गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

उत्तर प्रदेश राजनीती के समकालीन समीकरण -2024 में मोदी को रोकना है तो 2022 में उत्तर प्रदेश में योगी को रोकना ही होगा।


2024 में मोदी को रोकना है तो 2022 में उत्तर प्रदेश में योगी को रोकना ही होगा। अमित शाह की इस बात से जिस आशंका का एहसास उनको हो रहा है वह सही है पर अमितशाह की माणसा को परिपूर्ण करने के लिए उनके रचाये गए हथकंडे उत्तर प्रदेश की जनता को अच्छी तरह समझ में आ गयी है।
आधुनिक युग में फुट डालो और राजयकारो की निति दरअसल मनुस्मृति की रही है, जिसे आज पुनः ब्राह्मणवादी और बनियों ने पुनः आक्खतियार की हुयी है। धर्म और राष्ट्र के नाम की राजनीती करने वाले न धर्म से कोई सरोकार रखते हैं और न ही राष्ट्र से ही क्योंकि धर्म का इस्तेमाल सत्ता के लिए और राष्ट्र पूंजीपतियों को दे रहे हैं जनता को नंगा करके आत्मनिर्भर करने की मनुवादी योजना पर चल रहे है।



ठोक दो ! 
धर्म के नाम पर लिंचिंग 
अस्पतालों की कॉर्पोरेटिंग 
ब्राह्मणों की हत्या 
जातिवादी राजनीती 
जुमलेबाजी 
झूठ 
आपदा में अवसर 
क्रूरता में करुणा 
खेमचंद शर्मा जैसे झूठे आदमी को ही देख लीजिये !
वैक्सीन भाजपा की नहीं सरकार की है जो हमारे टैक्स का है पी एम केयर फंड का हिसाब देना चाहिए। 
उज्जवला योजना में गैस की कीमत  रु.300 से रु.900 
पेट्रोल डीजल की कीमतें दोगुनी !
रेल बेच दिया 
हवाई अड्डे बेच दिया 
LIC बेच दिया 
पूंजीपतियों के गुलाम  
दलितों पिछड़ों अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न। 
विशेष : सपा के प्रवक्ता के पास आंकड़े तो हैं लेकिन क्रम से शालीनता से क्रमवार उठाना चाहिए ममता त्रिपाठी से सबक लेना चाहिए। 
रूफी ज़ैदी जी ;
श्री अखिलेश जी को जनता चाहती है कि फिर से मुख्यमंत्री बने और यह बात उनको कहीं से समझ में आ गई है। जिसकी वजह से वह निरंतर मुख्यमंत्री के रूप में अपनी योजना पर काम कर रहे हैं।
अब यह दुनिया में जाहिर हो चुका है कि भाजपा धूर्तता और असंवैधानिक तरीके से इस देश की आवाम को बेवकूफ बनाकर अपने पक्ष में करने का निरंतर प्रयास कर रही है जिस तरह से बंगाल की चुनाव में देश का प्रधानमंत्री अपनी हर तरह की चाल से बाज नहीं आया क्या आप अपेक्षा करते हैं कि उत्तर प्रदेश में उस तरह का तांडव यह लोग नहीं करेंगे।
अब यहां सवाल बनता है कि क्या श्री अखिलेश यादव के पास उनके इस छल का माकूल जवाब है।
आज की ही बहस में देखिए भाजपा के प्रवक्ता के रूप में खेमचंद शर्मा जिस तरह से आतंकी की तरह बातें कर रहा है, उसके सामने मनोज जैसे लोग रीरिआते आते हुए नजर आ रहे हैं। बहुत शालीन और तर्कों के साथ सपा के प्रवक्ताओं को अपनी बात रखनी होगी ममता जी से सीख सकते हैं लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे जहां बहस करनी है वहां वहस ही चाहिए जहां लट्ठ चाहिए वहां लाठी निकालना चाहिए।
मुझे भरोसा है कि आप जैसे पत्रकार भाजपा के दोगले चरित्र के लोगों को जनता के सामने उजागर करने में कामयाब हो सकेगी।
बहुत-बहुत बधाई आपको।
 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

स्मृति शेष

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

समाजवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद


 







सुप्रभात!

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आपकी बातचीत और आपके पूरे प्रसारण से ऐसा प्रतीत होता है कि आप समाजवादी पार्टी के के लिए काम कर रही हो, बहुत अफसोस के साथ यह बात कहनी पड़ रही है कि आपके जितने भी आमंत्रित सदस्य होते हैं, वह मन से भाजपा के समर्थक होते हैं। अपने निजी खुन्नस के कारण आपके संवाद में आते जरूर हैं अखिलेश जी की प्रशंसा भी करते हैं लेकिन मानसिक रूप से वह सब कहीं ना कहीं आपके इस अभियान को चूना लगा रहे बहुत अच्छा होता यदि आप आम आदमी को आम आदमी के बीच से पकड़कर लाते और उनसे बातचीत करती, तो उसका असर होता अब देखिए आपने अमिताभ ठाकुर जी को इतना महत्व दिया और अंततः उनको सरकार उठा ले गई यह बात निश्चित तौर पर गौर करने योग्य है कि श्री यस पी सिंह साहब भी योगी जी से बुरी तरह से खिन्न हैं लेकिन अखिलेश यादव को वह मन से स्वीकार नहीं करते हैं। आज वह जो कुछ भी बोल रहे हो, लेकिन जब वह मुख्यमंत्री थे तो यह किस तरह की भाषा बोल रहे थे जिससे किसी भी मुख्यमंत्री का महत्त्व कितना कम हो जाता है।

आजकल आपके अतिथियों के वक्तव्य में योगी और मोदी की चर्चा ज्यादा होती है कि किस तरह से योगी जी मोदी जी को चैलेंज कर रहे हैं और योगी जी अंतरराष्ट्रीय स्तर के हिंदुत्व के पोषक हैं।
मैं एक स्पष्ट तौर पर सवाल करता हूं कि क्या आपका एक भी अतिथि यह नहीं जानता कि गोरखपुर पीठ गोरखनाथ मिशन के नाम पर सबसे अधिक जिसका विरोध करने के लिए बना था वह था ब्राह्मणवादी हिंदुत्व एक वत्ता भी यह नहीं कहता की मूलतः योगी जी भी ब्राह्मणवाद के विरोधी हैं और ब्राह्मणवाद के विरोधी होने की जो छवि है आज वह भले कबीर जैसी ना हो लेकिन वह ऐसी संस्था से आते हैं जो नाथ संप्रदाय का केंद्र है यदि वह अपने संप्रदाय की उद्देश्य से विचलित होकर समाज में सत्ता के माध्यम से मुसलमान और बहुजन को सबक सिखाना चाहते हैं तो यह कोई नहीं बताता की मूलतः नाथ संप्रदाय मुसलमानों और पिछड़ों के हित के लिए अपना केंद्र स्थापित किया था जिस में सर्वाधिक सहयोग मुसलमानों का और वहां की पिछड़ी जातियों का रहा है।
1974 से लेकर 1976 तक मेरी शिक्षा गोरखपुर में हुई है और इन 2 वर्षों में मैं अनेकों बार गोरखनाथ मंदिर गया हूं तब इससे पहले के जो मठाधीश थे उनके समय तक जिस तरह के पाखंड और हिंदू मंदिरों में ब्राह्मणों का वर्चस्व होता है वह गोरखनाथ मंदिर में कम से कम नहीं था और वहां पर जो अवाम होती थी वह दबी कुचली मजलूम किस्म की आवाम होती थी, जबकि मैंने अपने वाराणसी अध्ययन काल के प्रवास के तहत देखा था कि देश भर की समृद्धि साली अवाम वाराणसी के मंदिरों में प्रवेश करती थी जहां पर दलित या बहुजन समाज से कोई आ गया तो वह अंदर तक जाने की हिम्मत जुटा नहीं पाता था।

