बुधवार, 18 अक्टूबर 2023
इजराइल और फिलिस्तीन युद्ध की त्रासदी
मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023
पांड़े तुम निपुण कसाई’ और ‘क्या तेरा साहब बहरा है’
पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है
कभी-कभार | विचार/विशेष 15/10/2023
अशोक वाजपेयी: सत्ता को ठोस मुद्दों, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम ही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें पत्रकारों का कृतज्ञ होना चाहिए कि वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.
मुझे इधर कुछ सप्ताहों से अपनी पत्नी रश्मि की फ़िज़ियोथेरापी के दौरान उनका इंतज़ार करते हुए पड़ोस में स्थित एक अस्पताल में हर दिन करीब डेढ़ घंटा गुज़ारना पड़ता हूं. मैं कोई पुस्तक ले जाता है. पर उसे शांत भाव से पढ़ना संभव नहीं हो पाता. रोगियों के जो सगे-संबंधी या दोस्त आस-पास बैठे होते हैं वे अक्सर अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं. ज़ोर-ज़ोर से बात करना, फिर भले अस्पताल में शांत रहने की अपील हर जगह लगी है, आदत सी है. अपने फोन पर कुछ इतनी ज़ोर से सुनना कि दूसरों को भी सुनाई दे, नई कुटेव है.
घंटों बैठकर इंतज़ार करना उबाऊ होता है और आप अपनी आम दिन की रोज़मर्रा ज़िंदगी से पूरी तरह अलग नहीं हो सकते या पाते. बड़ा अस्पताल है और सैकड़ों लोग इंतज़ार करते बैठे रहते हैं. पर किसी के हाथ में पुस्तक नहीं देखी जा सकती. यह एहसास दुखद है कि देश की राजधानी में पुस्तकों की, यहां के सामान्य जीवन में, बहुत कम, नहीं के बराबर, जगह है. कई बार लगता है कि इसका एक कारण पुस्तकों का आसानी से न मिल पाना है. कुछ प्रकाशकों को मिलकर सभी अस्पतालों को कुछ पुस्तकें भेंट करना चाहिए ताकि वे रोगियों और उनकी देखभाल करने वालों को दी जा सकें.
मुझे यह भी याद आता है कि मैंने दशकों से किसी राजनेता या धर्मनेता को कोई पुस्तक पढ़ते देखने का सुयोग नहीं पाया. वे अनेक सार्वजनिक स्थलों, हवाई अड्डों, स्टेशन, ट्रेन आदि में काफ़ी वक़्त गुज़ारते नज़र आते हैं पर उनके हाथ में कभी कोई पुस्तक मैंने नहीं देखी. कोई धर्मग्रंथ भी नहीं. यह आकस्मिक नहीं है कि ख़ासकर हिंदी अंचल में कोई राजनेता या धर्मनेता किसी पुस्तक का न तो उल्लेख करता है, न किसी का हवाला देता है. हमारा नेतृत्व ज़्यादातर पुस्तकविपन्न नेतृत्व है.
ऐसे में यह ख़बर आई है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने यह सार्वजनिक अनुरोध किया है कि लोग उन्हें स्वागत में फूलमालाएं और शॉल देने के बजाय पुस्तकें भेंट किया करें. कर्नाटक के लोग इस अनुरोध पर कितना अमल कर रहे या करने जा रहे हैं, यह कहना, फ़िलमुक़ाम, मुश्किल है. पर एक राजनेता ने यह अनुरोध कर पुस्तकों की क़द्र तो बढ़ा दी है.
मुझे याद आता है कि दशकों पहले एक बार जब नोबेल पुरस्कार-प्राप्त रूसी कवि जोसेफ़ ब्रॉडस्की अमेरिकन पोएट्री अकादमी या ऐसे ही किसी बड़े संस्थान के अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने लाखों की संख्या में कविता संग्रह ख़रीदवाकर पूरे देश के होटलों के कमरों में एक-एक प्रति रखवा दी थी. अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में होटल के हर कमरे में फोन डायरेक्टरी और बाइबिल की एक प्रति रखे जाने का रिवाज़ था और है. ब्रॉडस्की ने कहा था मेरा विश्वास है कि बाइबिल को फोनबुक के बगल में होने के बजाय कविता की एक पुस्तक के बगल में होना अच्छा लगेगा.
