रविवार, 20 सितंबर 2020

गुजरात से भारत

गुजरात से भारत  

नज़ीब को ढूढो मोदी जी 






नज़ीब कहाँ गया ?
अमितशाह जी !
मोदी जी !
ढूढ़िये इस नौजवान को !
वह भी किसी माँ का लाल है /
अमितशाह जी !
अपने बेटे जय शाह को स्मरण करिये।
यदि उसे कुछ हो जाए !
इसलिए की आप मुल्क के
गृहमंत्री हैं।
और इसलिए भी की आपको बेटा है
गांव में कहावत है
निरबसियो को हृदय नहीं होता.
हृदय हीन सत्ता नहीं समझ पाती है
आम आदमी का दर्द और
जुगलों मैं उड़ा देती है आम आदमी का दर्द
ठग और राजा होने में जो फर्क होता है
वह दिखाई नहीं दे रहा है
नजीब कहां गया अब तो सुनाई नहीं दे रहा है
जिनको जिनको लिंचिंग ने मार डाला
और भक्त उन मौतों पर जश्न मनाते रहे
क्या सत्ता ने उन्हें पहचाना .
धर्मनिरपेक्ष देश की सत्ता तुम्हारे हाथ में
तुमने तमाम लोगों को विधर्मी बनाकर मारा
वह घंटी बजा रहे थे ताली बजा रहे थे थाली बजा रहे थे
उनको कानून लाकर मारा
कौन कहता है किसान है तुम्हारा
तुम्हारी नजर देश के किसानों उपज पर ही नहीं
उसकी जमीन पर भी है.










गुरुवार, 27 अगस्त 2020

डा मनराज शास्त्री जी के विचार :

डा मनराज शास्त्री जी के विचार : 

Economically weaker sectionको १०% आरक्षण दिया गया।मैं इन शब्दों को संविधान की किताब में ढ़ूढ़ रहा था। मुझे नीति निदेशक सिद्धांतों वाले संविधान के चतुर्थ भाग में अनुच्छेद ४६ में weaker section मिला,लेकिन उसके विशेषण के रूप में प्रयुक्तeconomically शब्द नहीं मिला,यद्यपि इस अनु्च्छेद में economic शब्द अवश्य मिला। क्या है अनुच्छेद४६ ।" promotion of educational and economic interest of Scheduledcastes, scheduled Tribes and other weaker  sections".लगता है कि खींचतान कर इसी अनुच्छेद से " economically weaker section" को गढ़ा गया है और संविधान सभा में भी की गई आर्थिक आधार और संविधान लागू होने के बाद भी सवर्णों तथा संघी मनोवृत्ति कै लोगों की मांग को बलात्कर,संविधान की मर्यादा का उल्लंघन करते हुयेEWS को १०% आरक्षण आनन- फानन में दे दिया गया।इस अनुच्छेद में weaker section की परिभाषा नहीं की गई  है।  पहली बात तो यह है कि इसमें आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है।

Dr.Manraj Shastree

आरक्षण/ प्रतिनिधित्वशासन- प्रशासन में भागीदारी का मामला है,आर्थिकibterst का नहीं। और वह भी जिनका प्रतिनिधित्व प्रर्याप्त नहीं है। लेकिन यहां आरक्षण किसी भी तरह अभिप्रेत नहीं है।जब इसweakwr section का प्रयोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ किया गया है तो इससे अभिप्रेत अर्थ भी इन्हीं के समकक्ष ढ़ूढ़ना चाहिये कि weaker section of peopleकौन हो सकते हैं। इसी अनुच्छेद में आगे लिखा है कि" shall protect them from social injustice and from all the forms of exploitation".यहां देखना‌ यह चाहिये  कि SC/ ST की तरहsocial injustice किसके साथ होती है? क्या सवर्णों के साथ वैसा ही सामाजिक अन्याय होता है। समाज में गरीब और अपढ़ भी ब्राह्मण इनकी अपेक्षा कहीं अधिक सम्मान पाता है,कभी कभी इनके बहुत पढ़े-लिखों से भी अधिक। अन्य द्विजों के साथ भी यही होता है। और यह भी कहा गया है कि weaker section में वही आयेंगे जो किसी तरह के आरक्षण से आच्छादित नहीं होंगे ।इसका मतलब सवर्ण से ही होगा,क्रीमीलेयर वाले भी। लेकिन दूसरी बात जो कहीं गयी है ,वह भी यही साबित करती है किweaker section की शासन की यह  मान्यता ठीक नहीं है।all forms of exploitation में सामाजिक,शैक्षिक,आर्थिक,धार्मिक और राजनीतिक शोषण भी आयेगा ,जो सवर्णों का नहीं होता,अशराफ मुसलमानों का भी नहीं होता,धर्मांरित बड़ी जातियों का भी।इस लिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ जो इन मानदंडों--:social injustice and all forms of exploitation  की सांसत जिन्हें झेलनी पड़ती हो ,उन्हीं को weaker section of people में‌शामिल करना चाहिये,न कि सवर्णों को। अब देखना होगा कि क्या वे ओबीसी हैं या ओबीसी की कुछ कमजोर जातियां जिनका शैक्षिक और आर्थिक हित सरकार को special careके साथ‌ देखना चाहिये,विशेष रूप से अजा और अजजा का। माननीय सुप्रीम कोर्ट को १०% आरक्षण पर निर्णय देते समय इस अनुच्छेद का भी  पोस्टमार्टम करना चाहिये। यह देखना चाहिये कि संविधान की मंशा को तोड़ामरोड़ा न जाय।

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सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशगण! विगत २ फरवरी,२०१९ को  आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग कै लिये नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में १० % आरक्षण दिया गया। आप सब को विदित है कि आरक्षण के लिये आर्थिक आधार का संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है। इसलिेए यह प्रावधान असंवैधानिक है।इसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।आज तक न तो " स्टे" दिया गया और न सुनवाई हुई,कोई तारीख भी नहीं पडी।क्या  इससे यह न मान लिया जाय कि इस पर चुप्पी साध कर सुप्रीम कोर्ट ने इसे लागू करने का अबाध अवसर प्रदान कर दिया है? संविधान में आरक्षण का जो प्रावधान है,वह उन लोगों के लिये है ,जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।यद्यपि आर्थिक कमजोर‌ वर्ग के अन्तर्गत जाति- धर्म का विचार न करने का दावा संसद् में किया गया है,लेकिन व्यवहार में यह सवर्णों के लिये होगा,जिनका प्रतिनिधित्व पर्याप्त से कहीं अधिक है,लगभग७०- ८०%] फिर इनके‌ लिये १०% आरक्षण का क्या मतलब है?weaker section कौन हैं,इसको इस तरह से व्याख्यायित किया जा रहा है कि जो ओबीसी/ एससी/ एसटी/ एमबीसी( तमिलनाडु में) से आच्छादित न हो रहे हों। जो आर्थिक आधार दिया जा रहा है,उससे लगभग९५% सवर्ण( सामान्य) आ जायेंगे! फिर इसका औचित्य क्या रह जायेगा। मा० न्यायमूर्ति गण! सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा ५०% तय की है।इसी कारण बहुत सी राज्य सरकारों द्वारा कुछ जातियों को दिये गये आरक्षण को निरस्त कर दिया गया ।क्या यह १०% का आरक्षण सुप्रीम कोर्ट की इस सीमा के साथ बलात्कार नहीं है? क्याआप लोगों का यह मौन संविधान,लोकतंत्र,जनकल्याणकारी राज्य,जनहित का खुला अपमान न समझा जाय।




मंगलवार, 21 जुलाई 2020

अशोक गहलोअशोक गहलोत सरकार के इन फैसलों से सशंकित हैं सवर्ण ???

अशोक गहलोत सरकार के इन फैसलों से सशंकित हैं
सवर्ण ???

मृत्यु भोज पर पाबंदी: हाल ही में सरकार ने कई क्रांतिकारी निर्णय लिये हैं, जिनमें मृत्युभोज पर पूर्णत: पाबंदी जैसा कदम भी है, जो ब्राह्मणवाद को खुली चुनौती देने वाला है। इसकी दक्षिणपंथी ख़ेमे ने कटु आलोचना की है। संघ विचारधारा के लोगों ने सोशल मीडिया पर इसकी निंदा करते हुए यहां तक लिखा कि गहलोत सरकार ने राजस्थान में श्राद्ध भोज पर चर्च के दबाव में प्रतिबंध लगाया गया है। हालांकि इस तरह के बयानों का बहुजन वर्ग के युवाओं ने जमकर विरोध किया और गहलोत के निर्णय की सराहना की है।

याराना : कांग्रेस छोड़कर भाजपा में हाल ही में शामिल हुए ज्योतिरादित्य राव सिंधिया से मिलते सचिन पायलट
एक और क्रन्तिकारी फैसला लेते हुए राजस्थान सरकार ने फुले दम्पत्ति के नाम से विद्यालय खोलने, उनकी तस्वीरें लगाने और सावित्री बाई फुले के जन्मदिन को शिक्षिका दिवस के रूप में मनाने का आदेश जारी किया है। सरकार के इस फैसले की चारों तरफ़ वाहवाही हो रही है। इस निर्णय की ओबीसी की जातियों में काफ़ी प्रशंसा हुई है।

