रविवार, 23 जुलाई 2023

संघ और समाजवादी राजनीति में मूलभूत फर्क होता है ।

डॉ लाल रत्नाकर 


संघ और समाजवादी राजनीति में मूलभूत फर्क होता है । यदि समाजवादी राजनीति संघ की तरह चलाने का प्रयास किया जाएगा तो समाजवादी अवधारणा ही नष्टप्राय हो जाएगी। 

यही दुर्भाग्य है कि समाजवादी अवधारणा को समझे बगैर जो लोग वहां पर संघ की नकल करते हैं. अब वही परिवारवाद जातिवाद और भ्रष्टाचार का स्लोगन संघ लगाता है और उसका जवाब इन समाजवादियों के पास नहीं होता है । जबकि संघ का मूल उद्देश्य ही समाज में भेदभाव पैदा करना पाखंड अंधविश्वास और चमत्कार को बड़ा करके समाज को बांटने / तोड़ने का काम करना है। इसके संथापकों में मूलरूप से मनुस्मृति का पक्षधर रहा है। 

दीन दयाल उपाध्याय 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवतावाद की मूल अवधारणा ही उसी पर केंद्रित है जिसको भली-भांति संघ ने देश और प्रदेश में लागू किया है। उसको लेकर जितना बड़ा विरोध खड़ा होना चाहिए था वह किसी तरफ से नहीं हुआ। समाजवादियों को तो यह बात समझ में ही नहीं आई होगी की एकात्म मानवतावाद क्या है यह बहुत गुड शब्द है जिसमें पूरी की पूरी मनुवादी व्यवस्था को समाहित किया गया है मैं जब यह आंदोलन शुरू किया गया था और इसको प्रदेश सरकार ने बहुत बड़ा चढ़ाकर हर तरफ लागू करने का काम शुरू किया था तो मेरे किसी मित्र ने सलाह दिया था कि मुझे इनकी वह पुस्तक पढ़नी चाहिए जिसमें एकात्म मानवतावाद की अवधारणा को बताया गया है मैंने ऐसा ही किया और उस पुस्तक को पढ़ा उस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह भय मन में समा गया कि इसके विरुद्ध जिस तरह की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए कौन लड़ेगा।

माननीय शरद यादव जी उस समय थे मैंने इस पर उनसे चर्चा की तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा यही सब इनके छुपे हुए अजंडे हैं देखते जाओ किस तरह से यह बाबा साहब अंबेडकर के सारे संवैधानिक अधिकारों को समाप्त कर देंगे और बहुमूल्य हथियार जो वोट देने का अधिकार है वह भी जनता के हाथ से चला जाएगा।

वही मूल चिंता का विषय है जिस पर आज भी कोई बात नहीं हो रही है मैं इस बात को स्पष्ट तौर पर कह सकता हूं कि जब तक समाजवादी पार्टी में एक मजबूत संगठन इस तरह का नहीं बनेगा जहां पर उनके छुपे हुए एजेंण्डो पर बड़ी बहस करके उसकी सच्चाई को समाज के सामने पर्चा पोस्टर और बुकलेट के रूप में ले आना होगा की यह सारी योजनाएं कैसे संविधान के खिलाफ है और मनुवाद के पक्ष में तब तक इस लड़ाई को मजबूती से नहीं लड़ा जा सकता।

 इसी एकात्म मानवतावाद के सिद्धांत में यह भी बात उजागर होती है जिसमें जातीय आधार पर समाज के शीर्ष पर काबिज रहना है और एन केन प्रकारेण सत्ता अपने हाथ में रखना है। इसका बहुत मजबूत उदाहरण राम मंदिर न्यास के संगठन में सम्मिलित किए गए लोगों से लिया जा सकता है।


ऐसे कुत्सित विचारों जो संविधान विरोधी हैं के नकल करने और उनके अनुकरण की बजाए संवैधानिक मूल्यों पर अच्छे और अनुभवी लोगों को विश्वविद्यालयों विद्यालयों जैसे सत्ता के केंद्रों में नीतियां बनाने की जगहों पर बैठाना होगा। समय-समय पर यह करने में तमाम समाजवादियों से चूक हुई है जो केवल संघ की नकल करके बहुत जल्द एक्सपोज हो जाते हैं और पता यह चलता है कि उधर का गोबर इधर का सोना हो जाता है और इधर का सोना समाजवाद के केंद्र में रहते हुए भी अर्थहीन होता है उस सोने पर विश्वास नहीं किया जाता और उसे अविश्वसनीय बनाकर एक किनारे फेंक दिया जाता है। इसलिए मेरा मानना है कि जब तक इस तरह के संगठनात्मक ढांचे का निर्माण करके उनकी विश्वसनीयता नहीं होगी तब तक इस खतरनाक संगठन से लड़ना आसान नहीं होगा। 

जबकि संघ के खिलाफ अनेकों बार समाजवादियों का यही आवाहन रहा है कि इनको सत्ता में आने से रोकना है लेकिन आज ऐसी हालत है कि वही लोग सत्ता पर काबिज हो गए हैं और पुणे छुपे हुए एजेंडों से ऐसे ऐसे लोग संविधान और संवैधानिकता को तहस नहस कर रहे हैं।

निश्चित रूप से इस पैनल में अपने अपने अनुभव के आधार पर बात रख रहे हैं लेकिन उसके भीतर की साजिश को कोई उजागर नहीं कर रहा है जिसको लोग यह बता रहे हैं कि यह किस तरह से समाज को अनेकों तरह से धर्म के नाम से, राजनीति के नाम पर, मुफ्त में अन्न प्रदान करके योग्यता के नाम पर अपने अयोग्य हर जगह बैठा रहे हैं या बैठा दिए हैं जो उनका नारा लगाकर निरंतर लोगों को अपमानित करके सत्ता के अधिकारों से प्रताड़ित करके सच के खिलाफ झूठ को कितना बड़ा कर रहा है।

अब सवाल यह है कि ऐसे लोगों को कहां से लाया जाएगा जब विश्वविद्यालयों में क्वालिफिकेशन मात्र संघ का सदस्य होना सुनिश्चित कर दिया गया हो और अनुभवी एवं योग्य लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

