रविवार, 23 अक्तूबर 2022

दयानंद पांडेय

 दयानंद पांडेय 

(श्री दयानंद पांडे मानसिक रूप से मनुस्मृति के समर्थक और घोर जातिवादी मानसिकता के व्यक्ति हैं उसी हिसाब से इस वैज्ञानिक युग में वह सोचते हैं और उसी तरह से लिखते हैं जरूरी नहीं है कि यह जो कुछ लिख रहे हैं वह सही हो लेकिन इनकी मानसिक बनावट बिल्कुल ब्राह्मणवादी सॉफ्टवेयर से संपूर्ण रूप से बनाई गई है जो भी बात निकलेगी कितनी जहरीली होगी इसलेख में देख सकते हैं मुलायम सिंह के निधन के दिन इन्होने कितनी जहरीली घटनाओं का जिक्र किया है।)

सरोकारनामा (sarokarnama.blogspot.com)

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Dr.Lal Ratnakar को ल

जब नागपंचमी के दिन नारायणदत्त तिवारी ने मुलायम से दूध पीने के लिए कहा 

दयानंद पांडेय 

बीते 9 जुलाई को जब साधना जी का निधन हुआ तभी समझ आ गया था कि अब मुलायम भी महाप्रस्थान की राह पर हैं और आज तीन महीने बाद वह भी उसी मेदांता अस्पताल से विदा हो गए। इस लिए भी कि वह परिवार में बहुत अकेले हो गए थे। आज उन का अकेलापन खत्म हो गया। उन का सन्नाटा टूट गया। 

मुलायम हालां कि मुझ से तब बहुत नाराज़ हुए थे जब नब्बे के दशक में मैं ने लिखा था कि मुलायम सिंह यादव बिजली का ऐसा नंगा तार हैं जिन्हें दुश्मनी में छुइए तब तो मरना ही है। लेकिन दोस्ती में छुइए तब भी मरना है। तमाम-तमाम घटनाएं इस की साक्षी हैं। अपनी सत्ता साधने के लिए मुलायम कुछ भी कर सकते थे। चरखा दांव की ओट ले कर हर सही-ग़लत काम को अंजाम दे देते। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब भाजपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब राजीव गांधी ने मुलायम को कांग्रेस का समर्थन दे दिया। और मुलायम से कहा कि एक बार लखनऊ में औपचारिक रुप से नारायणदत्त तिवारी से मिल लें। सुबह-सुबह मुलायम गए नारायणदत्त तिवारी से मिलने उन के घर। खड़े-खड़े ही मिले और चलने लगे तो तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , कम से कम दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। मुलायम तिवारी जी का तंज समझ गए और बोले , ' अब दूध विधानसभा में ही पिलाना ! ' राजीव गांधी के निर्देश पर तिवारी जी ने विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन का दूध पिला दिया। अंतत: कांग्रेस उत्तर प्रदेश से साफ़ हो गई। आज तक साफ़ है। अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को भी इस के पहले साफ़ कर चुके थे। अपने मित्र सत्यप्रकाश मालवीय को भी बाद में साफ़ कर दिया। बलराम सिंह यादव एक समय कांग्रेस के बड़े नेता थे। इटावा से ही थे। वीरबहादुर सिंह उन दिनों मुख्यमंत्री थे। वीरबहादुर बलराम को निपटाने के लिए मुलायम सिंह यादव को प्रकारांतर से उन के समानांतर खड़ा कर देते थे। मुलायम ने उन्हें इतना छकाया कि वह मुलायम की पार्टी ज्वाइन कर बैठे। अंतत: एक दिन अपने ही रिवाल्वर से आत्महत्या कर बैठे। गोया दोस्त-दुश्मन हर किसी को मुलायम नाम का बिजली का नंगा तार करंट मारता गया। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह अलग बात है कि बेटा अखिलेश यादव , मुलायम के लिए नंगा तार बन कर उपस्थित हुआ। मुलायम को डस गया। बेटा औरंगज़ेब बन गया।  

नाम मुलायम , काम कठोर से लगायत नाम मुलायम , गुंडई क़ायम तक की यात्रा से निकल कर मुलायम सिंह यादव ने  एक उदार और मददगार नेता की अपनी छवि भी निर्मित की। मुलायम सिंह यादव में धैर्य , बर्दाश्त और उदारता आख़िर समय में इतनी आ गई थी कि अखिलेश से तमाम असहमति और मतभेद के बाद , शिवपाल और अमर सिंह के तमाम दबाव के बावजूद चुनाव आयोग में पार्टी की लड़ाई में सब कुछ किया पर शपथपत्र नहीं दिया।अगर शपथपत्र दे दिया होता तो साईकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। मायावती गेस्ट हाऊस कांड के समय वह धैर्य खोने का परिणाम वह भुगत चुके थे। कांग्रेस द्वारा सी बी आई का फंदा कसने पर वह निरंतर धैर्य बनाए रखे। परमाणु मसले पर कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी पर मुलायम ने समर्थन दे कर सरकार बचा ली। नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में वह निरंतर खर्च होते रहे ताकि लालू यादव की तरह जेल न काटनी पड़े। संसद में आशीर्वाद भी देते रहे। सोचिए कि उत्तर प्रदेश में छप्पन इंच के सीने की बात मोदी ने मुलायम को ही एड्रेस कर कही थी। पर आज मोदी ने भी मुलायम को दी गई श्रद्धांजलि में मुलायम के ख़ूब गुण गाए । 

एक बार अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में ठहरे थे। मैं अटल जी का इंटरव्यू कर रहा था। अचानक मुलायम सिंह यादव आए। मुलायम ने झुक कर अटल जी के दोनों पांव छुए। अटल जी ने उठ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ ठोंक-ठोंक कर , आयुष्मान ! आयुष्मान ! का आशीष देते रहे। मुलायम चाय पी कर जल्दी ही चले गए तो मैं ने अटल जी से कहा कि जब मुलायम सिंह आप का इतना आदर करते हैं तो इन को क्यों नहीं कुछ समझाते हैं। उन दिनों मुलायम , मौलाना मुलायम , मुल्ला मुलायम के तौर पर बदबू मार रहे थे। अटल जी ने कहा , मुलायम सिंह जी की अपनी राजनीति है , हमारी अपनी। व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है। अटल जी बोलते-बोलते बोले , ' अभी कलम रख दीजिए। अभी जो कह रहा हूं , लिखने के लिए नहीं है। ' अटल जी कहने लगे , ' आज के दिन मुस्लिम समाज के पास अपना कोई नेता नहीं है। तो उन को कंधा देने के लिए मुलायम सिंह जैसे लोग बहुत ज़रुरी हैं। मुलायम सिंह जी , मुस्लिम समाज के लिए प्रेशर कुकर की सीटी हैं। उन का गुस्सा , उन का दुःख मुलायम सिंह जी जैसे लोग निकाल देते हैं। मुलायम सिंह जी जैसे लोग न हों तो प्रेशर कुकर फट जाएगा तो सोचिए क्या होगा ?

