सोमवार, 4 अप्रैल 2011

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जाति

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जाति
by Udit Raj on 04 अप्रैल 2011 को 15:12 बजे
 नई दिल्ली, 4 अप्रैल, 2011.

डॉ0 उदित राज, रा0 चेयरमैन, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसवंघ ने कहा कि लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि भ्रष्टाचार की कोई जाति नहीं होती लेकिन यह सच नहीं है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, श्री के.जी. बालाकृष्णन एवं कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, श्री पी.डी. दिनाकरन के साथ जो हुआ या हो रहा है, उससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भ्रष्टाचार की जाति है। यहां यह मतलब नहीं है कि ये भ्रष्ट हैं या ईमानदार। प्रश्न यह है कि दर्जनों हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के तथाकथित सवर्ण जज भ्रष्टाचार में डूबे हैं, उनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठती? के.जी. बालाकृष्णन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गयी और संज्ञान लिया गया। ऐसा अन्यों के मामले में क्यों नहीं?

डॉ0 उदित राज ने आगे कहा कि सन् 2000 में भारत के मुख्य न्यायाधीश, डॉ. ए.एस. आनंद थे। मध्य प्रदेश में जमीन घोटाला हुआ, श्री आनंद अपने प्रभाव का दुरूपयोग करते हुए अपनी पत्नी के माध्यम से झूठा शपथ-पत्र देकर वहां की सरकार से एक करोड़ से ज्यादा मुवावजा उठाया। इन्होंने अपनी जन्मतिथि में भी हेर-फेर किया जिससे देर तक न्यायपालिका में बने रहे।  जिन वकीलों ने उनकी मदद की, उनकी पदोन्नति हुई। वरिष्ठ पत्रकार श्री विनीत नारायण इनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना चाहते थे लेकिन राजनैतिक लोग डर गए। तब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन, को अपील भेजी, तो उन्होंने इस याचिका को उस समय के कानूनमंत्री, राम जेठमलानी के पास भेजा। उसके बाद जेठमलानी ने डॉ0 आनंद के पास उनकी टिप्पणी के लिए याचिका को अग्रसारित कर दिया। इनकी बचत में अरूण जेटली एवं अटल बिहार वाजपेयी आए और अंत में जेठमलानी को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा। कितना फर्क है कि एक दलित मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ बड़े आराम से भ्रष्टाचार की आवाज उठ रही है और सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका मंजूर कर ली। दूसरी तरफ जब सवर्ण मुख्य न्यायाधीश का मामला आया तो देश के कानूनमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। मामला ठीक उल्टा हुआ, क्योंकि इस्तीफा डॉ0 आनंद को देना चाहिए था। सवर्ण मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आवाज उठाने पर न केवल देश के कानूनमंत्री को जाना पड़ा बल्कि वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण को भूमिगत होना पड़ा। डॉ0 आनंद ने विनीत नारायण के खिलाफ जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में अवमानना का मुकदमा कायम करवा दिया। चूंकि हिजबुल मुजाहिदीन के निशाने पर विनीत नारायण थे और उन्हें श्रीनगर में रहकर अपनी पैरवी करनी थी, इसलिए ऐसा किया गया। विनीत नारायण के घर और दफ्तर पर छापे भी मारे गए। मजबूर होकर वे देश छोड़कर भाग गए। आज भी डॉ0 आनंद के खिलाफ सारे घोटालों की फाइलें पड़ी हुई हैं और जांच की जाए तो सिद्ध हो जाएगा कि भ्रष्टाचार के आरोप बिल्कुल सही थे। सवर्ण होने का फायदा कितना है, इससे भी जान सकते हैं कि डॉ0 आनंद को सेवानिवृत्त के बाद भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। मजे की बात है कि इनकी नियुक्ति डॉ0 ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के समय हुई। 

