवरे 


हम किसी भी आंदोलन पर चर्चा करते हैं तो सर्वप्रथम उस आंदोलन को खड़ा करने वाले व्यक्ति का उल्लेख करते हैं जिसके कारण उस विचारधारा को, आंदोलन को व्यक्तिगत नाम प्राप्त होते हैं। फुले वाद, अंबेडकरवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि नाम पर आंदोलन व विचारधाराएं पहचानी जाती हैं। उसके बाद उस आंदोलन का परिणाम कितना और कैसा? लाभार्थी कौन ? व नुकसान भोगी कौन? और सबसे महत्वपूर्ण आज के समय में उस आंदोलन की उपयोगिता आदि बातें आती हैं।

किसी भी विचारधारा को तत्वज्ञान का दर्जा प्राप्त करने के लिए जिन अनेक कसौटियों से पार पाना होता है उनमें से एक है उनका वैश्वीकरण! मानवीय समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन घटित करके मनुष्य को प्रगति के अगले टप्पे पर ले जाने में सहायक सिद्ध होने वाली विचारधारा को तत्वज्ञान के रूप में समझना चाहिए। इस आधार पर देखें तो पूंजीवादी लोकशाही का तत्वज्ञान भारतीय समाज पर सफलतापूर्वक लागू किया गया गांधीजी का विचार यह गांधीवाद के रूप में जाना जाता है।

वर्ण जाति व्यवस्था के अंत का तर्कसंगत विचार - सिद्धांत प्रस्तुत करके  कुछ हद तक यशस्वी सिद्ध करनेवाला फुले विचार फुले वाद व अंबेडकर विचार अंबेडकर वाद के रूप में जाना जाता है।

इस लेख में हम फुले वाद के मूल सिद्धांत क्या हैं और आज के संदर्भ में इनकी उपयोगिता क्या है इस पर विचार करेंगे।

फुले वाद का मुख्य उद्देश्य है --वर्ण जाति व्यवस्था नष्ट करना और उसकी जगह अपेक्षाकृत समतावादी रही पूंजीवादी लोकशाही क्रांति करना।

उसके लिए उन्होंने कुछ मूलभूत सिद्धांत प्रस्तुत किया,उनका पहला मूलभूत सिद्धांत था --

' बलि राजा के पतन के बाद भारतीय इतिहास यह ब्राह्मण - गैर ब्राह्मण के बीच के संघर्ष का इतिहास है।

जिस समय मार्क्स अपनी मार्क्सवादी तत्वज्ञान का पहला सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे उसी समय तात्यासाहेब ज्योतिबा फुले अपने फुले वाद का पहला सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे और उस पर अमल भी कर रहे थे।

मार्क्सवाद का पहला सिद्धांत यह है कि - "प्राथमिक साम्यवादी समाज के पतन के बाद दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।"

इन दोनों सिद्धांतों में इतनी समानता है कि प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि इन दोनों महापुरुषों की भेंट मुलाकात हुई होगी और मिल बैठकर आपस में चर्चा करके ये सभी सिद्धांत तैयार किए होंगे! किन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि मार्क्स व  फुले कभी एक दूसरे से नहीं मिले और कभी एक दूसरे का भाषण भी नहीं सुना, एक दूसरे की पुस्तकें व लेख भी नहीं पढ़े और फिर भी इन दोनों महापुरुषों की विचार प्रक्रिया तंतोतंत जुड़ती है अर्थात मानव समाज का विकास अनेक स्तर व अनेक विधि छटायुक्त होने के बावजूद उसकी दिशा सतत आगे बढ़ने वाली (उर्ध्वगामी) होने के कारण समकालीन विचारधाराओं व तत्वज्ञान में समानता होना स्वाभाविक है।

मार्क्स के सामने वर्ग समाज था इस लिए वह अपने सिद्धांत में वर्गीय संकल्पना प्रस्तुत करता है और तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले के सामने जाति समाज था इसलिए तात्यासाहेब वर्ण जातीय संकल्पना प्रस्तुत करते हैं।

मार्क्स एवं फुले में जो अनेक साम्यता दिखती है उनमें उनके द्वारा रखा गया ऐतिहासिक भौतिकवाद यह एक महत्वपूर्ण तत्वज्ञान का हिस्सा है। मार्क्स ने अपनी सैद्धांतिकी में प्राथमिक साम्यवादी समाज बताया है । यह समाज पूर्णतया वर्गविहीन समतावादी समाज था ऐसा वह कहता है। उसी प्रकार तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले बलि का राज बताते हैं यह बलि का राज्य जातिविहीन व स्त्री -पुरुष समतावादी समाज था ऐसा हमें तात्या साहेब बताते हैं।

मार्क्स को अपना आदर्श माॅडल प्राथमिक साम्यवादी समाज लगता था तो तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले को बलि का राज्य आदर्श माॅडल लगता था।

मार्क्स को अपना सिद्धांत सिद्ध करने के लिए स्वामी विरुद्ध दास , जमींदार विरुद्ध कुल व पूंजीपति विरुद्ध कामगार ऐसे वर्गीय संघर्ष का उदाहरण देते हैं।

तात्या साहेब के सामने वर्ण जातीय समाज होने के कारण उन्होंने बलि राजा विरुद्ध वामन, एकलव्य विरुद्ध द्रोणाचार्य, शंबूक विरुद्ध राम ,कर्ण विरुद्ध परशुराम -अर्जुन जैसे अनेक वर्णजातीय संघर्ष के उदाहरण दिए। तात्या साहेब फुले ने 'गुलामगीरी' ग्रंथ में दशावतारों की  की गई वैज्ञानिक समीक्षा यह वर्ण - जातीय ऐतिहासिक भौतिकवाद का हिस्सा है।

मार्क्स ने जिस तरह मूलभूत शोषण - शासन की व्यवस्था के रूप में वर्ग व्यवस्था बताया उसी प्रकार ज्योतिबा फुले ने मूलभूत शोषण - शासन की व्यवस्था के रूप में वर्ण - जाति व्यवस्था बताया।

मार्क्स द्वारा व्याख्यायित ऐतिहासिक भौतिकवाद यह वर्गीय था तो तात्या साहेब ज्योतिबा फुले द्वारा व्याख्यायित ऐतिहासिक भौतिकवाद यह वर्णीय - जातीय था।

इन दोनों समाज व्यवस्थाओं के विरोध में लड़ेगा कौन?

इसके बारे में भी तात्या साहेब फुले और मार्क्स में कमाल की एक वाक्यता है।

शोषण कारी वर्ग व्यवस्था को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने के लिए वर्ग व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित अर्थात कामगार लड़ेगा, ऐसा मार्क्स कहता है!

वहीं

वर्ण जाति व्यवस्था को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने के लिए  स्त्री - अतिशूद्रों का समाज घटक लड़ेगा, यह तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपने कृत्यों से सिद्ध किया।

तात्या साहेब के क्रांति कार्यों की शुरुआत लड़कियों व अस्पृश्यों के लिए स्कूल खोलने से हुई।

गुरु के इस वर्ण- जाति संघर्षों के सिद्धांत का विकास आगे चलकर शिष्य बाबा साहेब डा अम्बेडकर करते हैं।

डा. बाबा साहेब अंबेडकर की राइटिंग एण्ड स्पीचेस के पांचवें खंड के पेज  112 पर एक चार्ट के माध्यम से बाबा साहेब अपने वर्ण- जाति युद्ध का सिद्धांत समझाते हुए बताते हैं। इस विकसित सिद्धांत के अनुसार बाबा साहेब के विचार से वर्ण- जाति युद्ध में एक शत्रु पक्ष यह ब्राह्मण+क्षत्रिय+वैश्य आदि से निकली जातियां बनी हुई हैं।

इस जाति युद्ध में दूसरे पक्ष का नेतृत्व अस्पृश्य करते हैं और ओबीसी इनका स्वाभाविक मित्र हैं, यह भी बाबा साहेब स्पष्ट करते हैं।

तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले और मार्क्स के बीच धर्म का पोस्टमार्टम यह भी एक समान धागा है।

जिस प्रकार मार्क्स धर्म को अफीम की गोली बताकर ही नहीं रुकता बल्कि धर्म ने भी मानव विकास के विशेष स्तर पर प्रगतिशील भूमिका निभाई है। उसी प्रकार तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले भी धर्म की चीरफाड़ करते समय वर्ण-जाति व्यवस्था के लिए ब्राह्मणी वैदिक धर्म को दोषी ठहराया है किन्तु बौद्ध जैन वगैरह धर्मों को प्रगतिशील माना है।

वर्ग व्यवस्था नष्ट करने के लिए शोषित वर्ग में वर्गीय चेतना का निर्माण होना आवश्यक है यह वर्गीय चेतना इतनी तीव्र होनी चाहिए कि वह वर्ग संघर्ष के लिए प्रवृत्त होनी चाहिए। उसके लिए वर्गीय संगठन खड़े करने पड़ते हैं, रशिया में कामगार संगठनों ने क्रांति किया वहीं चीन में किसान संगठनों ने क्रांति किया।

फुले वाद व मार्क्सवाद यहां एक दूसरे से दूरी बनाते हुए फिर से एकत्र आते हुए दिखाई देते हैं।

जाति व्यवस्था नष्ट करने के लिए शोषित जातियों में जातीय चेतना का निर्माण होना चाहिए परन्तु उसके लिए जातीय संगठन खड़ा करने की आवश्यकता नहीं बल्कि सत्य शोधक समाज जैसे सर्वजातीय संगठन निर्माण करके प्रबोधन के माध्यम से जातीय चेतना का निर्माण करना और उसी माध्यम से जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु प्रेरित करना यह सूत्र फुले वाद का है ।

फिर सड़क के संघर्ष का क्या?