इतना ही नहीं, हाल ही में गहलोत सरकार ने राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में डॉ. जे. पी. यादव की नियुक्ति करके भी पिछड़े वर्ग को संदेश देने की कोशिश की है कि सरकार को पिछड़ों की भागीदारी की परवाह है। यादव राजस्थान विश्वविद्यालय में ही पढ़े हैं और विगत 33 सालों से अध्यापन कर रहे हैं। उनकी नियुक्ति ने प्रदेश के बहुजन समाज को बड़ा राजनीतिक संदेश दिया है। शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण इदारों पर पिछड़ों की आमद पर भी मनुवादी ताकतों की भौहें टेढ़ी होती नजर आई हैं।
इसके अलावा क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला एक और फैसला यह है कि राजस्थान सरकार ने दलितों आदिवासियों की भूमि पर अवैध क़ब्ज़े हटवाने के लिए राजस्थानी काश्तकारी अधिनियम 1955 की धारा 83 में आंशिक बदलाव करके तहसीलदारों को अधिकृत कर दिया है और इस हेतु कोर्ट फ़ीस महज़ दो रुपए तय की है। इससे दलित, पिछड़े, आदिवासी, घुमंतू जातियों-जनजातियों के लोगों को राहत मिलेगी और उन पर चोट होगी जो जमीन पर कब्जा जमाए बैठे हैं।
इसके अलावा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गत 19 जून, 2020 को अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर घोषणा की कि सरकार, राज्य में अनुसूचित जाति व जनजाति की जनसंख्या के आधार पर बजट का आवंटन व व्यय हेतु क़ानून बनाने जा रही है, जो कि बेहद महत्वपूर्ण फ़ैसला है। इससे 18 प्रतिशत दलित और 13 प्रतिशत आदिवासी आबादी को फ़ायदा होने वाला है।
वहीं मुख्यमंत्री गहलोत ने स्वच्छताकर्मियों के सीवरेज में उतरने पर भी पाबंदी लगा कर जबरदस्त सन्देश दिया है। यह सफ़ाई कर्मचारी समुदाय के लिए बड़ा तोहफ़ा है। इस निर्णय की भी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। कोरोना वॉरियर्स की सूची में सबसे पहले सफाईकर्मियों को शामिल करते हुए उनकी मौत होने पर 50 लाख रुपए देने की घोषणा भी गहलोत ने ही की थी।
इस कोविड संक्रमण काल में गहलोत सरकार ने दलित ,आदिवासी व घुमंतू समुदाय के ग़रीबों के लिए जिस तरह से राहत सामग्री पहुँचाने के बंदोबस्त हुए हैं, उससे भी गहलोत सरकार की छवि बहुजन हितैषी सरकार के रूप के मज़बूत होती जा रही है।
इस प्रकार गहलोत इस कार्यकाल के एससी, एसटी और ओबीसी के हितकारी निर्णय लेने में सक्रियता दिखाई हैं। वहीं मृत्यु भोज रोकने और लॉकडाउन के दौरान मंदिरों व धार्मिक गतिविधियों को पूरी तरह से रोक दिये जाने से भी मनुवादी ताक़तें बहुत असहज महसूस करने लगी हैं। इसलिए भी वे गहलोत सरकार की जल्दी से जल्दी विदाई को इच्छुक दिखाई दे रहे हैं।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष के बजट में गहलोत सरकार द्वारा प्रत्येक ब्लॉक मुख्यालय पर दस लाख रुपए की लागत से आंबेडकर भवनों के निर्माण का निर्णय लिया गया है और अब सरकारी पुस्तकालयों के बहुजन महापुरुषों के साहित्य की ख़रीद की जा रही है। ये सभी कदम अशोक़ गहलोत को दलित, पिछड़े वर्ग का बड़ा चेहरा बना रहे हैं और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व को भी बड़ी चुनौती दे रहे है।
राजनीति के जादूगर गहलोत .

- जितेंद्र कुमार 
Jai Mulniwashi sangh . Jai Bhim Namö Budhåy
Jai Constitutions

बुधवार, 3 जून 2020

श्री अखिलेश यादव जी। विश्व साइकिल दिवस की अशेष शुभकामनाएं !

श्री अखिलेश यादव जी। विश्व साइकिल दिवस की अशेष शुभकामनाएं !
(श्री अखिलेश यादव के फेसबुक पेज पर लिखा गया मेरा कमेंट) बहुत अच्छा दिन है जिस दिन आपसे कुछ बात की जा सकती है आपके इस पेज से। हमारा ख्याल है कि राजनीति में दोस्त और दुश्मन की पहचान बहुत मुश्किल होती है यदि यही पहचान हो जाए तो फिर राजनीति में व्यक्ति हमेशा हमेशा मौजूद रहे यहां तक कि उसकी राजनीति केवल राजनीति ना होकर सत्ता की बागडोर बन जाए। यदि इसका उदाहरण देखना हो तो हमें मौजूदा राजनीति में देखना चाहिए। मेरा मानना है कि राजनीत केवल सत्ता की बागडोर नहीं है बल्कि राष्ट्र निर्माण की एक कड़ी है और इस कड़ी को जन जन तक पहुंचाने में बहुत जरूरी है कि दोस्त और दुश्मन का ध्यान बना रहना चाहिए। मैं हजारों ऐसे लोगों को जानता हूं जो राजनीति को व्यापार लूट और भ्रष्टाचार का अड्डा बना करके अपनी अपनी जागीर खड़ी करने में कामयाब हुए हैं। मैं यहां यह लिखना इसलिए जरूरी समझता हूं कि देश की आजादी और लोकतंत्र का जिंदा रहना अच्छे और बुरे सभी तरह के राजनीतिज्ञों को मौका देता है लेकिन आज देश किस तरफ बढ़ गया है वहां पर लोकतंत्र सुरक्षित है यह कहीं से भी दिखाई नहीं देता। लोकतंत्र जब लोक से निकल जाता है तब वह लोकतंत्र नहीं होता वह जुगाड़ तंत्र होता है और आज हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि जुगाड़ तंत्र लोकतंत्र को लगभग समाप्त कर चुका है। जुगाड़ कहने का मतलब केवल जुगाड़ नहीं है इसके पीछे जो प्रोडक्ट है वह नियोजित संसाधन है जो लोकतंत्र को लोकतंत्र ना रहने देने के लिए जिम्मेदार है। निश्चित तौर पर लोकतंत्र का जो मुख्य हथियार है वह है लोक का मताधिकार। जब मत देने के अधिकार पर मशीन का नियंत्रण हो तो ! साइकल में तो बहुत कम कम पुर्जे हैं लेकिन यही साइकिल जब यंत्रवत कर दी जाती है तब जनता के लिए चलना मुश्किल हो जाता जिसके लिए हमेश एक मकैनिक की जरुरत पड़ा जाती है उससे जनता का विश्वास औरअधिकार उस मकैनिक पर चले जाते हैं यानि समाप्त हो जाते हैं। जैसा कि देखने में आया है कि बहुत सारे ऐसे क्षेत्र जहां पर अमुक दल के लोग हार रहे थे वे यकायक परिणाम आने पर बहुत अधिक मतों से विजई हुए जो वहां के राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों के बिल्कुल विपरीत था। इसलिए इस वैश्विक साइकल दिवस पर हम यह चिंता जाहिर कर रहे हैं कि कहीं ना कहीं हेरा फेरी का खेल किसी की ताकत की पीछे मौजूद है। और इस खेल से जीतने का एकमात्र तरीका है जन आंदोलन जब तक लोकतंत्र बचाने का जन आंदोलन नहीं होगा तब तक यंत्रवत तंत्र राजनीति में किसी को भी जीतने नहीं देगी। मैंने आज के दिन यह बात इसलिए लिखी है कि शायद यह पढ़ा जाए और इस पर वाजिब चिंतन मनन हो। साभार डॉ लाल रत्नाकर 03 जून 2020

