सोमवार, 24 अप्रैल 2023

भागीदारी की हैसियत से हिस्सेदारी

भागीदारी  की हैसियत से हिस्सेदारी

डॉ लाल रत्नाकर 

हमने पहले भी यह बात कही है कि अखिलेश यादव जी को उत्तर प्रदेश के स्तर पर महागठबंधन में जिम्मेदार भागीदार की हैसियत से हिस्सेदारी बढ़ चढ़कर करनी चाहिए क्योंकि अंत में जो फैसला होगा वह यह निश्चित करेगा कि जो जिस प्रदेश में बड़ी पार्टी है उसके सबसे अधिक प्रत्याशी लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे इसलिए अपने मजबूत प्रत्याशियों की तलाश करके उन पर अभी से काम करना आरंभ कर देना चाहिए क्योंकि चुनाव भाजपा के सामने समस्त विपक्ष को एक के सामने एक लड़ाना है और यही रास्ता है जिससे भाजपा को बुरी तरह से हराया जा सकता है । इस अभियान में ईमानदार होने की जरूरत है।

भाजपा ने अपने स्पाई हर पार्टियों में लगा रखे हैं जो भीतर की खबर को वहां तक पहुंचाते रहते हैं ऐसा निरंतर देखने में आ रहा है विपक्षी पार्टियों को ऐसे स्पाईयों से भी बचने की जरूरत है।





सोमवार, 17 अप्रैल 2023

हिन्दुत्वा और आमआदमी





हिन्दुत्वा और आमआदमी  : 
ब्राह्मणवाद, उत्पादन और प्रदूषण 

ब्राह्मणवादी दर्शन उत्पादक कार्यों का वर्गीकरण अपवित्र के रूप में करने की ओर प्रवृत्त हुआ। ठीक इसके विपरीत अपनी सारी सम्बन्धित गतिविधियों के साथ अनुत्पादक पूजा को पवित्र निरूपित किया गया। उदाहरण के तौर पर, पूजा की सारी विधियाँ उत्पादन की अपेक्षा उपभोग पर आधारित हैं। मालाओं को आध्यात्मिकता की ब्राह्मणवादी प्रकार से तकरीबन दिन-प्रति दिन के आधार पर लड़ना पड़ा जिसने उत्पादन की संस्कृति की अपेक्षा उपभोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया। जिन्होंने मिट्टी से भोजन पैदा करने के लिए संघर्ष किया उन्हें अपवित्र घोषित किया गया और इस बहाने कि उसमें कुछ भी दार्शनिक नहीं था उनके ज्ञान तंत्र को लिखित संभाषणों से ग़ायब कर दिया गया। मालाओं ने इस प्रकार के ब्राह्मणवादी शोषण का विरोध एक उत्पादन के दर्शन से किया जो इस अभिव्यक्ति ओक्किथुलो रेंदीथुलू (एक में दो बीज) में प्रभावशाली ढंग से समाहित था। वनस्पति तंत्र के उनके ज्ञान ने उन्हें बतलाया कि एक बीज कई बीजों को पैदा कर सकता है जबकि मनुष्य एक बार में केवल एक ही बच्चा पैदा कर सकते हैं (यदा कदा ही एक से अधिक)। उत्पादन का दार्शनिक संभाषण अनगिनत मुहावरों में जीवित है जो संवाद के साधन के रूप में उनके बीच विद्यमान हैं। 



खाद निर्माण का विज्ञान 

माला वाड़ों में एक कहावत है: पेंटा लेनिदे पांटा रादू (बिना गोबर खाद के कोई फसल संभव नहीं)। इस कहावत का विरोधाभास ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है: पेंटा मनुशुला अन्तारादु –जो कहता है, ‘जो गोबर के संपर्क में रहते हैं उनका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए’। दोनों सांस्कृतिक अर्थ व्यवस्था की एकदम विरोधी अवधारणाएं प्रस्तुत करते हैं। माला और अन्य समुदाय जो समान जीवन व्यतीत करते हैं विश्वास करते हैं कि पेंटा कुप्पा और पेंटा चेनू (खाद और फ़सल) अन्तर्निहित रूप से जुड़े हुए हैं। इस सामान्य बात का एहसास करते हुए कि भोजन उत्पन्न करने के लिए मनुष्य को गन्दगी (धूल, कीचड़, मिट्टी) के संसर्ग में अवश्य रहना चाहिए, मालातवम कीचड़ और भोजन के नज़दीकी सम्बन्ध के तर्क पर पहुँचता है। यह बाहरी विश्व के साथ निरंतर सम्बन्ध अस्तित्व के माला दर्शन को रेखांकित करता है। मालाओं ने इस काम को लगनशीलता और निरंतरता के साथ किया। उन्होंने खाद को फ़सल के साधन के रूप में देखा और और अपना काम इस सन्दर्भ में किया– इसलिए यह अपरिहार्य था कि उन्हें अपने हाथों को गंदा करने में कोई हिचक नहीं थी। दूसरी ओर, ब्राह्मणवादी नागरिक समाज बिना स्वयं को पेंटा कुप्पा (खाद व्यवस्था) द्वारा दूषित किए एक अच्छी फ़सल की अपेक्षा करता था। आध्यात्मिक पवित्रता के नाम पर, ब्राह्मणवादी दर्शन द्वारा पेंटा कुप्पा को एक प्रदूषक के रूप में नकारा गया जो आध्यात्मिकता को नष्ट करता था। ब्राह्मणत्वम का प्रतिमान एक सन्यासी है जो अपने व्यक्तिगत उद्देश्य अर्थात् मोक्ष (जीवन मरण के चक्र से मुक्ति) की प्राप्ति के लिए समाज से विमुख हो जाता है। ब्राह्मण कोई भी उत्पादक कार्य ज़रा भी नहीं करता है लेकिन किसी प्रकार अपेक्षा करता है कि उसे भोजन उसी नागरिक समाज से मिले जिसकी निन्दा वह अपवित्र के रूप में करता है। इस प्रकार की जीवन शैली हर प्रकार की प्रगति को नकारती है और यही कारण है सन्यासियों द्वारा लिखे गए ग्रंथों में कोई सकारात्मक उत्पादक ज्ञान नहीं होता। उन्होंने जो भी ज्ञान गढ़ा वे आत्म-वृद्धि और आत्म-प्राप्ति से सम्बन्धित हैं लेकिन कभी भी एक सामाजिक सामूहिकता की चेतना नहीं रखते। उनके लिए उत्पादक सामाजिक सामूहिकता एक अस्पृश्य, अदृश्य पिंड है। इस प्रकार, ब्राह्मणवादी दर्शन अन्य सारे धर्मों- बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के विरोध में कार्य करता है। उन धर्मों में, एक पूर्णकालिक धार्मिक एक्टिविस्ट उत्पादक सामाजिक सामूहिकता के साथ नियमित अंतर्क्रिया के माध्यम से कार्य करता है और इसे भी एक परमात्मा का कार्य समझा जाता है। जितना अधिक वह सामाजिक सामूहिकता का भृत्य बन जाता/जाती है उतना ही वह आध्यात्मिक रूप से मुक्त हो जाता/जाती है। लेकिन हिन्दू धर्म में, एक आध्यात्मिक संत का दर्शन विपरीत दिशा में कार्य करता है। एक हिन्दू संत को उत्पादक सामाजिक सामूहिकता को न तो स्पर्श करना चाहिए न उनके साथ बैठना चाहिए। 

पेंटा कुप्पा क्या है? 

पेंटा कुप्पा क्या है? यह कैसे आकार लेता है? यह दिलचस्प है कि पेंटा कुप्पा बनाने में पशुओं का भी एक विशाल योगदान है। यह आवासीय स्थान- घर, गली या गाँव –को साफ़ सुथरा रहने से घनिष्ट रूप से जुड़ा है। पेंटा खाद की एक शास्त्रीय किस्म है जो गहरे गड्ढों में तैयार किया जाता है। इसमें डाले जानेवाले मुख्य अवयव हैं–पालतू पशुओं के गोबर; उनका बचा हुआ चारा जैसे पुआल, हरी घास और चोप्पा या ज्वार की टहनियाँ; मानव मल और अन्य जैविक कचरा। ये गल कर खाद में बदल जाते हैं। खाने की ऐसी जूठन जिन्हें खाया नहीं जा सका कुप्पा में डाल दिए जाते हैं। यह जूठन के सम्बन्ध में ब्राह्मणवादी धारणा से एकदम विपरीत है जो विश्वास करता है कि वे प्रदूषक हैं और उनसे बचा जाना चाहिए। आन्ध्र प्रदेश में अधिकतर यह काम मालाओं द्वारा (और माडिगाओं द्वारा भी) किया जाता है। पेंटा कुप्पा के अन्दर विघटन या गलने की प्रक्रिया कार्बन डायऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड के बड़े प्रतिशत के साथ दुर्गन्धपूर्ण गैस मुक्त करती है जिसका मानव शरीर पर हानिकारक असर पड़ता है। ब्राह्मणत्वम ने इस समस्या का यह समाधान पेश किया कि पेंटा कुप्पा के विचार को ही नकार दिया जाए। पेंटा कुप्पा के साथ इस अंतर्क्रिया को नकारना, हालाँकि, जीवन को ही नकारना है क्योंकि पेंटा कुप्पा खाद, मिट्टी, पौधों, मनुष्यों और पशुओं के बीच स्थापित सम्बन्ध का प्रतीक है। मालातवम ने इन गैसों के बुरे असर को कम करने के साधनों और तरीकों को ढूँढने के लिए तर्क और विवेक का सहारा लिया। विज्ञान और सफाई के अपने ज्ञान की सीमाओं में इसने तय किया कि पेंटा और पांटा (फ़सल) से किसी संपर्क के बाद हाथों, पैरों और पाँवों को सफाई से धो लेना चाहिए। पेंटा और पांटा के बीच का सम्बन्ध एक जैविक सम्बन्ध है। मानव समाज, आध्यात्मिक हो या और कुछ, इस प्रक्रिया से किनारा या घृणा नहीं कर सकता। एक सकारात्मक आध्यात्मिक दर्शन को इस सम्बन्ध को और गहरा करना है। साथ ही साथ, उन बुरे प्रभावों को भी आवश्यक तौर पर दूर करना है जो फ़सल और खाद के इस सम्बन्ध से उन मनुष्यों पर पड़ता है जो इस काम को करते हैं। इसे अवश्य विज्ञान की सहायता से किया जाना चाहिए जो एक सकारात्मक, प्रगतिशील धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहीं पर हिन्दू धर्म एक सकारात्मक धर्म बनने की दिशा में बढ़ने में असफल रहा है। दलित जीवन प्रक्रिया एक सकारात्मक धार्मिक रास्ता विकसित करने और अपनाने के लिए एक सकारात्मक दिशा प्रदान करती है। साथ ही साथ यह खाद के उत्पादन और ईश्वर के आध्यात्मिक क्षेत्र में इसके सम्बन्ध में कोई विरोधाभास नहीं देखती। एक आध्यात्मिक विचारधारा को वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के साथ अंतर्क्रिया करनी होती है क्योंकि आध्यात्मिकता और विज्ञान घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं। विचार प्रक्रिया का माला प्रकार विज्ञान और आध्यात्मिकता के सम्बन्ध की वह समझ रखता है –यही कारण है कि माला अपने दिन खेतों में काम करते और खाद बनाते हुए बिताते थे शाम में उन मंदिरों में जाते थे जो उन्होंने गाँव के पास बनाए थे। इसके विपरीत, हिन्दू मंदिर किसी उत्पादक समुदाय को अपने दरवाज़े के अन्दर पैर रखने की इजाजत नहीं देते।