तो इस बारे में फुलेवाद व मार्क्सवाद में फिर से साम्य दिखाई पड़ता है।

रास्ते के संघर्ष के लिए फुले वाद शुद्ध वर्गीय संगठन का मार्ग स्वीकार करता है।

फुले के शिष्य भालेराव किसान संगठन खड़ा करते हैं वे दूसरे फुले शिष्य लोखंडे कामगार संगठन का निर्माण करते हैं। जातीय प्रबोधन और वर्गीय संगठन इन दो अलग अलग माध्यमों से ही जाति अंतक युद्ध लड़ा जा सकता है।

इतना स्पष्ट रूप से तात्या साहेब महात्मा फुले हमें प्रत्यक्ष अपने कृत्यों से बताते हैं।

तात्या साहेब फुले के समय में जाति के पेट में वर्ग का गर्भधारण हो रहा था फिर भी उभरती वर्ग व्यवस्था को ध्यान में रखकर वर्ग आधारित संगठनों का निर्माण करना और उनके माध्यम से जाति अंतक आंदोलन खड़ा करना इसे "महान दूरदृष्टि" के अतिरिक्त कोई दूसरी उपमा नहीं हो सकती।

गुरु के इसी जाति अंतक वर्गीय सिद्धांत का विकास करते हुए 1936 में शिष्य डा. बाबा साहेब अंबेडकर ने "स्वतंत्र मजूर पक्ष" की स्थापना करके की।

परंतु 1944 में इस जाति अंतक वर्गीय सिद्धांत से बाबा साहेब को दूरी बनानी पड़ी। वर्गीय "स्वतंत्र मजूर पक्ष" बर्खास्त करके शुद्ध जाति की नींव पर "शेड्यूल कास्ट फेडरेशन" की स्थापना के द्वारा जाति संगठन का मार्ग स्वीकार करना पड़ा। यहां से अंबेडकर वाद की फसगत शूरू होती है जो आज तक जारी है।

फुले वाद का शैक्षणिक सिद्धांत भी क्रांतिकारी है। तात्या साहेब महात्मा फुले के शिक्षण कार्यों में उनके ब्राह्मण मित्र उनकी मदद करते थे। शूद्रातिशूद्रों के बच्चों को जाति अंतक शिक्षा देनी चाहिए जब महात्मा ज्योतिबा फुले ऐसा कहते थे तो उनके वहीं ब्राह्मण मित्र इस बात का विरोध करते थे। अपने सहयोगी ब्राह्मण मित्रों को फटकारते हुए 'शिक्षण किसलिए? ऐसा प्रश्न तात्या साहेब खुद ही उपस्थित करते थे और स्वयं ही उसका उत्तर देते हुए कहते थे-

"............ मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा था कि उन्हें (शूद्रातिशूद्रों को) ऊंचे दर्जे की शिक्षा देकर उसके द्वारा अपना अच्छा बुरा समझने की शक्ति आए......" ( महात्मा फुले समग्र वांग्मय, महाराष्ट्र राज्य साहित्य व सांस्कृतिक मंडल पृष्ठ 193)

आगे तात्या साहेब स्पष्ट करते हैं कि ऊंचे दर्जे की शिक्षा देकर ब्राह्मणों के पूर्वजों द्वारा अपने ऊपर किए गए अन्याय अत्याचार की जानकारी होगी और उसके खिलाफ संघर्ष करने की प्रेरणा मिलेगी।

सभी सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए 'ब्राह्मणों का कसब (छल-कपट)'  नाम की एक पुस्तिका और दूसरी बळी राज्य पर इस प्रकार की दो पाठ्यक्रम पुस्तिका भी तैयार की थी किन्तु ब्राह्मणों के भय के कारण अंग्रेजों ने इन दोनों पाठ्यपुस्तकों को स्वीकार नहीं किया, ऐसा तात्या साहेब आगे स्पष्ट करते हैं (उपरोक्त पृष्ठ 192)

फुले, अंबेडकर ने प्रत्यक्ष मैदानी संघर्ष जितना किया उससे कई गुना उन्होंने लिखने का काम किया। सांस्कृतिक संघर्ष यह इतिहास के पन्नों पर अधिक लड़ा जाता है। क्योंकि वर्ण जाति अंतक संघर्ष का दूसरा नाम है "सांस्कृतिक युद्ध", इस युद्ध के लिए नई पीढ़ी को तैयार करना है तो उसके लिए स्कूलों कालेजों से वैसा संस्कार देने वाली शिक्षा भी देनी चाहिए।

उसके लिए फुले अंबेडकर द्वारा लिखे ग्रंथ स्कूलों कालेजों के माध्यम से पाठ्यक्रमों के रूप में सिखाना चाहिए। यह काम अंग्रेजों के समय में ब्राह्मणों के भय के कारण नहीं हो सका।

और स्वतंत्रता मिलने के बाद ब्राह्मणों का ही राज्य होने के कारण वह हो ही नहीं सकता।

ऐसी परिस्थिति में हमने 1993-94 में 'फुले अंबेडकर तत्वज्ञान विद्यापीठ ' स्थापित करके यह कार्य शुरू किया।

आजतक 29 वर्षों में इस विद्यापीठ के द्वारा होने वाली परीक्षाओं में पाठ्यक्रम के रूप फुले अंबेडकर के सभी ग्रंथों को लिया गया है। कुछ ग्रंथों पर रिपीट अनेक बार परीक्षा ली गई है, परंतु इस विद्यापीठ को प्रगतिशील आंदोलन का सहयोग आजतक नहीं प्राप्त हो सका है। इस तरह आज के फुले अंबेडकरी विचारक व  फुले अंबेडकरी आंदोलन फुले अंबेडकरवाद से कोसों दूर हैं यह स्पष्ट होता है।

सांस्कृतिक युद्ध का सिद्धांत यह फुले वाद का केन्द्रीय तत्व है 'गुलामगीरी ' ग्रंथ लिखकर तात्या साहेब ने सांस्कृतिक युद्ध का शंखनाद किया। बळीराजा उत्सव, नवरात्र उत्सव व शिवजयंती उत्सव इस प्रकार के कृति कार्यक्रम देकर तात्या साहेब ने ब्राह्मणी सांस्कृतिक प्रतिक्रांति को चुनौती दिए।

तात्या साहेब महात्मा फुले द्वारा छेड़े गए इस सांस्कृतिक युद्ध का ब्राह्मणी छावनी ने प्रतिउत्तर देकर सफलतापूर्वक मात दिया।

बलि राजा के विरोध में गणपति खड़ा किया गया व कुलवाड़ी कुलभूषण शिवाजी के विरोध में

गो ब्राह्मण प्रतिपालक शिवाजी खड़ा किया गया।

इस सांस्कृतिक युद्ध के अगले टप्पे पर बाबा साहेब अंबेडकर ने ' रिडल्स आप हिन्दूइज्म लिखकर क्रांति अग्नि प्रज्वलित किया।

स्त्री - पुरुष विषय का गहन अध्ययन करके उन्होंने वैज्ञानिक विश्लेषण किया है।

परंतु आजकल फुले वाद का गंभीर अभ्यास करनेवाले विद्वान भी उस सिद्धांत का आकलन नहीं कर पा रहे हैं, इससे यह भी सिद्ध होता है कि तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले समय से भी कितना आगे देख रहे थे।

अक्सर सभी प्रगतिशील तत्वज्ञानी, विचारक वह अभ्यासक स्त्री - पुरुष समानता की बात करते हैं। परंतु एकमेव तात्या साहेब महात्मा फुले लैंगिक समानता के मुद्दे को नकारते हैं और नई विवेचना प्रस्तुत करते हैं -

"........... ज्योतिराव गोविंद राव  फूले. उ. - उनमें से सभी प्राणियों में मानव प्राणी श्रेष्ठ है और उनमें स्त्री और पुरुष इस प्रकार का दो भेद है ........

"........ ज्योतिराव उ. - इन दोनों में ज्यादा श्रेष्ठ स्त्री है.

(समग्र वांग्मय उपरोक्त पृष्ठ - 465 व 466 जाग फंसा मूळचा)

विज्ञान भी इसी क्रांतिकारी सिद्धांत की पुष्टि करता है , स्त्री व पुरुष हर प्रकार के कार्य आपस बांट सकते हैं आपस में काम की अदलाबदली कर सकते हैं, किंतु प्रसूतिवेदना ऐसी है कि पुरुष कितना भी प्रयास करें फिर भी वह प्रसूतिवेदना में हिस्सेदार नहीं हो सकता, वह मरणातंक वेदना स्त्री को ही सहन करनी पड़ती है, इसलिए स्त्री श्रेष्ठ है! आगे के प्रश्नों का उत्तर देते हुए तात्या साहेब अनेक सबूत प्रस्तुत करते हुए सिद्ध करते हैं कि स्त्री पुरुष दोनों में स्त्री श्रेष्ठ है! गुरु के इसी क्रांतिकारी सिद्धांत का विकास करते हुए शिष्य बाबा साहेब अंबेडकर ने 'हिंदू कोड बिल' तैयार किया।

एंटोनियो ग्राम्सी नाम का तत्वज्ञानी बुद्धिजीवी वर्ग के लिए बहुत कुछ कहता है।

पूंजीपति वर्ग के वेतन पर न पलने वाले बुद्धिजीवी वर्ग का विकास होता है।

श्रमिक वर्ग को भी क्रांति करने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग की आवश्यकता होती है, ऐसा भी वह कहता है।

शूद्रातिशूद्रों में बुद्धिजीवी वर्ग तैयार होने का सिद्धांत तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले प्रतिपादित करते हैं, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि -

*"............ बलि स्थान के संपूर्ण शूद्रातिशूद्रों सहित भील ,कोळी, वगैरह सभी लोग विद्वान होकर विचार करने लायक हुए बिना और उन सभी लोगों को एकमत किए बिना राष्ट्र (Nation) बन ही नहीं सकता।

(समग्र वांग्मय, उपरोक्त पृष्ठ -523)

स्त्रियां व शूद्रातिशूद्रों की शिक्षा के लिए स्कूल,इन स्कूलों में जाति अंतक शिक्षण, शूद्र जाति के पंतोजी , सरकारी विभागों में शूद्रों के लिए आरक्षण, स्त्री प्रधान्य आदि के लिए वे अत्यंत आग्रही थे। संपूर्ण जीवन ही उन्होंने इसके लिए संघर्ष किया। उसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि शूद्रातिशूद्रों की प्रत्येक जाति से बुद्धिजीवी वर्ग तैयार होना चाहिए, जाति अंतक शिक्षण लेकर तैयार हुआ यही बुद्धिजीवी वर्ग जाति अंतक क्रांति का नेतृत्व करेगा एवं जातिविहीन समतावादी एकमत देश (Nation) का निर्माण करेगा , इसका उन्हें पूरा विश्वास था।

तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा प्रतिपादित आरक्षण का सिद्धांत क्रांतिकारी है क्योंकि वह आक्रामक था, अभी आरक्षण का जो सिद्धांत संविधान के माध्यम से अमल में लाया जा रहा है वह बचावात्मक है।

तात्या साहेब का आरक्षण का सिद्धांत बचावात्मक न होकर आक्रामक कैसे है वह आगे देखें --

".......... भट ब्राह्मणों का संख्यानुपात कर्मचारियों की ज्यादा नियुक्ति होने के कारण....... भट ब्राह्मणों को अनंत फायदे होते हैं......

