मंगलवार, 17 अक्तूबर 2023

पांड़े तुम निपुण कसाई’ और ‘क्या तेरा साहब बहरा है’

पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है

कभी-कभार | विचार/विशेष  15/10/2023  

अशोक वाजपेयी: सत्ता को ठोस मुद्दों, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम ही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें पत्रकारों का कृतज्ञ होना चाहिए कि वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.


- अशोक वाजपेयी

मुझे इधर कुछ सप्ताहों से अपनी पत्नी रश्मि की फ़िज़ियोथेरापी के दौरान उनका इंतज़ार करते हुए पड़ोस में स्थित एक अस्पताल में हर दिन करीब डेढ़ घंटा गुज़ारना पड़ता हूं. मैं कोई पुस्तक ले जाता है. पर उसे शांत भाव से पढ़ना संभव नहीं हो पाता. रोगियों के जो सगे-संबंधी या दोस्त आस-पास बैठे होते हैं वे अक्सर अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं. ज़ोर-ज़ोर से बात करना, फिर भले अस्पताल में शांत रहने की अपील हर जगह लगी है, आदत सी है. अपने फोन पर कुछ इतनी ज़ोर से सुनना कि दूसरों को भी सुनाई दे, नई कुटेव है.

घंटों बैठकर इंतज़ार करना उबाऊ होता है और आप अपनी आम दिन की रोज़मर्रा ज़िंदगी से पूरी तरह अलग नहीं हो सकते या पाते. बड़ा अस्पताल है और सैकड़ों लोग इंतज़ार करते बैठे रहते हैं. पर किसी के हाथ में पुस्तक नहीं देखी जा सकती. यह एहसास दुखद है कि देश की राजधानी में पुस्तकों की, यहां के सामान्य जीवन में, बहुत कम, नहीं के बराबर, जगह है. कई बार लगता है कि इसका एक कारण पुस्तकों का आसानी से न मिल पाना है. कुछ प्रकाशकों को मिलकर सभी अस्पतालों को कुछ पुस्तकें भेंट करना चाहिए ताकि वे रोगियों और उनकी देखभाल करने वालों को दी जा सकें.

मुझे यह भी याद आता है कि मैंने दशकों से किसी राजनेता या धर्मनेता को कोई पुस्तक पढ़ते देखने का सुयोग नहीं पाया. वे अनेक सार्वजनिक स्थलों, हवाई अड्डों, स्टेशन, ट्रेन आदि में काफ़ी वक़्त गुज़ारते नज़र आते हैं पर उनके हाथ में कभी कोई पुस्तक मैंने नहीं देखी. कोई धर्मग्रंथ भी नहीं. यह आकस्मिक नहीं है कि ख़ासकर हिंदी अंचल में कोई राजनेता या धर्मनेता किसी पुस्तक का न तो उल्लेख करता है, न किसी का हवाला देता है. हमारा नेतृत्व ज़्यादातर पुस्तकविपन्न नेतृत्व है.

ऐसे में यह ख़बर आई है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने यह सार्वजनिक अनुरोध किया है कि लोग उन्हें स्वागत में फूलमालाएं और शॉल देने के बजाय पुस्तकें भेंट किया करें. कर्नाटक के लोग इस अनुरोध पर कितना अमल कर रहे या करने जा रहे हैं, यह कहना, फ़िलमुक़ाम, मुश्किल है. पर एक राजनेता ने यह अनुरोध कर पुस्तकों की क़द्र तो बढ़ा दी है.

मुझे याद आता है कि दशकों पहले एक बार जब नोबेल पुरस्कार-प्राप्त रूसी कवि जोसेफ़ ब्रॉडस्की अमेरिकन पोएट्री अकादमी या ऐसे ही किसी बड़े संस्थान के अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने लाखों की संख्या में कविता संग्रह ख़रीदवाकर पूरे देश के होटलों के कमरों में एक-एक प्रति रखवा दी थी. अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में होटल के हर कमरे में फोन डायरेक्टरी और बाइबिल की एक प्रति रखे जाने का रिवाज़ था और है. ब्रॉडस्की ने कहा था मेरा विश्वास है कि बाइबिल को फोनबुक के बगल में होने के बजाय कविता की एक पुस्तक के बगल में होना अच्छा लगेगा.

क्या गीता के बगल में, या कुरान या बाइबिल के बगल में, अज्ञेय-शमशेर-निराला-मुक्तिबोध आदि के कवितासंग्रह रखे जा सकते हैं? यह भी याद रखिए कि प्रायः सभी धर्मग्रंथ मूलतः कविता हैं.

‘सांची कहो तो मारन दौरत’

यह उक्ति कबीर की है- आज से लगभग छह सौ साल पहले की. पर हाल ही में कुछ स्वतंत्रचेता पत्रकारों पर सत्ता लगातार सच बोलने के लिए सचमुच मारने दौड़ी. सच हर समय में बोलना या उस पर आचरण करना जोखिम का काम है. प्रायः हर व्यवस्था में यह जोखिम का काम रहा है. लोकतंत्र में भी.

हम अपने लोकतंत्र के जिस चरण में हैं उसमें लगभग स्थायी भाव झूठ, घृणा और हिंसा हो गए हैं. टेक्नोलॉजी के नए विकास और विस्तार ने यह संभव और आसान कर दिया है कि झूठ, घृणा और हिंसा बहुत तेज़ी से फैल सकती, फैलाई जा सकती है. हम लगभग एक दशक से ऐसा होते हर सप्ताह लगभग चौबीस घंटे देख रहे हैं. हमारे मीडिया का एक बड़ा साधन-संपन्न हिस्सा बहुत मुखर-सक्रिय होकर इस फैलाव में शामिल है. ऐसी विकट परिस्थिति, इस बेहद अभागे समय में, शुक्र है कि कुछ पत्रकार, बहुत थोड़े साधनों के सहारे, सच हमारे सामने लाने का दुस्साहस कर रहे हैं.

हो सकता है कि कभी-कभार वे थोड़ा बहक भी जाते हों. पर कुल मिलाकर इन दिनों सचाई जानने, सत्ता को ठोस मुद्दों पर, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर, प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम यही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए. वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.

उन पर सत्ता की कोपदृष्टि होना अस्वाभाविक नहीं है. पर पिछले दिनों चालीस से अधिक पत्रकारों के साथ जो हुआ वह किसी भी समाज और लोकतंत्र में शर्मनाक है. अपने से असहमत को देशद्रोही या राष्ट्रविरोधी क़रार देने की चाल पिछले कुछ बरसों में बहुत व्यापक हुई है. उसका एक नया विस्तार यह है कि इस बार कुछ पत्रकारों पर शायद आतंकवादी होने का आरोप भी लगाया जा रहा है.

यह भी क़यास है कि यह सभी को सबक सिखाने के लिए है कि वे दुस्साहस न करें. चूंकि मामले में तहकीकात चल रही है, आरोपों के गुण-दोष पर इस मुक़ाम पर कुछ कहना अपरिपक्व होगा.

फिर भी, हम इस एहसास से बच नहीं सकते कि पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है. उसकी व्याप्ति सारे नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक है. हम सभी नागरिकों को असीमित स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति या अन्य तरह की, नहीं मिली हुई है. अनेक क़ानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मर्यादाओं का हमें पालन करना होना है. उनके रहते और उनकी सीमा में हमें जो स्वतंत्रता मिली हुई है उसका हमें मौलिक अधिकार है और अगर उसमें कटौती या उसका हनन होता है तो हमारे लिए, हम सभी के लिए यह चेतावनी है.

