शुक्रवार, 14 मई 2021

अर्जक संघ

अर्जक विवाह पद्धति :

यह पद्धति ब्रह्मिणवादी पाखंड से अलग है जिसे उत्तर भारत में राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

इसके लिए पूर्वांचल में डॉ मनराज शास्त्री एवं श्री राम आश्चर्य यादव (नेता) ने प्रचारित और प्रसारित किये। 


अर्जक संघ : 

रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998), एक समाजवादी नेता थे जिन्होने अर्जक संघ की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का 'कबीर' कहा जाता है।

‘धार्मिक यंत्रणाएं, एक साथ और एक ही समय में वास्तविक यंत्रणाओं की अभिव्यक्ति तथा उनके विरुद्ध संघर्ष हैं। धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, निष्ठुर, हृदयहीन संसार का हृदय, आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है।  यह लोगों के लिए अफीम है। मनुष्य ने धर्म की रचना की है, न कि धर्म ने मनुष्य को बनाया है।’ᅳकार्ल मार्क्स 

दुनिया में अनेक धर्म हैं, लेकिन अपने ही भीतर जितनी आलोचना हिंदू धर्म को झेलनी पड़ती है, शायद ही किसी और धर्म के साथ ऐसा हो। इसका कारण है जाति-व्यवस्था, जो मनुष्य को जन्म के आधार पर अनगिनत खानों में बांट देती है।  ऊंच-नीच को बढ़ावा देती है। मुट्ठी-भर लोगों को केंद्र में रखकर बाकी को हाशिये पर ढकेल देती है। ऐसा नहीं है कि इसकी आलोचना नहीं हुई। बुद्ध से लेकर आज तक, जब से जन्म हुआ है, तभी से इसके उपर उंगलियां उठती रही हैं। जाति और जाति-भेद मिटाने के लिए आंदोलन भी चले हैं, बावजूद इसके उसे मिटाना चुनौतीपूर्ण रहा है। उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक जागरण के दौरान, यह मानते हुए कि बिना धर्म को चुनौती दिए जातीय भेदभाव से मुक्ति असंभव हैᅳजोतीराव फुले ने हिंदू धर्म तथा उसको संरक्षण देने वाले वर्चस्ववादी जाति-व्यवस्था पर सीधा प्रहार किया। उसके बाद उसे बहुआयामी चुनौती डॉ.  आंबेडकर, ई. वी. रामास्वामी पेरियार, स्वामी अछूतानंद, नारायण गुरु आदि की ओर से मिली। 

जिन दिनों देश में आजादी की राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही थी, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘त्रिवेणी संघ’  पिछड़ी जातियों और अछूतों के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संघर्ष कर रहा था। आजादी के बाद 1970 के दशक में गठित अर्जक संघ ने जातीय शोषण और धार्मिक आडंबरवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की। इसके प्रणेता थे रामस्वरूप वर्मा। आरंभ में उसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के कानपुर और आसपास के क्षेत्रों व मध्य बिहार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित था। पिछले कुछ वर्षों से उसकी लोकप्रियता में तेजी आई है। संचार-क्रांति के इस दौर में सैकड़ों युवा उससे जुड़ चुके हैं।  इसके फलस्वरूप वह उत्तर प्रदेश की सीमाओं से निकलकर बिहार, उड़ीसा जैसे प्रांतों में भी जगह बना रहा है। 

रामस्वरूप वर्मा

अर्जक संघ की स्थापना रामस्वरूप वर्मा ने 1 जून 1968 को की थी।  इसके प्रचार-प्रसार में उनका साथ दिया ललई सिंह यादव और बिहार के लेनिन कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने। इनके अलावा इस आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम महाराज सिंह भारती, मंगलदेव विशारद जैसे बुद्धिवादी चेतना से लैस नेताओं ने किया। इन सभी का एकमात्र उद्देश्य था, सामाजिक न्याय की लड़ाई को विस्तार देना।  ऊंच-नीच, छूआछूत, जात-पांत, तंत्र-मंत्र, भाग्यवाद, जन्म-पुनर्जन्म आदि के मकड़जाल में फंसे दबे-कुचले लोगों को, उनके चंगुल से बाहर लाना।  

दरअसल, जोतीराव फुले हिंदू धर्म की विकृतियों की ओर बहुत पहले इशारा कर चुके थे।  उसके बाद से ही उसमें सुधार के दावे किए जा रहे थे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब दलितों और पिछड़ों का नेता कहलाने की होड़-सी मची थी। उससे लगता था कि लोकतंत्र जातीय वैषम्य को मिलाने में सहायक होगा। लेकिन हो एकदम उलटा रहा था। जिन नेताओं पर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी थी, वे चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगते थे। पुरोहितों के दिखावे और आडंबर में कोई कमी नहीं आई थी।  कहां यह विश्वास जगा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण ऊपर से समाज के निचले वर्गों पर होने वाले जाति-आधारित हमलों में कमी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक प्रकार से उन्होंने साफ कर दिया था कि हिंदू धर्म के नेता अपनी केंचुल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। वे जाति और धर्मांधता को स्वयं नहीं छोड़ने वाले। लोगों को स्वयं उसके चंगुल से बाहर आना पड़ेगा। पिछले आंदोलनों से यह सीख भी मिली थी कि जाति-मुक्त समाज के लिए धर्म से मुक्ति आवश्यक है।  मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म मनुष्यता है। जियो और जीने दो उसका आदर्श है। मामला धार्मिक हो या सामाजिक, मनुष्य यदि अपने विवेक से काम न ले तो उसके मनुष्य होने का कोई अर्थ नहीं है।  

पिछड़ी जाति के किसान परिवार में हुआ रामस्वरूप वर्मा का जन्म

रामस्वरूप वर्मा का जन्म कानपुर(वर्तमान कानपुर देहात) जिले के गौरीकरन गांव में पिछड़ी जाति के किसान परिवार में दिनांक 22 अगस्त 1923 को हुआ था।  उनके पिता का नाम वंशगोपाल और मां का नाम सुखिया देवी था। चार भाइयों में सबसे छोटे रामस्वरूप वर्मा की प्राथमिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई।  हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। वहां से 1949 में हिंदी में परास्नातक की डिग्री हासिल की।  उसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। वे शुरू से ही मेधावी थे। हाईस्कूल और उससे ऊपर की सभी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थीं।  

छात्र जीवन से ही रामस्वरूप वर्मा की रुचि राजनीति में थी। वे समाजवादी विचारधारा के निरंतर करीब आ रहे थे। उनका संवेदनशील मन सामाजिक ऊंच-नीच और भेदभाव को देखकर आहत होता था।  लोहिया उनके आदर्श थे। माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उच्चाधिकारी बने। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए रामस्वरूप वर्मा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाएं दीं और उत्तीर्ण हुए।  उन्होंने प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने इतिहास को चुना था और सर्वाधिक अंक उसी में प्राप्त किए थे, जबकि परास्नातक स्तर पर इतिहास उनका विषय नहीं था। यह उनकी मेधा ही थी। एक अच्छी नौकरी और भविष्य की रूपरेखा बन चुकी थी, लेकिन नौकरी के साथ बंध जाने का मन न हुआ।  वे स्वभाव से विनम्र, मृदुभाषी तथा आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा था। इसलिए प्रशासनिक सेवा के लिए साक्षात्कार का बुलावा आया तो उन्होंने शामिल होने से इन्कार कर दिया।  

महज 34 साल की उम्र में बने विधायक

परिचितों को उनका फैसला अजीब लगा। कुछ ने टोका भी।  लेकिन परिवार को उनपर भरोसा था। इस बीच उनकी डॉ. राममनोहर लोहिया और सोशलिष्ट पार्टी से नजदीकियां बढ़ी थीं।  सार्वजनिक जीवन की शुरुआत के लिए उन्होंने अपने प्रेरणा पुरुष को ही चुना। वे सोशलिष्ट पार्टी के सदस्य बनकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए।  1957 में उन्होंने ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप में कानपुर जिले के भोगनीपुर से, विधान सभा का चुनाव लड़ा और मात्र 34 वर्ष की अवस्था में वे उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बन गए।  यह उनके लंबे सार्वजनिक जीवन का आरंभ था। अगला चुनाव वे 1967 में ‘संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी’ के टिकट पर जीते। गिने-चुने नेता ही ऐसे होते हैं, जो पहली ही बार में जनता के मनस् पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते हैं।  रामस्वरूप वर्मा ऐसे ही नेता थे। जनमानस पर उनकी पकड़ थी। लोहिया के निधन के बाद पार्टी नेताओं से उनके मतभेद उभरने लगे। 1969 का विधानसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और जीते। स्वतंत्र राह पकड़ने की चाहत में उन्होंने 1968 में ‘समाज दल’ नामक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की थी। उद्देश्य था, समाजवाद और मानवतावाद को राजनीति में स्थापित करना। लोगों के बीच समाजवादी विचारधारा का प्रचार करना।  उनका दूसरा लक्ष्य था, ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए अर्जक संघ की वैचारिकी को घर-घर पहुंचाना।  