इस फर्क को बताने से श्री योगी आदित्यनाथ जी पिछड़ों के बहुत करीब आते हैं और मुसलमानों द्वारा किया गया सहयोग बिल्कुल भूल जाते हैं यह जिस तरह से पिछले पौने 5 वर्षों तक उत्तर प्रदेश का संचालन किए हैं उसके चलते भ्रष्टाचार तो अपनी जगह सांस्कृतिक सरोकारों को जितना बड़ा झटका इनके चलते लगा है उसको रोकने के लिए पिछड़ी जातियों की बहुत सारी उपजातियां अपने आप में इनसे बहुत दुखी हैं इनका शासन उनके लिए बिल्कुल ग्राह्य नहीं है, पिछड़े वर्ग के नेताओं का जो हाल हुआ है उसको सब लोगों ने बहुत अच्छी तरह देखा है।
पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ जिस तरह का अत्याचार और उनके अधिकारों पर कुठाराघात करके इन्होंने विभिन्न संस्थानों में केवल राजपूतों की बहाली की है वह किस से छुपी हुई है उस पर एक बार भी आप के कार्यक्रम में चर्चा नहीं होती।
जबकि समझदार वक्ता यह कह सकता था कि श्री अखिलेश यादव के समय में भी बस्ती के विश्वविद्यालय में ब्राह्मणों का जिस तरह से खुला खेल श्री माता प्रसाद पांडेय द्वारा किया गया था, जिस पर श्री अखिलेश यादव किसी तरह का भी अंकुश नहीं लगा पाए थे और जिस पांडे को वहां कुलपति बनाया गया था वह मूलतः बिहार का रहने वाला और घोर ब्राह्मणवादी सोच का व्यक्ति था या है मैं उसे बहुत अच्छी तरह जानता हूं उसके बड़े भाई को मैंने किस तरह से राजपूतों के प्रकोप से बचाया है वह उससे पूछा जा सकता है।
श्री अखिलेश यादव के लिए बनाया गया आपका राजनैतिक शो वह सेप नहीं ले पा रहा है जिसकी आज जरूरत है।
मुझे नहीं पता है कि श्री अखिलेश यादव या इनके जैसे नेताओं के साथ मीडिया में बैठे हुए लोग किस तरह का षड्यंत्र करते हैं उसे रोक पाने में आप कितना कामयाब हो रही हैं लेकिन नेताजी की बात करें तो उन्होंने अपने जमाने में मीडिया के लोगों को जितना उपकृत किया है उसके चौथाई में ही नेताजी का बहुजन मीडिया शुरू हो सकता था।
लेकिन बहुतजनों पर इनको विश्वास ही नहीं है, फ्रैंक हुजूर सोशलिस्ट निकालते रहे और जब तक यह मुख्यमंत्री थे वह सोशलिस्ट पत्र अंग्रेजी में निकलता था अंग्रेजी में सोशियलिस्ट पढ़ने वाला नेताजी का

या श्री अखिलेश यादव का कौन सा समर्थक है जो उसे समझ सकता है।
इस प्रयोग के पीछे निश्चित तौर पर फ्रैंक हुजूर की विचारधारा रही होगी और आपको यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आपके इस तरह के कार्यक्रम से वह लोग भी जुड़ सकते थे जो इनके हित के बारे में सोचते हैं।
दुर्भाग्य है कि ऐसे लोग इन लोगों की सामाजिक न्याय की सोच और ब्राह्मणवाद का जो महा जाल इनके इर्द-गिर्द फैला हुआ है, उससे भयभीत रहता है और जानता है कि यह उस समाजवादी सोच के लोगों के साथ खड़े होने में न जाने क्यों घबराहट महसूस करते हैं।
वहीं पर भाजपा धड़ल्ले से संघ के प्रोग्रामों को लागू कर रही है और बहुजन और दलितों के लोगों को लाली पाप देकर गुमराह भी कर रही है। क्योंकि यह सब उसका उद्देश्य है जब देश में बहुजन समाज के राजनेताओं की बाढ़ आ रही थी उसी समय भाजपा ने संघ के इशारे पर एक गैर ओबीसी को ओबीसी बनाया जो घांची जाति बाकायदा वैश्य समूह में आती है उसे शुद्र समूह में डालते हुए पिछड़ी जाति में डाल देना संघ की सोची समझी चाल थी। यही कारण है कि वह दौर जो पिछड़ी जाति के नेता राष्ट्रीय स्तर पर समझ बूझ दिखाकर देश पर शासन कर सकते थे उसकी उन्होंने विश्वसनीय चेष्टा नहीं की।
इसके लिए समय-समय पर जिन नेताओं ने प्रयास किया उनमें श्री शरद यादव श्री राम विलास पासवान और दक्षिण के कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाए तो श्री लालू प्रसाद जी और माननीय मुलायम सिंह जी ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी सोच के नेताओं से निरंतर घिरते चले गए, उत्तर प्रदेश में अमर सिंह बिहार में गुप्ता जी यह सब ऐसे लोग थे जो सामाजिक न्याय की विचारधारा से कोई संबंध नहीं रखते इनका उद्देश्य और इनकी नियत दोनों बहुजन विरोधी रही है दुर्भाग्य है कि यही इन के सबसे बड़े सिपहसालार और सलाहकार बने।
अन्ततः यही कहना चाहता हूं कि यह सब बहुजन समाज में प्रबुद्धजनों को तलाशने में नाकाम रहे हैं, जो इनके लिए राजनीतिक सामाजिक आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस करके संविधान सम्मत तरीके से नए परिवर्तनों के लिए सुझाव दे सकें।
संघ के लंबे समय से किए गए कार्यों और भारत की गुलामी की तमाम हथकंडे को इस्तेमाल करते हुए आज की वर्तमान सत्ता जिस तरह से संपूर्ण सामाजिक न्याय की लड़ाई और बहुजन विचारकों के आंदोलन को तहस-नहस करके खंड खंड में बांटने का काम किया है उसके लिए भाजपा की बजाय हमारे वह समाजवादी नेता हैं जिन्होंने अपने अपने तरीके से अपने अपने साम्राज्य करने के चक्कर में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को न समझने की बहुत बड़ी भूल की है।
यही कारण है कि जिस देश को संविधान से चलना चाहिए वह देश सांस्कृतिक पाखंड और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का गुलाम होता चला जा रहा है। हमें हिंदू और हिंदुत्व के देवी देवताओं को महिमामंडित करने की बजाय संविधान धर्म को महिमामंडित करने की जरूरत है और जब तक संविधान धर्म महिमामंडित नहीं होगा तब तक यहां का बहुजन समाज सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की गुलामी से निजात नहीं पा सकता।
बहस बहुत लंबी है इस पर विमर्श के लिए निश्चित तौर पर आपको ऐसे लोगों को तलाशना होगा जो सांस्कृतिक समाजवाद की अवधारणा पर अपनी बात रख सकते हो।
= डॉ लाल रत्नाकर

मंगलवार, 18 मई 2021

सकारात्मकता

 सकारात्मकता

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हालांकी इससे पहले मैंने सकारात्मकता पर काफी कुछ लिखा है, लेकिन सकारात्मकता है कि समझ में नहीं आती। क्या सचमुच इस सरकार ने सकारात्मक होने की मनसा बना ली है और अगर बना ली है तो उसके प्रति व्यक्ति ईमानदार है. यह बात नीचे संलग्न उर्मिलेश जी की चंद लाइनों में स्पष्ट हो जाता है।
"अपने जैसे देश में लोक-तंत्र भी क्या चीज़ है! बेचारा 'लोक' समझ भी नहीं पाता कि उसके नाम से चलने वाले 'तंत्र' को कुछ मुट्ठी भर लोग चलाते हैं! अपना सारा इंतजाम राजाओं जैसा करते हैं और लोक(की हर श्रेणियां) की मेहनत 'लोक' के काम भी नहीं आती! बेमौत मरने को मुक्ति कह दिया जाता है।

संविधान के सुंदर अनुच्छेद 'तंत्र' की समयबद्ध शोभायात्रा निकालते हैं! असमानता के आकाश से पुष्प-वर्षा होती है. 'तंत्र' के सारे निकाय अपने अपने निर्देशित-काम में लग जाते हैं. 'लोक' ढोल पीटता है और 'तंत्र' निहाल हो जाता है!
डाक्टर बी आर अम्बेडकर की सारी आशंकाएं(25 नवम्बर, 1949) सही साबित हो रही हैं."

जैसे अब तक आपदा में अवसर, क्रूरता में करुणा और आत्मनिर्भर भारत के चलते माननीय मौजूदा प्रधान सेवक के बेबाक जुमलों ने किस तरह से देश को खोखला किया है, भक्तों के सिवा सबको पता है, शायद अब भक्तों को भी पता हो ही गया होगा। ऐसी धूर्तता जब किसी राष्ट्र का प्रमुख व्यक्ति करता है तो निश्चित तौर पर बाबा साहब अंबेडकर की चिंता की आशंका जायज रही होगी कि यह संविधान किसके हाथों संचालित और संरक्षित होगा या रहेगा । आज उनकी कही गई बातों को हमारे मौजूदा शासकों ने प्रमाणित करके दिखा दिया है।