क्या गीता के बगल में, या कुरान या बाइबिल के बगल में, अज्ञेय-शमशेर-निराला-मुक्तिबोध आदि के कवितासंग्रह रखे जा सकते हैं? यह भी याद रखिए कि प्रायः सभी धर्मग्रंथ मूलतः कविता हैं.
‘सांची कहो तो मारन दौरत’
यह उक्ति कबीर की है- आज से लगभग छह सौ साल पहले की. पर हाल ही में कुछ स्वतंत्रचेता पत्रकारों पर सत्ता लगातार सच बोलने के लिए सचमुच मारने दौड़ी. सच हर समय में बोलना या उस पर आचरण करना जोखिम का काम है. प्रायः हर व्यवस्था में यह जोखिम का काम रहा है. लोकतंत्र में भी.
हम अपने लोकतंत्र के जिस चरण में हैं उसमें लगभग स्थायी भाव झूठ, घृणा और हिंसा हो गए हैं. टेक्नोलॉजी के नए विकास और विस्तार ने यह संभव और आसान कर दिया है कि झूठ, घृणा और हिंसा बहुत तेज़ी से फैल सकती, फैलाई जा सकती है. हम लगभग एक दशक से ऐसा होते हर सप्ताह लगभग चौबीस घंटे देख रहे हैं. हमारे मीडिया का एक बड़ा साधन-संपन्न हिस्सा बहुत मुखर-सक्रिय होकर इस फैलाव में शामिल है. ऐसी विकट परिस्थिति, इस बेहद अभागे समय में, शुक्र है कि कुछ पत्रकार, बहुत थोड़े साधनों के सहारे, सच हमारे सामने लाने का दुस्साहस कर रहे हैं.
हो सकता है कि कभी-कभार वे थोड़ा बहक भी जाते हों. पर कुल मिलाकर इन दिनों सचाई जानने, सत्ता को ठोस मुद्दों पर, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर, प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम यही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए. वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.
उन पर सत्ता की कोपदृष्टि होना अस्वाभाविक नहीं है. पर पिछले दिनों चालीस से अधिक पत्रकारों के साथ जो हुआ वह किसी भी समाज और लोकतंत्र में शर्मनाक है. अपने से असहमत को देशद्रोही या राष्ट्रविरोधी क़रार देने की चाल पिछले कुछ बरसों में बहुत व्यापक हुई है. उसका एक नया विस्तार यह है कि इस बार कुछ पत्रकारों पर शायद आतंकवादी होने का आरोप भी लगाया जा रहा है.
यह भी क़यास है कि यह सभी को सबक सिखाने के लिए है कि वे दुस्साहस न करें. चूंकि मामले में तहकीकात चल रही है, आरोपों के गुण-दोष पर इस मुक़ाम पर कुछ कहना अपरिपक्व होगा.
फिर भी, हम इस एहसास से बच नहीं सकते कि पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है. उसकी व्याप्ति सारे नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक है. हम सभी नागरिकों को असीमित स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति या अन्य तरह की, नहीं मिली हुई है. अनेक क़ानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मर्यादाओं का हमें पालन करना होना है. उनके रहते और उनकी सीमा में हमें जो स्वतंत्रता मिली हुई है उसका हमें मौलिक अधिकार है और अगर उसमें कटौती या उसका हनन होता है तो हमारे लिए, हम सभी के लिए यह चेतावनी है.
यह तो बार-बार स्पष्ट होता रहता है कि हमारी ऐसी स्वतंत्रता की रक्षा अंततः नागरिकों को ही करना होगी. नागरिक अंतःकरण को ही सजग और सक्रिय रहना है. संविधान को, अपनी उजली समावेशी परंपरा को, प्रश्नवाचकता की लंबी विरासत को नागरिक ही बचाएंगे, कोई और नहीं. वे ‘मारन दौरत’ हैं तो क्या हम सच जानने, प्रश्न पूछने के अपने थोड़े से भी अवसर गंवा देंगे?