समाज दल और शाेषित दल का विलय

रामस्वरूप वर्मा द्वारा समाज दल की स्थापना से कुछ महीने पहले जगदेव प्रसाद ने 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ का गठन किया था।  दोनों राजनीतिक संगठन समानधर्मा थे। क्रांतिकारी विचारधारा से लैस। ‘शोषित दल’ के गठन पर जगदेव प्रसाद ने ऐतिहासिक महत्त्व का, क्रांतिकारी और लंबा भाषण दिया था।  उन्होंने कहा था

‘जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डालने जा रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी।  चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी।  परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।  जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी। ’ 

जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा दोनों व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त थे। दोनों ने साथ आते हुए  7 अगस्त 1972 को ‘शोषित दल’ और ‘समाज दल’ के विलय कर बाद ‘शोषित समाज दल’ की स्थापना की। 1980 तथा 1989 के विधानसभा चुनावों में वर्मा जी ने ‘शोषित समाज दल’ के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया।  दोनों बार उन्होंने शानदार जीत हासिल की। 1991 में उन्होंने ‘शोषित समाज दल’ के उम्मीदवार के रूप में छठी बार विधान सभा चुनावों में जीत हासिल की। 

मानव-मानव एक समान का नारा 

राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने के साथ ही रामस्वरूप वर्मा वंचित तबके को आडंबर वाले जातिगत व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण हैधर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  

हालांकि यह कोई नई पहल नहीं थी। जाति मुक्ति के लिए पेशा-मुक्ति आंदोलन की शुरुआत 1930 से हो चुकी थी।  आगे चलकर अलीगढ़, आगरा, कानपुर, उन्नाव, एटा, मेरठ जैसे जिले, जहां चमारों की संख्या काफी थीउस आंदोलन का केंद्र बन गए।  आंदोलन का नारा था‘मानव-मानव एक समान’।  उन दिनों गांवों में मृत पशु को उठाकर उनकी खाल निकालने का काम चमार जाति के लोग करते थे।  जबकि चमार स्त्रियां नवजात के घर जाकर नारा(नाल) काटने का काम करती थीं। समाज के लिए दोनों ही काम बेहद आवश्यक थे।  मगर उन्हें करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अछूत मानकर उनसे नफरत की जाती थी। डॉ. आंबेडकर की प्रेरणा से 1950-60 के दशक में उत्तर प्रदेश से ‘नारा-मवेशी आंदोलन’ का सूत्रपात हुआ था।  उसकी शुरुआत बनारस के पास, एक दलित अध्यापक ने की थी। चमारों ने एकजुटता दिखाते हुए इन तिरस्कृत धंधों को हाथ न लगाने का फैसला किया था। इससे दबंग जातियों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक था। आंदोलन को रोकने के लिए उनकी ओर से दलितों पर हमले भी किए गए।  बावजूद इसके आंदोलन जोर पकड़ता गया। 

रामस्वरूप वर्मा अपने संगठन और सहयोगियों के साथ ‘नारा मवेशी आंदोलन’ के साथ थे।  जहां भी नारा-मवेशी आंदोलन के कार्यक्रम होते अपने समर्थकों के साथ उसमें सहभागिता करने पहुंच जाते थे। अछूतों के प्रति अपमानजनक स्थितियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए उन्होंने ‘अछूतों की समस्याएं और समाधान’ तथा ‘निरादर कैसे मिटे’ जैसी पुस्तिकाएं लिखी।उनमें जातीय आधार पर होने वाले शोषण और अछूतों की दयनीय हालत के कारणों पर विचार किया गया था। चमार जाति के लोगों द्वारा पारंपरिक पेशा जिसमें मरे हुए पशुओं की खाल निकालना और उनकी लाशों को उठाना आदि शामिल था, के बायकाट की सवर्ण हिंदुओं में प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी था। उनकी ओर से चमारों पर हमले किए गए। रामस्वरूप वर्मा ने प्रभावित स्थानों पर जाकर न केवल पीड़ितों के साथ खड़े रहे।  

रामस्वरूप वर्मा एक समतामूलक मानववादी समाज की स्थापना के लिए शिक्षा को आवश्यक उपकरण मानते थे। उनका जोर सामाजिक शिक्षा पर भी था। इसके लिए उन्होंने ‘अर्जक साप्ताहिक’ अखबार भी निकाला।  उसका मुख्य उद्देश्य ‘अर्जक संघ’ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना था।  

किसान सबसे अच्छे अर्थशास्त्री

1967-68 में उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सरकार बनी तो रामस्वरूप वर्मा को वित्तमंत्री का पद सौंपा गया।  उस पद पर रहते हुए उन्होंने जो बजट पेश किया, उसने सभी को हैरत में डाल दिया था। बजट में 20 करोड़ लाभ का दर्शाया गया था। उससे पहले मान्यता थी कि सरकार के बजट को लाभकारी दिखाना असंभव है।  केवल बजट घाटे को नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान में भी यही परिपाटी चली आ रही है। जहां घाटे को नियंत्रित रखना ही वित्तमंत्री का कौशल हो, वहां लाभ का बजट पेश करना बड़ी उपलब्धि जैसा था।  केवल ईमानदार और विशेष प्रतिभाशाली मंत्री से, जिसकी बजट निर्माण में सीधी सहभागिता होऐसी उम्मीद की जा सकती थी। बजट में सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे लोकोपकारी कार्यों हेतु, उससे पिछले वर्ष की तुलना में लगभग डेढ़ गुनी धनराशि आवंटित की गई थी। कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि का प्रस्ताव भी था। इस सब के बावजूद बजट को लाभकारी बना देना चमत्कार जैसा था।  उस बजट की व्यापक सराहना हुई। रामस्वरूप वर्मा की गिनती एक विचारशील नेता के रूप में होने लगी। पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान उनका कहना था कि उद्योगपति और व्यापारी लाभ-हानि को देखकर चुनते हैं। घाटा बढ़े तो तुरंत अपना धंधा बदल लेते है। लेकिन किसान नफा हो या नुकसान, किसानी करना नहीं छोड़ता।  बाढ़-सूखा झेलते हुए भी वह खेती में लगा रहता है। वह उन्हीं मदों में खर्च करता है, जो बेहद जरूरी हों। जो उसकी उत्पादकता को बनाए रख सकें। इसलिए किसान से अच्छा अर्थशास्त्री कोई नहीं हो सकता। जाहिर है, बजट तैयार करते समय सरकार के अनुत्पादक खर्चों में कटौती की गई थी। कोई जमीन से जुड़ा नेता ही ऐसा कठोर और दूरगामी निर्णय ले सकता था।  

देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता की चर्चा अकसर होती है।  मगर बौद्धिक आत्मनिर्भरता को एकदम बिसरा दिया जाता है।  यह प्रवृत्ति आमजन के समाजार्थिक शोषण को स्थायी बनाती है।  समाज का पिछड़ा वर्ग जिसमें शिल्पकार और मेहनतकश वर्ग शामिल हैं, अपने श्रम-कौशल से अर्जन करते हैं।  जब उसको खर्च करने, लाभ उठाने की बारी आती है तो पंडा, पुरोहित, व्यापारी, दुकानदार सब सक्रिय हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, तरह-तरह के कर्मकांडों, आडंबरों, ब्याज और दान-दक्षिणा के नाम परवे उसकी मामूली आय का बड़ा हिस्सा हड़पकर ले जाते हैं।  धर्म मनुष्य की बौद्धिक आत्मनिर्भरता, उसके वास्तविक प्रबोधीकरण में सबसे बाधक है।  लेकिन जब भी कोई उसकी ओर उंगली उठाता है, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तुरंत परंपरा की दुहाई देने लगता है।  इस मामले में हिंदू विश्व-भर में इकलौते धर्मावलंबी हैं, जो पूर्वजों के ज्ञान पर अपनी पीठ ठोकते हैं। कुछ न होकर भी सबकुछ होने का भ्रम पाले रहते हैं।  तर्क और बुद्धि-विवेक की उपेक्षा करने के कारण कूपमंडूकता की स्थिति में जीते हैं। अर्जक संघ कमेरे वर्गों का संगठन है। धर्म या संप्रदाय न होकर वह मुख्यतः जीवन-शैली है, जिसमें आस्था से अधिक महत्त्व मानवीय विवेक को दिया जाता है।  उसका आधार सिद्धांत है कि श्रम का सम्मान और पारस्परिक सहयोग। लोग पुरोहितों, पंडितों के बहकावे में आकर आडंबरपूर्ण जीवन जीने के बजाय ज्ञान-विज्ञान और तर्कबुद्धि को महत्त्व दें। गौतम बुद्ध ने कहा था‘अप्पदीपो भव। ’ अपना दीपक आप बनो।  अर्जक संघ भी ऐसी ही कामना करता है। 