ऐसे में हमें उन लोगों की फौज खड़ी करनी होगी जो लोग इस तरह से बाहर का रास्ता दिखा दिए गए हैं और उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा की जब सत्ता में हम आएंगे तो सबसे पहले उनको उनके योग्य पदों पर भर्ती करेंगे उसके लिए हमें जो भी पापड़ बेलना पडे़ बेलेंगे। अब सवाल यह है कि उनके लिए उनके पास संसाधन कहां से आएंगे इस पर हम अलग से राय देंगे। 

जिनको पहले अवसर मिला उन्होंने अपनी काबिलियत समझकर समाजवाद और अंबेडकरबाद एवं वामपंथ के नाम पर अपनी दुकान चलाई समाज को बिल्कुल अलग-थलग छोड़ दिया और यह मान लिया कि जो राजनेता है उन्हीं के ऊपर सारी जिम्मेदारी है। ऐसे में वह नेता निरंकुश हुए और अपने परिवार को ही सबसे बड़ी जागीर समझ कर उसी के माध्यम से देश के उन खतरनाक लोगों से लड़ना चाहे जो आज उन्हें कैसे-कैसे डराए हुए हैं वह आपके सामने उपस्थित है।

समाजवादियों में मैंने बहुत सारे ऐसे युवाओं को देखा है जो किसी भी तरह से समाजवादी नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनका उद्देश्य भी उसी तरह का है जहां नैतिकता योग्यता सुचिता और समानता का बिल्कुल अभाव है वह लूट खसोट के उद्देश्य से संघियों जैसे निकम्मे और बहुतायत में पतित हो जाते हैं, जो बहुत जल्दी बदनाम हो जाते हैं और उसका परिणाम क्या होता है कि उसका सारा दोष उनके नेताओं पर जाता है और यह पता चलता है कि इस पार्टी में इसी तरह के लूट खसोट वाले लोग ही हैं।

संघ के बारे में बहुत गहराई से विचार करना होगा इनके सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को समझना होगा और उसके प्रति जनता में जागरूकता पैदा करनी होगी कि किस तरह से वह संगठन अलोकतांत्रिक है और मनुवादी के साथ-साथ ब्राह्मणवादी है जो समता समानता और बराबरी का विरोधी है। जब तक जनता में इसके प्रति आक्रोश नहीं पैदा किया जाएगा और गांव गांव से इन लोगों को खदेड़ने के लिए पीडीए के लोग तैयार नहीं होंगे तब तक इंडिया में बैठा हुआ मनुवादी भी अपनी खुराफात करता रहेगा और अवसर मिलने के बावजूद उसका लाभ उठाने में समाजवादी कामयाब नहीं हो पाएंगे । 

इसलिए खास करके उन पैनलिस्टों से सुझावात्मक निवेदन है कि उन बातों पर जोर डालें जिससे समाज में एक तरह की जागृति पैदा हो और लोग आक्रामक होकर अपने खिलाफ किए जा रहे लिवलिवे मनुवाद को अच्छे विचार रूपी डिटर्जेंट से धोएं और भली-भांति धोबी घाट की तरह धुलाई करें। जब तक यह बात बताने में वह कामयाब नहीं होंगे और जनता को यह बात समझ में नहीं आएगी की देश में उनकी भी उतनी हिस्सेदारी है जितनी किसी भी पूंजीपति और उनके दलालों की जिस तरह से देश की सारी संपत्तियों को निजी हाथों में दे दिया जा रहा है कल बचेगा क्या ? किसको कहेंगे अपना देश है ! अभी आगे आपकी पीढ़ी पड़ी है जिसके लिए जिस तरह से समान शिक्षा और रोजगार की बात की जाती थी वह सब लूट लिया जाएगा आगे कुछ नहीं मिलेगा । इसलिए इस बहस के मायने बहुत कुछ उपयोगी नजर नहीं आ रहा है। इसलिए विनीता यादव जी ऐसे लोगों को पैनल में बुलाइए जो लोग आपके अभियान में स्पष्ट रूप से श्री अखिलेश यादव जी को यह संदेश देने में कामयाब हो सके की किस रास्ते पर चलकर परिवर्तन की किरण नजर आएगी।

आइए नजर डालते हैं समाजवादी विमर्श पर :

समाजवादी समागम आधार-पत्र

1. भूमिका

समाजवाद मानव समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण, विषमता और अत्याचारों को दूर करने का सिद्धांत है यह स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, सम्पन्नता और सहयोग के जरिये सुखमय जीवन की स्थापना का दर्शन है. इसने विभिन्न प्रकार के अन्यायों, शोषण, गैर-बराबरी और अत्याचारों का रचना और संघर्ष की दुहरी रणनीति के जरिये निर्मूलन का रास्ता दिखाया है. इसके जरिये दुनिया के अधिकांश देशों की प्रगतिशील जनता ने चेतना निर्माण, रचनात्मक कार्य और सत्याग्रह के समन्वय से समतामूलक आदर्शों, संस्थाओं और तरीकों का लगातार संवर्धन किया है. निजी और सामुदायिक जीवन में न्याय, नैतिकता और मानवीयता को बढ़ावा देना समाजवादियों का मकसद है. इसीलिए हर समाजवादी साध्य और साधन को एक ही सच का दो पहलू मानता है,

देश-समाज में चतुर्मुखी स्वराज राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक की स्थापना समाजवाद की बुनियाद है. बिना पूर्ण स्वराज के समाजवादी समाज की दिशा में नहीं बढ़ा जा सकता है. मानवमात्र के प्रति सम्मान, 'वसुधैव कुटुम्बकम' के आदर्श में विश्वास और कथनी और करनी की एकता समाजवादी आचरण की कसौटी है. समाजवादी विचारधारा पूजीवाद और साम्राज्यवाद में निहित मुनाफाखोरी, स्वार्थ, अनैतिकता, श्रमजीवी वर्गों और शक्तिहीन समुदायों और क्षेत्रों के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के विनाशकारी दोहन की विरोधी है. हम जानते हैं कि पूँजीवादी शक्तियों ने समाज और राजसत्ता संचालन के लिए लोकतांत्रिक समाजवादी सूत्रों में से साधारण नागरिकों के लिए कुछ कल्याणकारी उपायों को अपनाकर यूरोप- अमरीका-जापान-चीन में अपना आकर्षण बनाया है. इससे भारत जैसे नव-स्वाधीन देशों के मध्यम वर्ग में भी इसके प्रति मोह हुआ है. लेकिन इसमें निहित शोषण और विषमता की अनिवार्यता तथा इसकी टेक्नोलाजी द्वारा समाज में बेरोजगारी का विस्तार और प्रकृति का लगातार विनाश हुआ है पूंजीवादी व्यवस्था में मानव समाज में बंधुत्व स्थापित करने और समाज और प्रकृति के टिकाऊ सहअस्तित्व की दृष्टि से खतरनाक दोष है।

