रविवार, 6 अक्तूबर 2019

गांव

हमारे जीवन में गावों की दुनिया एक अलग ही दुनिया हुआ करती थी लेकिन आज की दुनिया गावों में भी जहर घोल दी है। सरकारी प्रयास ऐसे लगते थे जैसे गावों के विकास के लिए कार्य कर रहे हों, पर उसके भीतर किस तरह का खेल चल रहा होता था उसका कभी भी अंदाज़ा समझ में नहीं आया। हम बड़े होते गए विकास अपनी तरह से आगे बढ़ता गया और राजीव जी की सरकार ने यह फैसला लिया जिससे पैसा सीधे गांव प्रधान के पास आये यह था तो बहुत अच्छा फैसला पर प्रधान बेईमान नहीं होगा इसका क्या भरोषा।  

अब सवाल यह था की जब पंचायती राज की अवधारणा पर काम होना शुरू हुआ तब - 


















शनिवार, 21 सितंबर 2019

बहुजन राजनीति के काले दिन

आलेख एवं चित्र : डॉ.लाल रत्नाकर 

सवाल यह नहीं है कि आज की राजनीति में क्या हो रहा है , सवाल यह है कि आज की राजनीति में वे क्या कर रहे हैं जिन्हें अवाम अपने सर पर बैठायी हुई है। यानि वह जो राज्यों की राजनीति में बहुजन समाज की राजनीतिक विरासत हो संभालने का दावा करते हैं।
2019 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में एक गठबंधन बना था उस गठबंधन से जनता को बहुत उम्मीदें थीं लेकिन वह उम्मीदें चुनाव होते ही चकनाचूर हो गई, इसके लिए कोई और नहीं वही लोग दोषी थे जिन्होंने यह गठबंधन बनाया था। जनता को लगा कि यह क्या हो गया लेकिन जो राजनीति के जानकार (पंडित) हैं उन्हें यह पता था कि इसका यही हश्र होना है जो हुआ।
इस बीच लगातार कई घटनाएं घटी उन घटनाओं में जो सबसे महत्वपूर्ण हो रहा है कि उत्तर प्रदेश के गठबंधन के दलों ने निरंतर ऐसे काम जारी रखे हैं जिससे देश और प्रदेश की मौजूदा सत्ता हमेशा फायदे में रहे । समाजवादी पार्टी के तमाम सांसद बीजेपी में शरीक हो गए और यह क्रम निरंतर जारी है आए दिन खबरें मिलती रहती हैं की फला फलां एमएलसी और तमाम ऐसे लोग जो समाजवादी सरकार के समय बड़े दुलारे और प्यारे थे जिनकी वजह से तत्कालीन मुख्यमंत्री ने न जाने कितने पुराने समाजवादियों को किनारे लगा दिया आज वे वर्तमान सरकार की तरफ खिंचे चले जा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश से बाहर भी बसपा के बहुत सारे जनप्रतिनिधि कांग्रेस के सदस्य हो गए हैं यही नहीं राजस्थान में तो पूरे के पूरे 6 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं जो बीएसपी के टिकट पर चुनाव जीते थे । अब बीएसपी के टिकट लेने देने का क्या तरीका है ? उस पर ना जाते हुए बीएसपी की राजनीति पर बात करना जरूरी है।
मान्यवर कांशी राम ने जो सपना देखा था उस सपने को देश की बहुजन आवाम भी बहुत ही संजीदगी से देख रही थी ? लेकिन जब मान्यवर कांशी राम जी कैद हुए और उनको लंबे समय तक इलाज के नाम पर अस्पताल में बंदी की तरह कुछ खास सुरक्षा में रखा गया क्योंकि यह जगजाहिर है कि उनके परिवार के लोग भी उनसे अस्पताल में नहीं मिलने पाते थे जिसके लिए उन्हें न्यायालय भी जाना पड़ा। उन्हीं दिनों बहुजन की जातियों के अलग-अलग संगठन खड़े होने लगे जो कभी विपक्ष की ताकत हुआ करते थे ।
अब क्या था जो बहुजन समाज का विरोधी था वह निरंतर इस पर नजर बनाए हुआ था कि वह किन किन जातियों को आपस में लड़ा सकता है । लेकिन इस बात की चिंता उन लोगों को नहीं थी जिन्हें कांशी राम की विरासत या समाजवादी धारा में बहुजन के हित की राजनीति करनी थी। यही कारण है कि मान्यवर कांशी राम के उपरांत बहुजन समाज पार्टी में ऐसे ऐसे लोग शरीक हुए जो मौजूदा बहुजन समाज पार्टी की नेत्री मायावती जी को बहुजन विनाश की सलाह देते रहे । ऐसा नहीं है कि कु मायावती जी इन बातों को नहीं समझती होगी।
लेकिन लंबे समय तक उनके जो कार्य रहे वह बहुजन विनाश के ज्यादा रहे और उसके उत्थान की बजाए निजी उत्थान व अपार धन संग्रह का उन पर निरंतर आरोप लगता रहता है। लोगों का यह भी मानना है कि उन्हें अपार संपदा का लोभ है और यही कारण है कि बहन मायावती की राजनीत आज अपने को सुरक्षित रखने की राजनीति हो गई है। जिसमें लोगों का मानना है कि अपने और अपने परिवार के बड़े घोटालों को बचाने के लिए वह केंद्र के इशारे पर नाच रही हैं।
जिस संगठन को मान्यवर कांशी राम ने ऐसा रूप दिया था जिससे भविष्य में देश की बागडोर बहुजन समाज के किसी व्यक्ति को संभालने की उम्मीद की जा सकती थी? विडंबना देखिए कि मान्यवर कांशी राम जी के सपनों के विपरीत काम करके उस उद्देश्य के लिए जिसकी उनकी परिकल्पना थी। उसके लिए बहन मायावती जी ने 2019 के चुनाव के पहले ही अपनी तैयारी कर ली थी कि वह देश की प्रधानमंत्री बनेगी ।
लेकिन मौजूदा सरकार ने इनकी इस चाल को समझा और बहुत अच्छी तरह से इन्हें बता दिया कि अब यह दौर उस तरह का दौर नहीं है जिसमें लोकतंत्र की ताकत मजबूत हो।
अंततः मौजूदा सरकार पिछले बहुमत से ज्यादा बहुमत से केंद्र में काबिज हुई और जो बहन जी ईवीएम के खिलाफ कोर्ट जाने की बात करती थी वह चुपचाप समाजवादी पार्टी के साथ अपने गठबंधन को समाप्त कर ली और यह कहते हुए की समाजवादी पार्टी के मतदाताओं ने उनके प्रत्याशियों को वोट नहीं किया। उत्तर प्रदेश के गठबंधन से अपना नाता तोड़ लिया और जिन उपचुनाव में वह अपने प्रत्याशी नहीं उतारती थी भाजपा के इशारे पर वहां भी अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी।
मेरा मानना इससे बहुत अलग है कि उनका यह कहना उस समय जब चुनाव हो चुके हैं तो कितना गलत है। यह वह दौर था जब इस बात को बुलंद करना चाहिए था कि मौजूदा सत्ता ने सत्ता का दुरुपयोग किया है और अनेकों तरह के षड्यंत्र करके हमारे वोटरों का अधिकार छीन लिया है । जो असंवैधानिक है क्योंकि उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह लगता ही नहीं था कि भाजपा को 2/4 सीटें भी मिलेंगी । लेकिन जितनी सीटें भाजपा को आई वह कहीं से भी तार्किक नहीं थी।
इन सब परिणामों के बाद बहन जी ने जो कदम उठाया उससे कम से कम उत्तर प्रदेश की जनता को बहुत बड़ा धक्का लगा और यह धक्का बहुजन समाज के उस वर्ग को ज्यादा लगा जो बहन जी का समर्थक था लेकिन भारतीय राजनीति में जिस तरह का चलन है उसके चलते एक वर्ग विशेष का मतदाता संभव है उनके साथ खड़ा हो लेकिन वैचारिक रूप से उसे भी बहुत धक्का लगा है।
ऐसे समय में निश्चित तौर पर उस वैचारिक वर्ग को अखिलेश यादव से अपेक्षाएं जगी थी कि वह प्रदेश की राजनीति में इस गठबंधन के परिणाम स्वरूप जो कुर्बानी देकर के अपनी इमेज खड़ी किए हैं उसका लाभ लेने के लिए वह आगे आएंगे लेकिन एक ठगे हुए योद्धा की तरह विमर्श की बजाए वे अज्ञातवास में जाकर के पूरी उर्जा को, जो बहुजन समाज में उभरी थी उसको ठंडा करने का काम किया है। बीच में उनके कई बयान आए जिनमें मौजूदा सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट करने का कोई भी कार्यक्रम नहीं था।
इस बीच उनके कार्यकर्ताओं को निरंतर उत्पीड़ित और प्रताड़ित किया जाता रहा लेकिन किन कारणों से वह अपने कार्यकर्ताओं के साथ भी खड़े नजर नहीं आए जिनके साथ इस तरह के अत्याचार हो रहे थे इसी क्रम में प्रदेश के कद्दावर नेता जो लंबे समय से उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक समाजवादी चेहरे के रूप में अपनी पहचान रखते हैं इस बार रामपुर से सांसद होकर जब संसद में अपना बयान दिए जिसे यहां सुना जा सकता है:
https://youtu.be/w9g8L3GzgWo
से सत्ताधारी दल के कान खड़े हो गए और उसने उनको संस्थानिक और प्रशासनिक तौर पर परेशान करने का हर हथकंडा अख्तियार किया है और संभव है कि आने वाले दिनों में उन्हें कैद भी करने का काम भी किया जाएगा।