सामाजिक शिक्षा पर रहा जोर

अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामस्वरूप वर्मा ने ‘क्रांति क्यों और कैसे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘मानवतावादी प्रश्नोत्तरी’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘सृष्टि और प्रलय’, ‘अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’,  जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। उनकी लेखन शैली सीधी-सहज और प्रहारक थी। ऐसी पुस्तकों के लिए प्रकाशक मिलना आसान न था। सो उन्होंने उन्हें अपने ही खर्च पर प्रकाशित किया। जहां जरूरी समझा, पुस्तक को मुफ्त वितरित किया गया। उत्तर प्रदेश की प्रमुख भाषा हिंदी है। रामस्वरूप वर्मा स्वयं हिंदी के विद्यार्थी रह चुके थे।  सरकार का कामकाज जनता की भाषा में हो, इस तरह सहज-सरल ढंग से हो कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी उसे समझ सके, यह सोचते हुए उन्होंने वित्तमंत्री रहते हुए, सचिवालय से अंग्रेजी टाइपराइटर हटवाकर, हिंदी टाइपराटर लगवा दिए थे। उस वर्ष का बजट भी उन्होंने हिंदी में तैयार किया था। जनता को यह परचाने के लिए कि प्रशासन में कौन कहां पर है, उसके धन का कितना हिस्सा प्रशासनिक कार्यों पर खर्च होता है—बजट में छठा अध्याय विशेषरूप से जोड़ा गया था।  उसमें प्रदेश के कर्मचारियों और अधिकारियों का विवरण था। उस पहल की सभी ने खूब सराहना की थी।  

1970 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ललई सिंह की पुस्तक ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ पर रोक लगा दी।  यह पुस्तक डॉ। आंबेडकर द्वारा जाति-प्रथा के विरुद्ध दिए गए भाषणों संकलन थी। सरकार के निर्णय के विरुद्ध ललई सिंह यादव ने उच्च न्यायालय में अपील की।  मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में था। रामस्वरूप वर्मा कानून के विद्यार्थी रह चुके थे। उन्होंने मुकदमे में ललई सिंह यादव की मदद की। उसके फलस्वरूप 14 मई 1971 को उच्च न्यायालय ने पुस्तक से प्रतिबंध हटा लेने का फैसला सुनाया। 

रामस्वरूप वर्मा ने लंबा, सक्रिय और सारगर्भित जीवन जिया था।  उन्होंने कभी नहीं माना कि वे कोई नई क्रांति कर रहे हैं। विशेषकर अर्जक संघ को लेकर, उनका कहना था कि वे केवल पहले से स्थापित विचारों को  लोकहित में नए सिरे से सामने ला रहे हैं। उनके अनुसार पूर्व स्थापित विचारधाराओं को, लोकहित को ध्यान में रखकर, नए समय और संदर्भों के अनुरूप प्रस्तुत करना ही क्रांति है।  

विचारों से कबीर, जीवन में बुद्धिवाद, तर्क और मानववाद को महत्त्व देने वाला, भारतीय राजनीति वह फकीर,  19 अगस्त 1998 को हमसे विदा ले गया। 

(संपादन : नवल)

आलेख परिवर्द्धित : 29 अगस्त, 2019 2:21 PM

गुरुवार, 13 मई 2021

महामारी और हमारा समाज - डॉ लाल रत्नाकर


 इस बीच हमारे बीच से बहुत सारे ऐसे लोग चले गए हैं जिनका योगदान समाज के लिए निरंतर जारी था ऐसे लोगों का चला जाना निश्चित तौर पर एक तरह की निराशा उत्पन्न करता है और यही निराशा हमें कमजोर करती है क्योंकि जीवन में अनुभव और संघर्षशील विचारवान लोगों की जरूरत अब और है जब पाखंड अपने चरम पर थी और आधिकारिक रूप से प्रसारित किया जा रहा है ऐसे ऐसे नियम और आपराधिक सोच को आम आदमी पर थोपा जा रहा है जैसे बाकी लोग गुलाम की जिंदगी जीने को मजबूर हो जाए।

हमारे एक राजनीति विज्ञान के साथी फेसबुक की अपनी पोस्ट पर पिछले दिनों संविधान प्रदत्त कुछ मौलिक अधिकारों का जिक्र किया था जिसमें व्यक्ति का स्वास्थ्य और उसका भोजन राज्य की जिम्मेदारी बनती है।
हम जिस तरह के नारों से आज खुश हो लेते हैं वह नारे दर असल आपको ठगने के लिए गढे गए हैं। इन्हीं नारों का असर हमारे समाज पर पड़ रहा है जिसका प्रभाव हमारे समाज में निरंतर दिखाई देने लगा है।

जिस तरह से बेरोजगारी महामारी और अव्यवस्था हमारे सामने मुंह फैलाकर खड़ी है निश्चित तौर पर समाज इससे डरा हुआ और अनेकों तरह से भयाक्रांत है। सरकारों का मतलब इन्हीं सारी समस्याओं से आवाम को निकालना उसके मूल कर्तव्यों में आता है जो सरकार इस तरह की अव्यवस्था फैला रही हो और मानव मात्र के अधिकारों पर कुठाराघात कर रही हो और कुछ लंपट साधु संतों द्वारा तैयार किए गए प्राचीन कालीन शास्त्रों के माध्यम से एक नए समाज के निर्माण की परिकल्पना करते हुए नए भारत के निर्माण का नारा दे रही हो निश्चित तौर पर यह आपराधिक काम है क्योंकि जिन कानूनों के तहत लोगों को राष्ट्रद्रोही करार किया जा रहा है उन्हें कानूनों के चलते उन्हें राष्ट्रद्रोही क्यों नहीं कहा जा सकता ?
अब सवाल यह है कि यह सवाल उठाए कौन? भारतीय राजनीति में बहुत पुराना एक नाम श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी जी का है वह रह रह कर के कई ऐसे मसले उठाते रहते हैं जिनमें निश्चित तौर पर कानून की अनदेखी की जा रही होती है लेकिन उनकी खास बात यह है कि वह उस ब्रह्मणवादी मानसिकता से निकलने का नाम नहीं लेते जिसकी वजह से सारा संकट है। आजकल यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था विभिन्न तरह से उन लोगों में भी आ गई है जिनके पास सत्ता या संसाधन इकट्ठा हो गया है. और इन्हीं धूर्त नीतियों की वजह से जिसकी पहचान ब्राह्मणवाद के रूप में होती है वह सदियों से भाई भाई में भेद पैदा करता आया है और ऐसा भेद जिसको स्थानीय स्तर पर निपटाया जा सकता है यदि लोगों में मानवीय मूल्यों का संचार किया जाए अन्यथा बेईमान किस्म के और धूर्त लोग घर-घर में इस तरह के आपराधिक काम करके देश में चल रहे मुकदमों जिन का अंत निश्चित तौर पर बहुत लंबा समय लेता है लेकिन उसके बीच में न जाने कितने परिवार तबाह हो जाते हैं और वह इस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि उन्हें अपनी जन्मभूमि भी त्यागनी पड़ती है।

पिछले दिनों मैंने जौनपुर प्रवास के दौर में देखा कि कई युवा जो बहुत ही कर्मठ हैं और ज्ञान विज्ञान की पढ़ाई करके आज दुनिया में घूम कर के देश का नाम रोशन कर रहे हैं। लेकिन वही जब अपनी जमीन पर आते हैं तो वहां पर धूर्त और बेईमान किस्म के लोगों से उनका मुकाबला होता है और यह धूर्त ऐसे होते हैं जो उनकी संपत्ति उनकी जायदाद आदि पर अनाधिकृत रूप से काबिज हो जाते हैं। अब वही युवा रात दिन कचहरी के चक्कर काट रहा होता है छोटे न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय तक से उसके पक्ष में फैसले होते हैं। लेकिन जिस तरह की अपराधिक मानसिकता के लोग उस पर विराजमान होते हैं और मौजूदा सत्ता के वरदहस्त उन पर होते हैं उनसे लड़ने के लिए कौन से न्यायालय की शरण लेनी पड़ेगी।

अंत में ऐसे मामलों में ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे देश की सीमा के निर्धारण के लिए सेना काम करती है और अपनी जिम्मेदारी निभाती है यह सारा काम अपनी संपदा बचाने के लिए लोगों को उसी तरह से आगे आना होगा और ऐसे लोग जिन्हें ना धर्म ना कानून ना नैतिकता का ज्ञान है उनको ताकत से ही बताया जा सकता है और उनसे बचाया जा सकता है।

अब हमारी सरकारों का नजरिया भी कुछ इसी तरह का हो गया है जैसे अपराधिक प्रवृत्ति के लोग एन केन प्रकारेण अपने ही देश और अपने ही लोगों की दुर्दशा करने पर अमादा होते हैं हमने ऐसे हजारों लोगों को देखा है जो इसी तरह के अज्ञानतापूर्ण मानसिकता के शिकार हैं और प्राकृतिक व्यवस्था को तहस-नहस करने पर आमादा हैं आज विज्ञान हमें जितनी शक्ति दिया हुआ है उसका उपयोग ना करते हुए पिछले दिनों जिस तरह से पाखंड का प्रचार किया गया यह काम वही व्यक्ति कर सकता है जो मानसिक रूप से निकृष्ट और पाखंडी हो।