यह तो बार-बार स्पष्ट होता रहता है कि हमारी ऐसी स्वतंत्रता की रक्षा अंततः नागरिकों को ही करना होगी. नागरिक अंतःकरण को ही सजग और सक्रिय रहना है. संविधान को, अपनी उजली समावेशी परंपरा को, प्रश्नवाचकता की लंबी विरासत को नागरिक ही बचाएंगे, कोई और नहीं. वे ‘मारन दौरत’ हैं तो क्या हम सच जानने, प्रश्न पूछने के अपने थोड़े से भी अवसर गंवा देंगे?

टेढ़े कबीर

सीधे प्रश्न तो, हमारी परंपरा में, सर्जनात्मक-बौद्धिक-दार्शनिक परंपरा में, वेद से लेकर हर युग में पूछे गए हैं. भारत की प्रश्न-परंपरा बहुत लंबी, अथक-अडिग और व्यापक रही है. लेकिन टेढ़े प्रश्नों की परंपरा भी उतनी ही ऊर्जस्वित रही है. उसमें भी कबीर का विशेष स्थान है.

वे यह टेढ़ापन ‘पांड़े तुम निपुण कसाई’ और ‘क्या तेरा साहब बहरा है’ आदि कहकर धर्मों की अनुष्ठानपरक मूढ़ता पर तीखी टिप्पणी कर भर नहीं दिखाते. वे टेढ़े प्रश्न उठाते हैं और उसकी ज़द में तथाकथित ज्ञानियों का ज्ञान और आम लोगों का सामान्य विवेक भी आ जाता है. एक उदाहरण देखिए:

अवधू अगनि जरै कै काठ.
पूछौं पंडित जोग संन्यासी, सतगुर चीन्हूं बाट…
अगनि पवन मैं पवन कवन में, सबद गगन में पवनां.
निराकार प्रभु आदि निरंजन कत रवंते भवनां….

अक्सर यह सामान्य विवेक है कि सीधी राह चलना बेहतर है. कबीर अपने एक पद में टेढ़ी राह चलते कहते हैं:

अवधू ऐसा ग्यान विचार.
भैरे चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पार..
ऊबट चले सु नगरि पहुंचे, बाट चले ते लूटे.
एक जेबड़ी सब लिपटाने, के बांधे के छूटे..
मंदिर पेसि चहुं दिसि भीगे, बाहरि रहे ते सूखा.
सरि मारे से सदा सुखारे, अनमारे से दूखा..
बिन नैनन के सब जग देखे, लोचन अचते अंधा.
कहै कबीर कछु समझि परी है, यहु जग देख्या धंधा..

क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि आजकल सच्ची कविता इसी टेढ़ेपन का वितान है?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)
(द वायर से साभार उद्धृत)


मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

'क्या आबादी के आधार पर अधिकार दिए जा सकते हैं?' बिहार जाति सर्वे के बाद पीएम मोदी ने कांग्रेस पर बोला हमला (क्यों नहीं ?)

(देश का प्रधानमंत्री लोगों के अधिकार के प्रति जल करता हूं और संविधान में मिले उनके मौलिक अधिकारों पर प्रहार करता हो।

वह जातीय जनगणना पर किस तरह से मौन होकर अनाप-शनाप बोल रहा बोल रहा हो जिससे उसकी आंतरिक भावना परिलक्षित हो रही, ऐसा ही आज का भारत का प्रधानमंत्री जो उन्हीं लोगों के बल पर बना हुआ है जिनके अधिकारों को वह तहस-नहस कर रहा है।)


03 अक्टूबर 2023 नई दिल्ली: बिहार सरकार द्वारा राज्य का जाति सर्वेक्षण जारी करने के एक दिन बाद, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को कांग्रेस पर तीखा कटाक्ष किया और पार्टी से पूछा कि क्या "आबादी" (जनसंख्या) के अनुपात में अधिकार दिए जा सकते हैं।


चुनावी राज्य छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में भाजपा की 'परिवर्तन महासंकल्प' रैली में बोलते हुए, पीएम मोदी ने कहा कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार देश के गरीब लोगों का है।

यह भी पढ़ें: पीएम नरेंद्र मोदी ने बस्तर आदिवासी क्षेत्र के लिए 27,000 करोड़ रुपये की परियोजनाओं का अनावरण किया, एनएमडीसी स्टील प्लांट का उद्घाटन किया

सोमवार को नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है, ने राज्य का जाति सर्वेक्षण जारी किया। सर्वेक्षण से पता चला कि राज्य की कुल आबादी में ओबीसी और ईबीसी की हिस्सेदारी 63 प्रतिशत है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार जाति सर्वेक्षण की सराहना करते हुए कहा था कि लोगों को उनकी आबादी के अनुसार उनका उचित अधिकार देने के लिए देश को जाति आधारित जनगणना की जरूरत है।

कांग्रेस पर तीखा हमला बोलते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सबसे पुरानी पार्टी का मानना है कि जनसंख्या तय करती है कि संसाधनों पर किसका अधिकार है।

उन्होंने कहा, "मोदी के लिए गरीब लोग देश की सबसे बड़ी आबादी हैं और संसाधनों पर उनका पहला अधिकार है। गरीबों का कल्याण मेरा लक्ष्य है।"

अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की टिप्पणी को याद करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि कांग्रेस अपने ही बयानों का खंडन कर रही है.
"पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या सोच रहे होंगे? मनमोहन सिंह जी कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है और संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। लेकिन अब कांग्रेस कह रही है कि जनसंख्या तय करेगी कि किसे कितना मिलेगा अधिकारों में हिस्सेदारी। क्या वे मुसलमानों के अधिकारों को कम करना चाहते हैं?" उसने पूछा।

पीएम मोदी ने पूछा कि किसकी आबादी ज्यादा है और कहा कि क्या आबादी के हिसाब से अधिकार सुनिश्चित करना संभव होगा.

"क्या हिंदुओं को सारे अधिकार ले लेने चाहिए? कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि क्या जनसंख्या के हिसाब से अधिकार दिए जाएंगे। क्या कांग्रेस अल्पसंख्यकों को हटाना चाहती है?" उसने कहा।

पीएम मोदी ने कहा कि उनकी सरकार ने गरीब लोगों के हित को ध्यान में रखते हुए हर योजना शुरू की, उन्होंने कहा कि "गरीब देश की सबसे बड़ी जाति, सबसे बड़ा समुदाय है।"

पीएम मोदी ने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस ने किसी अन्य देश के साथ गुप्त समझौता किया है और भारत के खिलाफ बोलने में आनंद ले रही है, और लोगों से सतर्क रहने को कहा।

उन्होंने कहा, ''मैं कहता रहा हूं कि कांग्रेस पार्टी को अब कांग्रेस के लोग नहीं चला रहे हैं. कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता मुंह बंद करके बैठे हैं. अब कांग्रेस को पर्दे के पीछे से वे लोग चला रहे हैं जिनकी देश विरोधी ताकतों से सांठगांठ है.'' उन्होंने आरोप लगाया, ''कांग्रेस किसी भी कीमत पर देश के हिंदुओं को बांटकर भारत को बर्बाद करना चाहती है और गरीबों को बांटना चाहती है।''

"कांग्रेस ने किसी दूसरे देश के साथ कौन सा गुप्त समझौता किया है, इसका खुलासा अब तक नहीं हुआ है। समझौते के बाद कांग्रेस को भारत के खिलाफ बोलने में मजा आ रहा है। वह भारत की अच्छी चीजों को गलत तरीके से पेश कर रही है और मजे ले रही है। ऐसा लगता है देश के प्रति उनका प्रेम कम हो गया है,'' उन्होंने लोगों को उनसे सतर्क रहने की चेतावनी देते हुए कहा।