माननीय मुलायम सिंह यादव जी आजम खान के समर्थन में खड़े नजर आते हैं लेकिन आज के दौर में उनकी कौन सुन रहा है।
क्योंकि वर्तमान संसद में ऐसे लोग जो मौजूदा सत्ता की आलोचना कर सकें या करेंगे । ऐसे लोगों को हर तरह से संसद में न पहुंचने का पूरा इंतजाम किया गया प्रतीत होता है।

यही कारण है कि बहुत सारे ऐसे लोग जो राजनीति में तो हैं लेकिन उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है केवल राजनीतिक को शोभा की वस्तु समझते हैं। और उसके लिए किसी भी सीमा तक जाकर वे अपनी उपस्थिति बनाए रखना चाहते हैं । ऐसे लोगों से वर्तमान सत्ता को कोई भय नहीं है। भय उससे है जो उनके खिलाफ खड़े होकर उनकी नीतियों की समीक्षा कर सके।
इसका जिक्र यहां इसलिए जरूरी है कि उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है जहां से सबसे ज्यादा संसद सदस्य चुन करके देश की संसद में जाते हैं ऐसे में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी बनती है कि उससे ऐसी राजनीति की जाए जिसमें संविधान की रक्षा हो साथ ही रच्छा करने का मनोबल भी हो और धर्मनिरपेक्षता एवं सामाजिक न्याय पर काम करने की इच्छा शक्ति हो।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी से अपेक्षा की जाती है कि वह मौजूदा दौर में अपनी भूमिका को बहुत ही पारदर्शी रखते हुए अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल तो करे ही साथ ही साथ बहुजनबाद के समर्थकों का जमावड़ा कर सके।

देश और प्रदेश की भावी राजनीति में यदि राजनीतिक सजगता के लोग नए सिरे से सक्रिय नहीं होंगे तो प्रदेश की दोनों प्रमुख विरोधी पार्टियां जिस तरह से भयभीत हैं उससे आम आदमी की राजनीतिक समझ मात्र हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की जुमलों में उलझ करके रह जाएगी।
जिससे संविधान विरोधी शक्तियों से लड़ा जा सके लेकिन जब ऐसे दलों की मुखिया सामंतों जैसा व्यवहार करेंगे तो स्वाभाविक है कि उनके साथ खड़े होने वाले लोग दरबारी या चाटुकार होंगे कोई भी सम्मान चाहने वाला व्यक्ति उनके करीब नहीं जाएगा ऐसा मेरा मानना है।