माला और सिंचाई विज्ञान 

टंकी और नहर सिंचाई व्यवस्था विकसित होने के बहुत पहले, धान की फ़सल को गाँव के बहुत निकट एक ऐसी व्यवस्था से उगाया जाता था जिसे उपयोग किए हुए पानी को गाँव से खेतों तक बहाने के लिए निर्मित किया गया था। इसलिए यह कहावत बनी कि वूरेनबडी पोलम करछुलेनी फालम (गाँव के निकट धान का खेत बिना ख़र्च के अच्छी फ़सल देता है)। यह वही ‘गन्दा पानी’ है जो फ़सल देता है। मालाओं को नीरातिकंद्लू (वे जो फ़सल को सींचते हैं) के रूप में संदर्भित किया जाता है या वे जो खेतों में पानी का पर्यवेक्षण और प्रबन्ध करते हैं। खाद से मिश्रित इस कीचड़ भरे पानी में काम करने से अवश्य ही उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ेगा। लेकिन यह सिंचाई प्रक्रिया गाँव के अस्तित्व की रक्षा के लिए केन्द्रीय थी। इसलिए माला इस भविष्यदर्शी दूरदर्शिता के साथ कि एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में समाज किसी व्यक्ति या समुदाय से बड़ा था, इस काम में लगे रहे। इस प्रकार उन्होंने समाज के व्यापक हित के लिए एक ख़तरनाक प्रकृति वाले काम में ऐतिहासिक रूप से अपने श्रम को लगाया। माला टंकी निर्माण में दक्ष थे जिसमें भारी शारीरिक और मानसिक दोनों श्रम लगता था। टंकी के ठिकाने से ही उनके अभियन्त्रण हुनर का अनुमान लगाया जा सकता है। टंकी हमेशा सिंचाई के लिए जगह के साथ दो टीलों के बीच में रहती थी। अयाकट (चिखम) गाँव के किनारे पर था, और उस विशेष टंकी के अन्तर्गत सिंचित भूमि ग्रामीण भूमि के अधिकतम संभावित इलाके को आच्छादित करती थी। तुमुलु (पानी विमुक्ति द्वार) का प्रबन्ध ऐसी जगहों पर किया गया था जहाँ पानी का नीचे की तरफ बहाव आसान हो जाता है। यह भी सुनिश्चित किया गया था कि पानी के द्वार टंकी के तल से सारे पानी को खींचने और अधिकतर भूमि को सिंचित करने में सक्षम हों। यहाँ तक कि आज भी खाद उत्पादन, नहर निर्माण, सिंचाई पर्यवेक्षण, भूमि सीमाओं की समझ जिसे गटलु या वोड्डलु कहा जाता है का विशेषज्ञ ज्ञान माला या मडिगा समुदायों के पास संचित है। किसी भी अन्य कृषिक कर्ता से माला नीरातिकंद्लू यह बेहतर जानता है कि प्रत्येक धान के खेत के टुकड़े में चारों ओर गटलु के साथ पानी का क्या स्तर होना चाहिए। 

माला बुनाई 

खाद्य उत्पादन में संलग्न रहने के अलावा तेलुगू गाँवों में उपलब्ध साक्ष्य दर्शाते हैं कि माला ने कपड़ा बुनने की विधि की खोज भी की। वस्त्र के सबसे पहले उत्पादक माला नेतागंद्लू (बुनकर) थे। जब नागरिक समाज में जाति सीमाएं प्रत्यक्ष हो गईं वे वस्त्र उत्पादन की प्रक्रिया से अलग कर दिए गए। सला, जो बुनकरों का एक उन्नत समुदाय थे, बाद में अस्तित्व में आए। भारत में वस्त्र उत्पादन कई चरणों से गुज़रा। पहले चरण में, जूट वस्त्र या नरा बट्टा का उत्पादन हुआ; दूसरा चरण पथी बट्टा या सूती वस्त्र बनाने में संलग्न रहा; और सिल्क या पट्टु बट्टा तीसरे चरण में बुना गया। तेलुगू क्षेत्र में, तीनों प्रकार के कपड़े को बुनने का ज्ञान और उनके उत्पादन के लिए आवश्यक तकनीकी का निर्माण भी मालाओं के द्वारा विकसित किया गया। ब्राह्मणवादी ज्ञान व्यवस्था वस्त्र उत्पादन को एक महत्वपूर्ण हुनर के रूप में मान्यता नहीं देती थी। वस्त्र के लिए उनकी चिंता केवल उपभोग के स्तर तक थी। बड़ी दिलचस्प बात है कि हर युग में सबसे उत्तम वस्त्र का उपयोग ब्राह्मणवाद के अनुयायियों द्वारा ही किया गया। सारे हिन्दू देवता को सिल्क धोती पहना हुआ दिखलाया गया है, जबकि उनके शरीर का ऊपरी भाग अनाच्छादित रहता था। यहाँ तक कि आज भी कुछ सन्यासी हिन्दू आध्यात्मिकता के अपनी तलाश में नग्न रहते हैं। ब्राह्मण पुजारी और शंकराचार्य भी अर्धनग्न रहते हैं। भारतीय इतिहास में एक लम्बे समय तक, दलित जन समूह अर्ध नग्न ही रहे क्योंकि उनके पास पहनने के लिए वस्त्र नहीं थे। मनुधर्म जैसे वैधिक नियम शास्त्रों की सहायता से ब्राह्मणवाद ने उन्हें वस्त्र पहनने से रोका। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक केरल में दलित स्त्रियों को अपने शरीर के ऊपरी भाग को ढँकने की अनुमति नहीं थी। हालाँकि, दलित आध्यात्मिक क्षेत्र में जाम्बवंथ, पोचम्मा, कट्टा मैसम्मा जैसे देवताओं की छवियाँ, आध्यात्मिकता के प्रतीक स्वरूप न तो नग्नता न ही सिल्क वस्त्र धारण में विद्यमान हैं। किसी दलित पुजारी को अपने आप को अर्धनग्न रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। ठीक इस्लाम की तरह, दलित दर्शन में कपड़े पहनने को मानव अस्तित्व और कल्याण के लिए आवश्यक समझा जाता है। 