इसलिए शूद्र किसानों के बच्चे सरकारी पदों पर काम करने लायक होने तक ब्राह्मणों की उनकी संख्यानुपात से ज्यादा नियुक्ति न की जाय , बाकी बचे हुए सरकारी पद मुसलमान अथवा यूरोपियन लोगों को दिए बिना वे (ब्राह्मण) शूद्र किसानों की विद्या के आड़े आना नहीं छोड़ेंगे......."

(समग्र वांग्मय, उपरोक्त पृष्ठ -331)

भट ब्राह्मणों के दासत्व से मुक्त होने के लिए क्या उपाय हैं? 

धोंडीबा द्वारा ऐसा प्रश्न पूछने पर उसका उत्तर देते हुए तात्या साहेब कहते हैं कि अपनी दयालु सरकार को सर्वप्रथम सभी विभागों में भट ब्राह्मण समाज की संख्या के अनुसार कुल मिलाकर सभी विभागों में ब्राह्मण कामगार की नियुक्ति न करें ऐसा मेरा विचार नहीं है बल्कि उसी के अनुसार बाकी सभी जातियों के कामगार न मिलने पर सरकार को उनके जगहों पर सिर्फ यूरोपियन कामगार नियुक्त करे......!"

(समग्र वांग्मय, उपरोक्त पृष्ठ -186)

तात्या साहेब महात्मा फुले के उपरोक्त दो प्रतिपादनों से अनेक क्रांतिकारी मुद्दे आगे आते हैं जो आज भी अमल में लाए जाएं तो परिवर्तन वादी आंदोलन को सही अर्थों में क्रांतिकारी मोड़ मिल सकता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पहला मुद्दा आता है वह जाति आधारित जनगणना का, जाति आधारित जनगणना का मुद्दा पिछले 40 वर्षों से इतना तीव्र हुआ है कि जिसके कारण एक बार केन्द्र सरकार गिराई जा चुकी है और कुछ राज्य सरकारें भी गिराई गईं। बिहार का उदाहरण अभी बिल्कुल ताजा है।

उपरोक्त में से दूसरा उद्धरण यह 'गुलामगीरी' ग्रंथ से है।

तात्या साहेब ने यह ग्रंथ 1873 में लिखा और अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना 1881 से शुरू किया,इसका अर्थ यह स्पष्ट होता है कि ब्रिटिश शासक यूरोपियन महाप्रबोधन आंदोलन के वारिस थे और वे पूंजीवादी लोकशाही के समर्थक थे।

इसलिए समाज सुधार, समाज सुधारक एवं समाज क्रांतिकारियों को देखने का उनका नजरिया उदारमतवादी व लोकशाही वादी था, राजाराम मोहन राय जैसे समाज सुधारक व तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे समाज क्रांतिकारी क्या लिखते हैं? क्या बोलते हैं?इस तरफ अंग्रेज गंभीरता पूर्वक देखते थे और उसी के अनुसार क्रियान्वयन भी करते थे। राजाराम मोहन राय ने सती प्रथा बंद करने की अपील की और ब्रिटिश सरकार ने तुरंत सती प्रथा बंदी का कानून ही बना दिया। तात्या साहेब ज्योतिबा फुले ने जाति आधारित जनगणना की बात की और ब्रिटिश शासकों ने उसका क्रियान्वयन शुरू कर दिया उदारमतवादी ब्रिटिशों ने जाति आधारित जनगणना शुरू किया और स्वतंत्रता के बाद सत्ता में आते ही जाति व्यवस्था समर्थक सामंतवादी ब्राह्मणों ने जाति आधारित जनगणना बंद कर दिया , इसी पर जाति अंत के संदर्भ में जाति आधारित जनगणना का क्रांतिकारकत्व ध्यान में आना चाहिए। जाति अंतक दृष्टि से आज क्रांतिकारक जाति आधारित जनगणना का मुद्दा सर्वप्रथम तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले ने रखा, इस पर उनकी तत्वज्ञानी के रूप में दूरदर्शिता को समझने की जरूरत है। जाति आधारित जनगणना करने के बाद उसमें से ब्राह्मण जाति की जनसंख्या निकालना और उनकी लोकसंख्या के अनुपात में ब्राह्मणों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना चाहिए, ऐसा स्पष्ट रूप से तात्या साहेब कहते हैं।

ब्राह्मणों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने का यह सिद्धांत वास्तव में क्रांतिकारक है।

यदि सर्वप्रथम ब्राह्मणों को आरक्षण दिया गया होता तो ब्राह्मण आरक्षण पर दलित विरुद्ध सवर्ण इस प्रकार का  ध्रुवीकरण करने में सफल नहीं हो पाए होते और देश में जो असंख्य जातीय दंगे हुए वह हुए ही नहीं होते। ब्राह्मणों को सर्वप्रथम आरक्षण देने के कारण भारतीय समाज का ध्रुवीकरण ब्राह्मण विरुद्ध ब्राह्मणेतर ऐसा हुआ होता और जाति अंत के लिए यह ध्रुवीकरण क्रांतिकारक साबित होता। ब्राह्मण व ब्राह्मणेतर ध्रुवीकरण के कारण ब्राह्मणों का ब्राह्मणेतर समाज पर सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रभाव कम हुआ होता एवं ब्राह्मणेतरों का अब्राह्मणीकरण करना आसान हुआ होता। इसलिए जाति अंतक दृष्टि से 'ब्राह्मणों को सर्वप्रथम आरक्षण ' तात्या साहेब महात्मा फुले का यह सिद्धांत क्रांतिकारी सिद्ध होता है।

एक क्रांतिकारी तत्वज्ञानी के रूप में तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले की दूरदर्शिता इससे ध्यान में आती है।

तात्या साहेब महात्मा फुले के उपरोक्त उद्धरण से और एक महत्वपूर्ण मुद्दा सामने आता है।

शूद्रातिशूद्र जातियों को भी उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देना चाहिए, ऐसा तात्या साहेब का आग्रह है। परंतु उस काल में शूद्रातिशूद्र जातियों में शिक्षा का स्तर कम होने के कारण जनसंख्या के अनुपात में शूद्रातिशूद्र जातियों से लायक उम्मीदवार नहीं मिल पायेंगे इसकी पूरी जानकारी तात्या साहेब महात्मा फुले को थी इसीलिए वे स्पष्ट कहते हैं कि शूद्रातिशूद्रों में से लायक उम्मीदवार मिलने तक उनके हिस्से के सरकारी  पदों पर मुसलमानों अथवा अंग्रेजों को नियुक्त करें परंतु वे जगह ब्राह्मणों को कतई न दें, ऐसा कहने के पीछे तात्या साहेब का क्या उद्देश्य था? नौकरशाही का संपूर्ण रूप से अब्राह्मणीकरण करना यही मुख्य उद्देश्य था।

ब्रिटिश भारत व स्वतन्त्र भारत की नौकरशाही में ब्राह्मणों का अनुपात 90% से भी अधिक रहा है ऐसा मंडल आयोग की रिपोर्ट कहती है, ब्राह्मणीकरण से ओतप्रोत भरी हुई नौकरशाही ने प्रगतिशील एवं जाति अंतक कानूनों का क्रियान्वयन प्रमाणिक रूप से कभी होने ही नहीं दिया।

गुरु रहे तात्या साहेब के यही सिद्धांत उनके शिष्य बाबा साहेब अंबेडकर हमें और अधिक स्पष्ट करके बताते हुए कहते हैं -

"............ Whether the principle of equal justice is effective or not must necessarily depend upon the and character of the civil services who must be left to administer the principle.if the civil services is by reason of its class bias the friend of the Established order and the enemy of the new order, the new order can never come into being. that a civil service in tune with new order was essential for the success of the new order was recognized by Karl Marx in 1871 in the formation of the Paris Commune and adopted by Lenin in the constitution of Soviet Communism......"

(Dr Babasaheb Ambedkar: Writing and speeches,Vol.-5, page -104)

बाबा साहेब अंबेडकर आगे अनेक उदाहरण देकर सिद्ध करते हैं कि भारत की नौकरशाही दिल्ली से गल्ली तक पूर्ण रूप से उच्च जातीय अर्थात ब्राह्मणी है।

"ब्राह्मणों को उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रथम आरक्षण" यह तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले का क्रांतिकारी सिद्धांत बाबा साहेब ने कामरेड लेनिन की तरह संविधान में स्वीकार किया होता तो कदाचित नौकरशाही का पूर्ण रूप से अब्राह्मणीकरण हो गया होता और आज भारत में पेशवाई का पुनरागमन दिखाई न पड़ता।

"ब्राह्मणों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रथम आरक्षण " इस सिद्धांत की चर्चा एक प्रसंग से घटित होती है और वह प्रसंग भी एक अलग प्रकार के सिद्धांत को जन्म देकर जाता है।

ब्राह्मणों की ' सार्वजनिक सभा ' की तरफ से ब्रिटिश सत्ताधारियों के पास एक अर्जी भेजी जाती है, तब इस अर्जी पर चर्चा करते हुए तात्या साहेब महात्मा फुले अपने कार्यकर्ताओं को कहते हैं -

"जोतिराव . उ. -- इस प्रकार  हम हिंदुओं को "कलेक्टरों की जगह" यूरोपियन लोगों की तरह सरकार दे , इसलिए सार्वजनिक सभा के रिकार्ड में दर्ज होगी लेकिन वह अर्ज अविद्वान शूद्रातिशूद्रों के किस काम की? क्योंकि  नाम हिन्दू का और उसका उपभोग करने वाले अकेले ब्राह्मण। वाह रे वाह सभा ! वाह रे वाह दुटप्पी......!"

