बुधवार, 28 अप्रैल 2021

निरंतर हो रही मृत्यु पर सरकार मौन है ?

निरंतर हो रही मृत्यु पर सरकार मौन है ? 

मौत, बेहाली और मातम के इस भयावह दौर में भी क्रिकेट के IPL मेले पर बेतहाशा खर्च करने वाली भारतीय कंपनियों और सरकार के शर्मनाक सोच में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी Andrew Tye का यह बड़ा सवाल क्या कुछ तब्दीली लायेगा?
भारत के ज्यादातर बड़े अमीरों और ज्यादातर सरकारों के पास क्या सचमुच जमीर होता है? अपने लोगों के प्रति प्रेम, संवेदना और करुणा होती है?
आईपीएल छोड़कर अपने देश आस्ट्रेलिया लौटने वाले एन्ड्रिव टाय ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा: जिस देश के अस्पतालों में कोरोना मरीजों के लिए जगह नहीं मिल रही है, वहां की कंपनियां IPL के प्रायोजन पर इतना खर्च कैसे कर रही हैं? उन्होंने यहां की सरकार पर भी सवाल उठाया है.
अच्छा है, वह विदेशी खिलाड़ी हैं वरना यहां का कोई खिलाड़ी यह सवाल उठाता तो उसे शासन 'देशद्रोही' घोषित करता और प्रायोजक कंपनियां उस पर आजीवन प्रतिबंध लगा देतीं!
"अपने आलोचकों की मैं कद्र करता हूं. उनकी आलोचना, सुझाव या परामर्श की रोशनी में अपने को जांचने-परखने की कोशिश करता हूं. यह सिलसिला मैने 'राज्यसभा टीवी' के अपने संक्षिप्त कार्यकाल से शुरू किया था जो अभी भी जारी है. 'न्यूजक्लिक' के अपने हर कार्यक्रम के वीडियो या सोशल मीडिया की अपनी टिप्पणियों पर आने वाली ज्यादातर प्रतिक्रियायों को पढ़ने की कोशिश करता हूं. कई बार वे टिप्पणियां बहुत ज्यादा होती हैं तो सबको पढ़ना संभव नही होता.
अपना निजी अनुभव बताऊं. अपनी कई आलोचनाओं से मुझे काफी शक्ति और समझ मिली है. कई बार अपनी ऐसी कमियों पर नज़र गई, जिनकी तरफ कुछ आलोचकों ने इशारा किया था. कुछ आलोचनाएँ यूँ ही होती हैं, लेकिन उनमें भी ज्यादातर को भी पढ़ने की कोशिश करता हूं. उदाहरण के लिए न्यूजक्लिक पर मेरे एक कार्यक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया में एक दर्शक ने लिखा: 'उर्मिलेश जी, कभी-कभी आप कोई शब्द बोलकर फिर उसका अंग्रेजी पर्यायवाची बोलते रहते हैं, ऐसा क्यों? आपके दर्शकों को उस शब्द के मायने मालूम हैं, फिर अंग्रेजी में उसका बेवजह तर्जुमा क्यों?' यह आलोचना इतनी सटीक थी कि मैं तुरंत सहमत हो गया और उसी दिन से अपने को सुधारने की कोशिश करने लगा. अब काफी सुधार है पर वह आदत अब भी पूरी तरह गयी नहीं! कभी-कभी गलती कर बैठता हूं.
कुछ लोग मेरे ऊपर नफ़रत की बौछार करते रहते हैं. इनमें तरह-तरह के लोग होते हैं. स्वाभाविक तौर पर इनमें ज्यादातर तो 'वही' होते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने को 'प्रगतिवादी' घोषित किये होते हैं. ऐसे लोगों की नफ़रत के कभी निजी कारण होते हैं तो कभी 'समाजशास्त्रीय' भी!
ऐसे तमाम निंदको और नफ़रत करने वालों के प्रति भी मैं कत्तई कटु नही होता. शुरू में ऐसे लोगों पर गुस्सा आता था. अब बिल्कुल नहीं. उन पर सिर्फ दया आती है. इनकी बिल्कुल परवाह नही करता! मेरा मानना है, नफ़रत बेहद नकरात्मक भाव है, इसे सिरे से ख़ारिज किया जाना चाहिये. इसकी परवाह भी नहीं करनी चाहिए.
आज के इन भयावह दिनों में प्रेम, संवेदना, सह्रदयता और करुणा की बहुत जरूरत है."

आज के दौर में भी उच्च न्यायालयों से कई बार न्याय की बहुत बुलंद आवाज उभरती है. कोई खास बात नहीं, न्याय करना न्यायालयों का काम है.
पर न्याय की आवाजें आज जहां कहीं से उठती हैं उन्हें सलाम तो बोलना ही चाहिए!
और मद्रास हाईकोर्ट को तो ज़रूर! न्याय की बहुत ताज़ा और बुलंद आवाज है!