संविधान की मूलभूत अवधारणाओं को बदल कर के पूंजीवादी और तानाशाही तंत्र स्थापित करके यह जो कुछ करना चाह रहे थे उसके लिए आज इनको सकारात्मक होने की सुधि आई है। जिसे यह पिछले 7 सालों से पूरी नकारात्मकता के साथ क्रियान्वित कर रहे थे ? क्या सचमुच इनके मन में कोई सकारात्मक भाव उत्पन्न हुआ है या केवल अपनी नकारात्मकता को छुपाने के लिए सकारात्मकता का स्लोगन लेकर के आ रहे हैं। जैसा की आपदा में अवसर का नारा दिया और जितनी मनमानी करनी थी वह सब कर डाले। क्रूरता से करुणा का परिचय तो इन्होंने आते ही देना शुरू कर दिया था मॉब लिंचिंग, दलित उत्पीड़न, साहित्यकारों, बुद्धिजीविओं और कलाकारों को जेल में डालना यह सब काम इन्होंने बखूबी अपनी नकारात्मक सोच की वजह से संपन्न किया। फिर आया इनका नारा आत्मनिर्भर भारत ? अब आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर में इन्होंने नए सिरे से भारतीय लोगों की पहचान करनी शुरू की। उसके लिए कानून लाए। जिसके खिलाफ बड़ा आंदोलन चला और इसके बाद इन्होंने दिल्ली में एक संप्रदाय और जाति विशेष के लोगों को जानबूझकर के मरवाया। और अपने अपराधियों को बचाया ? निरपराध लोगों को जेल में घुसाया/डलवाया । यह सब चल ही रहा था कि कोरोना का कहर आ गया और अब तक की इनकी सारी नकारात्मकता को पाखंड के सहारे लोगों में छुपाने का एक और खेल आरम्भ किया।


पाखंड का नाटक वायरस के खिलाफ इन्होंने हल्ला बोला जिसमें ताली पिटवाकर, थाली पीटवाकर, घंटे बजवाकर और शंख बजाकर मोमबत्ती और दिया जलाकर, समय से अँधेरा कराकर जो पाखंड रचा था उसी समय लग गया था की बड़ा अनर्थ होने वाला है । परंतु वायरस था कि जाने का नाम नहीं लिया। तब्लिगिओं और कुछ मुश्लिम संस्थानो को इंगित करते हुए इन्होंने पूरी दुनिया में हल्ला किया की इनकी वजह से कोरोना आया। जिसकी दुनिया भर में निंदा हुई। जब इसके लिए वैक्सीन बनाने की बात आई तो खुद जा जा करके वैक्सीन का निरीक्षण करने लगे और इनका फोटो चारों तरफ कोरोना वायरस की गति से तेज, तेजी से बढ़ने लगा। अब इनकी वैक्सीन बन गई। जिसका श्रेय यहाँ के वैज्ञानिकों को जाना चाहिए था जनाब खुद लूटने लगे ! पर हुआ क्या ? वैक्सीन हिंदुस्तान के लोगों को लगाने की बजाय उसका भी व्यापार करने पर उतर आए। आज के हालात यह हैं की वैक्सीन उत्सव का आयोजन किया गया और वैक्सीन ही नहीं है ?यह अपनी नकारात्मकता छुपाने के लिए सकारात्मकता का एक नया जुमला लेकर अवतरित हुए हैं। कहीं मुहँ नहीं दिख रहा है इनका चरों तरफ लाशें ही लाशें नज़र आ रही हैं और न जाने कितनी हस्तियां चली जा रही हैं आम आदमी की तो छोड़िये।

इनके वैचारिक मुखिया का विचार चारों तरफ प्रसारित हो रहा है कि "जो चले गए वह मुक्त हो गए"। प्रभुवर यदि आप चले जाते तो देश मुक्त हो जाता। यह विचार सोशल मीडिया पर बहुत तेजी से फैल रहा है।
सकारात्मकता लगे पप्पू यादव के साथ इन्होंने क्या किया है उस के संदर्भ में सकारात्मकता का मतलब समझा जाना चाहिए।

...... डा लाल रत्नाकर

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डा मनराज शास्त्री जी के विचार :




रविवार, 16 मई 2021

सकारात्मकता की दुहाई।

सकारात्मकता की दुहाई।


भारत का लोकतांत्रिक स्वरूप भारत के संविधान से बनता है। लेकिन इधर निरंतर देखने को मिला है कि भारत के संविधान पर जिस तरह से नकारात्मक सोच रखने वाले लोग नकारात्मक तरीके से काबिज होकर विनाश की पराकाष्ठा पर पहुंचाकर आज सकारात्मक सोच की बात कर रहे हैं।

जबकि संविधान की मंशा देश को समतामूलक और गैर बराबरी को समाप्त कर एक संपन्न राष्ट्र बनाने की परिकल्पना पर आधारित है। लेकिन लंबे समय से चले आ रहे एक खास सोच के लोगों के बहुत सारे विवादों के चलते यहां की बहुसंख्यक आबादी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रही है। उसके विविध कारण रहे हैं. उसमें राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक कारण बहुत ही महत्वपूर्ण है। इन सब कारणों के साथ-साथ जो एक गैर महत्वपूर्ण कारण है वह है धार्मिक कारण।

जैसे ही हम धार्मिक कारण पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि धर्म एक ऐसा निरंकुश हथियार है जो आतंकवादियों की तरह उन लोगों के हाथों में है जो लोग संविधान नहीं मानते।  मानवता का अर्थ नहीं समझते। निश्चित तौर पर इस तरह का धर्म मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा होता है। और इसी तरह का धार्मिक षड्यंत्र इस लोकतांत्रिक देश को अपने मजबूत पंजो से निकलने नहीं दे रहा है। जिसकी वजह से आज देश त्राहिमाम कर रहा है। यही कारण है कि हमारी पूरी आबादी इस धार्मिक षड्यंत्र के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। उसे संवैधानिक स्वरूप की समझ ही नहीं होने दी जाती। हमारे संविधान में धर्म को मानने और ना मानने का कोई प्रतिबंध नहीं है। धार्मिक रूप से सभी लोग स्वतंत्र हैं और वह किसी भी धर्म को मानने के लिए अपनी अपनी तरह से आजाद हैं। जब से यहां धर्म को हथियार बनाया गया है। इसी धर्म रूपी हथियार के माध्यम से प्राचीन काल से चले आ रहे धर्म को "धार्मिक पाखंड" को धार्मिक आतंकवाद की तरह की उद्घोषणा से जोड़ दिया गया है।  जिसकी वजह से तमाम तरह के लोगों को जो भी उन आतंकवादियों के पाखंडी उदघोषणाओं का विरोध करते हैं। उन्हें निशाना बनाया जा रहा है या जाता रहा है।  और उसी तरह से आज भी बनाया जा रहा है।

अब इस धर्म में यह देखना होगा कि इसमें नकारात्मकता का कितना बोलबाला है। यदि हम एक एक बिंदु पर विचार करें तो पाएंगे कि जितना समय हम अपने अधिकारों के लिए या उनको जानने के लिए नहीं देते उससे ज्यादा समय हम धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड के कार्यक्रम एवं उन पर चलने के लिए कथित रूप से आस्था के नाम पर भयभीत होकर शामिल होने में बाध्य हो जाते हैं। जिन घरों में लाइब्रेरी बनाए जाने की जगह मंदिर या पूजा गृह बनाए जाते हैं उसके साथ ही हर एक ऐसी जगह किसी देवी देवता को लगा दिया जाता है। जिसकी वजह से वहां यह धर्म विराजमान रहे इसकी व्यवस्था स्वतः हो जाती है। इस धर्म में जिस तरह की अलौकिक संरचनाएं की गई हैं जो किसी भी तरह से वैज्ञानिक नहीं है ? किसी को आठ दश मुंह किसी को 15-20 भुजाएं, और न जाने कितने प्रकार के कपोल कल्पित निर्माण से ऐसा निर्माण किया जाता है जिससे प्रामाणिक रूप से पाखंड से लगभग 33 लाख देवी देवताओं की रचना की गई है।

यह तो तय है की निश्चित रूप से प्राचीन काल से चतुर लोगों ने जिस तरह से षड्यंत्र करके  इस तरह के धर्म की संरचना की होगी उससे ही सारी संपत्ति को एक तरह से अपने लिए सुरक्षित करने हेतु इस प्रकार के नाना प्रकार के षड्यंत्र कर ऐसे ऐसे ग्रंथ बना रखे हैं, जिसमें समता समानता और बराबरी का कोई पक्ष ही नहीं है। इसी तरह से कालांतर में हमारे समाज में भी नैतिक रूप से समता समानता और बराबरी का अधिकार ना मिलने पाए इसके निरंतर उपक्रम करते रहे गए हैं और किए जा रहे हैं। हम देखते हैं कि जिन जगहों पर लोगों को ज्ञान के लिए अध्ययन का केंद्र बनाया जाना चाहिए था वहां पर बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण किया गया और इन्हीं मंदिरों के माध्यम से धर्म का नियंत्रण रखा जाने लगा जहां इस तरह की भावनाओं का प्रचार प्रसार किया गया कि व्यक्ति अंधा होकर उस केंद्र की तरफ स्वत: आकर्षित होता हुआ प्रस्थान करता रहा।

*आज यह हालात है कि कल तक जिनको उन मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी और ना ही उन मंदिरों में शासन करने वाले लोगों से उठने बैठने और स्पर्श करने की आजादी थी आज उन्हें बड़े-बड़े अभियान चलाकर धार्मिक बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है।

इसका ताजा उदाहरण ले तो हम पाएंगे कि दुनिया की सबसे चालाक कॉम जिसे यहूदी कहा जाता है हिटलर ने उसे गैस चैंबर में डाल डाल कर मारा था लेकिन आज उसी चतुर कौम ने पूरी दुनिया पर अपना एकाधिकार जमाया हुआ है। मूल रूप से फिलिस्तीनीओं पर हमलावर है। 