(समग्र वांग्मय, उपरोक्त जाग फंसा माझा , पृष्ठ -521)

'नाम हिन्दू का और उपभोग करने वाले अकेले ब्राह्मण ' तात्या साहेब महात्मा फुले के इस सिद्धांत से ब्राह्मणी षडयंत्र का कैसे पर्दाफाश होता है। यह ध्यान में आता है। जाति व्यवस्था की बुलंदी के समय ब्राह्मणों ने धर्म के किसी पर्दे की कोई आड़ लिए बिना खुल्लमखुल्ला ब्राह्मण पहचान दिखाकर फायदा उठाया एवं जाति वर्चस्व स्थापित किया।

मनुस्मृति में खुलेतौर पर ब्राह्मणों के वर्चस्व का कानून बनाया।

जजिया कर से छूट देने के लिए ' हम ब्राह्मण हैं, हिन्दू नहीं, ऐसा स्पष्ट करते हुए फायदा उठाया। परंतु ब्रिटिशों के आगमन के बाद शुरू हुए जाति अंतक प्रबोधन के दबाव में आकर ब्राह्मणों को जाति की पहचान अड़चन वाली लगने लगी। इसलिए जाति के लिए फायदा उठाते समय ब्राह्मण के बजाय हिन्दू पहचान उन्हें सुरक्षित लगने लगी। इसलिए सार्वजनिक सभा हिन्दू के नाम से अर्जी करके सरकारी नौकरी मांगते हैं, ब्राह्मणों का यह षडयंत्र दूरदर्शी तत्वज्ञानी तात्या साहेब ज्योतिबा फुले की नजरों से कैसे बच सकता है?

*हिन्दू नाम से कोई भी फायदा होने वाला होगा तो वह सिर्फ ब्राह्मणों का होगा। किन्तु हिन्दू नाम से कुछ नुकसान होने वाला होगा तो वह शूद्रातिशूद्रों का होगा। ऐसी व्यवस्था ब्राह्मणों ने की हुई है। धर्म के नाम पर दंगे हुए तो उसमें दोनों धर्मों के शूद्रातिशूद्र ही मारे जाते हैं और उन्हीं के ऊपर अपराध के मुकदमे दर्ज करके शूद्रों का ही जीवन बर्बाद किया जाता है। धर्म के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराने के बाद देश भर में सांप्रदायिक दंगे हुए। जिससे संघ -भाजपा के ब्राह्मणों को देश की सत्ता मिली परंतु तभी से दलित+ओबीसी का आरक्षण खतरे में आ गया है। हिन्दू नाम से फायदा हुआ तब भी और नुकसान हुआ तब भी हर हाल में शूद्रातिशूद्रों का  ही सत्यानाश होता है यह अनेक बार सिद्ध हो चुका है।

इस बारे में चर्चा करते समय तात्या साहेब महात्मा फुले ने हिन्दू शब्द ज्यादा नहीं आने दिया वे खुलकर जाति का नाम लेकर ही विश्लेषण करते हैं, तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले को प्रबोधन के स्तर पर इस देश में जातीय ध्रुवीकरण चाहिए था क्योंकि धार्मिक ध्रुवीकरण से ब्राह्मणी व्यवस्था मजबूत होती है यह उन्होंने अच्छी तरह जान लिया था उसी में आगे चलकर ब्राह्मणेतर आंदोलन का उभार हुआ एवं राजनीतिक पक्ष भी स्थापित हुआ, यही ट्रेंड आगे चालू रहा होता तो तमिलनाडु से पहले महाराष्ट्र में अब्राह्मणी क्रांति' हो गई होती। किंतु मूर्ख मराठा नेताओं की सत्तालोलुपता के कारण यह जातीय ध्रुवीकरण गांधी नाम के ब्राह्मणवाद के शरणागत हो गया एवं तात्या साहेब महात्मा ज्योतिबा फुले का बली राज्य का स्वप्न मराठा नेताओं ने बेच खाया।

मराठा नेताओं के कारण एक तरफ ब्राह्मण - ब्राह्मणेतर जातीय ध्रुवीकरण पटरी से उतरा वहीं दूसरी तरफ बाबा साहेब अंबेडकर ने हिन्दू नाम से धार्मिक ध्रुवीकरण को पकड़ कर रखा। अस्पृश्यों के सवाल उठाते हुए वे लगातार शत्रु की पहचान हिन्दू के रूप में करते रहे शोध करते समय उनके लेखन में बहुत सी जगहों पर उन्होंने ब्राह्मण व ब्राह्मणी संकल्पना की चर्चा की लेकिन राजनीतिक लड़ाई में उन्होंने हिन्दू संकल्पना का इस्तेमाल करके धार्मिक ध्रुवीकरण को ही  बढ़ावा दिया। जिसके कारण दो दुष्परिणाम हुए। बाबा साहेब को दोस्त के रूप में अपेक्षित ओबीसी फिर से हिन्दू बनाकर ब्राह्मणी छावनी में ढकेल दिया गया। दूसरा दुष्परिणाम यह हुआ कि उसी समय स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दू संगठन का काम आसान हो गया। लेकिन इसी समय में तमिलनाडु में इसकी उल्टी सुल्टी घटनाएं हो रही थीं। तमिलनाडु में पेरियार कृत ब्राह्मण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व शुरुआत से ही ओबीसी जाति के हाथ में होने के कारण वहां फुले वाद को किसी प्रकार की दगाबाजी नहीं हो सकी।

तमिलनाडु के पेरियार स्कूल से जो ओबीसी एवं बहुजन नेता तैयार हुए उन्होंने सत्ता में आने के बाद फुले वाद के मूल तत्व बड़े पैमाने पर अमल में लाने का काम किया। सत्ता हाथ में आते ही उन्होंने सभी अब्राह्मणी जाति- जमात को उनकी लोकसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिया, जिसके कारण नौकरशाही में गैर ब्राह्मणों की संख्या बढ़ी । उन्होंने ब्राह्मणों को आरक्षण भले नहीं दिया लेकिन नौकरशाही में ब्राह्मणों की संख्या तीन पर्सेंट से ज्यादा न होने पाए इसका ध्यान रखा, ब्राह्मणों की संख्या तीन पर्सेंट से ज्यादा न होने पाए इसलिए उन्होंने संघ-भाजपा की केन्द्र सरकार द्वारा बनाया गया EWS का 10% आरक्षण का कानून तमिलनाडु में लागू नहीं किया क्योंकि 10% उच्च जातीय आरक्षण का फायदा उठाते हुए तमिलनाडु के ब्राह्मण नौकरशाही में अपना पर्सेंटेज बढ़ा सकते हैं इसका दुष्प्रभाव तमिलनाडु में ओबीसी के नेतृत्व में हुई अब्राह्मणी क्रांति पर पड़ सकता है इसीलिए तमिलनाडु के अब्राह्मणी शासन ने संघ- भाजपा की केन्द्र सरकार के 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण कानून को लागू करने से इन्कार कर दिया।

तमिलनाडु की अब्राह्मणी द्रविड़ आंदोलन ने कड़ाई से धार्मिक ध्रुवीकरण को नकारा है। उन्होंने धर्म धर्मांतरण आदि मुद्दों को कभी बढ़ावा नहीं दिया। तात्या साहेब महात्मा फुले की ही तरह पेरियार ने भी हिंदू धर्म में ही समता का शोध किया एवं हिन्दू धर्म के अंतर्गत ही जातीय ध्रुवीकरण निर्मित किया, जिसके कारण वहां अब्राह्मणी क्रांति यशस्वी हुई।

तमिलनाडु में ओबीसी के नेतृत्व में द्रविड़ आंदोलन ने फुले वाद का मूलतत्व रहे सिद्धांतों का अक्षरशः अमल में लाते हुए अब्राह्मणी क्रांति यशस्वी किया। परंतु यह क्रांति निर्बाध रहे इसके लिए समय समय पर कानून बनाते रहना और उनका कड़ाई से पालन करते रहना आवश्यक होता है। उसी प्रकार इस अब्राह्मणी क्रांति को ब्राह्म्णवादियों की तरफ से खतरा हो सकता है उसके लिए आंख में तेल डालकर सतत सतर्क रहना भी आवश्यक है इसमें तमिलनाडु का अब्राह्मणी शासन प्रशासन कहीं भी कम नहीं पड़ रहा है यह उपरोक्त विवेचन से सिद्ध होता है।

मैंने तमिलनाडु की अब्राह्मणी क्रांति का जो विश्लेषण किया है उससे इस प्रकार की गैरसमझ हो सकती है कि तमिलनाडु में जाति अंतक क्रांति पूर्ण होकर वहां जाति व्यवस्था नष्ट हो चुकी है।

कोई ऐसी गलतफहमी  न पाले।

तमिलनाडु को छोड़कर अन्य राज्यों में ब्राह्मणी छावनी जिस उन्माद के साथ सत्ता में आने जैसा व्यवहार कर रहे हैं वह देखते हुए तमिलनाडु में ब्राह्मणी छावनी पराभूत एवं अत्यंत मानहानि का जीवन जी रही है। आज भी तमिलनाडु में ओबीसी के नेतृत्व में अब्राह्मणी छावनी सर ऊंचा करके आक्रामक होकर ब्राह्मण वादियों के सामने चुनौती बनकर खड़े हैं। यह बात निश्चित रूप से क्रांतिकारक है, अन्य राज्यों के वामपंथी,पुरोगामी, फुले अंबेडकरी आंदोलन को कम से कम तमिलनाडु जितना तो क्रांति के स्तर तक पहुंचना चाहिए और उसके लिए जात पांत के भेद किनारे रखकर तमिलनाडु के ओबीसी नेतृत्व से कुछ सीखना चाहिए।

तमिलनाडु की यह अब्राह्मणी क्रांति नकारात्मक कार्यक्रमों पर खड़ी है। केवल ब्राह्मण विरोध जैसे एक कार्यक्रम के आधार पर जाति व्यवस्था नष्ट करने वाली क्रांति हो ही नहीं सकती। प्रबोधन के स्तर पर आमूलचूल मूल्य परिवर्तन निर्माण करनेवाली वैचारिक क्रांति का होना आवश्यक है। उसके साथ ही जमीन का पुनर्वितरण जैसे जाति अंतक क्रांतिकारक कार्यक्रम हाथ में लेना आवश्यक है। उसके लिए केवल मार्क्स, बुद्ध, फुले, अंबेडकर आदि तत्वज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि यह सारे तत्वज्ञान ब्राह्मणी छावनी कब का निष्फल कर चुकी है, बदलती परिस्थितियों में ब्राह्मणवाद जैसे विकसित हो रहा है उसी तरह हमें भी अपने तत्वज्ञान का विकास करना चाहिए, यह काम कामरेड शरद पाटिल ने 'सौत्रांतिक मार्क्सवाद' इस नये तत्वज्ञान को प्रस्तुत करके किया है।