हां सचमुच बहुजन समाज को साथ लेकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का माद्दा दिखाने पर निश्चित तौर पर जनता उसके साथ खड़ी होगी जिसमें यह मुद्दा शामिल होगा और उसके लिए संघर्ष करने की इच्छा शक्ति होगी ।

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

बी पी मंडल का राजनैतिक और सामजिक स्वरुप।


बी पी मंडल का राजनैतिक और सामजिक स्वरुप।
बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (1918-1982) एक भारतीय सांसद थे, जिन्होंने द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग (जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है) के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। बी.पी. मंडल उत्तरी बिहार के मधेई से एक अमीर ज़मींदार यदव (मकान मालिक) परिवार [1] [2] से आया था। [३] [४] आयोग की रिपोर्ट ने भारतीय आबादी के एक हिस्से को "अन्य पिछड़ा वर्ग" (ओबीसी) के रूप में जाना जाता है और भारतीय राजनीति में दलित और वंचित समूहों के लिए नीति पर तीखी बहस शुरू की।
अंतर्वस्तु
1 जीवनी
2 यह भी देखें
3 सन्दर्भ
4 बाहरी लिंक
जीवनी
बी। पी। मंडल या बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल बिहार में हिंदू यादव समुदाय से आते थे। [५]
यद्यपि जमींदारी और स्वतंत्रता आंदोलन में एक इतिहास वाले परिवार में पैदा हुए, मंडल परिवार को अक्सर समाज में विभिन्न प्रकार के भेदभावों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि वे "यादव" जाति के थे जिन्हें ऐतिहासिक रूप से हिंदू-पदानुक्रम में उच्च दर्जा प्राप्त माना जाता था। । [6]
मंडल 1967 से 1970 और 1977 से 1979 तक बिहार राज्य के लिए लोकसभा में सांसद रहे।
वह 1968 में 30 दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री थे, [7] गहन राजनीतिक अस्थिरता की अवधि (उनके पूर्ववर्ती सतीश प्रसाद सिंह ओबीसी से पहले मुख्यमंत्री थे लेकिन केवल तीन दिनों के लिए)।
उनके कार्य कार्यकाल में उनके प्रमुख योगदान को पूरे देश के लिए एक बड़ा झटका लगा जब दिसंबर 1978 में, प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने मंडल की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय नागरिक अधिकार आयोग नियुक्त किया। आयोग की रिपोर्ट को 1980 में पूरा किया गया था और सिफारिश की गई थी कि सभी सरकारी और शैक्षिक स्थानों का एक महत्वपूर्ण अनुपात अन्य पिछड़ा वर्ग के आवेदकों के लिए आरक्षित किया जाएगा क्योंकि ये सामाजिक रूप से वंचित समुदाय थे जिन्हें ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत माना गया था और नौकरी के अवसरों से भी वंचित रखा गया था। सार्वजनिक संस्थानों में उचित शिक्षा जो उस समय उच्च-जाति प्रधान थी।
आयोग की रिपोर्ट को प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा अनिश्चित काल तक चलाया गया था। एक दशक बाद, प्रधान मंत्री वी। पी। सिंह ने मंडल रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू किया और भारत में जाति-आरक्षण प्रणाली के रूप में जाना जाता है।
मंडल आयोग को कई उच्च-जाति समुदायों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त नहीं किया गया था, जो विशेष रूप से उच्च-जातियों के छात्रों द्वारा राष्ट्रव्यापी विरोध और हंगामे के कारण थे जिन्होंने अपने शैक्षिक अवसरों को खतरे में देखा था, जबकि इन समुदायों के कई लोग अभी भी जारी हैं नीतियों को अनावश्यक और पक्षपाती मानते हैं।
बी। पी। मंडल का निधन 13 अप्रैल 1982 को हुआ था। बी। पी। मंडल और उनकी पत्नी, सीता मंडल, पांच बेटे और दो बेटियों से बचे थे। मणिंद्र कुमार मंडल, उनका तीसरा बेटा मधेपुरा के मिथिला क्षेत्र में सत्तारूढ़ पार्टी जेडी-यू से राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल था, जो मंडल के अलावा मुरहो एस्टेट का गृहनगर होता है, जो रास बिहारी मंडल द्वारा शासित उनकी पैतृक ज़मीरी संपत्ति थी बिहार से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक।
वर्तमान में, बी। पी। मंडल के पोते और एम। के। मंडल के पुत्र, निखिल मंडल, उसी पार्टी के वर्तमान प्रवक्ता हैं।
मणींद्र कुमार मांडलथिर तीसरे बेटे और निखिलफ
बीपी मंडल और निखिल मंडल (सत्तारूढ़ पार्टी जेडी-यू के वर्तमान प्रवक्ता), एमके मंडल के परिवार की लाइन से उनके भव्य-पुत्र, मधेपुरा के मिथिला क्षेत्र में राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय हैं जो गृहनगर और चुनावी प्रांत था। बीपी मंडल की। ​​[उद्धरण वांछित]
भारत सरकार ने 2001 में बी। पी। मंडल के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। उनके सम्मान में बी। पी। मंडल इंजीनियरिंग कॉलेज के नाम से एक कॉलेज की स्थापना 2007 में हुई।
उनके सम्मान में एक कॉलेज का नाम,
बी। पी। मंडल इंजीनियरिंग कॉलेज, 2007 में स्थापित किया गया था। हर साल उनके जन्म और पुण्यतिथि उनके गृहनगर, साथ ही बिहार के कुछ अन्य शहरों के अलावा यूपी के अलीगढ़ सहित कुछ स्थानों पर मनाई जाती है।
राज्य में उनकी स्मृति में विभिन्न प्रतिमाएं और स्मारक बनाए गए और पटना के गवर्नर हाउस के सामने सबसे शानदार में से एक है। हर साल उनकी जयंती को औपचारिक समारोह में मुख्यमंत्री और राज्य के अन्य कैबिनेट सदस्यों के अलावा मंडल परिवार और यादवों के साथ-साथ पटना और मधेपुरा, सासाराम और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है, जिसमें अलवर जिला भी शामिल है।
राजधानी शहर में उनके गृहनगर में, यूपी राज्य में अलीगढ़ सहित अन्य स्थानों पर और बिहार के पूरे राज्य में उनकी क्रांतिकारी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए बनाई गई कई मूर्तियों और स्मारकों सहित अन्य स्थानों पर। मधेपुरा, सासाराम और बिहार की राजधानी पटना में, गवर्नर हाउस के सामने पटना।
भारत में मंडल आयोग सन १९७९ में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार द्वारा स्तापित किया गया था। इस आयोग का कार्य क्षेत्र सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान कराना था। श्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल इसके अध्यक्ष थे।मंडल कमीशन रिपोर्ट ने विभिन्न धर्मो (मुसलमान भी) और पंथो के 3743 जातियाँ (देश के 54% जनसँख्या) को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडो के आधार पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा (संविधान में आर्थिक पिछड़ा नहीं लिखा है और कमीशन आर्थिक बराबरी के लिए भी नहीं था) घोषित करते हुए 27% (क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 50% अधिकतम का फैसला दिया था और पहले से SC/ST के लिए 22.5 % था), की रिपोर्ट दी। 
  1. जाति के आधार पर कोटा आवंटन नस्लीय भेदभाव का एक रूप है और समानता का अधिकार के विपरीत है। हालांकि जाति और दौड़ के बीच सटीक रिश्ता दूर से अच्छी तरह से स्थापित है
  2. Legislating सभी सरकारी शिक्षा संस्थानों में, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों शुरू होगा के लिए आरक्षण प्रदान करने का एक परिणाम के रूप में [11] जो धर्मनिरपेक्षता के विचारों के विपरीत है और विरोधी धर्म के आधार पर भेदभाव का एक रूप है