कोई व्यक्ति किसी धर्म को माने, किसी विचार का समर्थन करे, किसी नस्ल या क्षेत्र का हो; इससे किसी को क्या फ़र्क पड़ता है! फ़र्क तब पड़ता है, जब धर्म, विचार, नस्ल या क्षेत्र के नाम पर लोग एक दूसरे से भेदभाव, नफ़रत या संघर्ष करना शुरू कर दें! अच्छे-अच्छे भाषणों में या उदार विचार वाली किताबों में जो भी कहा गया हो, पर सच यही है कि हमारी दुनिया में अब तक सबसे ज्यादा टकराव, नफरत और हिंसा के पीछे धर्म या पंथ के मसले रहे हैं. यह बात मैं पहली बार नहीं कह रहा हूं, दुनिया भर के बड़े विचारक पहले ही कह चुके हैं. धर्म का यह चेहरा उसके (शुरुआती दौर या बाद के) कुछ सकारात्मक पक्षों को भी पीछे ढकेल देता है.
देश-दुनिया के ऐसे असंख्य उदाहरणों को देख और पढकर ही मैने अपने छात्र-जीवन में धर्म और धार्मिक कर्मकांडो से किनारा कर लिया था. जब तक माँ-पिता रहे, उनकी जीवन-चर्या में शामिल कुछेक धार्मिक कर्मकांडो को (अपनी नापसंदगी के बावजूद) जीवन में कुल तीन बार मानना और तद्नुरूप आचरण करना पड़ा. जबकि मेरे माँ-पिता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के लोग नहीं थे. हमारे समाज और हमारे आसपास के लोगों में धर्म या धर्माचार की भूमिका भले ही इन दिनों काफी बढ़ी हो पर मेरे अपने जीवन में धर्म की कोई भूमिका नही है. मेरे अपने परिवार के चार में तीन सदस्यों के साथ भी यही स्थिति है.
आज के इन बेहद भयावह दिनों में बहुत कुछ कहने का मन करता है. अपनी बहुत सारी अनकही बातें भी! इनमें एक बात आज शेयर करता हूं. कृपया इसे अन्यथा न लें. यह मेरी निजी धारणा है. लेकिन इसका सामाजिक संदर्भ जरूर है. इसलिए खुलकर अपनी बात रखने में कोई बुराई नहीं.
मेरे अधार्मिक होने के बावजूद अगर आप मेरी धारणा के आधार पर मुझे चिन्हित करना चाहें तो मुझे मानववादी कह सकते हैं. प्रकृति और मनुष्य से इतर किसी अन्य के वजूद को मैं नहीं मानता. लेकिन मैं अपने समाज और समूची दुनिया के महान् विचारकों, समाज सुधारको और बदलाव के प्रेरक व्यक्तियों के समक्ष सर नवाता हूं. पर मैं किसी का भक्त नहीं हूं कि उनकी पूजा करूं. उन महान् विचारकों ने भी अपने जीवन में किसी की कर्मकांडी ढंग से पूजा नहीं की. ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है. मैं अपने पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करता हूं. बुजुर्गों से सुनी उनकी कहानियां मुझे प्रेरित करती हैं. अन्याय और अत्याचार से जूझने की शक्ति देती हैं.
अगर मैं तनिक भी धार्मिक भाव का व्यक्ति होता तो भारत में जितने भी धर्म हैं, उनके बीच मैं अपने लिए सिख धर्म का चयन करता और बहुत पहले सिख बन गया होता. मैं सिख परिवार में पैदा हुआ होता तो अच्छा लगता पर मैं वर्णाश्रम-व्यवस्था आधारित 'हिन्दू धर्म' के दायरे में आने वाले शूद्र वर्ण(आधुनिक संवैधानिक भाषा में-ओबीसी) के एक किसान परिवार में जन्मा. बहरहाल, मुझे अपने जन्म के परिवार, खासतौर पर माँ-पिता पर गर्व है. कमाल के लोग थे, जिन्होंने एक निरक्षर-अशिक्षित खानदान में पहली बार अपने दोनों बच्चों को शिक्षित करने की ठानी.
मेरे खानदान में हर साल एक बार अपने आठ इष्ट देवों/पूर्वजों/ पशु प्रतीकों की पूजा होती थी(गांव में आज भी होती है ). संभवतः इनमें कुछ हमारे पूर्वज हैं तो कुछ निश्चय ही पशुओं के प्रतीक हैं. ऐसे पशु,जो किसान-जीवन के लिए जरूरी और उपयोगी रहे हैं. पूजा के बाद इन्हें जो खीर अर्पित की जाती है, उसमें भैंस का दूध इस्तेमाल किया जाता रहा है. इस पूजा में कभी कोई पंडित या पुजारी नहीं आता था (आज भी नहीं!) पूजा के बाद पूरा खानदान जुलूस लेकर गांव के बाहर तक जाता. पारम्परिक वाद्य बजते, झंडा भी होता और आगे-आगे वे लोग चलते, जिन्हें अपने पूर्वजों के मूल स्थल की यात्रा पर निकलना होता था.