शनिवार, 23 मई 2020

बहुजन विमर्श

बहुजन विमर्श
इसमें वह समूह शामिल है जो बहुजन समूह के सर्वागिण विकास के लिये पहल कर रहा है। जिसकी पहली बैठक १८ मई को हुई दूसरी १९ मई २०२० को सॉयं ४ बजे से तीसरी बैठक २३०५२०२० को सॉयं ७ बजे से जिसकी रिपोर्ट यहॉ संलग्न की जा रही है।
नमस्कार।
बहुजन विमर्श के दूसरे आयोजन 23052020 शनिवार में शामिल होने के लिए सभी साथियों को बहुत-बहुत धन्यवाद।
आज के दिन इंटरनेट कि बेहतर स्थिति ना होने की वजह से काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
परंतु बातचीत हुई और काफी गर्मजोशी से अपने अपने अनुभव और विचार सभी साथियों ने रखे।
मेरे ख्याल से हम लोग मूल उद्देश को हासिल करने हेतु जिस बहस की जरूरत है बात अभी वहां पर नहीं आ पा रही है।
डॉ शास्त्री ने बहुत विस्तार से इस तरह की संगठनों के बारे में उल्लेख किया है जो अपने काल और परिस्थिति में किस तरह से उभरे और कमजोर होते गए। उन्होंने अपनी बातचीत में यह भी चिंता जाहिर की कि हमें राजनीतिक विमर्श की बजाए सांस्कृतिक और सामाजिक विमर्श को केंद्र में रखना है और बगैर सांस्कृतिक और सामाजिक सुधार के राजनीतिक सुधार की कोई उम्मीद नहीं है।
श्री अजय सिन्हा ने बहुत ही सलीके से विमर्श की मूलभूत आवश्यकता पर बल देते हुए तथ्यपरक बातें रखी साथ ही उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से सभी साथियों को अभिभूत कराते हुए विमर्श की रूपरेखा तैयार करने पर बल दिया।
श्री विप्लावी जी इस तरह की संगोष्ठी की उपयोगिता और डॉ शास्त्री के सुझाव को समेटे हुए अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस आंदोलन को किस तरह से एक संगठन के रूप में तैयार किया जाए और उससे किस किस तरह के काम लिए जाएं पर विशेष बल दिया।
श्री सुनील सरदार ने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभव को शेयर करते हुए अब तक के अपने प्रयोगों को बताया और अपनी पूर्व वक्ताओं की बात को एक शेप देते हुए यह कहा कि किस तरह से यह विमर्श एक महत्वपूर्ण घटना है।
श्री बैजनाथ यादव जी ने सघ और हमारे उन संगठनों की सफलता और विफलता का जिक्र बहुत ही सुंदर तरीके से किया और यह बताया कि व्यापार के क्षेत्र में किस तरह के भेदभाव से बहुजन समाज के लोगों को रूबरू होना पड़ता है।
डॉ नत्थू सिंह जी ने सभी वक्ताओं की बातों का समर्थन करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया कि बहुजन समाज में सह अस्तित्व की कमी महसूस की जाती है उसका विस्तार कैसे किया जाए विमर्श में इसको भी शामिल किया जाए।
युवा साथी श्री प्रभात रंजन ने बातचीत के बीच बीच में उत्साहित होकर के सांस्कृतिक बदलाव को जन जन के मध्य कैसे ले जाया जाए इस पर सभी वक्ताओं से जानने का प्रयास करते रहे।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए मैंने शास्त्री जी से निवेदन किया था कि वह आज के कार्यक्रम को एक विषय पर केंद्रित करने का मेरा आग्रह स्वीकार करें और अपनी बात रखें जिस पर उन्होंने विस्तार से चर्चा की।
कार्यक्रम का समापन श्री विप्लवी जी ने आज के कार्यक्रम की तकनीकी बाधाओं का जिक्र करते हुए इसे आगे ले जाने के लिए हमें किन मुख्य बिंदुओं को आगे करना है उस पर जोर दिया और इसी के साथ लगभग डेढ़ घंटे चले इस कार्यक्रम को समाप्त करने की घोषणा की।
-संयोजक