राष्ट्रीयता और समाजवाद को परस्पर पूरक मानने के कारण प्रत्येक समाजवादी पूंजीपतियों की हितरक्षा के लिए धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की एकता की आड़ में सामाजिक हिंसा और राज्यसत्ता के इस्तेमाल की राजनीति अर्थात 'फासीवाद' के खिलाफ है. हर समाजवादी रोटी और आजादी यानी पूर्ण रोजगार और नागरिक अधिकार दोनों को एक जैसा जरूरी मानता है, इसीलिए कम्युनिस्ट व्यवस्था में विषमता और शोषण के निर्मूलन के नाम पर स्त्री-पुरुषों के मौलिक अधिकारों के हनन, सत्ता के केन्द्रीयकरण और कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही को गलत मानता है. पूंजीवादी उत्पादन पद्धति, वर्ग- व्यवस्था और टेक्नोलाजी के विकल्प की जरुरत के प्रति यूरोपीय सोशल डेमोक्रेटिक विचारधारा की उदासीनता से भी हम असहमत हैं. क्योंकि यह मानव और प्रकृति दोनो के लिए हानिकारक हैं और नव-स्वाधीन देशों के लिए अनुपयोगी और असंभव सिद्ध हो चुके हैं.

यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विदेशी गुलामी से आजादी के बाद भारत समेत अनेकों नव-स्वाधीन देशों द्वारा अपनायी गयी 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' ने पूंजीवादी की बुराइयों और सरकारीकरण के दोषों को बढ़ावा दिया और अंततः विश्व-पूंजीवाद के आगे आत्मसमर्पण किया है. इसके दो खराब नतीजे सामने हैं. पहले, आधी शताब्दी से जादा लम्बी अवधि की इस असफलता ने इन देशों को वैश्वीकरण के नाम पर पूंजीवादी विश्व की वित्तीय संस्थाओं के अधीन किया. इससे नयी तरह की गुलामी हो गयी है. दूसरे, इस आर्थिक लाचारी ने 1991-92 से चल रहे बेलगाम निजीकरण, भोगवाद, सांस्कृतिक कट्टरता, पर्यावरण प्रदूषण और बाजारवाद के जरिये सभी नव-स्वाधीन देशों में गम्भीर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है.

इसलिए इक्कीसवीं शताब्दी का यह तकाजा है कि सभी स्त्री-पुरुषों की बुनियादी जरूरतों के अभाव को योजनाबद्ध तरीके से दूर करते हुए समाज में सभी के लिए सम्मानपूर्ण जीवन को संभव बनाया जाये. यह बिना अन्याय-मुक्त समाज और प्रकृति-संवर्धक विश्व- व्यवस्था के असंभव है. जबकि पूंजीवाद साम्राज्यवाद ने लोभ, शोषण, विषमता, हिंसा और वर्चस्व पर आधारित समाज-व्यवस्था को प्रबल बनाया है. इसलिए दुनिया को, विशेषकर किसानों, मजदूरों, युवजनों, मध्यमवर्ग और महिलाओं को पूंजीवाद से बेहतर व्यवस्था की जरूरत है. जिससे सभी प्रकार की गरीबी से मानव को मुक्ति मिले. एक समतामूलक, न्यायपूर्ण और आतंकमुक्त दुनिया बने. इंसान और पृथ्वी दोनों की स्थायी सुरक्षा संभव हो. इस जरुरत को 2016 में ही दुनिया के 193 राष्ट्रों की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2030 तक 'सतत विकास लक्ष्य' के रूप में स्वीकार कर लिया है. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक न्याय और परस्पर हितकारी सहयोग पर आधारित परिवर्तन ही हम सबका सपना और उद्देश्य होना चाहिए. इससे समाजवादी विकल्प को मजबूती मिलेगी. अन्यथा पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अन्याय और शोषण का दुहरा दोष समाज और प्रकृति दोनों के लिए असहनीय हो चुका है.

II. भारत में समाजवाद विकास के नौ दशक (1934-2019)

भारत समेत दुनिया के विभिन्न देशों में स्थानीय देश-काल-पात्र की विशेषताओं के अनुसार समाजवादी आन्दोलन ने रूप और आकार लिया है औद्योगिक क्रांति का लाभ पानेवाले यूरोपीय देशों में समाजवादी आन्दोलन ने औद्योगिक श्रमिकों के संगठन और आंदोलनों के जरिये अपना आधार बनाया यह इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, हालैंड और इटली जैसे देशों की सबसे महत्वपूर्ण बात थी. इससे 1848 में कम्युनिस्ट घोषणा- पत्र के प्रकाशन और 1917 की रुसी क्रांति के बीच यूरोप में समाजवादी दर्शन और आन्दोलन का तेजी से प्रसार हुआ. द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के बाद साम्राज्यवाद के चंगुल से दो तिहाई विश्व के आजाद होने से समाजवाद के विभिन्न रूपों की महत्ता बढ़ी. लेकिन औद्योगिक राष्ट्रों के सभी उपनिवेशों में तीन शताब्दियों से उद्योगीकरण अवरुद्ध रहा. इससे श्रमजीवियों में कारखाना श्रमिको का प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच के दशकों में ही कुछ संख्या विस्तार हुआ. यह भारत में आत्मनिर्भर समाजवादी आन्दोलन के सामाजिक-राजनीतिक आधार के लिए अपर्याप्त था. फिर भी भारत में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे बड़े मंच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंतर्गत किसानों, मजदूरों, महिलाओं और विद्यार्थियों-नौजवानों के बीच आर्थिक न्याय, राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक समता के प्रश्नों के बारे में सरोकार पैदा हुआ. इस सन्दर्भ में समाजवाद के आदर्शों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए समर्पित देशभक्तो ने 1934 में स्थापित कांग्रेस समाजवादी पार्टी के मंच से प्रचारित और लोकप्रिय बनाया. भारतीय समाजवादियों द्वारा एक साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समाजवादी नवनिर्माण के दुहरे लक्ष्य के लिए काम किया गया.