बहरहाल तमाम क़वायद के बावजूद यादववाद और मुस्लिम परस्ती के दाग़ को वह फिर भी कभी नहीं धो पाए। तीन ए और दो एस ने मिल कर धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम की राजनीति को बदल कर उन की छवि को धूमिल भी किया। और उन्हें गगन विहारी बना दिया जाए। उन के जीवन की , उन के राजनीति की प्राथमिकताएं बदल दीं। तीन ए मतलब अमर सिंह , अंबानी और अमिताभ बच्चन। दो एस मतलब साधना गुप्ता और सुब्रत राय सहारा। साधना गुप्ता ने मुलायम से विवाह कर उन के निजी और पारिवारिक जीवन में भूचाल ला दिया था। अखिलेश यादव की मां मालती यादव के जीवित रहते ही मुलायम ने साधना को परिवार का हिस्सा बना लिया था। यह तो मालती यादव का बड़प्पन था कि उन्हों ने कभी मुलायम के ख़िलाफ़ अपने लब नहीं खोले। अलबत्ता इसी बिना पर अखिलेश यादव ने मुलायम को निरंतर ब्लैकमेल किया और 2012 में मुख्यमंत्री बने। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि काश अमर सिंह मुलायम सिंह की ज़िंदगी में न आए होते तो मुलायम की राजनीति और व्यक्तित्व की अलग ही छटा होती। अमर सिंह ने मुलायम को अय्यास बना दिया। सामंती बना दिया। उन के चापलूस सलाहकारों ने उन्हें यादववादी बना दिया। मुस्लिम वोट बैंक की लालच ने उन्हें मुस्लिम परस्त बना दिया। राम विरोधी की छवि बन गई। गो कि वह हनुमान भक्त थे। और हनुमान भक्त , रामद्रोही कैसे हो सकता है भला !

अपने को लोहियावादी बताने वाले मुलायम सच्चे लोहियावादी नहीं थे। वास्तव में वह पहलवान थे। और पहलवान का एकमात्र ध्येय अगले को पटक कर विजेता बनना ही होता है। लोहियावाद और समाजवाद को वह अपना कुण्डल और कवच बना कर रखते थे। इस से अधिक कुछ और नहीं। हां , लालू प्रसाद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह न होते तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री ज़रुर बने होते। विश्वनाथ प्रताप सिंह की चली होती तो मुलायम का इनकाउंटर करवा दिए होते। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब मुलायम के इनकाउंटर के लिए पुलिस को आदेश दे चुके थे। मुलायम को समय रहते पता चल गया। तो वह खेत-खेत साइकिल से दिल्ली भाग गए चरण सिंह के पास। चरण सिंह ने उन्हें बचा लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस टापती रह गई थी। लेकिन दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने इनकाउंटर में सफल रहे। बहुत चतुराई से लालू यादव को आपरेशन मुलायम पर लगा दिया और लालू ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इस प्रसंग के विवरण बहुत हैं। फिर कभी। 

अयोध्या प्रसंग के खलनायक माने जाने वाले मुलायम किसी समय अयोध्या की राजनीति के बारे में किताब लिखना चाहते थे। क्यों कि उन के पास अयोध्या के बारे में बहुत सारे तथ्य थे। लेकिन मधुलिमये ने किताब लिखने से मना कर दिया। तो मुलायम सिंह मान गए। 

संयोग से मैं मुलायम सिंह यादव का प्रशंसक और निंदक दोनों ही हूं। अमूमन किसी की मृत्यु के बाद प्रशंसा के पद गाने की परंपरा सी है। मुलायम के निंदक भी आज सरल मन से उन की प्रशंसा में नतमस्तक हैं। मैं भी आज मुलायम की प्रशंसा में ही लिखना चाहता हूं। उन की भाषा और हिंदी प्रेम की कहानी बांचना चाहता हूं। बताना चाहता हूं कि मुलायम भारतीय भाषाओं के बहुत बड़े हामीदार थे। 

हिंदी और उर्दू दोनों ही के लिए मुलायम सिंह यादव बदनाम हैं। उत्तर प्रदेश में लोग उन्हें उर्दू के लिए बदनाम करते हैं और कहते हैं कि वह उर्दू को वह बहुत बढ़ावा देते थे। और जब वह दक्षिण भारत में जाते थे तो लोग उन्हें हिंदी के लिए बदनाम करते थे , कहते थे कि वह हिंदी को बहुत बढ़ावा देते हैैं। लेकिन सच यह नहीं है। सच यह है कि मुलायम सिंह यादव सभी भारतीय भाषाओं के हामीदार थे । उन को हिंदी भी उतनी प्रिय थी जितनी कि उर्दू, तमिल भी उतनी ही प्रिय थी जितनी तेलगू। या ऐसी ही और भारतीय भाषाएं। वह सभी भाषाओं को प्यार करते थे और उन को मान देते थे। भाषाओं को ले कर उन के बारे में बहुत सारी कथाएं हैं। एक कथा मुलायम सिंह खुद ही सुनाते थे तब जब वह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। मुख्तसर में आप भी सुनिए:

एक समय उत्तर प्रदेश शासन में एक पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के सचिव थे पाठक जी। बहुत ईमानदार। एक बार कोई ठेका था जिसे उन्हों ने अस्वीकृत कर दिया। पर बाद में ठेकेदार जब उन से मिला और अपने तर्क रखे तो पाठक जी ने उस के तर्कों को सुना और स्वीकार किया। और मान लिया कि वह ठेकेदार अपनी जगह बिलकुल सही है। पर उन्हों ने अफसोस जताते हुए कहा कि अब तो फाइल पर वह आदेश लिख चुके हैं। ठेकेदार बाहर आया और उन के पी.ए से मिला और बताया कि साहब मान तो गए हैं लेकिन दिक्कत यह है कि वह फाइल पर आदेश कर चुके हैं। सो अब कुछ हो नहीं सकता। पी॰ए॰ होशियार था। उस ने ठेकेदार से कहा कि अगर साहब चाहें तो अभी भी बात बन सकती है। ठेकेदार ने पूछा वह कैसे? तो पी॰ए॰ ने कहा कि साहब से कहिए कि वह हमसे पूछ लें हम बता देंगे। और उस ईमानदार पी.डब्ल्यू.डी. के ईमानदार सचिव पाठक जी को पी॰ए॰ ने सचमुच समझा दिया और ठेकेदार का काम हो गया। पी॰ए॰ ने पाठक जी को समझाया कि जो फाइल पर उन्हों ने अंगरेजी में जो टिप्पणी लिखी है नाट एक्सेप्टेड बस उसी में एक अक्षर और बढ़ानी है। नाट के एन.ओ.टी. में आगे ई बढ़ा देना है। तो नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो जाएगा। फिर उसी स्याही वाली कलम खोजी गई और पाठक जी ने नाट को नोट में बदल दिया। नाट एक्सेप्टेड, नोट एक्सेप्टेड हो गया। तो मुलायम सिंह यादव इस वाकये को याद करके बताते थे कि देखिए अंगरेजी में भ्रष्टाचार की कितनी गुंजाइश है। अगर यही बात फाइल पर हिंदी में लिखी गई होती अस्वीकृत तो उसे काट कर स्वीकृत नहीं किया जा सकता था। यह ठीक था कि पाठक जी एक ईमानदार अधिकारी थे पर अगर यही तरकीब बेईमान अधिकारी अपनाएं तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। इसी लिए मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के सचिवालय से अंगरेजी का सारा काम-काज खतम करवा दिया। कहा जाता है कि उस वक्त उन्हों ने अंगरेजी के टाइपराइटर उठवा कर फेंकवा दिए थे। इसी तरह भारत के कुछ हिस्सों में भाषा नीति के सवाल को लेकर अलगाव की बहुत कोशिशें की जाती रही हैं। एक आम धारणा है कि दक्षिण के लोग हिंदी के खिलाफ हैं। डॉ॰ राममनोहर लोहिया पर भी वहां पत्थर फेंकने की बात सामने आई है। एक समय चौधरी देवीलाल की सभा में भी गड़बड़ी की गई।और भी बहुत सारी हिंदी विरोध की घटनाएं हैं। एक बार मुलायम सिंह यादव भी तमिलनाडु गए और करुणानिधि जी से भेट का समय मांगा। करुणानिधि ने मिलने से साफ मना कर दिया और कहला दिया कि मेरे पास समय नहीं है। उन्हों ने इस लिए मना किया कि लोग मुलायम सिंह यादव से मिलने के मायने निकालेंगे कि वह अंगरेजी के खिलाफ हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव जब मदुरई हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां पत्रकारों ने भाषा नीति के सवाल को ले कर बहुत से सवाल पूछे। पत्रकारों ने मुलायम से पूछा कि क्या आप यहां हिंदी थोपने आए हैं? 

मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम तमिल थोपने आए हैं। पत्रकारों ने इस की रिर्पोटिंग कर दी। अगले दिन सुबह टाइम्स ऑफ इण्डिया और इण्डियन एक्सप्रेस दोनों अखबारों ने, बल्कि मदुरई सहित सारे हिंदुस्तान में एक ही हेड लाइन थी कि मुलायम सिंह तमिल थोपने आए हैं। नतीज़ा सामने था। मुलायम सिंह यादव को करुणानिधि जी का टेलीफ़ोन सुबह ही आ गया कि कल 9 बजे हमारे घर पर नाश्ता करें। इस के बाद मुलायम सिंह यादव दक्षिण में जहां-जहां बोले विशेष कर जहां तमिल भाषा के महत्व को ले कर हिंदी का सब से ज़्यादा विरोध था, वहां के बुद्धिजीवियों ने मुलायम का खूब स्वागत किया और उन के सम्मान में वहां एक कार्यक्रम भी रखा। जिस में साहित्यकार, कवि, वकील और विद्वानों ने भाग लिया। 

मुलायम ने वहां कहा कि उत्तर भारत में शेक्सपियर को सब जानते हैं, लेकिन आप के स्वामी सुब्रह्मण्यम कौन हैं, उन को कोई नहीं जानता। क्या यह हिंदी का कुसूर है या अंगरेजी की गलती या फिर भाषा के नाम पर संकीर्णता का दुष्परिणाम? राष्ट्रभाषा के मामले में इस देश में वही हो रहा है, जो एकता और अखण्डता के मामले में हुआ है। इतना महान देश क्षेत्रावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का शिकार बना हुआ है। आज़ादी की लड़ाई में, जब तक हिंदुस्तानी एकजुट नहीं हुए थे, अंगरेज इस मुल्क से नहीं गए। अंगरेजी भी ऐसे ही जाएगी। सभी भाषाओं का सम्मान हो, पर सब से ज़्यादा देश की भाषा को महत्व मिले। उस सम्मेलन में बड़े-बड़े साहित्यकार और बड़े-बड़े कवि थे, सब के सब समझदार, संवेदनशील और भावुक थे, उनमें से बहुतों की आंखों में आंसू आ गए। फिर मुलायम सिंह यादव का ज़बरदस्त स्वागत हुआ। उस सभा में न तो पत्थर चला और न ही मुलायम सिंह यादव का विरोध हुआ। 

करुणानिधि से भी मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा कि आप हमें जो भी पत्र लिखिए अंगरेजी में मत लिखिए। करुणानिधि ने तब भड़क कर कहा तो क्या हिंदी में लिखें? मुलायम ने कहा कि नहीं तमिल में लिखिए और हम आप को तमिल में ही जवाब देंगे। करुणानिधि तब गदगद हो गए। असल में जो अलगाव पैदा करने वाले लोग हैं, वह लोग अंगरेजी के समर्थक हैं। हमारे यहां भी भाषा के मामले में बड़े-बड़े नेता जिन पर विश्वास रखते थे, उनमें अंगरेजी परस्तों की कमी नहीं थी। मुलायम सिंह यादव की प्रेरणा से एक बार अंग्रेजी हटाओ अभियान में चार मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। उस की रिपोर्ट करते हुए अखबारों ने लिखा था कि भले ही अंगरेजी जीवंत है, मगर हमारे देश की संसद बहुभाषी बने, हमारा सुप्रीम कोर्ट बहुभाषी बने, सरकारी नौकरियों से अंगरेजी की अनिवार्यता खत्म हो, सरकारी काम-काज सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में हो। दरअसल समाजवादियों की यही नीति भी है। मुलायम सिंह यादव दरअसल अंगरेजी के विरोधी नहीं थे। वह साफ मानते थे कि अगर कोई विदेशी भाषा मिटाने की बात कहेगा तो वह मूर्ख होगा, अज्ञानी होगा, मुलायम सिंह जैसा नहीं होगा। मुलायम सिंह इस विचार के थे कि हम किसी विदेशी भाषा को मिटाना नहीं चाहते। कोई विदेशी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, करे, लेकिन अंगरेजी की अनिवार्यता सार्वजनिक जीवन से, सरकारी काम-काज से हटे, अपनी भारतीय भाषाओं में ही काम हो। मुलायम सिंह मानते थे कि देश की मातृभाषा हिंदी है उसी का बोलबाला हो। वर्ष 2003 में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तो एक अद्भुत आदेश उन्हों ने दिया था। हिंदी दिवस के मौके पर। और कहा था कि रातो-रात 24 घंटों में सरकारी कार्यालयों से अंगरेजी हट जाए। जो अंगरेजी में पुलिस के बैरियर लगे रहते हैं वह भी हट जाएं। सभी सरकारी कार्यालयों में जितनी गाड़ियां हैं चाहे किसी की हों, उन की ही क्यों न हो, उन की नंबर प्लेटों पर से पद-नाम इत्यादि अंगरेजी में ख़त्म हो। मुलायम ने ही प्रदेश में हिंदी और उर्दू का एक साथ चलन शुरू कराया। क्यों कि वह मानते थे  कि हिंदी है बड़ी बहन और उर्दू छोटी बहन। इस लिए छोटी बहन का आदर करना पड़ेगा।

मुलायम सिंह यादव दरअसल हिंदी के ही समर्थक नहीं थे , वह सभी भारतीय भाषाओं के समर्थक थे । उन का सोचना यह था कि किसी भी विदेशी भाषा का देश पर एकाधिकार न हो। उन की राय थी कि देश में विदेशी भाषा में काम न हो। मुलायम कहते थे कि जब अकेली अंगरेजी ने सारी भारतीय भाषाओं का हक मार रखा है तो विदेशी कंपनियां आने के बाद हमारी स्वदेशी कंपनियों की क्या हालत होगी। मुलायम कहते थे कि अगर अंगरेजी रहेगी, विदेशी भाषा रहेगी तो विदेशी कंपनियों को भी कोई रोक नहीं सकता। भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को मिटने से कोई रोक नहीं सकेगा तब। मुलायम की राय थी कि भाषा का रिश्ता केवल हमारे आर्थिक जीवन से ही नहीं, भाषा का रिश्ता हमारे देश की नींव से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्मान से जुड़ा हुआ है। 