हालांकि रिपोर्ट 1 9 80 में पूरी हो चुकी थी, विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने 13अगस्त 1990 को बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के रेपोर्ट को लागू करने के अपने इरादे की घोषणा की, जिससे व्यापक छात्र विरोध हुए। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा अस्थायी प्रवास आदेश प्रदान किया गया, 16 नवम्बर 1 99 2 को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण 1लाख रुपए की वार्षिक आय की आर्थिक सीमा के भीतर लागू किया जो 2015में बढकर 8लाख रुपए प्रति वर्ष की आय सीमा हो गया है । इसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने 2006 में उच्च शिक्षा में भी पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए सीट आरक्षित की है ।
मुख्य सिफ़ारिशें
1. अनुसूचित जाति और जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में 22.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. इसके मद्देनजर अन्य पिछड़ा वर्गों को भी सभी सरकारी नौकरियों, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण दिया जाए.
2. समाज की मुख्य धारा से पीछे छूट गई आबादी के सांस्कृतिक उन्नयन के लिए पिछड़े वर्गों की सघन आबादी वाले इलाकों में शिक्षा की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए. इसमें व्यावसायिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए. तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों में आरक्षण कोटे से आए छात्रों के लिए कोचिंग की विशेष व्यवस्था की जाए.
3.ग्रामीण कामगारों के कौशल को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजना चला कर उन्हें रियायती दरों पर ऋण मुहैया करना ज़रूरी है. औद्योगिक और व्यावसायिक कारोबार में पिछड़े वर्गों की भागीदारी बढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वित्तीय और तनकीनी संस्थानों का नेटवर्क विकसित किया जाए.
4. आयोग ने कहा कि समाज का पिछड़ा तबका गुजर बसर करने के लिए धनी किसानों के ऊपर निर्भर है क्योंकि इस वर्ग के पास खेती के लिए बड़े भूखंड नहीं है. इसलिए देश भर में क्राँतिकारी भूमि सुधार लागू करने की ज़रूरत है.
5. पिछड़े वर्गों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम चलाने के वास्ते राज्यों को केंद्रीय सहायता की ज़रूरत है.
मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों, वर्गों के निर्धारण के लिए सामाजिक,शैक्षिक और आर्थिक मानकों के आधार पर 11 सूचकांक तय किए थे.
सामाजिक स्थित
1. वैसी जाति या वर्ग जिन्हें अन्य जाति या वर्गों द्वारा सामाजिक रूप से पिछड़ा समझा जाता है.
2.वैसी जाति या वर्ग जो आजीविका के लिए मुख्य रूप से शारीरिक श्रम पर निर्भर है.
3. वैसी जातियाँ या तबका जिनमें 17 साल से कम आयु की महिलाओं का विवाह दर ग्रामीण इलाकों में राज्य औसत से 25 प्रतिशत और शहरी इलाकों में दस प्रतिशत अधिक है और इसी आयु वर्ग में पुरुषों का विवाह दर ग्रामीण इलाकों में दस प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में पाँच प्रतिशत ज्यादा है.
शैक्षिक आधार
1. वैसी जातियाँ या वर्ग जिनमें पाँच से 15 साल की आयु वर्ग में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या राज्य औसत से कम से कम 25 प्रतिशत अधिक हो.
2.इसी आयु वर्ग में जिन जातियों या वर्गों के बच्चों के स्कूल छोड़ने का प्रतिशत राज्य औसत से कम से कम 25 प्रतिशत है.
3.वैसी जातियाँ, वर्गों जिनमें मैट्रिक परीक्षा पास करने वाले छात्र-छात्राओं का प्रतिशत राज्य औसत से 25 प्रतिशत कम है.
आर्थिक आधार
1.वैसी जातियाँ, वर्गों जिनमें औसत पारिवारिक संपत्ति मूल्य राज्य औसत से 25 प्रतिशत कम है.
2. ऐसी जातियाँ, वर्ग जिनमें कच्चे घरों में रहने वालों की संख्या राज्य औसत से कम से कम 25 प्रतिशत कम है.
3. ऐसे इलाकों में रह रही जातियाँ, वर्ग जिनमें 50 फीसदी परिवारों को पेयजल के लिए आधा किलोमीटर से दूर जाना पड़ता है.
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मंडल आयोग, या सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग आयोग (SEBC), भारत में 1 जनवरी 1979 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई [1] के तहत जनता पार्टी सरकार द्वारा "सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान" करने के लिए एक जनादेश के साथ स्थापित किया गया था। भारत का। [२] इसकी अध्यक्षता स्वर्गीय बी.पी. मंडल ने एक भारतीय सांसद, जातिगत भेदभाव के निवारण के लिए लोगों के आरक्षण के प्रश्न पर विचार करने के लिए, और पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए ग्यारह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक संकेतकों का इस्तेमाल किया। 1980 में, इसके औचित्य के आधार पर कि ओबीसी ("अन्य पिछड़ा वर्ग") की पहचान जाति, आर्थिक और सामाजिक संकेतकों के आधार पर की गई, जिसमें भारत की जनसंख्या का 52% शामिल था, आयोग की रिपोर्ट ने सिफारिश की कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के सदस्यों को आरक्षण दिया जाए। केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के तहत नौकरियों का 27%, इस प्रकार एससी, एसटी और ओबीसी के लिए 49% आरक्षण की कुल संख्या। [3] [1]
हालांकि रिपोर्ट 1983 में पूरी हो गई थी, लेकिन वी.पी. सिंह सरकार ने अगस्त 1990 में इस रिपोर्ट को लागू करने के अपने इरादे की घोषणा की, जिससे व्यापक छात्र विरोध हुआ। [४] बड़े पैमाने पर भारतीय जनता को रिपोर्ट के महत्वपूर्ण विवरणों के बारे में सूचित नहीं किया गया था, अर्थात् यह केवल उन 5% नौकरियों पर लागू होता था जो सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद थीं, और इस रिपोर्ट के कारण भारत की 55% आबादी अन्य पिछड़े वर्गों से संबंधित थी उनकी खराब आर्थिक और सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लिए। [५] विपक्षी राजनीतिक दल, जिनमें कांग्रेस और भाजपा और उनके युवा विंग (जो सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सक्रिय थे) और स्व-हित के समूह युवाओं को राष्ट्र के परिसरों में बड़ी संख्या में विरोध करने के लिए उकसाने में सक्षम थे, जिसके परिणामस्वरूप छात्रों ने आत्मदाह किया । [6]
तत्पश्चात इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अस्थायी स्थगन आदेश प्रदान किया गया, लेकिन 1992 में केंद्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों में नौकरियों के लिए केंद्र सरकार में लागू किया गया। हालांकि अधिकांश राज्यों में, रिपोर्ट की सिफारिशों को 2019 के अनुसार लागू नहीं किया गया है। [the]
दिलचस्प बात यह है कि मंडल कमीशन से पहले भी, कुछ भारतीय राज्यों में पहले से ही आर्थिक रूप से कम आय वाले लोगों के लिए उच्च आरक्षण था, अर्थात ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग)। उदाहरण के लिए, 1980 में, कर्नाटक राज्य [8] ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (एससी, एसटी और ओबीसी सहित) के लिए 48% आरक्षित किया था, अन्य कमजोर वर्गों के लिए एक और 18% आरक्षित था।