स्वतंत्रता की रुपरेखा में न्याय और समता के तत्व की प्रबलता में निरंतर योगदान भारतीय समाजवादी आन्दोलन की विशिष्टता बनी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतर्गत जमींदारी उन्मूलन, किसानों को भूमि स्वामित्व का अधिकारी बनाना, जीवन- यापन लायक मजदूरी, प्रति सप्ताह 40 घंटे काम की मर्यादा, सामान काम के लिए सामान वेतन, बालश्रम पर प्रतिबन्ध, किसानों को सस्ता ऋण, अलाभकर जोतों को लगान मुक्ति, बेरोजगारी - बीमारी दुर्घटना-बुढ़ापे में सहायता, अनिवार्य निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था, बड़े उद्योगों का सार्वजनिक स्वामित्व, धर्म और भाषाई अस्मिता का सम्मान जैसे प्रश्नों पर संगठन और संघर्षो का सिलसिला बनाने से कांग्रेस के दृष्टिकोण में भी जनहितकारी परिवर्तन हुए. 1939 के कराची प्रस्ताव से लेकर 1937 के कांग्रेस चुनाव घोषणापत्र और 1949 में प्रस्तुत भारतीय संविधान में समाजवादियों का यह योगदान प्रतिबिंबित हुआ.

अपने विवेक, ज्ञान, साहस, त्याग और संघर्ष से अबतक के आठ दशकों में भारतीय समाजवादियों ने देश और दुनिया में अपनी एक आकर्षक पहचान बनायी है. ब्रिटिश साम्राज्यवाद से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति में सफलता के बाद भारतीय समाजवादियों ने समाजवादी समागम

सत्तासुख पाने की बजाय कांग्रेस से अलग होकर एक लोकतान्त्रिक प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई. आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार समाजवादियों पर दो युगों का दायित्व था 1. नव- स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की रचना, और 2. समाजवादी समाज की स्थापना. 1952 से 1971-72 तक चुनावी प्रक्रिया पर कांग्रेस के वर्चस्व के बावजूद समाजवादियों ने किसानों, मजदूरों, पिछड़ों-वंचितों दलितों- अल्पसंख्यकों, महिलाओं और युवजनों की जरूरतों को प्राथमिकता दी. महिला समेत सभी पिछड़ी जमातों के लिए विशेष अवसर की जरुरत पर बल दिया. राजनीतिक स्वराज के बाद सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक स्वराज की दिशा में समाज और देश को आगे बढ़ने में वैचारिक, संगठनात्मक और आन्दोलन आधारित विविध योगदान किया. गांधी से लेकर आम्बेडकर तक से निकटता का सकारात्मक सम्बन्ध बनाया.

भारत के समाजवादियों की विशेषताओं और विविधताओं को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सात्विक, राजसी और तामसिक प्रवृत्तियों के रूप में वर्गीकृत किया। है. डा. राममनोहर लोहिया द्वारा 1961 में एथेंस में संपन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में प्रस्तुत 'सप्तक्रांति' का कार्यक्रम विश्व समाजवादी चिंतन में भारतीय समाजवादियों का अनूठा योगदान माना जाता है. लोहिया के अनुसार बीसवी सदी की दुनिया में सात क्रांतियाँ एकसाथ चल रही है: 1. नर-नारी की समानता के लिए. 2. चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध, 3 संस्कारगत और जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए 4. परदेसी गुलामी के खिलाफ और लोकतंत्र और विश्व-सरकार के लिए, 5. निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए, 6. निजी जीवन में राज्यशक्ति के अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ, और 7. निःशस्त्रीकरण और सत्याग्रह के लिए हम समाजवादी मानते हैं कि अपने देश में भी इनको एकसाथ चलाने की कोशिश करनी चाहिए. इससे आनेवाले दिनों में ऐसा संयोग संभव है कि इंसान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता- जूझता ऐसा समाज और दुनिया बना पाएगा जिसमें आतंरिक शांति और भौतिक संतोष हो.

भारत के लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण की जरूरतों के लिए समाजवादियों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण और ग्राम-स्वराज के लिए चौखम्भा राज का रास्ता सुझाया. देश के किसानो की दशा सुधारने के लिए भूमि सुधार, सिंचाई सुविधा और संतुलित दामनीति के लिए कई बार सिविलनाफरमानी की राष्ट्रीय स्वावलंबन के लिए जरूरी उद्योग विस्तार में सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूती की जरूरत और मुट्ठीभर उद्योगपति घरानों के एकाधिकार के खतरों के प्रति जनमत निर्माण में योगदान किया. 'दाम बांधो' और 'खर्च पर सीमा' की जरूरत पर बल दिया. औरत और मर्द की समानता को आदर्श माननेवाले समाजवादियों ने सभी औरतों को वंचित भारत का हिस्सा मानते हुए विशेष अवसर का अधिकारी बताया. भारत-विभाजन से असहमत और दो राष्ट्र सिद्धांत के विरोधी समाजवादियों ने हिन्दू-मुसलमान सद्भाव और हिन्द-पाक महासंघ का रास्ता दिखाया. जाति से जुड़े अन्यायों के लिए जनजागरण और जाति तोड़ो सम्मेलनों से लेकर सत्याग्रह तक किया गया. '60 के दशक में मानसिक और बौद्धिक स्वराज के लिए अंग्रेजी के वर्चस्व को दूर करने और देशी भाषाओं के सार्वजनिक जीवन में सम्मान के लिए किये गए आन्दोलन के दूरगामी परिणाम हुए है. 1975-76 में सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा नवोदित लोकतंत्र को ही निर्मूल करने की चेष्टा करने पर समाजवादियों ने देशभर में लोकतंत्र-समर्थकों के साथ मिलकर साहस के साथ जन-प्रतिरोध को दिशा दी. इससे 1977 के आम चुनाव में तानाशाही ताकते पराजित हुई और नागरिक अधिकार, प्रेस की आजादी और लोकतंत्र पुनः स्थापित हुए भारतीय समाजवादियों ने देश की अर्थव्यवस्था को अवरोध मुक्त करने के नाम पर 1992 से शुरू वैश्विक पूजीवाद को प्रोत्साहन विशेषकर उदारीकरण-निजीकरण- वैश्वीकरण की नीतियों को गलत बताया इसे देश की आजादी, लोकतंत्र और समतामूलक प्रगति के लिए शुरू से हानिकारक माना. इसके विरुद्ध किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, महिलाओं और छात्रों युवजनों के अनेको प्रतिरोधों के साथ लगातार एकजुटता बनायी. इसीके समान्तर शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण का विरोध किया गया. समाजवादियों ने राजनीति के साम्प्रदायिकरण को देश की एकता और लोकतंत्र के लिए खतरनाक माना इसके विपरीत समाज में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी जमातों के साथ न्याय के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन का समर्थन किया. समाजवादियों ने महिलाओं के लिए विधानमंडल में एक तिहाई जगहों के आरक्षण पर भी जोर दिया. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि भारत के समाजवादियों ने देश की आजादी के लिए महात्मा गांधी के आवाहन पर 'भारत छोड़ो आन्दोलन' (1942-46) से लेकर राजनीतिक आजादी के बाद 1947-67 के दौरान आर्थिक-सामाजिक-मानसिक स्वराज के लिए और फिर लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में 'लोकतंत्र बचाओ आन्दोलन' ((1975-77) में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की. फिर 1990 के दशक से आजतक पूंजीवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ किसानों मजदूरों-दलितों-आदिवासियों महिलाओं युवजनों की पुकार पर आजादी बचाओ देश बनाओ के लिए हर जन हस्तक्षेप में बार बार अगली कतार के सेनानी रहे. इसीलिए आज समाजवादियों के लिए 'गांधी-लोहिया- जयप्रकाश के अनुयायी' का विशेषण इस्तेमाल किया जाता है. हमने यह दिखाया है. कि भारत में समाजवाद के लिए गांधी के ग्राम-स्वराज, लोहिया की सप्त-क्रांति और जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति के लिए प्रयास ही सही रास्ता रहा है. देश के समक्ष उपस्थित नयी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए आज भी समाजवादियों को पहले की तरह ही रचना, चुनाव और सत्याग्रहों के जरिए परिवर्तनकारी जनशक्ति के निर्माण के लिए आम आदमी औरत के साथ एकजुट होना चाहिए..