मृत शरीर का दलित दर्शन 

मालाओं के पास मानव शरीर, चाहे जीवित या मृत, पर एक निश्चित दार्शनिक दृष्टिकोण है। वास्तव में, उनका दृष्टिकोण शरीर की समझदारी के मडिगा प्रकार का विस्तार है। हालाँकि वे समाज में अस्पृश्यता में धकेल दिए गए, मानव शरीर पर माला और मडिगा संभाषण एक सकारात्मक दृष्टिकोण दर्शाता है। वे विश्वास करते हैं कि चूँकि सारे मानव शरीर मांस और रक्त से बने हैं इसलिए किसी को अछूत नहीं समझा जा सकता। वे बार-बार पूछते है:’ क्या हमारे शरीरों में खून की जगह पानी बह रहा है?’ मालाओं और मडिगाओं के लिए सारे शरीर स्पृश्य हैं और सारे जीवन शरीरों के पास एक भाषा और एक मनोविज्ञान है। ये सारे शरीर वस्तुओं, सामग्रियों और विचारों एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान कर सकते हैं और सामाजिक एकता की स्थिति में रह सकते हैं। ब्राह्मणवाद की धारणा विपरीत है। यह दावा करता है कि कुछ शरीर आध्यात्मिक रूप से औरों से अलग हैं, इसलिए उनका भौतिक अस्तित्व विशेष और अलग रहना चाहिए और औरों के शरीर उनके लिए अस्पृश्य रहने चाहिए। हालाँकि इस विशिष्टता का कोई तार्किक आधार नहीं था(है), इसे एक पदानुक्रम में सामाजिक समुदायों पर थोपा गया। इस प्रकार की पृथकता का विचार रंगभेद की आर्य धारणा से उपजा होगा। ऐतिहासिक रूप से, रंगों द्वारा पृथक्करण पृथक्करण का प्रथम प्रकार था और पृथक्करण के सारे अन्य प्रकारों ने इसका अनुसरण किया। जाति भी पृथक्करण के इसी प्रकार से निकली। जिस अस्पृश्यता को मालाओं और माडिगाओं ने सहा वह पृथक्करण का एक कठोरतम प्रकार है जिसे ब्राह्मणवाद ने विज्ञान, आध्यात्मिकता और उत्पादकता के सारे प्रकारों का संपर्क तोड़ने के लिए रचा। इसी प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद ने सारे प्रकार के शरीर रचना संबंधी परीक्षणों को प्रतिबंधित करते हुए यहाँ तक कि मृत मानव शरीर को भी अस्पृश्य बना दिया। अपने वृहत्तर दार्शनिक और मानवतावादी विश्व दृष्टि के साथ दलितवाद (मालाओं और मडिगाओं का) मृत शरीरों को ससमय निपटाकर शेष समाज के बचाव के लिए आगे आया। यदि दलितवाद न होता तो न तो ब्राह्मण, न नव-क्षत्रिय (रेड्डी, वेल्मा और कम्मा) या बहुजन (अन्य पिछड़ी जातियाँ –ओ.बी.सी.) इस धरती पर सुरक्षित रहते। यहाँ तक कि बहुजन भी ब्राह्मणवाद से प्रभावित हो गए क्योंकि उन्होंने हैजा, चेचक और अन्य घातक बीमारियों की महामारियों के समय अपने मृतकों से निपटने में अपना साहस खो दिया। ये माला और मडिगा जातियाँ थीं जिन्होंने गाँवों और शहरी केन्द्रों से मृतकों को हटाने में अभूतपूर्व साहस दिखलाया। विडंबना है कि ऐसी सारी जीवन रक्षक श्रम प्रक्रियाओं और वैज्ञानिक विचारों का भीषण अवमूल्यन किया गया और साथ ही इन्हें मज़दूरी भी नाममात्र की दी गई। उनके शरीर और उनकी आत्मा की हत्या के लिए ये जुड़वाँ प्रक्रियाएँ चलाई गईं। ब्राह्मणवाद ने एक रणनीति तैयार की जिसमें काम के सबसे अधिक उपयोगी और वैज्ञानिक प्रकारों को सबसे कम मज़दूरी दी जाएगी। विषम परिस्थितियों में और अपने ऊपर लादे गए सामाजिक अपमान में भी इन समुदायों ने शेष समाज के दीर्घकालीन लाभ के लिए अपने श्रम को दिया – ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म ने उन्हें कठोरता के साथ निर्धनता और निराश्रयता की स्थिति में रखा जिससे कि उनकी रचनात्मकता और ऊर्जा नष्ट हो जाए। यह सर्वविदित जानकारी है कि हिन्दू विचार से मृत को अस्पृश्य माना जाता है। यहाँ तक कि बहुजन जातियों ने भी उन्हें सुदक्कम समझा। मालाओं ने इससे पहले कि वे सड़ने लगें मृत शरीरों को दफना कर ऐसी धारणाओं को चुनौती दी। वे मृतकों को दफनाने के लिए गाँव से थोड़ी दूर पर बोंडालू (गड्ढे) खोदते हैं। यहाँ तक कि आज भी ये माला ही हैं जो कब्र खोदते हैं। बौद्धों की भांति दलित नागरिक समाज विश्वास करता है कि शरीर मिट्टी, पानी, आग और हवा से बना है और दफनाने पर शरीर के विभिन्न तत्व प्रकृति के सामान तत्वों से मिल जाते हैं। मानव शरीर का रासायनिक विघटन बदले में मिट्टी को फिर से ऊर्जा दे देता है। वास्तव में, मृत शरीरों के निपटारे की यह विधि पुरातात्विक और मानवशास्त्रीय दोनों दृष्टिकोणों से जानकारी का एक अमूल्य स्रोत साबित हुई जिससे कि भारत में मानव शरीर और दिमाग़ के क्रमिक विकास को समझा जा सके। हिन्दू धर्म अपने ही कारणों से मृत शरीर के दाह-संस्कार का समर्थन करता है, जिसने मानव अस्थिपंजरों और खोंपड़ियों के गंभीर परीक्षण, जो दफनाए जाने के बाद ज़मीन के अन्दर रहते हैं, की संभावना को नष्ट कर दिया। ब्राह्मणवाद की दलित-बहुजन समझ इस प्राथमिकता के लिए दो कारण देती है: पहला, हिन्दू दंडनीति ने विवादों के समाधान के लिए हिंसक साधनों जैसे सार्वजनिक रूप से कोड़े मारना, हाथ-पैर तोड़ देना और जीभ और नाक काट लेना, का इस्तेमाल किया। ऐसी यातनाओं से मारे गए लोगों के शरीरों को जला देने से भविष्य की पीढ़ियों के विचार करने योग्य कोई साक्ष्य नहीं मिलेगा। इस अवैज्ञानिक व्यवहार के धार्मिक प्रथा में परिवर्तन के पहले शूद्र अपने मृतकों को दफनाना पसंद करते थे। हालाँकि, एक समय के बाद ओ.बी.सी. और नव-क्षत्रियों ने दाह-संस्कार की प्रथा को अपना लिया। दूसरे, दाह संस्कार में भूमि नहीं लगती है और इसलिए किफायती है, यह तर्क इस तथ्य पर नहीं ठहरता कि माला, मडिगा और कुछ अन्य जातियों द्वारा शवों को दफनाने के क्रम में अलग कब्रिस्तान की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी भूमि का उपयोग वे खेती के लिए भी करते थे। क़ब्रों के निर्माण के लिए भूमि के विशेष आवंटन या प्रत्येक मृतक की याद के लिए विशेष पट्टिका के ईसाई या मुस्लिम प्रकार का उपयोग दलित-बहुजन जन समूह नहीं करता था। यह, निश्चित रूप से, कार्यस्थल पर विचार का एक वैज्ञानिक तरीका था। यह भी संभव है कि मृत शरीर की अपवित्रता की धारणा ने दाह-संस्कार को एक अधिक आकर्षक विधि बना दिया क्योंकि यह अपवित्र शरीर का कोई चिह्न नहीं छोड़ता। इसके अलावा ब्राह्मणवाद प्रत्येक मृत शरीर को एक संभावित प्रेत के रूप में देखता था और यह विश्वास किया जाता था कि शरीर के जलने के साथ प्रेत भी नष्ट हो जाता है। हालाँकि इस प्रथा ने भारत में चिकित्सा विज्ञान, विशेषकर शरीर रचना विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से व्यवधान उपस्थित किया। परिणामस्वरूप चीनियों के विपरीत हमारे पास चिकित्सा की अपनी व्यवस्था नहीं थी, हमारे देश में जिससे अंग्रेज़ों ने हमारा परिचय करवाया। अब, ब्राह्मणवादी शक्तियाँ इस व्यवस्था में प्रवेश कर चुकी हैं, इसे सेवा नहीं धन-उपार्जन का पेशा बना लिया है और इसे दलित-बहुजन जन समूह की पंहुँच के बाहर कर दिया है। मृत शरीर को दफनाने की माला प्रथा यह इंगित करती है कि वे मृत शरीरों के साथ एक तार्किक ढंग से पेश आते थे। वे अंधविश्वास के घेरे के बाहर काम करते थे। पडे (मृतक को ढोने के लिए लकड़ी का ढाँचा) बनाने से गड्ढे को खोदने या कोस्टम (लट्ठे का बिस्तर जिसपर मृत शरीर को जलाने के लिए लिटाया जाता है) तैयार करने से मृत शरीरों को दफनाने तक सारा काम माला करते हैं। मडिगा इन कामों को उन जगहों पर करते थे जहाँ कोई माला समुदाय नहीं था। माला भी मृतक को ले जाते समय डप्पु बजाते हैं वह कार्य जो सामान्यतया मडिगाओं का है। कुछ क्षेत्रों में इन दो समुदायों के बीच भूमिकाओं का आदान-प्रदान बहुत ही आम है। माला और मडिगा मृतक से संबंधी कार्य यूँ ही नहीं करते। यह उनके लिए एक व्यावसायिक गतिविधि नहीं है क्योंकि इसमें कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं होता। न ही इस अवसर पर उन्हें किसी विशेष भोजन का लाभ मिलता है। ऐतिहासिक रूप से, यहाँ तक कि इन अवसरों पर भी उन्हें जूठन खाने के लिए बाध्य किया गया। फिर भी वे ये काम व्यापक समुदाय के हितों को ध्यान में रखकर करते हैं–यह सामान्य बोध है कि यदि अपवित्र होने के डर से किसी मृत शरीर बिना छुए छोड़ दिया जाए तो यह सड़ेगा और सारे गाँव या शहर के लिए ख़तरा पैदा करेगा। माला और मडिगा मृतक के लिए रोते हैं और उसके परिवार का दुःख साझा करते हैं भले ही वे उसकी जाति या समुदाय के न हों। वे मृतक के सम्बन्धियों के पास मृत्यु का समाचार भी ले जाते हैं। वार्ता हारुलु या काबुरु चेप्पेटोलियू (वे जो समाचार ले जाते हैं) के रूप में उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डाला क्योंकि समाचार पहुँचाने के लिए उन्हें घने जंगलों से जाना, नदियों को पार करना या पहाड़ों पर चढ़ना पड़ा। उन्होंने श्मशानघाट के कटी कपारिस या दरबान का भी काम किया। हालाँकि विचारधारा के तौर पर वे मृतक का निपटारा करने के ब्राह्मणवादी तरीके के विरुद्ध हैं, फिर भी यह सुनिश्चित करने के लिए कि सम्पूर्ण शरीर आग के हवाले हो गया और दाह-संस्कार की प्रक्रिया के दौरान दूसरों के द्वारा लकडियाँ नहीं चुराई गईं, वे दरबान का काम करते हैं। माला वीरा बहू की कहानी का बयान करते हैं जिसने विश्वामित्र के कुटिल षड्यंत्र से हरिश्चन्द्र को बचाने के लिए अपनी सारी सम्पत्ति लुटा दी। एक प्रसिद्द दलित कवि गुर्रम जोशुआ की वीरा बहू पर लिखी कविताएँ शिक्षित मडिगाओं और मालाओं के बीच बहुत लोकप्रिय हैं क्योंकि वह एक सच्चे और बहादुर व्यक्ति का मूर्त रूप है। न्याय की माला-मडिगा या दलित धारणा में इसलिए एक विपरीत सामाजिक मूल्य है। सारे भारतवर्ष के दलित समुदायों को इस बात का एहसास करने की आवश्यकता है कि उनके ऐतिहासिक सामर्थ्य को ब्राह्मणवाद द्वारा नष्ट किया गया है। एक वह दिन आएगा जब इन समुदायों को विज्ञान, तकनीकी, अभियंत्रण, उत्पादकता में उनके योगदान के लिए और इसके लिए कि कैसे और किन माध्यमों से हिन्दू ब्राह्मणवाद ने अस्पृश्यता और सामाजिक अपमान के माध्यम से उन्हें बाँध दिया था, क्षतिपूर्ति की माँग करनी होगी। हालाँकि भारत में दलितों के दमन में शूद्र जातियों, जो जाति सोपान में दलितों से ऊपर हैं, की भी भूमिका रही है लेकिन इस अपराध के लिए मुख्य राजनीतिक और विचारधारा संबंधी ज़िम्मेदारी ब्राह्मणवादी बौद्धिक शक्ति पर पड़ती है जिसने अपने दमन के एजेंडा को कार्यान्वित करने के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र का इस्तेमाल किया। यह ब्राह्मणवाद था जिसने विज्ञान को अज्ञान और अंधविश्वास को शास्त्र के रूप में परिभाषित किया। अगले अध्यायों में, जो शूद्र जातियों से सम्बन्धित हैं, हम इस बात का परीक्षण करेंगे कि उनके दिन-प्रतिदिन के अस्तित्व के सन्दर्भ में ऐतिहासिक रूप से दलितों और ओ.बी.सी. के बीच किस प्रकार का उत्पादक सम्बन्ध विद्यमान है। 