अंतर्वस्तु
1 मंडल आयोग का गठन
2 आरक्षण नीति
2.1 और सामाजिक
2.2 शैक्षिक
2.3 आर्थिक
2.4 वजन संकेतक
3 अवलोकन और निष्कर्ष
4 अनुशंसाएँ
5 कार्यान्वयन
6 विरोध
7 आलोचनाओं
8 यह भी देखें
9 नोट्स
10 संदर्भ
11 बाहरी लिंक
मंडल आयोग का गठन
। [४] अनुच्छेद १५ (धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) के उद्देश्य से भारत में प्रत्येक १० वर्षों में पिछड़े वर्गों की स्थितियों की जाँच के लिए एक आयोग की नियुक्ति। पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की व्यापक-आधारित सदस्यता थी, दूसरा आयोग पक्षपातपूर्ण रेखाओं के आकार का लग रहा था, केवल पिछड़ी जातियों के सदस्यों से बना था। इसके पाँच सदस्यों में से चार ओबीसी के थे; शेष एक, एल.आर. नाइक, दलित समुदाय से थे, और आयोग में अनुसूचित जातियों के एकमात्र सदस्य थे। [९] यह लोकप्रिय रूप से मंडल आयोग के अध्यक्ष बी.पी. मंडल।
आरक्षण नीति
मंडल आयोग ने आवश्यक डेटा और सबूत इकट्ठा करने के लिए विभिन्न तरीकों और तकनीकों को अपनाया। "अन्य पिछड़ा वर्ग" के रूप में योग्य होने की पहचान करने के लिए, आयोग ने ग्यारह मानदंड अपनाए, जिन्हें तीन प्रमुख शीर्षकों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है: सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक। ओबीसी की पहचान करने के लिए 11 मानदंड विकसित किए गए थे। [10]
सामाजिक
अन्य लोगों द्वारा सामाजिक रूप से पिछड़े माने जाने वाले जाति / वर्ग,
जाति / वर्ग जो मुख्य रूप से अपनी आजीविका के लिए मैनुअल श्रम पर निर्भर करते हैं,
ऐसी जातियाँ / वर्ग जहाँ कम से कम २५ प्रतिशत महिलाएँ और राज्य औसत से १० प्रतिशत पुरुष १ at वर्ष से कम उम्र के ग्रामीण क्षेत्रों में विवाह करते हैं और शहरी क्षेत्रों में कम से कम १० प्रतिशत महिलाएँ और ५ प्रतिशत पुरुष ऐसा करते हैं।
ऐसी जातियाँ / वर्ग जहाँ काम में महिलाओं की भागीदारी राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत अधिक है।
[11] [12]
शिक्षात्मक
जाति / वर्ग जहां 5-15 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों की संख्या, जो कभी स्कूल नहीं गए थे, राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत ऊपर हैं।
5 से 15 वर्ष आयु वर्ग के छात्र-छात्राओं की दर राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत अधिक है।
जाति / वर्ग जिनके बीच मैट्रिक का अनुपात राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत कम है,
[11] [12]
आर्थिक
जाति / वर्ग जहां परिवार की संपत्ति का औसत मूल्य राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत कम है,
जाति / वर्ग, जहां राज्य में औसतन कम से कम 25 प्रतिशत परिवार हैं, जो कुल घरों से ऊपर हैं।
50 प्रतिशत से अधिक परिवारों के लिए जाति / वर्ग जहां पीने के पानी का स्रोत आधा किलोमीटर से अधिक है,
जाति / वर्ग जहाँ