III. भारत की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक चुनौतियाँ - क्या करें? हमें इस बारे में कोई भ्रम नहीं है कि आज वैश्विक पूंजीवाद भारत समेत पूरी

दुनिया में गंभीर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकटों के विस्तार का मुख्य कारण है. तीन दशकों से जादा अवधि तक हम भारतीय इसके दबाव में रहे हैं. पूंजीपतियों और राजसत्ता के अपवित्र गठजोड़ ने देश को अंतर्राष्ट्रीय और आतंरिक दोनों मोर्चों पर गहरे संकट में धकेल दिया है. पहले केंद्र में कांग्रेस गठबंधन के 2004 से 2014 तक के 10 बरस के पूजीवाद परस्त राज ने किसानों, नौजवानों और आम आदमी को समस्या- ग्रस्त बनाया इससे पैदा देशव्यापी जन असंतोष से चौतरफा विकल्प की भूख जगी भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण हुआ और केंद्र में सत्ता बदली. लेकिन इसके बाद 2014 और 2011 की चुनावी विजय के जरिये भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार के मजबूती से जम जाने के बाद से देश के आर्थिक संकट में सामाजिक साप्रदायिक उग्रता और राजनीतिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं की अवहेलना की चुनौतियाँ भी जुड़ गयी है. इसके जवाब में क्या करना चाहिए?

अपनी दिशा की पहचान के लिए समाजवादी विरासत के साथ ही गांधी के अपनाये उपायों का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि इनमें से अधिकांश की आज नयी प्रासंगिकता है. दूसरे, आज की चिंताजनक परिस्थितियों के निर्माण में अन्य बातों के अलावा हमारा भी योगदान है. हमारी फूट, हमारी अनीतियाँ हमारी अकर्मण्यता और हमारे अज्ञान ने देश को इस दशा में पहुंचाने में जो भूमिका निभाई है उसकी समीक्षा किये बिना समाजवादियों को प्रभावशाली बनाना असंभव है. समाज को बेहतर हालात की और आगे बढ़ाना मुश्किल है समाजवादियों को फिर से सगुणों से लैस होना होगा और समाज से. विशेषकर अंतिम व्यक्तियों से परस्पर विश्वास का रिश्ता बनाना होगा. इसमें गांधीजी से जादा किससे सीखा जा सकता है?

गांधीजी ने आजादी की लड़ाई के दौरान देशभक्त समाजसेवकों को सत्याग्रही बनाने के लिए 1. चरित्र-निर्माण के एकादश व्रत, और 2 राष्ट्रनिर्माण मूलक लोकसेवा के 18 रचनात्मक कार्यक्रमों की कसौटी बताई थी. नरेन्द्रदेव और युसूफ मेहर अली से लेकर जयप्रकाश, कमलादेवी चत्तोपाध्याय और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों की पहली पीढ़ी ने गांधी की सिखावन का सम्मान किया था. हम भी ध्यान दे सके तो लाभ ही मिलेगा.

लोकसेवकों में चरित्र बल के लिए सुझाए 11 व्रत निम्नलिखित हैं: 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य, 5. असंग्रह, 6 सर्वधर्मसमानत्व, 7 स्वदेशी, 8. अस्पृश्यता 9. शरीरश्रम, 10 अस्वाद, व 11. अभय 

गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में निम्नलिखित सामाजिक कार्य थे: 1. कौमी एकता, 2 अस्पृश्यता उन्मूलन, 3. महिला सशक्तिकरण, 4. प्रौढ़ शिक्षा तथा 5. आदिवासी सेवा..आर्थिक मोर्चे से जुड़े कार्यों में 1. खादी, 2. ग्रामोद्योग, 3. आर्थिक समता, और 4. पशु संवर्धन पर जोर था. गांधी जी ने सांस्कृतिक कार्यों की सूची में 1. नशाबंदी, 2. स्वच्छता, 3. स्वस्थ्य और सफाई सम्बन्धी शिक्षा, 4. अंग्रेजी की दासता से छुटकारा और देशी भाषाओं का व्यवहार, तथा 5. राष्ट्रभाषा का प्रचार चिन्हित किया था. रचनात्मक कार्यों के राजनीतिक अंग में 1. किसान 2. श्रमजीवी, और 3 विद्यार्थियों के बीच चेतना निर्माण और जीवंत संगठन पर बल था.

