गुरुवार, 6 नवंबर 2025

बहुजन समाज की फूट ही उसके विनाश का महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उसका निदान क्या है

बहुजन समाज की फूट ही उसके विनाश का महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उसका निदान क्या है ?
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बहुजन समाज की फूट वाकई उसके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पतन का एक प्रमुख कारण रही है, जैसा कि कई विचारक और नेता जैसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर, जोतीराव फुले और कांशीराम ने बार-बार चेतावनी दी है। यह फूट जातीय अभिमान, आर्थिक हितों के टकराव, सांस्कृतिक मतभेदों और बाहरी शक्तियों (जैसे ब्राह्मणवाद या राजनीतिक साजिशों) से उपजती है। लेकिन इसका निदान संभव है, और विभिन्न स्रोतों से निकले सुझावों के आधार पर मैं कुछ प्रमुख उपाय बता रहा हूं। ये उपाय विचारकों, आंदोलनों और समकालीन चर्चाओं से लिए गए हैं, जो एकता को मजबूत करने पर जोर देते हैं।

### 1. **शिक्षा और जागरूकता को बढ़ावा देना**
   - बहुजन समाज की एकता की नींव शिक्षा में है। डॉ. आंबेडकर का मंत्र "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" इसी दिशा में इशारा करता है। समाज के सदस्यों को अपनी साझा इतिहास, संघर्ष और विचारधारा (जैसे फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन) के बारे में जागरूक बनाना जरूरी है। इससे जातीय अभिमान कम होगा और साझा पहचान बनेगी।
   - उदाहरण: सामाजिक संगठनों और अभियानों के माध्यम से लोगों को यह समझाना कि बुद्ध, फुले, आंबेडकर और पेरियार जैसे महापुरुषों को अलग-अलग जातीय खांचों में न बांटें, बल्कि उन्हें मानववादी आधार पर एकीकृत करें। इससे सांस्कृतिक विविधता का सम्मान बढ़ेगा और फूट कम होगी।

### 2. **सांस्कृतिक सम्मान और विकल्प प्रदान करना**
   - फूट का एक बड़ा कारण सांस्कृतिक मतभेद हैं, जैसे त्योहारों (दीपावली, छठ) पर विवाद या परंपराओं का मजाक उड़ाना। उपाय है कि एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान करें और ब्राह्मणवादी तत्वों को हटाकर बहुजनीकरण करें – जैसे दशहरा को अशोक विजयादशमी बनाना या त्योहारों में आंबेडकर की तस्वीर शामिल करना।
   - धार्मिक स्वतंत्रता का आदर करें, लेकिन घृणा त्यागकर प्रेम, मैत्री और करुणा पर आधारित समाज बनाएं। उत्तर भारत में पेरियार मॉडल की तरह गैर-ब्राह्मण जातियों को एकत्रित करने के प्रयास करें। इससे समाज में वैचारिक एकता आएगी।

### 3. **राजनीतिक और वर्गीय एकता पर जोर**
   - जाति-आधारित राजनीति के बजाय मुद्दा-आधारित वर्गीय एकता अपनाएं। बहुजन अवधारणा (दलित, पिछड़े, मुसलमान) आकर्षक है, लेकिन इसमें आर्थिक टकराव (जैसे दलित मजदूरों और संपन्न पिछड़ों के बीच) को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन पर आधारित एकता बनाएं, जैसा आंबेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया से किया।
   - सुझाव: अलग-अलग आरक्षण कोटे (जैसे अति-पिछड़ों के लिए), पदोन्नति में आरक्षण, निजी क्षेत्र में आरक्षण, और रोजगार को मौलिक अधिकार बनाना। राजनीतिक पार्टियां जैसे बसपा या आईपीएफ इस दिशा में अभियान चला रही हैं, जहां जाति/धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि साझा मुद्दों पर एकजुट हों।