टेढ़े कबीर
सीधे प्रश्न तो, हमारी परंपरा में, सर्जनात्मक-बौद्धिक-दार्शनिक परंपरा में, वेद से लेकर हर युग में पूछे गए हैं. भारत की प्रश्न-परंपरा बहुत लंबी, अथक-अडिग और व्यापक रही है. लेकिन टेढ़े प्रश्नों की परंपरा भी उतनी ही ऊर्जस्वित रही है. उसमें भी कबीर का विशेष स्थान है.
वे यह टेढ़ापन ‘पांड़े तुम निपुण कसाई’ और ‘क्या तेरा साहब बहरा है’ आदि कहकर धर्मों की अनुष्ठानपरक मूढ़ता पर तीखी टिप्पणी कर भर नहीं दिखाते. वे टेढ़े प्रश्न उठाते हैं और उसकी ज़द में तथाकथित ज्ञानियों का ज्ञान और आम लोगों का सामान्य विवेक भी आ जाता है. एक उदाहरण देखिए:
पूछौं पंडित जोग संन्यासी, सतगुर चीन्हूं बाट…
अगनि पवन मैं पवन कवन में, सबद गगन में पवनां.
निराकार प्रभु आदि निरंजन कत रवंते भवनां….
अक्सर यह सामान्य विवेक है कि सीधी राह चलना बेहतर है. कबीर अपने एक पद में टेढ़ी राह चलते कहते हैं:
भैरे चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पार..
ऊबट चले सु नगरि पहुंचे, बाट चले ते लूटे.
एक जेबड़ी सब लिपटाने, के बांधे के छूटे..
मंदिर पेसि चहुं दिसि भीगे, बाहरि रहे ते सूखा.
सरि मारे से सदा सुखारे, अनमारे से दूखा..
बिन नैनन के सब जग देखे, लोचन अचते अंधा.
कहै कबीर कछु समझि परी है, यहु जग देख्या धंधा..
क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि आजकल सच्ची कविता इसी टेढ़ेपन का वितान है?
(द वायर से साभार उद्धृत)
मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023
'क्या आबादी के आधार पर अधिकार दिए जा सकते हैं?' बिहार जाति सर्वे के बाद पीएम मोदी ने कांग्रेस पर बोला हमला (क्यों नहीं ?)
(देश का प्रधानमंत्री लोगों के अधिकार के प्रति जल करता हूं और संविधान में मिले उनके मौलिक अधिकारों पर प्रहार करता हो।
03 अक्टूबर 2023 नई दिल्ली: बिहार सरकार द्वारा राज्य का जाति सर्वेक्षण जारी करने के एक दिन बाद, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को कांग्रेस पर तीखा कटाक्ष किया और पार्टी से पूछा कि क्या "आबादी" (जनसंख्या) के अनुपात में अधिकार दिए जा सकते हैं।
शनिवार, 16 सितंबर 2023
शिक्षक अंधविश्वास मिटाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में भागीदारी निभाएँ
शिक्षक अंधविश्वास मिटाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में भागीदारी निभाएँ
- किशन सहाय
Kisan Sahai Meena IPS |
टोक ( सच्चा सागर ) शिक्षक दिवस पर बधाई देने के साथ विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ आईपीएस किशन सहाय ने कहा कि बच्चों की परवरिश में शिक्षकों की अहम भूमिका रहती है। परवरिश का जीवन भर असर रहता है। लोगों को शिक्षक व्यवस्था और धर्मगुरु / आध्यात्मिकगुरु व्यवस्था में फर्क समझना है। वर्तमान युग को शिक्षक व्यवस्था की जरूरत है धर्मगुरु / आध्यात्मिकगुरु व्यवस्था की नहीं। भारत में, आमतौर पर लोग शिक्षकों को गुरुजी कह देते हैं तथा धर्मगुरु / आध्यात्मिक गुरु को भी गुरुजी कह देते हैं जबकि इन दोनों के कार्य में कोई समानता नहीं है। शिक्षक हमको पहली कक्षा से लेकर एमए, एमकॉम, एमएसी, एमटेक, एम.बी.