शनिवार, 16 सितंबर 2023

शिक्षक अंधविश्वास मिटाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में भागीदारी निभाएँ

 शिक्षक अंधविश्वास मिटाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में भागीदारी निभाएँ

 - किशन सहाय

Kisan Sahai Meena IPS


टोक ( सच्चा सागर ) शिक्षक दिवस पर बधाई देने के साथ विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ आईपीएस किशन सहाय ने कहा कि बच्चों की परवरिश में शिक्षकों की अहम भूमिका रहती है। परवरिश का जीवन भर असर रहता है। लोगों को शिक्षक व्यवस्था और धर्मगुरु / आध्यात्मिकगुरु व्यवस्था में फर्क समझना है। वर्तमान युग को शिक्षक व्यवस्था की जरूरत है धर्मगुरु / आध्यात्मिकगुरु व्यवस्था की नहीं। भारत में, आमतौर पर लोग शिक्षकों को गुरुजी कह देते हैं तथा धर्मगुरु / आध्यात्मिक गुरु को भी गुरुजी कह देते हैं जबकि इन दोनों के कार्य में कोई समानता नहीं है। शिक्षक हमको पहली कक्षा से लेकर एमए, एमकॉम, एमएसी, एमटेक, एम.बी.ए आदि तक पढ़ाई करवाते हैं। ये हमे गणित, विज्ञान, भूगोल, भाषा, वाणिज्य आदि का ज्ञान देते हैं। इस पढाई में कहीं भी अंधविश्वास की बात नहीं आती है यानि सारी पढ़ाई वास्तविकता या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है। जबकि धर्मगुरु / आध्यात्मिक गुरु हमें ईश्वर / अल्लाह, आत्मा, स्वर्ग नर्क आदि काल्पनिक बातों की शिक्षा देते हैं। ये बातें सिर्फ मानने पर हैं वास्तव में इनका कोई अस्तित्व है। इनकी बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ हैं। विज्ञान और तकनीकी के युग में, छात्र जीवन के दौरान, शिक्षा के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण व नैतिक मूल्य पैदा करना शिक्षकों का मुख्य दायित्व होना चाहिए। वर्तमान समय में जीवन के चार पुरुषार्थ नैतिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, काम और अर्थ में से प्रथम दो का विकास काफी हद तक छात्र जीवन में ही होता है। शिक्षा के साथ-साथ शिक्षकों को अंधविश्वास मुक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त, परम्परागत धर्म विहीन, जातिविहीन, नस्लभेद मुक्त, साहस और उच्च नैतिक मूल्यों वाले गुणों को छात्रों के जीवन में उतारने का प्रयास करते रहना चाहिए, जिससे, मानवतावादी विश्व समाज का निर्माण हो सके।

प्रस्तुतकर्ता:

- रामबिलास लांगड़ी


"सनातन"

सबका सनातन है वह चाहे मुस्लिम हो क्रिश्चियन हो बौद्ध हो जैन हो सिख हो या हिंदू..... 

"सनातन"

पर वरिष्ठ पत्रकार आरफा खानम ने बहुत अच्छी बहस का कार्यक्रम रखा, जिसमें पुनियानी से लेकर उर्मिलेश जी को इस बहस में रखकर इस बहस के और इस विषय के दोनों तथ्यों को बहुत स्पष्ट तौर पर मुखरित करने में जो भूमिका अदा की है वह निश्चित रूप से इस समय का सबसे अहम पहलू है।

पत्रकारिता के जगत में भी लोग सनातन और वर्णव्यवस्था के कितने पोषक हैं, यह बात साफ तौर पर सामने आई बहस में उर्मिलेश जी ने इस ओर भी बहुत सावधानी से उंगली उठाई, लेकिन कुछ बात है कि वह मानते ही नहीं अपने आगे किसी को आप मानिए ना अपना धर्म कौन मना कर रहा है आपको लेकिन दूसरों पर क्यों थोप रहे हैं।.......

सबका सनातन है वह चाहे मुस्लिम हो क्रिश्चियन हो बौद्ध हो जैन हो सिख हो या हिंदू.....

मजेदार विमर्श है इसे सुना जाना चाहिए, गुना जाना चाहिए और इस पर विचार करना चाहिए की दयानिधि स्टालिन ने पूरे देश के सामने आज एक उदाहरण दिया है !जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

उत्तर भारत में सनातन पर हमले को लेकर यदि कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि अब यहां की आवाम बेवकूफ है तो उन्हें यह समझना चाहिए की उत्तर भारत का युवा मुख्य रूप से पेरियार, ज्योतिबा फुले, अंबेडकर, कबीर आदि के वर्ण व्यवस्था पोषित सनातन के खिलाफ आंदोलन चला चुके हैं । और वह आंदोलन बहुत तेजी से जमीनी स्तर पर खड़ा हो रहा है। इसलिए यह बहुत स्पष्ट तौर से माना जा सकता है कि बीजेपी जितना ही इस पर हमला करेगी उतना ही "इंडिया" के समर्थक दलों को इसका लाभ मिलेगा ! इसलिए पत्रकार बंधुओ आप लोग सत्य को सत्य की ही तरह समझिए।

भाजपा धर्म की राजनीति करके किसका नुकसान कर रही है। कभी-कभी उसका भी आकलन करिए उन्होंने पिछड़ी जातियों का दलितों का जो नुकसान किया है सामाजिक न्याय के लिए लोग सामाजिक आंदोलनों से आगे आ रहे थे। उसे इसने बहुत चालाकी से रोका है, धर्म को हथियार बनाया है और राजनीति में उसका भरपूर प्रयोग किया है फिर सनातन के माध्यम से इस घोड़े को दौड़ना चाह रहे हैं जो जनता को भलीभांति समझ में आ गया है वह उत्तर हो पूर्व हो पश्चिम हो दक्षिण हो चारों तरफ जिस हाहाकार का प्रकोप है वह क्या है?

आशुतोष जी ! आप यह बात क्यों कर रहे हैं जब समाज में शिक्षा नहीं थी लोगों को अंबेडकर और पेरियार की जानकारी नहीं थी ज्योतिबा फुले को नहीं जानते थे सावित्रीबाई फुले की जानकारी नहीं थी और सब कुछ भाग्य को मानकर चल रहे थे।

वही सनातन जो सती प्रथा को बढ़ावा दिया था वही महिलाओं को उनके पुरुषों के साथ जला दे रहा था। सनातन में ही वर्ण व्यवस्था है ऊंच नीच है छुआछूत है, इस सबसे समाज उब गया है। 

अफसोस है इस देश का प्रधानमंत्री सनातन की बात कर रहा है, संविधान की नहीं ?इसलिए संविधान और सनातन में कोई सामंजस्य आज नहीं है। 

आप सनातनी बने रहिए लेकिन दूसरों को सनातनी बनाकर उनको अपमानित मत करिए।

उम्मीद है कि आप उर्मिलेश जी को समझने की कोशिश करेंगे।

भाजपा के कार्यकर्ता की तरह श्री राहुल देव जी बात कर रहे हैं । शायद उनको इस बात का अध्ययन नहीं है कि इस बीच कांचाइल्लैया की पुस्तक हिंदुत्व मुक्त भारत कितनी अधिक मात्रा में बिकी है, शायद जितना आपका रामायण और अन्य ग्रंथ नहीं बिका होगा।

अंबेडकर की बहुत सारी किताबें को लोग पढ़ रहे हैं।

दलित और बहुजन साहित्य की स्थिति वह नहीं रह गई है लोग इन विषयों पर बोल रहे हैं।लिख रहे हैं नीरज पटेल हैं, अंबेडकरनामा के डॉ रतन लाल है, वायर, न्यूजलॉन्ड्री और बीबीसी आदि समय-समय पर ऐसी परिचर्चा करता ही रहता है।