जब भी आप ऐसे लोगों से बातचीत करते हैं तो वह लोग अपने पक्ष को घुमा फिरा कर बार-बार रखते हैं जिससे उनकी नियति साफ-साफ उजागर हो जाती है। यह कुछ उसी तरह से हो रहा है जब एक अदना सा आदमी भारतीय संविधान के चलते देश की सर्वोच्च गद्दी पर बैठता है। और उससे पूर्व जितने भी लोग इस देश निर्माण में अपना योगदान दिए हैं उन पर हंसता है और उनका मजाक बनाता है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह काम कोई बुद्धिमान व्यक्ति नहीं कर सकता यह अज्ञानी और मूर्ख ही यह काम कर सकता है। इसी का असर आने वाली नई पीढ़ी पर भी हो रहा है जो निरंतर इस बात को अपनी जेहन में बैठा लिया है कि जो कुछ उसे दिखाई दे रहा है वह उसकी अनुकंपा से है।

हम यहां जो बात कहना चाह रहे हैं वह यह है कि यह देश जिसके लिए हमारे तमाम लोगों ने ऐसा सपना देखा जिसमें इसका विकास और उत्थान अंतर्निहित था, उनको आज आवारा और मवाली किस्म के लोग अपनी अयोग्यता को छुपाने के लिए नाना प्रकार के उद्यम कर रहे हैं। इतिहास को मिटा कर के लिखने की बात एक बार उत्तर प्रदेश में जब भाजपा की सरकार आई थी तो शुरू किया गया था और उस पर कई ऐसे वरिष्ठ लोगों से वार्ता करने का मौका मिला जिन्हें हम समझते थे कि यह मनुष्य हैं और इनका पेसा लोगों के उपकार के लिए है चाहे वह अध्यापक हों डॉक्टर, वकील, धर्माधिकारी हो सामाजिक और सांस्कृतिक विचार रखने वाले विद्यार्थी युवा और प्रौढ़ हो बस उनकी जेहन में एक ही बात थी की इतिहास से मुसलमानों को बाहर किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा इतिहास पढ़ने से हमें गुलामी की अनुभूति होती है।

यह आश्चर्यजनक संवाद सुनकर इतना आश्चर्य होता था कि यह कैसे लोग हैं कि यह भूल जाना चाहते हैं कि यह मुगलों और अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं क्यों रहे हैं उसका कारण क्या रहा है इस पर विचार नहीं करते बल्कि इस पर विचार करते हैं कि इतिहास को बदल दिया जाए और यह लिख दिया जाए यह देश निकम्मे धूर्त और बेईमान राजाओं और साधु-संतों के अधीन था और वही ईश्वर थे उनकी अनुकंपा से ही आज इस भारतीय समाज में भाग्य पाखंड अंधविश्वास और गरीबी चरम सीमा पर विराजमान है जिसके लिए कोई उपाय करने की जरूरत नहीं है यह सब इनके कर्म का फल है।

इस तरह की विवेचना उस समय भी बहुत भयावह लगती थी और आज जब संसद भवन की बजाए एक ऐसा व्यक्ति जो जुमले झूठ और मक्कारी करके देश पर काबिज हो गया हो वह पूरी संसदीय मर्यादाओं को तहस-नहस करते हुए महामारी के इस दौर में अपनी जिद पर पडा हुआ हो कि हम सेंट्रल विस्टा बनाकर रहेंगे।

कुल मिलाकर बात आम आदमी से लेकर राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए लोगों की इस बीच जिस तरह से उजागर हुई है निश्चित तौर पर हम लोग इन बातों को समझने में या उन लोगों के बीच जो इससे पहले देश को चलाने का दायित्व संभाल रहे थे। उनके अंदर संभवतः ऐसी विचारधारा नहीं रही होगी तभी देश विकास के उस सोपान तक पहुंचा। जहां से आज सारी चीजों को रोका जा रहा है। बड़े-बड़े हवाई अड्डा रेलवे और रेलवे स्टेशन को कौड़ियों के भाव ऐसे दरिद्र व्यापारियों को दे दिया जा रहा है जिनका इतिहास ही बहुत गंदा रहा है। जिन्होंने अपनी व्यवसायिक कूटनीति के तहत टैक्स की चोरी विभिन्न प्रकार के कर की चोरी करके और बैंकों का बहुत बड़ा हिस्सा अपने आकाओं की वजह से हड़प करके देश को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाने में भागीदार हैं।

हम अभिशप्त हैं ऐसे लोगों के जिनका कर्म किसी भी तरह से सराहनीय नहीं है बल्कि निंदनीय है। उनके आचरण उनकी नीति उनके क्रियाकलाप सब कुछ हमारे समाज के संस्कारों से बिल्कुल विपरीत हैं। जहां पर देश को ठगने की अनेक कथाएं हमारे समाज में प्रचलित रही हैं। लेकिन भारतीय समाज और यहां का अज्ञान इतना प्रबल है कि बहुत जल्दी बहुत बड़ी-बड़ी आपदाओं को भूल जाता है और उन्हें अपने गले लगा लेता है जो उसका गला काट रहे होते हैं।


आइए हम विचार करें कि हम किस तरह से एक ऐसे भारत ऐसे देश का निर्माण करें जिसमें बाबा साहब अंबेडकर रामास्वामी पेरियार ज्योतिबा फुले जो भगवान बुद्ध के विचारों पर देश बनाना चाहते थे, और उसके लिए आजीवन संघर्ष करते रहे जो कुछ भी आज उन पाखंडीयों से निकलकर बाहर आया है यह उन्हीं लोगों के योगदान का परिणाम है। यदि आज आप इसी तरह सोते रहे और अपने छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए अपने लोगों से ही अलग होकर अपने ऐसे नेतृत्व को बनाने की कोशिश में समय बर्बाद करेंगे जिससे केवल आपको खरीदा जा सकेगा। आप अपनी आवश्यकताओं के लिए बिकने को मजबूर होंगे और खरीददार आपको अपना गुलाम बनाकर रखेगा। इसलिए हमारी आपसे अपेक्षा है कि आपसी भेदभाव बुलाकर एक साथ अपने पूर्वजों के बताए हुए मार्ग पर चलने का संकल्प लें जिससे आप इस तरह की विध्वंस कारी नीतियों की सत्ता से मुकाबला कर सके।

उम्मीद है आप इस पर विचार करेंगे और सक्रिय रूप से अपनी सहभागिता सुनिश्चित करेंगे।
Ashokkumar Yadav

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

निरंतर हो रही मृत्यु पर सरकार मौन है ?

निरंतर हो रही मृत्यु पर सरकार मौन है ? 

मौत, बेहाली और मातम के इस भयावह दौर में भी क्रिकेट के IPL मेले पर बेतहाशा खर्च करने वाली भारतीय कंपनियों और सरकार के शर्मनाक सोच में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी Andrew Tye का यह बड़ा सवाल क्या कुछ तब्दीली लायेगा?
भारत के ज्यादातर बड़े अमीरों और ज्यादातर सरकारों के पास क्या सचमुच जमीर होता है? अपने लोगों के प्रति प्रेम, संवेदना और करुणा होती है?
आईपीएल छोड़कर अपने देश आस्ट्रेलिया लौटने वाले एन्ड्रिव टाय ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा: जिस देश के अस्पतालों में कोरोना मरीजों के लिए जगह नहीं मिल रही है, वहां की कंपनियां IPL के प्रायोजन पर इतना खर्च कैसे कर रही हैं? उन्होंने यहां की सरकार पर भी सवाल उठाया है.
अच्छा है, वह विदेशी खिलाड़ी हैं वरना यहां का कोई खिलाड़ी यह सवाल उठाता तो उसे शासन 'देशद्रोही' घोषित करता और प्रायोजक कंपनियां उस पर आजीवन प्रतिबंध लगा देतीं!
"अपने आलोचकों की मैं कद्र करता हूं. उनकी आलोचना, सुझाव या परामर्श की रोशनी में अपने को जांचने-परखने की कोशिश करता हूं. यह सिलसिला मैने 'राज्यसभा टीवी' के अपने संक्षिप्त कार्यकाल से शुरू किया था जो अभी भी जारी है. 'न्यूजक्लिक' के अपने हर कार्यक्रम के वीडियो या सोशल मीडिया की अपनी टिप्पणियों पर आने वाली ज्यादातर प्रतिक्रियायों को पढ़ने की कोशिश करता हूं. कई बार वे टिप्पणियां बहुत ज्यादा होती हैं तो सबको पढ़ना संभव नही होता.
अपना निजी अनुभव बताऊं. अपनी कई आलोचनाओं से मुझे काफी शक्ति और समझ मिली है. कई बार अपनी ऐसी कमियों पर नज़र गई, जिनकी तरफ कुछ आलोचकों ने इशारा किया था. कुछ आलोचनाएँ यूँ ही होती हैं, लेकिन उनमें भी ज्यादातर को भी पढ़ने की कोशिश करता हूं. उदाहरण के लिए न्यूजक्लिक पर मेरे एक कार्यक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया में एक दर्शक ने लिखा: 'उर्मिलेश जी, कभी-कभी आप कोई शब्द बोलकर फिर उसका अंग्रेजी पर्यायवाची बोलते रहते हैं, ऐसा क्यों? आपके दर्शकों को उस शब्द के मायने मालूम हैं, फिर अंग्रेजी में उसका बेवजह तर्जुमा क्यों?' यह आलोचना इतनी सटीक थी कि मैं तुरंत सहमत हो गया और उसी दिन से अपने को सुधारने की कोशिश करने लगा. अब काफी सुधार है पर वह आदत अब भी पूरी तरह गयी नहीं! कभी-कभी गलती कर बैठता हूं.
कुछ लोग मेरे ऊपर नफ़रत की बौछार करते रहते हैं. इनमें तरह-तरह के लोग होते हैं. स्वाभाविक तौर पर इनमें ज्यादातर तो 'वही' होते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने को 'प्रगतिवादी' घोषित किये होते हैं. ऐसे लोगों की नफ़रत के कभी निजी कारण होते हैं तो कभी 'समाजशास्त्रीय' भी!
ऐसे तमाम निंदको और नफ़रत करने वालों के प्रति भी मैं कत्तई कटु नही होता. शुरू में ऐसे लोगों पर गुस्सा आता था. अब बिल्कुल नहीं. उन पर सिर्फ दया आती है. इनकी बिल्कुल परवाह नही करता! मेरा मानना है, नफ़रत बेहद नकरात्मक भाव है, इसे सिरे से ख़ारिज किया जाना चाहिये. इसकी परवाह भी नहीं करनी चाहिए.
आज के इन भयावह दिनों में प्रेम, संवेदना, सह्रदयता और करुणा की बहुत जरूरत है."