वैज्ञानिक आधार पर जिन चीजों का विकास हो सकता था और जिनके माध्यम से दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता था।  उसको लंबे समय से दुनिया के बहुत ऐसे मुल्क जहां धर्म का आधिपत्य है प्रभावी नहीं होने दिया।  हालांकि जब यूरोप के बारे में अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने पूरी दुनिया के लिए धर्म छोड़कर जिस तरह से वैज्ञानिक आविष्कार किए उसका परिणाम यह हुआ कि आज वह पूरी दुनिया में विज्ञान की वजह से सर्वोच्च स्थान पर हैं ना कि धर्म की वजह से।

हम बात कर रहे हैं नकारात्मकता कि जिसकी वजह से उन लोगों को जिनकी नकारात्मक सोच है सकारात्मक सोच की बात करने की साजिश करनी पड़ी है।

हम यह हमेशा जानते हैं कि किसी भी तरह का आतंकवाद, किसी भी तरह से मानववादी या मानवतावादी कदम नहीं हो सकता ? लेकिन हम धार्मिक आतंकवाद अनैतिक आतंकवाद और धूर्तता के विविध रूपों में जब आतंकवाद की खोज करते हैं। तब पाते हैं कि जिसको अभी तक हमने संत समझा हुआ था वह मूल रूप से अपराधी और आतंकवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति है। इसके हजारों उदाहरण आपको रोज मिलेंगे जब आप इस पर विचार करेंगे या विमर्श करेंगे, धार्मिक आतंकवाद हमेशा मानवतावाद को कमजोर करता है और ऐसे झूठ फरेब अंधविश्वास चमत्कार को परोसता है जिससे अज्ञानता का प्रसार बढ़ता जाता है। तब तब धार्मिक आतंकवादी अपना आतंक निरंतर फैलाता जाता है। 

अब यहां पर आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल धर्म के साथ करने से मेरा तात्पर्य वही है जो किसी भी आतंकवाद का संबंध किसी व्यवस्था के साथ होता है। धर्म लगाते ही अधर्म पर वह चलने के लिए एक तरह का अधिकार प्राप्त कर लेता है क्योंकि उसके हाथ में धर्म है वह जो कुछ भी करेगा उसे माना जाएगा कि यही धर्म है। जबकि धर्म और अधर्म का निर्धारण जब वैज्ञानिक आधार पर लिया जाता है तब सही और गलत से उसका मतलब होता है और लोक में इसी तरह की मान्यता रही है।

लोक में व्याप्त मान्यताओं के आधार पर उनके प्राकृतिक उपादान निरंतर धर्म का स्थान लेते रहे हैं। और धार्मिक शब्द उनके लिए उत्पादन से जुड़ा होता था। जिसकी वजह से वह नाना प्रकार के आयोजन करते थे, और अपने उत्पाद पर प्रसन्नता जाहिर करते रहे होंगे।  यथा फसलों का फलों का दूध दही का या पुत्र पुत्रियां और उपयोगी पशुओं के संवर्धन और खुशहाली को हमेशा उन्होंने पर्व के रूप में मनाया होगा। ऐसी परंपरा का आज भी हमारे लोक और कबिलाई समूहों में वह स्वरूप बचा हुआ है।

लेकिन जिस तरह के आतंकवाद का चेहरा धर्म के पीछे छुपा हुआ नजर आता है। उससे यहां की प्राकृतिक मान्यताओं का दोहन करके उन्हें ठगने का स्वरूप तैयार किया गया।  वही स्वरूप धीरे धीरे धीरे धीरे 33 लाख देवी देवताओं के रूप में परिवर्तित हो गया। इसका केंद्र किसी एक धर्म के नाम पर सुरक्षित कर दिया गया। और वह धर्म जो सबसे ज्यादा खतरे में बताया जाता है। वह न जाने कितने लोगों की जिंदगी को हजारों हजार साल से तबाह किए हुए बैठा है।

ज्ञातव्य है कि उस धर्म से समय-समय पर तमाम लोगों ने विद्रोह करके अपने अलग-अलग धर्म बनाए। लेकिन कालांतर में उन धर्मों में भी इसी तरह का आतंकवादी पहुंच करके उस पूरे धर्म को या तो कब्जा कर लिया या तो नष्ट कर दिया। हालांकि जो धर्म अभी दिखाई देते हैं और उन में समता समानता और बंधुत्व का संदर्भ महत्वपूर्ण है उसे भी धीरे-धीरे इन्हीं आतंकवादियों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से उसी तरह का बना दिया है। जैसा यह धर्म के नाम पर करते आए हैं।

सकारात्मक सोच की जरूरत तभी पड़ती है जब नकारात्मक सोच अपना आधिपत्य जमा लेती है नकारात्मक तरीके से धार्मिक आतंकवाद का सहारा लेकर जब साम्राज्य बनाया जा रहा था। तो उस साम्राज्य को बनाए रखने के लिए सकारात्मक सोच की जरूरत तो पड़ेगी ही। अन्यथा उस साम्राज्य के स्थापना और अवस्थापन को लेकर जब नकारात्मक सोच उसमें छिद्रान्वेषण करेगी, तब पता चलेगा कि किस तरह से धार्मिक आतंकवाद संवैधानिक अधिकारों को भी कमजोर करने में सफलता प्राप्त कर लेता है।

आइए हम सकारात्मक सोच पर विमर्श जारी रखें ? क्या जो आज इस सकारात्मक सोच की बात कर रहे हैं उन्होंने अब तक कौन सी सकारात्मक सोच अख्तियार की है। उदाहरण आपके सामने हैं, प्रमाण आपके सामने हैं, देश की व्यवस्था आपके सामने है, जरा इन सब का मूल्यांकन संवैधानिक तरीके से करिए तो इनकी सकारात्मकता का पूरा ताना-बाना आपकी समझ में आ जाएगा। यह एक नए तरह का एजेंडा है जिसके सहारे अपने ही सारे अपराधियों और अपराधों को आवरण पहनाकर उन्हें सकारात्मक करने की साजिश है। जिसे सही साबित करने का अभियान चलाया जा रहा है। जिसे किसी महत्वपूर्ण संगठन ने जो उसका मुखिया है, उसके बयान से अच्छी तरह से देखा जा सकता है।  कि "जो चले गए वह मुक्त हो गए" ऐसे अपराधिक प्रवृत्ति के आतंकवादी को पहचानने की जरूरत है। .क्योंकि संविधान जीवन और जीवन की सुरक्षा के लिए सरकार का दायित्व सुनिश्चित करता है। और यहां पर जाने के लिए जिस बेरहमी और अव्यवस्था की वजह से लाखों की संख्या में लोग चले गए अपने पीछे उन तमाम लोगों को छोड़ गए जो आज बेसहारा हो गए हैं। उनके लिए किसी संगठन के मुखिया का यह संबोधन कितना उचित है ? कि जो चले गए वह मुक्त हो गए।


"जो चले गए वह मुक्त हो गए" ऐसे अपराधिक प्रवृत्ति के आतंकवादी को पहचानने की जरूरत है।

इस लेख के अंत में यही कहना चाहूंगा कि इस व्यक्ति को जो इस तरह का उच्चारण कर रहा है अब उसको चला जाना चाहिए और अपने आतंकवाद से लोगों को मुक्त कर देना चाहिए।

-डॉ लाल रत्नाकर 




 

शुक्रवार, 14 मई 2021

एक बार भी "श्मशान" की बात नहीं कर रहा है ?


                                                          (कार्टून बीबीसी से साभार) 

बीबीसी के कार्टूनिस्ट कीर्तीश ने इसमें सब कुछ तो कह दिया है, लेकिन दिक्कत यह है कि पिछले 7 सालों से कलाओं के विविध रूपों पर जितना बड़ा हमला हुआ है उसकी वजह से कार्टून में भी अब भक्ति ही दिखती है। शायद भक्तों को यह समझ में नहीं आ रहा हो कि जो व्यक्ति देश की संपदा को उपहार के रूप में भिक्षा स्वरूप किसानों को ₹2000 उनके खातों में ट्रांसफर करके किसान सम्मान निधि की बात कर रहा है। अब वह एक बार भी "श्मशान" की बात नहीं कर रहा है, दुश्मन को अदृश्य बता रहा है और जबकि सबको यह दिख रहा है कि असली दुश्मन कौन है! और वही ऐसा बोल रहा है।

सरकार में आने से पहले जिस तरह से लच्छेदार भाषणों से जनता को गुमराह कर रहा था उस समय भी मैं यही कहा करता था कि यह लोग देश संभालने की सामर्थ्य नहीं रखते। बल्कि देश को बर्बाद करने के लिए अवाम को गुमराह किया जा रहा है। लेकिन हमारे घरों में भी बैठे हुए लोग इस तरह से इन जाहीलों की तरह उसकी बातों पर भरोसा कर रहे थे ? करते भी क्यों न पंद्रह पंद्रह लाख उनके खतों में आ रहे थे ! जैसे उसके पास जादू की छड़ी है और वह उस जादुई छड़ी से सारी समस्याओं को छू कर के फुर्र कर देगा।

