मंगलवार, 31 अगस्त 2021

समाजवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद


 







सुप्रभात!

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आपकी बातचीत और आपके पूरे प्रसारण से ऐसा प्रतीत होता है कि आप समाजवादी पार्टी के के लिए काम कर रही हो, बहुत अफसोस के साथ यह बात कहनी पड़ रही है कि आपके जितने भी आमंत्रित सदस्य होते हैं, वह मन से भाजपा के समर्थक होते हैं। अपने निजी खुन्नस के कारण आपके संवाद में आते जरूर हैं अखिलेश जी की प्रशंसा भी करते हैं लेकिन मानसिक रूप से वह सब कहीं ना कहीं आपके इस अभियान को चूना लगा रहे बहुत अच्छा होता यदि आप आम आदमी को आम आदमी के बीच से पकड़कर लाते और उनसे बातचीत करती, तो उसका असर होता अब देखिए आपने अमिताभ ठाकुर जी को इतना महत्व दिया और अंततः उनको सरकार उठा ले गई यह बात निश्चित तौर पर गौर करने योग्य है कि श्री यस पी सिंह साहब भी योगी जी से बुरी तरह से खिन्न हैं लेकिन अखिलेश यादव को वह मन से स्वीकार नहीं करते हैं। आज वह जो कुछ भी बोल रहे हो, लेकिन जब वह मुख्यमंत्री थे तो यह किस तरह की भाषा बोल रहे थे जिससे किसी भी मुख्यमंत्री का महत्त्व कितना कम हो जाता है।

आजकल आपके अतिथियों के वक्तव्य में योगी और मोदी की चर्चा ज्यादा होती है कि किस तरह से योगी जी मोदी जी को चैलेंज कर रहे हैं और योगी जी अंतरराष्ट्रीय स्तर के हिंदुत्व के पोषक हैं।
मैं एक स्पष्ट तौर पर सवाल करता हूं कि क्या आपका एक भी अतिथि यह नहीं जानता कि गोरखपुर पीठ गोरखनाथ मिशन के नाम पर सबसे अधिक जिसका विरोध करने के लिए बना था वह था ब्राह्मणवादी हिंदुत्व एक वत्ता भी यह नहीं कहता की मूलतः योगी जी भी ब्राह्मणवाद के विरोधी हैं और ब्राह्मणवाद के विरोधी होने की जो छवि है आज वह भले कबीर जैसी ना हो लेकिन वह ऐसी संस्था से आते हैं जो नाथ संप्रदाय का केंद्र है यदि वह अपने संप्रदाय की उद्देश्य से विचलित होकर समाज में सत्ता के माध्यम से मुसलमान और बहुजन को सबक सिखाना चाहते हैं तो यह कोई नहीं बताता की मूलतः नाथ संप्रदाय मुसलमानों और पिछड़ों के हित के लिए अपना केंद्र स्थापित किया था जिस में सर्वाधिक सहयोग मुसलमानों का और वहां की पिछड़ी जातियों का रहा है।
1974 से लेकर 1976 तक मेरी शिक्षा गोरखपुर में हुई है और इन 2 वर्षों में मैं अनेकों बार गोरखनाथ मंदिर गया हूं तब इससे पहले के जो मठाधीश थे उनके समय तक जिस तरह के पाखंड और हिंदू मंदिरों में ब्राह्मणों का वर्चस्व होता है वह गोरखनाथ मंदिर में कम से कम नहीं था और वहां पर जो अवाम होती थी वह दबी कुचली मजलूम किस्म की आवाम होती थी, जबकि मैंने अपने वाराणसी अध्ययन काल के प्रवास के तहत देखा था कि देश भर की समृद्धि साली अवाम वाराणसी के मंदिरों में प्रवेश करती थी जहां पर दलित या बहुजन समाज से कोई आ गया तो वह अंदर तक जाने की हिम्मत जुटा नहीं पाता था।

इस फर्क को बताने से श्री योगी आदित्यनाथ जी पिछड़ों के बहुत करीब आते हैं और मुसलमानों द्वारा किया गया सहयोग बिल्कुल भूल जाते हैं यह जिस तरह से पिछले पौने 5 वर्षों तक उत्तर प्रदेश का संचालन किए हैं उसके चलते भ्रष्टाचार तो अपनी जगह सांस्कृतिक सरोकारों को जितना बड़ा झटका इनके चलते लगा है उसको रोकने के लिए पिछड़ी जातियों की बहुत सारी उपजातियां अपने आप में इनसे बहुत दुखी हैं इनका शासन उनके लिए बिल्कुल ग्राह्य नहीं है, पिछड़े वर्ग के नेताओं का जो हाल हुआ है उसको सब लोगों ने बहुत अच्छी तरह देखा है।
पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ जिस तरह का अत्याचार और उनके अधिकारों पर कुठाराघात करके इन्होंने विभिन्न संस्थानों में केवल राजपूतों की बहाली की है वह किस से छुपी हुई है उस पर एक बार भी आप के कार्यक्रम में चर्चा नहीं होती।
जबकि समझदार वक्ता यह कह सकता था कि श्री अखिलेश यादव के समय में भी बस्ती के विश्वविद्यालय में ब्राह्मणों का जिस तरह से खुला खेल श्री माता प्रसाद पांडेय द्वारा किया गया था, जिस पर श्री अखिलेश यादव किसी तरह का भी अंकुश नहीं लगा पाए थे और जिस पांडे को वहां कुलपति बनाया गया था वह मूलतः बिहार का रहने वाला और घोर ब्राह्मणवादी सोच का व्यक्ति था या है मैं उसे बहुत अच्छी तरह जानता हूं उसके बड़े भाई को मैंने किस तरह से राजपूतों के प्रकोप से बचाया है वह उससे पूछा जा सकता है।
श्री अखिलेश यादव के लिए बनाया गया आपका राजनैतिक शो वह सेप नहीं ले पा रहा है जिसकी आज जरूरत है।
मुझे नहीं पता है कि श्री अखिलेश यादव या इनके जैसे नेताओं के साथ मीडिया में बैठे हुए लोग किस तरह का षड्यंत्र करते हैं उसे रोक पाने में आप कितना कामयाब हो रही हैं लेकिन नेताजी की बात करें तो उन्होंने अपने जमाने में मीडिया के लोगों को जितना उपकृत किया है उसके चौथाई में ही नेताजी का बहुजन मीडिया शुरू हो सकता था।
लेकिन बहुतजनों पर इनको विश्वास ही नहीं है, फ्रैंक हुजूर सोशलिस्ट निकालते रहे और जब तक यह मुख्यमंत्री थे वह सोशलिस्ट पत्र अंग्रेजी में निकलता था अंग्रेजी में सोशियलिस्ट पढ़ने वाला नेताजी का