श्री बी आर विप्लवी जी का मत :
यह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है । इसको समेटने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना पड़ेगा----
 1. पहली बात तो यह है कि कुछ आखिर इस तरह के बहुजन विमर्श की आवश्यकता क्या है जिसमें कुछ गिने चुने लोगों द्वारा अपने ज्ञान और अनुभव को आपस में ही साझा कर लिया जाता है,?
2. इस तरह के हमारे बौद्धिक विमर्श से आमजन को क्या मिल रहा है या क्या मिलने वाला है?
3. हम किन समस्याओं को चिन्हित किए हुए हैं जिसके लिए हम यह विमर्श कर रहे हैं,,?
4. इस तरह का विमर्श किस प्रकार से निचले स्तर तक जा पाएगा? इसकी क्या व्यवस्था  होनी चाहिए?
5. बहुजन विमर्श के लिए भारत के उन तमाम बहुजन लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम ज़रूरी है जिसमें कि आज हज़ारों-हज़ार जातियां हैं। हर जाति का अलग रीति रिवाज खानपान मान्यता तथा हिंदू वर्ण व्यवस्था में उसके पायदान की अलग सीढ़ी तय है जिसके कारण जिन लोगों को हम बहुजन समझते हैं उनके भीतर ही ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, श्रेष्ठ-हीन का भाव बना हुआ है।इस समस्या का निदान क्या होना चाहिए?
6.बहुजनों में आपसी भेद-भाव सामाजिक कारणों से अधिक किन्तु इससे आगे बढ़कर कुछ आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक कारण भी हैं जिसके कारण ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब तथा श्रेष्ठ-हीन का भाव स्थायित्व पाये हुए है, इसे दूर करने के लिए हमारे पास क्या ठोस कार्यक्रम हैं ?
    यह सत्य है कि समाज में एका तभी हो सकता है जब इसके तमाम लोग एक साझा (कामन) धरातल या प्लेटफार्म पर आएं । यह प्लेटफार्म आपस में बराबरी के व्यहार की मांग करता है। यह बराबरी-- सामाजिक बराबरी, आर्थिक बराबरी, राजनैतिक बराबरी तथा धार्मिक बराबरी के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जो ग़ैर बराबरी अभी तक क़ायम है इसे मिटाकर समानता क़ायम करने के लिए भी बहुजन विमर्श की आवश्यकता है ताकि आम लोगों के बीच जाकर के--- चाहे वह भाषणों के माध्यम से, चाहे वह साहित्य के माध्यम से, चाहे वह अन्य किसी भी माध्यम से हो --लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात डालनी पड़ेगी कि--- *)बहुजन में जितनी भी जातियां हैं उन सब में प्राकृतिक रूप से एक ही पुरखों की वंशावली है।
**) दूसरी बात यह है कि अल्पसंख्यक दलित बहुजन सभी लोग एक ही दुश्मन ब्राह्मणवाद के सताए हुए हैं जिसने उनकी मान,मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत सब कुछ छीन कर उन्हें पशु के समान जीने के लिए मजबूर कर दिया है।
    भारत में जात की सच्चाई है और इस सच्चाई को नजरअंदाज करके हम कोई भी पॉलिसी नियम या रणनीति बनाएंगे तो उसके सफल होने की न्यूनतम संभावना है। यह सच है कि बहुजन जातियों में भी मुख्य तक चार वर्ग शामिल हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा अन्य पिछड़ा वर्ग। 
#अनुसूचित जातियों में मुख्यतः वे जातियां शामिल की गई हैं जो सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक एवं राजनैतिक रूप से अछूत(inseeable, unapproachable, untouchable) तथा बहिष्कृत हैं।
 #अनुसूचित जनजातियों में वे जातियां शामिल की गई हैं जो जंगलों में निवास करती रही है तथा जो सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से मुख्य धारा से बाहर रही हैं। वे मूल रूप से किसी धर्म में आवाज नहीं है तथा प्रकृति पूजा के रूप में उनकी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक परंपराएं हैं। उनका समाज के साथ कोई सीधा संपर्क या वार्तालाप नहीं रहा है इसलिए उनके प्रति कोई ऐतिहासिक अछूत पंखा इतिहास नहीं है किंतु फिर भी उन्हें मुख्य समाज अपने साथ संपर्क में लाने के लिए प्रायः तैयार नहीं होता तथा वे भी किंचित भेदभाव के शिकार हैं। 
# धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग जिसमें मुख्यतः मुसलमान, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्ध शामिल हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक भेदभाव होता रहा है तथा यह वर्ग भी प्रधानतया  दलित पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के फुल शुरू फलस्वरूप निर्मित हुआ है अतः इनमें भी शिक्षा रोजगार आदि की कमी रही है। मुख्यतः इस्लाम धर्म के अनुयायियों में शैक्षणिक आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन लगभग उसी प्रकार से हावी है किस प्रकार से यह अनुसूचित जातियों में है, अंतर केवल इतना ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव न होकर धार्मिक भेदभाव होता है। 
#चौथा वर्ग- अन्य पिछड़ा वर्ग का है जिसमें बहुत सारी जातियां हैं तथा उनमें भी श्रेणीगत विभाजन के कारण श्रेष्ठता का सीढ़ीदार विभाजन है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन चार वर्गों का आपस में किस प्रकार संलयन किया जाए जिससे एक ऐसी शक्ति पैदा की जा सके जो पैदाइशी रूप से शासक कही जाने वाली जातियों के उन अधिकारों को चुनौती दे सके जिसके चलते हुए हमेशा शासक बने रहने का दावा करते हैं तथा वे बहुधा इसमें अभी तक सफल भी हैं।
  तात्कालिक रूप से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अनुसूचित जनजातियों के समाज से दूर वनांचल में बसे होने के कारण उनके साथ अनुसूचित जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों का भी सीधा सामाजिक संबंध नहीं के बराबर रहा है अतः उनके साथ कई मामलों में सामाजिक संलयन की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भी सामाजिक संलयन की प्रक्रिया का अभी कुछ कारगर उपाय तय किया जाना बाकी है।
        अत: फौरी तौर पर अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग जो अलग-अलग; कुछ दूरी बनाकर, रहते हुए भी समाज में कहीं न कहीं एक साथ उपस्थित होते रहे हैं तथा उनका आपस में संवाद भी होता रहा है क्योंकि इन दोनों वर्गों को हिंदू बाड़े में रखा गया है इसलिए उसके बहाने भी लंबे समय से इनके अंदर हिंदुत्व की एकता का मोह पैदा किया गया है जिसके कारण भी इनमें दूरियां कम हुई हैं। अतः यह दोनों वर्ग सामाजिक,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से एक साथ घुलने-मिलने के लिए ज़्यादा अनुकूल एवं मुफ़ीद प्रतीत होते हैं।
हां यह एक कठोर सच्चाई है की अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदू वर्ण व्यवस्था की चौथे वर्ण के रूप में अर्थात शुद्र वर्ण के रूप में पहचाना गया है किंतु अनुसूचित जाति समूह हिंदू वर्ण व्यवस्था के किसी पायदान  पर नहीं है अर्थात वह वर्ण व्यवस्था के बाहर है जिसे हम पारंपरिक रूप से ग़ैर हिंदू भी कह सकते हैं। यह वह वर्ग है जिसने ब्राह्मण धर्म के बदले हुए नाम हिंदू धर्म के साथ भी नहीं जुड़ सका जिसके कारण उसे बहिष्कृत ही रखा गया ।         जानने योग्य है कि ईशा के लगभग 600 साल पहले बौद्ध जीवन मार्ग के लोकप्रिय होने के बाद अनुसूचित जाति के  ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने हुए बौद्ध के जीवन मार्ग को ही अपनाया तथा उन्होंने हिंदू जैसे छद्म धर्म को अस्वीकार किया जिसके कारण ब्राह्मण धर्म ने बहिष्कृत तथा अछूत क़रार कर दिया । इसका ख़मियाज़ा वे आज तक भुगत रहे हैं। सनातन हड़प्पा संस्कृति को अपने गले से लगाए हुए इस वर्ग ने दुनिया भी धर्म को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह हिंदू धर्म के नए संस्करण के बाद भी वह प्राय: इससे अलग-थलग ही रहा। 
   अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है तथा जो जनसंख्या में भारत की कुल जनसंख्या का 50% से अधिक है। यह दूसरा वर्ग जो कि हिंदू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा गया है तथा जिसे सेवा करने के लिए ही मनु के क़ानून द्वारा विहित किया गया है, वह क्योंकि सवर्णों के साथ लगातार उनके कार्यकलापों में सहयोगी है इसलिए वह उन्हें(उच्च वर्णीयों को) छू सकता है- उसके छूने से किसी तरह का पाप या दोष नहीं लगता बताया गया है इसलिए वह सछूत  है। 
     इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच जो बड़ी सामाजिक खाई है वह यही है की अन्य पिछड़ा वर्ग सछूत है तथा अनुसूचित जाति अछूत। इस कारण भी लंबे समय तक अन्य पिछड़ा वर्ग अपने को हिंदू वर्ण व्यवस्था का अंग होने के कारण अनुसूचित जाति के लोगों से अपने को श्रेष्ठ कहकर उन्हें अछूतपन का शिकार बनाने के लिए ख़ुद को वैध मानता रहा है। इस प्रकार इन उत्पीड़क कार्यों के लिए उसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के अन्य तीन वर्णों का भीअनुमोदन एवं समर्थन प्राप्त होता रहा है । यही कारण है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को हथियार बनाकर हिंदू ब्राह्मणी सवर्ण व्यवस्था ने लगातार बहिष्कृत अंत्यज अनुसूचित जातियों पर तरह तरह के ज़ुल्म ढाए हैं । इस प्रकार अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच लंबे समय से आपसी रंजिश तथा दुश्मनी का वातावरण भी इसी ब्राह्मणी व्यवस्था ने तैयार कराया है। अतः इस खाई को पाटने के कारगर उपाय भी सोचे जाने चाहिए।
      इन दोनों वर्गों में जो एकता के मजबूत बंधन हो सकते हैं वह यही कि यह दोनों वर्ग ही ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा सताए गए वर्ग हैं । यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि मनु का सारा निषेधक कानून इन्हीं शूद्रों,स्त्रियों तथा अन्त्यज जनों के लिए है ।अतः इस दृष्टिकोण से देखने से यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों ही वर्गों को ब्राह्मणी व्यवस्था की नज़र में एक ही तरह का ट्रीटमेंट तथा व्यवहार दिया गया है केवल अपनी सुविधा के लिए एक को छूने योग्य बना दिया है तथा दूसरे को जो अधिक विद्रोही तथा नकारा है उसे अछूत बनाकर उसके साथ सारे कार्य व्यापार बंद कर दिया है। 