आज के दौर में भी उच्च न्यायालयों से कई बार न्याय की बहुत बुलंद आवाज उभरती है. कोई खास बात नहीं, न्याय करना न्यायालयों का काम है.
पर न्याय की आवाजें आज जहां कहीं से उठती हैं उन्हें सलाम तो बोलना ही चाहिए!
और मद्रास हाईकोर्ट को तो ज़रूर! न्याय की बहुत ताज़ा और बुलंद आवाज है!

कोई व्यक्ति किसी धर्म को माने, किसी विचार का समर्थन करे, किसी नस्ल या क्षेत्र का हो; इससे किसी को क्या फ़र्क पड़ता है! फ़र्क तब पड़ता है, जब धर्म, विचार, नस्ल या क्षेत्र के नाम पर लोग एक दूसरे से भेदभाव, नफ़रत या संघर्ष करना शुरू कर दें! अच्छे-अच्छे भाषणों में या उदार विचार वाली किताबों में जो भी कहा गया हो, पर सच यही है कि हमारी दुनिया में अब तक सबसे ज्यादा टकराव, नफरत और हिंसा के पीछे धर्म या पंथ के मसले रहे हैं. यह बात मैं पहली बार नहीं कह रहा हूं, दुनिया भर के बड़े विचारक पहले ही कह चुके हैं. धर्म का यह चेहरा उसके (शुरुआती दौर या बाद के) कुछ सकारात्मक पक्षों को भी पीछे ढकेल देता है.
देश-दुनिया के ऐसे असंख्य उदाहरणों को देख और पढकर ही मैने अपने छात्र-जीवन में धर्म और धार्मिक कर्मकांडो से किनारा कर लिया था. जब तक माँ-पिता रहे, उनकी जीवन-चर्या में शामिल कुछेक धार्मिक कर्मकांडो को (अपनी नापसंदगी के बावजूद) जीवन में कुल तीन बार मानना और तद्नुरूप आचरण करना पड़ा. जबकि मेरे माँ-पिता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के लोग नहीं थे. हमारे समाज और हमारे आसपास के लोगों में धर्म या धर्माचार की भूमिका भले ही इन दिनों काफी बढ़ी हो पर मेरे अपने जीवन में धर्म की कोई भूमिका नही है. मेरे अपने परिवार के चार में तीन सदस्यों के साथ भी यही स्थिति है.
आज के इन बेहद भयावह दिनों में बहुत कुछ कहने का मन करता है. अपनी बहुत सारी अनकही बातें भी! इनमें एक बात आज शेयर करता हूं. कृपया इसे अन्यथा न लें. यह मेरी निजी धारणा है. लेकिन इसका सामाजिक संदर्भ जरूर है. इसलिए खुलकर अपनी बात रखने में कोई बुराई नहीं.
मेरे अधार्मिक होने के बावजूद अगर आप मेरी धारणा के आधार पर मुझे चिन्हित करना चाहें तो मुझे मानववादी कह सकते हैं. प्रकृति और मनुष्य से इतर किसी अन्य के वजूद को मैं नहीं मानता. लेकिन मैं अपने समाज और समूची दुनिया के महान् विचारकों, समाज सुधारको और बदलाव के प्रेरक व्यक्तियों के समक्ष सर नवाता हूं. पर मैं किसी का भक्त नहीं हूं कि उनकी पूजा करूं. उन महान् विचारकों ने भी अपने जीवन में किसी की कर्मकांडी ढंग से पूजा नहीं की. ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है. मैं अपने पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करता हूं. बुजुर्गों से सुनी उनकी कहानियां मुझे प्रेरित करती हैं. अन्याय और अत्याचार से जूझने की शक्ति देती हैं.
अगर मैं तनिक भी धार्मिक भाव का व्यक्ति होता तो भारत में जितने भी धर्म हैं, उनके बीच मैं अपने लिए सिख धर्म का चयन करता और बहुत पहले सिख बन गया होता. मैं सिख परिवार में पैदा हुआ होता तो अच्छा लगता पर मैं वर्णाश्रम-व्यवस्था आधारित 'हिन्दू धर्म' के दायरे में आने वाले शूद्र वर्ण(आधुनिक संवैधानिक भाषा में-ओबीसी) के एक किसान परिवार में जन्मा. बहरहाल, मुझे अपने जन्म के परिवार, खासतौर पर माँ-पिता पर गर्व है. कमाल के लोग थे, जिन्होंने एक निरक्षर-अशिक्षित खानदान में पहली बार अपने दोनों बच्चों को शिक्षित करने की ठानी.
मेरे खानदान में हर साल एक बार अपने आठ इष्ट देवों/पूर्वजों/ पशु प्रतीकों की पूजा होती थी(गांव में आज भी होती है ). संभवतः इनमें कुछ हमारे पूर्वज हैं तो कुछ निश्चय ही पशुओं के प्रतीक हैं. ऐसे पशु,जो किसान-जीवन के लिए जरूरी और उपयोगी रहे हैं. पूजा के बाद इन्हें जो खीर अर्पित की जाती है, उसमें भैंस का दूध इस्तेमाल किया जाता रहा है. इस पूजा में कभी कोई पंडित या पुजारी नहीं आता था (आज भी नहीं!) पूजा के बाद पूरा खानदान जुलूस लेकर गांव के बाहर तक जाता. पारम्परिक वाद्य बजते, झंडा भी होता और आगे-आगे वे लोग चलते, जिन्हें अपने पूर्वजों के मूल स्थल की यात्रा पर निकलना होता था.
हमारे बुजुर्ग बताते थे कि एक बड़े हमले में खानदान के कई लोग मारे गये थे. हमलावरों ने घरों में आग लगा दी. बचे हुए लोग अपने बाल बच्चों और मवेशियों के साथ उसी रात पलायित कर गये और फिर गाजीपुर(पूर्वांचल) के इस गांव में आकर बसे. वहां से वे कब विस्थापित हुए, बस अनुमान ही लगाया जा सकता है. मेरा अनुमान है, यह घटना अंग्रेजों की हुकूमत(ईस्ट इंडिया कंपनी )के शुरुआती दौर की होगी. लंबे समय से मेरा इरादा रहा है कि मैं उस क्षेत्र में जाकर अपने पूर्वजों की कहानी लिखूं. पर अब तक यह काम नही हो पाया. अगर सबकुछ ठीक रहा तो अपने जीवन में यह काम मैं जरूर करना चाहता हूँ .
बचपन में मैने देखा, मेरे खानदान में मरे बड़े भाई के अलावा सभी अशिक्षित थे. कोई साक्षर भी नही था. अपने खानदान में हम दोनों भाई और हमारे एक काका के बड़े बेटे ही पहली दफा साक्षर और शिक्षित हुए. लेकिन हमारे ठेठ किसान परिवार में शायद ही कोई मंदिर जाकर पूजा करता था. मेरे पिता घर पर ही सुबह-सुबह ईश्वर को याद किया करते थे. माता जी, घर के सामने वाले पीपल की जड़ों पर जल ढारती थीं. वहां से लौटने पर गुड़ और चावल हमें प्रसाद के तौर पर देतीं. अगर गुड़ पानी से गीला होता तो मैं उसे चुपके से फेक देता था. हमारे घर में आम हिन्दुओं की तरह दीवाली, होली, जन्माष्टमी, रामनवमी और मकर संक्रांति जैसे पर्व मनाये जाते. एक निरक्षर किस्म का 'पंडित' भी यदा-कदा किसी खास पूजा या 'होम'(हवन) के नाम पर आता था. बड़े भाई जब शिक्षित हुए तो उसका आना बंद करा दिया गया. इस तरह हमारा घर होम और यदा-कदा होने वाली पूजा के उस संक्षिप्त कर्मकांड से पूरी तरह मुक्त हो गया. बस अपने पूर्वजों और कुछ पारिवारिक इष्ट देवों की पूजा का सिलसिला जारी रहा. हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार भी था-कलाम अंसारी का, जो बहुत विनम्र और कुशल कारीगर थे. मकान आदि बनाने में उस्ताद. हम दोनों भाई उनके यहां आयोजित मुस्लिम पर्व का भोज्य पदार्थ भी यदा-कदा ज़रूर ग्रहण करते थे. मां-पिता तो उससे दूर रहते थे लेकिन हम दोनों को खाने से वह रोकते नही थे. उनके एक आयोजन में हमारा पूरा परिवार शामिल होता, वो था-मुहर्रम! मेरी मां सुबह ही सुबह मलीदा बना देतीं और उसे एक बडे बर्तन में रखकर हम लोग या स्वयं मेरी मां ताजिया के पास ले जाकर रखती थीं. उस प्रसाद को हम सब चाव से खाते थे. बचपन में ताजिया के जुलूस में कलाम मियां के बेटों के साथ मैं भी छाती पीटते हुए शामिल होता था. लेकिन ज्यादा आगे नहीं जाता क्योंकि कभी-कभी बहुत भीड़ और ठेलमठेल हो जाती. सिर्फ मैं ही नही, मेरे मोहल्ले के यादव, नोनिया, लोहार, कहार परिवारों के और लड़के भी उसमें हिस्सा लेते. संभवतः एकाध ब्राह्मण लडके भी.
याद आ रहा है, अंडे का पहला स्वाद मैने उसी अंसारी परिवार या भैया के पूरब टोल स्थित किसी मुस्लिम-दोस्त परिवार में चखा था. मैं बहुत दुबला-पतला और कमजोर था, इसलिए मेरे माँ-पिता मेरे किसी मुस्लिम परिवार में पके मांसाहारी भोजन या अंडे आदि के खाने पर कभी रोक नही लगाते थे. इसके उलट वे प्रेरित करते थे.जहां तक याद है, एक बार तो मेरी मां पड़ोस के कलाम मियां की पत्नी को चार-पांच सेर अनाज देने गईं कि मेरे छोटे बेटे को वह यदा-कदा मुर्गी का अंडा खिलाती रहें.
लेकिन आज हमारे जैसे गांवों और पिछड़ी बिरादरियों के किसान परिवारों मे भी धर्म के कर्मकांडी स्वरूप की जबर्दस्त घुसपैठ हो चुकी है. एक तरफ आर्थिक सुधारों के जरिये देश में नवउदारवादी-कारपोरेटी अर्थतंत्र उभरा है तो उसके समानांतर कारपोरेट-हिंदुत्व का दायरा भी! यह 'हिन्दुत्व' उस पारम्परिक हिन्दू धर्म या समाज से बिल्कुल जुदा चीज है, जो हमने अपने बचपन में देखा था. दरअसल, यह 'राजनीतिक हिन्दूवाद' है, जिसके कनेक्शन कारपोरेट-तंत्र से हैं. कुछ दल, कुछ संगठन और भारतीय टेलिविजन चैनल इसके सबसे बडे प्रचारक और प्रसारक हैं.
इससे न तो मेरा गांव अछूता है और न समाज! खेती-किसानी में जुटी रहने वाली बिरादरियों को भी इसने डंसा है. अगर इसके दंश से एक हद तक कोई अब तक बचा है तो वे सिख-किसान और मजदूर हैं! किसान आंदोलन का नेतृत्व यही किसान कर रहे हैं.
मुझे लगता है, भारत का भला आज इसी बात में निहित है कि उसके यहां धर्म का मानववादी चेहरा उभरे, कट्टरवादी और कर्मकांडी नहीं. यह काम सिर्फ किसान और मजदूर श्रेणियों के लोग कर सकते हैं, जिनके लिए धर्म का मतलब हमेशा मानववाद रहा है.
निज़ाम ने अवाम को उसके हाल पर छोड़ दिया है! उससे उम्मीद करना व्यर्थ है. उसकी प्राथमिकताए कुछ और हैं. लोगों को बचाने और उनकी सहायता के लिए समाज को स्वयं आगे आना होगा. एक दौर में ज्योति बा फुले और सावित्रीबाई फुले ने राह दिखाई थी. वे पीड़ित मनुष्यता को बचाने के लिए आगे आए थे. ऐसा ही कुछ वो दौर भी था. वे अपने साथियो, समर्थकों और शुभचिंतकों को लेकर सेवा और सहायता में जुट गये.
अच्छी बात है कि आज सियासत और समाज में चाहे जितनी गिरावट आई हो, हमारे यहां आज भी कुछ समूह, संस्थाएं और लोग जितना संभव है, करने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस दिशा में गुरुद्वारों, सिख समुदाय के कुछ स्वयंसेवी संगठनों और व्यक्ति-समूहों ने उल्लेखनीय काम किया है और लगातार कर रहे हैं. संभवतः उनसे प्रेरित होकर कुछ अन्य धार्मिक संस्थाओं ने भी दिल्ली सहित कुछ जगहों पर सेवा या राहत का काम शुरू किया है.
अच्छी बात है कि इधर कुछ राजनीतिक दलों के युवा संगठनों और प्रकोष्ठो ने इस दिशा में सकारात्मक पहल की है. इसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली से बाहर के राज्यों में भी ले जाने की जरूरत है.
हमारी जानकारी के मुताबिक केरल में राज्य प्रशासन द्वारा स्थापित कई समूह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. लोगों को पका हुआ भोजन, खाद्यान्न, फल सब्जी और दवाओं की आपूर्ति भी कर रहे हैं. तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में भी ऐसे काम हो रहे हैं. अन्य जगहों की ज्यादा जानकारी नही मिली है. शासन-प्रशासन का सबसे बुरा हाल हिंदी-भाषी राज्यों में है. इसलिए यहां गैर सरकारी संगठनों को ज्यादा पहल करने की जरुरत है. जिन घरों में लोग बीमार पड़े हैं, उन्हें पके भोजन, आवश्यक दवाएं और उपकरण आदि की जरुरत है.
गुरु नानक, कबीर, ज्योति बा फुले, सावित्री बाई फुले, श्रीनारायण गुरु और अय्यंकाली जैसे महान् समाज-सुधारकों के मुल्क को बचाने की जिम्मेदारी अब सिर्फ और सिर्फ जनता के बीच काम करने वाले संगठनों और समूहों की है.
वाहे गुरु दा खालसा
वाहे गुरु दी फतह!


साभार ; उर्मिलेश जी के फेसबुक पेज से

रविवार, 18 अप्रैल 2021

" डॉ. मनराज शास्त्री " बहुजन समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक नेता का असमय चला जाना।