कम से कम राहुल देव जी जैसे लोगों को दोहरे चरित्र से पत्रकारिता करने का जो अवसर मिला रहा है वह यहां साफ साफ दिखाई दे रहा है।

वह अपना धर्म माने सनातन माने कौन उन्हें मना कर रहा है लेकिन उसकी जो खूबियां है उसे तो लोग गिनवाएंगे ही इसके लिए नुकसानदेह है वह भी लोग बताएंगे।

पूरी बहस को सुनिए यही कहूंगा।


(932) सनातन पर अब तक की सबसे बड़ी बहस: INDIA ने चारों ओर से घेरा मोदी को, अब सिर्फ़ ‘सनातन का सहारा’ - YouTube



मंगलवार, 15 अगस्त 2023

न्यायाधीश तब आत्मविश्वास पैदा करेंगे जब उनके कार्य सामाजिक, राजनीतिक दबाव से प्रभावित न हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों

डीवाई चंद्रचूड़ CJI  लिखते हैं: 


न्यायाधीश तब आत्मविश्वास पैदा करेंगे जब उनके कार्य सामाजिक, राजनीतिक दबाव से प्रभावित न हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों

-सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़

सीजेआई चंद्रचूड़ एक एक्सप्रेस श्रृंखला 'एट द स्टीयरिंग व्हील - द रोड अहेड' के लिए लिखते हैं: 

भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का मॉडल हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्यों और इसके शासन संस्थानों के कारण समय की कसौटी पर खरा उतरा है। - डी वाई चंद्रचूड़ 

नई दिल्ली | अपडेट किया गया: 15 अगस्त, 2023 07:52 IST

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़।



हमारी यात्रा सामूहिक अपेक्षाओं की यात्रा है। भारत के लिए स्वतंत्रता औपनिवेशिक शासन और असमानता पर आधारित सदियों पुरानी सामाजिक व्यवस्था से एक विवर्तनिक बदलाव थी। हमारी साझा चुनौतियाँ कई थीं और उत्पीड़न की प्रणालियों के खिलाफ संघर्ष के दौरान लाभ को संरक्षित करने के प्रयास भी कई थे। संस्थापक नेताओं ने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के संवैधानिक आदर्शों के आधार पर शासन के औपनिवेशिक मॉडल को संस्थागत लोकतंत्र के साथ बदलने का मार्ग तैयार किया। हमारा संविधान राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण में परिवर्तनकारी था। एक न्यायपूर्ण समाज हासिल करने की आकांक्षा में, संविधान ने एक परिवर्तनकारी क्षमता का खाका तैयार किया है।

जब भारत के संविधान को अपनाया गया, तो टिप्पणीकारों ने तर्क दिया कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक शर्तों के अभाव में भारत का संवैधानिक लोकतंत्र अल्पकालिक होगा। ऐसी आशा थी कि सामाजिक समानता, राजनीतिक साक्षरता और एक संस्थागत संस्कृति नए राष्ट्र की आधारशिला होगी। हमने जो संविधान अपनाया, उसमें लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के खतरों को मान्यता दी गई। इसने लोकतांत्रिक संस्थाओं को इन असमानताओं को दूर करने का कार्य सौंपा। लोकतंत्र का भविष्य इसी प्रयास पर निर्भर करेगा।

भारत का संवैधानिक लोकतंत्र का मॉडल हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्यों और शासन संस्थानों के कारण समय की कसौटी पर खरा उतरा है। प्रत्येक संस्था उसे सौंपी गई संवैधानिक भूमिका के संदर्भ में लोकतांत्रिक शासन में योगदान देती है। शासन की प्रत्येक संस्था का रोडमैप, अब और भविष्य में, संवैधानिक सीमाओं के भीतर संस्था की भूमिका को मजबूत करने पर केंद्रित होना चाहिए। हमारी क्षमता और आने वाले अवसरों को साकार करने का हमारा प्रयास सभी प्राधिकारों के प्रयोग को नियंत्रित करने वाले लोकतांत्रिक मापदंडों की एक मजबूत संवैधानिक समझ द्वारा निर्देशित होना चाहिए।

संविधान न्यायालयों के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निर्धारित करता है। अदालतें व्यक्तियों और समूहों को सामाजिक अन्याय और मनमानी से बचाने और संवैधानिक सीमाओं के भीतर संस्थागत शासन सुनिश्चित करने के लिए हैं। जब राज्य की ताकत का सामना करने वाले व्यक्ति अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं, तो वे न केवल कानून की व्याख्या या अधिकारों के कार्यान्वयन की मांग करते हैं। वे लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए अदालतों को एक प्रमुख स्थल के रूप में उपयोग करना चाहते हैं। हाथ से मैला ढोने के कारण एक सफाई कर्मचारी की मौत के लिए मुआवजे की मांग करने वाला एक परिवार तत्काल राहत पाने से परे कारणों से अदालत का दरवाजा खटखटाता है। सामाजिक व्यवस्था की असमानताओं को पुनर्गठित करने और अधिक न्यायपूर्ण समाज का मॉडल तैयार करने के लिए अदालतें नागरिकों के लिए केंद्र बिंदु हैं। हमारा सर्वोच्च न्यायालय एक संवैधानिक न्यायालय और अपील की अंतिम अदालत दोनों है। ये दोनों कार्य नागरिकों और उनके संस्थानों के बीच एक व्यवस्थित संवैधानिक संवाद को बढ़ावा देने में एकजुट होते हैं।

मजबूत निर्णय हमारी प्रक्रिया और परिणामों को दयालु और मानवीय बनाने के बारे में है। अदालतों की प्रतीकात्मकता और वास्तुकला, जैसे कि न्यायाधीशों के बैठने के लिए एक ऊंचा आसन, काव्यात्मक न्याय की अरिस्टोटेलियन अवधारणा को दर्शाता है...इस तरह के प्रतीकवाद भय और झिझक की भावना पैदा करते हैं।

न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती अदालतों तक पहुंच में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। अदालतों की दुर्गमता, चाहे प्रतीकात्मक हो या अन्यथा, लोकतांत्रिक स्थान के सिकुड़ने का कारण बनती है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के प्रयासों को प्रक्रियात्मक रूप से बढ़ाया जाना चाहिए, उन बाधाओं को ढीला करके जो नागरिकों को अदालतों तक पहुंचने से रोकती हैं और, मूल रूप से, अदालतों द्वारा किए जाने वाले कार्यों में विश्वास पैदा करके।

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

मौन हैं वह आग लगाकर !