    यही दोनों के बीच एक साझा या कामन प्लेटफार्म बनाने वाली चीजें हैं। इसी प्लेटफार्म पर होकर इसका साझा शत्रु से लड़ाई के लिए एकता को मज़बूत किया जा सकता। यही नहीं बल्कि रोज़ी-रोटी, जीविकोपार्जन एवं मान-सम्मान के लिए भी दोनों के साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद को पराजित करना ज़रूरी है । अतः इसमें दोनों ही लोगों के स्वार्थ जुड़े हुएहैं। जब किन्हीं रूपों में भी  लोगों के स्वार्थ आपस में जुड़े हुए होते हैं तब ही आपस में एकता स्थापित होती है। इसीलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के शूद्र तथा हिंदू व्यवस्था के बाहर की अनुसूचित जातियों  के बीच प्राकृतिक रूप से एकता स्थापित होने के कुछ कुदरती उपादान पहले से ही उपलब्ध हैं, बस हमें उनका इस्तेमाल करना है। यह सच है कि शूद्र जातियां भी ब्राह्मणवाद के इशारे पर आपस में ही नहीं लड़ती रही हैं बल्कि वे एक दूसरे को भी उसी नज़र से देखती रही हैं जिस नज़र से देखना ब्राह्मणवाद ने उन्हें सिखाया है ।इसलिए उनके बीच में आपस में हज़ारों साल की वैमनस्यता भी है किंतु सबसे सुखद बात यह है कि इस तरह की वैमनष्यता ज़्यादा तर आर्थिक कारणों से ही रही है सामाजिक कारण इसमें बहुत ही कम रहे हैं। गांव में प्राय: देखा गया है कि दोनों लोगों का आपस में उठना-बैठना,प्रेम-व्यवहार तो बहुत दिनों से चलता आ रहा है ,एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी भी चलती आ रही है। लेकिन खानपान शादी-ब्या के मामले में अभी भी लोग अलग-अलग ही हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शूद्रों द्वारा पुराने कुटुम्ब भाइयों (अनुसूचित जातियों) के साथ छुआछूत का व्यवहार केवल इसलिए बरता जाता रहा है कि इससे उनके मालिक सवर्ण संतुष्ट रहें अन्यथा वे इस जुर्म में;कि वे बहिष्कृतों को छूते हैं, उन्हें भी अछूत बना सकते हैं। 
     आज ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के बीच आपसी समझ तथा ताल-मेल कायम हो, साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि इनके अंदर विद्यमान उप जातियों के बीच भी सौहार्द तथा एकता पैदा की जाए।यही नहीं इनके अंदर विद्यमान बहुत सी जातियां हैं जिनका आपस में भी खान शादी ब्याह नहीं होता है इसी प्रकार से सछूत शूद्रों में भी कई जातियां हैं जिनका आपस में शादी विवाह नहीं होता है, इस प्रकार हमें पूरे बहुजन को एक साथ लाने के लिए कम से कम एक कामन प्लेटफार्म एक कामन उद्देश्य  के लिए कुछ सांस्कृतिक परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी ।
    सबसे पहली समस्या तो यह कि जिस ब्राह्मणवाद से हम लड़ने चल रहे हैं उस ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा हथियार है वह है- वर्ण धर्म-- जिसके कारण उसने भारतीय समाज को जातियों में तोड़ा है तथा उनको अपने स्वार्थ, अपने फ़ायदे के लिए किसी टूल की तरह से इस्तेमाल करता रहा है। हमें लड़ना ज़रूरी है । इस लड़ाई में हमारी एकता भी साबित होगी और हमारा जो सांस्कृतिक परिवर्तन है वह भी नज़र आए यह ज़रूरी है। लड़ाई के अपने रणनीति बनाकर बनाकर चलें । इस रणनीति में जब तक हिंदूवर्ण व्यवस्था को समाप्त करने पर या हिंदू वर्ण व्यवस्था से अलग होने पर हम ठोस कार्यवाही नहीं करेंगे तब तक हमारी किसी भी तरह की विजय संदेहास्पद है। वर्णाश्रम का अर्थ है हिंदू धर्म अर्थात हमें सीधे टक्कर हिंदू धर्म से लेनी पड़ेगी। वास्तव में यह हिंदू धर्म कुछ भी नहीं है, यह ब्राह्मण धर्म ही है जो हिंदू नाम देकर ग़ैर ब्राह्मणों को ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनाने का एक महामंत्र बनाया गया है। इसलिए हमें इस ब्राह्मण धर्म के ख़िलाफ़ तुरंत लाम बंद होने की ज़रूरत है तथा ब्राह्मण धर्म द्वारा बताए-सुझाए गए धार्मिक कृत्यों जिसमें दान, पूजा,यज्ञ, हवन,तीर्थ,व्रत कथा वार्ता,भागवत-रामायण आदि शामिल हैं- इन को चुनौती देनी होगी। लोगों को संदेह है कि आख़िर हम यह सब एकाएक कैसे छोड़ सकते हैं? इसके लिए मेरा यही कहना है कि इसके बीच का कोई रास्ता नहीं है। या तो हम इसे छोड़ें या इसे गले से लगाए रहें। हिंदू धर्म में सुधार करने की प्रयास लगभग 1000 वर्षों में बार-बार हुए हैं तथा हज़ारों-लाखों लोगों ने इसे सुधारने-संवारने का प्रयास किया है किंतु सब कुछ व्यर्थ गया। इसलिए यह उम्मीद करना कि हम हिंदू धर्म को सुधार कर अपने लायक बना लेंगे, यह एक दिवास्वप्न है। बीच का रास्ता जो मुझे समझ आता है वह यही है की किसी भी तरह के कर्मकांड किसी भी तरह हिन्दू ब्राह्मणी रीति से शादी- व्याह आदि ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ेगी तथा इनका परित्याग करना पड़ेगा। तो फिर इसका हमें विकल्प भी देना पड़ेगा। इस विकल्प के रूप में हमें तीज त्यौहारों तथा शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों पर भी विचार करना पड़ेगा क्योंकि भारत की ग्रामीण परंपरावादी जनता बिना धर्म के नहीं रह सकती है। इसलिए उन्हें एक धर्म देने की भी ज़रुरत होगी। लेकिन कोई नया धर्म स्वीकार करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हम पुराने ओ वैज्ञानिक अंधविश्वासी विचारों तथा परंपराओं को त्याग दें तथा अपने हड़प्पाई सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीने का रास्ता बनाएं।
ह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है । इसको समेटने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना पड़ेगा----
 1. पहली बात तो यह है कि कुछ आखिर इस तरह के बहुजन विमर्श की आवश्यकता क्या है जिसमें कुछ गिने चुने लोगों द्वारा अपने ज्ञान और अनुभव को आपस में ही साझा कर लिया जाता है,?
2. इस तरह के हमारे बौद्धिक विमर्श से आमजन को क्या मिल रहा है या क्या मिलने वाला है?
3. हम किन समस्याओं को चिन्हित किए हुए हैं जिसके लिए हम यह विमर्श कर रहे हैं,,?
4. इस तरह का विमर्श किस प्रकार से निचले स्तर तक जा पाएगा? इसकी क्या व्यवस्था  होनी चाहिए?
5. बहुजन विमर्श के लिए भारत के उन तमाम बहुजन लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम ज़रूरी है जिसमें कि आज हज़ारों-हज़ार जातियां हैं। हर जाति का अलग रीति रिवाज खानपान मान्यता तथा हिंदू वर्ण व्यवस्था में उसके पायदान की अलग सीढ़ी तय है जिसके कारण जिन लोगों को हम बहुजन समझते हैं उनके भीतर ही ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, श्रेष्ठ-हीन का भाव बना हुआ है।इस समस्या का निदान क्या होना चाहिए?
6.बहुजनों में आपसी भेद-भाव सामाजिक कारणों से अधिक किन्तु इससे आगे बढ़कर कुछ आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक कारण भी हैं जिसके कारण ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब तथा श्रेष्ठ-हीन का भाव स्थायित्व पाये हुए है, इसे दूर करने के लिए हमारे पास क्या ठोस कार्यक्रम हैं ?
    यह सत्य है कि समाज में एका तभी हो सकता है जब इसके तमाम लोग एक साझा (कामन) धरातल या प्लेटफार्म पर आएं । यह प्लेटफार्म आपस में बराबरी के व्यहार की मांग करता है। यह बराबरी-- सामाजिक बराबरी, आर्थिक बराबरी, राजनैतिक बराबरी तथा धार्मिक बराबरी के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जो ग़ैर बराबरी अभी तक क़ायम है इसे मिटाकर समानता क़ायम करने के लिए भी बहुजन विमर्श की आवश्यकता है ताकि आम लोगों के बीच जाकर के--- चाहे वह भाषणों के माध्यम से, चाहे वह साहित्य के माध्यम से, चाहे वह अन्य किसी भी माध्यम से हो --लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात डालनी पड़ेगी कि--- *)बहुजन में जितनी भी जातियां हैं उन सब में प्राकृतिक रूप से एक ही पुरखों की वंशावली है।
**) दूसरी बात यह है कि अल्पसंख्यक दलित बहुजन सभी लोग एक ही दुश्मन ब्राह्मणवाद के सताए हुए हैं जिसने उनकी मान,मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत सब कुछ छीन कर उन्हें पशु के समान जीने के लिए मजबूर कर दिया है।
    भारत में जात की सच्चाई है और इस सच्चाई को नजरअंदाज करके हम कोई भी पॉलिसी नियम या रणनीति बनाएंगे तो उसके सफल होने की न्यूनतम संभावना है। यह सच है कि बहुजन जातियों में भी मुख्य तक चार वर्ग शामिल हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा अन्य पिछड़ा वर्ग। 
#अनुसूचित जातियों में मुख्यतः वे जातियां शामिल की गई हैं जो सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक एवं राजनैतिक रूप से अछूत(inseeable, unapproachable, untouchable) तथा बहिष्कृत हैं।
 #अनुसूचित जनजातियों में वे जातियां शामिल की गई हैं जो जंगलों में निवास करती रही है तथा जो सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से मुख्य धारा से बाहर रही हैं। वे मूल रूप से किसी धर्म में आवाज नहीं है तथा प्रकृति पूजा के रूप में उनकी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक परंपराएं हैं। उनका समाज के साथ कोई सीधा संपर्क या वार्तालाप नहीं रहा है इसलिए उनके प्रति कोई ऐतिहासिक अछूत पंखा इतिहास नहीं है किंतु फिर भी उन्हें मुख्य समाज अपने साथ संपर्क में लाने के लिए प्रायः तैयार नहीं होता तथा वे भी किंचित भेदभाव के शिकार हैं। 
# धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग जिसमें मुख्यतः मुसलमान, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्ध शामिल हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक भेदभाव होता रहा है तथा यह वर्ग भी प्रधानतया  दलित पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के फुल शुरू फलस्वरूप निर्मित हुआ है अतः इनमें भी शिक्षा रोजगार आदि की कमी रही है। मुख्यतः इस्लाम धर्म के अनुयायियों में शैक्षणिक आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन लगभग उसी प्रकार से हावी है किस प्रकार से यह अनुसूचित जातियों में है, अंतर केवल इतना ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव न होकर धार्मिक भेदभाव होता है। 
#चौथा वर्ग- अन्य पिछड़ा वर्ग का है जिसमें बहुत सारी जातियां हैं तथा उनमें भी श्रेणीगत विभाजन के कारण श्रेष्ठता का सीढ़ीदार विभाजन है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन चार वर्गों का आपस में किस प्रकार संलयन किया जाए जिससे एक ऐसी शक्ति पैदा की जा सके जो पैदाइशी रूप से शासक कही जाने वाली जातियों के उन अधिकारों को चुनौती दे सके जिसके चलते हुए हमेशा शासक बने रहने का दावा करते हैं तथा वे बहुधा इसमें अभी तक सफल भी हैं।