इसी प्रकार गांधीजी ने देश को सात पापों से बचने की जरूरत पर बल दिया था:

1. सिद्धान्तहीन राजनीति,

2. परिश्रम बिना धन हासिल करना,

3. विवेकहीन सुखभोग,

4. चरित्र के बिना ज्ञान,

5. नैतिकता के बिना (अनैतिक) व्यापार,

6. मानवता विहीन (अमानवीय) विज्ञान, व

7. त्याग के बिना पूजा.

लेकिन वैश्वीकरण - बाजारीकरण के इस दौर में इन सातों पापों की प्रबलता बढ़ रही है. इससे हमारे जीवन में स्वराज का अधूरापन बढ़ रहा है. स्वराज के बढ़ते संकट की तस्वीर के कुछ आयाम तो सचमुच चौकानेवाले है.

IV. आज की दशा के मुख्य नौ पहलूः

1. किसान भारत की दशा हम काले धन को बढ़ावा देनेवालों को पिछले दशकों में कई लाख करोड़ की रियायत दे चुके है और दूसरी तरफ हमारी गलत दामनीति से जुड़ी खेती की कर्जदारी के बोझ से पीड़ित किसानों में से पिछले दो दशकों में 3.5 लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं. देश की 50% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है लेकिन हम किसानों के कल्याण के लिया कुल बजट का 2% से भी कम खर्च कर रहे है. केन्द्रीय बजट 2018/19 में यह राशि मात्र 46,700 करोड़ रुपये थी. यह चिंता की बात है कि आजकल कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर 3.7% (2004-05 से 2013-14) से आधा घटकर 1.9% प्रतिशत रह गई है.

2. श्रमजीवी भारत पर प्रहार कामकाजी वर्ग के साथ हमारा आचरण बेहद चिंताजनक है. क्योंकि हमारे श्रम कानूनों में ऐसे संशोधनों की शुरुआत हो चुकी है जिससे पिछले कई दशकों में हासिल सभी लाभ किनारे कर दिए जायेंगे, नौकरी सुरक्षा को ख़त्म करके अनुबंध श्रमिकों की तायदाद बढाई जा रही है. पेंशन का प्रावधान प्रश्नों के दायरे में है. श्रमिकों का संगठन करना भी अत्यंत दुरूह बनाया जा रहा है. देश के लगभग 48 करोड़ श्रमिक बल में से 93% अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हैं. महिला श्रमिक देश की श्रमशक्ति का 32% है, अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमशक्ति देश के सकल उत्पादन में 40% योगदान करता है. देश के प्रमुख श्रमिक संगठनों की सर्वसम्मत मांग है कि सरकार पूरे देश की न्यूनतम मजदूरी 15,000/- और पेंशन 6,000/- मासिक निर्धारित करे लेकिन हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित मानदंडों के आधार पर न्यूनतम मजदूरी दर तय करने से इनकार कर रहे है. क्या हम वैश्विक पूंजीवाद के दबाव में 'श्रम कानून सुधार' के नाम पर मजदूरों को निहत्या बनाकर विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों को आकर्षित करने में जुट रहे हैं? कमजोर श्रम कानून और पर्यावरण प्रावधान से विदेशी कम्पनियाँ कम लागत पर माल निर्माण करने और विश्व बाजार में जादा मुनाफा कमाने के लिए चीन और बांग्लादेश से भारत आ सकते हैं लेकिन हमारी श्रमिकों की जरूरतों की अनदेखी करना पूरी तरह से अन्याय है.

3. युवा भारत की भयानक स्थिति भारत की आबादी में 35 बरस से कम के स्त्री-पुरुषों का बहुमत हो चुका है. इस दृष्टि से हम विश्व में युवाशक्ति से भरपूर राष्ट्र बन चुके है. लेकिन युवाशक्ति को राष्ट्रनिर्माण में सार्थक आजीविका के जरिये सम्मानजनक भूमिका चाहिए अन्यथा यह हताश और दिशाहीन होने के खतरों से घिर रही है. 1. शिक्षा का व्यवसायीकरण और स्तरहीनता, 2. बढती बेरोजगारी और 3. रोजगार की गुणवत्ता में गिरावट हमारे युवजनों और समाज दोनों के लिए तीन सबसे बड़ी चुनौतियाँ है, मानव संसाधन इंडेक्स में 2018 के सर्वेक्षण में हमारा स्थान 115 पाया गया है. यानी दुनिया में तो भारत की युवाशक्ति दयनीय स्तर पर है दक्षिण एशिया में भी भारत सिर्फ अफगानिस्तान और पकिस्तान से बेहतर पाए गए है! रोजगार के नज़रिए से, कृषि में रोजगार निर्माण लगभग शून्य है. सरकारी नौकरियों में पिछले तीन दशकों में 1991 की तुलना में वास्तव में गिरावट हुई है. कार्पोरेट क्षेत्र तो 'नई अर्थनीतियों की आड़ में शुरू से ही पूजी प्रधान टेक्नोलाजी के भरोसे चल रहा है। और 'रोजगारविहीन विस्तार' ('जावलेस ग्रोथ में जुटा हुआ है. आज कई करोड़ युवक-युवतियां सार्थक रोजगार के लिए श्रमबाज़ार में भटक रहे हैं और हम उनकी असहायता के प्रति उदासीनता दिखा रहे है. अगर हमारी युवाशक्ति के सपने टूट गए तो देश में भविष्य के प्रति भरोसा कैसे बनेगा?

4. सामाजिक क्षेत्र में साधनो की बढ़ती कमी शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, कुपोषण - निवारण, पेय जल, ग्रामीण सशक्तिकरण गारंटी योजना और वृद्धावस्था पेशन सामाजिक क्षेत्र के सात अंग है इनमें से अधिकांश के लिए उपलब्ध संसाधनों में 'राजकोषीय घाटे' को कम करने के नाम पर कटौती का सामना करना पड़ रहा है. सरकारी अनुदान कम हो रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य की कमजोर हो रही सार्वजनिक सेवाओं ने निजी क्षेत्र की पकड़ को बढ़ाने का रास्ता बनाया है. 38% बच्चों के कुपोषण का शिकार होने और विश्व के देशों में 119 में से 100 स्थान होने के बावजूद संसाधनों की स्थिति में कोई सुधार नहीं किया गया है हमारे देश में 90% से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. इनको वृद्धावस्था में 60 बरस की उम्र के बाद केंद्र सरकार की ओर से 200 रूपए की प्रतिमाह मदद प्रदान की जाती है. यह हास्यास्पद है कि इसकी राशि 2006 से ही जस की तस बनी हुई है.