आप को याद होगा कि अमरीका से क्लिंटन भारत आए थे तो प्रधान मंत्री ने अपना भाषण अंगरेजी में देना चाहा था। मुलायम ने इस का विरोध जताया था। क्यों कि मुलायम को याद था कि एक बार रूसी राष्ट्रपति के आने पर हमारे प्रधान मंत्री अंगरेजी में बोले थे तब रूसी राष्ट्रपति ने कहा था कि मैं तो समझता था कि यहां तो हिंदी में भाषण दिया जाएगा या संस्कृत में भाषण दिया जाएगा पर यहां तो विदेशी भाषा में भाषण दिया जा रहा है। तो जब मुलायम ने क्लिंटन के समय यह मामला उठाया कि प्रधान मंत्री का भाषण विदेशी भाषा में नहीं होने देंगे तो सरकार दहशत में आ गई। रात के 11 बजे मीटिंग हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को समझाया गया कि मुलायम सिंह हो सकता है कि केवल भाषण का ही बहिष्कार न करें, महिला बिल की तरह कहीं इस के कागज न छीन लें। अगर कागज छीनना शुरू कर दिया तो अमेरिका के सुरक्षा कर्मी और भारत के सुरक्षा कर्मी उन के हाथ-पैर तोड़ देंगे। और टेलीविजन पर इसे सारी दुनिया देखेगी तब आप क्या जवाब देंगे। तब कहीं जा कर प्रधान मंत्री हिंदी में भाषण देने को तैयार हुए। करुणानिधि ने विरोध किया और कहा कि मुलायम सिंह के दबाव में प्रधान मंत्री ने ऐसा किया है। मुलायम ने तुरंत करुणानिधि को चिट्ठी लिखी और कहा कि मुझे खुशी होती अगर प्रधान मंत्री तमिल भाषा में बोलते। मुलायम की करुणानिधि को लिखी यह चिट्ठी देश के अखबारों में छपी। करुणानिधि ने माना कि उन्हों ने वह बयान दे कर गलती की। उन्हों ने कहा कि मैं नहीं समझता था कि मुलायम सिंह ऐसा जवाब दे देंगे। इस के बाद दक्षिण भारत के, तमिलनाडु के जितने भी सांसद आए मुलायम को सीने से लगा लेते।

मुलायम हिंदी प्रेमियों को इस से सावधान होने की हिदायत देते थे और कहते हैं कि हिंदी प्रेमियों को सावधान होना पड़ेगा। वह कहते थे कि इस ग़लतफहमी में न रहें कि हिंदी हमारी चूंकि मातृभाषा है इस लिए हमारी ज़िंदगियों के साथ ही पनपेंगी, यह गलत धारणा है। मुलायम मानते थे कि अंगरेजी को मिटाया न जाए लेकिन सरकारी काम-काज से हटाया जाए। अदालतों से हटाया जाए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुलायम कहते थे कि जब तक संसद और उच्चतम न्यायालय में अंगरेजी चलेगी, तब तक देश में हिंदी नहीं आएगी। अगर इस काम में कोई बाधक है तो संसद है और उच्चतम न्यायालय है। मुलायम कहते थे कि आप अगर अकेले हिंदी की तरक्क़ी चाहते हैं तो ख़तरा और भी ज़्यादा बड़ा है। इस लिए बड़ी सोच से काम लेना चाहिए। जिस तरह सिर्फ़ हिंदुओं की उन्नति से हिंदुस्तान तरक्क़ी नहीं करेगा, उसी तरह अकेली हिंदी का देश में पनपना नामुमकिन है। इसी लिए मुलायम हमेशा भारतीय भाषाओं के हक़ की बात करते थे और कहते थे कि जब भारतीय भाषाओं की तरक्क़ी होगी तो हिंदी अपने आप आ जाएगी। फिर हिंदी को कोई रोक नहीं सकता है।

यह जानना भी दिलचस्प है कि मुलायम जब रक्षा मंत्री थे तो उन के पास 85 प्रतिशत पत्रावलियां हिंदी में आती थीं। उस समय ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जो बाद में राष्ट्रपति हुए, रक्षा मंत्रालय में सलाहकार थे। तो मुलायम सिंह ने एक दिन उन से पूछा कि आप ज़रा भी हिंदी नहीं जानते? तो कलाम साहब ने उन्हें बताया, ‘जी, नहीं जानते।’ तो मुलायम ने उन से कहा कि थोड़ा-बहुत तो आप को सीखनी ही चाहिए। इस पर कलाम साहब ने कहा कि, ‘एस आई विल स्पीक इन हिंदी विद इन थ्री मंथ्स!’ फिर उन्हों ने तीन महीने के भीतर न सिर्फ़ काम चलाने लायक हिंदी सीख ली बल्कि हिंदी में दस्तख़त भी करने लगे। इतना ही नहीं, एक बार लोकसभा में मुलायम ने इंद्रजीत गुप्त से कहा कि अगर आप अंगरेजी में बोलेंगे तो हम आप को नहीं सुनेंगे। आप के साथ नहीं बैठेंगे। फिर उन्हों ने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया। लेकिन दूसरे दिन उन्हों ने कहा कि मुलायम सिंह आप ने हिंदी में बुलवा कर पार्टी में हम पर डांट पड़वा दी है कि क्या मुलायम सिंह के कहने पर आप हिंदी में भाषण देंगे? मुलायम मानते थे कि देश में हिंदी के लिए यह प्रवृत्ति बहुत बड़ा ख़तरा है।

27 नवंबर, 2003 को लखनऊ में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन के नाम पर डाक टिकट जारी किया था तो इस मौके पर मुलायम ने कहा यदि मधुशाला का अंगरेजी में प्रभावी अनुवाद हो, तो अंगरेजी जानने वालों को भी पता चल जाएगा कि बच्चन जी कीट्स और शैली से बहुत आगे थे। उन्हों ने कहा कि किसी रचनाकार का सही सम्मान यही हो सकता है कि उस की कृतियों को पूरे विश्व समाज तक पहुंचाया जाए। उन्होंने घोषणा भी की कि मधुशाला का अनुवाद क्षेत्राीय भाषाओं में भी कराने का पूरा प्रयास करेंगे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव कविता और कवि सम्मेलन के बहुत बड़े रसिया थे एक समय था कि वह रात-रात भर कवि सम्मेलनों में एकदम पीछे बैठ कर कवियों और शायरों को सुनते थे और मूंगफली के सहारे सारी रात जागते थे। कवि सम्मेलनों में जाने और कवि सम्मेलन कराने का उन्हें बहुत शौक़ था। इसी लिए वह कवियों का सम्मान भी बहुत करते थे। वह मानते थे कि कवि और लेखक भावना प्रधान होते हैं। तुलसीदास से ले कर महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और गोपाल दास नीरज जो कि इटावा ज़िले के ही थे , सभी को बड़े ही चाव से पढ़ते व सुनते थे। वह कहते थे कि कवि की कोई जाति नहीं होती। समय-समय पर जब किन्हीं परिस्थितियों के कारण देश और समाज में अंधकार हो जाता है, तो वे प्रकाश देते हैं। आज़ादी की लड़ाई इस का प्रमाण है। मुलायम कहते थे कि आज़ादी की लड़ाई के ज़माने के जो गीत थे, नज्में थीं, जो कविताएं थीं, उन्होंने क्रांति की ज्वाला और स्वाधीनता संघर्ष की लौ को जलाए रखने में इतनी मदद की, वह आज देश का इतिहास बन चुका है। कवियों ने सिर्फ़ जनजागरण का काम ही नहीं किया, उन्हों ने इन संघर्षों में हिस्सा भी लिया तथा कुर्बानियां भी दीं। बहुत से कवि गांधी जी के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूदे थे, वे भी महान स्वतंत्राता सेनानी थे। 