आपदा में अवसर एक ऐसा मुहावरा है जिसने इस पूरी सरकार की सोच और चरित्र को उजागर कर दिया, नफरत के नारे गढ़ गढ़ करके इन्होंने पूरी आवाम में जहर बो दिया, वही जहर आज मन मस्तिष्क में समा गया है। जिस प्रकृति को शुद्ध और अशुद्ध को ठीक कर उसमें जीवन भरने की जो क्षमता थी ,उसे भी इन्होंने ऐसे बदलने की कोशिश की जिससे एक छोटे से उदाहरण से आपको समझाया जा सकता है। मैंने इस बीच देश में हजारों विद्यालय महाविद्यालय और विश्वविद्यालय देखें उनके भीतर जो शिक्षा की सामग्री थी उसको चूस करके नई शिक्षा सामग्री भरने की कोशिश की गई। और वह शिक्षा सामग्री क्या होगी इसका कोई खुलासा नहीं किया गया। उल्टे उन संस्थानों की दीवारों को लुभावने लुभावने नारों से रंगवा दिया गया, अब यह रंग रोगन किस काम के लिए हुआ है। इसका खुलासा कौन करेगा ? कौन इनकी इस मानसिकता को समझेगा कि जो गैस तीन साढे ₹300 में बिक रही थी, उस गैस की कीमत हजार रुपए पहुंचा दिया। और उज्जवला योजना का नारा दे दिया। जो पेट्रोल ₹65 से ऊपर जाने पर यह कनस्तर और बोतल लेकर सड़क पर निकल आते थे आज वह 100 के पार हो गया है। खाने पीने की चीजें आसमान छू रही हैं। किसान सड़कों पर बैठा हुआ है जिसको यह भगवान बना करके उसकी कीमत दुगनी करने वाले थे।

मैंने कल भी कहा था कि जो तकनीकी रूप से व्यापार की कूटनीति जानता है उसने राष्ट्र भक्त होने के नाम पर राष्ट्र को बर्बाद करके रख दिया है। और यहां तक की इन राष्ट्र भक्तों की नियत आपकी जेब ही नहीं आपकी जमीर तक पहुंच गई है। मुझे याद है बचपन में स्कूल के दौर में एक हलवाई का बेटा हम लोगों का साथी हुआ करता था, साथ ही पढ़ता था लेकिन उसका मन पढ़ने में कभी नहीं लगता था। क्योंकि उसके मोटे बाप की जो मिठाई के दुकान थी, उस पर उसे गुमान था। कि हमें पढ़ने लिखने से क्या काम ?

पिछले दिनों कुछ लोगों की डिग्रियों को लेकर बहुत सारी हाय तौबा मची हुई थी। मीडिया भी इनकी नकली नकली डिग्रियां उजागर कर रहा था, पर कमाल की बात इन्होंने अपने पहले ही मंत्रिमंडल में एक अपढ महिला को हायर एजुकेशन का मंत्री बना दिया था। अब यहीं से आप इनकी सोच का अंदाजा लगा सकते हैं। कि इनकी शिक्षा के प्रति और विज्ञान के प्रति क्या सोच और समझ होगी। उसी समय की बात है शिक्षा के क्षेत्र में जितने भी तरह के प्रोग्राम चल रहे थे। रिसर्च और वैज्ञानिक अध्ययन से संबंधित उन पर रोक लगा कर के न जाने किस नई शिक्षा की बात की जा रही थी। धीरे धीरे विश्वविद्यालयों को गुरुकुल बनाने पर उतर आए थे। इनके गोबर भक्त गुंडे जे एन यू जैसे संस्थानों पर हमला कर रहे थे वहां के विद्यार्थियों को देशद्रोही साबित करने पर लगे हुए थे क्या प्रधान सेवक जी इन सब बातों से अनभिज्ञ थे ? और इस बीच इन के जितने भी शिक्षा मंत्री आए अपढ से अज्ञान की तरफ ही बढ़ते गए। इनके कुल (संघ) के ही एक हमारे साथी बार-बार कहा करते हैं कि इन्हे ज्ञान नहीं होता यह रट्टू तोते होते हैं। इन्हें जितना पढ़ा दिया गया है बस उसी को बार-बार यह रटते रहते हैं। यानी इनका नागपुर जो कहता है उसी को ही यह अपना पाठ्यक्रम मानते हैं और उसी पर चलते हैं।

आइए हम झूठ के महाअभियान की ओर चलते हैं जिनको इन्होंने गढकर राष्ट्र गौरव बढ़ाने का प्रयास किया है। अब आप इस कार्टून पर चलिए और जो मैसेज दिया गया है कि दुश्मन भले नहीं दिखाई दे रहा हो लेकिन जिस पर हमला हो रहा है उसको तो देखिए? यदि वह दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास में बैठकर न दिखाई दे रहा हो तो किसी भी नदी के किनारे या दिल्ली के किसी "श्मशानघाट" पर चले जाइए, और वैसे ही वहां धूनी रमा लीजिए जैसे 2019 के चुनाव परिणाम के समय आप किसी कंदरा में जाकर बैठ गए थे। निश्चित रूप से आपकी अंधभक्ति, अंधविश्वास, चमत्कार और अखंड पाखंड टीम इस काम के लिए लग गई होगी कि कैसे इस अवस्था में पहुंचे थे इसको नेहरू या विपक्ष पर थोप कर। फिर से विश्वास दिलाया जाए कि बगैर आपके यह देश नहीं चलेगा, जिस अमरत्व की दवा से आप उम्मीद करते हैं कि आप इतनी बड़ी महामारी में भी सुरक्षित रहेंगे ? उसकी कुछ खुराक आम आदमी तक पहुंचा दीजिए ? दुश्मन की नजर से जिसे उसे बचाया जा सके जिनसे कल आप ताली थाली और घंटे घड़ियाल बजवा रहे थे, उन्हें भी अपने अमरत्व की कुछ बूंदे भिजवाईए ना।

हम अब भी जानते हैं, आप जिस पद पर विराजमान हो ! उसके लायक ना आप पहले थे ? ना आज हैं ! लेकिन बहुरूपीये के भेष में जिसको आप ने खुद कहा है कि मौजूदा समय का दुश्मन भी बहुरूपीया के रूप में भेश बदल बदल कर आ रहा है ? सचमुच क्या वह यह सब आप से ही सीखा है ? या उसको सिखाने वाला कोई और है जो आपका अदृश्य दुश्मन से मिला हुआ है ? यहाँ हमें हमारे बहादुर सैनिकों की याद आती है ? यद् आती है 2002 के गुजरात के नरसंहार की और यद् आती है बाबरी विध्वंश की ? हज़ारों की संख्या में मारे गए दलित पिछड़े मुस्लिम नवजवानों और महिलाओ की ? आपके मोब्लिंंचिंग प्रोग्राम की ? क्योंकि इन्हे आपने रोकने का नहीं बढ़ने का पूरा प्रयास किया था आपकी सोसल मिडिया टीम ने ?

अक्सर कहा जाता है कि जो व्यक्ति जिस माहौल में रहता है,उसी तरह की भाषा बोलता है। मेरे ख्याल से आपकी भाषा में आपका परिवेश निरंतर प्रभावी हो गया है। बहुरूपिया शब्द हो सकता है गलती से निकल आया हो जैसे देश की आबादी के बारे में आप का पिछले दिनों का बयान काफी लोगों के बीच चर्चा का विषय बना था। उसी तरह ज्ञान और अज्ञान का समंदर आपको निरंतर इस बात के लिए झकझोर रहा होगा कि जो कुछ आप कर रहे हैं वह राष्ट्रहित में नहीं है। राष्ट्र के लोगों के हित में नहीं है। आपके कारपोरेट अस्पताल आयुष्मान योजना,आपदा में अवसर, क्रूरता में करुणा, सबका साथ सबका विकास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, किसानों की दुगनी आमदनी, बेरोजगारों को प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियां, नोटबंदी, जीएसटी, लाकडाउन, पुलवामा और कश्मीर चीन और पाकिस्तान, अमेरिका और इजरायल सब की पोल खोल कर के रख दिया है।

आपके दो प्रमुख मित्र जिन्हें आपने इस समय देश की अधिकांश संपदा दे चुके हैं हम आपके छोटे मोटे रिश्तेदारों की बात नहीं करते क्योंकि आपने अपने प्रचार में इस तरह से लोगों को दीवाना बना रखा है कि उसके पास ना तो बेटा है ना तो बेटी है किसके लिए बेईमानी करेगा। आपके मित्र व्यापारीगण आपके परिवार और जिनके पास बेटी बेटा हैं उनसे भी ज्यादा करीबी हैं। क्योंकि अन्य सरकारों में यह व्यापारी थे और इन पर टैक्स चोरी आदि के तमाम मामले लंबित थे जिसको इन्होंने आपका सहयोग कर और सहयोग पा करके अच्छी तरह अपने को मजबूत करने में लगाया है। गलती से नहीं सही सही से आपने राष्ट्र की संपदा और राष्ट्र की फायदा पहुंचाने वाली तमाम सरकारी संपत्तियों को इन्ही मित्रों को औने पौने भाव में घुमाफिराकर उन्हें देने में कोई कोर कसर की है क्या ? अगर इन सब की समीक्षा जबी भी संविधान समझने वाले और पढ़ी-लिखी जनता करेगी तो निश्चित तौर पर आपकी इतने कम समय में इतनी बड़ी धांधली भ्रष्टाचार अराजकता और देशद्रोह तक का मामला बनता हुआ नजर आता है उसपर गंभीरता से न्यायालय भी जरूर निर्णय लेंगे ?