मौन हैं वह आग लगाकर !
जलता धूं धूं कर देश !
जलाता कौन ! कौन चुप है?
उल्टे-सीधे बोल बोलकर!
भक्तनुमा भ्रष्टाचारी भी !
बोल रहा है पैनल में !
पैनल, चैनल या सोशल मीडिया पर !
झूठ बोल रहे हो यह कहना!
अब कहना क्या गैरकानूनी है।
चोर चोर चिल्लाना कैसे?
बोलो !
यह कैसे गैर कानूनी है।
न्यायालय को सच और झूठ से,
कैसी आंख मिचौली है।

-डॉ लाल रत्नाकर

ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।



ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।
-पेरियार 

इस पुस्तिका के लेखक : प्रखर सामजिक न्याय के समर्थक संघर्षशील नेता श्री चंद्रजीत यादव जी का परिचय इस प्रकार है : चंद्रजीत यादव एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे। वह 1967 और 1971 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में आज़मगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से भारत की संसद के निचले सदन लोकसभा के लिए चुने गए, और 1977 में जनता पार्टी के राम नरेश यादव से हार गए। जब ​​इंदिरा गांधी ने पार्टी को विभाजित किया, वह 'सोशलिस्ट' समूह के साथ बने रहे, और 1978 के आज़मगढ़ उपचुनाव में इंदिरा कांग्रेस की मोहसिना किदवई द्वारा जीते गए तीसरे स्थान पर रहे। [1] इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर) के उम्मीदवार के रूप में आज़मगढ़ से जीत हासिल की। फिर वह कांग्रेस में वापस आ गए और 1989 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर से हार गए। 1991 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जनता दल के उम्मीदवार के रूप में आज़मगढ़ से जीत हासिल की।

वह इंदिरा गांधी मंत्रालय में केंद्रीय इस्पात और खान मंत्री थे।


 प्राक्कथन


१७ सितम्बर १९८६ को नई दिल्ली में देश के महान क्रांतिकारी समाज सुधारक पेरियार ई० वी० रामासामी का १०८वां जन्म दिवस मनाया जा रहा है। इस जन्म दिवस का आयोजन पेरियार ई० वी० रामासामी राष्ट्रीय समारोह समिति कर रही है। जिसमें देश के कोने-कोने से प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। पहली बार देश की राजधानी नई दिल्ली में तमिलनाडू की भूमि पर पैदा हुए भारत के इस महान सपूत की वर्षगांठ राष्ट्रीय पैमाने पर मनाई जा रही है। इस समारोह को भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी सम्बोधित कर रहे हैं। इस अवसर पर हिन्दी भाषा भाषियों को "पेरियार" के जीवन और कामों से परिचित कराने के लिए बहु जल्दी में मैंने इस पुस्तिका को लिखा है। मुझे आशा है कि इस पुस्तिका के पढ़ने से पाठकों को "पेरियार" (पिता) के जीवन की एक झांकी मिल सकेगी। मेरा विचार पेरियार की एक बिस्तृत जीवनी बाद में लिखने का है क्योंकि जिस "नई सामाजिक व्यवस्था” की स्थापना का आन्दोलन हम लोग चला रहे हैं, उसके लिए पेरियार ई०वी० रामासामी का जीवन लोगों को प्रेरणा प्रदान करेगा।

पेरियार संक्षिप्त परिचय

जब कभी भी भारत का आधुनिक इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें पेरियार ई० वी० रामासामी का नाम देश के उन महान क्रांतिकारी, समाज सुधारकों में गिना जायेगा, जिन्होंने भारतीय समाज से अन्धविश्वास, छुआ-छूत, सामाजिक भेदभाव और थोथे धर्म-काण्डों के विरुद्ध संघर्ष करके उसे समाप्त करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। उनके आंदोलन का एक मात्र लक्ष्य था भारत के दलितों के "आत्म सम्मान" को स्थापित करने, उनमें आत्म विश्वास पैदा करने, समाज और प्रशासन में उनका हक • दिलाने और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को जड़मूल से समाप्त कर देना। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए उन्होंने पिछड़े वर्गों को प्रशासन में उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिलाने का जो आन्दोलन चलाया और उसमें जो कामयाबी हासिल की, उसे देश के पिछड़े वर्गों के लोग कभी नहीं भुला सकते। "पेरियार" साधारण मनुष्य के आत्म सम्मान, श्रमजीवियों के श्रम गौरव और समतावादी समाज के जबरदस्त पोषक थे।

पेरियार ई० बी० रामासामी "ई० वी० आर०" के नाम से लोकप्रिय थे। उनका जन्म १७ सितम्बर, १८७९ को तमिलनाडू के इरोड नाम कस्बे में एक सम्पन्न व्यापारी परिवार में हुआ था। किन्तु उन्होंने १० वर्ष की अवस्था में ही पढ़ाई छोड़ दी थी और जब वह १२ वर्ष के तो उन्होंने अपने पिता के साथ हुए व्यापार करना शुरू कर दिया।

आगे चलकर "पेरियार" अपनी जनसेवा और लोकप्रियता के कारण इरोड नर पालिका के अध्यक्ष चुने गये और सामाजिक कामों में उन्होंने गहरी दिलचस्पी शुरू की। उनके प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर श्री राजा गोपालचारी उनसे मिले और उन्होंने उनसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने का अनुरोध किया। राजा जी ने पेरियार से कहा कि वह जिस प्रकार के सामाजिक सुधार के काम कर रहे हैं, वह महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में अच्छी तरह किया जा सकता है। पेरियार ने राजा जी की बात मानकर इरोड नगरपालिका की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया और वह कांग्रेस के महामंत्री और अध्यक्ष भी बने। वह पहले तमिल थे जिनको कांग्रेस में इतने ऊंचे पद हासिल हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन में पेरियार कई बार जेल गये और उनके नेतृत्व में आज के तमिलनाडू और उस समय के मद्रास राज्य में कांग्रेस जन साधारण की एक लोकप्रिय संस्था बन गई और उनकी वजह से गरीब और पिछड़े वर्गों के लोग भी कांग्रेस के झण्डे के नीचे आये।