मुलायम सिंह यादव न सि़र्फ भाषाई स्तर पर बल्कि वैचारिक स्तर पर भी भाषा, साहित्य और संस्कृति का बेहद सम्मान करते थे। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जैसे डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन जब बीमार थे तो उन्हें यश भारती से सम्मानित करने वह मुंबई उन के घर गए और उन्हें सम्मानित किया। हिंदी कवि सम्मेलनों में एक बहुत मशहूर कवि हुए हैं बृजेंद्र अवस्थी। कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करने के लिए वह मशहूर थे। आशु कविता के लिए वे जाने जाते थे। अपने अंतिम समय में जब वह गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उन के पास किसी ने सूचना दी कि बृजेंद्र अवस्थी बहुत बीमार हैं। उनके इलाज में मदद की ज़रूरत है। मुलायम सिंह ने तुरंत उन का सरकारी खर्चे पर इलाज करने के आदेश दिए और उन्हें आर्थिक मदद भी भेजी। जब वह यह सब कर रहे थे तभी किसी ने उन्हें आगाह किया कि अरे वह तो भाजपाई कवि है। मुलायम ने उस व्यक्ति को फौरन डांटा और कहा कि चुप रहो! कोई कवि भाजपाई या सपाई नहीं होता है। कवि कवि होता है। मशहूर शायर अदम गोंडवी बहुत बीमार पड़े और गोण्डा से चल कर लखनऊ के पी.जी.आई. में इलाज कराने के लिए आए। अखबारों में खबर छपी कि अदम गोंडवी को पी.जी.आई. में भर्ती नहीं किया जा रहा है और उन के इलाज में आर्थिक दिक्कतें बहुत हैं। मुलायम सिंह यादव तब सरकार में नहीं थे। लेकिन यह खबर मिलते ही वह फौरन पी.जी.आई. पहुंचे और उन्हें भर्ती करवाया, उन की आर्थिक मदद की और उन के परिजनों को आश्वासन दिया कि उन के इलाज में कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। हुआ भी यही। अलग बात है कि अदम गोंडवी को बचाया नहीं जा सका। जिस दिन उनका निधन हुआ उस दिन बहुजन समाज पार्टी की रैली थी और सड़कें भरी हुई थीं। अदम का सुबह पांच बजे निधन हुआ। और सुबह छः बजे ही मुलायम पी.जी.आई. पहुंच गए। उन के परिवारीजनों को ढांढस बंधवाया और उनके पार्थिव शरीर को गोण्डा ले जाने की व्यवस्था भी कराई। यह मुलायम सिंह यादव ही कर सकते हैं।

एक बार मेरे साथ भी वह ऐसा कर चुके हैं। 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। मुलायम सिंह यादव संभल से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। मैं संभल कवरेज में जा रहा था। सीतापुर से पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर एक ट्रक से लड़ गई। हमारे साथ बैठे हिंदुस्तान के पत्रकार और हमारे साथी जय प्रकाश शाही और ड्राइवर ऐट स्पाट चल बसे। मुझे और आज के गोपेश पांडेय को गहरी चोट लगी। लेकिन बच गए। मेरा जबड़ा हाथ और सारी पसलियां टूट गई थीं। लखनऊ पी.जी.आई. लाए गए हम लोग। हमें देखने के लिए उसी शाम सब से पहले मुलायम सिंह यादव पहुंचे राजबब्बर के साथ। न सिर्फ़ पहुंचे बल्कि इलाज का सारा प्रबंध किया। परिवारीजनों को ढाढस बंधाया। बाद के दिनों भी वह हालचाल नियमित लेते रहे। एक महीने बाद जब अस्पताल से घर लौटा तो पता चला कि दाई आंख भी डैमेज है। रेटिना पर चोट है। मन में आया कि इस से अच्छा होता कि मर गया होता। बिना आंख के जी कर क्या करुंगा मैं। मुलायम सिंह तब दिल्ली में थे। उन्हें जब यह पता चला तो मुझे फ़ोन किया और कहा कि घबराइएगा नहीं। दुनिया में जहां भी आप की आंख ठीक हो सकती हैं, मैं कराऊंगा। मैं जैसे जी गया था। बाद में वह एक बार मिले तो कहने लगे कि आप को ज़िंदगी में कभी कोई दिक्कत नहीं होगी। क्यों कि आप की पत्नी बहुत बहादुर हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार में हों या बाहर , सामाजिक सरोकार, साहित्य और संस्कृति हमेशा उन की प्राथमिकता में होते थे। इसी लिए मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव थे। और मुलायम के मायने हैं।

मुलायम सिंह यादव असल में हिंदी को हमेशा स्वाभिमान का विषय मानते आए थे। इसी लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश से लगायत तमिलनाडु तक में हिंदी के झंडे गाड़े। उन्हों ने न सिर्फ़ राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित किया बल्कि उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री प्रशासनिक तौर पर भी हिंदी को प्रतिष्ठित किया। क्यों कि मुलायम का मानना था कि विकास प्रक्रिया में उपेक्षित, साधनहीन और निर्बल वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारी कामकाज का जन-भाषा में होना बहुत ज़रूरी है। वह इस बात को भी नहीं मानते थे कि विशेषज्ञता वाले कई विषयों में उच्च अध्ययन के लिए हिंदी सक्षम नहीं है। मुलायम मानते थे कि चीन, जापान, रूस आदि देश अगर अपनी भाषा के बल पर इतनी तरक्की कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता? इसी लिए उन्हों ने 1990 में बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंगरेजी के प्रश्नपत्र की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इस के साथ ही हिंदी के प्रश्नपत्र में प्रश्नों के अंगरेजी अनुवाद की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी। बाद में यही फैसला उन्हों ने पी.सी.एस. की होने वाली परीक्षाओं में भी लागू कर दिया। 

मुलायम सिंह यादव के साथ मैं ने बहुत सी यात्राएं की हैं। सड़क मार्ग से भी , हवाई मार्ग से भी। अनेक इंटरव्यू किए हैं। उन के साथ की बहुत सी खट्टी-मीठी यादें हैं। सहमति-असहमति के अनेक क़िस्से हैं। जब वह रक्षा मंत्री थे तो लखनऊ में सेना का एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद जलपान हुआ। जलपान में ही वह मेरी बांह पकड़ कर कहने लगे , मेरे साथ चलिए। उन दिनों मैं स्कूटर चलाता था। बताया उन्हें कि स्कूटर से आया हूं। तो वह बोले , स्कूटर आ जाएगी। आप अभी चलिए। कुछ बात करनी है। स्कूटर छोड़ कर चला आया। वह सेना को ले कर इंटरव्यू देना चाहते थे। उसी दिन दिल्ली जाना था उन्हें। फ्लाइट थी। स्पेशल इंटरव्यू वह मुझ से ही लिखवाना चाहते थे। मेरी भाषा पर मोहित रहते थे। इंटरव्यू में बहुत सी बातें हुई। पर ख़ास बात यह थी कि मुलायम सेना की नौकरी को आई ए एस , आई पी एस की तरह आकर्षक सेवा बनाने की बात करते रहे थे। इन से भी अधिक वेतन और सुविधाएं देना चाहते थे। 

एक दिन उन का अचानक फ़ोन आया। हालचाल पूछा और कहने लगे , ' सुना है , आप ने मुझ पर कोई किताब लिखी है ? ' मैं ने बताया कि , ' हां लिखी तो है। ' 

' कैसे मिलेगी मुझे ? '

' आप जब कहें , आ कर दे दूंगा। या भिजवा देता हूं। '