  तात्कालिक रूप से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अनुसूचित जनजातियों के समाज से दूर वनांचल में बसे होने के कारण उनके साथ अनुसूचित जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों का भी सीधा सामाजिक संबंध नहीं के बराबर रहा है अतः उनके साथ कई मामलों में सामाजिक संलयन की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भी सामाजिक संलयन की प्रक्रिया का अभी कुछ कारगर उपाय तय किया जाना बाकी है।
        अत: फौरी तौर पर अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग जो अलग-अलग; कुछ दूरी बनाकर, रहते हुए भी समाज में कहीं न कहीं एक साथ उपस्थित होते रहे हैं तथा उनका आपस में संवाद भी होता रहा है क्योंकि इन दोनों वर्गों को हिंदू बाड़े में रखा गया है इसलिए उसके बहाने भी लंबे समय से इनके अंदर हिंदुत्व की एकता का मोह पैदा किया गया है जिसके कारण भी इनमें दूरियां कम हुई हैं। अतः यह दोनों वर्ग सामाजिक,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से एक साथ घुलने-मिलने के लिए ज़्यादा अनुकूल एवं मुफ़ीद प्रतीत होते हैं।
हां यह एक कठोर सच्चाई है की अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदू वर्ण व्यवस्था की चौथे वर्ण के रूप में अर्थात शुद्र वर्ण के रूप में पहचाना गया है किंतु अनुसूचित जाति समूह हिंदू वर्ण व्यवस्था के किसी पायदान  पर नहीं है अर्थात वह वर्ण व्यवस्था के बाहर है जिसे हम पारंपरिक रूप से ग़ैर हिंदू भी कह सकते हैं। यह वह वर्ग है जिसने ब्राह्मण धर्म के बदले हुए नाम हिंदू धर्म के साथ भी नहीं जुड़ सका जिसके कारण उसे बहिष्कृत ही रखा गया ।         जानने योग्य है कि ईशा के लगभग 600 साल पहले बौद्ध जीवन मार्ग के लोकप्रिय होने के बाद अनुसूचित जाति के  ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने हुए बौद्ध के जीवन मार्ग को ही अपनाया तथा उन्होंने हिंदू जैसे छद्म धर्म को अस्वीकार किया जिसके कारण ब्राह्मण धर्म ने बहिष्कृत तथा अछूत क़रार कर दिया । इसका ख़मियाज़ा वे आज तक भुगत रहे हैं। सनातन हड़प्पा संस्कृति को अपने गले से लगाए हुए इस वर्ग ने दुनिया भी धर्म को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह हिंदू धर्म के नए संस्करण के बाद भी वह प्राय: इससे अलग-थलग ही रहा। 
   अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है तथा जो जनसंख्या में भारत की कुल जनसंख्या का 50% से अधिक है। यह दूसरा वर्ग जो कि हिंदू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा गया है तथा जिसे सेवा करने के लिए ही मनु के क़ानून द्वारा विहित किया गया है, वह क्योंकि सवर्णों के साथ लगातार उनके कार्यकलापों में सहयोगी है इसलिए वह उन्हें(उच्च वर्णीयों को) छू सकता है- उसके छूने से किसी तरह का पाप या दोष नहीं लगता बताया गया है इसलिए वह सछूत  है। 
     इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच जो बड़ी सामाजिक खाई है वह यही है की अन्य पिछड़ा वर्ग सछूत है तथा अनुसूचित जाति अछूत। इस कारण भी लंबे समय तक अन्य पिछड़ा वर्ग अपने को हिंदू वर्ण व्यवस्था का अंग होने के कारण अनुसूचित जाति के लोगों से अपने को श्रेष्ठ कहकर उन्हें अछूतपन का शिकार बनाने के लिए ख़ुद को वैध मानता रहा है। इस प्रकार इन उत्पीड़क कार्यों के लिए उसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के अन्य तीन वर्णों का भीअनुमोदन एवं समर्थन प्राप्त होता रहा है । यही कारण है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को हथियार बनाकर हिंदू ब्राह्मणी सवर्ण व्यवस्था ने लगातार बहिष्कृत अंत्यज अनुसूचित जातियों पर तरह तरह के ज़ुल्म ढाए हैं । इस प्रकार अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच लंबे समय से आपसी रंजिश तथा दुश्मनी का वातावरण भी इसी ब्राह्मणी व्यवस्था ने तैयार कराया है। अतः इस खाई को पाटने के कारगर उपाय भी सोचे जाने चाहिए।
      इन दोनों वर्गों में जो एकता के मजबूत बंधन हो सकते हैं वह यही कि यह दोनों वर्ग ही ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा सताए गए वर्ग हैं । यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि मनु का सारा निषेधक कानून इन्हीं शूद्रों,स्त्रियों तथा अन्त्यज जनों के लिए है ।अतः इस दृष्टिकोण से देखने से यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों ही वर्गों को ब्राह्मणी व्यवस्था की नज़र में एक ही तरह का ट्रीटमेंट तथा व्यवहार दिया गया है केवल अपनी सुविधा के लिए एक को छूने योग्य बना दिया है तथा दूसरे को जो अधिक विद्रोही तथा नकारा है उसे अछूत बनाकर उसके साथ सारे कार्य व्यापार बंद कर दिया है। 
    यही दोनों के बीच एक साझा या कामन प्लेटफार्म बनाने वाली चीजें हैं। इसी प्लेटफार्म पर होकर इसका साझा शत्रु से लड़ाई के लिए एकता को मज़बूत किया जा सकता। यही नहीं बल्कि रोज़ी-रोटी, जीविकोपार्जन एवं मान-सम्मान के लिए भी दोनों के साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद को पराजित करना ज़रूरी है । अतः इसमें दोनों ही लोगों के स्वार्थ जुड़े हुएहैं। जब किन्हीं रूपों में भी  लोगों के स्वार्थ आपस में जुड़े हुए होते हैं तब ही आपस में एकता स्थापित होती है। इसीलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के शूद्र तथा हिंदू व्यवस्था के बाहर की अनुसूचित जातियों  के बीच प्राकृतिक रूप से एकता स्थापित होने के कुछ कुदरती उपादान पहले से ही उपलब्ध हैं, बस हमें उनका इस्तेमाल करना है। यह सच है कि शूद्र जातियां भी ब्राह्मणवाद के इशारे पर आपस में ही नहीं लड़ती रही हैं बल्कि वे एक दूसरे को भी उसी नज़र से देखती रही हैं जिस नज़र से देखना ब्राह्मणवाद ने उन्हें सिखाया है ।इसलिए उनके बीच में आपस में हज़ारों साल की वैमनस्यता भी है किंतु सबसे सुखद बात यह है कि इस तरह की वैमनष्यता ज़्यादा तर आर्थिक कारणों से ही रही है सामाजिक कारण इसमें बहुत ही कम रहे हैं। गांव में प्राय: देखा गया है कि दोनों लोगों का आपस में उठना-बैठना,प्रेम-व्यवहार तो बहुत दिनों से चलता आ रहा है ,एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी भी चलती आ रही है। लेकिन खानपान शादी-ब्या के मामले में अभी भी लोग अलग-अलग ही हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शूद्रों द्वारा पुराने कुटुम्ब भाइयों (अनुसूचित जातियों) के साथ छुआछूत का व्यवहार केवल इसलिए बरता जाता रहा है कि इससे उनके मालिक सवर्ण संतुष्ट रहें अन्यथा वे इस जुर्म में;कि वे बहिष्कृतों को छूते हैं, उन्हें भी अछूत बना सकते हैं। 
     आज ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के बीच आपसी समझ तथा ताल-मेल कायम हो, साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि इनके अंदर विद्यमान उप जातियों के बीच भी सौहार्द तथा एकता पैदा की जाए।यही नहीं इनके अंदर विद्यमान बहुत सी जातियां हैं जिनका आपस में भी खान शादी ब्याह नहीं होता है इसी प्रकार से सछूत शूद्रों में भी कई जातियां हैं जिनका आपस में शादी विवाह नहीं होता है, इस प्रकार हमें पूरे बहुजन को एक साथ लाने के लिए कम से कम एक कामन प्लेटफार्म एक कामन उद्देश्य  के लिए कुछ सांस्कृतिक परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी ।
    सबसे पहली समस्या तो यह कि जिस ब्राह्मणवाद से हम लड़ने चल रहे हैं उस ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा हथियार है वह है- वर्ण धर्म-- जिसके कारण उसने भारतीय समाज को जातियों में तोड़ा है तथा उनको अपने स्वार्थ, अपने फ़ायदे के लिए किसी टूल की तरह से इस्तेमाल करता रहा है। हमें लड़ना ज़रूरी है । इस लड़ाई में हमारी एकता भी साबित होगी और हमारा जो सांस्कृतिक परिवर्तन है वह भी नज़र आए यह ज़रूरी है। लड़ाई के अपने रणनीति बनाकर बनाकर चलें । इस रणनीति में जब तक हिंदूवर्ण व्यवस्था को समाप्त करने पर या हिंदू वर्ण व्यवस्था से अलग होने पर हम ठोस कार्यवाही नहीं करेंगे तब तक हमारी किसी भी तरह की विजय संदेहास्पद है। वर्णाश्रम का अर्थ है हिंदू धर्म अर्थात हमें सीधे टक्कर हिंदू धर्म से लेनी पड़ेगी। वास्तव में यह हिंदू धर्म कुछ भी नहीं है, यह ब्राह्मण धर्म ही है जो हिंदू नाम देकर ग़ैर ब्राह्मणों को ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनाने का एक महामंत्र बनाया गया है। इसलिए हमें इस ब्राह्मण धर्म के ख़िलाफ़ तुरंत लाम बंद होने की ज़रूरत है तथा ब्राह्मण धर्म द्वारा बताए-सुझाए गए धार्मिक कृत्यों जिसमें दान, पूजा,यज्ञ, हवन,तीर्थ,व्रत कथा वार्ता,भागवत-रामायण आदि शामिल हैं- इन को चुनौती देनी होगी। लोगों को संदेह है कि आख़िर हम यह सब एकाएक कैसे छोड़ सकते हैं? इसके लिए मेरा यही कहना है कि इसके बीच का कोई रास्ता नहीं है। या तो हम इसे छोड़ें या इसे गले से लगाए रहें। हिंदू धर्म में सुधार करने की प्रयास लगभग 1000 वर्षों में बार-बार हुए हैं तथा हज़ारों-लाखों लोगों ने इसे सुधारने-संवारने का प्रयास किया है किंतु सब कुछ व्यर्थ गया। इसलिए यह उम्मीद करना कि हम हिंदू धर्म को सुधार कर अपने लायक बना लेंगे, यह एक दिवास्वप्न है। बीच का रास्ता जो मुझे समझ आता है वह यही है की किसी भी तरह के कर्मकांड किसी भी तरह हिन्दू ब्राह्मणी रीति से शादी- व्याह आदि ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ेगी तथा इनका परित्याग करना पड़ेगा। तो फिर इसका हमें विकल्प भी देना पड़ेगा। इस विकल्प के रूप में हमें तीज त्यौहारों तथा शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों पर भी विचार करना पड़ेगा क्योंकि भारत की ग्रामीण परंपरावादी जनता बिना धर्म के नहीं रह सकती है। इसलिए उन्हें एक धर्म देने की भी ज़रुरत होगी। लेकिन कोई नया धर्म स्वीकार करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हम पुराने ओ वैज्ञानिक अंधविश्वासी विचारों तथा परंपराओं को त्याग दें तथा अपने हड़प्पाई सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीने का रास्ता बनाएं।