डॉ0 उदित राज ने बताया कि दूसरे सवर्ण मुख्य न्यायाधीश, श्री वाई.के. सब्बरवाल तो डॉ0 ए.एस. आनंद से भी कहीं आगे भ्रष्टाचार में निकले लेकिन उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कोई याचिका मंजूर नहीं हुई और शान से नौकरी करके सेवानिवृत्त हुए। दिल्ली के बड़े बिल्डरों से साठ-गांठ करके सैकड़ों कॉलोनियांें एवं लाखों दुकानों को सील कर दिया। लाखों लोग भुखमरी के कगार पर आ गए। हजारों मकान तोड़ दिए गए, जो दुकानें सील हुई थी उनको खोलने में बड़ा समय लगा। उसकी वजह से अरबों का रखा हुआ भीतर सामान सड़ गया या जंग लग गया। आवास से ही इनके बेटों ने कंपनी चलायी। सिकंदर रोड, कनॉट प्लेस, जो बहुत पॉश कालौनी है, इनके बेटों ने लगभग 100 करोड़ की सम्पत्ति खरीदी। भ्रष्टाचार सिद्ध नहीं हुआ है फिर भी यदि मान लिया जाए कि के.जी. बालाकृष्णन ने भ्रष्टाचार किया भी तो क्या यह सब्बरवाल से ज्यादा घातक है। 

डॉ0 उदित राज ने कहा कि ग़ाजियाबाद प्राविडेंट फंड के मुख्य आरोपी एवं गवाह को जेल में मार दिया गया। क्यों नहीं उस पर कोई बड़ा हंगामा हुआ? यहां तक कि तमाम हाई कोर्ट के जज जो इस मामले में लिप्त हैं, सीबीआई अदालत में पेश ही नहीं होते। इस घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के उस समय के जज तरून चटर्जी का नाम आया था। क्यों नहीं उस समय उनके खिलाफ कोई सक्रियता मीडिया से लेकर सरकार में हुई। कर्नाटक हाई कोर्ट के दलित ईसाई मुख्य न्यायाधीश, श्री पी.डी. दिनाकरन चिल्लाते रहे कि जिस जमीन को लेकर विवाद है, उसकी जांच की जाए तब उनके खिलाफ बार एसोसिएशन, मीडिया एवं जज कार्यवाही करंे। उनकी एक न सुनी गयी और अंत में उनको सजा मिल गयी। उनसे काम छीन लिया गया। यह अपने आपमें एक बड़ी सजा थी और उसके बाद उनको दूसरे हाई कोर्ट में भेज दिया गया। यदि मान लिया जाए कि इन्होंने जमीन के मामले में भ्रष्टाचार किया तो अपना पक्ष रखने का मौका तो इन्हें देना चाहिए था। यदि ये दलित न होते तो शायद इनके साथ ऐसा व्यवहार न होता। क्या हुआ, उस राजस्थान के जज के खिलाफ, जिसने दलित महिला भंवरी देवी के बलात्कार के मामले में कहा था कि सवर्ण ऐसा कर ही नहीं सकते? राजस्थान में सुशीला नागर, दलित जज, के साथ उनके वरिष्ठ गलत कृत्य करना चाहते थे, जब वे सफल नहीं हुए तो उल्टे सुशीला नागर को ही दंड भोगना पड़ा। इनकी पदोन्नति रोकी गयी और गलत स्थानों पर बार-बार तैनात किया गया। इसका विरोध करने के लिए इनके प्रगतिशील पति, ए.के. जैन, जो स्वयं जज थे, वे इस्तीफा देकर सार्वजनिक जीवन में आए। इस तरह से हजारों भ्रष्टाचार के मामले सवर्ण जजों के खिलाफ मिल जाएंगें लेकिन जैसा के.जी. बालाकृष्णन एवं पी.डी. दिनाकरन के साथ कथित भ्रष्टाचार के मामले में बार एसोसिएशन, मीडिया, सरकार एवं न्यायपालिका ने सक्रियता दिखाई, वैसा अन्यों के मामलों में क्यों नहीं होता? भ्रष्टाचार के दोहरे मानदंड क्यों? 

सुप्रीम कोर्ट में अब तक सैकड़ों जज नियुक्त एवं सेवानिवृत्त हो गए, अब तक उनमें से केवल तीन दलित जज हो सके। इसी तरह से हजारों जज हाई कोर्ट में नियुक्त हुए, उसमें से कुछ ही दलित एवं पिछड़े समाज से हुए। जो भी हुए उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में फंसाने की कोशिश की गयी।  जज बनने के लिए कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती। देश की इतनी बड़ी संस्था में पहुंचने के लिए काबिलियत का कोई भी मापदंड निर्धारित नहीं है। बस इतना ही है कि कौन किसका रिश्तेदार है? कौन समीकरण बैठाने में चतुर और चालाक है? कभी-कभार ही योग्यता के आधार पर जज की नियुक्ति होती है, जिसकी खुद ही योग्यता की जांच-पड़ताल न हो, वह यहां बैठकर क्या फैसला देगा? यही कारण है कि आज करोड़ों मुकदमे लंबित हैं। 
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C. L. Maurya

एकबार नहीं हज़ार बार धोखा !

डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल भारतीय राजनिति की विडम्बना कहें या इस देश कि स्मिता के साथ मजाक.
यह सब क्यों हो रहा है. यह मेरी या किसी के समझ में क्यों नहीं आ रहा है इसका कारण आसान सा है जिसे समझाने के लिए जिस साधन की जरुरत है दरअसल उसी का अभाव है पिछड़ी जातिओं में . यह अभाव कई रूपों में नज़र आता है, जिसे समय समय पर पूरा करने के लिए कई प्रकार के आन्दोलन किये जाते हैं और ये आन्दोलन उनके लिए और ताकत दे देते हैं जो इन सारे कारणों के लिए जिम्मेदार हैं.
पिछले दिनों एक ऐसा हीआन्दोलन पिछड़ी जाति में शरीक किये जाने के लिए जाटों ने किया है, बहुत ही सलीके से पहले इन्हें राज्यों की पिछड़ी जाति में शरीक किया गया और अब इनसे मांग करवाई जा रही है की ये केंद्र में पिछड़ी जातियों में शरीक कर लिए जाएँ. अब यहाँ पर इस आन्दोलन का औचित्य देखने योग्य है. जाट कहीं से पिछड़ा नहीं है पर उसे पिछड़ों में धकेलने के दो कारण स्पष्ट तौर पर नज़र आते हैं -
१.यह देश के सारे प्रदेशों में नहीं है, दिल्ली के समीपवर्ती प्रान्तों में ही यह रहता है, हरियाणा प्रान्त की यह सबसे अधिक आबादी और शक्तिशाली, आर्थिक रूप से संपन्न जाति है . 
२. इसके अपने शैक्षिक संसथान बहुतायत में हैं, जिसके कारण पुरुष ही नहीं इनकी महिलाएं शिक्षित हैं. इनकी वजह से यह जाति किसी भी तरह से पिछड़ी नहीं है. 
यही महत्त्व पूर्ण है की ये लम्बे समय से सरकारी सेवाओं  में पर्याप्त मात्रा में हैं जबकि पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं, इनके आने से वह स्वतः रूक जाएँगी हर जगह 'आरक्षण' के नाम पर इन्हें रखा जायेगा क्योंकि यह मूलतः आरक्षण बिरोधी रहे हैं.
इस योजना की समर्थक 'दलितों' की तथाकथित शुभ चिन्तक एक नेत्री जाटों को पिछड़ी जातियों में आरक्षण का समर्थन कर रही हैं जबकि उनके साथ पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं जो राजनितिक रूप से उनके साथ जुडी हुयी हैं , पिछड़ों के तथाकथित नेताओं की तो बात ही निराली है 'पिछड़ों के हित के सिवा' उनसे किसी भी तरह का गठबंधन और बयां दिलवा या करवा लो .
सामाजिक बदलाव के रास्ते जटिलतम हैं उनके परिवर्तन की परिकल्पना करना आसान नहीं हैं, इस आन्दोलन के प्रणेताओं ने सोचा तो यही रहा होगा की आगे आने वाली उनकी संततियों की रह आसान हो जाएगी सामाजिक बदलाव के आन्दोलन खड़े करने से पर हो तो उससे उलट ही रहा है, देश के भाग्य विधाता मोटी सी बात क्यों नहीं समझ पा रहे  हैं? या जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं . 
अगड़ों की बहुलता के कारण सामाजिक सन्दर्भ उतने दूषित नहीं होते जितने पिछड़ों की समय समय की चुप्पी के कारण कमजोर पड़ते है. इसी कमजोरी को मज़बूत करने के लिए ये नए समीकरण गढ़े जा रहे हैं. 
(क्रमश:...)     