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

विरॉगना फूलन देवी ।

(साभार : एस के यादव )
जालौन, उप्र के एक गांव गोरहा का पुरवा में एक फूल सी बच्ची ने जन्म (१० अगस्त १९६३ - २६ जुलाई २००१) लिया और माता - पिता ने उसे फूलन पुकारा,

खेपका (खेतिहर, पशुपालक, कारीगर/कामगार/मजदूर) जमात की केवट/मल्लाह जाति का परिवार और जाहिर है कि आर्थिक निर्बल, बच्ची बड़ी होने लगी और गांव के खाते पीते तथाकथित सवर्ण वर्ग के शोहदों को मासूम फूलन आसान शिकार लगने लगी, जैसा कि होता ही आया है गांव में घर से बाहर निकलते ही बच्ची से छेड़छाड़ और भद्दे शब्दों में अश्लील फब्तियां आम हो गयीं,

अब मंजर यह था कि हर दिन, कई कई बार उस बच्ची को ऐसी विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा करता और वो बस किसी तरह उन भेड़ियों से बचते बचाते घर वापस पहुंचती,
Add परम विरॉगना फूलन देवीcaption

समाज की इन ज्यादतियों से पीड़ित माता - पिता ने फूल सी बच्ची को मजबूर दिल से उससे तीन गुनी से भी अधिक उम्र के एक विधुर से ब्याह दिया और यहीं से फूल सी फूलन पर शारीरिक यातनाओं का पहाड़ टूट पड़ा, कुछ समय बाद वह पीड़ित-प्रताड़ित वापस माता पिता के पास लौट आयी,

इसके बाद हमारे समाज द्वारा उसके साथ की गयी तमाम नेक हरकतों पर न मैं तकरीर कर पाऊंगा न आप में से काफी जमाती साथी सुन पाएंगे, गांव में पुनः तमाम शारीरिक बलात और प्रताड़नाओं के बाद वो युवा हो चुकी बच्ची बागी बनी और अपने मान हनन का भरपूर बदला लिया, नाहक किसी को परेशान नहीं किया बल्कि कमजोरों की भरपूर मदद की,

फिर कालांतर में आत्मसमर्पण, जेल और रिहाई पर धरती पुत्र कहे जाने वाले नेताजी आदरणीय मुलायम सिंह यादव जी की समाजवादी पार्टी से सांसद बनीं, सन् २००१ में एक जातिवादी वहशी " * * * * राना " ने मुंह-बोला भाई बन दिल्ली में उनकी पीठ पर गोली मारकर हत्या कर दी,

ऐसी वीरांगना जिसने मान मर्दन करने वालों से हिसाब चुकता करने हेतु एक निर्धन कमजोर जमाती बच्ची फूलन को उन शोहदों के दिलों में खौफ पैदा कर देने वाली बागी फूलन देवी में तब्दील कर दिया था, उसके जज्बे को अनगिनत सलाम-जुहार हैं और ऐसी बेटी के जन्म पर जमात बधाई की पात्र,

काश ! हमारी हर जमाती बेटी भेड़ियों से खुद रक्षा करने का सबक वीरांगना फूलन जी से सीखती, हर जमाती बच्ची को आत्मरक्षा के लिए खुद को मजबूत करने हेतु मेरी तहेदिली शुभकामनाएं..

मंगलवार, 18 जून 2019

संसदीय मर्यादाओं का खुला ऊलंघन।

भारत के संविधान के अनुच्छेद-99 में संसद के नवनिर्वाचित सदस्यों के शपथग्रहण का उल्लेख है। अनुच्छेद कहता है: 'संसद के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले  राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा!'

हमारे संविधान का यह खास अनुच्छेद और तीसरी अनुसूची में दर्ज शपथ का प्रारूप बहुत महत्वपूर्ण और जरुरी संवैधानिक प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं!

आमतौर पर शपथग्रहण की यह औपचारिक संवैधानिक प्रक्रिया शांत, संजीदा और गरिमापूर्ण माहौल में पूरी होती रही है! शपथ लेने और रजिस्टर पर हस्ताक्षर के अलावा इस दरम्यान सदन में और कुछ भी नहीं होना चाहिए! लेकिन इस बार नवनिर्वाचित माननीय सदस्यों के शपथग्रहण के दोनों दिन सदन में खूब आवाज़ें, विवादास्पद नारेबाजी और टिप्पणियां हुईं!

हमारे लोकतंत्र के महान् स्वप्नदर्शियों और संविधान-निर्माताओं ने लोकसभा में ऐसी आवाजों, ऐसी नारेबाजियों, ऐसे माहौल की शायद ही कभी कल्पना की होगी! ये शुरुआती दो दिन संसदीय मर्यादा, लोकतांत्रिक-प्रौढ़ता और बौद्धिक-सहिष्णुता के हिसाब से बहुत सुखद और आशाप्रद नहीं रहे!

 35 साल के अपने पत्रकारिता जीवन में मैंने विधानमंडलों (बिहार, पंजाब, हरियाणा) और संसद की कार्यवाही को तकरीबन दो दशक कवर किया! शपथ ग्रहण के दौरान सदन के अंदर ऐसे नारे, ऐसी आवाज़ें और ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा(जैसा सोमवार और मंगलवार को टीवी चैनलों के लाइव-प्रसारण में देखा)! इसे क्या माना जाये?