5. दलित, आदिवासी, महिलाओं और अल्पसंख्यकों की समस्याओं के लिए देश की ओर से बजट में की जानेवाली संसाधनों की व्यवस्था में भी कमी का सच चिंताजनक

6. हमने वैश्वीकरण और उद्योगीकरण के लोभ में अपने पर्यावरण की अपार हानि कर डाली है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वच्छ पेय जल को जीवन के अधिकार का अनिवार्य तत्व माना है लेकिन हमारी जल आपूर्ति का लगभग 70% गंभीर रूप से प्रदूषित है, पेयजल की गुणवत्ता के मामले में भारत 122 देशों में 120 वे स्थान पर है. 600 जिलों में से एक तिहाई में भूजल पीने योग्य नहीं है. हर साल लगभग 4 करोड़ स्त्री-पुरुष और बच्चे पानी से पैदा होनेवाली बीमारियों से पीडीत होते है. 78,000 मौत के शिकार हो जाते हैं. नीति आयोग के अनुसार 60 करोड़ स्त्री-पुरुष अत्यधिक 'जल- तनाव' का सामना कर रहे हैं. आगे 2030 तक देश की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है. फिर भी इसके लिए 2014 की तुलना में 2018-19 के बजट में 44 प्रतिशत की गिरावट हुई है.

7. इस सबके साथ देश में आर्थिक विषमता में चौकानेवाला दृश्य उपस्थित हो गया है. 2016 में देश के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों का देश की कुल संपत्ति के 58 प्रतिशत पर नियंत्रण था जबकि निचली आधी आबादी के हिस्से में केवल 2.1 प्रतिशत सम्पदा थी. सिर्फ एक बरस के बाद 2017 सबसे संपन्न 1 प्रतिशत संसाधनों के 73 प्रतिशत उपभोग करते पाए गए और निचले आधे हिस्से के 67 करोड़ के हिस्से में केवल 1 प्रतिशत पाया गया.

8. पूंजीपतियों की हर तरह से मदद के तीन दशकों के बाद भी हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजीनिवेश में गिरावट ने पूंजीवाद समर्थकों में चुप्पी पैदा कर दी है. क्योंकि हमारे पूंजीपतियों ने देश के बैंकों को अनुत्पादक ऋण लेकर खोखला कर दिया है. इन्होने 2012 तक 12 अरब रुपये का अनुत्पादक ऋण ले रखा था और यह राशि अगले 6 बरस में यानी 2018 में बढ़कर 95 अरब हो गयी है. इसमें से 75 प्रतिशत ऋण सार्वजनिक बैकों से लिए गए है. यह और भी चौकानेवाली जानकारी है कि कुल 12 कंपनियों ने इसमें से 25 प्रतिशत रकम ली है.

9. 2014 में संपन्न लोकसभा चुनाव में 464 दलों ने 29 राज्यों औए 7 केन्द्रशासित प्रदेशों में हिस्सा लिया. इसमें कुल 543 सीटों के लिए 8251 व्यक्ति चुनाव में उम्मेदवार बने. कुल मिलाकर 5 अरब रुपये खर्च किये गए! यह 2009 में हुए चुनाव खर्च का ढाई गुने से ज्यादा था. अब 2019 के चुनाव को तो दुनिया का सबसे महंगा चुनाव पाया गया. इसमें भारतीय जनता पार्टी का खर्च लगभग 45 प्रतिशत और कांग्रेस का 15 से 20 प्रतिशत के बीच था. अनाम बैंक बांड के जरिये दिए गए चुनाव चंदे की रकम में से 95 प्रतिशत रकम भारतीय जनता पार्टी के हिस्से में आई है. इसमें से काला धन कितना था? इतना पैसा कहाँ से और क्यों आया? अधिकांश दलों के नेता चुप हैं. कुछ चुनाव विशेषज्ञों ने इसे देशी-विदेशी कार्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा धनशक्ति का अबतक की भारतीय राजनीति में सबसे खुला हस्तक्षेप बताया है.

V. वैकल्पिक समाजवादी रास्ता

देश की दशा के प्रति चितित समाजवादियों ने अपने 84वे स्थापना दिवस पर 17 मई, 2018 को दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय समागम में एक सोशलिस्ट मेनिफेस्टो का प्रारूप देश के विचारार्थ प्रस्तुत किया है. यह दस्तावेज कार्पोरेट पूंजीवाद के द्वारा 1992 से भारत में अपनाए गए विकास मार्ग को दोषपूर्ण मानता है. क्योंकि इस 'विकास'' का मतलब पश्चिम की विशाल बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए स्वतंत्रता है. यह 1. हमारी अर्थव्यवस्था को लूटने, 2. पर्यावरण को प्रदूषित करने, 3. प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन और 4. हमारी संस्कृति में हिंसा के बीज बोने में जुटे हुए हैं.

समाजवादियों का आवाहन है कि भारत में 'विकास' का अर्थ ऐसे समाज का निर्माण होना चाहिए जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण हो. इसमें हर नागरिक समाज के लिए उपयोगी वस्तुओं-सेवाओं के उत्पादन में लगे सभी वयस्क स्त्री-पुरुष को योग्यता और क्षमता के अनुकूल आजीविका का अवसर स्थिर आय, घर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, प्रदूषण मुक्त परिवेश, सामाजिक शांति और वृद्धावस्था में सम्मानपूर्ण निर्वाह के लिए पेंशन हो. हमारे राज्य के लोकतांत्रीकरण को तेज करने के लिए संविधान के 73-74वें संशोधन के आगे जाकर ग्रामसभा और नगर पालिकाओं को सुशासन का प्रभावशाली औजार बनाना चाहिए, जिला योजना और मेट्रोपालिटन योजना के लिए समितियों का गठन करना चाहिए. देश के लोगों को संविधान सम्मत तरीके से पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण स्व-शासन का अवसर मिलना चाहिए.

