बहन जी के सपने का दरक जाना।
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प्रधानमंत्री ?
- डॉ लाल रत्नाकर
2019 लोकसभा चुनाव के लिए हुए गठबंधन में मनोवांछित परिणाम न मिलने के कारणों का सही मूल्यांकन करने पर या सही मूल्यांकन किए जाने के डर से ऐसा कह करके अपने को अलग कर ली हैं।
जिससे आने वाले दिनों में यह न कहना पड़े कि इनके सम्मीलन का जादू फेल कैसे हो गया।
अब जो मूल बात है कि सपा बसपा के रिश्ते तो खराब हो ही रहे हैं । लेकिन ग्राउंड लेवल पर जो समझ बनी थी या बन रही थी वह कितनी बनी रहेगी। मूलतः चिंता इस बात की हो रही है।
क्योंकि यह गठबंधन केवल नेताओं का गठबंधन नहीं था यह दोनों समाज के बुद्धिजीवियों और मतदाताओं के दबाव का गठबंधन था। जिसको इन्होने राजनीतिक रूप से अंगीकृत किया था लेकिन मायावती जी इसका गलत विश्लेषण करेंगी यह उम्मीद नहीं थी ।
हालांकि हर व्यक्ति यही कह रहा था कि जैसे ही मायावती को कोई ऐसा अवसर मिलेगा तब वह इस बंधन को तोड़ देंगी। वही हुआ जो लोगों को आशंका थी और दूसरी तरफ भाजपा रोज कह रही थी कि यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन है जो 23 मई 2019 के बाद टूट जाएगा।
बहन मायावती ने अपनी कला दिखा दी है और यह साबित कर दिया है कि वह लंबे समय तक किसी के साथ रिश्ता नहीं रख सकती हैं। इसका निहितार्थ क्या है उसको तो वह स्वयं अच्छी तरह समझती होगी । लेकिन लोगों को जो कुछ समझ में आ रहा है । वह यही आ रहा है कि आगे जो लड़ाई लड़नी है । ऐसे लोगों से जैसे लोगों से कभी : ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार और साहू जी महाराज ललई सिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा एवं जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने लड़ी थी।
मैं तो अखिलेश यादव की आदूरदर्शिता पर हमेशा लिखता रहा हूं । लेकिन इस बार लगा था कि उन्होंने एक अच्छा काम किया है जिससे जमीन पर कुछ बड़ा काम हो पाएगा । लेकिन इस गठबंधन की आयु इतनी कम होगी इसका अंदाजा नहीं था, कुछ बड़े नेताओं की राय में यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन नजर आ रहा था। जिसमें अंतर यही साबित हुआ था कि सब कुछ गवा देंगे मगर गठबंधन नहीं तोड़ेंगे। परीक्षार्थी भी यही थे और परीक्षक भी यही थे।
कहते हैं जिंदा कौम में 5 वर्ष तक इंतजार नहीं करती लेकिन इन दो कौमों के नेताओं ने 5 साल के लिए अपनी आवाम को बंधक बना दिया। अपने स्वार्थ और अपनी गलत नीतियों से राजनीति करने वाले का दिल हमेशा बड़ा होना चाहिए । और अकेले यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह सब कुछ फतह कर लेगा। जबकि यहां पर यही हुआ है, इस सौदे में बहन जी की आमदनी ज्यादा भले ही हुई हो लेकिन दलितों की भावी राजनीति को जितना उन्होंने नुकसान किया है । उसका खामियाजा भी उन्हें ही भोगना पड़ेगा।
अखिलेश यादव को भी चाहिए कि कुछ ऐसे लोगों से विमर्श करें जिससे उनका भविष्य का मार्ग सशक्त हो सके अन्यथा बहन मायावती जी का जो है सन 2014 में हुआ था वह आगे भी होना है । और अखिलेश जी को कितने समझौते करने पड़ेंगे इसका अंदाजा भी उन्हें अभी नहीं है।
मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि उनकी पार्टी में कितने महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपने लोगों को ही गाली गलौज और अनेकों प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं । और यह बात खुलेआम जनता के बीच भी उन्हीं के जरिए जाती है । एक दूसरे को नीचा दिखाने के साथ साथ कीचड़ उछालना और आस्तीन में सांप पालना उनकी एक बहुत बड़ी भयावह फौज वहां खड़ी दिखाई दी । जो आपका कहां पर किस तरह से विनाश करेगी उसका आकलन मैंने पहली बार जौनपुर जनपद में कथित रूप से सपायियो और बसपाइयों में देखा।
निश्चित तौर पर बसपा की 10 सांसदों की बडी फौज इस लड़ाई को लड़ने में कामयाब होगी यह बात बहन जी को अच्छी तरह समझ में आ गई होगी। 2014 में शून्य पर रही बसपा सपा के कंधे पर बैठकर 10 सांसदों की फौज खड़ी कर ली है। अब कह रही है कि यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया। बहन जी को भले ही यह लगता हो की यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया है, हो सकता है कहीं न भी किया हो ? लेकिन जिन्होंने नोट ट्रांसफर किया है उन्हें पता होगा कि किसके वोट से वह लोग जीते हैं?