अर्थात आज का वामपंथी, पुरोगामी व फुले अंबेडकरवादी नेता -कार्यकर्ताओं की बौद्धिक क्षमता देखते हुए उन्होंने अविलंब तमिलनाडु का फुले वादी अब्राह्यणी क्रांति का पैटर्न स्वीकार करते हुए आंदोलन को एक अगले टप्पे तक ले जाने की जरूरत है।अगला जाति अंतक क्रांति का टप्पा अगली पीढ़ी को सौंप देना उचित होगा। कम से कम अगली पीढ़ी के लिए तो हम तमिलनाडु पैटर्न स्वीकारें, आइए व अगली पीढ़ी के लिए जाति अंतक क्रांति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

भारत में जाति व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने के लिए अनेक पैटर्न आए और गए। कांशीराम जी का जाति जोड़ों पैटर्न, लोहिया+चंदापुरी का समाजवादी+ओबीसी पैटर्न, यह दोनों जाति अंतक पैटर्न पूरी तरह फेल होते हुए हम सब देख ही रहे हैं। सिर्फ एकमात्र तमिलनाडु का स्वामी पेरियार का फुले वादी अब्राह्यणी क्रांति का पैटर्न आज  भी सीना तान कर लड़ते हुए दिख रहा है। संपूर्ण देश के वामपंथी,पुरोगामी , फुले अंबेडकरवादियों ने तमिलनाडु पैटर्न स्वीकार किया तो आज देश पर आते हुए पेशवाई के संकट का मुकाबला किया जा सकता है। अन्यथा जाति व्यवस्था 100 गुना अधिक विनाश करने वाली प्रतिक्रांति देश में अवतरित तो हो ही चुकी है वह और मजबूती से गर्दन पर सवार होने वाली है।

लेखक - प्रो. श्रावण देवरे (मो. 8830127270)

 हिंदी अनुवाद ;चन्द्र भान पाल (7208217141)

रविवार, 23 अक्तूबर 2022

दयानंद पांडेय

 दयानंद पांडेय 

(श्री दयानंद पांडे मानसिक रूप से मनुस्मृति के समर्थक और घोर जातिवादी मानसिकता के व्यक्ति हैं उसी हिसाब से इस वैज्ञानिक युग में वह सोचते हैं और उसी तरह से लिखते हैं जरूरी नहीं है कि यह जो कुछ लिख रहे हैं वह सही हो लेकिन इनकी मानसिक बनावट बिल्कुल ब्राह्मणवादी सॉफ्टवेयर से संपूर्ण रूप से बनाई गई है जो भी बात निकलेगी कितनी जहरीली होगी इसलेख में देख सकते हैं मुलायम सिंह के निधन के दिन इन्होने कितनी जहरीली घटनाओं का जिक्र किया है।)

सरोकारनामा (sarokarnama.blogspot.com)

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Dr.Lal Ratnakar को ल

जब नागपंचमी के दिन नारायणदत्त तिवारी ने मुलायम से दूध पीने के लिए कहा 

दयानंद पांडेय 

बीते 9 जुलाई को जब साधना जी का निधन हुआ तभी समझ आ गया था कि अब मुलायम भी महाप्रस्थान की राह पर हैं और आज तीन महीने बाद वह भी उसी मेदांता अस्पताल से विदा हो गए। इस लिए भी कि वह परिवार में बहुत अकेले हो गए थे। आज उन का अकेलापन खत्म हो गया। उन का सन्नाटा टूट गया। 

मुलायम हालां कि मुझ से तब बहुत नाराज़ हुए थे जब नब्बे के दशक में मैं ने लिखा था कि मुलायम सिंह यादव बिजली का ऐसा नंगा तार हैं जिन्हें दुश्मनी में छुइए तब तो मरना ही है। लेकिन दोस्ती में छुइए तब भी मरना है। तमाम-तमाम घटनाएं इस की साक्षी हैं। अपनी सत्ता साधने के लिए मुलायम कुछ भी कर सकते थे। चरखा दांव की ओट ले कर हर सही-ग़लत काम को अंजाम दे देते। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब भाजपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब राजीव गांधी ने मुलायम को कांग्रेस का समर्थन दे दिया। और मुलायम से कहा कि एक बार लखनऊ में औपचारिक रुप से नारायणदत्त तिवारी से मिल लें। सुबह-सुबह मुलायम गए नारायणदत्त तिवारी से मिलने उन के घर। खड़े-खड़े ही मिले और चलने लगे तो तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , कम से कम दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। मुलायम तिवारी जी का तंज समझ गए और बोले , ' अब दूध विधानसभा में ही पिलाना ! ' राजीव गांधी के निर्देश पर तिवारी जी ने विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन का दूध पिला दिया। अंतत: कांग्रेस उत्तर प्रदेश से साफ़ हो गई। आज तक साफ़ है। अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को भी इस के पहले साफ़ कर चुके थे। अपने मित्र सत्यप्रकाश मालवीय को भी बाद में साफ़ कर दिया। बलराम सिंह यादव एक समय कांग्रेस के बड़े नेता थे। इटावा से ही थे। वीरबहादुर सिंह उन दिनों मुख्यमंत्री थे। वीरबहादुर बलराम को निपटाने के लिए मुलायम सिंह यादव को प्रकारांतर से उन के समानांतर खड़ा कर देते थे। मुलायम ने उन्हें इतना छकाया कि वह मुलायम की पार्टी ज्वाइन कर बैठे। अंतत: एक दिन अपने ही रिवाल्वर से आत्महत्या कर बैठे। गोया दोस्त-दुश्मन हर किसी को मुलायम नाम का बिजली का नंगा तार करंट मारता गया। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह अलग बात है कि बेटा अखिलेश यादव , मुलायम के लिए नंगा तार बन कर उपस्थित हुआ। मुलायम को डस गया। बेटा औरंगज़ेब बन गया।  

नाम मुलायम , काम कठोर से लगायत नाम मुलायम , गुंडई क़ायम तक की यात्रा से निकल कर मुलायम सिंह यादव ने  एक उदार और मददगार नेता की अपनी छवि भी निर्मित की। मुलायम सिंह यादव में धैर्य , बर्दाश्त और उदारता आख़िर समय में इतनी आ गई थी कि अखिलेश से तमाम असहमति और मतभेद के बाद , शिवपाल और अमर सिंह के तमाम दबाव के बावजूद चुनाव आयोग में पार्टी की लड़ाई में सब कुछ किया पर शपथपत्र नहीं दिया।अगर शपथपत्र दे दिया होता तो साईकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। मायावती गेस्ट हाऊस कांड के समय वह धैर्य खोने का परिणाम वह भुगत चुके थे। कांग्रेस द्वारा सी बी आई का फंदा कसने पर वह निरंतर धैर्य बनाए रखे। परमाणु मसले पर कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी पर मुलायम ने समर्थन दे कर सरकार बचा ली। नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में वह निरंतर खर्च होते रहे ताकि लालू यादव की तरह जेल न काटनी पड़े। संसद में आशीर्वाद भी देते रहे। सोचिए कि उत्तर प्रदेश में छप्पन इंच के सीने की बात मोदी ने मुलायम को ही एड्रेस कर कही थी। पर आज मोदी ने भी मुलायम को दी गई श्रद्धांजलि में मुलायम के ख़ूब गुण गाए । 

एक बार अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में ठहरे थे। मैं अटल जी का इंटरव्यू कर रहा था। अचानक मुलायम सिंह यादव आए। मुलायम ने झुक कर अटल जी के दोनों पांव छुए। अटल जी ने उठ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ ठोंक-ठोंक कर , आयुष्मान ! आयुष्मान ! का आशीष देते रहे। मुलायम चाय पी कर जल्दी ही चले गए तो मैं ने अटल जी से कहा कि जब मुलायम सिंह आप का इतना आदर करते हैं तो इन को क्यों नहीं कुछ समझाते हैं। उन दिनों मुलायम , मौलाना मुलायम , मुल्ला मुलायम के तौर पर बदबू मार रहे थे। अटल जी ने कहा , मुलायम सिंह जी की अपनी राजनीति है , हमारी अपनी। व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है। अटल जी बोलते-बोलते बोले , ' अभी कलम रख दीजिए। अभी जो कह रहा हूं , लिखने के लिए नहीं है। ' अटल जी कहने लगे , ' आज के दिन मुस्लिम समाज के पास अपना कोई नेता नहीं है। तो उन को कंधा देने के लिए मुलायम सिंह जैसे लोग बहुत ज़रुरी हैं। मुलायम सिंह जी , मुस्लिम समाज के लिए प्रेशर कुकर की सीटी हैं। उन का गुस्सा , उन का दुःख मुलायम सिंह जी जैसे लोग निकाल देते हैं। मुलायम सिंह जी जैसे लोग न हों तो प्रेशर कुकर फट जाएगा तो सोचिए क्या होगा ?

बहरहाल तमाम क़वायद के बावजूद यादववाद और मुस्लिम परस्ती के दाग़ को वह फिर भी कभी नहीं धो पाए। तीन ए और दो एस ने मिल कर धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम की राजनीति को बदल कर उन की छवि को धूमिल भी किया। और उन्हें गगन विहारी बना दिया जाए। उन के जीवन की , उन के राजनीति की प्राथमिकताएं बदल दीं। तीन ए मतलब अमर सिंह , अंबानी और अमिताभ बच्चन। दो एस मतलब साधना गुप्ता और सुब्रत राय सहारा। साधना गुप्ता ने मुलायम से विवाह कर उन के निजी और पारिवारिक जीवन में भूचाल ला दिया था। अखिलेश यादव की मां मालती यादव के जीवित रहते ही मुलायम ने साधना को परिवार का हिस्सा बना लिया था। यह तो मालती यादव का बड़प्पन था कि उन्हों ने कभी मुलायम के ख़िलाफ़ अपने लब नहीं खोले। अलबत्ता इसी बिना पर अखिलेश यादव ने मुलायम को निरंतर ब्लैकमेल किया और 2012 में मुख्यमंत्री बने। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि काश अमर सिंह मुलायम सिंह की ज़िंदगी में न आए होते तो मुलायम की राजनीति और व्यक्तित्व की अलग ही छटा होती। अमर सिंह ने मुलायम को अय्यास बना दिया। सामंती बना दिया। उन के चापलूस सलाहकारों ने उन्हें यादववादी बना दिया। मुस्लिम वोट बैंक की लालच ने उन्हें मुस्लिम परस्त बना दिया। राम विरोधी की छवि बन गई। गो कि वह हनुमान भक्त थे। और हनुमान भक्त , रामद्रोही कैसे हो सकता है भला !