ए आदि तक पढ़ाई करवाते हैं। ये हमे गणित, विज्ञान, भूगोल, भाषा, वाणिज्य आदि का ज्ञान देते हैं। इस पढाई में कहीं भी अंधविश्वास की बात नहीं आती है यानि सारी पढ़ाई वास्तविकता या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है। जबकि धर्मगुरु / आध्यात्मिक गुरु हमें ईश्वर / अल्लाह, आत्मा, स्वर्ग नर्क आदि काल्पनिक बातों की शिक्षा देते हैं। ये बातें सिर्फ मानने पर हैं वास्तव में इनका कोई अस्तित्व है। इनकी बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ हैं। विज्ञान और तकनीकी के युग में, छात्र जीवन के दौरान, शिक्षा के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण व नैतिक मूल्य पैदा करना शिक्षकों का मुख्य दायित्व होना चाहिए। वर्तमान समय में जीवन के चार पुरुषार्थ नैतिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, काम और अर्थ में से प्रथम दो का विकास काफी हद तक छात्र जीवन में ही होता है। शिक्षा के साथ-साथ शिक्षकों को अंधविश्वास मुक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त, परम्परागत धर्म विहीन, जातिविहीन, नस्लभेद मुक्त, साहस और उच्च नैतिक मूल्यों वाले गुणों को छात्रों के जीवन में उतारने का प्रयास करते रहना चाहिए, जिससे, मानवतावादी विश्व समाज का निर्माण हो सके।
प्रस्तुतकर्ता:
- रामबिलास लांगड़ी
"सनातन"
सबका सनातन है वह चाहे मुस्लिम हो क्रिश्चियन हो बौद्ध हो जैन हो सिख हो या हिंदू.....
"सनातन"
पर वरिष्ठ पत्रकार आरफा खानम ने बहुत अच्छी बहस का कार्यक्रम रखा, जिसमें पुनियानी से लेकर उर्मिलेश जी को इस बहस में रखकर इस बहस के और इस विषय के दोनों तथ्यों को बहुत स्पष्ट तौर पर मुखरित करने में जो भूमिका अदा की है वह निश्चित रूप से इस समय का सबसे अहम पहलू है।
पत्रकारिता के जगत में भी लोग सनातन और वर्णव्यवस्था के कितने पोषक हैं, यह बात साफ तौर पर सामने आई बहस में उर्मिलेश जी ने इस ओर भी बहुत सावधानी से उंगली उठाई, लेकिन कुछ बात है कि वह मानते ही नहीं अपने आगे किसी को आप मानिए ना अपना धर्म कौन मना कर रहा है आपको लेकिन दूसरों पर क्यों थोप रहे हैं।.......
सबका सनातन है वह चाहे मुस्लिम हो क्रिश्चियन हो बौद्ध हो जैन हो सिख हो या हिंदू.....
मजेदार विमर्श है इसे सुना जाना चाहिए, गुना जाना चाहिए और इस पर विचार करना चाहिए की दयानिधि स्टालिन ने पूरे देश के सामने आज एक उदाहरण दिया है !जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
उत्तर भारत में सनातन पर हमले को लेकर यदि कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि अब यहां की आवाम बेवकूफ है तो उन्हें यह समझना चाहिए की उत्तर भारत का युवा मुख्य रूप से पेरियार, ज्योतिबा फुले, अंबेडकर, कबीर आदि के वर्ण व्यवस्था पोषित सनातन के खिलाफ आंदोलन चला चुके हैं । और वह आंदोलन बहुत तेजी से जमीनी स्तर पर खड़ा हो रहा है। इसलिए यह बहुत स्पष्ट तौर से माना जा सकता है कि बीजेपी जितना ही इस पर हमला करेगी उतना ही "इंडिया" के समर्थक दलों को इसका लाभ मिलेगा ! इसलिए पत्रकार बंधुओ आप लोग सत्य को सत्य की ही तरह समझिए।
भाजपा धर्म की राजनीति करके किसका नुकसान कर रही है। कभी-कभी उसका भी आकलन करिए उन्होंने पिछड़ी जातियों का दलितों का जो नुकसान किया है सामाजिक न्याय के लिए लोग सामाजिक आंदोलनों से आगे आ रहे थे। उसे इसने बहुत चालाकी से रोका है, धर्म को हथियार बनाया है और राजनीति में उसका भरपूर प्रयोग किया है फिर सनातन के माध्यम से इस घोड़े को दौड़ना चाह रहे हैं जो जनता को भलीभांति समझ में आ गया है वह उत्तर हो पूर्व हो पश्चिम हो दक्षिण हो चारों तरफ जिस हाहाकार का प्रकोप है वह क्या है?