मेरे ख्याल से जनता ने बहुत ईमानदारी से गठबंधन के प्रत्याशियों के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है । जिसमें आर्थिक लुटेरों को छोड़ दिया जाए तो निश्चित तौर पर जमीन पर एक ऐसा मतदाता समूह बन रहा था जो आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर बहुजन समाज के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में सफल होता।
सबसे दुखद तो यह है कि बसपा अपने प्रत्याशी प्रतिनिधि को अपने लोगों का वोट बेचती है। खरीददार कोई भी हो सकता है जिसकी टेट में पूंजी हो? मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस पार्टी से कोई वैचारिक संघर्षशील व्यक्ति चुनाव कैसे लड़ सकता है ? मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि जिस तरह से बसपा का कैडर प्रत्याशियों को चूसता है उससे तो यह नहीं दिखाई देता कि भविष्य में भी इस पार्टी का कोई कार्यकर्ता जो ईमानदार होगा संघर्षशील होगा और नैतिक होगा वह संसद में या विधानसभा में पहुंच पाएगा। क्या कांशी राम जी ने यही सपना देखा था और इसी तरह से बसपा की टिकट बेचने की योजना बनाई थी।
अब वक्त आ गया है जब यह विचार करना है कि बहुजन राजनीति का नायक कौन होगा और कौन उसको दूर तक ले चलने का साहस और नैतिक जिम्मेदारी महसूस करेगा उन्हीं लोगों के मध्य से नए नेतृत्व की तलाश करनी होगी जैसी कांशी राम जी ने महात्मा फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के बाद परिकल्पना की थी।
निश्चित तौर पर इस काम में बहन मायावती नाकाम हुई है और उन्होंने पूरी बहुजन वैचारिकी को व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में बदलकर के निजी लाभ के लिए पूरे समाज को अंधकार में धकेल रही है। यह काल बहुजन इतिहास का बहुत ही अंधकारमय काल होगा यह तो तय हो चुका है।
दूसरी तरफ अखिलेश यादव विशेष रूप से जितने कमजोर साबित हुए हैं । यह खामियाजा पूरे पिछड़े समाज को उठाना पड़ रहा है। यह वही पिछड़ा समाज है जो हमेशा अपनी उपस्थिति विपक्ष के रूप में दर्ज कराता रहा है। लेकिन इनकी राजनीति के चलते आज अधिकांश पिछड़े वर्ग का व्यक्ति उस दल की ओर चला गया है । जो दल उसके विनाश का काम करता है । इसकी जानकारी जब किसी से बात की जाती है। तो वह यही कहता है कि सैफई परिवार तो केवल अपने और अपने जाति के लिए सोचता है । उसके आगे उसका कोई विजन ही नहीं है। जबकि सच्चाई इससे भी आगे की यह है कि वह अपनी जात के लिए भी नहीं सोचता । और इस बार तो यह भी तय हो गया कि वह केवल अपने लिए सोचता है।
राजनीतिक निराशा का यह सबसे अंधकार का दौर है। अंधकार में पडा यह बहुजन समाज कैसे आगे बढ़ेगा इस पर विचार करना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। निश्चित तौर पर वह वर्ग इसके लिए सोचने को तैयार नहीं है । जिसके पास राजनीति का छोटा-मोटा उपहार पड़ा हुआ है। उसकी संघर्ष की क्षमता विरोधियों ने समाप्त कर दी है । चाहे वह शैक्षणिक,आर्थिक क्षेत्र हो चाहे प्रशासनिक क्षेत्र हो यह संघर्षशील समाज जिसको उसने गुंडे और मवाली के रूप में प्रचारित कर दिया है।