अपने को लोहियावादी बताने वाले मुलायम सच्चे लोहियावादी नहीं थे। वास्तव में वह पहलवान थे। और पहलवान का एकमात्र ध्येय अगले को पटक कर विजेता बनना ही होता है। लोहियावाद और समाजवाद को वह अपना कुण्डल और कवच बना कर रखते थे। इस से अधिक कुछ और नहीं। हां , लालू प्रसाद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह न होते तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री ज़रुर बने होते। विश्वनाथ प्रताप सिंह की चली होती तो मुलायम का इनकाउंटर करवा दिए होते। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब मुलायम के इनकाउंटर के लिए पुलिस को आदेश दे चुके थे। मुलायम को समय रहते पता चल गया। तो वह खेत-खेत साइकिल से दिल्ली भाग गए चरण सिंह के पास। चरण सिंह ने उन्हें बचा लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस टापती रह गई थी। लेकिन दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने इनकाउंटर में सफल रहे। बहुत चतुराई से लालू यादव को आपरेशन मुलायम पर लगा दिया और लालू ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इस प्रसंग के विवरण बहुत हैं। फिर कभी। 

अयोध्या प्रसंग के खलनायक माने जाने वाले मुलायम किसी समय अयोध्या की राजनीति के बारे में किताब लिखना चाहते थे। क्यों कि उन के पास अयोध्या के बारे में बहुत सारे तथ्य थे। लेकिन मधुलिमये ने किताब लिखने से मना कर दिया। तो मुलायम सिंह मान गए। 

संयोग से मैं मुलायम सिंह यादव का प्रशंसक और निंदक दोनों ही हूं। अमूमन किसी की मृत्यु के बाद प्रशंसा के पद गाने की परंपरा सी है। मुलायम के निंदक भी आज सरल मन से उन की प्रशंसा में नतमस्तक हैं। मैं भी आज मुलायम की प्रशंसा में ही लिखना चाहता हूं। उन की भाषा और हिंदी प्रेम की कहानी बांचना चाहता हूं। बताना चाहता हूं कि मुलायम भारतीय भाषाओं के बहुत बड़े हामीदार थे। 

हिंदी और उर्दू दोनों ही के लिए मुलायम सिंह यादव बदनाम हैं। उत्तर प्रदेश में लोग उन्हें उर्दू के लिए बदनाम करते हैं और कहते हैं कि वह उर्दू को वह बहुत बढ़ावा देते थे। और जब वह दक्षिण भारत में जाते थे तो लोग उन्हें हिंदी के लिए बदनाम करते थे , कहते थे कि वह हिंदी को बहुत बढ़ावा देते हैैं। लेकिन सच यह नहीं है। सच यह है कि मुलायम सिंह यादव सभी भारतीय भाषाओं के हामीदार थे । उन को हिंदी भी उतनी प्रिय थी जितनी कि उर्दू, तमिल भी उतनी ही प्रिय थी जितनी तेलगू। या ऐसी ही और भारतीय भाषाएं। वह सभी भाषाओं को प्यार करते थे और उन को मान देते थे। भाषाओं को ले कर उन के बारे में बहुत सारी कथाएं हैं। एक कथा मुलायम सिंह खुद ही सुनाते थे तब जब वह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। मुख्तसर में आप भी सुनिए:

एक समय उत्तर प्रदेश शासन में एक पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के सचिव थे पाठक जी। बहुत ईमानदार। एक बार कोई ठेका था जिसे उन्हों ने अस्वीकृत कर दिया। पर बाद में ठेकेदार जब उन से मिला और अपने तर्क रखे तो पाठक जी ने उस के तर्कों को सुना और स्वीकार किया। और मान लिया कि वह ठेकेदार अपनी जगह बिलकुल सही है। पर उन्हों ने अफसोस जताते हुए कहा कि अब तो फाइल पर वह आदेश लिख चुके हैं। ठेकेदार बाहर आया और उन के पी.ए से मिला और बताया कि साहब मान तो गए हैं लेकिन दिक्कत यह है कि वह फाइल पर आदेश कर चुके हैं। सो अब कुछ हो नहीं सकता। पी॰ए॰ होशियार था। उस ने ठेकेदार से कहा कि अगर साहब चाहें तो अभी भी बात बन सकती है। ठेकेदार ने पूछा वह कैसे? तो पी॰ए॰ ने कहा कि साहब से कहिए कि वह हमसे पूछ लें हम बता देंगे। और उस ईमानदार पी.डब्ल्यू.डी. के ईमानदार सचिव पाठक जी को पी॰ए॰ ने सचमुच समझा दिया और ठेकेदार का काम हो गया। पी॰ए॰ ने पाठक जी को समझाया कि जो फाइल पर उन्हों ने अंगरेजी में जो टिप्पणी लिखी है नाट एक्सेप्टेड बस उसी में एक अक्षर और बढ़ानी है। नाट के एन.ओ.टी. में आगे ई बढ़ा देना है। तो नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो जाएगा। फिर उसी स्याही वाली कलम खोजी गई और पाठक जी ने नाट को नोट में बदल दिया। नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो गया। तो मुलायम सिंह यादव इस वाकये को याद करके बताते थे कि देखिए अंगरेजी में भ्रष्टाचार की कितनी गुंजाइश है। अगर यही बात फाइल पर हिंदी में लिखी गई होती अस्वीकृत तो उसे काट कर स्वीकृत नहीं किया जा सकता था। यह ठीक था कि पाठक जी एक ईमानदार अधिकारी थे पर अगर यही तरकीब बेईमान अधिकारी अपनाएं तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। इसी लिए मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के सचिवालय से अंगरेजी का सारा काम-काज खतम करवा दिया। कहा जाता है कि उस वक्त उन्हों ने अंगरेजी के टाइपराइटर उठवा कर फेंकवा दिए थे। इसी तरह भारत के कुछ हिस्सों में भाषा नीति के सवाल को लेकर अलगाव की बहुत कोशिशें की जाती रही हैं। एक आम धारणा है कि दक्षिण के लोग हिंदी के खिलाफ हैं। डॉ॰ राममनोहर लोहिया पर भी वहां पत्थर फेंकने की बात सामने आई है। एक समय चौधरी देवीलाल की सभा में भी गड़बड़ी की गई।और भी बहुत सारी हिंदी विरोध की घटनाएं हैं। एक बार मुलायम सिंह यादव भी तमिलनाडु गए और करुणानिधि जी से भेट का समय मांगा। करुणानिधि ने मिलने से साफ मना कर दिया और कहला दिया कि मेरे पास समय नहीं है। उन्हों ने इस लिए मना किया कि लोग मुलायम सिंह यादव से मिलने के मायने निकालेंगे कि वह अंगरेजी के खिलाफ हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव जब मदुरई हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां पत्रकारों ने भाषा नीति के सवाल को ले कर बहुत से सवाल पूछे। पत्रकारों ने मुलायम से पूछा कि क्या आप यहां हिंदी थोपने आए हैं? 

मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम तमिल थोपने आए हैं। पत्रकारों ने इस की रिर्पोटिंग कर दी। अगले दिन सुबह टाइम्स ऑफ इण्डिया और इण्डियन एक्सप्रेस दोनों अखबारों ने, बल्कि मदुरई सहित सारे हिंदुस्तान में एक ही हेड लाइन थी कि मुलायम सिंह तमिल थोपने आए हैं। नतीज़ा सामने था। मुलायम सिंह यादव को करुणानिधि जी का टेलीफ़ोन सुबह ही आ गया कि कल 9 बजे हमारे घर पर नाश्ता करें। इस के बाद मुलायम सिंह यादव दक्षिण में जहां-जहां बोले विशेष कर जहां तमिल भाषा के महत्व को ले कर हिंदी का सब से ज़्यादा विरोध था, वहां के बुद्धिजीवियों ने मुलायम का खूब स्वागत किया और उन के सम्मान में वहां एक कार्यक्रम भी रखा। जिस में साहित्यकार, कवि, वकील और विद्वानों ने भाग लिया। 

मुलायम ने वहां कहा कि उत्तर भारत में शेक्सपियर को सब जानते हैं, लेकिन आप के स्वामी सुब्रह्मण्यम कौन हैं, उन को कोई नहीं जानता। क्या यह हिंदी का कुसूर है या अंगरेजी की गलती या फिर भाषा के नाम पर संकीर्णता का दुष्परिणाम? राष्ट्रभाषा के मामले में इस देश में वही हो रहा है, जो एकता और अखण्डता के मामले में हुआ है। इतना महान देश क्षेत्रावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का शिकार बना हुआ है। आज़ादी की लड़ाई में, जब तक हिंदुस्तानी एकजुट नहीं हुए थे, अंगरेज इस मुल्क से नहीं गए। अंगरेजी भी ऐसे ही जाएगी। सभी भाषाओं का सम्मान हो, पर सब से ज़्यादा देश की भाषा को महत्व मिले। उस सम्मेलन में बड़े-बड़े साहित्यकार और बड़े-बड़े कवि थे, सब के सब समझदार, संवेदनशील और भावुक थे, उनमें से बहुतों की आंखों में आंसू आ गए। फिर मुलायम सिंह यादव का ज़बरदस्त स्वागत हुआ। उस सभा में न तो पत्थर चला और न ही मुलायम सिंह यादव का विरोध हुआ। 