मगर हमारे देश की भक्त जनता को इन सब बातों पर विमर्श करने के लिए आपने छोड़ा ही नहीं है। क्योंकि उन्हें आपने धर्म की अफीम पिलाई हुयी है, उन्हें आपने हिंदू और मुसलमान का भेद समझाया है। जिस भेद को धीरे धीरे हमारे देश में कम किया जा रहा था। आपने उसको बढाया है। आपने 1-1 जाति को बांटकर और पकड़कर उसको फुशलाया है? उसको उसके बड़े आंदोलनों से काटा है, यही एक प्रचारक के रूप में आपकी क्षमता की उपलब्धि रही है। जिसमें झूठ और नकारेपन का, अज्ञानता का समावेश कूट-कूट करके आपको कराया गया है, झूठ को इस तरह से बोलना है कि उसको लोग सच मान ले? चीजों को इस तरह से हड़पना है कि लोग उसे आपका अधिकार समझ ले?

माननीय वित्त मंत्री जब इस बार का बजट प्रस्तुत कर रही थी तो उन्होंने बजट में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज दी थी वह था "विनिवेश" कितने लोग भी विनिवेश समझते हैं प्रभुवर ! आपकी इस चालाकी का असर गली - गली में सब्जी बेचने वाले तक पर पड़ा है। आपकी इस चालाकी का असर और न जाने कितने कितने लोगों पर पड़ा है। जिसकी वजह से आज देश त्राहिमाम कर रहा है। एक भी सरकारी अस्पताल को आपने ऊंच्चीकृत नहीं किया होगा ? बल्कि, उसे बेचने और रोकने का काम किया होगा। यही था आपका नया भारत बनाने का सपना ? आज नया भारत आत्मनिर्भर होकर श्मसान घाट तक जा रहा है। और कई घरों तक तो श्मशान घाट चल करके आ जा रहा है।

आपके विकास का यह मॉडल विनाश की जिस लीला को शुरू किया है इसके पीछे आपकी मानसिकता का एहसास होता है। आज इस महामारी पर दुनिया भर में काम हो रहा है, आपके मित्र देश जहां प्रचार करने गए थे वहां पर मास्क हटा दिया गया है। आप की आवाजाही पर रोक लगा दी गई है। आप उससे भी तो कुछ सीखते आप भारत को अमेरिका बनाने चले थे ? क्या आपने पढ़ा था अमेरिका कैसे बनता है या बना है ? और अमेरिका बनाने वाले लोग कौन हैं ? नहीं वहां पर व्यापार और आविष्कार दोनों साथ साथ चलते हैं। जुमले नहीं चलते ? वहां केवल व्यापार का मतलब अपनी व्यापारियों को देश सौंप देना नहीं होता ? पिछले दिनों जिस विचारधारा के राष्ट्रपति को जिताने के लिए आप अमेरिका गए थे उसी आपके राष्ट्रपति ने जाते जाते जो जहर दिया है जब आप उसे बाइब्रेन्ट गुजरात दिखने लाये थे। उसे अब आपने गांव गांव तक पहुंचा दिया है। यही लेने गए थे आप मोदी हावडी ट्रंप क्या खेल कर रहे थे भारत में क्या ऐसी स्थितियां नहीं थी। जिनकी वजह से आप इस देश के शिक्षा संस्थानों को इस देश के प्रतिष्ठानों को विकसित करते मान्यवर ! दुनिया भर में विकास के जो मानदंड हैं उन्होंने आपको चकाचौंध तो किया ?
लेकिन आप पागलपन के दंश से निकल नहीं पाए ?

क्योंकि जरूरी नहीं है कि सभी लोग हिंदू बनकर के हिंदू धर्म की विकृतियों को ओढ़कर आम आवाम अंँधा बना रहे और थोड़े से लोग आनंद लेते रहे ? अगर इन्ही के कारनामों को जन जन तक ठीक से फैलाए होते आप तो शायद आपको एक अलग तरह का भारत मिलता। जिसका पूरा मौका देश ने आपको दिया था। अगर आपको यह गलतफहमी है कि आपने अपने उस कथित धर्मवाद से लिया था तो दोनों तरह से आपकी जिम्मेदारी बनती है कि यह देश सुरक्षित रहता?

क्या सचमुच यह कार्टून यह नहीं कह रहा है कि आपको सत्य नहीं दिखाई दे रहा है ? सत्य देखिए ! देश कराह रहा है और यहां पर जीवन रक्षक दवाओं, ऑक्सीजन, विस्तर, अस्पताल नहीं है जिसकी वजह से जनमानस को अपना जीवन बचाने की जो हालत बनकर खड़ी है ? यह महामारी निक्कम्मी सरकार की अनुभवहीनता और संघी मानसिकता की वजह से है जो पूंजीवादी विचारों की है और समाजवादी सोच के पतन की वजह से आ गई है जो बहुत भयावह है।

इसीलिए जरुरी है की यह देश और लोकतंत्र समाजवादी समतामूलक और पाखण्ड मुक्त नीतियों से चलेगा जिसमें सबका विकास सन्निहित होगा।

डॉ. लाल रत्नाकर

अर्जक संघ

अर्जक विवाह पद्धति :

यह पद्धति ब्रह्मिणवादी पाखंड से अलग है जिसे उत्तर भारत में राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

इसके लिए पूर्वांचल में डॉ मनराज शास्त्री एवं श्री राम आश्चर्य यादव (नेता) ने प्रचारित और प्रसारित किये। 


अर्जक संघ : 

रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998), एक समाजवादी नेता थे जिन्होने अर्जक संघ की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का 'कबीर' कहा जाता है।

‘धार्मिक यंत्रणाएं, एक साथ और एक ही समय में वास्तविक यंत्रणाओं की अभिव्यक्ति तथा उनके विरुद्ध संघर्ष हैं। धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, निष्ठुर, हृदयहीन संसार का हृदय, आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है।  यह लोगों के लिए अफीम है। मनुष्य ने धर्म की रचना की है, न कि धर्म ने मनुष्य को बनाया है।’ᅳकार्ल मार्क्स 

दुनिया में अनेक धर्म हैं, लेकिन अपने ही भीतर जितनी आलोचना हिंदू धर्म को झेलनी पड़ती है, शायद ही किसी और धर्म के साथ ऐसा हो। इसका कारण है जाति-व्यवस्था, जो मनुष्य को जन्म के आधार पर अनगिनत खानों में बांट देती है।  ऊंच-नीच को बढ़ावा देती है। मुट्ठी-भर लोगों को केंद्र में रखकर बाकी को हाशिये पर ढकेल देती है। ऐसा नहीं है कि इसकी आलोचना नहीं हुई। बुद्ध से लेकर आज तक, जब से जन्म हुआ है, तभी से इसके उपर उंगलियां उठती रही हैं। जाति और जाति-भेद मिटाने के लिए आंदोलन भी चले हैं, बावजूद इसके उसे मिटाना चुनौतीपूर्ण रहा है। उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक जागरण के दौरान, यह मानते हुए कि बिना धर्म को चुनौती दिए जातीय भेदभाव से मुक्ति असंभव हैᅳजोतीराव फुले ने हिंदू धर्म तथा उसको संरक्षण देने वाले वर्चस्ववादी जाति-व्यवस्था पर सीधा प्रहार किया। उसके बाद उसे बहुआयामी चुनौती डॉ.  आंबेडकर, ई. वी. रामास्वामी पेरियार, स्वामी अछूतानंद, नारायण गुरु आदि की ओर से मिली। 

जिन दिनों देश में आजादी की राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही थी, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘त्रिवेणी संघ’  पिछड़ी जातियों और अछूतों के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संघर्ष कर रहा था। आजादी के बाद 1970 के दशक में गठित अर्जक संघ ने जातीय शोषण और धार्मिक आडंबरवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की। इसके प्रणेता थे रामस्वरूप वर्मा। आरंभ में उसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के कानपुर और आसपास के क्षेत्रों व मध्य बिहार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित था। पिछले कुछ वर्षों से उसकी लोकप्रियता में तेजी आई है। संचार-क्रांति के इस दौर में सैकड़ों युवा उससे जुड़ चुके हैं।  इसके फलस्वरूप वह उत्तर प्रदेश की सीमाओं से निकलकर बिहार, उड़ीसा जैसे प्रांतों में भी जगह बना रहा है। 