' आप ऐसे तो कभी आते नहीं हैं। किताब के बहाने आइए। '

जो समय तय हुआ , मैं पहुंचा। बहुत दिनों बाद गया था। उन के घर का सब कुछ बदल गया था। सुरक्षा कर्मियों ने रोका तो बताया कि बुलाया है मुलायम सिंह जी ने। नाम बताने पर सुरक्षाकर्मी उठ कर खड़ा हो गया। फाटक खोल दिया। लेकिन दूसरे सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल और , चाभी जमा करने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। यह क्या तरीक़ा है ? कहते हुए वापस होने लगा तो अचानक एक सुरक्षाकर्मी मेरे पास आया और सामने एक व्यक्ति को दिखाते हुए बोला , ' सर उन्हें जानते हैं ? ' 

' हां ! ' मैं ने कहा , 'कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी हैं। '

' उन्हें देखिए। '

देखा कि प्रमोद तिवारी भी अपना मोबाइल जमा कर रहे थे। तो मैं ने मोबाइल कार में रख कर चाभी जमा कर दी। भीतर गया। मुलायम मुझे देखते ही खिल गए। उठ कर गले मिले। अपने बगल में बिठाया। किताब के साथ फ़ोटो खिंचवाई। मिठाई खिलाई। 

मैं वापस आ गया। फिर कभी नहीं गया मुलायम से मिलने। यही मेरी उन से आख़िरी मुलाक़ात थी। फ़ोन पर ज़रुर बात हुई। असल में उन के घर की जांच बहुत बुरी लगी थी। एक समय था कि विक्रमादित्य मार्ग के इसी घर को वह घूम-घूम कर दिखाते रहे थे। एक समय था कि बिना किसी जांच या रोकटोक के उन के घर या दफ़्तर में घुस जाता था। 

मुलायम सिंह यादव अपनी अच्छाई-बुराई के साथ आप हमेशा याद आएंगे। 

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मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

मुलायम सिंह यादव के मायने

मुलायम सिंह यादव के मायने 

मुलायम सिंह यादव (जन्म : 22 नवम्बर 1939-10 अक्टूबर 2022) भारत के एक राजनेता एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री थे। वे भारत के रक्षामंत्री भी रह चुके हैं। वे मूलतः एक शिक्षक थे किन्तु शिक्षण कार्य छोड़कर वे राजनीति में आये थे। तथा समाजवादी पार्टी बनायी थी।

व्यक्तिगत जीवन ;
मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवम्बर 1939 को इटावा जिले के सैफई गाँव में मूर्ति देवी व सुघर सिंह यादव के किसान परिवार में हुआ। मुलायम सिंह यादव अपने पाँच भाई-बहनों में रतनसिंह यादव से छोटे व अभयराम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, राजपाल सिंह और कमला देवी से बड़े हैं। प्रोफेसर रामगोपाल यादव इनके चचेरे भाई हैं।पिता सुघर सिंह उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे किन्तु पहलवानी में अपने राजनीतिक गुरु चौधरी नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती-प्रतियोगिता में प्रभावित करने के पश्चात उन्होंने नत्थूसिंह के परम्परागत विधान सभा क्षेत्र जसवन्त नगर से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया।[3]

राजनीति में आने से पूर्व मुलायम सिंह यादव आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम०ए०) और बी० टी० करने के उपरान्त इन्टर कालेज में प्रवक्ता नियुक्त हुए और सक्रिय राजनीति में रहते हुए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। मुलायम सिंह जी का काफ़ी लंबी बीमारी के कारण 10 अक्टूबर 2022 को मेदांता अस्पताल गुरुग्राम में निधन हो गया[4]।

राजनीतिक जीवन :
मुलायम सिंह उत्तर भारत के बड़े समाजवादी और किसान नेता रहे हैं। एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने
वाले मुलायम सिंह ने अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधायक के रूप में शुरू किया। बहुत कम समय में ही मुलायम सिंह का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में नज़र आने लगा। मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज का सामाजिक स्तर को ऊपर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सामाजिक चेतना के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग का महत्वपूर्ण स्थान हैं। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के प्रमुख अनुयायी (शिष्य) थे तथा इन्हीं के आशीर्वाद से मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गये और मन्त्री बने। 1992में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। वे तीन बार क्रमशः 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक, 5 दिसम्बर 1993 से 3 जून 1996 तक और 29 अगस्त 2003 से 11 मई 2007 तक उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री रहे। इसके अतिरिक्त वे केन्द्र सरकार में रक्षा मन्त्री भी रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश में यादव समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में मुलायम सिंह की पहचान है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में मुलायम सिंह ने साहसिक योगदान किया। मुलायम सिंह की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष नेता की है। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी माना जाता है। उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में मुलायम सिंह यादव को प्यार से नेता जी कहा जाता है।

2012 में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला। यह पहली बार हुआ था कि उत्तर प्रदेश में सपा अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में थी। नेता जी के पुत्र और सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर शोर से उठाया और प्रदेश के सामने विकास का एजेंडा रखा। अखिलेश यादव के विकास के वादों से प्रभावित होकर पूरे प्रदेश में उनको व्यापक जनसमर्थन मिला। चुनाव के बाद नेतृत्व का सवाल उठा तो नेताजी ने वरिष्ठ साथियों के विमर्श के बाद अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। अखिलेश यादव मुलायम सिंह के पुत्र है। अखिलेश यादव ने नेता जी के बताए गये रास्ते पर चलते हुए उत्तर प्रदेश को विकास के पथ पर आगे बढ़ाया.

'समाजवादी पार्टी' के नेता मुलायम सिंह यादव पिछले तीन दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। अपने राजनीतिक गुरु नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती प्रतियोगिता में प्रभावित करने के पश्चात मुलायम सिंह ने नत्थूसिंह के परम्परागत विधान सभा क्षेत्र जसवन्त नगर से ही अपना राजनीतिक सफर आरम्भ किया था। मुलायम सिंह यादव जसवंत नगर और फिर इटावा की सहकारी बैंक के निदेशक चुने गए थे। विधायक का चुनाव भी 'सोशलिस्ट पार्टी' और फिर 'प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' से लड़ा था। इसमें उन्होंने विजय भी प्राप्त की। उन्होंने स्कूल के अध्यापन कार्य से इस्तीफा दे दिया था। पहली बार मंत्री बनने के लिए मुलायम सिंह यादव को 1977 तक इंतज़ार करना पड़ा, जब कांग्रेस विरोधी लहर में उत्तर प्रदेश में भी जनता सरकार बनी थी। 1980 में भी कांग्रेस की सरकार में वे राज्य मंत्री रहे और फिर चौधरी चरण सिंह के लोकदल के अध्यक्ष बने और विधान सभा चुनाव हार गए। चौधरी साहब ने विधान परिषद में मनोनीत करवाया, जहाँ वे प्रतिपक्ष के नेता भी रहे।

1996 में मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं लोकसभा के लिए मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र से चुने गए थे और उस समय जो संयुक्त मोर्चा सरकार बनी थी, उसमें मुलायम सिंह भी शामिल थे और देश के रक्षामंत्री बने थे[5]। यह सरकार बहुत लंबे समय तक चली नहीं। मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने की भी बात चली थी। प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वे सबसे आगे खड़े थे, किंतु उनके सजातियों ने उनका साथ नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने उनके इस इरादे पर पानी फेर दिया। इसके बाद चुनाव हुए तो मुलायम सिंह संभल से लोकसभा में वापस लौटे। असल में वे कन्नौज भी जीते थे, किंतु वहाँ से उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को सांसद बनाया।