### 4. **संगठन और संघर्ष की रणनीति**
   - समाज को इकट्ठा रहने, एक-दूसरे की समस्याओं को समझने और मिल-जुलकर रहने की सलाह दें। बहुजन नेता जैसे मायावती कहती हैं कि सत्ता की "मास्टर चाबी" हासिल करना ही अच्छे दिनों का रास्ता है, जो एकता से ही संभव है। फूट को रोकने के लिए बाहरी साजिशों (जैसे वोट बांटने की कोशिशें) का मुकाबला करें।
   - सामाजिक संगठनों को मजबूत बनाएं: समय-समय पर महापुरुषों ने कहा है कि आपस में मिलें, समस्याओं को साझा करें। अभियान जैसे रोजगार एवं सामाजिक अधिकार अभियान चलाकर एकता बढ़ाएं।

### 5. **व्यावहारिक कदम और चुनौतियां**
   - सोशल मीडिया और समुदाय स्तर पर चर्चा बढ़ाएं, लेकिन विवादों से बचें। एकता अस्थायी न हो, बल्कि स्थायी हो – जैसे शूद्र एकता मंच की तरह शिक्षा, नौकरी और व्यवसाय पर फोकस करें।
   - चुनौती: हिंदुत्व या अन्य ताकतें फूट डालती हैं, इसलिए बहुजन को सतर्क रहना चाहिए। लेकिन अगर एकजुट हों, तो कोई नहीं हरा सकता, जैसा कई सामाजिक पोस्ट में कहा गया है।

ये उपाय अमल में लाने से बहुजन समाज न केवल फूट से बच सकता है, बल्कि अपनी ताकत को पहचानकर सशक्त बन सकता है। यह प्रक्रिया लंबी है, लेकिन निरंतर प्रयास से संभव है। 





पेरियार का द्रविड़ आंदोलन: एक परिचय

ई.वी. रामासामी नायकर, जिन्हें दुनिया 'पेरियार' (महान व्यक्ति) के नाम से जानती है, द्रविड़ आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार थे। उनका जन्म 17 सितंबर 1879 को तमिलनाडु के एरोड में एक कन्नड़ बालिजा परिवार में हुआ था। पेरियार ने ब्राह्मणवाद, जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास और उत्तर भारतीय सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ एक क्रांतिकारी संघर्ष छेड़ा, जो द्रविड़ (दक्षिण भारतीय गैर-ब्राह्मण) पहचान को मजबूत करने पर केंद्रित था। द्रविड़ आंदोलन, जो 20वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश भारत में उभरा, मुख्य रूप से तमिलनाडु तक सीमित रहा, लेकिन इसने दक्षिण भारत की राजनीति, समाज और संस्कृति को हमेशा के लिए बदल दिया। पेरियार की विचारधारा तर्कवाद, स्वाभिमान और समानता पर आधारित थी, जिसने गैर-ब्राह्मणों को सशक्त बनाया।

### द्रविड़ आंदोलन की उत्पत्ति और विकास

द्रविड़ आंदोलन की जड़ें 19वीं सदी के अंत में मद्रास प्रेसीडेंसी (अब तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि) में ब्राह्मणों के सरकारी नौकरियों और शिक्षा में वर्चस्व से उपजी असंतोष में हैं। ब्राह्मण, जो कुल आबादी का मात्र 3% थे, 70% से अधिक उच्च पदों पर काबिज थे। यह असमानता एनी बेसेंट की होम रूल मूवमेंट और कांग्रेस के ब्राह्मण-प्रधान चरित्र से और गहरी हुई।

- **न्याय पार्टी का गठन (1916)**: आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 20 नवंबर 1916 को मद्रास के विक्टोरिया हॉल में सी. नटेसा मुदलियार, टी.एम. नायर और पी. थियागराज चेट्टी द्वारा न्याय पार्टी (जस्टिस पार्टी) के रूप में हुई। यह गैर-ब्राह्मण हितों की रक्षा के लिए बनी, जो 1920 के दशक में गैर-ब्राह्मण आरक्षण की मांग उठाई। लेकिन 1936 में इसका पतन हो गया।
  