 सामाजिक न्याय के सजग प्रहरी और बहुजन समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक नेता का असमय चला जाना।
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डॉ. मनराज शास्त्री जी का जन्म 01 जुलाई 1941 को जौनपुर जनपद के बटाऊबीर के पास सराय गुंजा गांव में हुआ । इनका निधन वाराणसी में एक प्राइवेट अस्पताल के icu में दिनांक 16 अप्रैल 2021 को शाम 5:00 बजे हो गया। 
इनकी आरंभिक शिक्षा दीक्षा पास के प्राइमरी स्कूल से शुरू होकर सल्तनत बहादुर इंटर कॉलेज से इंटर की परीक्षा के उपरांत इन्होंने अपनी स्नातक तक की पढ़ाई बदलापुर डिग्री कॉलेज से करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय गये और वहीं से इन्होंने संस्कृत विषय में एम ए और पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। 
तदुपरांत यह राजकीय महाविद्यालय की सेवा में इसलिए आ गए कि विश्वविद्यालयों में उस समय भी तमाम नियुक्तियों को लेकर के काबिलियत की वजाय अन्य बहुत सारे कारण, कारण बन जाते थे। 
राजकीय महाविद्यालय से जब शाहगंज डिग्री कॉलेज के लिए प्रिंसिपल की पोस्ट विज्ञापित हुई तो उसके लिए इन्होंने विज्ञापन भरा और इनका चयन हो गया लम्बे समय तक इन्होंने गन्ना कृषक महाविद्यालय शाहगंज में प्रिंसपल के रूप में कार्य किये। 
ज्ञातव्य है कि शास्त्री जी जब विद्यार्थी थे तभी यह सामाजिक विचारधारा को लेकर के बहुत सशक्त और आने वाले दिनों में चौधरी चरण जैसे किसान नेता के संपर्क में आए और उनके सिद्धांतों को इन्होंने अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया। 
इसी समय वह श्री रामस्वरूप वर्मा के संपर्क में आए। बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के संपर्क में आए। इन सब के संपर्क में आने की वजह से वह अर्जक संघ के प्रचारक के रूप में भी कार्य करने लगे। संस्कृत के विद्वान होने के नाते पाखंड अंधविश्वास और चमत्कार के खिलाफ तमाम शादी विवाह वज्ह अर्जक पद्धति से संपन्न कराए।
इसके साथ लंबे समय तक अखिल भारतीय यादव महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष रहे और समाज के लिए बहुत बड़ा काम किया । 
सेवा निवृत्ति के उपरांत वह निरंतर शिक्षा के प्रचार प्रसार में लगे रहे और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ अभियान में बढ़-चढ़कर सहयोग ही नहीं करते रहे पूरे देश में चल रहे आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सेदारी करते रहे।
दिनांक 16 अप्रैल 2021को एकाएक वह है करोना की चपेट से बच नहीं पाए और सायं 5:00 बजे उनका देहावसान हो गया।
विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में समाजवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक के रूप में शोषित और दलितों और पिछड़ों के हित की हमेशा बात करते रहे।
माननीय मुलायम सिंह यादव जब राजनीति में शुरुआत कर रहे थे तो उन दिनों यह सारे लोग इलाहाबाद विश्वविद्यालय और शिक्षा जगत में समाजवादी आंदोलन को गति दे रहे थे जिससे माननीय मुलायम सिंह जी की विचारधारा के समर्थक होने के साथ-साथ उनके राजनीतिक आंदोलन में अनेकों तरह से सहयोग किए।
हालांकि इनके बहुत सारे साथी सपा सरकार के विभिन्न पदों पर विराजमान रहे लेकिन इन्होंने कभी भी किसी पद को हासिल करने की इच्छा जाहिर नहीं की और वह निरंतर निरपेक्ष भाव से समाजवादी आंदोलन के हिमायती बने रहे यहां तक की जब से श्री अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे हैं तो उनके कामों की प्रशंसा और उसके प्रचार-प्रसार की हमेशा बात करते रहते रहे हैं, श्री अखिलेश यादव से भविष्य की राजनीति की उन्हें बहुत बड़ी उम्मीद रही है उम्मीद है कि आने वाले दिनों में उनकी उम्मीद फलीभूत होगी।
यद्यपि राजनीतिक रूप से उन्होंने लंबे समय से किसी खास दल के प्रति वह लगाव नहीं था । 
लेकिन भाजपा के प्रति उनका बहुत बड़ा प्रतिकार था और वह निरंतर इस बात से बहुजन समाज को समझाने की कोशिश करते रहते थे कि यह दल और इसका मूलभूत संगठन बहुजन समाज के विनाश का बहुत बड़ा जहर अपने अंदर पाले हुए हैं। जिसका प्रभाव दिखाई भी दे रहा है लेकिन बहुजन समाज के भक्त संप्रदाय के लोगों से निरंतर वह अपनी बात कहते रहे अंतिम समय तक यह बात मानी जब तक यह भक्तों भाजपा नहीं त्यागेंगे तब तक उनका उद्धार नहीं होना है।
- डॉ लाल रत्नाकर 
अपूरणीय क्षति।
सांस्कृतिक सरोकारों और समाज के पुरोधा डॉ. मनराज शास्त्री जी का असामयिक निधन न जाने कितनों को विस्मृत कर गया। चंद दिनों पहले की बात है वह हम लोगों के बीच में समाज के लिए जिस तरह से चिंतित थे और उनका हर पल समाज निर्माण के लिए बीत रहा था जैसा कि उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर भी लिखा था कि थोड़े दिनों से वह जुकाम से परेशान हैं और स्वस्थ होते ही फिर से वह सक्रिय हो जाएंगे।
परसों सुबह से ही मैं यह जानने में लगा था कि वह स्वस्थ क्यों नहीं हो रहे हैं मेरी उनके पुत्र श्री राजेश जी से बात हुई और यह पता चला कि ऑक्सीजन मीटर से उनकी ऑक्सीजन की जो माप हुई है वह बहुत कम हो गई है 75/76 पर वह ऑक्सीजन सैचुरेशन आ गया है उन्हें सांस लेने की दिक्कत बढ़ती जा रही थी यह स्थिति हमने अपने son-in-law डॉ. वीरेंद्र को बताया उन्होंने कहा कि तुरंत उन्हें आईसीयू में ले जाना चाहिए।
मैंने यह बात उनके बेटे को कहा उनके नाती को कहा वह लोग शाहगंज में जितना कर सकते थे तुरंत आरंभ किए एक्सरे कराया डॉक्टर को दिखाया और अब यह नौबत आई कि उन्हें किस तरह से किसी अस्पताल में आईसीयू में भर्ती कराया जाए जिला अस्पताल में बिना कोरोनावायरस के टेस्ट के प्रवेश संभव नहीं था मैंने सुनीता हॉस्पिटल के मालिक डॉ आरपी यादव साहब से बात की उन्होंने सहर्ष उन्हें ले आने की राय दी और मैंने कहा कि आप ले करके उन्हें सुनीता अस्पताल पहुंचो, रात्रि में लगभग 10:00 बजे सुनीता हॉस्पिटल पहुंचे यह सारी घटना 14 अप्रैल के रात्रि की है। सुनीता हॉस्पिटल में उन्हें जो सुविधाएं दी जा सकती थी दी गई डॉ साहब ने आक्सीजन इत्यादि की व्यवस्था की और इस पूरी प्रक्रिया में मैंने अपने मित्र और मुंबई में अपने व्यापार में संलग्न भाई श्री अजय यादव जी जो आज ही गांव आ गए थे मैंने उनसे भी डॉ साहब के इलाज में सहयोग करने की अपील की जिसको उन्होंने प्राथमिकता पर लेकर अपना दायित्व समझा और जितनी कोशिश हो सकती थी निरन्तर इतनी कोशिश करके यह निरंतर प्रयास होता रहा कि कैसे उनको बेहतर से बेहतर इलाज दिलाया जा सके। जिसमें वह बीएचयू की मदद के लिए डॉ विनीत को लगाए।
मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था मुझे भी बच्चे वापस गाजियाबाद ला रहे थे और मैं रास्ते भर निरंतर प्रयास करता रहा कि किस तरह से डॉ साहब से बातचीत हो सके क्योंकि कई दिनों से उनका फोन बंद मिल रहा था। नीरज के फोन से मैंने बात की, तब भी वह कहते रहे कि थोड़ा आराम हो रहा है।
जबकि उन्हें जरूरत थी आईसीयू की जो शाहगंज में उपलब्ध नहीं था और जौनपुर में भी उसकी समुचित व्यवस्था नहीं थी फिर भी जितना हो सकता था वह किया गया उनके अनुज मित्र श्री सीताराम यादव जी भी इस समय हिंदुस्तान में हैं और शाहगंज और मेरे गांव में मिलकर हम लोग साथ-साथ रहे सब की यही चिंता थी कि उनका बेहतर इलाज कैसे हो जाए।
डॉ विनीत निरंतर प्रयास करते रहे कि उन्हें बीएचयू के आईसीयू में कैसे ले आया जाए जब सफलता मिली तब तक वह बनारस के ही प्राइवेट फोर्ड अस्पताल में भर्ती हो गए थे और आराम मिलना शुरू हो गया था फिर भी हम चाहते थे कि उन्हें बीएचयू में ट्रांसफर कर दिया जाए लेकिन यह संभव नहीं हो पाया कारण जो भी रहा। डॉ विनीत के प्रयास पर यदि हम उन्हें बीएचयू के आईसीयू में भर्ती करा पाते तो बात कुछ और ही हो जाती।
इस कार्य के लिए श्री अजय यादव जी का जितना भी धन्यवाद किया जाए वह कम होगा क्योंकि उन्होंने सारे काम एक तरफ रख कर किस तरह से उन्हें अच्छी सुविधा इलाज की मिल सके प्रयत्न करते रहे और वह संभव भी हुआ तो उसका लाभ उन्हें नहीं मिल पाया और अंततः जो कुछ हुआ वह पूरे समाज के लिए एक अनहोनी है । वह केवल अपने परिवार के नहीं थे उनका परिवार पूरे भारतवर्ष भर में फैला है चारों तरफ से लोगों को उनका आकस्मिक रूप से चला जाना बहुत कष्टकारी लग रहा है। हम ऐसे समय में असहाय महसूस कर रहे हैं ऐसे व्यक्ति का जो ज्ञान और विज्ञान के अथाह समुद्र थे जिन्हें मापा नहीं जा सकता था । जो हर संकट में खड़े रहते थे हम कितने कमजोर साबित हुए यह अफसोस जीवन भर बना रहेगा।
नमन।
स्तब्धकारी सूचना-
16 अप्रैल 2021 निधन-सामाजिक न्याय के अनन्यतम प्रहरी डॉ मनराज शास्त्री जी नही रहे......
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     शिक्षाविद,सामाजिक न्याय के अनन्यतम प्रहरी,"यादव शक्ति" पत्रिका के व्यवस्थापक मण्डल के मार्गदर्शक, उत्तरप्रदेश यादव महासभा के लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष रह चुके एवं वीपीएसएस के जन्मदाताओं में से एक डॉ मनराज शास्त्री जी के निधन की बेहद स्तब्धकारी सूचना प्राप्त हुई है।
      मैं डॉ मनराज शास्त्री जी को अपना आदर्श,प्रेरणास्रोतव व अपने विचारधारा का मजबूत स्तम्भ मानता रहा हूँ।उनकी मृत्यु ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है।अभी कुछ ही दिनों पूर्व शास्त्री जी की पत्नी का निधन हुआ था जिसके बाद उन्होंने सारे पाखण्ड आदि का परित्याग कर जौनपुर जनपद के शाहगंज स्थित अपने आवास पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया था।शास्त्री जी ने किसी तरह के मनुवादी टोटकों को करने की बजाय अपने पत्नी का चित्र रख बिना मृत्युभोज किये श्रद्धांजलि सभा कर एक नई राह समाज को दिखाई थी।
      डॉ मनराज शास्त्री जी "यादव" पत्रिका के सम्पादक व यादव महासभा के संस्थापक रहे "यादव गांधी" राजित बाबू के अति निकटस्थ लोगों में से एक थे।लम्बी अवधि तक यादव महासभा का प्रदेश अध्यक्ष रहते हुये डॉ मनराज शास्त्री जी ने पिछड़े समाज को जगाने व उन्हें एक जुट करने में महती भूमिका निभाई थी।चौधरी चरण सिंह जी से लेकर मुलायम सिंह यादव जी तक के अति निकट रहे डॉ मनराज शास्त्री जी का यूं चले जाना अत्यंत दुखदायी है।
1989-90 के दौर में मैं डॉ मनराज शास्त्री जी जुड़ा था जब मण्डल आंदोलन अपने शबाब पर था।   
मण्डल आंदोलन के बाद सामाजिक जागृति के अभियान में हम डॉ मनराज शास्त्री जी के साथ हो गए थे और उन्हें मेरे क्रियाकलापों से इतनी न  प्रसन्नता होती थी कि वे अक्सर कह दिया करते थे कि चन्द्रभूषण के आ जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि हम लोगो के कारवां को ये आगे ले जाने मे कोई कोताही नही बरतेंगे। दिल्ली,लखनऊ,आगरा,हैदराबाद,नांदेड़,पटना सहित देश भर के विभिन्न तरह की वैचारिक गोष्ठियों में डॉ मनराज शास्त्री जी का उद्बोधन प्रेरणादायी तो "यादव शक्ति" में आपका लेखन मनुवाद पर अति मारक होता था।"यादव शक्ति" पत्रिका के तेवर व कलेवर को सजाने-संवारने में डॉ मनराज शास्त्री जी के योगदान को भुलाया नही जा सकता है।
      संस्कृत से पीएचडी डॉ मनराज शास्त्री जी ताखा डिग्री कालेज के प्रिंसिपल रहे व जौनपुर जनपद में सामाजिक न्याय,सेक्युलरिज्म,रुढ़िवादी संस्कारो,वंचितों के सामाजिक उन्नयन आदि के लिए जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे।मुझे जब से आदरणीय शास्त्री जी के निधन की सूचना मिली है मैं स्तब्ध हूँ,निःशब्द हूँ क्योंकि वे मेरे मन-मस्तिष्क में बसते थे।मृत्यु सबकी होनी है,यह अटल सत्य है जिसे स्वीकार करते हुये हम सबको दुनिया में अपने ऐसे प्रियजनों के विचारों को आगे बढ़ाने का संकल्प लेना होगा,यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।डॉ मनराज शास्त्री जी के निधन पर मैं हृदय की गहराइयों से शोक जताते हुये उनके वैचारिक कारवां को आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हुये श्रद्धासुमन समर्पित करता हूँ।