केंद्रीय राजनीति :
केंद्रीय राजनीति में मुलायम सिंह का प्रवेश 1996 में हुआ, जब काँग्रेस पार्टी को हरा कर संयुक्त मोर्चा ने सरकार बनाई। एच. डी. देवेगौडा के नेतृत्व वाली इस सरकार में वह रक्षामंत्री बनाए गए थे, किंतु यह सरकार भी ज़्यादा दिन चल नहीं पाई और तीन साल में भारत को दो प्रधानमंत्री देने के बाद सत्ता से बाहर हो गई। 'भारतीय जनता पार्टी' के साथ उनकी विमुखता से लगता था, वह काँग्रेस के नज़दीक होंगे, लेकिन 1999 में उनके समर्थन का आश्वासन ना मिलने पर काँग्रेस सरकार बनाने में असफल रही और दोनों पार्टियों के संबंधों में कड़वाहट पैदा हो गई। 2002 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 391 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए, जबकि 1996 के चुनाव में उसने केवल 281 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था।

राजनीतिक दर्शन तथा विदेश यात्रा ;
मुलायम सिंह यादव की राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों में अटूट आस्था रही है। भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति और शोषित पीड़ित वर्गों के हितों के लिए उनका अनवरत संघर्ष जारी रहा है। उन्होंने ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैण्ड, पोलैंड और नेपाल आदि देशों की भी यात्राएँ की हैं। लोकसभा सदस्य कहा जाता है कि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की किसी भी जनसभा में कम से कम पचास लोगों को नाम लेकर मंच पर बुला सकते हैं। समाजवाद के फ़्राँसीसी पुरोधा 'कॉम डी सिमॉन' की अभिजात्यवर्गीय पृष्ठभूमि के विपरीत उनका भारतीय संस्करण केंद्रीय भारत के कभी निपट गाँव रहे सैंफई के अखाड़े में तैयार हुआ है। वहाँ उन्होंने पहलवानी के साथ ही राजनीति के पैंतरे भी सीखे। लोकसभा से मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा के सदस्य चुने गये थे।

सदस्यता :
विधान परिषद 1982-1985,विधान सभा 1967, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996, 2003,और 2007(दस बार) विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान परिषद 1982-1985,विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान सभा 1985-1987

केंद्रीय कैबिनेट मंत्री :
सहकारिता और पशुपालन मंत्री 1977
रक्षा मंत्री 1996-1998

भाजपा से नजदीकी :
मुलायम सिंह यादव मीडिया को कोई भी ऐसा मौका नहीं देते, जिससे कि उनके ऊपर 'भाजपा' के क़रीबी होने का आरोप लगे। जबकि राजनीतिक हलकों में यह बात मशहूर है कि अटल बिहारी वाजपेयी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते बेहद मधुर थे। वर्ष 2003 में उन्होंने भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयोग से ही प्रदेश में अपनी सरकार बनाई थी। अब 2012 में उनका आकलन सच भी साबित हुआ। उत्तर प्रदेश में 'समाजवादी पार्टी' को अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल हुई है। 45 मुस्लिम विधायक उनके दल में हैं।

पुरस्कार व सम्मान :
पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को 28 मई, 2012 को लंदन में 'अंतर्राष्ट्रीय जूरी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ़ जूरिस्ट की जारी विज्ञप्ति में हाईकोर्ट ऑफ़ लंदन के सेवानिवृत न्यायाधीश सर गाविन लाइटमैन ने बताया कि श्री यादव का इस पुरस्कार के लिये चयन बार और पीठ की प्रगति में बेझिझक योगदान देना है। उन्होंने कहा कि श्री यादव का विधि एवं न्याय क्षेत्र से जुड़े लोगों में भाईचारा पैदा करने में सहयोग दुनियाभर में लाजवाब है।

ज्ञातव्य है कि मुलायम सिंह यादव ने विधि क्षेत्र में ख़ासा योगदान दिया है। समाज में भाईचारे की भावना पैदाकर मुलायम सिंह यादव का लोगों को न्‍याय दिलाने में विशेष योगदान है। उन्होंने कई विधि विश्‍वविद्यालयों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।

मुलायम सिंह पर पुस्तकें :
मुलायम सिंह पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। इनमे पहला नाम "मुलायम सिंह यादव- चिन्तन और विचार" का है जिसे अशोक कुमार शर्मा ने सम्पादित किया था। इसके अतिरिक्त राम सिंह तथा अंशुमान यादव द्वारा लिखी गयी "मुलायम सिंह: ए पोलिटिकल बायोग्राफी" अब उनकी प्रमाणिक जीवनी है। [8] लखनऊ की पत्रकार डॉ नूतन ठाकुर ने भी मुलायम सिंह के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक महत्व को रेखांकित करते हुए एक पुस्तक लिखने का कार्य किया है।

विवादित विचार :
अपने एक भाषण के दौरान मुलायम सिंह ने बलात्कार की घटना पर कहा कि लड़के गलतियां करते हैं। " लोक सभा २००९ के चुनाव अभियान में मुलायम सिंह ने कहा कि अंग्रेजी और कम्प्यूटर की शिक्षा समाप्त करने को कहा इससे बेरोजगारी फैलती है।  दिनांक १८ अगस्त २०१५ को एक सभा में बलात्कार पर विवादित ब्यान दिया।मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में ई-रिक्शा के वितरण समारोह में (१८ अगस्त २०१५ ) बलात्कार पर विचार व्यक्त करने पर महोबा जिले की स्थानीय कोर्ट ने अदालत में उपस्थिति के लिए समन जारी किया था।

निलंबित आई पी एस अधिकारी अमिताभ ठाकुर को धमकाने आरोप में सी जे एम सोमप्रभा मिश्रा ,लखनऊ ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के विरुद्ध आई पी सी की धारा १५६(३) के अंतर्गत एफ आई आर दर्ज करने का आदेश दिया। 

अयोध्या गोलीकांड :
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले पर इन दिनों देश की सियासत गरमाई हुई है और सभी को इस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है. हालांकि, देश की सबसे बड़ी... https://www.aajtak.in/india/uttar-pradesh/story/ayodhya-dispute-firing-karsevaks-mulla-mulayam-hanuman-garhi-571472-2018-11-02 वीएचपी के आह्वान पर 30 अक्तूबर 1990 को लाखों कारसेवक अयोध्या में इकट्ठा हुए थे। उनका उद्देश्य था कि विवादित स्थल पर मस्जिद को तोड़कर मंदिर का निर्माण किया जाए। जब हजारों की संख्या में लोग विवादित स्थल के पास की एक गली में इकट्ठा हुए, उसी वक्त सामने से पुलिस और सुरक्षाबलों ने गोली चला दी। इसमें कई लोग गोली से तो कई लोग भगदड़ से मारे और घायल हुए। हालांकि मौतों के आंकड़े कभी स्पष्ट नहीं हुए। यूपी की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के दौरान कारसेवकों पर पुलिस की गोलीबारी के मामले में रिपब्लिक भारत चैनल ने अपने लॉन्च होने के पहले ही दिन बड़े खुलासे का दावा किया। चैनल ने अपने स्टिंग में एक तत्कालीन अधिकारी से बात की। रामजन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने बताया कि कारसेवकों के मौत का जो आंकड़ा बताया गया था, उससे ज्यादा कारसेवकों की मौत हुई थी।