वैकोम के नायक

वैकोम तत्कालीन ट्रावनकोर कोचीन राज्य में एक खूबसूरत स्थान था । उस समय ट्रावनकोर कोचीन में राजा का राज्य था। वहां एक प्रसिद्ध मन्दिर था। मन्दिर के चारों तरफ जो सड़कें थीं उन पर अछूतों को चलने की इजाजत नहीं थी । मन्दिर के आस-पास की गलियों में भी वह प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां उनके जाने पर प्रतिबन्ध था । यद्यपि इन गलियों और सड़कों पर सवर्ण हिन्दुओं के अलावा मुसलमान और ईसाई भी आते जाते थे। वहां एक दिन एक घटना घटी। “इजवा" जाति के, जो अछूत समझी जाती थी, वकील श्री माधवन को मन्दिर के परिसार की अदालत में जाने पर ब्राह्मणों ने आपत्ति उठाई और उन्हें अपमानित किया। उन्होंने कहा राजा के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में वहां विशेष समारोह हो रहा है। पवित्र पत्तियां समारोह की तैयारी में लगाई गई हैं। माघवन अछूत जाति के हैं, उनके यहां आने से यह स्थान अपवित्र हो जायेगा। उस समय केरल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष श्री के० पी० केशव मैनन और जार्ज जोसफ ने ब्राह्मणों के इस व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाई और निर्णय किया कि राजा के समारोह में पूजा के दिन वह एक छुआछूत विरोधी आन्दोलन शुरू करेंगे। वैकोम में ज्यों ही यह आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, राजा ने उनके १९ नेताओं को जिनमें एडवोकेट माघवन, बैरिस्टर केशव मैनन, श्री टी० के० माघवन, जार्ज जोसफ आदि थे उनको गिरफ्तार करने का आदेश दिया। उनकी गिरफ्तारी से यह आन्दोलन कमजोर पड़ने लगा। आन्दोलन की इस स्थिति को देखते हुए श्री केशव मैनन और श्री जार्ज जोसफ ने पेरियार को एक पत्र लिखा और उन्होंने कहा कि “आप कृपया आकर इस आन्दोलन का नेतृत्व करें, अन्यथा हम लोगों के पास राजा के सामने माफी मांगने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा । उस स्थिति में एक महान काम के लिए शुरू किया गया यह आन्दोलन असफल हो जायेगा और इसे धक्का लगेगा। हम लोग इसी बात से चिन्तित हैं। इसलिए आप कृपया आकर इस आन्दोलन को शक्ति प्रदान करें ।” उस समय पेरियार की ख्याति इस बात के लिए दूर-दूर तक फैल चुकी थी कि वह छुआछूत के खिलाफ तन मन धन से संघर्षशील है। इसके अलावा पेरियार का प्रभावशाली भाषण शक्ति और शैली की भी लोग लोहा मानने लगे थे। पेरियार को यह पत्र उस समय मिला, जब वह मदुराई जिलें में पान्नापुरम नाम स्थान पर अपना प्रचार कार्य में गये हुए थे । इस पत्र के मिलते ही उन्होंने अपना दौरा स्थगित कर दिया। वह इरोड आये और वैकोम जाने की तैयारी करने लगे। उस समय पेरियार मद्रास कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने राजा जी को एक पत्र लिखा कि वह उनकी जगह पर अध्यक्षता का काम सम्भाल लें। वैकोम के आन्दोलन के महत्व को देखते हुए उनका वहां जाना निहायत जरूरी है। पेरियार वैकोम पहुंचे, उनके वहां पहुंचते ही यह खबर बिजली की तरह चारों तरफ दौड़ गई कि वह उस आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए आये हुए हैं। ट्रावनकोर कोचीन के राजा पेरियार के परिवार से बहुत अच्छी तरह परिचित थे जब कभी वह ट्रावनकोर कोचीन से दिल्ली आते थे तो इरोड में पेरियार के अतिथि गृह में ही ठहरते थे । इस आन्दोलन का नेतृत्व करने जब पेरियार वैकोम पहुंचे तो राजा ने उन्हें अपना अतिथि बनाया। पेरियार उनके अतिथि तो जरूर बनें, किन्तु वह तो किसी बड़े उद्देश्य के लिए वहां गये थे। उन्होंने आन्दोलन की कमान को अपने हाथ में सम्भाला और १० दिनों के अन्दर ही उनके भाषणों और उनके अभियान का यह प्रभाव हुआ कि अस्पृश्यता, मूर्ति पूजा और धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ एक माहौल बनने लगा। राजा ने चुपचाप उनकी गतिविधियों को देखा। लेकिन जब उन्होंने देखा कि आन्दोलन जोर पकड़ रहा है, तब उन्होंने पेरियार की जन सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। पेरियार ने उस प्रतिबन्ध का उल्लघंन किया और जब वह जनसभा में बोल रहे थे तो राजा की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन पर मुकदमा चलाया गया पेरियार को एक महीने कठिन कारावास की सजा दी गई। पेरियार जब जेल में थे उस समय उनकी पत्नी श्रीमती नागममाई और उनकी बहन कन्नामल और कुछ अन्य लोगों ने अस्पृश्यता के खिलाफ प्रचार कार्य जारी रखा।

पिरियार जब जेल में थे तो उस समय भी आन्दोलन के प्रति जन साधारण में समर्थन बढ़ने लगा। बड़े पैमाने पर लोगों ने सत्याग्रह करने के लिए अपना नाम लिखाया। आश्चर्य की बात यह है कि पेरियार जब इस महान कार्य नं लगे हुए थे तो उनकी यह बात राजागोपालचारी की को पसन्द नहीं आई उन्होंने उनको पत्र लिखा और श्री निवास आयंगर द्वारा उनको यह संदेश भेजा कि पेरियार ई० वी० रामासामी अपने प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेश क्यों इस आन्दोलन को चला रहे हैं और उनसे यह कहा कि वह इस आन्दोलन को छोड़कर आयें और मद्रास कांग्रेस के काम को सम्भालें किन्तु पेरियार ने उनकी यह बात अनसुनी कर दी।

वैकोग के आन्दोलन की चर्चा केरल राज्य की सीमा के बाहर पूरे देश में शुरू हो गई और महात्मा गांधी जी स्वयं ९ मई, १९२५ को वैकोम गये वहां जाकर वह सत्याग्रहियों से मिले और इसके अलावा वहां के पुरातन विचार पन्थी, ब्राह्मणों से भी मिले और उन्होंने उनको समझाने बुझाने की कोशिश कि वह अछूतों को भी अन्य लोगों की भांति मन्दिर की चारों तरफ की गलियों और सड़कों पर आने जाने की इजाजत दें। किन्तु गांधी जी इस सलाह को पुरातन पन्थी ब्राह्मणों और उनके संगठन ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उन गलियों में अछूतों के आने से मन्दिर की मूर्तियां अपवित्र हो जायेंगी। क्योंकि उनकी सांस हवा में मिलकर मन्दिर को और उसकी मूर्तियों को गन्दा कर देंगी।

महात्मा गांधी ने वैकोम आन्दोलन का पूरी तरह से समर्थन किया था। फिर भी उनके और पेरियार के दृष्टिकोण में मौलिक मतभेद था। पेरियार पूरी तरह से छुआछूत के खिलाफ थे और जिस बाह्मणवादी व्यवस्था ने लोगों को जन्म से छोटा और जन्म से बड़ा के सिद्धान्त को मानकर भारतीय समाज को अन्दर से खोखला कर दिया था और समाज के विशाल बहुमत को अपमानित किया, पेरियार उस व्यवस्था को निर्मूल समाप्त करना चाहते थे । जबकि गांधी जी का कहना था कि हमें ब्राह्मणों से टकराव की स्थिति नहीं पैदा करनी चाहि । मन्दिर में प्रवेश के लिए हमें अभी जोर नहीं देना चाहिए। बल्कि मन्दिर के आस पास की सड़कों और गलियों में अछूतों को चलने का अधिकार यदि राजा दे दें तो अभी हमें इस समय उसी से संतोष करना चाहिए। आन्दोलन के बीच राजा की मृत्यु हो गई और रानी ने राज्य का कार्यभार सम्भाला। गांधी जी रानी से मिले और रानी इस बात पर सहमत हो गई कि अछूतों को मन्दिर के आसपास की गलियों और सड़कों पर चलने का अधिकार होना चाहि । गांधी जी पेरियार ई० वी० रामासामी के पास पहुंचे, जहां वह वैकोम में ठहरे हुए थे। पेरियार ने गांधी जी से कहा "सार्वजनिक सड़कों पर अछूतों को चलने का अधिकार हासिल करना कोई वही बात नहीं है यद्यपि कांग्रेस अभी अछूतों के मन्दिर प्रवेश के कार्यक्रम नहीं चला रही है, किन्तु जहां तक मेरा सम्बन्ध है मैं इस काम को अपना आर्दश मानता हूँ। इसलिए आप मेरी तरफ से भी रानी को यह कह सकते है कि फिलहाल मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश कराने का कोई कार्यक्रम नहीं है। यदि उन्हें सड़कों और गलियों में चलने की इजाजत दी जाती है तो इससे स्थिति सामान्य होने में मदद मिलेगी। फिर मैं बाद में अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित करूंगा।"

गांधी जी ने रानी को यह संदेश दिया। उसके बाद मन्दिरों के आस-पास की गलियों और सड़कों को अछूतों और शुद्रो के लिए खोल दिया गया। उस समय यह दलितों के लिए एक बड़ी विजय समझी गई। इस सफल सत्याग्रह के बाद पेरियार को "वैकोम के वीर" की उपाधि से विभूषित किया गया।

पेरियार ने क्यों कांग्रेस छोडी ?