अध्याय 4 

सबाल्टर्न नारीवादी 

मडिगा-माला समाज से गुजरते हुए जैसे ही हम शूद्र समाज में प्रवेश करते हैं, ‘सत्य की हमारी’ यात्रा को छुआछूत की दीवारों का सामना करना पड़ता है। शूद्र समाज की शुरुआत चकालियों से होती जिन्हें देश के कई हिस्सों में धोबी कहा जाता है। इस समुदाय के स्त्री-पुरुष पूरे गाँव के कपड़े धोते हैं। कपड़े इकट्ठा करने का काम मुख्य तौर पर धोबी औरतें करती हैं और पुरुष उनका सहयोग करते हैं। भारत अकेला ऐसा देश है जहाँ एक पूरा समुदाय गाँव के सभी समुदायों के कपड़े धोने का काम करता है, उन दलितों के भी जिन्हें शूद्र छू नहीं सकते। और यह अकेला ऐसा जाति-समूह है जहाँ रचनात्मक मानवीय कर्म और सांस्कृतिक प्रक्रिया का नेतृत्व स्त्रियों के हाथ में होता है और पुरुष पारंपरिक तौर पर ही एक स्त्रियोचित काम करते हैं। यह चीज हिन्दू जीवन शैली के एकदम विपरीत है जहाँ स्त्रियों को कोई महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका नहीं दी जाती। लेकिन यह भी सत्य है कि आज भी इस जाति, खासकर इसकी औरतों को कोई पहचान नहीं मिल पाई है। कपड़े धोने के बाद और पहले वे आज भी हिन्दू देवताओं, उनके पुजारियों और पूरे द्विज समाज के लिए अछूत ही रहते हैं। अन्य शूद्र जातियों के साथ इनके रिश्ते भी अनिश्चित ही हैं। एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में कपड़े धोने के काम को समाज में कोई पहचान नहीं मिलती। न ही किसी तथाकथित सम्मानित सामाजिक आयोजन में कपड़े इकठ्ठा करने की सामाजिक प्रक्रिया पर कोई बात की जाती। न कोई पंडित इसके बारे में बात करता है और न किसी लेखक ने कभी इस काम की महत्ता के बारे में कुछ लिखा। प्राचीन भारतीय साहित्य में धोबी का जिक्र एक बार रामायण में होता है। इसके अलावा किसी और ग्रन्थ में धोबियों का कहीं जिक्र नहीं आता। और रामायण में भी धोबियों का सन्दर्भ वहां आता है जहाँ उन्हें धोबीघाट पर सीता के शील के सम्बन्ध में बात करते हुए बताया गया है। राम को यह बात बहुत परेशान कर देती है कि धोबी जैसी नीची जाति के लोग भी मानते हैं कि रावण ने सीता की शुचिता नष्ट कर दी है, और वे सीता को वापस वन में भेज देते हैं। इस तरह रामायण में धोबी का जिक्र इस रूप में आता है कि वे लोग गर्भवती सीता को दुबारा वन में भेजने का कारण बने। इस वृत्तांत का अभिप्राय यह निकलता है: यदि स्थिति ऐसी है कि एक धोबी की पत्नी तक, जिसकी शील की अपनी अवधारणा तक बहुत मामूली है या है ही नहीं, वह भी सीता के लिए एक पैमाना है तो फिर सीता अवश्य ही राम द्वारा नकारे जाने योग्य है। यह विवरण सिर्फ सीता की ही नहीं, चकली स्त्री की महत्ता को भी नकारता है। यहाँ तक कि आज के आधुनिक युग में भी द्विजों की लिखी कोई किताब ऐसी नहीं है जिसमें धोबियों को लेकर कुछ सकारात्मक लिखा गया हो। स्कूलों में भी ऐसी कोई किताब बच्चों को नहीं पढ़ाई जाती जिसमें बताया गया हो कि धोबी/चकली नाम की कोई जाति भी होती है, जैसे कि यह बताने भर से बच्चे बिगड़ जायेंगे। क्या होता है कपड़े धोना? कपड़े धोने के व्यवसाय में सभी तरह के कपड़ों की धुलाई शामिल होती है, जिनमें बच्चों के मल-मूत्र से सने कपड़े भी होते हैं, बड़ों के मैले कपड़े भी होते हैं, महिलाओं की माहवारी के और बीमार लोगों के कपड़े भी होते हैं। ये सब आकर धोबियों/चकालियों के ऊपर पड़ते हैं। अपने इन गंदे कपड़ों को ब्राह्मण, बनिए और क्षत्रिय खुद भी छूना पसंद नहीं करते जिसके पीछे उनकी यह हिन्दू आस्था है कि कपड़े धोना आध्यात्मिक रूप में अशुद्ध काम है और जो ये काम करते हैं वे भी अशुद्ध और अपवित्र हैं। दूसरी तरफ धोबी/चकली दलितों के कपड़े नहीं लेते क्योंकि वे सारे गाँव के लिए अछूत हैं और उनके कपड़ों को स्पृश्य लोगों के कपड़ों के साथ नहीं मिलाया जा सकता। लम्बे समय तक ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय यह मांग करते रहे कि उनके कपड़ों को अन्य जातियों के कपड़ों से अलग रखा जाए। ब्राह्मणों का यह अलगाववाद आज भी जारी है। यह ब्राह्मणवाद के कारण ही हुआ कि चकालियों ने समाज के सबाल्टर्न वैज्ञानिकों और उत्पादक सिपाहियों के कपड़े नहीं धोये। यदि चकली भी यह मानते थे कि इन उत्पादक जातियों के कपड़े धोने से वे अशुद्ध हो जाएंगे तो इसके पीछे जो तर्क काम कर रहा था उसकी जड़ें भी ब्राह्मणवाद की आध्यात्मिक संस्कृति में थीं। कैसे और कब यह हुआ कि अस्पृश्यता की यह बीमारी पूरे समाज के कपड़े धोने वाले सामाजिक समुदाय के भीतर पहुँची? उनके भीतर इस बीमारी का प्रवेश हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों ने कराया जिन्हें धर्मशास्त्र (न्याय की पुस्तकें) कहा जाता है। दलितों और अन्य समुदायों के बीच अस्पृश्यता एक दीवार की तरह खड़ी है जो उनके हुनर, मूल्य और ज्ञान तंत्र को किसी सार्थक सामाजिक अंतर्क्रिया का हिस्सा नहीं बनने देती। ब्राह्मणवाद ने नीचे धोबियों/चकालियों से लेकर ऊपर ऊंची जातियों तक एक नकारात्मक और अमानवीय सामाजिक प्रक्रिया की रचना कर दी थी। चकालियों/धोबियों से नीचे की जातियां चकालियों और मंगालियों (नाइयों) से ऊपर की सभी जातियों के लिए अछूत हैं और चकली/धोबी और मंगाली बाकी सभी शूद्रों और द्विजों के लिए अछूत हैं। यह एक अजब और जटिल संरचना है जिसे ब्राह्मणवाद ने गढ़ा। शूद्रों का अस्तित्व वह नागरिक समाज जो चकली/धोबी से शुरू होकर समूहों में ऊपर जाता है, उसे ब्राह्मण ग्रंथों में शूद्र समाज कहा गया है। शूद्रों को माना गया है कि उन्हें कोई ज्ञान नहीं है, वे ऐसे लोग हैं जिनका मष्तिष्क सोचने में सक्षम नहीं है। वे लोग जिनका साबिका मिट्टी और पशुओं से पड़ता है, जो उत्पादन और उत्पादक उपकरणों से जुड़े हैं और ये सब चीजें आध्यात्मिक रूप में अपवित्र और सामाजिक तौर पर नीचे दर्जे की हैं। दूसरे शब्दों में शूद्र वे लोग होते हैं जिनके गुण ब्राह्मणों से एकदम उलट होते हैं। जैसा कि सर्वविदित है ‘ब्राह्मण’ को ज्ञान के सर्वोच्च रूप के साथ अवधारित किया गया है। हम जानते हैं कि शब्दों के अर्थ आम तौर पर उन्हीं लोगों की छवि के अनुसार गढ़े जाते हैं जो उन शब्दों को गढ़ते हैं। ब्राह्मण लेखकों ने खुद को परम ज्ञानी के तौर पर पेश किया और जिन लोगों को वे अपना गुलाम बना कर रखना चाहते थे उन्हें अपने से बिलकुल विपरीत अर्थों वाले नाम दिए। इस तरह धोबी/चकली शूद्र समाज की पहली सीढ़ी हुए जिन्हें बावजूद अपनी योग्यता के मूर्ख का खिताब दिया गया। जबकि चकालियों का ज्ञानाधार वह प्राथमिक आधार है जिस पर पूरे शूद्र समाज को गर्व करना चाहिए। उनके पास एक अनूठी संस्कृति है और सेवा का अपनी तरह का एक विशिष्ट बोध लेकिन अमानवीय मूल्यों के धनी लोगों ने उनके साथ अछूत मानकर व्यवहार किया। इस अध्याय में हम यही देखेंगे, और समझने की कोशिश करेंगे कि उनका ‘चकालात्वम’ क्या है। स्वास्थ्य विज्ञान का दायित्व चकली/धोबी महिलाएं दैनिक जीवन में वस्तुतः क्या करती हैं? वे सुबह तड़के जग जाती हैं और सबसे पहले घर का काम-काज निबटाती हैं। वे घर-घर जाकर धुलाई वाले कपड़े इकट्ठा करती हैं। कुछ घरों में इस काम के लिए मर्द भी जाते हैं। एक बार जब हर घर से कपड़े इकठ्ठा हो जाते हैं, उन्हें अलग-अलग बंडलों में व्यवस्थित किया जाता है। फिर बच्चों समेत पूरा परिवार उन गट्ठरों को अपने सिर पर रखकर ले जाता है। हर रोज कपड़ों के बोझ को सिर पर ढोने के कारण चकालियों को बोझा ढोने वाले गधे भी कहा जाता है। इधर कुछ इलाकों में धोबी लोग कपड़ों के गट्ठरों को गाँव से धोबी घाट (चाकी रेवु) तक ले जाने के लिए गधों का प्रयोग भी करते हैं। लेकिन ऐतिहासिक रूप में कपड़े ले जाने का काम वे खुद ही करते थे और इसे किसी चकली परिवार या पूरी जाति के लिए ही एक सामाजिक दायित्व माना जाता था। धोबी घाट पर पहुँचने के बाद चकली सब कपड़ों को पानी में डुबो देते हैं। लम्बे समय तक ऐसा रहा कि कपड़े उन्हें सिर्फ साफ़ पानी में ही धोने होते थे। बाद में जाकर उन्हें लगा कि खाली पानी से कपड़े पूरी तरह साफ़ नहीं होते। न उन्हें खुद संतुष्टि होती थी न ग्राहकों को। अपने और ग्राहकों के संतोष के लिए अच्छी तरह कपड़े धोये जाने की इस समस्या से पार पाने के संघर्ष के दौरान ही चकालियों/धोबियों को सदियों पहले मिट्टी के साबुन की खोज करना पड़ी होगी। और यह खोज पूरी दुनिया में अपनी तरह की पहली खोज रही होगी। तेलुगू देशम में इस तरह के साबुन को ‘चाऊडू माटी’ के नाम से जाना जाता है। चाऊडू माटी हर जगह मिलने वाली कोई साधारण मिट्टी नहीं है। यह भूरे रंग की एक खास तरह की मिट्टी होती है जिसमें डिटर्जेंट के रासायनिक गुण होते हैं। चाऊडू माटी को छूने पर इससे एक हल्की जलन होती है और अगर हाथ में गन्दगी लगी हो तो वह फ़ौरन साफ़ हो जाती है। चकली इस मिट्टी को पानी में डालकर तब तक घोलते हैं जब तक कि यह पानी में पूरी तरह जज्ब न हो जाए। कुछ चकली चाऊडू माटी मिले इस पानी को गर्म करके उसमें कपड़े डुबोते हैं और कुछ बिना गर्म किये। निश्चित ही इस मिट्टी तक पहुँचने से पहले चकली/धोबियों ने और भी अनेक प्रकार की और कम डिटर्जेंट गुणों वाली मिट्टियों के साथ प्रयोग किये होंगे। प्रयोगों और कम उपयोगी मिट्टी को छोड़कर दूसरी मिट्टी के रासायनिक गुणों की जांच का यह सिलसिला लगता है पीढ़ियों चला होगा और साबुन के गुणों से युक्त चाऊडू मिट्टी का आख़िरी चुनाव उसके डिटर्जेंट गुणों की सही जानकारी मिलने के बाद किया गया होगा, जिसका इस्तेमाल आज तक किया जाता है। भारत में कपड़े धोने की प्रक्रिया में दूसरा बड़ा चरण चाऊडू के पानी में कपड़ों को भिगोकर उन्हें गर्म करने की प्रक्रिया रही। कपड़ों को गर्म करने की इस विधि तक चकली/धोबी क्यों और कब पहुंचे? मिट्टी के जिस साबुन का वे इस्तेमाल कर रहे थे उससे स्पष्ट है कि कपड़ों में मौजूद संक्रामक रोगों के कीटाणु खत्म नहीं होते थे। चकली/धोबी जिन कपड़ों को पूरे गाँव से एकत्रित करते थे, वे सब एक साथ रखे जाते थे जिससे संभव था कि रोगों के जीवाणु एक से दूसरे कपड़े तक पहुँच जाएँ। मिट्टी से निकाले हुए कपड़ों में ये जीवाणु धीरे-धीरे इकट्ठा होकर व्यक्ति को बीमार कर सकते थे। चकालियों/धोबियों ने महसूस किया कि सिर्फ मिट्टी के साबुन से कपडा पहनने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य की हिफाजत नहीं की जा सकती। इस समस्या से निबटने की अपनी बौद्धिक जद्दोजेहद में ही उन्होंने चाऊडू माटी में भीगे कपड़ों को गर्म करने की विधि तलाश की जिसका सम्बन्ध पूरे गाँव के कल्याण से था। इसी के परिणामस्वरूप आज भी हम चाकी रेवु/धोबी घाटों पर कपड़ों को उबालने की व्यवस्था देख सकते हैं। कहा जा सकता है कि चाऊडू माटी और कपड़ों को गर्म करने की प्रक्रिया की खोज चकालियों/धोबियों की वैज्ञानिक सोच और संघर्ष का नतीजा थी जो मानव समाज के विकास के लिए नयी तकनीकी के आविष्कार को ध्यान में रखकर की गयी। मिट्टी का साबुन खोजने की इस पूरी प्रक्रिया में मुख्य भूमिका किसकी रही? कम उपयोगी मिट्टी को छोड़कर सबसे अच्छी मिट्टी तक पहुँचने के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोगी मिट्टियों की जांच की इस तरकीब की खोज उन्होंने कैसे की? चकली/धोबी स्त्रियों ने मिट्टी के साबुन की इस तकनीक के परिष्कार और खोज में निश्चित ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। कपड़ों को उबालने की तकनीक की