या श्री अखिलेश यादव का कौन सा समर्थक है जो उसे समझ सकता है।
इस प्रयोग के पीछे निश्चित तौर पर फ्रैंक हुजूर की विचारधारा रही होगी और आपको यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आपके इस तरह के कार्यक्रम से वह लोग भी जुड़ सकते थे जो इनके हित के बारे में सोचते हैं।
दुर्भाग्य है कि ऐसे लोग इन लोगों की सामाजिक न्याय की सोच और ब्राह्मणवाद का जो महा जाल इनके इर्द-गिर्द फैला हुआ है, उससे भयभीत रहता है और जानता है कि यह उस समाजवादी सोच के लोगों के साथ खड़े होने में न जाने क्यों घबराहट महसूस करते हैं।
वहीं पर भाजपा धड़ल्ले से संघ के प्रोग्रामों को लागू कर रही है और बहुजन और दलितों के लोगों को लाली पाप देकर गुमराह भी कर रही है। क्योंकि यह सब उसका उद्देश्य है जब देश में बहुजन समाज के राजनेताओं की बाढ़ आ रही थी उसी समय भाजपा ने संघ के इशारे पर एक गैर ओबीसी को ओबीसी बनाया जो घांची जाति बाकायदा वैश्य समूह में आती है उसे शुद्र समूह में डालते हुए पिछड़ी जाति में डाल देना संघ की सोची समझी चाल थी। यही कारण है कि वह दौर जो पिछड़ी जाति के नेता राष्ट्रीय स्तर पर समझ बूझ दिखाकर देश पर शासन कर सकते थे उसकी उन्होंने विश्वसनीय चेष्टा नहीं की।
इसके लिए समय-समय पर जिन नेताओं ने प्रयास किया उनमें श्री शरद यादव श्री राम विलास पासवान और दक्षिण के कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाए तो श्री लालू प्रसाद जी और माननीय मुलायम सिंह जी ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी सोच के नेताओं से निरंतर घिरते चले गए, उत्तर प्रदेश में अमर सिंह बिहार में गुप्ता जी यह सब ऐसे लोग थे जो सामाजिक न्याय की विचारधारा से कोई संबंध नहीं रखते इनका उद्देश्य और इनकी नियत दोनों बहुजन विरोधी रही है दुर्भाग्य है कि यही इन के सबसे बड़े सिपहसालार और सलाहकार बने।
अन्ततः यही कहना चाहता हूं कि यह सब बहुजन समाज में प्रबुद्धजनों को तलाशने में नाकाम रहे हैं, जो इनके लिए राजनीतिक सामाजिक आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस करके संविधान सम्मत तरीके से नए परिवर्तनों के लिए सुझाव दे सकें।
संघ के लंबे समय से किए गए कार्यों और भारत की गुलामी की तमाम हथकंडे को इस्तेमाल करते हुए आज की वर्तमान सत्ता जिस तरह से संपूर्ण सामाजिक न्याय की लड़ाई और बहुजन विचारकों के आंदोलन को तहस-नहस करके खंड खंड में बांटने का काम किया है उसके लिए भाजपा की बजाय हमारे वह समाजवादी नेता हैं जिन्होंने अपने अपने तरीके से अपने अपने साम्राज्य करने के चक्कर में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को न समझने की बहुत बड़ी भूल की है।
यही कारण है कि जिस देश को संविधान से चलना चाहिए वह देश सांस्कृतिक पाखंड और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का गुलाम होता चला जा रहा है। हमें हिंदू और हिंदुत्व के देवी देवताओं को महिमामंडित करने की बजाय संविधान धर्म को महिमामंडित करने की जरूरत है और जब तक संविधान धर्म महिमामंडित नहीं होगा तब तक यहां का बहुजन समाज सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की गुलामी से निजात नहीं पा सकता।
बहस बहुत लंबी है इस पर विमर्श के लिए निश्चित तौर पर आपको ऐसे लोगों को तलाशना होगा जो सांस्कृतिक समाजवाद की अवधारणा पर अपनी बात रख सकते हो।
= डॉ लाल रत्नाकर

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