- **पेरियार का प्रवेश (1920-30 के दशक)**: पेरियार 1919 में कांग्रेस में शामिल हुए, लेकिन 1925 में ब्राह्मण वर्चस्व के कारण छोड़ दिया। उन्होंने वैकोम सत्याग्रह (1924-25) का नेतृत्व किया, जहां दलितों को मंदिर मार्ग पर चलने का अधिकार दिलाया गया। 1925 में ही उन्होंने **स्वाभिमान आंदोलन (सेल्फ-रिस्पेक्ट मूवमेंट)** शुरू किया, जो द्रविड़ आंदोलन का वैचारिक आधार बना। यह आंदोलन जाति-आधारित अपमान को मिटाने, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने और महिलाओं के अधिकारों (जैसे विधवा पुनर्विवाह, दहेज-विरोध) पर केंद्रित था।

- **द्रविड़ कढ़गम (DK) की स्थापना (1944)**: पेरियार ने न्याय पार्टी को राजनीतिक संगठन से सामाजिक संगठन में बदल दिया और द्रविड़ कढ़गम (ड्राविड़र कझगम) बनाया। यहां उन्होंने 'कोई भगवान नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई गांधी नहीं, कोई कांग्रेस नहीं, कोई ब्राह्मण नहीं' का नारा दिया। 1940 के दशक में उन्होंने स्वतंत्र 'द्रविड़ नाडु' (तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम भाषी राज्यों का संघ) की मांग की, लेकिन यह अन्य द्रविड़ राज्यों में समर्थन न पाकर तमिलनाडु तक सीमित रही।

- **विभाजन और राजनीतिकरण (1949)**: 1949 में सी.एन. अन्नादुराई ने पेरियार से मतभेद (विशेषकर अलगाववाद पर) के कारण द्रविड़ मुनेत्र कढ़गम (DMK) बनाया। पेरियार DK को गैर-राजनीतिक रखना चाहते थे, जबकि DMK ने चुनावी राजनीति अपनाई। 1967 में DMK ने तमिलनाडु में सत्ता हासिल की, जो द्रविड़ आंदोलन की जीत थी। बाद में AIADMK (एम.जी. रामचंद्रन द्वारा 1972 में) जैसे दल बने।

### पेरियार की प्रमुख विचारधारा

पेरियार की विचारधारा ब्राह्मणवाद को द्रविड़ों के शोषण का मूल कारण मानती थी। वे हिंदू धर्म को 'आर्य आक्रमण' का प्रतीक मानते थे, जहां ब्राह्मणों ने द्रविड़ों को गुलाम बनाया। मुख्य बिंदु:

- **एंटी-कास्ट और एंटी-ब्राह्मण**: जाति को ब्राह्मणों की साजिश बताया, और 'ब्राह्मणों को भगाओ' जैसे नारों से संघर्ष किया। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्राह्मण व्यक्तियों का विरोध नहीं, बल्कि ब्राह्मणवाद का है।
  
- **तर्कवाद और नास्तिकता**: धर्म को अंधविश्वास का स्रोत माना, और रामायण-महाभारत जैसे ग्रंथों को जलाने जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाए। वे तमिल साहित्य (जैसे तिरुक्कुरल) को श्रेष्ठ मानते थे।
  
- **महिला सशक्तिकरण**: महिलाओं को संपत्ति अधिकार, जन्म नियंत्रण और स्वतंत्रता का हकदार बताया। स्वाभिमान विवाह (बिना पुजारी के) शुरू किए।
  
- **भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद**: हिंदी थोपने के खिलाफ 1937-38 और 1960 के दशक में आंदोलन चलाए, तमिल को 'द्रविड़ों का मंदिर' कहा।

### तमिलनाडु की राजनीति और समाज पर प्रभाव

द्रविड़ आंदोलन ने तमिलनाडु को ब्राह्मण-प्रधान से गैर-ब्राह्मण-प्रधान राज्य बनाया। DMK-AIADMK ने 1967 से लगातार सत्ता संभाली, आरक्षण (69% पिछड़ों के लिए), मुफ्त शिक्षा-स्वास्थ्य और तमिल प्राथमिकता लागू की। सामाजिक रूप से, अस्पृश्यता घटी, दलित पुजारी बने, और 'समता पुरम' (समानता गांव) जैसे योजनाएं चलीं। लेकिन आलोचना भी है: आंदोलन ने मध्यवर्ती जातियों (जैसे वेल्लाला, नायडू) को मजबूत किया, जबकि दलितों को पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिला। पेरियार की विरासत 2025 में शताब्दी वर्ष के रूप में मनाई जा रही है, जो सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाया जाता है।