(साभार : श्री उर्मिलेश जी की फ़ेसबुक पोस्ट से।)

सोमवार, 3 जून 2019

प्रधानमंत्री बनने के एक सपने का जन्म।

बहन जी के सपने का दरक जाना।
........….................
प्रधानमंत्री ?
- डॉ लाल रत्नाकर

2019 लोकसभा चुनाव के लिए हुए गठबंधन में मनोवांछित परिणाम न मिलने के कारणों का सही मूल्यांकन करने पर या सही मूल्यांकन किए जाने के डर से ऐसा कह करके अपने को अलग कर ली हैं।
जिससे आने वाले दिनों में यह न कहना पड़े कि इनके सम्मीलन का जादू फेल कैसे हो गया।

अब जो मूल बात है कि सपा बसपा के रिश्ते तो खराब हो ही रहे हैं । लेकिन ग्राउंड लेवल पर जो समझ बनी थी या बन रही थी वह कितनी बनी रहेगी। मूलतः चिंता इस बात की हो रही है।

क्योंकि यह गठबंधन केवल नेताओं का गठबंधन नहीं था यह दोनों समाज के बुद्धिजीवियों और मतदाताओं के दबाव का गठबंधन था। जिसको इन्होने राजनीतिक रूप से अंगीकृत किया था लेकिन मायावती जी इसका गलत विश्लेषण करेंगी यह उम्मीद नहीं थी ।

हालांकि हर व्यक्ति यही कह रहा था कि जैसे ही मायावती को कोई ऐसा अवसर मिलेगा तब वह इस बंधन को तोड़ देंगी। वही हुआ जो लोगों को आशंका थी और दूसरी तरफ भाजपा रोज कह रही थी कि यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन है जो 23 मई 2019 के बाद टूट जाएगा।

बहन मायावती ने अपनी कला दिखा दी है और यह साबित कर दिया है कि वह लंबे समय तक किसी के साथ रिश्ता नहीं रख सकती हैं। इसका निहितार्थ क्या है उसको तो वह स्वयं अच्छी तरह समझती होगी । लेकिन लोगों को जो कुछ समझ में आ रहा है । वह यही आ रहा है कि आगे जो लड़ाई लड़नी है । ऐसे लोगों से जैसे लोगों से कभी : ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार और साहू जी महाराज ललई सिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा एवं जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने लड़ी थी।

मैं तो अखिलेश यादव की आदूरदर्शिता पर हमेशा लिखता रहा हूं । लेकिन इस बार लगा था कि उन्होंने एक अच्छा काम किया है जिससे जमीन पर कुछ बड़ा काम हो पाएगा । लेकिन इस गठबंधन की आयु इतनी कम होगी इसका अंदाजा नहीं था, कुछ बड़े नेताओं की राय में यह गठबंधन अवसरवादी गठबंधन नजर आ रहा था। जिसमें अंतर यही साबित हुआ था कि सब कुछ गवा देंगे मगर गठबंधन नहीं तोड़ेंगे। परीक्षार्थी भी यही थे और परीक्षक भी यही थे।

कहते हैं जिंदा कौम में 5 वर्ष तक इंतजार नहीं करती लेकिन इन दो कौमों के नेताओं ने 5 साल के लिए अपनी आवाम को बंधक बना दिया। अपने स्वार्थ और अपनी गलत नीतियों से राजनीति करने वाले का दिल हमेशा बड़ा होना चाहिए । और अकेले यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह सब कुछ फतह कर लेगा। जबकि यहां पर यही हुआ है, इस सौदे में बहन जी की आमदनी ज्यादा भले ही हुई हो लेकिन दलितों की भावी राजनीति को जितना उन्होंने नुकसान किया है । उसका खामियाजा भी उन्हें ही भोगना पड़ेगा।

अखिलेश यादव को भी चाहिए कि कुछ ऐसे लोगों से विमर्श करें जिससे उनका भविष्य का मार्ग सशक्त हो सके अन्यथा बहन मायावती जी का जो है सन 2014 में हुआ था वह आगे भी होना है । और अखिलेश जी को कितने समझौते करने पड़ेंगे इसका अंदाजा भी उन्हें अभी नहीं है।

मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि उनकी पार्टी में कितने महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपने लोगों को ही गाली गलौज और अनेकों प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं । और यह बात खुलेआम जनता के बीच भी उन्हीं के जरिए जाती है । एक दूसरे को नीचा दिखाने के साथ साथ कीचड़ उछालना और आस्तीन में सांप पालना उनकी एक बहुत बड़ी भयावह फौज वहां खड़ी दिखाई दी । जो आपका कहां पर किस तरह से विनाश करेगी उसका आकलन मैंने पहली बार जौनपुर जनपद में कथित रूप से सपायियो और बसपाइयों में देखा।

निश्चित तौर पर बसपा की 10 सांसदों की बडी फौज इस लड़ाई को लड़ने में कामयाब होगी यह बात बहन जी को अच्छी तरह समझ में आ गई होगी। 2014 में शून्य पर रही बसपा सपा के कंधे पर बैठकर 10 सांसदों की फौज खड़ी कर ली है। अब कह रही है कि यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया। बहन जी को भले ही यह लगता हो की यादवों ने वोट ट्रांसफर नहीं किया है, हो सकता है कहीं न भी किया हो ? लेकिन जिन्होंने नोट ट्रांसफर किया है उन्हें पता होगा कि किसके वोट से वह लोग जीते हैं?

मेरे ख्याल से जनता ने बहुत ईमानदारी से गठबंधन के प्रत्याशियों के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है । जिसमें आर्थिक लुटेरों को छोड़ दिया जाए तो निश्चित तौर पर जमीन पर एक ऐसा मतदाता समूह बन रहा था जो आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर बहुजन समाज के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में सफल होता।

सबसे दुखद तो यह है कि बसपा अपने प्रत्याशी प्रतिनिधि को अपने लोगों का वोट बेचती है। खरीददार कोई भी हो सकता है जिसकी टेट में पूंजी हो? मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस पार्टी से कोई वैचारिक संघर्षशील व्यक्ति चुनाव कैसे लड़ सकता है ? मैंने पिछले चुनाव में देखा है कि जिस तरह से बसपा का कैडर प्रत्याशियों को चूसता है उससे तो यह नहीं दिखाई देता कि भविष्य में भी इस पार्टी का कोई कार्यकर्ता जो ईमानदार होगा संघर्षशील होगा और नैतिक होगा वह संसद में या विधानसभा में पहुंच पाएगा। क्या कांशी राम जी ने यही सपना देखा था और इसी तरह से बसपा की टिकट बेचने की योजना बनाई थी।