पेरियार ई० बी० रामासामी ने कांग्रेस के उच्च पदों पर रहते हुए भी अपने सामाजिक आन्दोलनों को नहीं छोड़ा। सच बात तो यह है कि वह मुख्य रूप से समाज सुधारक ये और हिन्दू समाज की कुरीतियाँ उन्हें बर्दास्त नहीं थी। छुआछूत को वह सबसे बड़ा अमानवीय कृत्य समझते थे। पेरियार ने यह भी देखा कि उस समय के मद्रास राज्य में समाज और प्रशासन पर ब्राह्मण जाति के लोग हावी थे। वो न केवल छुआछूत में विश्वास रखते ये, बल्कि वह हाथ से काम करने वालों को नीच, अछूत और शूद्र समझ कर उनकों अपमानित करते थे। पेरियार ने उनके इस प्रभुत्व के खिलाफ आन्दोलन चलाया और अपने इस आन्दोलन के बीच धर्मकाण्डों, मूर्ति पूजा और यहां तक कि भगवान पर भी गहरे प्रहार करने लगे। उनका कहना था कि जो भगवान अपनी संतान के हाथों से छू जाने से अपवित्र हो जाता है, वह भगवान नहीं हो सकता। भगवान की कल्पना घूर्तों ने केवल इसलिए की है कि भगवान और धर्म के नाम पर वह आम जनता का शोषण करते रहें। इस बीच मद्रास में जस्टिस पार्टी का प्रभाव बढ़ा। यह पार्टी विशेष रूप से गैर ब्राह्मणवादी लोगों की पार्टी थी और उस पाटी ने छुआछूत समाप्त करने और पिछड़े वर्गों के लिए महत्त्वपूर्ण काम करने शुरू किये। पेरियार की हमदर्दी इस पार्टी के प्रति बढ़ गई थी। इस बात को कांग्रेस के अन्दर के ब्राह्मण नापसन्द कर रहे थे और इस प्रश्न पर १९२१ की शूवन मल्लाई नाम स्थान पर जब मद्रास कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षकता पेरियार कर रहे थे, तो वहां यह मुद्दा उभर कर सामने आया, लेनि इसके बावजूद भी पेरियार कांग्रेस में बने रहे।

सन १९२५ में मद्रास कांग्रेस का अधिवेशन कांचीपुरम में हो रहा था जिसकी अध्यक्षकता श्री वी० कल्यानासुन्दरम् कर रहे थे। इस अधिवेशन के एक दिन पहले कांचीपुरम में ही पेरियार ने कुछ गैर ब्राह्मणों के मुख्य नेताओं की बैठक बुलाई और उसमें यह निश्चय किया गया कि अधिवेशन में गैर ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया जाये। जब इन लोगों ने प्रस्ताव पेश करने की इजाजत मांगी और कहा कि कांग्रेस ने भी सिद्धान्त रूप से गैर ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों में ५० प्रतिशत आरक्षण को स्वीकार कर लिया है। इसलिए इस अधिवेशन में इस बात पर निर्णय होना चाहिए। परन्तु अध्यक्ष ने इस प्रस्ताव को पेश करने की इजाजत नहीं दी । पेरियार अध्यक्ष के इस फैसले के खिलाफ उठकर खड़े हो गये और उन्होंने कहा कि आपने यह आदेश दिया था कि मैं यदि इस प्रस्ताव के पक्ष में ३० प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर करा कर दूं तो आप इसे पेश करने की इजाजत देंगे । किन्तु अब इस प्रस्ताव के पक्ष में ५० प्रतिनिधियों ने अपने हस्ताक्षर किये हैं, अब आप किस बुनियाद पर इसे अस्वीकार कर रहे हैं? पेरियार की यह बात सुनकर आरक्षण विरोधी सदस्यों ने उनको बोलने से रोकना चाहा और उन्हें बैठ जाने के लिए कहा। पेरियार ने बैठने सो इन्कार कर दिया ओर अध्यक्ष को अपना निर्णय देने के लिए बराबर अनुरोध करते रहे। अधिवेशन हॉल में हलचल मच गई, किन्तु अध्यक्ष ने इजाजत नहीं  दी। इस पर पेरियार ई० वी० रामासामी अधिवेशन से यह कहते हुए बाहर चले गये कि ऐसी कांग्रेस में गरीब को न्याय के लिए कोई गुजायश नहीं है, मैं उसमें नहीं रह सकता। इस प्रकार से पेरियार ने कांग्रेस छोड़ दी। उसके बाद राजा जी व श्री वी० कल्यानासुन्दरम और अन्य कांग्रेस के नेता कई बार पेरियार के पास गये, उनसे कांग्रेस में लौट आने के लिए अनुरोध किया। किन्तु पेरियार का उत्तर था “कांग्रेस दलित वर्ग और पिछड़े वर्ग के हितों की विरोधी पार्टी है, इस पर केवल एक जाति का प्रभुत्व है। इस संगठन से दलित को न्याय नहीं मिल सकता ।"

आत्म सम्मान आन्दोलन

सन १९२५ में कांग्रेस छोड़ने के तुरन्त बाद पेरियार ने “आत्म सम्मान" आन्दोलन प्रारम्भ किया। यह एक सामाजिक, राजनीतिक संगठन था, जिसके वह स्वयं अध्यक्ष थे । इसका उद्देश्य समाज से सभी प्रकार की सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने और दलितों के अन्दर नये समाज की रचना के लिए चेतना पैदा करना था। इस आन्दोलन ने तमिलनाडू के गरीबों में आत्म विश्वास पैदा किया। उन्होंने अपने हक के लिए संघर्ष शुरू किया। पेरियार के रूप में उन्हें एक ऐसा नेता मिल गया था जिसके किसी पद की लालसा नहीं थी। जो दलितों के उत्थान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार था । इसके लिए वह कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों से ढेले पत्थर भी खाये। उनके द्वारा सामाजिक बहिष्कार की यातनायें भी सही, किन्तु वह अपने काम में अडिग रहे। विश्वास और प्रयास के सहारे वह गांव-गांव घूम कर “नई सामाजिक व्यवस्था” का संदेश लोगों को देते रहे । फलस्वरूप पेरियार की लोकप्रियता जनसाधरण में दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। इस प्रकार देश के उस बड़े भाग में एक नई विचारधारा और एक नई सामाजिक क्रांति ने जन्म लिया। अपने आन्दोलन के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए पेरियार ने ("केडियरस" रिपब्लिक) साप्ताहिक और बाद में “विदुतले” (फ्रीडम) दैनिक का प्रकाशन शुरू किया। पेरियार ने छुआछूत के अलावा विशेष रूप से अर्न्तजातिय विवाह और विधवा विवाह का प्रचार भी किया। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, सामाजिक भेदभाव और समाज की बहुत-सी अन्य कुरीतियां बगैर समाप्त किये भारत आधुनिक समाज का देश नहीं बन सकता। इसलिए उन्होंने आजीवन इन कुरीतियों के खिलाफ अनवरत संघर्ष किया।

१९३८ में पेरियार ई० वी० रामासामी जसटिस पार्टी के अध्यक्ष चुने गये। १९४४ में सेलम के प्रसिद्ध सम्मेलन में पेरियार ने और उनके अनुयाई, तमिलनाडू के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री एन० अन्नादुराई ने जस्टिस पार्टी को एक नये संगठन में बदल दिया। जिसके नाम द्रविड़ कजगम रखा गया।