हमारे बुजुर्ग बताते थे कि एक बड़े हमले में खानदान के कई लोग मारे गये थे. हमलावरों ने घरों में आग लगा दी. बचे हुए लोग अपने बाल बच्चों और मवेशियों के साथ उसी रात पलायित कर गये और फिर गाजीपुर(पूर्वांचल) के इस गांव में आकर बसे. वहां से वे कब विस्थापित हुए, बस अनुमान ही लगाया जा सकता है. मेरा अनुमान है, यह घटना अंग्रेजों की हुकूमत(ईस्ट इंडिया कंपनी )के शुरुआती दौर की होगी. लंबे समय से मेरा इरादा रहा है कि मैं उस क्षेत्र में जाकर अपने पूर्वजों की कहानी लिखूं. पर अब तक यह काम नही हो पाया. अगर सबकुछ ठीक रहा तो अपने जीवन में यह काम मैं जरूर करना चाहता हूँ .
बचपन में मैने देखा, मेरे खानदान में मरे बड़े भाई के अलावा सभी अशिक्षित थे. कोई साक्षर भी नही था. अपने खानदान में हम दोनों भाई और हमारे एक काका के बड़े बेटे ही पहली दफा साक्षर और शिक्षित हुए. लेकिन हमारे ठेठ किसान परिवार में शायद ही कोई मंदिर जाकर पूजा करता था. मेरे पिता घर पर ही सुबह-सुबह ईश्वर को याद किया करते थे. माता जी, घर के सामने वाले पीपल की जड़ों पर जल ढारती थीं. वहां से लौटने पर गुड़ और चावल हमें प्रसाद के तौर पर देतीं. अगर गुड़ पानी से गीला होता तो मैं उसे चुपके से फेक देता था. हमारे घर में आम हिन्दुओं की तरह दीवाली, होली, जन्माष्टमी, रामनवमी और मकर संक्रांति जैसे पर्व मनाये जाते. एक निरक्षर किस्म का 'पंडित' भी यदा-कदा किसी खास पूजा या 'होम'(हवन) के नाम पर आता था. बड़े भाई जब शिक्षित हुए तो उसका आना बंद करा दिया गया. इस तरह हमारा घर होम और यदा-कदा होने वाली पूजा के उस संक्षिप्त कर्मकांड से पूरी तरह मुक्त हो गया. बस अपने पूर्वजों और कुछ पारिवारिक इष्ट देवों की पूजा का सिलसिला जारी रहा. हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार भी था-कलाम अंसारी का, जो बहुत विनम्र और कुशल कारीगर थे. मकान आदि बनाने में उस्ताद. हम दोनों भाई उनके यहां आयोजित मुस्लिम पर्व का भोज्य पदार्थ भी यदा-कदा ज़रूर ग्रहण करते थे. मां-पिता तो उससे दूर रहते थे लेकिन हम दोनों को खाने से वह रोकते नही थे. उनके एक आयोजन में हमारा पूरा परिवार शामिल होता, वो था-मुहर्रम! मेरी मां सुबह ही सुबह मलीदा बना देतीं और उसे एक बडे बर्तन में रखकर हम लोग या स्वयं मेरी मां ताजिया के पास ले जाकर रखती थीं. उस प्रसाद को हम सब चाव से खाते थे. बचपन में ताजिया के जुलूस में कलाम मियां के बेटों के साथ मैं भी छाती पीटते हुए शामिल होता था. लेकिन ज्यादा आगे नहीं जाता क्योंकि कभी-कभी बहुत भीड़ और ठेलमठेल हो जाती. सिर्फ मैं ही नही, मेरे मोहल्ले के यादव, नोनिया, लोहार, कहार परिवारों के और लड़के भी उसमें हिस्सा लेते. संभवतः एकाध ब्राह्मण लडके भी.
याद आ रहा है, अंडे का पहला स्वाद मैने उसी अंसारी परिवार या भैया के पूरब टोल स्थित किसी मुस्लिम-दोस्त परिवार में चखा था. मैं बहुत दुबला-पतला और कमजोर था, इसलिए मेरे माँ-पिता मेरे किसी मुस्लिम परिवार में पके मांसाहारी भोजन या अंडे आदि के खाने पर कभी रोक नही लगाते थे. इसके उलट वे प्रेरित करते थे.जहां तक याद है, एक बार तो मेरी मां पड़ोस के कलाम मियां की पत्नी को चार-पांच सेर अनाज देने गईं कि मेरे छोटे बेटे को वह यदा-कदा मुर्गी का अंडा खिलाती रहें.