करुणानिधि से भी मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा कि आप हमें जो भी पत्र लिखिए अंगरेजी में मत लिखिए। करुणानिधि ने तब भड़क कर कहा तो क्या हिंदी में लिखें? मुलायम ने कहा कि नहीं तमिल में लिखिए और हम आप को तमिल में ही जवाब देंगे। करुणानिधि तब गदगद हो गए। असल में जो अलगाव पैदा करने वाले लोग हैं, वह लोग अंगरेजी के समर्थक हैं। हमारे यहां भी भाषा के मामले में बड़े-बड़े नेता जिन पर विश्वास रखते थे, उनमें अंगरेजी परस्तों की कमी नहीं थी। मुलायम सिंह यादव की प्रेरणा से एक बार अंग्रेजी हटाओ अभियान में चार मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। उस की रिपोर्ट करते हुए अखबारों ने लिखा था कि भले ही अंगरेजी जीवंत है, मगर हमारे देश की संसद बहुभाषी बने, हमारा सुप्रीम कोर्ट बहुभाषी बने, सरकारी नौकरियों से अंगरेजी की अनिवार्यता खत्म हो, सरकारी काम-काज सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में हो। दरअसल समाजवादियों की यही नीति भी है। मुलायम सिंह यादव दरअसल अंगरेजी के विरोधी नहीं थे। वह साफ मानते थे कि अगर कोई विदेशी भाषा मिटाने की बात कहेगा तो वह मूर्ख होगा, अज्ञानी होगा, मुलायम सिंह जैसा नहीं होगा। मुलायम सिंह इस विचार के थे कि हम किसी विदेशी भाषा को मिटाना नहीं चाहते। कोई विदेशी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, करे, लेकिन अंगरेजी की अनिवार्यता सार्वजनिक जीवन से, सरकारी काम-काज से हटे, अपनी भारतीय भाषाओं में ही काम हो। मुलायम सिंह मानते थे कि देश की मातृभाषा हिंदी है उसी का बोलबाला हो। वर्ष 2003 में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तो एक अद्भुत आदेश उन्हों ने दिया था। हिंदी दिवस के मौके पर। और कहा था कि रातो-रात 24 घंटों में सरकारी कार्यालयों से अंगरेजी हट जाए। जो अंगरेजी में पुलिस के बैरियर लगे रहते हैं वह भी हट जाएं। सभी सरकारी कार्यालयों में जितनी गाड़ियां हैं चाहे किसी की हों, उन की ही क्यों न हो, उन की नंबर प्लेटों पर से पद-नाम इत्यादि अंगरेजी में ख़त्म हो। मुलायम ने ही प्रदेश में हिंदी और उर्दू का एक साथ चलन शुरू कराया। क्यों कि वह मानते थे  कि हिंदी है बड़ी बहन और उर्दू छोटी बहन। इस लिए छोटी बहन का आदर करना पड़ेगा।

मुलायम सिंह यादव दरअसल हिंदी के ही समर्थक नहीं थे , वह सभी भारतीय भाषाओं के समर्थक थे । उन का सोचना यह था कि किसी भी विदेशी भाषा का देश पर एकाधिकार न हो। उन की राय थी कि देश में विदेशी भाषा में काम न हो। मुलायम कहते थे कि जब अकेली अंगरेजी ने सारी भारतीय भाषाओं का हक मार रखा है तो विदेशी कंपनियां आने के बाद हमारी स्वदेशी कंपनियों की क्या हालत होगी। मुलायम कहते थे कि अगर अंगरेजी रहेगी, विदेशी भाषा रहेगी तो विदेशी कंपनियों को भी कोई रोक नहीं सकता। भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को मिटने से कोई रोक नहीं सकेगा तब। मुलायम की राय थी कि भाषा का रिश्ता केवल हमारे आर्थिक जीवन से ही नहीं, भाषा का रिश्ता हमारे देश की नींव से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्मान से जुड़ा हुआ है। 

आप को याद होगा कि अमरीका से क्लिंटन भारत आए थे तो प्रधान मंत्री ने अपना भाषण अंगरेजी में देना चाहा था। मुलायम ने इस का विरोध जताया था। क्यों कि मुलायम को याद था कि एक बार रूसी राष्ट्रपति के आने पर हमारे प्रधान मंत्री अंगरेजी में बोले थे तब रूसी राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं तो समझता था कि यहां तो हिंदी में भाषण दिया जाएगा या संस्कृत में भाषण दिया जाएगा पर यहां तो विदेशी भाषा में भाषण दिया जा रहा है। तो जब मुलायम ने क्लिंटन के समय यह मामला उठाया कि प्रधान मंत्री का भाषण विदेशी भाषा में नहीं होने देंगे तो सरकार दहशत में आ गई। रात के 11 बजे मीटिंग हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को समझाया गया कि मुलायम सिंह हो सकता है कि केवल भाषण का ही बहिष्कार न करें, महिला बिल की तरह कहीं इस के कागज न छीन लें। अगर कागज छीनना शुरू कर दिया तो अमेरिका के सुरक्षा कर्मी और भारत के सुरक्षा कर्मी उन के हाथ-पैर तोड़ देंगे। और टेलीविजन पर इसे सारी दुनिया देखेगी तब आप क्या जवाब देंगे। तब कहीं जा कर प्रधान मंत्री हिंदी में भाषण देने को तैयार हुए। करुणानिधि ने विरोध किया और कहा कि मुलायम सिंह के दबाव में प्रधान मंत्री ने ऐसा किया है। मुलायम ने तुरंत करुणानिधि को चिट्ठी लिखी और कहा कि मुझे खुशी होती अगर प्रधान मंत्री तमिल भाषा में बोलते। मुलायम की करुणानिधि को लिखी यह चिट्ठी देश के अखबारों में छपी। करुणानिधि ने माना कि उन्हों ने वह बयान दे कर गलती की। उन्हों ने कहा कि मैं नहीं समझता था कि मुलायम सिंह ऐसा जवाब दे देंगे। इस के बाद दक्षिण भारत के, तमिलनाडु के जितने भी सांसद आए मुलायम को सीने से लगा लेते।

मुलायम हिंदी प्रेमियों को इस से सावधान होने की हिदायत देते थे और कहते हैं कि हिंदी प्रेमियों को सावधान होना पड़ेगा। वह कहते थे कि इस ग़लतफहमी में न रहें कि हिंदी हमारी चूंकि मातृभाषा है इस लिए हमारी ज़िंदगियों के साथ ही पनपेंगी, यह गलत धारणा है। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मिटाया न जाए लेकिन सरकारी काम-काज से हटाया जाए। अदालतों से हटाया जाए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुलायम कहते थे कि जब तक संसद और उच्चतम न्यायालय में अंगरेजी चलेगी, तब तक देश में हिंदी नहीं आएगी। अगर इस काम में कोई बाधक है तो संसद है और उच्चतम न्यायालय है। मुलायम कहते थे कि आप अगर अकेले हिंदी की तरक्क़ी चाहते हैं तो ख़तरा और भी ज़्यादा बड़ा है। इस लिए बड़ी सोच से काम लेना चाहिए। जिस तरह सिर्फ़ हिंदुओं की उन्नति से हिंदुस्तान तरक्क़ी नहीं करेगा, उसी तरह अकेली हिंदी का देश में पनपना नामुमकिन है। इसी लिए मुलायम हमेशा भारतीय भाषाओं के हक़ की बात करते थे और कहते थे कि जब भारतीय भाषाओं की तरक्क़ी होगी तो हिंदी अपने आप आ जाएगी। फिर हिंदी को कोई रोक नहीं सकता है।

यह जानना भी दिलचस्प है कि मुलायम जब रक्षा मंत्री थे तो उन के पास 85 प्रतिशत पत्रावलियां हिंदी में आती थीं। उस समय ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जो बाद में राष्ट्रपति हुए, रक्षा मंत्रालय में सलाहकार थे। तो मुलायम सिंह ने एक दिन उन से पूछा कि आप ज़रा भी हिंदी नहीं जानते? तो कलाम साहब ने उन्हें बताया, ‘जी, नहीं जानते।’ तो मुलायम ने उन से कहा कि थोड़ा-बहुत तो आप को सीखनी ही चाहिए। इस पर कलाम साहब ने कहा कि, ‘एस आई विल स्पीक इन हिंदी विद इन थ्री मंथ्स!’ फिर उन्हों ने तीन महीने के भीतर न सिर्फ़ काम चलाने लायक हिंदी सीख ली बल्कि हिंदी में दस्तख़त भी करने लगे। इतना ही नहीं, एक बार लोकसभा में मुलायम ने इंद्रजीत गुप्त से कहा कि अगर आप अंगरेजी में बोलेंगे तो हम आप को नहीं सुनेंगे। आप के साथ नहीं बैठेंगे। फिर उन्हों ने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया। लेकिन दूसरे दिन उन्हों ने कहा कि मुलायम सिंह आप ने हिंदी में बुलवा कर पार्टी में हम पर डांट पड़वा दी है कि क्या मुलायम सिंह के कहने पर आप हिंदी में भाषण देंगे? मुलायम मानते थे कि देश में हिंदी के लिए यह प्रवृत्ति बहुत बड़ा ख़तरा है।

27 नवंबर, 2003 को लखनऊ में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन के नाम पर डाक टिकट जारी किया था तो इस मौके पर मुलायम ने कहा यदि मधुशाला का अंगरेजी में प्रभावी अनुवाद हो, तो अंगरेजी जानने वालों को भी पता चल जाएगा कि बच्चन जी कीट्स और शैली से बहुत आगे थे। उन्हों ने कहा कि किसी रचनाकार का सही सम्मान यही हो सकता है कि उस की कृतियों को पूरे विश्व समाज तक पहुंचाया जाए। उन्होंने घोषणा भी की कि मधुशाला का अनुवाद क्षेत्राीय भाषाओं में भी कराने का पूरा प्रयास करेंगे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव कविता और कवि सम्मेलन के बहुत बड़े रसिया थे एक समय था कि वह रात-रात भर कवि सम्मेलनों में एकदम पीछे बैठ कर कवियों और शायरों को सुनते थे और मूंगफली के सहारे सारी रात जागते थे। कवि सम्मेलनों में जाने और कवि सम्मेलन कराने का उन्हें बहुत शौक़ था। इसी लिए वह कवियों का सम्मान भी बहुत करते थे। वह मानते थे कि कवि और लेखक भावना प्रधान होते हैं। तुलसीदास से ले कर महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और गोपाल दास नीरज जो कि इटावा ज़िले के ही थे , सभी को बड़े ही चाव से पढ़ते व सुनते थे। वह कहते थे कि कवि की कोई जाति नहीं होती। समय-समय पर जब किन्हीं परिस्थितियों के कारण देश और समाज में अंधकार हो जाता है, तो वे प्रकाश देते हैं। आज़ादी की लड़ाई इस का प्रमाण है। मुलायम कहते थे कि आज़ादी की लड़ाई के ज़माने के जो गीत थे, नज्में थीं, जो कविताएं थीं, उन्होंने क्रांति की ज्वाला और स्वाधीनता संघर्ष की लौ को जलाए रखने में इतनी मदद की, वह आज देश का इतिहास बन चुका है। कवियों ने सिर्फ़ जनजागरण का काम ही नहीं किया, उन्हों ने इन संघर्षों में हिस्सा भी लिया तथा कुर्बानियां भी दीं। बहुत से कवि गांधी जी के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूदे थे, वे भी महान स्वतंत्राता सेनानी थे। 