| प्रमुख संगठन | स्थापना | मुख्य योगदान |
|--------------|--------|--------------|
| न्याय पार्टी | 1916 | गैर-ब्राह्मण आरक्षण की शुरुआत |
| स्वाभिमान आंदोलन | 1925 | जाति-विरोधी विवाह और तर्कवाद |
| द्रविड़ कढ़गम (DK) | 1944 | सामाजिक सुधार, अलगाववाद |
| द्रविड़ मुनेत्र कढ़गम (DMK) | 1949 | चुनावी राजनीति, तमिल राष्ट्रवाद |

पेरियार का आंदोलन न केवल दक्षिण भारत का, बल्कि पूरे भारत के बहुजन आंदोलनों (जैसे आंबेडकरवाद) का प्रेरणा स्रोत है। आज भी DMK के नेतृत्व में यह जीवंत है, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखे हुए है। यदि कोई विशिष्ट पहलू (जैसे महिलाओं पर प्रभाव) पर अधिक जानना हो, तो बताएं।





डॉ. बी.आर. आंबेडकर का दलित आंदोलन: एक परिचय

डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर (1891-1956), जिन्हें बाबासाहेब के नाम से जाना जाता है, भारत के दलित (अछूत/अस्पृश्य) आंदोलन के सर्वोच्च नेता और आधुनिक भारत के संविधान निर्माता थे। उनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू (तत्कालीन मध्य प्रांत) में महार जाति के परिवार में हुआ, जो उस समय अछूत मानी जाती थी। आंबेडकर ने जातिवाद, अस्पृश्यता और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ जीवनभर संघर्ष किया, जिसे **दलित आंदोलन** कहा जाता है। यह आंदोलन केवल सामाजिक सुधार नहीं, बल्कि राजनीतिक सशक्तिकरण, आर्थिक समानता और मानव गरिमा की पुनर्स्थापना का क्रांतिकारी प्रयास था। आंबेडकर ने दलितों को "दलित" (दमित) शब्द से पहचान दी, जो पहले "अछूत", "हरिजन" जैसे अपमानजनक नामों से जाने जाते थे।

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### दलित आंदोलन की पृष्ठभूमि और विकास

दलित आंदोलन की जड़ें 19वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों (जैसे जोतीराव फुले का सत्यशोधक समाज) में हैं, लेकिन आंबेडकर ने इसे वैज्ञानिक, संवैधानिक और संगठित रूप दिया। ब्रिटिश शासन में दलितों को शिक्षा और नौकरी में अवसर मिले, जिससे जागरूकता बढ़ी, लेकिन हिंदू समाज में उन्हें मंदिर प्रवेश, जल स्रोत और सार्वजनिक स्थलों से वंचित रखा गया।

#### प्रमुख चरण और घटनाएँ:

1. **शिक्षा और स्वाभिमान की शुरुआत (1910-1920 के दशक)**
   - आंबेडकर ने कोलंबिया और लंदन से अर्थशास्त्र, कानून में डॉक्टरेट की। 1920 में **बहिष्कृत हितकारिणी सभा** की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों में शिक्षा, संस्कृति और स्वाभिमान बढ़ाना था।
   - 1924 में **बहिष्कृत भारत** पत्रिका शुरू की, जो दलितों की आवाज बनी।

2. **महाड़ सत्याग्रह (1927)**
   - 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के महाड़ में सार्वजनिक जलाशय से पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह। यह दलित इतिहास में पहला संगठित जन-आंदोलन था।
   - आंबेडकर ने मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं, जो अस्पृश्यता का वैधानिक आधार थी।

3. **पूना पैक्ट (1932)**
   - राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में आंबेडकर ने दलितों के लिए **अलग निर्वाचन क्षेत्र** की मांग की। गांधी ने अनशन किया, जिससे समझौता हुआ – **पूना पैक्ट**।
   - परिणाम: दलितों को सामान्य सीटों में **आरक्षित सीटें** मिलीं, जो आज भी संविधान में हैं (अनुच्छेद 330, 332)।