अब वक्त आ गया है जब यह विचार करना है कि बहुजन राजनीति का नायक कौन होगा और कौन उसको दूर तक ले चलने का साहस और नैतिक जिम्मेदारी महसूस करेगा उन्हीं लोगों के मध्य से नए नेतृत्व की तलाश करनी होगी जैसी कांशी राम जी ने महात्मा फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के बाद परिकल्पना की थी।

निश्चित तौर पर इस काम में बहन मायावती नाकाम हुई है और उन्होंने पूरी बहुजन वैचारिकी को व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में बदलकर के निजी लाभ के लिए पूरे समाज को अंधकार में धकेल रही है। यह काल बहुजन इतिहास का बहुत ही अंधकारमय काल होगा यह तो तय हो चुका है।

दूसरी तरफ अखिलेश यादव विशेष रूप से जितने कमजोर साबित हुए हैं । यह खामियाजा पूरे पिछड़े समाज को उठाना पड़ रहा है। यह वही पिछड़ा समाज है जो हमेशा अपनी उपस्थिति विपक्ष के रूप में दर्ज कराता रहा है। लेकिन इनकी राजनीति के चलते आज अधिकांश पिछड़े वर्ग का व्यक्ति उस दल की ओर चला गया है । जो दल उसके विनाश का काम करता है । इसकी जानकारी जब किसी से बात की जाती है। तो वह यही कहता है कि सैफई परिवार तो केवल अपने और अपने जाति के लिए सोचता है । उसके आगे उसका कोई विजन ही नहीं है। जबकि सच्चाई इससे भी आगे की यह है कि वह अपनी जात के लिए भी नहीं सोचता । और इस बार तो यह भी तय हो गया कि वह केवल अपने लिए सोचता है।

राजनीतिक निराशा का यह सबसे अंधकार का दौर है। अंधकार में पडा यह बहुजन समाज कैसे आगे बढ़ेगा इस पर विचार करना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। निश्चित तौर पर वह वर्ग इसके लिए सोचने को तैयार नहीं है । जिसके पास राजनीति का छोटा-मोटा उपहार पड़ा हुआ है। उसकी संघर्ष की क्षमता विरोधियों ने समाप्त कर दी है । चाहे वह शैक्षणिक,आर्थिक क्षेत्र हो चाहे प्रशासनिक क्षेत्र हो यह संघर्षशील समाज जिसको उसने गुंडे और मवाली के रूप में प्रचारित कर दिया है।

बहुजन नेताओं को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया है । और मुसलमानों को तो देश के प्रति संदेह के घेरे में डाल दिया है। कुल मिलाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दिया है जिससे बर्तमान सत्ता के खिलाफ बोलने वाला या तो देशद्रोही करार कर दिया जाए या उसे आधार्मिक बता दिया जाएगा।

इस गठबंधन से जो बहुत खतरनाक काम हुआ है। वह यह कि मायावती जी को देश का प्रधानमंत्री घोषित करके सवर्ण समाज को तो चौकन्ना और एकजुट करने का काम इन्होंने किया ही था। जिसमें अति दलितों और अति पिछड़े भी शरीक हो गए हैं। यह सब अज्ञानता भरा काम है । क्योंकि गठबंधन की कोई ऐसी तैयारी ही नहीं थी जिसमें बहन जी प्रधानमंत्री होने की लाइन में भी खड़ी हो पाती।

श्री अखिलेश जी को उत्तर प्रदेश में एक छत्र मुख्यमंत्री के रूप में बहुजन समाज स्वीकार कर लेगा । इस प्रत्याशा में उन्होंने भी बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने का बिना योजना के घोषणा करके वह सारा काम किया को कम दुश्मन करता है। यह सब तो ऐसे ही लग रहा था जैसे कोई संत महात्मा ने कह दिया हो कि आप लोग एक साथ आ जाओगे तो बहन जी प्रधानमंत्री और आप निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री बन जाओगे।

जबकि ऐसा है नहीं इसके लिए पार्टियों की और जनता की टीम के साथ साथ बुद्धिजीवियों बहुत जबरदस्त समर्थन चाहिए होता है।

रविवार, 2 जून 2019

सवाल तो बहुत हैं।

बहुत ही खेद के साथ कहना है कि जब यादवो का राज्य आता है तो उन्हें अति पिछड़ा दलित और अति दलित नजर नहीं आता जो सामाजिक रूप से सोचता हो और ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करने का माद्दा रखता हो। यही सबसे बड़ी विडंबना है कि उसके यहां प्रमुख सलाहकार भी ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण अपने अनुसार उसके कामकाज को प्रभावित करता है और थोड़े दिनों के बाद वह परास्त हो जाता है।।
दूसरी तरफ भाजपा नकली ओबीसी लाती है ऐसा ओबीसी जो कहीं पाया नहीं जाता और जरूरत पड़ने पर वह अपने को दलित भी बना लेता है अफसोस है कि आप लोग अखिलेश यादव अखिलेश यादव बार-बार कर रहे हो अखिलेश यादव अपने को पिछड़ा तब मानते हैं जब उन्हें भाजपा बताती है।
यह दौर देखा जाए तो मूलतः संक्रमण काल का दौर है। पिछड़ों में एक ऐसे नेता का नाम बताइए जो ज्योतिबा फुले रामास्वामी पेरियार या बाबा साहब अंबेडकर को ठीक से पढ़ा हो बाकी रही ललई सिंह यादव रामस्वरूप वर्मा या जगदेव प्रसाद कुशवाहा उनकी नीतियों पर चलने का कभी प्रयास मात्र भी किया हो।
वास्तविकता तो यही है कि हमारे महापुरुषों के संघर्ष को इन अपढ़ अग्यानी राजनेता अपहर्ताओं, नेताओं या नेतपुत्रों ने अपहृत कर लिया है। जिन्हें मौजूदा संविधान विरोधी सरकारें अपने संरक्षण में राजनीति करवा रही हैं।

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...