राम जन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने इस टीवी चैनल से बातचीत में बताया कि घटना के बाद विदेश तक से पत्रकार आए थे। उन्हें आठ लोगों की मौत और 42 लोगों के घायल होने का आंकड़ा बताया गया था। जब तफ्तीश के लिए शमशान घाट गए, तो वहां पूछा कि ऐसी कितनी लाशें हैं, जो दफनाई गई हैं और कितनी लाशों का दाह संस्कार किया गया है, तो बताया गया कि 15 से 20 लाशें दफनाई गई हैं। उसी आधार पर सरकार को बयान दिया गया था। हालांकि हकीकत यही थी कि वे लाशें कारसेवकों की थीं। उस गोलीकांड में कई लोग मारे गए थे। आंकड़े तो नहीं पता हैं, लेकिन काफी संख्या में लोग मारे गए थे। टीवी चैनल के इस सवाल पर कि कई लोग अपनों के बारे में पूछते हुए अयोध्या तक आए होंगे, उन्हें क्या बताया जाता था। पूर्व एसएचओ ने बताया कि उन्हें बताते थे कि दफनाई गई लाशें उनके परिवार के सदस्यों की नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव भी कई मौकों पर इस गोलीकांड को सही ठहराते रहे हैं। उन्होंने हमेशा कहा है कि देश की एकता के लिए गोली चलवाई थी। आज जो देश की एकता है उसी वजह से है। इसके लिए और भी लोगों को मारना पड़ता, तो सुरक्षाबलों को मारने की अनुमति दे देते।
(विकिपीडिया से साभार )

माननीय मुलायम सिंह यादव जी जिस पृष्ठभूमि से निकले और जिस तरह की उन्होंने शिक्षा ली निश्चित रूप से वह उस समय की  एक महत्वपूर्ण घटना थी. यही कारण है कि जिस तेजी से वह राजनीति में आगे बढ़े उसे उनके मनोबल और आत्मबल की सूझ बूझ ही कही जा सकती है। 

बीहड़ों से सटा हुआ इलाका अनेकों तरह के खतरों से भी खाली नहीं था, सामाजिक विद्रूपता का जो स्वरूप उनके समय में था उससे निकलते हुए जिस राजनीतिक परिदृश्य में वह शामिल हुए निश्चित रूप से देखा जाए तो प्रो कांचा इलैया शेफर्ड के विचारों के हिसाब से कई तरह की अवधारणाएं व्यवहारिक नहीं हुई जिससे सामाजिक बदलाव का वह स्वरूप सामने आता जिसकी परिकल्पना है हमारे संविधान में की गई रही होगी।

हम यहां पर शुद्र के विषय में कांचा इलैया के एक आलेख से कुछ जोड़ रहे हैं जिससे सारी बात समझने में सुविधा होगी :

" शूद्र के आत्म-अपमान और भारतीय के प्रमुख रूपों को देखने की जरूरत है आज राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय राजनीति। ब्राह्मणों और बनियों ने की दिशा तय की है स्वतंत्रता संग्राम से ही लोकप्रिय राष्ट्रीय भावनाऔर स्वयं की अनुपस्थिति में बुद्धिजीवी शूद्रों ने निर्विवाद रूप से उन विचारों का पालन किया है। अम्बेडकर ने उठाया असहमति की आवाज यह इंगित करने के लिए कि राष्ट्रीय गौरव की कोई भी खोज बिना सुधार के खाली थी देश की चौंकाने वाली सामाजिक असमानताओं कोलेकिन उनके दृष्टिकोण को दरकिनार कर दिया गया।
 
आजशूद्र हिंदू राष्ट्रवाद के उत्साही समर्थक हैंयह जाने बिना कि यह है वास्तव में ब्राह्मण-बनिया राष्ट्रवाद। भाजपा का हिंदुत्व आरएसएस की सर्वोच्चता का आश्वासन देता है ब्राह्मण विचारकऔर उसकी आर्थिक नीतियां विशाल बनिया के स्वामित्व वाले मुनाफे को बढ़ाती हैं निगम कांग्रेस कोई आर्थिक विकल्प नहीं पेश कर सकती हैऔर उसका "धर्मनिरपेक्ष" राष्ट्रवाद तेजी से भाजपा के ब्राह्मणवादी जैसा दिखता है। राहुल गांधीकांग्रेस राष्ट्रपति ने खुद को धागा पहनने वाला ब्राह्मण घोषित कर दिया हैऐसा लगता है कि यह रणनीति हो सकती है उसे जनता से प्यार करो।
 
अधिकांश हिंदू राष्ट्रवाद शूद्र उत्पीड़न और बहिष्कार पर आधारित है। गाय की राजनीति संरक्षण एक उदाहरण है। गाय के पवित्र पशु होने का सिद्धांत ब्राह्मणों का काम हैजो कभी जानवर नहीं चरता था और कभी भी आर्थिक रूप से उस पर निर्भर नहीं था। वह बोझ का था शूद्रलेकिन उस जानवर की स्थिति के निर्माण में उनका कोई अधिकार नहीं है। मवेशियों पर प्रतिबंध मोदी के सत्ता में आने के बाद से वध ने मवेशियों की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया हैक्योंकि किसान नहीं कर सकते अब अपने जानवरों को आर्थिक उद्देश्यों के लिए बेचते हैं। लेकिन शूद्रों ने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया है त्रासदीजिसने पूरे देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है।
 
हिंदू राष्ट्रवाद ने शूद्रों को ठहराव के अलावा और कुछ नहीं जीता है। के उच्चतम स्तर बौद्धिकआध्यात्मिकराजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र मुख्य रूप से ब्राह्मण और बनिया में रहते हैं मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हाथ शूद्रों की सामाजिक व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है आर्थिक स्थिति। हिंदू राष्ट्रवाद ने केवल ब्राह्मण की शक्ति को और मजबूत किया है विचारधारा और बनिया राजधानीऔर शूद्र अपनी कीमत पर भी इसकी रक्षा कर रहे हैं।
 
अम्बेडकर ने शूद्र कौन थेकि ब्राह्मणवाद ने शूद्रों को "निम्न- बिना सभ्यता केबिना संस्कृति केबिना सम्मान के और बिना पद के वर्ग के लोग। ” सभी कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि उनका समय इस निंदनीय तथ्य को मौलिक रूप से बदलने में विफल रहा है। केवल एक नया शूद्र चेतना इसे बदल सकती हैऔर शूद्रों के साथ-साथ देश को भी बेहतर बना सकती है पाठ्यक्रम।

- प्रोफ कांचा इल्लैया 

"माननीय नेता जी के सत्ता में रहते हुए जिस तरह के लोग उनके इर्द-गिर्द होते थे उनसे बचते बचाते वह अपनी विचारधारा को लागू कर सके यह अपने आप में एक जटिल काम था ! लेकिन इस काम को वह करने में सफल होते रहे लेकिन उसका जो जमीनी स्तर पर असर होना था वह उनके इर्द-गिर्द पार्टी कार्यकर्ताओं ने एक जाति का समूह बनाकर के और उसके सबसे मूर्ख व्यक्ति को नेतृत्व देकर उनकी सारी योजनाओं पर पानी फेरने का काम किया है। यही कारण है कि एक ऐसी समाजवादी विचारधारा को जिस जमीन पर बहुत बड़ा सामाजिक आंदोलन खड़ा कर सकता  थी ! वह करने में वह कामयाब नहीं हो सकी।"

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...