बहुजन नेताओं को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया है । और मुसलमानों को तो देश के प्रति संदेह के घेरे में डाल दिया है। कुल मिलाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दिया है जिससे बर्तमान सत्ता के खिलाफ बोलने वाला या तो देशद्रोही करार कर दिया जाए या उसे आधार्मिक बता दिया जाएगा।
इस गठबंधन से जो बहुत खतरनाक काम हुआ है। वह यह कि मायावती जी को देश का प्रधानमंत्री घोषित करके सवर्ण समाज को तो चौकन्ना और एकजुट करने का काम इन्होंने किया ही था। जिसमें अति दलितों और अति पिछड़े भी शरीक हो गए हैं। यह सब अज्ञानता भरा काम है । क्योंकि गठबंधन की कोई ऐसी तैयारी ही नहीं थी जिसमें बहन जी प्रधानमंत्री होने की लाइन में भी खड़ी हो पाती।
श्री अखिलेश जी को उत्तर प्रदेश में एक छत्र मुख्यमंत्री के रूप में बहुजन समाज स्वीकार कर लेगा । इस प्रत्याशा में उन्होंने भी बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने का बिना योजना के घोषणा करके वह सारा काम किया को कम दुश्मन करता है। यह सब तो ऐसे ही लग रहा था जैसे कोई संत महात्मा ने कह दिया हो कि आप लोग एक साथ आ जाओगे तो बहन जी प्रधानमंत्री और आप निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री बन जाओगे।
जबकि ऐसा है नहीं इसके लिए पार्टियों की और जनता की टीम के साथ साथ बुद्धिजीवियों बहुत जबरदस्त समर्थन चाहिए होता है।
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प्रधानमंत्री ?
- डॉ लाल रत्नाकर
2019 लोकसभा चुनाव के लिए हुए गठबंधन में मनोवांछित परिणाम न मिलने के कारणों का सही मूल्यांकन करने पर या सही मूल्यांकन किए जाने के डर से ऐसा कह करके अपने को अलग कर ली हैं।
जिससे आने वाले दिनों में यह न कहना पड़े कि इनके सम्मीलन का जादू फेल कैसे हो गया।
अब जो मूल बात है कि सपा बसपा के रिश्ते तो खराब हो ही रहे हैं । लेकिन ग्राउंड लेवल पर जो समझ बनी थी या बन रही थी वह कितनी बनी रहेगी। मूलतः चिंता इस बात की हो रही है।
क्योंकि यह गठबंधन केवल नेताओं का गठबंधन नहीं था यह दोनों समाज के बुद्धिजीवियों और मतदाताओं के दबाव का गठबंधन था। जिसको इन्होने राजनीतिक रूप से अंगीकृत किया था लेकिन मायावती जी इसका गलत विश्लेषण करेंगी यह उम्मीद नहीं थी ।
हालांकि हर व्यक्ति यही कह रहा था कि जैसे ही मायावती को कोई ऐसा अवसर मिलेगा तब वह इस बंधन को तोड़ देंगी। वही हुआ जो लोगों को आशंका थी और दूसरी तरफ भाजपा रोज कह रही थी कि यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन है जो 23 मई 2019 के बाद टूट जाएगा।