रामस्वरूप वर्मा

अर्जक संघ की स्थापना रामस्वरूप वर्मा ने 1 जून 1968 को की थी।  इसके प्रचार-प्रसार में उनका साथ दिया ललई सिंह यादव और बिहार के लेनिन कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने। इनके अलावा इस आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम महाराज सिंह भारती, मंगलदेव विशारद जैसे बुद्धिवादी चेतना से लैस नेताओं ने किया। इन सभी का एकमात्र उद्देश्य था, सामाजिक न्याय की लड़ाई को विस्तार देना।  ऊंच-नीच, छूआछूत, जात-पांत, तंत्र-मंत्र, भाग्यवाद, जन्म-पुनर्जन्म आदि के मकड़जाल में फंसे दबे-कुचले लोगों को, उनके चंगुल से बाहर लाना।  

दरअसल, जोतीराव फुले हिंदू धर्म की विकृतियों की ओर बहुत पहले इशारा कर चुके थे।  उसके बाद से ही उसमें सुधार के दावे किए जा रहे थे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब दलितों और पिछड़ों का नेता कहलाने की होड़-सी मची थी। उससे लगता था कि लोकतंत्र जातीय वैषम्य को मिलाने में सहायक होगा। लेकिन हो एकदम उलटा रहा था। जिन नेताओं पर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी थी, वे चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगते थे। पुरोहितों के दिखावे और आडंबर में कोई कमी नहीं आई थी।  कहां यह विश्वास जगा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण ऊपर से समाज के निचले वर्गों पर होने वाले जाति-आधारित हमलों में कमी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक प्रकार से उन्होंने साफ कर दिया था कि हिंदू धर्म के नेता अपनी केंचुल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। वे जाति और धर्मांधता को स्वयं नहीं छोड़ने वाले। लोगों को स्वयं उसके चंगुल से बाहर आना पड़ेगा। पिछले आंदोलनों से यह सीख भी मिली थी कि जाति-मुक्त समाज के लिए धर्म से मुक्ति आवश्यक है।  मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म मनुष्यता है। जियो और जीने दो उसका आदर्श है। मामला धार्मिक हो या सामाजिक, मनुष्य यदि अपने विवेक से काम न ले तो उसके मनुष्य होने का कोई अर्थ नहीं है।  

पिछड़ी जाति के किसान परिवार में हुआ रामस्वरूप वर्मा का जन्म

रामस्वरूप वर्मा का जन्म कानपुर(वर्तमान कानपुर देहात) जिले के गौरीकरन गांव में पिछड़ी जाति के किसान परिवार में दिनांक 22 अगस्त 1923 को हुआ था।  उनके पिता का नाम वंशगोपाल और मां का नाम सुखिया देवी था। चार भाइयों में सबसे छोटे रामस्वरूप वर्मा की प्राथमिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई।  हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। वहां से 1949 में हिंदी में परास्नातक की डिग्री हासिल की।  उसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। वे शुरू से ही मेधावी थे। हाईस्कूल और उससे ऊपर की सभी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थीं।  

छात्र जीवन से ही रामस्वरूप वर्मा की रुचि राजनीति में थी। वे समाजवादी विचारधारा के निरंतर करीब आ रहे थे। उनका संवेदनशील मन सामाजिक ऊंच-नीच और भेदभाव को देखकर आहत होता था।  लोहिया उनके आदर्श थे। माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उच्चाधिकारी बने। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए रामस्वरूप वर्मा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाएं दीं और उत्तीर्ण हुए।  उन्होंने प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने इतिहास को चुना था और सर्वाधिक अंक उसी में प्राप्त किए थे, जबकि परास्नातक स्तर पर इतिहास उनका विषय नहीं था। यह उनकी मेधा ही थी। एक अच्छी नौकरी और भविष्य की रूपरेखा बन चुकी थी, लेकिन नौकरी के साथ बंध जाने का मन न हुआ।  वे स्वभाव से विनम्र, मृदुभाषी तथा आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा था। इसलिए प्रशासनिक सेवा के लिए साक्षात्कार का बुलावा आया तो उन्होंने शामिल होने से इन्कार कर दिया।  

महज 34 साल की उम्र में बने विधायक

परिचितों को उनका फैसला अजीब लगा। कुछ ने टोका भी।  लेकिन परिवार को उनपर भरोसा था। इस बीच उनकी डॉ. राममनोहर लोहिया और सोशलिष्ट पार्टी से नजदीकियां बढ़ी थीं।  सार्वजनिक जीवन की शुरुआत के लिए उन्होंने अपने प्रेरणा पुरुष को ही चुना। वे सोशलिष्ट पार्टी के सदस्य बनकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए।  1957 में उन्होंने ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप में कानपुर जिले के भोगनीपुर से, विधान सभा का चुनाव लड़ा और मात्र 34 वर्ष की अवस्था में वे उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बन गए।  यह उनके लंबे सार्वजनिक जीवन का आरंभ था। अगला चुनाव वे 1967 में ‘संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी’ के टिकट पर जीते। गिने-चुने नेता ही ऐसे होते हैं, जो पहली ही बार में जनता के मनस् पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते हैं।  रामस्वरूप वर्मा ऐसे ही नेता थे। जनमानस पर उनकी पकड़ थी। लोहिया के निधन के बाद पार्टी नेताओं से उनके मतभेद उभरने लगे। 1969 का विधानसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और जीते। स्वतंत्र राह पकड़ने की चाहत में उन्होंने 1968 में ‘समाज दल’ नामक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की थी। उद्देश्य था, समाजवाद और मानवतावाद को राजनीति में स्थापित करना। लोगों के बीच समाजवादी विचारधारा का प्रचार करना।  उनका दूसरा लक्ष्य था, ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए अर्जक संघ की वैचारिकी को घर-घर पहुंचाना।  

समाज दल और शाेषित दल का विलय

रामस्वरूप वर्मा द्वारा समाज दल की स्थापना से कुछ महीने पहले जगदेव प्रसाद ने 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ का गठन किया था।  दोनों राजनीतिक संगठन समानधर्मा थे। क्रांतिकारी विचारधारा से लैस। ‘शोषित दल’ के गठन पर जगदेव प्रसाद ने ऐतिहासिक महत्त्व का, क्रांतिकारी और लंबा भाषण दिया था।  उन्होंने कहा था

‘जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डालने जा रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी।  चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी।  परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।  जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी। ’ 

जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा दोनों व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त थे। दोनों ने साथ आते हुए  7 अगस्त 1972 को ‘शोषित दल’ और ‘समाज दल’ के विलय कर बाद ‘शोषित समाज दल’ की स्थापना की। 1980 तथा 1989 के विधानसभा चुनावों में वर्मा जी ने ‘शोषित समाज दल’ के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया।  दोनों बार उन्होंने शानदार जीत हासिल की। 1991 में उन्होंने ‘शोषित समाज दल’ के उम्मीदवार के रूप में छठी बार विधान सभा चुनावों में जीत हासिल की। 

मानव-मानव एक समान का नारा 

राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

हालांकि यह कोई नई पहल नहीं थी। जाति मुक्ति के लिए पेशा-मुक्ति आंदोलन की शुरुआत 1930 से हो चुकी थी।  आगे चलकर अलीगढ़, आगरा, कानपुर, उन्नाव, एटा, मेरठ जैसे जिले, जहां चमारों की संख्या काफी थीउस आंदोलन का केंद्र बन गए।  आंदोलन का नारा था‘मानव-मानव एक समान’।  उन दिनों गांवों में मृत पशु को उठाकर उनकी खाल निकालने का काम चमार जाति के लोग करते थे।  जबकि चमार स्त्रियां नवजात के घर जाकर नारा(नाल) काटने का काम करती थीं। समाज के लिए दोनों ही काम बेहद आवश्यक थे।  मगर उन्हें करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अछूत मानकर उनसे नफरत की जाती थी। डॉ. आंबेडकर की प्रेरणा से 1950-60 के दशक में उत्तर प्रदेश से ‘नारा-मवेशी आंदोलन’ का सूत्रपात हुआ था।  उसकी शुरुआत बनारस के पास, एक दलित अध्यापक ने की थी। चमारों ने एकजुटता दिखाते हुए इन तिरस्कृत धंधों को हाथ न लगाने का फैसला किया था। इससे दबंग जातियों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक था। आंदोलन को रोकने के लिए उनकी ओर से दलितों पर हमले भी किए गए।  बावजूद इसके आंदोलन जोर पकड़ता गया। 