खोज में भी लगता है बड़ी भूमिका स्त्रियों की ही रही। किसी तकनीक और उसको प्रयोग करने की विधियों में सुधार वही कर सकता है जो उनका प्रयोग करता हो। दूर खड़ा कोई व्यक्ति किसी आर्थिक क्रिया में तकनीकी सुधार और किसी नयी पद्धति के आविष्कार के विषय में नहीं सोच सकता। काम की दैनिक प्रक्रिया में शामिल लोग ही नयी चीजों की खोज कर सकते हैं। उदाहरण के लिए कोई ब्राह्मण यह नहीं कर सकता था कि वह मिट्टी के साबुन की खोज करके उसे चकली/धोबियों को दे दे। न सिर्फ ये कि कपड़े धोने के विज्ञान के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, बल्कि यह काम उन्हें देखने-जानने लायक लगता भी नहीं था। ब्राह्मण अन्धविश्वासी थे और किसी व्यावहारिक खोज को कोई महत्व नहीं देते थे क्योंकि निरिक्षण और विश्लेषण की प्रक्रिया में ही उन्हें कोई अर्थ नजर नहीं आता था। इसलिए उन्होंने प्रकृति से कोई रचनात्मक संवाद नहीं बनाया। ईश्वरीय आह्वान या झाड-फूँक तो इस क्षेत्र में कुछ नहीं कर सकते थे, बल्कि वे तो आधारभूत विज्ञान के विकास के विरुद्ध ही जाते। विज्ञान का विकास अंधविश्वासों का विषय नहीं है, न धर्म का। यह तर्क और विश्वास के परस्पर संवाद की प्रक्रिया है। यही नहीं, ब्राह्मणवाद ने धर्म की रचना एक नकारात्मक दार्शनिकता के साथ की। किसी भी और धर्म ने वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता का विरोध इस तरह नहीं किया जैसे ब्राहमवाद ने। क्या भगवान ने कहा है कि कपड़े धोना बेकार का काम है? क्या उसने कहा है कि जो आदमी दूसरों के कपड़े धोएगा उसे आध्यात्मिकता के लिए अयोग्य मानकर बरता जाए? दरअसल सच्चा आध्यात्मिक दर्शन दूसरों की सेवा करने वालों को ईश्वर के सबसे प्रिय लोगों के रूप में देखता है। भारत के ब्राह्मणों ने विज्ञान और आध्यात्मिकता की प्रगति का हर रूप में विरोध किया और कपड़े धोने के विज्ञान को सबसे अनुपयोगी मानव-कर्म बना दिया। यह प्रकृति से रचनात्मक संवाद का विरोध करने की उनकी वृहत विचारधारा का ही हिस्सा है। प्रकृति से भोजन के रूप में मिलने वाले उत्पाद हर चरण में ब्राह्मणों को अछूत लगते हैं सिवाय उस अंतिम चरण के जब वे खाए जाने के लिए थाली में रख दिए जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में कपड़े धोने या उससे जुड़ी अन्य प्रक्रियाओं में हिस्सा नहीं लेने वाले मर्द भी इस क्षेत्र में कोई सार्थक योगदान नहीं कर सकते थे। यहाँ तक कि चकली/धोबी पुरुष भी जो धुलाई के काम में बहुत ज्यादा संलग्न नहीं रहते थे, वे भी धुलाई की तकनीक के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं कर पाए होंगे। इसलिए यह निष्कर्ष निकालने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि भारत में मिट्टी के साबुन और कपड़ों को गर्म करने जैसी धुलाई की तमाम तकनीकों की खोज महिलाओं ने ही की होगी। स्वास्थ्य विज्ञान से जुड़ी इस प्रकार की गतिविधियों में ये महिलाएं क्यों शामिल हुईं? क्या इस गतिविधि से जुड़ने के पीछे उनका अपना कोई दर्शन था/है, या फिर यह काम था ही मूर्ख औरतों का जिनके पास स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और मानव-जीवन के सौन्दर्य की कोई समझ नहीं थी और न जिन्हें प्रकृति के साथ इसका क्या रिश्ता बनता है, इसकी कोई जानकारी थी? धुलाई का दर्शन शरीर या कपड़ों की धुलाई का दर्शन मानव-स्वास्थ्य की विकसित समझ से जुडा है। अच्छे स्वास्थ्य और सामाजिक स्वच्छता का ज्ञान भी स्वास्थ्य विज्ञान के विकास का हिस्सा है। कपड़े पहनने के विज्ञान/कला के आरम्भ के बाद स्वास्थ्य विज्ञान में दो मूलभूत आयाम जुड़े। एक तो मनुष्यों का आधारभूत स्वास्थ्य जिसका सम्बन्ध खाए जाने वाले खाने और शरीर की सफाई से है और दूसरा कपड़ों की सफाई।। मनुष्य कपड़ों को अपने शरीर की सुरक्षा और अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए पहनता है। समय के साथ कपड़े पहनने की क्रिया के इर्द-गिर्द कई तरह की वैचारिक संरचनाएं भी विकसित हुई हैं। जो कपड़े पहने जाते हैं और जिस तरह से उन्हें पहना जाता है, यह सौंदर्य और सौन्दर्यबोध से जुड़ी अन्य धारणाओं का हिस्सा हो गया है। देह की हिफाजत से लेकर देह के सौन्दर्य-वर्धन तक सांस्कृतिक सौन्दर्य-चेतना का एक पूरा शास्त्र कपड़ों के इर्द-गिर्द रचा जाने लगा। सांस्कृतिक सौन्दर्य का पूरा विचार लोगों के कपड़े पहनने के ढंग, उनके रंगों के चुनाव और सफाई के उनके तरीके के आसपास बुना गया है। शूद्रों में से ही तीन ऐसे समुदाय निकले जिनका सम्बन्ध कपड़े पहनने के विज्ञान और सौन्दर्यबोध से बना : बुनाई के स्तर पर पद्मशाली समुदाय, सिलाई के स्तर पर दर्जी या मेडा समुदाय और कपड़ों की सफाई के स्तर पर चकली/धोबी समुदाय। इन तीनों समुदायों में से चकली/धोबियों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने समाज में सबसे निचला दर्जा दिया। उन्हें उतना ही अस्पृश्य बना दिया गया जितने गंदे कपड़े होते हैं। ऐसा क्यों? इसका उत्तर जानने के लिए हमें चकली/धोबियों के दमन में ब्राह्मणवाद और हिन्दू धर्म की भूमिका को देखना होगा। हिन्दू धर्म, विज्ञान और सौन्दर्यबोध सभी धर्मों ने अपनी एक वेशभूषा संहिता बनाई है। लेकिन कुछ धर्मों ने धर्म के आसपास काम करने वाले लोगों के दमन के लिए वेशभूषा का इस्तेमाल औजार की तरह किया। मनुष्य की वेशभूषा का विकास एक वैज्ञानिक गतिविधि है। हिन्दू ब्राह्मणवाद ने खोज के स्तर पर भी विज्ञान को नकारा और बाद में विकास के स्तर पर भी। हालांकि बात जब कपड़ों को पहनने की आई तो उन्होंने कपड़ों के बाजार का दोहन जमकर किया। वेशभूषा से जुड़े विधि-निषेध के इर्द-गिर्द दमनकारी सौंदर्यशास्त्र का निर्माण तो सभी धर्मों ने किया लेकिन हिन्दू धर्म ने कपड़ों के रंग और उन्हें पहनने की विधियों के आधार पर आधिपत्य और गुलामी की अनेकानेक विधियों के द्वारा उत्पादक समुदायों को अपमानित करने की कहीं ज्यादा प्रभावी विधियां विकसित कीं। ईश्वर के साथ लोगों के सम्बन्ध और लोगों के अपने बीच रिश्तों को कपड़ों के एक झूठे दर्शन के आधार पर तय किया गया। कहा गया कि ईश्वर को कपड़ों का एक खास रंग (भगवा) और कपड़े पहनने का एक खास ढंग (जैसा सन्यासियों का होता है) पसंद है। एक धर्म जो सिर्फ एक रंग को पहनने के लिए कहता हो, जनता के सौन्दर्यबोध को नष्ट कर देता है। चकालियों/धोबियों ने बहुरंगी सौन्दर्यबोध की संस्कृति का विकास किया है। सभी उत्पादक समुदाय सतरंगी इन्द्रधनुष को सम्मान के साथ देखते हैं। वे हर उस रंग को समान भाव से प्यार करते हैं जिसे प्रकृति ने अपने विकास की प्रक्रिया में रचा। हिन्दू लोगों ने हर उस चीज से नफरत की जो उत्पादक श्रेणी के लोगों के प्रेम का पात्र थी। हिन्दू ब्राह्मणवाद ने कपड़ों और आध्यात्मिकता का अपना एक दर्शन बनाया। वस्तुत: सभी धर्मों ने अपने-अपने धर्म के अनुसार कपड़ों को लेकर अपना एक दर्शन गढ़ा। लेकिन हिन्दू धर्म ने कपड़ों के दर्शन को जाति के दर्शन से जोड़ दिया और इस प्रक्रिया में शूद्रों, चांडालों और आदिवासियों के लिए कुछ कपड़ों को पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। माना गया कि उन्हें रंगीन कपड़े नहीं पहनने चाहिए और न ही ब्राह्मणों जैसा सौन्दर्यबोध और सांस्कृतिक स्तर अपनाना चाहिए। कुछ खास किस्म के कपड़े और कुछ खास रंग सिर्फ ब्राह्मण पहनते थे, दूसरों को उन्हें पहनने की मनाही थी और अगर वे ऐसा करते तो इसके लिए कड़ी सजा दी जाती। वेशभूषा के ढंग और रंगों ने खुद ही एक वर्चस्व-क्रम और जाति-व्यवस्था का निर्माण कर दिया। रंगों की यह राजनीति भगवे की क्रूरता में जाहिर हुई जो जाति के श्रेणीक्रम को वैधता देने वाले हिन्दुत्व का प्रतीक है। माडी की दमनकारी व्यवस्था से ब्राह्मणों की भोजन संस्कृति की अमानवीयता उजागर होती है। माडी क्या है? इसमें ब्राह्मण स्त्री अपनी कमर को भीगे कपड़े से लपेटकर ईश्वर और उसके परिजनों के लिए भोजन पकाती है। दरअसल ईश्वर के नाम पर यह भोजन परिवार के स्वाद के लिए ही बनाया जाता है। लेकिन इसका त्रासद पक्ष यह है कि जब तक भोजन पूरा नहीं बन जाता, खाना बनाने वाली स्त्री को, जो खुद भी ब्राह्मण ही होती है, एक भीगा कपडा अपनी कमर पर पहनना पड़ता है। शुक्र है कि शूद्रों, दलितों और आदिवासियों में भोजन बनाने की ऐसी कोई भयानक विधि प्रचलन में नहीं है। वस्त्र धारण करने के विज्ञान और सौन्दर्यबोध के पटल पर चकली/धोबियों को हम कहाँ रखेंगे? क्या कपड़े साफ़ करने की तकनीक की जानकारी समाज के लिए उपयोगी थी? उन्होंने अच्छा दिखने और सुन्दरता की धारणा को आगे बढ़ाया या फिर उन्होंने समाज के सौन्दर्यबोध और नैतिक मूल्यों को नष्ट किया? क्यों हिन्दू ब्राह्मणवाद ने चकली/धोबियों को शूद्रों में भी सबसे अपमानित स्थान दिया? हिन्दू सौन्दर्यबोध ने संन्यासी संस्कृति के लिए एक वर्चस्ववादी संरचना गढ़ी। संन्यासी वह होता है जो न कपड़े धोने में यकीन रखता है न बाल कटवाने में। वह तथाकथित आध्यात्मिक स्नान जिसे ब्राह्मण और उनके प्रतिनिधियों के रूप में संन्यासी करते हैं, उसका उद्देश्य शरीर की सफाई नहीं होता। तेलुगू गाँवों में एक कहावत है: “ब्राह्मण स्नानम वडलानी बंका” अर्थात ब्राह्मणों का स्नान शरीर की गन्दगी साफ़ करने के लिए नहीं होता बल्कि उनके आध्यात्मिक अहंकार की संतुष्टि के लिए होता है। कोई अगर दो-चार मिनट में नहाकर निबट लेता है तो उसे कहा जाता है कि इसने ब्राह्मण स्नान कर लिया, क्योंकि दलित बहुजनों की सामान्य धारणा के अनुसार ब्राह्मण अपना स्नान मिनटों में निबटा लेता है। कारण कि उसका मकसद अपना स्वास्थय नहीं होता। वह बस थोड़ा पानी अपने शरीर पर डालता है और उसे लगता है शरीर को गीला कर देने भर से भगवान् खुश हो गए, और बाथरूम से भाग लेता है। ब्राह्मण हिन्दुओं के भगवान का स्थायी पुजारी रहा है और हिन्दू धर्म तथा ब्राह्मण, दोनों ने अपनी सांस्कृतिक सौन्दर्य-दृष्टि विज्ञान के क्षेत्र से बाहर बनाई है। यह चकालियों/धोबियों की धुलाई पद्धति से कतई उल्टी दिशा में जाती है जिसमें स्वास्थय और अर्थव्यवस्था दोनों की भौतिक जरूरतों के साथ-साथ परम स्वच्छता की आध्यात्मिक जरूरतें भी पूरी होती हैं। इस तरह हिन्दू ब्राह्मणवाद और ‘चकालात्वम’ परस्पर विरोधी दार्शनिक जमीनों पर खड़े होते हैं। सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध और स्त्रियाँ सभी पितृसत्ताओं ने जहाँ स्त्रियों की संस्कृति और सामाजिक सौन्दर्यबोध के बीच के रिश्ते को क्रूरतापूर्वक कुचला है, स्त्रियों ने हमेशा समाज की सौन्दर्य-संस्कृति के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई है। भारत में औरतों के दैनिक कार्यकलाप और पारिवारिक जीवन से यह साफ़ जाहिर है। घरों की सजावट और बच्चों के दैहिक सौन्दर्य की देखभाल के साथ उनके मानसिक-शारीरिक विकास की जिम्मेदारी पारंपरिक रूप में स्त्रियों की ही रही है। कपड़ों को धोना सिर्फ आर्थिक क्रिया नहीं है, यह एक सौन्दर्यपरक क्रिया भी है। सफाई और स्वच्छता का सम्बन्ध भी सिर्फ शरीर के स्वास्थय से नहीं है, इसका एक सांस्कृतिक और सौन्दर्यशास्त्रीय पक्ष भी है। चकालियों/धोबियों ने व्यक्तिगत सौन्दर्य के साथ सामाजिक सौन्दर्य को भी अपना लक्ष्य बनाया। गाँव की सामूहिक सुन्दरता तभी संभव थी जब वहां के निवासियों के कपड़े साफ़-सुथरे हों। कहावत भी है कि ‘जिस गाँव में