मुलायम सिंह यादव न सि़र्फ भाषाई स्तर पर बल्कि वैचारिक स्तर पर भी भाषा, साहित्य और संस्कृति का बेहद सम्मान करते थे। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जैसे डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन जब बीमार थे तो उन्हें यश भारती से सम्मानित करने वह मुंबई उन के घर गए और उन्हें सम्मानित किया। हिंदी कवि सम्मेलनों में एक बहुत मशहूर कवि हुए हैं बृजेंद्र अवस्थी। कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करने के लिए वह मशहूर थे। आशु कविता के लिए वे जाने जाते थे। अपने अंतिम समय में जब वह गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उन के पास किसी ने सूचना दी कि बृजेंद्र अवस्थी बहुत बीमार हैं। उनके इलाज में मदद की ज़रूरत है। मुलायम सिंह ने तुरंत उन का सरकारी खर्चे पर इलाज करने के आदेश दिए और उन्हें आर्थिक मदद भी भेजी। जब वह यह सब कर रहे थे तभी किसी ने उन्हें आगाह किया कि अरे वह तो भाजपाई कवि है। मुलायम ने उस व्यक्ति को फौरन डांटा और कहा कि चुप रहो! कोई कवि भाजपाई या सपाई नहीं होता है। कवि कवि होता है। मशहूर शायर अदम गोंडवी बहुत बीमार पड़े और गोण्डा से चल कर लखनऊ के पी.जी.आई. में इलाज कराने के लिए आए। अखबारों में खबर छपी कि अदम गोंडवी को पी.जी.आई. में भर्ती नहीं किया जा रहा है और उन के इलाज में आर्थिक दिक्कतें बहुत हैं। मुलायम सिंह यादव तब सरकार में नहीं थे। लेकिन यह खबर मिलते ही वह फौरन पी.जी.आई. पहुंचे और उन्हें भर्ती करवाया, उन की आर्थिक मदद की और उन के परिजनों को आश्वासन दिया कि उन के इलाज में कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। हुआ भी यही। अलग बात है कि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका। जिस दिन उनका निधन हुआ उस दिन बहुजन समाज पार्टी की रैली थी और सड़कें भरी हुई थीं। अदम का सुबह पांच बजे निधन हुआ। और सुबह छः बजे ही मुलायम पी.जी.आई. पहुंच गए। उन के परिवारीजनों को ढांढस बंधवाया और उनके पार्थिव शरीर को गोण्डा ले जाने की व्यवस्था भी कराई। यह मुलायम सिंह यादव ही कर सकते हैं।

एक बार मेरे साथ भी वह ऐसा कर चुके हैं। 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। मुलायम सिंह यादव संभल से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। मैं संभल कवरेज में जा रहा था। सीतापुर से पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर एक ट्रक से लड़ गई। हमारे साथ बैठे हिंदुस्तान के पत्रकार और हमारे साथी जय प्रकाश शाही और ड्राइवर ऐट स्पाट चल बसे। मुझे और आज के गोपेश पांडेय को गहरी चोट लगी। लेकिन बच गए। मेरा जबड़ा हाथ और सारी पसलियां टूट गई थीं। लखनऊ पी.जी.आई. लाए गए हम लोग। हमें देखने के लिए उसी शाम सब से पहले मुलायम सिंह यादव पहुंचे राजबब्बर के साथ। न सिर्फ़ पहुंचे बल्कि इलाज का सारा प्रबंध किया। परिवारीजनों को ढाढस बंधाया। बाद के दिनों भी वह हालचाल नियमित लेते रहे। एक महीने बाद जब अस्पताल से घर लौटा तो पता चला कि दाई आंख भी डैमेज है। रेटिना पर चोट है। मन में आया कि इस से अच्छा होता कि मर गया होता। बिना आंख के जी कर क्या करुंगा मैं। मुलायम सिंह तब दिल्ली में थे। उन्हें जब यह पता चला तो मुझे फ़ोन किया और कहा कि घबराइएगा नहीं। दुनिया में जहां भी आप की आंख ठीक हो सकती हैं, मैं कराऊंगा। मैं जैसे जी गया था। बाद में वह एक बार मिले तो कहने लगे कि आप को ज़िंदगी में कभी कोई दिक्कत नहीं होगी। क्यों कि आप की पत्नी बहुत बहादुर हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार में हों या बाहर , सामाजिक सरोकार, साहित्य और संस्कृति हमेशा उन की प्राथमिकता में होते थे। इसी लिए मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव थे। और मुलायम के मायने हैं।

मुलायम सिंह यादव असल में हिंदी को हमेशा स्वाभिमान का विषय मानते आए थे। इसी लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश से लगायत तमिलनाडु तक में हिंदी के झंडे गाड़े। उन्हों ने न सिर्फ़ राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित किया बल्कि उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री प्रशासनिक तौर पर भी हिंदी को प्रतिष्ठित किया। क्यों कि मुलायम का मानना था कि विकास प्रक्रिया में उपेक्षित, साधनहीन और निर्बल वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारी कामकाज का जन-भाषा में होना बहुत ज़रूरी है। वह इस बात को भी नहीं मानते थे कि विशेषज्ञता वाले कई विषयों में उच्च अध्ययन के लिए हिंदी सक्षम नहीं है। मुलायम मानते थे कि चीन, जापान, रूस आदि देश अगर अपनी भाषा के बल पर इतनी तरक्की कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता? इसी लिए उन्हों ने 1990 में बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंगरेजी के प्रश्नपत्र की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इस के साथ ही हिंदी के प्रश्नपत्र में प्रश्नों के अंगरेजी अनुवाद की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी। बाद में यही फैसला उन्हों ने पी.सी.एस. की होने वाली परीक्षाओं में भी लागू कर दिया। 

मुलायम सिंह यादव के साथ मैं ने बहुत सी यात्राएं की हैं। सड़क मार्ग से भी , हवाई मार्ग से भी। अनेक इंटरव्यू किए हैं। उन के साथ की बहुत सी खट्टी-मीठी यादें हैं। सहमति-असहमति के अनेक क़िस्से हैं। जब वह रक्षा मंत्री थे तो लखनऊ में सेना का एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद जलपान हुआ। जलपान में ही वह मेरी बांह पकड़ कर कहने लगे , मेरे साथ चलिए। उन दिनों मैं स्कूटर चलाता था। बताया उन्हें कि स्कूटर से आया हूं। तो वह बोले , स्कूटर आ जाएगी। आप अभी चलिए। कुछ बात करनी है। स्कूटर छोड़ कर चला आया। वह सेना को ले कर इंटरव्यू देना चाहते थे। उसी दिन दिल्ली जाना था उन्हें। फ्लाइट थी। स्पेशल इंटरव्यू वह मुझ से ही लिखवाना चाहते थे। मेरी भाषा पर मोहित रहते थे। इंटरव्यू में बहुत सी बातें हुई। पर ख़ास बात यह थी कि मुलायम सेना की नौकरी को आई ए एस , आई पी एस की तरह आकर्षक सेवा बनाने की बात करते रहे थे। इन से भी अधिक वेतन और सुविधाएं देना चाहते थे। 

एक दिन उन का अचानक फ़ोन आया। हालचाल पूछा और कहने लगे , ' सुना है , आप ने मुझ पर कोई किताब लिखी है ? ' मैं ने बताया कि , ' हां लिखी तो है। ' 

' कैसे मिलेगी मुझे ? '

' आप जब कहें , आ कर दे दूंगा। या भिजवा देता हूं। '

' आप ऐसे तो कभी आते नहीं हैं। किताब के बहाने आइए। '

जो समय तय हुआ , मैं पहुंचा। बहुत दिनों बाद गया था। उन के घर का सब कुछ बदल गया था। सुरक्षा कर्मियों ने रोका तो बताया कि बुलाया है मुलायम सिंह जी ने। नाम बताने पर सुरक्षाकर्मी उठ कर खड़ा हो गया। फाटक खोल दिया। लेकिन दूसरे सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल और , चाभी जमा करने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। यह क्या तरीक़ा है ? कहते हुए वापस होने लगा तो अचानक एक सुरक्षाकर्मी मेरे पास आया और सामने एक व्यक्ति को दिखाते हुए बोला , ' सर उन्हें जानते हैं ? ' 

' हां ! ' मैं ने कहा , 'कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी हैं। '

' उन्हें देखिए। '

देखा कि प्रमोद तिवारी भी अपना मोबाइल जमा कर रहे थे। तो मैं ने मोबाइल कार में रख कर चाभी जमा कर दी। भीतर गया। मुलायम मुझे देखते ही खिल गए। उठ कर गले मिले। अपने बगल में बिठाया। किताब के साथ फ़ोटो खिंचवाई। मिठाई खिलाई। 

मैं वापस आ गया। फिर कभी नहीं गया मुलायम से मिलने। यही मेरी उन से आख़िरी मुलाक़ात थी। फ़ोन पर ज़रुर बात हुई। असल में उन के घर की जांच बहुत बुरी लगी थी। एक समय था कि विक्रमादित्य मार्ग के इसी घर को वह घूम-घूम कर दिखाते रहे थे। एक समय था कि बिना किसी जांच या रोकटोक के उन के घर या दफ़्तर में घुस जाता था। 

मुलायम सिंह यादव अपनी अच्छाई-बुराई के साथ आप हमेशा याद आएंगे। 

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प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...