रामस्वरूप वर्मा अपने संगठन और सहयोगियों के साथ ‘नारा मवेशी आंदोलन’ के साथ थे।  जहां भी नारा-मवेशी आंदोलन के कार्यक्रम होते अपने समर्थकों के साथ उसमें सहभागिता करने पहुंच जाते थे। अछूतों के प्रति अपमानजनक स्थितियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए उन्होंने ‘अछूतों की समस्याएं और समाधान’ तथा ‘निरादर कैसे मिटे’ जैसी पुस्तिकाएं लिखी।उनमें जातीय आधार पर होने वाले शोषण और अछूतों की दयनीय हालत के कारणों पर विचार किया गया था। चमार जाति के लोगों द्वारा पारंपरिक पेशा जिसमें मरे हुए पशुओं की खाल निकालना और उनकी लाशों को उठाना आदि शामिल था, के बायकाट की सवर्ण हिंदुओं में प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी था। उनकी ओर से चमारों पर हमले किए गए। रामस्वरूप वर्मा ने प्रभावित स्थानों पर जाकर न केवल पीड़ितों के साथ खड़े रहे।  

रामस्वरूप वर्मा एक समतामूलक मानववादी समाज की स्थापना के लिए शिक्षा को आवश्यक उपकरण मानते थे। उनका जोर सामाजिक शिक्षा पर भी था। इसके लिए उन्होंने ‘अर्जक साप्ताहिक’ अखबार भी निकाला।  उसका मुख्य उद्देश्य ‘अर्जक संघ’ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना था।  

किसान सबसे अच्छे अर्थशास्त्री

1967-68 में उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सरकार बनी तो रामस्वरूप वर्मा को वित्तमंत्री का पद सौंपा गया।  उस पद पर रहते हुए उन्होंने जो बजट पेश किया, उसने सभी को हैरत में डाल दिया था। बजट में 20 करोड़ लाभ का दर्शाया गया था। उससे पहले मान्यता थी कि सरकार के बजट को लाभकारी दिखाना असंभव है।  केवल बजट घाटे को नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान में भी यही परिपाटी चली आ रही है। जहां घाटे को नियंत्रित रखना ही वित्तमंत्री का कौशल हो, वहां लाभ का बजट पेश करना बड़ी उपलब्धि जैसा था।  केवल ईमानदार और विशेष प्रतिभाशाली मंत्री से, जिसकी बजट निर्माण में सीधी सहभागिता होऐसी उम्मीद की जा सकती थी। बजट में सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे लोकोपकारी कार्यों हेतु, उससे पिछले वर्ष की तुलना में लगभग डेढ़ गुनी धनराशि आवंटित की गई थी। कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि का प्रस्ताव भी था। इस सब के बावजूद बजट को लाभकारी बना देना चमत्कार जैसा था।  उस बजट की व्यापक सराहना हुई। रामस्वरूप वर्मा की गिनती एक विचारशील नेता के रूप में होने लगी। पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान उनका कहना था कि उद्योगपति और व्यापारी लाभ-हानि को देखकर चुनते हैं। घाटा बढ़े तो तुरंत अपना धंधा बदल लेते है। लेकिन किसान नफा हो या नुकसान, किसानी करना नहीं छोड़ता।  बाढ़-सूखा झेलते हुए भी वह खेती में लगा रहता है। वह उन्हीं मदों में खर्च करता है, जो बेहद जरूरी हों। जो उसकी उत्पादकता को बनाए रख सकें। इसलिए किसान से अच्छा अर्थशास्त्री कोई नहीं हो सकता। जाहिर है, बजट तैयार करते समय सरकार के अनुत्पादक खर्चों में कटौती की गई थी। कोई जमीन से जुड़ा नेता ही ऐसा कठोर और दूरगामी निर्णय ले सकता था।  

देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता की चर्चा अकसर होती है।  मगर बौद्धिक आत्मनिर्भरता को एकदम बिसरा दिया जाता है।  यह प्रवृत्ति आमजन के समाजार्थिक शोषण को स्थायी बनाती है।  समाज का पिछड़ा वर्ग जिसमें शिल्पकार और मेहनतकश वर्ग शामिल हैं, अपने श्रम-कौशल से अर्जन करते हैं।  जब उसको खर्च करने, लाभ उठाने की बारी आती है तो पंडा, पुरोहित, व्यापारी, दुकानदार सब सक्रिय हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, तरह-तरह के कर्मकांडों, आडंबरों, ब्याज और दान-दक्षिणा के नाम परवे उसकी मामूली आय का बड़ा हिस्सा हड़पकर ले जाते हैं।  धर्म मनुष्य की बौद्धिक आत्मनिर्भरता, उसके वास्तविक प्रबोधीकरण में सबसे बाधक है।  लेकिन जब भी कोई उसकी ओर उंगली उठाता है, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तुरंत परंपरा की दुहाई देने लगता है।  इस मामले में हिंदू विश्व-भर में इकलौते धर्मावलंबी हैं, जो पूर्वजों के ज्ञान पर अपनी पीठ ठोकते हैं। कुछ न होकर भी सबकुछ होने का भ्रम पाले रहते हैं।  तर्क और बुद्धि-विवेक की उपेक्षा करने के कारण कूपमंडूकता की स्थिति में जीते हैं। अर्जक संघ कमेरे वर्गों का संगठन है। धर्म या संप्रदाय न होकर वह मुख्यतः जीवन-शैली है, जिसमें आस्था से अधिक महत्त्व मानवीय विवेक को दिया जाता है।  उसका आधार सिद्धांत है कि श्रम का सम्मान और पारस्परिक सहयोग। लोग पुरोहितों, पंडितों के बहकावे में आकर आडंबरपूर्ण जीवन जीने के बजाय ज्ञान-विज्ञान और तर्कबुद्धि को महत्त्व दें। गौतम बुद्ध ने कहा था‘अप्पदीपो भव। ’ अपना दीपक आप बनो।  अर्जक संघ भी ऐसी ही कामना करता है। 

सामाजिक शिक्षा पर रहा जोर

अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामस्वरूप वर्मा ने ‘क्रांति क्यों और कैसे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘मानवतावादी प्रश्नोत्तरी’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘सृष्टि और प्रलय’, ‘अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’,  जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। उनकी लेखन शैली सीधी-सहज और प्रहारक थी। ऐसी पुस्तकों के लिए प्रकाशक मिलना आसान न था। सो उन्होंने उन्हें अपने ही खर्च पर प्रकाशित किया। जहां जरूरी समझा, पुस्तक को मुफ्त वितरित किया गया। उत्तर प्रदेश की प्रमुख भाषा हिंदी है। रामस्वरूप वर्मा स्वयं हिंदी के विद्यार्थी रह चुके थे।  सरकार का कामकाज जनता की भाषा में हो, इस तरह सहज-सरल ढंग से हो कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी उसे समझ सके, यह सोचते हुए उन्होंने वित्तमंत्री रहते हुए, सचिवालय से अंग्रेजी टाइपराइटर हटवाकर, हिंदी टाइपराटर लगवा दिए थे। उस वर्ष का बजट भी उन्होंने हिंदी में तैयार किया था। जनता को यह परचाने के लिए कि प्रशासन में कौन कहां पर है, उसके धन का कितना हिस्सा प्रशासनिक कार्यों पर खर्च होता है—बजट में छठा अध्याय विशेषरूप से जोड़ा गया था।  उसमें प्रदेश के कर्मचारियों और अधिकारियों का विवरण था। उस पहल की सभी ने खूब सराहना की थी।  

1970 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ललई सिंह की पुस्तक ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ पर रोक लगा दी।  यह पुस्तक डॉ। आंबेडकर द्वारा जाति-प्रथा के विरुद्ध दिए गए भाषणों संकलन थी। सरकार के निर्णय के विरुद्ध ललई सिंह यादव ने उच्च न्यायालय में अपील की।  मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में था। रामस्वरूप वर्मा कानून के विद्यार्थी रह चुके थे। उन्होंने मुकदमे में ललई सिंह यादव की मदद की। उसके फलस्वरूप 14 मई 1971 को उच्च न्यायालय ने पुस्तक से प्रतिबंध हटा लेने का फैसला सुनाया। 

रामस्वरूप वर्मा ने लंबा, सक्रिय और सारगर्भित जीवन जिया था।  उन्होंने कभी नहीं माना कि वे कोई नई क्रांति कर रहे हैं। विशेषकर अर्जक संघ को लेकर, उनका कहना था कि वे केवल पहले से स्थापित विचारों को  लोकहित में नए सिरे से सामने ला रहे हैं। उनके अनुसार पूर्व स्थापित विचारधाराओं को, लोकहित को ध्यान में रखकर, नए समय और संदर्भों के अनुरूप प्रस्तुत करना ही क्रांति है।  

विचारों से कबीर, जीवन में बुद्धिवाद, तर्क और मानववाद को महत्त्व देने वाला, भारतीय राजनीति वह फकीर,  19 अगस्त 1998 को हमसे विदा ले गया। 

(संपादन : नवल)

आलेख परिवर्द्धित : 29 अगस्त, 2019 2:21 PM

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