4. **मंदिर प्रवेश आंदोलन**
   - **काला राम मंदिर सत्याग्रह (1930, नासिक)**: दलितों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिलाने का प्रयास। हालांकि तत्काल सफलता नहीं मिली, लेकिन जागरूकता बढ़ी।
   - आंबेडकर का नारा: *"मंदिर प्रवेश से पहले आत्म-सम्मान!"*

5. **राजनीतिक संगठन**
   - **इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP, 1936)**: मजदूर और दलित हितों के लिए।
   - **शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (SCF, 1942)**: दलितों की राजनीतिक पार्टी।
   - बाद में **रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI, 1956)** की नींव रखी, जो आज भी सक्रिय है।

6. **धर्मांतरण और बौद्ध धम्म (1956)**
   - हिंदू धर्म में समानता न देखकर 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में **5 लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया**।
   - 22 प्रतिज्ञाएं दीं, जिसमें हिंदू देवी-देवताओं, कर्मकांड और वर्ण व्यवस्था का त्याग शामिल था।
   - यह दलित आंदोलन का सबसे क्रांतिकारी कदम था – धार्मिक मुक्ति।

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### आंबेडकर की प्रमुख विचारधारा

| मुद्दा | आंबेडकर का दृष्टिकोण |
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| **जाति** | जाति को वर्ग नहीं, बल्कि **श्रेणीबद्ध असमानता** का साधन माना। इसे खत्म करने के लिए **वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन** जरूरी। |
| **धर्म** | हिंदू धर्म को अस्पृश्यता का समर्थक माना। बौद्ध धर्म को समता, करुणा और तर्क का धर्म कहा। |
| **राजनीति** | "राजनीतिक सत्ता ही सामाजिक स्वतंत्रता की कुंजी है।" दलितों को वोट और प्रतिनिधित्व की ताकत दी। |
| **अर्थव्यवस्था** | भूमि सुधार, औद्योगीकरण और **राज्य समाजवाद** की वकालत की। |
| **शिक्षा** | "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" – यह उनका मूल मंत्र था। |

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### दलित आंदोलन का प्रभाव

1. **संवैधानिक उपलब्धियाँ**
   - भारतीय संविधान में **अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17)**, **आरक्षण (SC/ST/OBC)**, **समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-16)**।
   - **हिंदू कोड बिल** (महिलाओं को संपत्ति, तलाक का अधिकार) में योगदान।

2. **सामाजिक परिवर्तन**
   - दलितों में शिक्षा दर बढ़ी (आज SC में साक्षरता 66%+), सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व।
   - **दलित पैंथर (1972)**, **बामसेफ**, **बसपा (कांशीराम-मायावती)** जैसे आंदोलन आंबेडकर से प्रेरित।

3. **राजनीतिक सशक्तिकरण**
   - उत्तर प्रदेश में बसपा ने 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
   - दलित राष्ट्रपति (केजी रामनाथ कोविंद), मुख्यमंत्री (मायावती) बने।

4. **सांस्कृतिक जागरण**
   - जय भीम, नीला झंडा, आंबेडकर की मूर्तियाँ हर दलित बस्ती में।
   - 14 अप्रैल को **आंबेडकर जयंती** राष्ट्रीय अवकाश।

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### आलोचनाएँ और चुनौतियाँ

- कुछ लोग कहते हैं कि आंबेडकर ने दलितों को हिंदू समाज से अलग कर दिया।
- आरक्षण के दुरुपयोग, दलित नेताओं का भ्रष्टाचार।
- आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में **अत्याचार** (NCRB: 2022 में 50,000+ मामले) जारी।
- दलित आंदोलन में **उप-जातियों की फूट** (महार vs मातंग, चमार vs वाल्मीकि)।

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### वर्तमान स्थिति (2025)

- **आंबेडकरवाद** उत्तर भारत (UP, बिहार, महाराष्ट्र) में मजबूत है।
- **बौद्ध आंदोलन** नागपुर, महाराष्ट्र में सक्रिय (दिक्षा भूमि)।
- नई पीढ़ी सोशल मीडिया पर #JaiBhim, #Ambedkarite ट्रेंड कर रही है।
- बसपा, RPI, भीम आर्मी जैसे संगठन सक्रिय, लेकिन एकता की कमी।