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

जाट आन्दोलन और भारतीय राजनीतिकों को नियति



 पिछड़ी जातियों के दुश्मनों के रूप में नए नए गठबंधन जो पिछड़ों को पचा नहीं पा रहे हैं . जाट कभी पिछड़ा नहीं रहा है यह हमेशा से शक्तिशाली रहा है 'मंडल कमीशन का बिरोधी रहा है.'
डॉ.लाल रत्नाकर
 (अखबारों की कतरनें) 
जाट आंदोलन पर केंद्र ने बुलाई बैठक
नई दिल्ली।
Story Update : Saturday, March 26, 2011    2:31 AM
आरक्षण की मांग को लेकर जाटों के जोर पकड़ते आंदोलन ने केंद्र की चिंता भी बढ़ा दी है। आंदोलन के चलते बने हालात से कैसे निपटा जाए केंद्र इस पर मंथन करने में जुट गया है, उसने इस मसले पर चर्चा के लिए शनिवार को उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों की बैठक भी बुलाई है। इस आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट पहले ही सरकारों को फटकार लगा चुके हैं।

जरूरी चीजों की आपूर्ति सुनिश्चित करें
सूत्रों ने बताया कि गृह सचिव जीके पिल्लई तीनों राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों के साथ राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा करेंगे। यह बैठक बृहस्पतिवार के सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के बाद बुलाई जा रही है, जिसमें उसने राज्य सरकारों से कहा था कि वे दिल्ली के लिए पानी, दूध, सब्जियों आदि जरूरी चीजों की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करें। पिल्लई बैठक में सुरक्षा के हालात और राज्यों की जरूरतों का जायजा भी लेंगे। ऐसी रणनीति बनाने की कवायद भी होगी जिससे जाट आंदोलन से टे्रन और सड़क यातायात बाधित नहीं हो और न ही जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति पर असर पड़े।

टे्रन आवागमन प्रभावित हो रहा
मालूम हो कि गृह मंत्री पी चिदंबरम और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक के साथ जाटों की दो दौर की बातचीत में कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पाया था। उत्तर प्रदेश के काफूरपुर में तो जाटों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद रेलवे ट्रैक खाली कर दिया था, लेकिन हरियाणा में अभी भी वह कई जगह ट्रैक पर डटे हुए हैं। इससे टे्रन आवागमन प्रभावित हो रहा है। गौरतलब है कि पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट भी हरियाणा सरकार को तत्काल रेलवे ट्रैक खाली कराने का आदेश दे चुका है, जिससे टे्रनों की आवाजाही सामान्य हो सके।
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मायावती ने जाट आरक्षण का समर्थन किया
लखनऊ।
Story Update : Thursday, March 10, 2011    3:37 PM
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने जाटों की केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण की मांग का समर्थन करते हुए उनसे अपील की है कि वे राज्य (उत्तर प्रदेश) में कोई ऐसा काम न करें, जिससे आम जनता को असुविधा हो।

लखनऊ में गुरुवार को एक संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए मायावती ने कहा कि मैं पहले भी इस मुद्दे पर स्थिति स्पष्ट कर चुकी हूं, लेकिन मैं एक बार फिर से दोहराना चाहती हूं कि हमारी पार्टी जाटों की इस मांग का पुरजोर समर्थन करती है, लेकिन उनकी आरक्षण सम्बंधी इस मांग पर फैसला लेने में केंद्र सरकार ही सक्षम है। ऐसे में जाट समुदाय के लोग दिल्ली जाकर अनुशासित तरीके से केंद्र सरकार के सामने अपनी मांग रखें।

आरक्षण की मांग को लेकर अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष सिमति के बैनर तले जाट समुदाय के लोगों के आंदोलन का आज छठवां दिन है। जाट आंदोलन की आग अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ हिरयाणा में भी पहुंच गई है। बीते दिनों से अमरोहा के काफूरपुर रेलवे स्टेशन के पास जाट आंदोलनकारी रेलमार्ग को अवरुद्ध करके दिल्ली-लखनऊ रेलमार्ग को ठप्प किये हुए हैं, जिससे रेल यातायात बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। जहां 20 से ज्यादा रेलगाड़ियां रद्द करनी पड़ी हैं, वहीं करीब 15 के मार्ग बदलकर उन्हें दूसरे मार्गों से चलाया जा रहा है।