बहन मायावती ने अपनी कला दिखा दी है और यह साबित कर दिया है कि वह लंबे समय तक किसी के साथ रिश्ता नहीं रख सकती हैं। इसका निहितार्थ क्या है उसको तो वह स्वयं अच्छी तरह समझती होगी । लेकिन लोगों को जो कुछ समझ में आ रहा है । वह यही आ रहा है कि आगे जो लड़ाई लड़नी है । ऐसे लोगों से जैसे लोगों से कभी : ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार और साहू जी महाराज ललई सिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा एवं जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने लड़ी थी।
मैं तो अखिलेश यादव की आदूरदर्शिता पर हमेशा लिखता रहा हूं । लेकिन इस बार लगा था कि उन्होंने एक अच्छा काम किया है जिससे जमीन पर कुछ बड़ा काम हो पाएगा । लेकिन इस गठबंधन की आयु इतनी कम होगी इसका अंदाजा नहीं था, कुछ बड़े नेताओं की राय में यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन नजर आ रहा था। जिसमें अंतर यही साबित हुआ था कि सब कुछ गवा देंगे मगर गठबंधन नहीं तोड़ेंगे। परीक्षार्थी भी यही थे और परीक्षक भी यही थे।
कहते हैं जिंदा कौम में 5 वर्ष तक इंतजार नहीं करती लेकिन इन दो कौमों के नेताओं ने 5 साल के लिए अपनी आवाम को बंधक बना दिया। अपने स्वार्थ और अपनी गलत नीतियों से राजनीति करने वाले का दिल हमेशा बड़ा होना चाहिए । और अकेले यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह सब कुछ फतह कर लेगा। जबकि यहां पर यही हुआ है, इस सौदे में बहन जी की आमदनी ज्यादा भले ही हुई हो लेकिन दलितों की भावी राजनीति को जितना उन्होंने नुकसान किया है । उसका खामियाजा भी उन्हें ही भोगना पड़ेगा।
अखिलेश यादव को भी चाहिए कि कुछ ऐसे लोगों से विमर्श करें जिससे उनका भविष्य का मार्ग सशक्त हो सके अन्यथा बहन मायावती जी का जो है सन 2014 में हुआ था वह आगे भी होना है । और अखिलेश जी को कितने समझौते करने पड़ेंगे इसका अंदाजा भी उन्हें अभी नहीं है।
मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि उनकी पार्टी में कितने महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपने लोगों को ही गाली गलौज और अनेकों प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं । और यह बात खुलेआम जनता के बीच भी उन्हीं के जरिए जाती है । एक दूसरे को नीचा दिखाने के साथ साथ कीचड़ उछालना और आस्तीन में सांप पालना उनकी एक बहुत बड़ी भयावह फौज वहां खड़ी दिखाई दी । जो आपका कहां पर किस तरह से विनाश करेगी उसका आकलन मैंने पहली बार जौनपुर जनपद में कथित रूप से सपायियो और बसपाइयों में देखा।
निश्चित तौर पर बसपा की 10 सांसदों की बडी फौज इस लड़ाई को लड़ने में कामयाब होगी यह बात बहन जी को अच्छी तरह समझ में आ गई होगी। 2014 में शून्य पर रही बसपा सपा के कंधे पर बैठकर 10 सांसदों की फौज खड़ी कर ली है। अब कह रही है कि यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया। बहन जी को भले ही यह लगता हो की यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया है, हो सकता है कहीं न भी किया हो ? लेकिन जिन्होंने नोट ट्रांसफर किया है उन्हें पता होगा कि किसके वोट से वह लोग जीते हैं?