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### निष्कर्ष

आंबेडकर का दलित आंदोलन केवल अछूतों की मुक्ति का नहीं, बल्कि **मानव गरिमा, समानता और न्याय** की लड़ाई थी। उन्होंने कहा था:  
> **"मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।"**

यह आंदोलन आज भी जीवित है और बहुजन एकता का आधार बन सकता है। यदि आप **बौद्ध धर्मांतरण**, **आरक्षण नीति**, या **बसपा की भूमिका** पर विस्तार चाहें, तो बताएं।







जोतीराव फुले का आंदोलन: एक परिचय

महात्मा जोतीराव गोविंदराव फुले (1827-1890), जिन्हें **महात्मा फुले** या **ज्योतिबा फुले** के नाम से जाना जाता है, भारत के पहले आधुनिक सामाजिक क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में माली (बागवान) जाति के परिवार में हुआ, जो शूद्र वर्ण में आती थी। फुले ने **जातिवाद, ब्राह्मणवाद, स्त्री-शिक्षा की कमी और किसान शोषण** के खिलाफ जीवनभर संघर्ष किया। उनका आंदोलन **शूद्र-अतिशूद्र (OBC और दलित) एकता**, **शिक्षा क्रांति** और **किसान मुक्ति** पर आधारित था। वे आंबेडकर के विचारों के अग्रदूत थे और बहुजन समाज के पहले संगठित नेता माने जाते हैं। फुले ने ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था को "आर्य-ब्राह्मण साजिश" बताया और द्रविड़-शूद्र पहचान को मजबूत किया।

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### आंदोलन की पृष्ठभूमि

19वीं सदी में महाराष्ट्र में पेशवा शासन (ब्राह्मण-प्रधान) के बाद ब्रिटिश शासन आया। ब्राह्मणों का शिक्षा, धर्म और प्रशासन में वर्चस्व था। शूद्र और अतिशूद्र (किसान, मजदूर) अशिक्षित, शोषित और धार्मिक रूप से अपमानित थे। महिलाएँ (विशेषकर शूद्र) शिक्षा से वंचित थीं, विधवा विवाह निषिद्ध था, और सती प्रथा अभी-अभी बंद हुई थी। फुले ने थॉमस पेन की *Rights of Man*, बाइबिल और भारतीय इतिहास से प्रेरणा ली।

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प्रमुख पहल और संगठन :

| पहल | वर्ष | उद्देश्य और प्रभाव |
|------|------|-------------------|
| **लड़कियों का पहला स्कूल** | 1848 | पुणे में सावित्रीबाई फुले के साथ भारत का पहला बालिका विद्यालय खोला। ब्राह्मणों ने विरोध किया, परिवार ने त्याग दिया। |
| **सत्यशोधक समाज** | 24 सितंबर 1873 | शूद्र-अतिशूद्रों का पहला संगठन। उद्देश्य: बिना पुजारी के विवाह, सत्य की खोज, ब्राह्मणवाद का विरोध। नारा: **"ज्ञान ही ईश्वर है"** |
| **अनाथालय और विधवा गृह** | 1854, 1863 | विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा, ब्रह्मचारी बच्चे को गोद लिया। सती प्रथा के खिलाफ। |
| **किसान पुस्तक: *शेतकऱ्याचा आसूड*** | 1883 | किसानों के शोषण पर पहली मराठी किताब। ब्राह्मण महाजनों और सरकारी अफसरों की लूट उजागर की। |
| **गुलामगिरी** | 1873 | अमेरिकी किताब *Uncle Tom's Cabin* से प्रेरित। ब्राह्मणों को "आर्य आक्रमणकारी" और शूद्रों को मूल निवासी बताया। |

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### फुले की प्रमुख विचारधारा

1. **आर्य-ब्राह्मण साजिश सिद्धांत**  
   - ब्राह्मणों को बाहरी आक्रमणकारी (आर्य) माना, जिन्होंने द्रविड़-शूद्रों को गुलाम बनाया।  
   - मनुस्मृति को असमानता का संविधान कहा।  
   - इतिहास को **बलिराजा** (शूद्र राजा) के शासन से जोड़ा, न कि राम-कृष्ण से।