सोमवार, 18 मई 2020

आतंकवाद

यह दौर संगठित अराजकता और आतंकवाद, का दौर है जो उस संगठित गिरोह का है  जो न तो आज़ादी का हिमायती रहा, न गांधी, अम्बेडकर, संविधान और लोकतंत्र का ही । 
यह बहुजनों के अधिकारों पर हमला है।



बुधवार, 25 दिसंबर 2019

ताकि सनद रहे !

कोरोना काले :
कोरोना काले :

कोरोना: मोदी सरकार ने बिना प्लान के लागू किया लॉकडाउन- नज़रिया

  • 1 घंटा पहले
प्रोफ़ेस स्टीव हैंकी                                            






स्टीव हैंकी अमरीका के जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय में एप्लाइड अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और जॉन्स हॉपकिंस इंस्टीट्यूट फ़ॉर एप्लाइड अर्थशास्त्र, ग्लोबल हेल्थ और बिज़नेस एंटरप्राइज़ अध्ययन के संस्थापक और सह-निदेशक हैं.
वो दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं. भारत और दक्षिण एशिया के देशों पर उनकी गहरी नज़र है. बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद को दिए एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में उन्होंने भारत में जारी लॉकडाउन और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के अलावा कई दूसरे मुद्दों पर बातें कीं.

बीबीसी के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में प्रोफ़ेसर स्टीव हैंकी ने क्या कहा, विस्तार से पढ़िए    

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर स्टीव हैंकी कहते हैं कि भारत सरकार कोरोना संकट से लड़ने के लिए पहले से तैयार नहीं थी. उन्होंने कहा, "मोदी पहले से तैयार नहीं थे और भारत के पास पर्याप्त उपकरण नहीं हैं."
प्रोफ़सर स्टीव हैंकी कहते हैं, "मोदी के लॉकडाउन के साथ समस्या यह है कि इसे बिना पहले से प्लान के लागू कर दिया गया. वास्तव में मुझे लगता है कि मोदी यह जानते ही नहीं हैं कि 'योजना' का मतलब क्या होता है."
प्रोफ़ेसर हैंकी कहते हैं कि लॉकडाउन संपूर्ण नहीं स्मार्ट होना चाहिए. उन्होंने कहा कि जिन भी देशों ने कोरोना वायरस से अपने यहां बड़े नुक़सान होने से रोके हैं उन्होंने अपने यहां कड़े उपाय लागू नहीं किए थे. इन देशों ने अपने यहां सटीक, सर्जिकल एप्रोच का सहारा लिया.
हालांकि बीजेपी के महासचिव राम माधव का मानना है कि कोरोना महामारी से निपटने में पीएम मोदी ने दुनिया के सामने मिसाल पेश की है. यहां पढ़ें राम माधव का नज़रिया.
अमरीकी अर्थशास्त्री एकतरफ़ा लॉकडाउन के पक्ष में नहीं हैं. वो कहते हैं, "मैं यह साफ़ कर दूं कि मैं कभी एकतरफ़ा लॉकडाउन का समर्थक नहीं रहा हूँ. मैंने हमेशा से स्मार्ट और टारगेटेड एप्रोच की वकालत की है. जैसा कि दक्षिण कोरिया, स्वीडन और यहां तक कि यूएई में किया गया. इसी वजह से मैंने खेल आयोजनों और धार्मिक कार्यक्रमों को रद्द करने की बात की है."
कोरोना संक्रमण के फैलाव से बचने के लिए 24 मार्च की आधी रात को चार घंटे की नोटिस पर 21 दिनों का संपूर्ण लॉकडाउन देश भर में लागू कर दिया गया जिसे अब तीन मई तक बढ़ा दिया गया है. इसके दो दिन पहले यानी 22 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर में जनता कर्फ्यू लागू करने की अपील की थी जो सफल रहा था.    
भारत में मोदी सरकार की लॉकडाउन नीतियों पर अधिक सवाल नहीं उठाए गए हैं. उल्टा उस समय देश में जश्न का माहौल था जब प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का 24 फ़रवरी को अहमदाबाद में लोगों से भरे एक स्टेडियम में स्वागत किया.
जबकि उस समय चीन, जापान और इटली जैसे देशों के कुछ इलाक़ों में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था. भारत में कोरोना वायरस का पहला केस 30 जनवरी को सामने आया था. 
भारत में लॉकडाउन                                                  इमेज कॉपीरइटGetty Images

भारत की अंडरग्राउंड इकनॉमी को कम करना ज़रूरी

प्रोफ़ेसर हैंकी का मानना था कि लॉकडाउन के कड़े उपाए से कमज़ोर तबक़े का अधिक नुक़सान हुआ है. वे कहते हैं, "मोदी के कड़े उपाय देश की बड़ी आबादी के सबसे ज़्यादा जोख़िम वाले तबक़ों में पैनिक फैलाने वाले रहे हैं. भारत के 81 फ़ीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. भारत की बड़ी अंडरग्राउंड इकनॉमी की वजह यह है कि यहां सरकार के ग़ैर-ज़रूरी और प्रताड़ित करने वाले रेगुलेशंस मौजूद हैं, क़ानून का राज बेहद कमज़ोर है और साथ ही यहां संपत्ति के अधिकारों में अनिश्चितता है."
तो इसे संगठित करने के लिए क्या करना चाहिए, प्रोफ़सर स्टीव हैंकी का नुस्ख़ा ये है- अर्धव्यवस्था में सुधार, क़ानून का राज क़ायम करना, दाग़दार और भ्रष्ट नौकरशाही और न्यायिक व्यवस्थाओं में सुधार ही असंगठित अर्थव्यवस्था को कम करने का एकमात्र तरीक़ा है.
उनका कहना था कि भारतीय वर्कर्स को एक मॉडर्न और औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाने का तरीक़ा ग़लत तरीक़े से लागू की गई नोटबंदी जैसा क़दम नहीं हो सकता.

देश का ख़राब हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर

प्रोफ़ेसर हैंकी कहते हैं, "भारत कोरोना की महामारी के लिए तैयार नहीं था. साथ ही देश में टेस्टिंग या इलाज की भी सुविधाएं बेहद कम हैं. भारत में हर 1,000 लोगों पर महज़ 0.7 बेड हैं. देश में हर एक हज़ार लोगों पर केवल 0.8 डॉक्टर हैं. देश में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर कितना लचर है इसकी एक मिसाल यह है कि महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों में केवल 450 वेंटिलेटर और 502 आईसीयू बेड हैं. इतने कम संसाधनों पर राज्य के 12.6 करोड़ लोग टिके हैं."
उनका कहना था, "कोरोना वायरस के साथ दिक़्क़त यह है कि इसके बिना लक्षण वाले कैरियर्स किसी को जानकारी हुए बग़ैर इस बीमारी को लोगों में फैला सकते हैं. इस वायरस से प्रभावी तौर पर लड़ने का एकमात्र तरीक़ा टेस्ट और ट्रेस प्रोग्राम चलाना है. जैसा सिंगापुर में हुआ. लेकिन, इंडिया में इस तरह के प्रोग्राम चलाने की बेहद सीमित क्षमता है."

संकट के वक्त सरकारों की प्रतिक्रिया

दुनिया भर में सरकारों की इस बात पर आलोचना हो रही है कि संक्रमण को रोकने के लिए देर से क़दम उठाए गए.
इस पर प्रोफ़ेसर हैंकी कहते हैं, "कोरोना वायरस की महामारी शुरू होने के साथ ही दुनिया दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े संकट से जंग लड़ने में जुट गई है. कोई भी संकट चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो, उनमें हमेशा यही मांग होती है कि सरकारें इनसे निबटने के लिए कोशिशें करें."
"इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि क्या सरकार की नीतियों या क़दमों के चलते कोई संकट पैदा हुआ है, या फिर सरकार किसी संकट के दौरान हुए नुक़सानों को रोकने और इस संकट को टालने में नाकाम साबित हुई है."
वो कहते हैं, "दोनों ही मामलों में प्रतिक्रिया एक ही होती है. हमें सरकार के स्कोप और स्केल को बढ़ाने की ज़रूरत होती है. इसके कई रूप हो सकते हैं, लेकिन इन सभी का नतीजा समाज और अर्थव्यवस्था पर सरकार की ताक़त के ज़्यादा इस्तेमाल के तौर पर दिखाई देता है. सत्ता पर यह पकड़ संकट के गुज़र जाने के बाद भी लंबे वक़्त तक जारी रहती है."
प्रोफ़ेसर स्टीव हैंकी के मुताबिक़ पहले विश्व युद्ध के बाद आए हर संकट में हमने देखा है कि कैसे हमारे जीवन में राजनीतिकरण का ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है. इनमें हर तरह के सवालों को राजनीतिक सवाल में तब्दील करने का रुझान होता है. सभी मसले राजनीतिक मसले माने जाते हैं. सभी वैल्यूज़ राजनीतिक वैल्यूज़ माने जाते हैं और सभी फ़ैसले राजनीतिक फ़ैसले होते हैं.
उन्होंने कहा कि नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके इकनॉमिस्ट फ्रेडरिक हायेक नई विश्व व्यवस्था के साथ आने वाली लंबे वक़्त की समस्याओं की ओर इशारा करते हैं. हायेक के मुताबिक़ आकस्मिक स्थितियां हमेशा से व्यक्तिगत आज़ादी को सुनिश्चित करने वाले उपायों को कमज़ोर करने की वजह रही हैं.