पेरियार और आरक्षण

आज यदि तमिलनाडू में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में ६८ प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है तो उसका पूरा श्रेय पेरियार को ही जाता है। यही नही बल्कि सारे देश में जहां कहीं भी इन वर्गों को अब तक आरक्षण मिला है, उस सम्बन्ध में जिन दो व्यक्तियों का नाम सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। उनमें से बाबा साहब डा० भीमराव अम्बेडकर और पेरियार ई० वी० रामासामी का नाम यशश्वी रहेगा। पेरियार ने बड़े जोर से इस आन्दोलन को चलाया और इस बात का विरोध किया कि केवल ३ प्रतिशत आबादी वाले ब्राह्मण मद्रास राज्य की ९० प्रतिशत नौकरियों पर काबिज है और उन्होंने छोटी जातियों के युवकों और युवतियों को सरकारी नौकरियों में आने का रास्ता अवरुद्ध कर दिया है। पेरियार ने हा कि यह अन्याय, प्रजातंत्र के सिद्धान्त के विरूद्ध है और जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, तब तक प्रशासन का स्वरूप लोकप्रिय नहीं हो सकता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है। इस प्रश्न को लेकर पेरियार ने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया। उन्होंने अनवरत रूप से इस आन्दोलन को चलाया और उनके आन्दोलन का ही यह असर था कि आरक्षण का सिद्धान्त माना गया और जब कभी भी आरक्षण को समाप्त करने की कोशिश की गई पेरियार ने आन्दोलन के जरिये और कानूनों को मदद लेकर भी आरक्षण की रक्षा की।

पेरियार ने अपने प्रचार में बराबर इस बात पर जोर दिया कि केवल राज्य स्तर पर ही आरक्षण हासिल करके हमें संतोष नहीं करना चाहिए। केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में आरक्षण हासिल करना निहायत जरूरी है। वहां अभी भी बड़ी जातियों का पूरी तरह से प्रभुत्व है और सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर वहीं छाये हुए हैं। इन जातियों के लड़के-लड़कियों को सरलता से नौकरी मिल जाती है, जैसे कि नौकरी हासिल करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा अल्पसंख्यकों के योगय लड़के-लड़कियों को इसलिए भी नौकरी नहीं मिल पाती कि उनके साथ भेद-भाव किया जाता है। पेरियार ने अपने जीवनकाल में वर्तमान शिक्षा प्रणाली की भी गहरी आलोचना की। उनका कहना था कि यह शिक्षा प्रणाली समाज में शोषण को मजबूत करती है और गरीबों के साथ भेद-भाव करती है। पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों के विद्यार्थियों को समान अवसर नहीं मिलता। उनके जीवन में वह सुविधायें हासिल हैं जो बड़ी जातियों और अमीरों के बेटे-बेटियों को मिलती है। उन्होंने वर्तमान शिक्षा पद्धति को रट्टू और अवसरवादी पद्धति करार दिया। उन्होंने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की भी कटु आलोचना की। उन्होंने एक जगह - रूस का उदाहरण देते हुए कहा है कि यहां विद्यार्थियों को एक निश्चित समय तक पढ़ाया जाता है फिर उनकी बौद्धिक, शारीरिक और आम जानकारी की परीक्षा की जाती है और तब उन्हें काम पर लगाया जाता है। वहां की शिक्षा व्यावहारिक, कर्म करके सीखने की शिक्षा है। उस प्रणाली से विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास होता है। हमारे देश की शिक्षा बेकारों को पैदा करती है। --

आरक्षण के बारे में पेरियार का बहुत साफ मत था कि हर जाति और वर्ग की उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण निर्धारित किया जाना चाहिए। यदि किसी जाति को या समुदाय को उसकी आबादी से एक प्रतिशत भी अधिक स्थान हासिल होता है तो उसे समाप्त करके वह एक जगह उस समुदाय को दी जानी चाहिए, जिसका प्रतिशत उसकी आबादी के अनुपात में कम है। पेरियार के शिष्य श्री अन्नादुराई और बाद में श्री करूणानिधि और वर्तमान समय में श्री एम० जी० रामचन्द्रन जब तमिलनाडू के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पेरियार के आदेशों को ध्यान में रखते हुए राज्य के पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण हासिल कराया। यह पेरियार के कारण ही सम्भव हुआ ।

पेरियार की दृष्टि में महिलाओं का स्थान

पेरियार महिलाओं के सम्मान और उनको हर क्षेत्र में बराबरी का स्थान देने के बड़े जबरदस्त हाभी थे। उनके विचार से सदियों से भारतीय समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव का बर्ताव करके उनको बराबरी का दर्जा नहीं दिया है। उनकी दृष्टि में महिलाओं का काम केवल घर में रोटी पकाना, बच्चों की देखभाल करना और परिवार की सेवा करना है लड़कियों को आमतौर से शिक्षा से भी वंचित रखा गया। छोटी उम्र में उनकी शादी करके उन्हें उनके पति की परिवार की सम्पति बना दिया जाता था। और बहुधा उन्हें तरह-तरह की यातनाओं का शिकार होना पड़ता था। दुर्भाग्य से यदि वह विधवा हो जाती तो उन्हें अपमान का जीवन व्यतीत करना पड़ता था ।

पेरियार ने सन १९२९ में आत्म सम्मान सम्मेलन में महिलाओं के बारे में निम्नलिखित प्रस्ताव पास कराये ।

१. महिलाओं को परिवार की सम्पति में पुरूषों के बराबर का अधिकार दिया जाये ।

२. स्कूलों को उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी दिये जाने में आपत्ति नहीं जोनी चाहिए।

३. स्कूलों में विशेष रूप से प्राइमरी स्कूलों में केवल महिलाओं को ही अध्यापिकाओं के पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए।

पेरियार ने महिलाओं को समाज और परिवार में बराबरी का दर्जा और सम्मान देने को अपने आन्दोलन का प्रमुख मुद्दा बनाया था ।

सन १९३० में इरोड सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास कराये कि परिवार में लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान तो दिया ही जाये उसके अलावा उन्हें अपना जीवन साथी स्वयं चुनने की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए। पेरियार के विचार में महिलाओं को केवल सौर्दय की गुड़िया और भोग की वस्तु मानना मानव जाति का भी अपमान है। पेरियार का कहना था कि यदि देश की उन्नति और प्रगति करके आधुनिक बनना है तो महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी का दर्जा देना राष्ट्रीय कर्त्तव्य है ।

पेरियार ई० वी० रामासामी एक महाज सामाजिक क्रांतिकारी, सेनानी और दृढ़निष्ठ तार्किक तो थे ही किन्तु साथ ही साथ वह एक सरल और सहृदय मानव भी थे। २४ दिसम्बर, १९७३ को ९५ वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। तमिलनाडू के कोने-कोने से उनके अन्तिम दर्शन करने के लिए जन-समूह उमड़ पड़ा और “पेरियार अमर रहें” के नारों से आकाश गूंज उठा ।

श्री चंद्रजीत यादव 
पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार 
पेरियार ई० वी० रामासामी की जन्म शताब्दी के अवसर पर भारत सरकार के डाक विभाग ने "स्मारक डाक टिकट" जारी करके उनका सम्मान किया था।

पेरियार के सिद्धान्तों और आदर्शो का झण्डा और मशाल अपने हाथों में लेकर आज भी उनके लाखो अनुयायी, उनके शिष्य श्री के० वीरामनी के नेतृत्व में समाज सुधार के अपने आन्दोलन को पूरे विश्वास के साथ चला रहे हैं। श्री वीरामनी द्रविड़ कजगम के महामंत्री हैं।

------------------

----------------------- 
★ मेरा मत है कि जो मनुष्य समाज की सेवा नहीं करता है वह केवल एक साधारण पशु के समान है।
★ अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान को भी जोखिम में डालने के लिए मनुष्य को तैयार रहना चाहिए।
★ यदि भगवान की मूर्ति मनुष्य के हाथ से छू जाने से अपवित्र हो जाती है तो उस मूर्ति को भगवान कैसे समझा जा सकता है ?
★ क्यों एक आलसी ब्राह्मण को बड़ी जाति का समझा जाये जबकि जमीन से अनाज पैदा करने वाले और मेहनती श्रमिक को छोटी जाति का समझा जाता है।
★ ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।

-पेरियार ई० वी० रामासामी

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...