चकली नहीं है, वह गाँव बदसूरती का ठिकाना है’। इससे साफ़ जाहिर है कि चकली/धोबियों ने भारतीय गाँवों में एक सौन्दर्य-चेतना की सृष्टि की। लैंगिक सम्बन्ध जातियों की सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को देखते हुए हमें यह भी देखना होगा कि जाति ने किस तरह के लैंगिक रिश्तों को जन्म दिया और साथ ही दलित बहुजन (शूद्र, चांडाल और आदिवासी) समाज के भीतर मौजूद उन सकारात्मक उदाहरणों को भी चिह्नित करना होगा जो हमें नागरिक सामाजिक रूपांतरण यात्रा के कुछ पदाधारों का दर्शन करा सकें। जाति ने लैंगिक संबंधों की रचना क्योंकि वर्गीय रूप में की, इसलिए सबसे सकारात्मक और समानता-आधारित लैंगिक रिश्ते उन्हीं जाति-समुदायों में देखने को मिलते हैं जिनके सामाजिक संबंधों का आधार उत्पादन है। इनका अध्ययन होना चाहिए और इस तरह के जाति-समूहों की वैश्विक स्तर पर अनुकरणीय जीवन-प्रक्रियाओं का सैद्धान्तिकरण होना चाहिए। स्त्री-पुरुषों संबंधों के विभिन्न रूपों के संश्लेषण के लिए एक उदाहरण के तौर पर और विभिन्न जातियों और व्यक्तियों के बीच छुआछूत की सामाजिक दीवारों को तोड़ने के प्रयास के रूप में भी, ‘चकालात्वम’ (धोबियों की जीवन और वैचारिक दृष्टि) सामाजिक विकास का एक संधि-स्थल बन जाता है। चकली अकेली ऐसी जाति रही है जो सभी जातियों और समुदायों के कपड़े धोने के चलते ग्रामीण व्यवस्था में विभिन्न जातियों के बीच सबसे सक्रिय सामाजिक कड़ी बनी। चकली/धोबियों की सामाजिक अंतर्क्रिया और कुछ नहीं दलितों को एकदम अलग रखने की ब्राह्मणवादी धारणा का नकार है। ब्राह्मणवाद चाहता था कि अस्पृश्यों और स्पृश्यों के बीच के सभी संबंधों को किसी भी तरह से खत्म किया जाए, लेकिन चकालियों ने अपना सामाजिक संसर्ग बनाए रखा। चकालियों ने शूद्रों का हिस्सा होते हुए भी सदियों तक और दृढ़तापूर्वक ब्राह्मण पुजारियों और तथाकथित ब्राह्मण पंडितों के नियमों का उल्लंघन करते हुए अछूतों के साथ भी संपर्क बनाए रखा। इस संपर्क के कारण दलितों और बहुजनों (इस अर्थ में तमाम शूद्रों) के बीच ऐतिहासिक रूप में सांस्कृतिक संवाद बना रहा। दलितों और शूद्रों के बीच छुआछूत के ऐतिहासिक जख्मों को भरने में इन कड़ियों की बहुत अहमियत है। इसके साथ, पूंजीवादी बाजार, शहरी रोजगार और साथ ही अम्बेडकरवादी आग्रह/आरक्षण भी शहरी क्षेत्रों में छुआछूत की दीवारों को गिराने में मददगार साबित हो रहे हैं। इस तरह जन-मन का शहरीकरण या आधुनिकीकरण और शूद्रों-दलितों की आर्थिक स्थिति, ग्रामीण क्षेत्रों में भी, भारतीय समाज के भविष्य को बड़े पैमाने पर बदलने जा रही है। इस देश या इस अर्थ में किसी भी देश का भविष्य आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्त्रियों के योगदान का पुनर्मूल्यांकन करते हुए इन सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष संबंधों में आमूलचूल बदलाव पर निर्भर करता है। इस दिशा में चकली स्त्रियों का जीवन हमें नयी दिशा दिखाएगा। चकालियों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने अपने समुदाय के भीतर स्त्रीवादी व्यवहार को सामान्य व्यवहार की तरह बरता। यह ऐसा पहलू है जिस पर न तो कभी कोई बात हुई है और न किसी ने उस पर कुछ लिखा। न ही स्त्रीवादी सिद्धांत और व्यवहार के ऐसे किसी स्थल को खोजने की कोई कोशिश अभी तक की गयी। कारण साफ़ है, ऊंची जाति की कोई महिला विद्वान ऐसी कोई खोज करने दलित-बहुजनों के बीच नहीं जा सकती थी, क्योंकि वे ‘अन्य’ थे और उनके पारिवारिक, जातिगत तथा स्त्री-पुरुष सम्बन्ध किसी भी तरह अनुकरणीय नहीं थे। सोचा गया कि नए संबंधों के बारे में कुछ सीखा जा सकता है तो सिर्फ पश्चिम से सीखा जा सकता है। परिवार, यानी वह सामाजिक इकाई जो तर्कमूलक विमर्श के केंद्र में रही है, को लेकर किये गए अभी तक के अध्ययन उस ब्राह्मण परिवार के अध्ययन रहे हैं जो सामाजिक रूप में एक नकारात्मक इकाई है। दलित-बहुजन परिवार और वह सामाजिक संरचना जो उन्होंने बनाई अपने आप में अनेक सकारात्मक मूल्यों की वाहक है। स्त्रियों और भारतीय समाज की पितृसत्ता से मुक्ति के लिए चकली/धोबी जैसे किसी दलित-बहुजन समुदाय के सामाजिक संबंधों की नजदीक से पड़ताल बहुत महत्वपूर्ण है। कपड़ों की धुलाई और स्त्रीवाद चकली समुदाय के नारीवाद का सम्बन्ध कपड़ों की धुलाई से है। एक ऐसा काम जिसका जिक्र तक हिन्दू धर्म की पुस्तकों में नही किया गया, और अगर किया भी गया तो सिर्फ यह दिखाने के लिए कि यह काम कितना स्त्रैण और इसीलिए कितना अपवित्र भी, है। हिन्दू आध्यात्मिक वैचारिकी में अपवित्रता और स्त्रीत्व को हमेशा एक साथ रखा गया है। ब्राह्मण लेखकों ने तो स्त्री-देह को ही अपवित्र माना है, फिर वह शरीर जो बच्चे के शरीर को साफ़ करता है, कपड़े साफ़ करता है, घर साफ़ करता है, वह तो और दूषित हुआ। ब्राह्मणों का ईश्वर ऐसे शरीरों से दूर रहता है, और उससे भी ज्यादा स्त्री शरीर से। रामायण में, जैसा कि हम पहले भी बात कर चुके हैं, चकली/धोबी को एक अनैतिक जीव के रूप में दर्शाया गया है। राम बार-बार कहते हैं, ‘एक धोबी, जो नीचों में भी नीच है, अगर सीता की चरित्रहीनता के बारे में बात कर सकता है तो फिर सीता को वन जाना ही होगा।’ इस तरह ब्राह्मणवादी ताकतों का भगवान समाज के सबसे सकारात्मक समुदाय का अपमान करता है। इसमें एक और अंतर्विरोध था- एक व्यक्ति जिसकी संवेदना ज्यादा स्त्री-सुलभ थीं, और जिसे स्त्री-पुरुष संबंधों के पितृसत्तात्मक रूप का सम्मान करने का प्रशिक्षण नहीं था, उसे अनैतिक माना गया। किसी भी चकली पुरुष में किसी भी अन्य भारतीय पुरुष के मुकाबले स्त्री-सुलभ गुण ज्यादा होते हैं। स्त्री यौनिकता की उसकी समझ औसत हिन्दू पुरुष के मुकाबले कहीं ज्यादा मूलगामी होती है। लेकिन इस समझ को सम्मान के काबिल नहीं समझा गया। न इसे सामाजिक दृश्यता मिली न उसका आर्थिक आधार मजबूत हुआ। नागरिक के रूप में चकली न सिर्फ सबाल्टर्न हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था के संबंधों को भी समाज में कोई पहचान नहीं मिली। ऐसे अनेक सवाल हैं जिनका जवाब अभी तक नहीं दिया गया है, जैसे कि मिट्टी के साबुन की खोज किसने की? किसने यह पता लगाया कि कपड़ों की सफाई संसार के सभी मनुष्यों के स्वास्थ्य और ऊर्जा के लिए एक अनिवार्य क्रिया है? इस तरह के सवालों को समाज ने कभी सम्मान नहीं दिया, यहाँ तक कि ऊंची जातियों की महिलाओं ने भी नहीं। जाति ने भारतीय स्त्री की चेतना को इस तरह भटका दिया कि पितृसत्ता की शिकार होने के बावजूद उन्होंने कभी मुक्ति की राहें तलाशने की कोशिश नहीं की। हिन्दू स्त्री के जीवन के रहस्यीकरण की वजहों को ब्राह्मणवादी परिवार-तंत्र में देखने की जरुरत है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने सफाई-धुलाई के सभी रूपों को अपवित्र ठहराया। ‘स्त्री देह की अपवित्रता’ और ‘पुरुष देह की पवित्रता’ के सिद्धांत का स्त्रियों और पुरुषों, दोनों पर ही इतना गहरा असर था कि उन्होंने ब्राहणवादी ज्ञान की इन हदों से बाहर जाने की कोशिश ही नहीं की। नहीं लगता कि स्त्री की आँखों से देखकर उन्हें कभी महसूस हुआ हो कि ब्राह्मणवाद कितना आत्मघाती है। ऊंची जातियों की स्त्रियों समेत सभी स्त्रियों की मुक्ति के लिए सबाल्टर्न नारीवादी संरचनाओं की समझ उतनी ही अपरिहार्य है जितना स्त्री-पुरुष संबंधों की वैश्विक संरचनाओं को जानना। नारीवाद को जानना अगर नारीवाद का अभिप्राय स्त्री के उसकी अपनी छवि में होने, अपनी चेतना के भीतर अपने आत्म और अस्तित्व का निर्माण करने और अपने खुद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में परिश्रम करने से है तो चकालात्वम में स्त्री मुक्ति की अपार संभावनाएं हैं। यदि मानवीय संबंधों को जीवन और सामाजिकता के उपलब्ध प्रारूपों में देखा जाए तो चकालात्वम में वह गुण हैं जिनके आधार पर उसे सबाल्टर्न नारीवाद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि चकली स्त्री की यौनता पर अपने परिवार के पुरुषों का उतना नियंत्रण नहीं था जितना अन्य जातियों की महिलाओं के जीवन पर। चकली जाति के भीतर स्त्रियों द्वारा ‘पुरुष भूमिकाओं’ को अपनाने के चलते लैंगिक भूमिकाओं की संरचनाएं टूटीं। पुरुषों को भी स्त्री भूमिकाएं अपनाने का प्रशिक्षण था। चकली स्त्रियों ने अपने पुरुषों की मानसिकता को इस तरह बदला कि उन्हें कपड़े धोना बस एक काम लगता था, अब उसे चाहे स्त्री करे या पुरुष। देह और रसोई की सफाई के बारे में सभी पितृसत्तात्मक धारणाओं को लेकर चकली स्त्रियों भी अलग ढंग से सोचती हैं और पुरुष भी. कपड़ों को इकठ्ठा करने, फिर उन्हें धोबी घाट पर लाकर धोने और फिर वापस देने के लिए पुरुषों को प्रशिक्षित करने के लिए खास स्त्रैण कौशल की जरूरत होती है। इन सभी कार्यों में चकली स्त्री ने अग्रणी भूमिका निभाई और पुरुषों ने उनका अनुकरण किया और इस तरह पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे को निरस्त किया। चकालियों में परिवार को स्त्री-आत्म के रूप में परिभाषित किया जाता है। परिभाषा का यह प्रारूप खुद ही ब्राह्मण परिवार की संरचना के पूर्ण विरोध में खड़ा दिखाई देता है। धोबी घाट एक स्त्री-स्थान है जहाँ कपड़ों और चकली स्त्रियों के शरीर की सफाई खुले आसमान तले होती है, क्योंकि शरीर की सफाई को भी वे उतनी ही सार्वजनिक क्रिया मानते हैं जितनी कपड़े धोना और खुले में नहाने की इस पद्धति के चलते स्त्री देह को भी उतना ही सम्मानजनक माना गया जितना पुरुष देह। सिर्फ यौन उपादान के रूप में उसे नहीं देखा गया। इस तरह की अलैंगिक सार्वजनिकता में न सिर्फ पितृसत्ता का नकार शामिल था बल्कि इससे एक नए किस्म के सामाजिक सम्बन्ध का भी निर्माण हुआ। अभी भी चकली स्त्री को ऐसा सार्वजनिक खुलापन उपलब्ध है जहाँ उसकी देह के साथ पुरुष देह से भिन्न व्यवहार नहीं किया जाता। कपड़े धोना और अपने शरीर को धोना चकली सोच के अनुसार सार्वजनिक क्रियाएं हैं। दूसरे आधुनिक और उत्तर-आधुनिक घरों में कपड़े धोने को लेकर जो पारिवारिक समझ है उसे अगर हम ध्यान से देखें तो यह फर्क एकदम साफ़ हो जाएगा। जिन घरों में धुलाई की आधुनिक और उत्तर-आधुनिक प्रक्रियाएं (मैं आधुनिक बाथरूम को और उत्तर-आधुनिक वाशिंग मशीन को कह रहा हूँ), इस्तेमाल हो रही हैं वे मुख्यतः ब्राह्मण, वैश्यों और नव-क्षत्रियों के घर हैं, और वहां भी धुलाई का काम औरतों के ही जिम्मे है। कामकाजी स्त्रियाँ (जो घर पर भी काम करती हैं और ऑफिस में भी) जब घर आकर वाशिंग मशीन से कपड़े धो रही होती हैं, उस समय पुरुष (जो सिर्फ ऑफिस में काम करता है) टेलीविजन के आश्चर्य-जगत में तल्लीन रहता है। उस समय जब उसकी पत्नी ऑफिस से वापस आकर धुलाई जैसे तमाम गंदे काम निबटा रही होती है, वह या तो अखबार पढता रहता है या टीवी देखता रहता है। घर में उसके लिए ऑफिस नफी हो जाता है और ऑफिस में घर। चकली स्त्रियों को उनकी याददाश्त के लिए जाना जाता है। अपनी स्मरण-शक्ति के भरोसे ही उन्हें पता होता है कि कौन सा कपडा किस घर का है। तेलुगू जगत में एक प्रसिद्ध कहावत चलती है: ‘चदुवुक्कम कान्ते चकली मेलु’ अर्थात ‘चकली पढ़े-लिखों यानि ब्राह्मणों से कई गुना बेहतर होता है।’ क्योंकि कपड़े वापस करते हुए कभी उससे कोई भूल नहीं होती, कोई कपड़ा गलत जगह नहीं जाता। हो सकता है कि कई घरों से एक ही तरह का कपड़ा आया हो लेकिन चकली जानता है कि कौन सा कपडा किस घर का है। चकालियों के बच्चे भी बचपन से कपड़ों को गिनना सीख लेते हैं क्योंकि रोज ही उन्हें पूरे गाँव से इकठ्ठा किये गए कपड़ों को गिनना होता है। इस कौशल को यदि शिक्षा का तेज भी मिल जाए तो चकली जन महान राष्ट्रीय संपत्ति हो सकते हैं। भारतीय पुरुषों के लिए उनके ब्राह्मण-गरिष्ठ कार्यालय तक काम करने की नहीं, रिश्वत बटोरने की जगह होते हैं। पुरुषों की तरह निर्दयतापूर्वक धन, तरह-तरह की चीजों और शराब की बोतलों के रूप में रिश्वत लेने में ब्राह्मण स्त्रियाँ क्योंकि अभी उतनी पारंगत नहीं हैं, इसलिए उनसे ईमानदारी की कुछ उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने इन आधुनिक कार्यालयों में काफी बाद में जाना शुरू किया है, इसलिए ब्राह्मण स्त्रियों में भ्रष्ट होने की वैसी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती जैसी ब्राह्मण पुरुषों में। एक ब्राह्मण पत्नी ऑफिस के अलावा घर पर भी काम करती है। इसलिए उसके ऊपर दोहरा बोझ होता है। रिश्वत न ले पाने की अक्षमता की क्षतिपूर्ति के लिए और यह देखकर कि उसके बच्चे भी बाप की ही छवि में ढल रहे हैं, वह घर में और काम करती है और उसके पति तथा घर के अन्य पुरुषों का जोर टीवी की दुनिया में गुम रहने पर होता है। ब्राह्मण स्त्री और चकली स्त्री में मूलभूत अंतर यह होता है कि चकली स्त्री अपने बच्चों को अच्छा धोबी होना सिखाती है और ब्राह्मण स्त्री, खास तौर पर अपने पुरुष बच्चों को यह सिखाती है कि जीवन को रिश्वत पर कैसे जिया जाए। ब्राह्मण स्त्री और चकली स्त्री की सांस्कृतिक आत्मसत्ता में भी बहुत अंतर होता है। ब्राह्मण स्त्री ब्राह्मण पुरुष के दैनिक अत्याचार को खुशी-खुशी झेलती है क्योंकि उसका संस्कृतिकरण इस दमन-अत्याचार को दैव-प्रदत्त बताता है। यहाँ तक कि आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा भी उन्हें इस सांस्कृतिक अंधविश्वास से विरत नहीं कर पायी है। यदि चकली स्त्रियों को आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा का सहारा मिल जाए तो मुक्त और लोकतांत्रिक उत्पादक जीवन के साथ उनकी रचनात्मक प्रयोगधर्मिता ब्राह्मण स्त्रियों से बिलकुल अलग होगी। वे भारतीय परिवार के राजनीतिक-सांस्कृतिक सार को बदल सकती हैं। वे ऐसी अनेक तकनीक इजाद कर सकती हैं जिनसे घर को संभालना-चलाना आसान हो जाएगा। वे भारतीय परिवार के सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन को बदलने की दिशा में भी काम करेंगी। हालांकि हिन्दू धर्म बाहर से उनका दमन करता रहा है, बावजूद इसके उन्होंने अपने सबाल्टर्न स्त्रीवाद को बचाकर रखा है। एक बार अगर ये सबाल्टर्न नारीवादी आधुनिक नारीवादियों में बदल जाएं, तो भारतीय स्त्री के जीवन को बदलने में जरा देर न लगे। लेकिन इस परिवर्तन के रास्ते में धर्म के रूप में हिन्दू धर्म और आधुनिक विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद बहुत बड़े रोड़े हैं। पुरुषों का स्त्रीकरण सभी आधुनिक घरों में धुलाई (कपड़ों, बर्तनों और घर की) को महिलाओं का काम माना जाता है। इस सिलसिले में सफाई के सारे कामों को स्त्रैण काम माना जाता है जिनसे पुरुषों का पौरुष (मगतानाम या पुरुषत्वं) कम हो जाता है। चकली अकेली ऐसी जाति है जिसमें ‘अदातानाम’ (स्त्रीत्व) और मगतानाम (पौरुष) की रचना उन कामों के इर्द-गिर्द नहीं की जाती जिन कामों को वे करते हैं। जीववैज्ञानिक अंतर और स्त्री-पुरुष शरीरों के कामों का बंटवारा, लगता है, व्यक्तियों के सामाजिक-आर्थिक कार्यों के आधार पर किया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी यौनिक संक्रिया के प्रभाव को श्रम से अलग कर दिया गया है। संभवतः उन्होंने श्रम की धारणा को लिंग-च्युत कर दिया है। उदाहरण के लिए किसी अन्य खेतिहर जाति में खेत जोतने को ऐसा काम माना जाता है जो पौरुष को बढ़ाता है और खेत में बीज डालने को ऐसा जिससे स्त्रीत्व में इजाफा होता है। इनमें पहले को ज्यादा महत्ता दी गयी है। मर्द के कम को पुंस्त्व-युक्त काम माना गया है और स्त्री के काम को पुंसत्वहीन। यहाँ हमें पुंस्त्व और नपुंसकता की धारणाएँ पुरुष की यौनिक ऊर्जा और स्त्री की यौनिक दासता से जुड़ती मालूम होती हैं। वेतन में भी यह अंतर दिखाई देता है। पुरुष का श्रम महँगा होता है और स्त्री का श्रम सस्ता। दूसरे शब्दों में पौरुष को स्त्रीत्व से ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। दूसरी तरफ कपड़े धोने की चकली पद्धति पुंस्त्व और नपुंसकता के विमर्श को अलग ढंग से देखती है। चाकी रेवु अर्थात धोबी घाट पुरुष-स्थल नहीं है। वह सारतः एक स्त्री-स्थल है, जहाँ पुरुष जो काम करते हैं उनकी अभिकल्पना भी स्त्रियों द्वारा की गयी होती है। ब्राह्मणवादी घरों में, कभी-कभार हो सकता है कि कोई पुरुष ‘निर्लज्ज’ हो जाए और धुलाई जैसे कामों में हाथ बंटाने लगे, लेकिन इस तरह के मामलों में भी पत्नी खुद ही उसे इसके लिए मना कर देती है। क्योंकि इससे उसका पौरुष प्रभावित होगा। चकली स्त्रियों का व्यवहार इसके विपरीत होता है, उन्हें अपने पुरुषों को धुलाई के काम में लगाने में कोई संकोच नहीं होता। अन्य जातियों में (और ब्राह्मण जातियों में कुछ ज्यादा ही) पौरुष और स्त्रीत्व को स्त्री और पुरुष देह की सतत नयी होती, हर बार नए सिरे से जन्म लेती प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि स्त्री और पुरुष के कामों में विभाजन करने वाली एक सामाजिक संरचना के रूप में देखा जाता है। हालांकि इस सोच का निर्माण और संचरण पितृसत्ता की देखरेख में होता है लेकिन अनेक जातियों की स्त्रियाँ इस विमर्श को गहरे तौर पर अपना चुकी होती हैं। अगर कोई पुरुष कपड़े धोता है तो पौरुष की नींव हिल जाती है, वह अगर घर की सफाई करता है तो वह उखड ही जाती है। वह अपनी प्लेट धोने लगे तो यह पौरुष के लिए और ज्यादा घातक हो जाता है। इसलिए पुरुष इन कामों को करने से इनकार कर देता है भले ही स्त्री उसे कहे भी कि यह कर दो। इस पर अगर उसकी पिटाई नहीं होती तो गालियाँ तो सुननी ही पड़ती हैं। कई मामलों में पत्नी खुद ही उसे इन कामों को करने से मना कर देती है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज जिसमें उसकी पड़ोसन भी शामिल है, तब उसके स्त्रीत्व पर संदेह करने लगता है। यही नहीं, उसके स्त्रीत्व पर संदेह उसके अपने मित्र- वर्ग में किया जाता है क्योंकि इस तरह के सारे मित्र-समूहों का संचालन होता तो उन्हीं नियमों से है जिन्हें पुरुष तय करते हैं। ये समूह किसी पुरुष पर औरताना होने का आरोप लगा सकते हैं या किसी स्त्री को कह सकते हैं कि वह ज्यादा मर्दाना हो रही है। इस प्रकार कार्य की प्रक्रिया में शामिल ’अभिनेताओं’ को ज्यादा चिंता समाज की इस कानाफूसी को लेकर होती है, काम से मिलने वाली ऊर्जा पर उनका ध्यान नहीं होता। पुरुषों की कानाफूसी के ये केंद्र (जिन्हें अड्डा कहा जाता है), पौरुष या मर्दानगी के नजरिये से बनाए जाते हैं। ब्राह्मण जातियों में संन्यासियों की सभाएं (संन्यासी जो शूद्रों की निगाह में सबसे अनुपयोगी व्यक्ति होता है), मंदिर और दुकानें, और शूद्रों में जाति-पंचायतें, पेड़ों की कटाई की जगहें जहाँ स्त्रियों की हिस्सेदारी उतनी नहीं होती, वे जगहें हैं जहाँ सामाजिक नियम-क़ानून पारित किये जाते हैं। स्त्रियों के अपने गोशिप केंद्र होते हैं। पानी के कुँए, खेत जहाँ फसल की कटाई हो रही होती है और जहाँ फसल बोई जा रही होती है, शादियों के पंडाल, आदि। ये स्त्रियों के सामाजिक अड्डे होते हैं। इन अड्डों पर उनके अपने नियम बनाए जाते रहे हैं, उनके अपने रीति-रिवाज लेकिन (सभी जातियों की) स्त्रियों ने जो दार्शनिक संरचनाएं गढ़ीं, उन्हें समाज, संसार में कोई खास जगह नहीं मिली क्योंकि उस संसार पर पितृसत्ता का कब्जा है। इसका नतीजा यह हुआ कि धुलाई-सफाई का दार्शनिक पहलू धोबियों को छोड़कर सभी जातियों के पुरुषों के लिए बहुत अलग अर्थ रखता है। चकली वाड़ा ने इस तरह नियम-कानून और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का एक भिन्न विमर्श विकसित किया। समाज के सभी स्तरों पर सामाजिक संबंधों की पुनर्रचना के लिए इन विमर्शों का बहुत महत्व है। उच्च जाति समाज की अभी तक की सोच यह रही है कि कामकाजी स्त्रियों के विमर्शों का ज्ञान के किसी तंत्र में कोई योगदान नहीं रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि अपने कार्य-स्थलों पर इन स्त्रियों ने जो विमर्श गढ़े हैं उनके आधार पर वृहत उत्पादक समाज ने अपने पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक मूल्य गढ़े हैं। उनके कार्य-स्थल उनके सामाजिक नियमों की रचना-स्थली भी रहे हैं। वह विवाह से जुड़े नियम हों, तलाक से जुड़े नियम हों या अन्य व्यावहारिक सामाजिक नियम– सभी का विकास उत्पादक कार्यों के दौरान हुआ है, स्त्रियों के मामले में तो और भी ज्यादा। जिन नियमों का उदभावन चकली स्त्रियों ने किया, उनकी पहुँच समाज के सभी स्तरों के भीतर तक हुई और यही कारण है कि चकालियों में स्त्री-पुरुष संबंधों ने कई लोकतांत्रिक आयाम ग्रहण किये। लेकिन हिन्दू धर्म में, जो सर्वाधिक पितृसत्तात्मक समाज है, पितृसत्ता के नकारात्मक पहलुओं को ही आदर्श माना गया। बाकी सभी जातियों में पनपते सबाल्टर्न स्त्रीवादी मूल्यों को भी उसने जहाँ का तहां रोक दिया। यदि पुरुष कपड़े धोने जैसे काम करना शुरू कर देते हैं तो उनकी स्त्रियाँ ही पूछना शुरू कर देती हैं कि क्या कपड़े धोने का यह काम पुरुषोचित है? आत्म-निग्रह की आभ्यन्तरीकृत चेतना इस तरह समाज-विनाश के औजार के रूप में काम करने लगती है। यह बिलकुल ऐसे ही है जैसे हीनताबोध के आभ्यन्तरीकृत हो जाने के बाद निम्न जातियों के लोग ऊंची जातियों के घरों में प्रवेश से खुद ही बचने लगते हैं। चकली स्त्रियों ने लेकिन इस तरह की सोच को कभी अपने भीतर नहीं बसने दिया। उन्हें कभी यह नहीं लगा कि कपड़े धोने से उनके पुरुषों का ‘मगतानाम’ कम हो जाएगा, बिलकुल वैसे ही जैसे अनेक लम्बाडा और माला स्त्रियों को यह नहीं लगता कि खेत में हल चलाने या बैलगाडी हांकने से उनके ‘अदतानाम’ अर्थात स्त्रीत्व में कोई कमी आ जाएगी। सभी पितृसत्ताएँ (हिन्दू, इस्लामी, ईसाई, बौद्ध और अन्य) ने स्त्रीत्व को निष्क्रिय और पौरुष को सक्रिय तत्व के रूप में रचा है और इस विभाजन को प्राकृतिक तथा तर्क से परे माना है। राजनीतिक कारणों से और स्त्रियों की निष्क्रियता को और बढ़ाने के लिए भी, उन्हें काम ज्यादा दिया गया और भोजन में उनका हिस्सा कम किया गया- गुणवत्ता में भी और मात्रा में भी। ब्राह्मणों में भी पुरुषों और स्त्रियों के भोजन की मात्रा और गुणवत्ता में अंतर होता है। शक्तिशाली होने के लिए पुरुष ज्यादा खाते हैं और स्त्रियाँ कम खाती हैं ताकि कोमल और तन्वंगी बनी रहें। जीवन की इन प्रक्रियाओं को संस्थाबद्ध करने के लिए हिन्दू देवताओं को ताकतवर योद्धा नायकों के रूप गढ़ा गया और देवियों को गुड़िया जैसा पेश किया गया।। किसी हद तक बुद्ध और ईसा इस लिहाज से अलग नजर आते हैं। अपनी देह में वे काफी हद तक स्त्रैण लगते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में चकालात्वम की गति तात्विक रूप में स्त्रीत्व-प्रधान रही है। ग्राहकों के घर से भोजन एकत्रित करके जिस तरह सभी स्त्री-पुरुष साथ बैठकर खाते औ