2. **शूद्र-अतिशूद्र एकता**  
   - सभी गैर-ब्राह्मण (OBC + दलित) को **बहुजन** कहा।  
   - जातीय फूट को ब्राह्मणों की साजिश माना।  
   - मराठा, कुणबी, माली, दलित – सभी को एक मंच पर लाया।

3. **स्त्री मुक्ति**  
   - सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका बनाया।  
   - विधवा विवाह, बाल विवाह विरोध, दहेज विरोध।  
   - कहा: **"विद्या विना मति गेली, मति विना नीति गेली"** (शिक्षा बिना बुद्धि गई, बुद्धि बिना नीति गई)।

4. **धर्म और तर्कवाद**  
   - ईश्वर को **निर्गुण, निराकार** माना।  
   - पूजा-पाठ, कर्मकांड का विरोध।  
   - सत्यशोधक विवाह: बिना ब्राह्मण, बिना मंत्र, सिर्फ सत्य की प्रतिज्ञा।

5. **किसान और मजदूर हक**  
   - भूमि सुधार, कर्ज माफी, शिक्षा का अधिकार मांगा।  
   - ब्रिटिश सरकार से शूद्रों के लिए नौकरियाँ मांगी।

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आंदोलन का प्रभाव :

1. **शिक्षा क्रांति**  
   - 18 बालिका स्कूल खोले।  
   - सावित्रीबाई ने शिक्षिकाएँ तैयार कीं।  
   - आज महाराष्ट्र में OBC शिक्षा दर फुले की देन।

2. **राजनीति में बहुजन चेतना**  
   - सत्यशोधक समाज → **नॉन-ब्राह्मण मूवमेंट** → शahu महाराज → आंबेडकर → फुले-आंबेडकरवादी पार्टियाँ।  
   - महाराष्ट्र में **शिवसेना, NCP, रिपब्लिकन पार्टियाँ** अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित।

3. **सामाजिक सुधार**  
   - विधवा पुनर्विवाह शुरू, बाल विवाह रुका।  
   - नाई, धोबी जैसे जातियों ने बहिष्कार तोड़ा।

4. **सांस्कृतिक प्रतीक**  
   - **बलिराजा** को शूद्रों का राजा बनाया।  
   - फुले दंपति की मूर्तियाँ, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय।

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आलोचनाएँ :

- ब्राह्मणों ने उन्हें **"शूद्र विद्रोही"** कहा।  
- कुछ दलित विचारक कहते हैं कि फुले ने **मध्य जातियों (मराठा, कुणबी)** को ज्यादा लाभ पहुँचाया।  
- अलगाववादी होने का आरोप (लेकिन वे संवैधानिक सुधार चाहते थे)।

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वर्तमान स्थिति (2025) :

- **महाराष्ट्र सरकार** फुले दंपति को **महात्मा** की उपाधि देती है।  
- **फुले-शahu-आंबेडकर** विचारधारा OBC-Dalit एकता का आधार।  
- **सत्यशोधक समाज** आज भी सक्रिय, विवाह और जागरण करता है।  
- **11 अप्रैल** को **ज्योतिबा फुले जयंती** राष्ट्रीय अवकाश की मांग।  
- सोशल मीडिया पर **#PhuleAmbedkar**, **#Bahujan** ट्रेंड।

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 निष्कर्ष :

फुले का आंदोलन **शिक्षा, एकता और संघर्ष** का पहला मॉडल था। उन्होंने कहा था:  
> **"जो तकलीफ में हैं, उन्हें उठाओ, शिक्षित करो, संगठित करो।"**

यह आंदोलन **पेरियार**, **आंबेडकर** और **कांशीराम** की नींव है। बिना फुले के, बहुजन समाज की कल्पना अधूरी है।

यदि आप **सत्यशोधक समाज की वर्तमान गतिविधियाँ**, **सावित्रीबाई की भूमिका**, या **फुले vs आंबेडकर** की तुलना चाहें, तो बताएं।





































 

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