राष्ट्रपति ट्रंप की नाकामी

अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप के बारे में भी कहा जा रहा है कि उन्हें संक्रमण से जूझने के लिए फ़रवरी से ही क़दम उठाने चाहिए थे, इस पर स्टीव हैंकी ने कहा, "किसी भी संकट में वक़्त आपका दुश्मन होता है. अधिकतम प्रभावी होने के लिए हमें तेज़ी से, बोल्ड और स्पष्ट फ़ैसले लेने होते हैं."
"राष्ट्रपति ट्रंप ऐसा करने में नाकाम रहे हैं. लेकिन, वह ऐसे अकेले राजनेता नहीं हैं. कई सरकारें तो और ज़्यादा सुस्ती का शिकार रही हैं. इसकी एक वजह यह है कि चीन ने लंबे समय तक पूरी दुनिया से यह छिपाए रखा कि वुहान में क्या हो रहा है. डब्ल्यूएचओ ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पापों पर पर्दा डाले रखा. यहां तक कि अभी भी चीन अपनी टेस्टिंग के डेटा साझा नहीं कर रहा है."
कोरोना वायरस                                                  इमेज कॉपीरइटNOELEILLIEN

डब्ल्यूएचओ की लचर भूमिका

अमरीकी राष्ट्रपति की तरफ़ से डब्ल्यूएचओ की आलोचना पर उन्होंने कहा कि अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कोरोना वायरस के फैलने के लिए डब्ल्यूएचओ को पूरी तरह से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया है. उनकी पोज़िशन यह है कि डब्ल्यूएचओ ने इस महामारी को ग़लत तरीक़े से हैंडल किया है.
ट्रंप के मुताबिक़, डब्ल्यूएचओ ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के माउथपीस के तौर पर काम किया है.
प्रोफ़ेसर हैंकी कहते हैं, ''यह स्पष्ट है कि डब्ल्यूएचओ के चीफ़ डॉ. टेड्रोस और डब्ल्यूएचओ अपने तय पब्लिक हेल्थ मिशन के उलट चीन में कम्युनिस्टों को ख़ुश करने में लगे हैं. डब्ल्यूएचओ बाक़ियों की तरह से ही राजनीति का शिकार है. डब्ल्यूएचओ को काफ़ी पहले ही म्यूज़ियम में सजा देना चाहिए था.''

5 पी का सबक़

प्रोफ़सर स्टीव हैंकी के अनुसार, "किसी भी संकट के वक़्त पहले से की गई तैयारी बाद में राहत का सबब बनती है, लेकिन ऐसा देखा गया है कि सरकारें ऐसे संकटों का इस्तेमाल सत्ता पर अपनी पकड़ को मज़बूत करने में करती हैं. मेरी सलाह राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की काउंसिल ऑफ़ इकनॉमिक एडवाइज़र्स (आर्थिक सलाहकार परिषद) में दी गई अपने सेवाओं से मिले सबक़ पर आधारित हैं. उस वक़्त जिम बेकर व्हाइट हाउस के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ थे."
उन्होंने आगे बताया- बेकर ने 5 पी पर जोर दिया. ये थे- प्रायर प्रिपेरेशन प्रीवेंट्स पुअर परफ़ॉर्मेंस. इसका मतलब है कि पहले से की गई तैयारी आपको बाद की दिक़्क़तों से बचाती है. चाहे कारोबार हो या सरकार हो, इन 5 पी से एक अनिश्चितता और उथल-पुथल भरी दुनिया में ख़ुद को ज़िंदा रखा जा सकता है.
सटीक तौर पर कहा जाए तो हमें ऐसे संस्थान तैयार करने चाहिए जो टिकाऊ हों और जिनमें खपा लेने की ताक़त हो. इससे हमें अनिश्चितता और संकट के वक़्त पर संभावित गिरावट और नकारात्मक दुष्परिणामों से निबटने में मदद मिलती है. ये संस्थान इसलिए भी तैयार किए जाने चाहिए ताकि ये अनिश्चताओं और संकटों को भांप सकें और उन पर तभी प्रभावी क़दम उठाए जा सकें.
भारत में लॉकडाउन                                                  इमेज कॉपीरइटGetty Images

सिंगापुर ने ख़ुद को कैसे बदला?

सिंगापुर में संक्रमण के दोबारा फैलने का ख़तरा फिर से बन गया है लेकिन अब तक इसका रिकॉर्ड सराहनीय रहा है.
प्रोफ़ेसर स्टीव हैंकी का कहना था, "मेरे दिमाग़ में फ़िलहाल सिंगापुर का उदाहरण आता है. 1965 में अपने गठन के समय सिंगापुर एक बेसहारा और मलेरिया से बुरी तरह प्रभावित मुल्क था. लेकिन, तब से इसने ख़ुद को दुनिया के और एक फाइनेंशियल सुपरपावर के तौर पर तब्दील करने में सफलता हासिल की."
उन्होंने आगे कहा, "इसका क्रेडिट ली कुआन यू की छोटी सी सरकार को जाता है जिन्होंने मुक्त बाज़ार के अपने विज़न और 5 पी को अपनाकर इसे अंजाम दिया. आज सिंगापुर दुनिया के टॉप मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में से है. यहां एक छोटी, भ्रष्टाचार मुक्त और प्रभावी सरकार है. इसी वजह से इस बात में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि क्यों आज सिंगापुर कोरोना वायरस से ज़्यादातर देशों के मुक़ाबले कहीं बेहतर तरीक़े से निबटने में सफल रहा है."

टेस्टिंग का दायरा बढ़ाना ही उपाय

कोरोना के लिए टेस्टिंग की संख्या बढ़ाने पर हर मुल्क पर ज़ोर दिया जा रहा है.
प्रोफ़सर हैंकी कहते हैं, ''जो देश अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं वे वही देश हैं जो 5 पी का पालन करते हैं. ये दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, हांगकांग, स्वीडन और जर्मनी जैसे मज़बूत, मुक्त-बाज़ार वाली इकनॉमीज़ हैं. इन देशों को आज कम दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है.
इन देशों ने कोरोना से निबटने के लिए जल्दी उपाय करने शुरू कर दिए थे. इन देशों ने तेज़ी से टेस्टिंग का दायरा बढ़ाया. अब जर्मनी की इकनॉमी खुलना शुरू हो गई है.
स्वीडन का उदाहरण भी दिया जा सकता है. स्वीडन ने कभी भी कड़े उपायों का सहारा नहीं लिया. इसकी बजाय स्वीडन में स्कूल और ज़्यादातर इंडस्ट्रीज खुली ही रहीं.
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बीबीसी न्यूज़ मेकर्स

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आजकल श्री अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल के कराये गए कामों को भाजपा की सरकार नाम बदलकर फिर से उद्घाटन करा रही है जिससे अखिलेश यादव जी बहुत चिंतित हैं।
यह तो लखनऊ का हाल है जनाब !
आइए गाजियाबाद जहां आपकी सरकार के/में शुरू कराए गए कार्यों को जो आपके वक़्त में पूरे होने और आपसे उद्घाटित होने थे जिन्हें इस काम को अंजाम देना था और जिन्होंने शुरू किया था जरा याद करिए आपकी तुगलकी नीतियों ने उस अफसर को स्थानांतरित करके मुख्यमंत्री और सरकारी अभिमान ने आनेवाली सरकार को परोश दिया था।
आपको ही नहीं देश के लोगों को पता था आपके काबिल अफसर के देखरेख में यह सब हो रहा था । लेकिन आपके अहंकार ने ऐसा होने दिया ? क्योंकि आपके टुच्चे चमचों और निकम्मी नौकरशाही ने पानी फेर दिया था उस पूरी योजना पर।
मान्यवर ऐसे ही बहुत सारी बातें हैं जिन्हें आपके काबिल नेतृत्व में होने की उम्मीद थी लेकिन मैं बहुत स्पष्ट रूप से यह कह सकता हूं आपके चारों तरफ जिस तरह के चमचों की फौज घेरे हुए है उससे बहुत सारी बातें रुक जाती जिन्हें आप तक पहुंचना चाहिए । "निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय" ! आपके राज्य में यही चूक हुई थी क्योंकि आपके करीब निंदक नहीं थी बल्कि आपके दुश्मन थे केइयों को तो मैं स्वयं जानता हूं। हो सकता है आपको ना लगता हो लेकिन जो इस पूरे मूवमेंट में संघर्ष किए हैं वे जानते हैं कि समाजवादी और पूंजीवादी रास्ते क्या है और राजनीतिक विमर्श क्या है क्या आपको पता है आज प्रदेश से राजनीतिक विमर्श गायब हो गया है। और पूरे देश में जिस विमर्श की आपसे संभावना थी वह आपने शुरू ही नहीं की। नहीं तो एक म ठ के पुजारी और हजारों व्यापारियों की जो फौज आप के इर्द गिर्द थी उसी में से निकले देश की राजनीति पर काबिज लोगों से परास्त होने का कोई मतलब नहीं था।
याद करिए उस कहानी को जो भले ही एक शहर की हो पर उस शहर के इतिहास में दर्ज होने से आपने स्वयं को रोक लिया था। मेट्रो एलिवेटेड रोड सिटी फारेस्ट और भी बहुत कुछ.......
बातें बहुत हैं सार्वजनिक प्लेटफार्म पर उन्हें लिखा जाना उचित भी नहीं है लेकिन शुरुआत तो करनी होगी कहीं से भी यदि कोई आपका शुभचिंतक इसे पढ़ें और आपको पढ़ाई तो मुझे खुशी होगी क्योंकि आपके उत्कर्ष से हम सबों को प्रसन्नता होती है लेकिन जो आपका अपकर्ष चाहते हैं आप उनसे खुश रहते हैं मैं स्वयं तमाम ऐसे लोगों को जानता हूं जो आपकी ईद गिर्द रहकर पूरे सिस्टम का लाभ लेते हैं और पीछे से आपके विनाश की कामना करते हैं।
डॉ लाल रत्नाकर
(ताकि सनद रहे.....)

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प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...