समाजवादी समागम ने वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों द्वारा पैदा संकट से देश को निकालने के लिए तत्काल 8 सूत्रीय समाधान अपनाने का सुझाव दिया है. इसमें संविधान के मूल्यों और निर्देशों के सम्मान को सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है. आयात- निर्यात को महत्त्व देने की बजाय देशवासियों की क्रयशक्ति संवर्धन बढ़ने और विषमताएं घटाने को मापदंड बनाने पर बल है. मशीनीकरण और रोजगार निर्माण में संतुलन बनाने और श्रमप्रधान उद्योगों तथा गाँव आधारित रोजगारों के लिए सरकारी सहयोग की बात रेखांकित की गयी है. विकास योजनाओं में विकेंद्रीकरण, स्थानीय ज्ञान व संसाधन उपयोग, उर्जा बचत, और स्थानीय लोगों की अधिकतम भागीदारी की जरूरत की याद दिलाई गयी है. विकास के कार्यों में वंचित वर्गों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को प्राथमिकता पर जोर है. विकास के उद्देश्य से बनी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय योजनाओं और समझौतों के मामले में विधानमंडल और संसद में पर्याप्त चर्चा की अनिवार्यता बताई गयी है

समाजवादियों का सुझाव है कि भूमि अधिग्रहण, सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों, वित्तीय सेवाओं, आवश्यक सेवाओं, और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण रोका जाये. कृषि को पुनर्जीवन देनेवाली राष्ट्रीय पहल की जाए टिकाऊ और विकेन्द्रित ऊर्जा नीति बनायी जाये. सामाजिक क्षेत्र के सभी सात कार्यों शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, पेय जल, कुपोषण निर्मूलन, ग्रामीण रोजगार गारंटी और वृद्धावस्था पेंशन में पर्याप्त धनराशी आवंटन हो और इसके लिए जरुरत पड़ने पर संपन्न वर्गों पर नए कर लगे मजदूरों और नौजवानों की मांगों को ध्यान दिया जाये. दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की जरूरतों को प्राथमिकता मिले. मंडल आयोग, सच्चर आयोग वर्मा आयोग, पेसा कानून (1996) की सिफारिशों को लागू करने में सुस्ती दूर की आए

समाजवादियों के दस्तावेज में न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को महत्त्व देना और राजनीतिक हस्तक्षेप को तत्काल दूर करना एक असाधारण पहल है. इसके लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति को योग्यता आधारित और पारदर्शी बनाने का सुझाव दिया गया है. पुलिस व्यवस्था में लोकतान्त्रिक सुधार और जेल सुधार को महत्त्व देना भी एक उल्लेखनीय पक्ष है. यह दस्तावेज मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत बुद्धिजीवियों के लिए मजीठिया समिति की सिफारिशें लागू करने और मीडिया के व्यावसायीकरण को रोकने का समर्थन करता है. देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने की जरुरत की याद दिलाता है.

समाजवादियों के दस्तावेज के समापन अंश में चुनाव सुधार और राजनीतिक सुधार के कई बिंदु उठाए गए है. यह इंगित किया गया है कि सामान्य नागरिक और सत्ता केन्द्रों में फासला बढ़ाना अशुभ है. इससे हमारा लोकतंत्र उथला हो रहा है. दलों पर नेताओं की पकड़ बढ़ रही है और आंतरिक लोकतंत्र कमजोर हो चुका है. कार्पोरेट राजनीति में दखल बढ़ा रहे है. मीडिया का गलत इस्तेमाल बढ़ रहा है. जनांदोलनों की उपेक्षा की जाती है. सत्ता-प्रतिष्ठान की आलोचना को 'देशद्रोह' और 'विदेशी ताकतों की मदद' बताने का दौर आ गया है. चुनाव व्यवस्था में धन का प्रभाव बढ़ रहा है और जनता का प्रतिनिधित्व घट रहा है. महिला, अल्पसख्यक, दलित, क्षेत्रीय समुदाय आदि की हिस्सेदारी संतोषजनक नहीं है. इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन के विवादास्पद होने से चुनाव के नतीजों की वैधता सवालों के दायरे में आ गयी है. यह सब भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है.

यह महत्वपूर्ण है कि 'समाजवादी घोषणापत्र (ड्राफ्ट)' में जम्मू-कश्मीर और उत्तर- पूर्व प्रदेशों की समस्याओं और लोकतान्त्रिक जरूरतों का अलग से उल्लेख है. इसी प्रकार विदेशनीति की भी राष्ट्रहित की कसौटी पर समीक्षा महत्वपूर्ण है.

VI. सारांश

सारांशतः आज 'नयी आर्थिक नीतियों यानी कारपोरेट पूंजीवाद और 'लंगोटिया पूंजीपतियों' की मनमानी के तीन दशक लम्बे दबदबे के बाद भारत के समाजवादियों में तीन बिन्दुओं की साफ़ समझ बन रही है: एक, हमारा समाज पूंजीवाद के दोषों के कारण समस्याग्रस्त है और इससे विकास की बजाय विनाश बढ़ने से लोगों का मोह टूट रहा है. लेकिन बिना स्पष्ट समाजवादी विकल्प प्रस्तुत किए देश में फ़ैल रही दिशाहीनता नहीं दूर होगी. दो, इक्कीसवीं सदी के भारत को विकास के लोकतान्त्रिक मार्ग पर ले जाने के लिए पुन्जीनिर्माण, रोजगार निर्माण, जलनीति, ऊर्जा उत्पादन, लोकतंत्र - विस्तार, सामाजिक न्याय, सत्ता-विकेंद्रीकरण और पर्यावरण संवर्धन को परस्पर सम्बंधित रखना होगा. तीसरे, समाजवादियों को चुनाव कौशल की तुलना में रचना-संघर्ष के संयोग से विचार-विकास, सिद्धांतनिष्ठा, लोकसेवा, जनमत निर्माण और लोकशक्ति-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए. दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि बिना गांधी-लोहिया- जयप्रकाश की विरासत से प्रेरणा पाए हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे. समाजवाद की राह व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और पूंजीवाद से नहीं गुजरती है.जिसको आगे बढ़ाया चौ चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने। 

समाजवादी मेनिफेस्टो से साभार। 

सादर 

एक समाजवादी शुभचिंतक। 

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...