रविवार, 16 अप्रैल 2023

अहीर वंश की शाखा है मुस्लिम गद्दी और घोसी.......

 अहीर वंश की शाखा है मुस्लिम गद्दी और घोसी.......

शोधपरक।

(यह आलेख फेसबुक पर पोस्ट किया गया है जिस पोस्ट को नीचे भी शेयर किया गया है; मेरा आशय केवल इसकी स्पष्ट पठनियत्ता के लिए किया जा रहा है जबकि ऐसा बहुत सारे इलाकों में देखा जाता है कि अलग-अलग मुस्लिम समाज के लोग अलग-अलग जातियों से कन्वर्ट हो गए हैं, जिनमें राजपूत जाट गुर्जर अहीर एवं दलित समाज से बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अपने को आज भी उन परंपराओं से जोड़कर देखते हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से यह विभाजन हो सकता है जैसे बहुत सारे जैन सीख या ईसाई समाज में वह लोग जो भारतीय परंपरा की धारा रही है उससे निकल निकल करके गए हुए हैं।
यह सब तो इतिहास के जानकारों का क्षेत्र है लेकिन सामान्य तौर पर जिस तरह के संघर्ष और विश्वास अविश्वास का दौर चल रहा है, इस पर जुबान खोलना खतरे से खाली नहीं लगता।
अभी एक पोस्ट श्री राजकुमार भाटी साहब ने शेयर किया है जिसमें आजादी की मिठाई खाने से वह लोग मना कर रहे हैं जो आज बताते हैं कि देश 2014 में आजाद हुआ है।
ऐसे में इस पोस्ट की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है जिस पर सुधी साथियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
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अहीर वंश की शाखा है मुस्लिम गद्दी और घोसी.......
(NEPAL YADAV SAMAJ
February 10, 2019 at 8:50 PM)
अहीर वंश की शाखा है मुस्लिम गद्दी और घोसी समाज ?
गद्दी समाज एक पशुपालक और किसान के रूप में जानी जाती है। लेकिन गद्दी मुस्लिम मुस्लिम क्या हैं और इनका इतिहास क्या है, इस पर बहुत कम साहित्य उपल्ब्ध है। कुछ साहित्य मिलता भी है तो आसानी से उपलब्ध नहीं है। मुस्लिम गद्दी और घोसी समाज के बारे में तकरीबन दो मत है।
हिमांचल क्षेत्र में एक जनजाति गड़रिया नाम से रहती है। धर्म से हिंदू है। वह अपने को राजस्थान के क्षत्रियों से जोड़ती है। कुछ समाज वैज्ञानिकों के अनुसार मुस्लिम गद्दी और घोसी इसी जनजाति से कनवर्ट होकर मुस्लिम बने। लेकिन समाज वैज्ञानिक इवेट सोन और सेवेको इसको खारिज करके मुस्लिम गद्दी और घोसी को अहीर वंश से जोड़ते हैं। कतिपय दक्षिणपंथी इतिहासकार इन्हें हिमांचल का गड़रिया बताते हैं।
उनका दावा है कि राजस्थान से मुगलों के अक्रमण के कारण जो राजपूत वहां से भागे वह पहाड़ों पर चरवाहे के रूप में स्थापित होकर गड़रिया बन गये। लेकिन उनका तर्क बिलकुल गलत और गले से न नीचे नहीं उतरने वाला है, क्योंकि भारतीय समाज में गद्दी मुगलों के आगमन से पहले पाये जाते रहे हैं।
अनेक इतिहासकार व समाज विज्ञानी मुस्लिम गद्दी को अहीर वंश से निकला बताते है, जो तर्कों के आधार पर सत्य के करीब दिखता है। प्रसिद्ध समाज विज्ञानी व इतिहासकार विलियम क्रुक कहते है कि घोसी का अर्थ चिल्लाना होता है। अहीर अपने बड़े जानवर यथा गाय भैंस को हांकने या काबू में करने के लिए चिल्लाते थे, जबकि गड़रिये भेड़ बकरियों को हांकने के लिए थोड़ा जोर की आवाज लगाते थे, जिसे चिल्लाना नही कहा जा सकता।
यह बात आज भी पशुपालक अहीर व गड़रिया समाज को देख कर समझी जा सकती है। इन बातों को क्रुक ने अपनी किताब " दी ट्राइब्स एंड कास्ट" में विस्तार से लिखा है। इतिहासकार अल्बर्ट भी इस मत का पुरजोर समर्थन करते हुए घोसी व गद्दी को मुस्लिम अहीर ही मानते हैं।
अहीर वंश की शाखा है मुस्लिम गद्दी और घोसी......
इन इतिहासकारों ने घोसी गद्दी को अहीर मानते हुए कहा है कि कई शताब्दी बाद भी अहीर और गद्दी समुदाय में कई परम्परायें आज भी साझा हैं। जिनका बारीकी से अध्ययन करने पर बात साफ हो जाती है, कि वह अहीर वंश से निकली एक शाखा है, जो धर्म से मुस्लिम है। कई इतिहासकार लिखते हैं कि संभावतः भारत में सूफी मत का प्रभाव बढ़ने से अहीर समुदाय के एक छोटे से गुट ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने धर्म तो बदला मगर कुछ परम्पराये नहीं बदलीं उनमें से कुछ आज भी साझा तौर पर कायम हैं।
वर्तमान में गद्दी समाज अहीर समाज बड़ी राजनीतिक भागीदारी के `चलते भारत में काफी उन्नति पर है लेकिन पूरे उत्तर भारत में फैले गद्दी समाज को उतना लाभ नहीं मिल पाया। वर्तमान में उनकी राजनीतिक भागीदारी कम है। केवल मेरे जिले (सिद्धार्थनगर) के निवर्तमान सांसद मुहम्मद मुकीम, फूलपुर, इलाहाबाद के पूर्व सांसद बाहुबली अतीक अहमद व शाहाबाद के पूर्व सांसद दाऊद अहमद के साथ राजस्थान के पूर्व विधायक अलाउद्दीन आजाद ही गद्दी समाज के नेता के तौर पर पहचाने जाते हैं।
नोट - तीनों पूर्व सांसदों व ऐ पूर्व विधायक अलाउद्दीन आजाद का फोटो संलग्न है।










प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...