मेरे ख्याल से जनता ने बहुत ईमानदारी से गठबंधन के प्रत्याशियों के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है । जिसमें आर्थिक लुटेरों को छोड़ दिया जाए तो निश्चित तौर पर जमीन पर एक ऐसा मतदाता समूह बन रहा था जो आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर बहुजन समाज के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में सफल होता।
सबसे दुखद तो यह है कि बसपा अपने प्रत्याशी प्रतिनिधि को अपने लोगों का वोट बेचती है। खरीददार कोई भी हो सकता है जिसकी टेट में पूंजी हो? मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस पार्टी से कोई वैचारिक संघर्षशील व्यक्ति चुनाव कैसे लड़ सकता है ? मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि जिस तरह से बसपा का कैडर प्रत्याशियों को चूसता है उससे तो यह नहीं दिखाई देता कि भविष्य में भी इस पार्टी का कोई कार्यकर्ता जो ईमानदार होगा संघर्षशील होगा और नैतिक होगा वह संसद में या विधानसभा में पहुंच पाएगा। क्या कांशी राम जी ने यही सपना देखा था और इसी तरह से बसपा की टिकट बेचने की योजना बनाई थी।
अब वक्त आ गया है जब यह विचार करना है कि बहुजन राजनीति का नायक कौन होगा और कौन उसको दूर तक ले चलने का साहस और नैतिक जिम्मेदारी महसूस करेगा उन्हीं लोगों के मध्य से नए नेतृत्व की तलाश करनी होगी जैसी कांशी राम जी ने महात्मा फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के बाद परिकल्पना की थी।
निश्चित तौर पर इस काम में बहन मायावती नाकाम हुई है और उन्होंने पूरी बहुजन वैचारिकी को व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में बदलकर के निजी लाभ के लिए पूरे समाज को अंधकार में धकेल रही है। यह काल बहुजन इतिहास का बहुत ही अंधकारमय काल होगा यह तो तय हो चुका है।
दूसरी तरफ अखिलेश यादव विशेष रूप से जितने कमजोर साबित हुए हैं । यह खामियाजा पूरे पिछड़े समाज को उठाना पड़ रहा है। यह वही पिछड़ा समाज है जो हमेशा अपनी उपस्थिति विपक्ष के रूप में दर्ज कराता रहा है। लेकिन इनकी राजनीति के चलते आज अधिकांश पिछड़े वर्ग का व्यक्ति उस दल की ओर चला गया है । जो दल उसके विनाश का काम करता है । इसकी जानकारी जब किसी से बात की जाती है। तो वह यही कहता है कि सैफई परिवार तो केवल अपने और अपने जाति के लिए सोचता है । उसके आगे उसका कोई विजन ही नहीं है। जबकि सच्चाई इससे भी आगे की यह है कि वह अपनी जात के लिए भी नहीं सोचता । और इस बार तो यह भी तय हो गया कि वह केवल अपने लिए सोचता है।
राजनीतिक निराशा का यह सबसे अंधकार का दौर है। अंधकार में पडा यह बहुजन समाज कैसे आगे बढ़ेगा इस पर विचार करना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। निश्चित तौर पर वह वर्ग इसके लिए सोचने को तैयार नहीं है । जिसके पास राजनीति का छोटा-मोटा उपहार पड़ा हुआ है। उसकी संघर्ष की क्षमता विरोधियों ने समाप्त कर दी है । चाहे वह शैक्षणिक,आर्थिक क्षेत्र हो चाहे प्रशासनिक क्षेत्र हो यह संघर्षशील समाज जिसको उसने गुंडे और मवाली के रूप में प्रचारित कर दिया है।
बहुजन नेताओं को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया है । और मुसलमानों को तो देश के प्रति संदेह के घेरे में डाल दिया है। कुल मिलाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दिया है जिससे बर्तमान सत्ता के खिलाफ बोलने वाला या तो देशद्रोही करार कर दिया जाए या उसे आधार्मिक बता दिया जाएगा।
इस गठबंधन से जो बहुत खतरनाक काम हुआ है। वह यह कि मायावती जी को देश का प्रधानमंत्री घोषित करके सवर्ण समाज को तो चौकन्ना और एकजुट करने का काम इन्होंने किया ही था। जिसमें अति दलितों और अति पिछड़े भी शरीक हो गए हैं। यह सब अज्ञानता भरा काम है । क्योंकि गठबंधन की कोई ऐसी तैयारी ही नहीं थी जिसमें बहन जी प्रधानमंत्री होने की लाइन में भी खड़ी हो पाती।
श्री अखिलेश जी को उत्तर प्रदेश में एक छत्र मुख्यमंत्री के रूप में बहुजन समाज स्वीकार कर लेगा । इस प्रत्याशा में उन्होंने भी बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने का बिना योजना के घोषणा करके वह सारा काम किया को कम दुश्मन करता है। यह सब तो ऐसे ही लग रहा था जैसे कोई संत महात्मा ने कह दिया हो कि आप लोग एक साथ आ जाओगे तो बहन जी प्रधानमंत्री और आप निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री बन जाओगे।
जबकि ऐसा है नहीं इसके लिए पार्टियों की और जनता की टीम के साथ साथ बुद्धिजीवियों बहुत जबरदस्त समर्थन चाहिए होता है।