आशुतोष जी ! आप यह बात क्यों कर रहे हैं जब समाज में शिक्षा नहीं थी लोगों को अंबेडकर और पेरियार की जानकारी नहीं थी ज्योतिबा फुले को नहीं जानते थे सावित्रीबाई फुले की जानकारी नहीं थी और सब कुछ भाग्य को मानकर चल रहे थे।
वही सनातन जो सती प्रथा को बढ़ावा दिया था वही महिलाओं को उनके पुरुषों के साथ जला दे रहा था। सनातन में ही वर्ण व्यवस्था है ऊंच नीच है छुआछूत है, इस सबसे समाज उब गया है।
अफसोस है इस देश का प्रधानमंत्री सनातन की बात कर रहा है, संविधान की नहीं ?इसलिए संविधान और सनातन में कोई सामंजस्य आज नहीं है।
आप सनातनी बने रहिए लेकिन दूसरों को सनातनी बनाकर उनको अपमानित मत करिए।
उम्मीद है कि आप उर्मिलेश जी को समझने की कोशिश करेंगे।
भाजपा के कार्यकर्ता की तरह श्री राहुल देव जी बात कर रहे हैं । शायद उनको इस बात का अध्ययन नहीं है कि इस बीच कांचाइल्लैया की पुस्तक हिंदुत्व मुक्त भारत कितनी अधिक मात्रा में बिकी है, शायद जितना आपका रामायण और अन्य ग्रंथ नहीं बिका होगा।
अंबेडकर की बहुत सारी किताबें को लोग पढ़ रहे हैं।
दलित और बहुजन साहित्य की स्थिति वह नहीं रह गई है लोग इन विषयों पर बोल रहे हैं।लिख रहे हैं नीरज पटेल हैं, अंबेडकरनामा के डॉ रतन लाल है, वायर, न्यूजलॉन्ड्री और बीबीसी आदि समय-समय पर ऐसी परिचर्चा करता ही रहता है।
कम से कम राहुल देव जी जैसे लोगों को दोहरे चरित्र से पत्रकारिता करने का जो अवसर मिला रहा है वह यहां साफ साफ दिखाई दे रहा है।
वह अपना धर्म माने सनातन माने कौन उन्हें मना कर रहा है लेकिन उसकी जो खूबियां है उसे तो लोग गिनवाएंगे ही इसके लिए नुकसानदेह है वह भी लोग बताएंगे।
पूरी बहस को सुनिए यही कहूंगा।
मंगलवार, 15 अगस्त 2023
न्यायाधीश तब आत्मविश्वास पैदा करेंगे जब उनके कार्य सामाजिक, राजनीतिक दबाव से प्रभावित न हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों
डीवाई चंद्रचूड़ CJI लिखते हैं:
न्यायाधीश तब आत्मविश्वास पैदा करेंगे जब उनके कार्य सामाजिक, राजनीतिक दबाव से प्रभावित न हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों
-सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़
सीजेआई चंद्रचूड़ एक एक्सप्रेस श्रृंखला 'एट द स्टीयरिंग व्हील - द रोड अहेड' के लिए लिखते हैं:
भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का मॉडल हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्यों और इसके शासन संस्थानों के कारण समय की कसौटी पर खरा उतरा है। - डी वाई चंद्रचूड़
नई दिल्ली | अपडेट किया गया: 15 अगस्त, 2023 07:52 IST
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़।
हमारी यात्रा सामूहिक अपेक्षाओं की यात्रा है। भारत के लिए स्वतंत्रता औपनिवेशिक शासन और असमानता पर आधारित सदियों पुरानी सामाजिक व्यवस्था से एक विवर्तनिक बदलाव थी। हमारी साझा चुनौतियाँ कई थीं और उत्पीड़न की प्रणालियों के खिलाफ संघर्ष के दौरान लाभ को संरक्षित करने के प्रयास भी कई थे। संस्थापक नेताओं ने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के संवैधानिक आदर्शों के आधार पर शासन के औपनिवेशिक मॉडल को संस्थागत लोकतंत्र के साथ बदलने का मार्ग तैयार किया। हमारा संविधान राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण में परिवर्तनकारी था। एक न्यायपूर्ण समाज हासिल करने की आकांक्षा में, संविधान ने एक परिवर्तनकारी क्षमता का खाका तैयार किया है।