-चंद्रभूषण सिंह यादव
प्रधान संपादक-"यादव शक्ति"

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2020

प्रो.ईश्वरी प्रसाद जी का पूरा वैचारिक आधार बहुजन उत्थान का रहा है.

 


प्रोफ़ेसर ईश्वरी प्रसाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से सेवानिवृत्त हुए हैं विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने जितना संघर्ष किया वह "द्विज और शूद्र" की एक महत्वपूर्ण कथा है। स्वाभाविक है जे एन यू एक ऐसा केंद्र रहा है जहाँ से देश को अपनी दिशा तय करनी थी। यह अलग बात है की जवाहर लाल नेहरू ने इसके स्थापना के साथ जो सपना देखा होगा उसे निश्चित तौर पर वामपंथी "द्विजों" ने अपने हिसाब से आगे बढ़ाया होगा। नेहरू जी संघ के प्रति कितने नरम रहे होंगे इसका लेखा जोखा तो मौजूदा सत्ता में बैठे लोग आये दिन नेहरू नेहरू करके बताते रहते हैं.

प्रो ईश्वरी प्रसाद जी का पूरा वैचारिक आधार बहुजन उत्थान का रहा है यही कारन है की उन्हें अपने जीवन में द्विज वामपंथियों और कांग्रेसियों ने बहुत परेशां किया और अनेक षडयंत्र किये होंगे। यही कारन रहा होगा की वह अपने जीवन में सामाजिक न्याय को बहुत ही तकनिकी तौर पर लडे, जबकि बहुतों ने चापलूसी करके सुविधा और सोहरत हासिल की। सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक ऊंचाई तक पहुंचाया यहां तक कि देश के तमाम समाजवादियों से उनके बहुत अच्छे रिश्ते रहे और पूरी जिंदगी कांग्रेश के खिलाफ लड़ते रहे. और उनका अपना सपना है कि कांग्रेश नस्त नाबूत हो जाय क्योंकि वः एक परिवार की पार्टी है. उनके अनुसार कांग्रेस का खत्म होना जरूरी है ?
इसी विषय पर उनसे कल बातचीत होनी शुरू हुई लेकिन वह यह मानने को तैयार नहीं हैं की कांग्रेस को रुकना चाहिए कांग्रेस को तो खत्म ही हो जाना चाहिए। लेकिन जिस तरह से कांग्रेश के खिलाफ जो लोग देश की सत्ता पर काबिज हो गए हैं उनसे देश और संविधान कितना सुरक्षित है इस पर वह चुप हो जाते हैं और वह संघ के क्रियाकलाप को बिल्कुल नहीं जानते ! उनकी यह उद्घोषणा बिल्कुल हिंदुत्व के करीब ले जाती है उनका मानना है कि वह रामायण तो पढ़ते हैं राम के चरित्र से आनंद लेते हैं लेकिन तुलसीदास उन्हें बिल्कुल नहीं सुहाते क्योंकि तुलसीदास ने पूरी रामायण में ब्राह्मणों की अखंड महिमा की है।

कविताएं अपनी पहचान बनाए रखती हैं यदि उनमें समकालीन समस्याओं का भी उल्लेख हो और यही कारण है कि सौंदर्य और भक्ति भाव का गुड़गान तमाम बड़े साहित्यकारों ने किया है।
डॉ शास्त्री इतने सरल ढंग से अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे समाज में फैले चरित्रों पर जो कविताएं लिखी हैं वह नीचे पोस्टर के रूप में संलग्न कर रहा हूं जो उनके फेसबुक पेज से ली गई है और बहुजन भारत के उनके पेज पर इन्हें लगाया गया है वहां से भी इसे जा करके देखा जा सकता है।
उनकी कविताएं इतनी रोचक थी कि उस पर मुझे भी कविता के रूप में एक टिप्पणी करनी पड़ी जिसे यहां लगा रहा हूं, यह हमारी समाज का बहुमुखी विकास।
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न वो समझे हैं
न समझेंगे !
क्योंकि वह मानसिक रोगी है।
जो अपने को मान बैठे हैं
बहुत समझदार
और अपनी समझदारी का
अपविश्ट फैलाते रहते हैं
समाज के उस हर व्यक्ति पर
जो उनके लिए
सरल भी है, तरल भी है
पर वह चाहते हैं
उनके लिए गरल हो
और उन्हें चाकर समझता हो
यही तो सदियों का है
अभिशाप।
और अभिशप्त है पूरा समाज।
चाहे वह किसी भी विधा में हो
दुविधा ही पैदा करता है।
अपनी मानसिकता
और अपनी कुंठा की वजह से।
मानसिक रोगी की तरह
अचेतन अवस्था में
पशुवत आचरण करता है
अब ऐसे का इलाज क्या है
वह वर्तमान सरकार।
करने की योजना बना चुकी है।
और ऐसे लोगों का इलाज
समाज तो कर नहीं सकता।
इन्हें मनुस्मृति के विधान के तहत।
संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर।
पशु की श्रेणी में डाल कर
कहीं ना कहीं।
बांधकर।
भोकने के लिए भी नहीं छोड़ा जाएगा।
तभी तो मैंने लिखा है
कुछ मानसिक रूप से
बीमार लोग।

- डॉ लाल रत्नाकर




प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...