लेकिन आज हमारे जैसे गांवों और पिछड़ी बिरादरियों के किसान परिवारों मे भी धर्म के कर्मकांडी स्वरूप की जबर्दस्त घुसपैठ हो चुकी है. एक तरफ आर्थिक सुधारों के जरिये देश में नवउदारवादी-कारपोरेटी अर्थतंत्र उभरा है तो उसके समानांतर कारपोरेट-हिंदुत्व का दायरा भी! यह 'हिन्दुत्व' उस पारम्परिक हिन्दू धर्म या समाज से बिल्कुल जुदा चीज है, जो हमने अपने बचपन में देखा था. दरअसल, यह 'राजनीतिक हिन्दूवाद' है, जिसके कनेक्शन कारपोरेट-तंत्र से हैं. कुछ दल, कुछ संगठन और भारतीय टेलिविजन चैनल इसके सबसे बडे प्रचारक और प्रसारक हैं.
इससे न तो मेरा गांव अछूता है और न समाज! खेती-किसानी में जुटी रहने वाली बिरादरियों को भी इसने डंसा है. अगर इसके दंश से एक हद तक कोई अब तक बचा है तो वे सिख-किसान और मजदूर हैं! किसान आंदोलन का नेतृत्व यही किसान कर रहे हैं.
मुझे लगता है, भारत का भला आज इसी बात में निहित है कि उसके यहां धर्म का मानववादी चेहरा उभरे, कट्टरवादी और कर्मकांडी नहीं. यह काम सिर्फ किसान और मजदूर श्रेणियों के लोग कर सकते हैं, जिनके लिए धर्म का मतलब हमेशा मानववाद रहा है.
निज़ाम ने अवाम को उसके हाल पर छोड़ दिया है! उससे उम्मीद करना व्यर्थ है. उसकी प्राथमिकताए कुछ और हैं. लोगों को बचाने और उनकी सहायता के लिए समाज को स्वयं आगे आना होगा. एक दौर में ज्योति बा फुले और सावित्रीबाई फुले ने राह दिखाई थी. वे पीड़ित मनुष्यता को बचाने के लिए आगे आए थे. ऐसा ही कुछ वो दौर भी था. वे अपने साथियो, समर्थकों और शुभचिंतकों को लेकर सेवा और सहायता में जुट गये.
अच्छी बात है कि आज सियासत और समाज में चाहे जितनी गिरावट आई हो, हमारे यहां आज भी कुछ समूह, संस्थाएं और लोग जितना संभव है, करने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस दिशा में गुरुद्वारों, सिख समुदाय के कुछ स्वयंसेवी संगठनों और व्यक्ति-समूहों ने उल्लेखनीय काम किया है और लगातार कर रहे हैं. संभवतः उनसे प्रेरित होकर कुछ अन्य धार्मिक संस्थाओं ने भी दिल्ली सहित कुछ जगहों पर सेवा या राहत का काम शुरू किया है.
अच्छी बात है कि इधर कुछ राजनीतिक दलों के युवा संगठनों और प्रकोष्ठो ने इस दिशा में सकारात्मक पहल की है. इसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली से बाहर के राज्यों में भी ले जाने की जरूरत है.
हमारी जानकारी के मुताबिक केरल में राज्य प्रशासन द्वारा स्थापित कई समूह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. लोगों को पका हुआ भोजन, खाद्यान्न, फल सब्जी और दवाओं की आपूर्ति भी कर रहे हैं. तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में भी ऐसे काम हो रहे हैं. अन्य जगहों की ज्यादा जानकारी नही मिली है. शासन-प्रशासन का सबसे बुरा हाल हिंदी-भाषी राज्यों में है. इसलिए यहां गैर सरकारी संगठनों को ज्यादा पहल करने की जरुरत है. जिन घरों में लोग बीमार पड़े हैं, उन्हें पके भोजन, आवश्यक दवाएं और उपकरण आदि की जरुरत है.
गुरु नानक, कबीर, ज्योति बा फुले, सावित्री बाई फुले, श्रीनारायण गुरु और अय्यंकाली जैसे महान् समाज-सुधारकों के मुल्क को बचाने की जिम्मेदारी अब सिर्फ और सिर्फ जनता के बीच काम करने वाले संगठनों और समूहों की है.
वाहे गुरु दा खालसा
वाहे गुरु दी फतह!


साभार ; उर्मिलेश जी के फेसबुक पेज से

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