जब भारत के संविधान को अपनाया गया, तो टिप्पणीकारों ने तर्क दिया कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक शर्तों के अभाव में भारत का संवैधानिक लोकतंत्र अल्पकालिक होगा। ऐसी आशा थी कि सामाजिक समानता, राजनीतिक साक्षरता और एक संस्थागत संस्कृति नए राष्ट्र की आधारशिला होगी। हमने जो संविधान अपनाया, उसमें लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के खतरों को मान्यता दी गई। इसने लोकतांत्रिक संस्थाओं को इन असमानताओं को दूर करने का कार्य सौंपा। लोकतंत्र का भविष्य इसी प्रयास पर निर्भर करेगा।
भारत का संवैधानिक लोकतंत्र का मॉडल हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्यों और शासन संस्थानों के कारण समय की कसौटी पर खरा उतरा है। प्रत्येक संस्था उसे सौंपी गई संवैधानिक भूमिका के संदर्भ में लोकतांत्रिक शासन में योगदान देती है। शासन की प्रत्येक संस्था का रोडमैप, अब और भविष्य में, संवैधानिक सीमाओं के भीतर संस्था की भूमिका को मजबूत करने पर केंद्रित होना चाहिए। हमारी क्षमता और आने वाले अवसरों को साकार करने का हमारा प्रयास सभी प्राधिकारों के प्रयोग को नियंत्रित करने वाले लोकतांत्रिक मापदंडों की एक मजबूत संवैधानिक समझ द्वारा निर्देशित होना चाहिए।
संविधान न्यायालयों के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निर्धारित करता है। अदालतें व्यक्तियों और समूहों को सामाजिक अन्याय और मनमानी से बचाने और संवैधानिक सीमाओं के भीतर संस्थागत शासन सुनिश्चित करने के लिए हैं। जब राज्य की ताकत का सामना करने वाले व्यक्ति अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं, तो वे न केवल कानून की व्याख्या या अधिकारों के कार्यान्वयन की मांग करते हैं। वे लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए अदालतों को एक प्रमुख स्थल के रूप में उपयोग करना चाहते हैं। हाथ से मैला ढोने के कारण एक सफाई कर्मचारी की मौत के लिए मुआवजे की मांग करने वाला एक परिवार तत्काल राहत पाने से परे कारणों से अदालत का दरवाजा खटखटाता है। सामाजिक व्यवस्था की असमानताओं को पुनर्गठित करने और अधिक न्यायपूर्ण समाज का मॉडल तैयार करने के लिए अदालतें नागरिकों के लिए केंद्र बिंदु हैं। हमारा सर्वोच्च न्यायालय एक संवैधानिक न्यायालय और अपील की अंतिम अदालत दोनों है। ये दोनों कार्य नागरिकों और उनके संस्थानों के बीच एक व्यवस्थित संवैधानिक संवाद को बढ़ावा देने में एकजुट होते हैं।
मजबूत निर्णय हमारी प्रक्रिया और परिणामों को दयालु और मानवीय बनाने के बारे में है। अदालतों की प्रतीकात्मकता और वास्तुकला, जैसे कि न्यायाधीशों के बैठने के लिए एक ऊंचा आसन, काव्यात्मक न्याय की अरिस्टोटेलियन अवधारणा को दर्शाता है...इस तरह के प्रतीकवाद भय और झिझक की भावना पैदा करते हैं।
न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती अदालतों तक पहुंच में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। अदालतों की दुर्गमता, चाहे प्रतीकात्मक हो या अन्यथा, लोकतांत्रिक स्थान के सिकुड़ने का कारण बनती है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के प्रयासों को प्रक्रियात्मक रूप से बढ़ाया जाना चाहिए, उन बाधाओं को ढीला करके जो नागरिकों को अदालतों तक पहुंचने से रोकती हैं और, मूल रूप से, अदालतों द्वारा किए जाने वाले कार्यों में विश्वास पैदा करके।
मंगलवार, 1 अगस्त 2023
मौन हैं वह आग लगाकर !
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