बसपा प्रमुख ने रेलमार्ग पर कब्जा किये हुए आंदोलनकारी जाट समुदाय के लोगों से अपील करते हुए कहा कि वे उ?ार प्रदेश में कोई ऐसा काम न करें, जिससे आम जनता को कोई नुकसान या असुविधा हो। इस बीच अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है कि अगर जल्द उनकी मांगें नहीं मानी गईं, तो वे पूरे उत्तर भारत में रेलमार्गों को जाम कर देंगे।
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राजधानी पहुंची जाट आंदोलन की आग
नई दिल्ली।
Story Update : Friday, March 11, 2011    3:05 AM
जाट आंदोलन की आग बृहस्पतिवार को दिल्ली तक पहुंच गई। आरक्षण की मांग को लेकर जाट समुदाय ने उग्र प्रदर्शन कर गाजीपुर में राष्ट्रीय राजमार्ग-24 को करीब एक घंटे तक बंद रखा। प्रदर्शनकारियों ने करीब आधा दर्जन कारों के शीशे तोड़े और सड़क पर टायर रखकर आग लगा दी। भीड़ ने एमसीडी टोल टैक्स बूथ पर तोड़फोड़ कर आग लगाने का प्रयास किया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को समझा-बुझाकर जाम खुलवाया। पूर्वी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के मुताबिक उन्हें मामले की सूचना नहीं दी गई थी। मामले की जांच की जा रही है। अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के राष्ट्रीय महासचिव सतपाल के नेतृत्व में दोपहर 1.30 बजे प्रदर्शनकारियों ने गाजीपुर टोल टैक्स के नजदीक हंगामा शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने नारेबाजी करते हुए एनएच-24 को जाम कर दिया। इस दौरान इन लोगों ने टायरों में आग लगा दी और कई गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए। बाद में भीड़ एमसीडी टोल टैक्स के बूथ पर पहुंची और तोड़फोड़ शुरू कर दी।
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जाट नेताओं की केंद्र से बातचीत बेनतीजा
नई दिल्ली।
Story Update : Sunday, March 20, 2011    1:05 AM
आरक्षण के मुद्दे पर केंद्र सरकार और जाट नेताओं की दूसरे दौर की बातचीत किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। जाट नेताओं ने अपनी मांग मानने तक आंदोलन समाप्त करने से साफ इनकार कर दिया है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक के साथ दिल्ली बातचीत करने आए जाट नेताओं ने साफ कर दिया कि सरकार की ओर से आरक्षण की मांग को मानने की समय सीमा घोषित करने के बाद ही आंदोलन खत्म करने का फैसला होगा। लेकिन सरकार ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जता दी है।

सरकार बताएं मांग कब तक मानी जाएगी
नार्थ ब्लॉक में शनिवार को चिदंबरम और वासनिक के साथ अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेता यशपाल मलिक की अगुवाई में आए प्रतिनिधिमंडल की लगभग डेढ़ घंटे तक चली बैठक में कोई समाधान नहीं निकल पाया। जाट नेताओं ने दो टूक कह दिया कि सरकार को पहले यह बताना होगा कि उनकी आरक्षण की मांग कब तक मानी जाएगी। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद समिति ने लोगों से रेलवे ट्रैक खाली करने को कह दिया है। हालांकि अभी कई जगह लोग रेलवे ट्रैक पर डटे हैं। मलिक ने भरोसा दिया कि लोग अब रेलों के संचालन में बाधा भी नहीं डालेंगे, लेकिन आरक्षण को लेकर आंदोलन दूसरे रूप में जारी रहेगा।

समय सीमा बता पाना संभव नहीं
दूसरी तरफ चिदंबरम ने जाट नेताओं से कहा कि उनकी मांग पहले ही पिछड़ा वर्ग आयोग को भेज दी गई है और आयोग इस मांग पर विचार कर रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार के लिए इस मांग को पूरा करने की समय सीमा बता पाना संभव नहीं है। उन्होंने जाट नेताओं से आंदोलन खत्म करने का आग्रह भी किया। वहीं, जाट नेताओं ने कहा कि वे समिति की कोर कमेटी सामने इस बैठक के नतीजे रखेंगे और फिर आंदोलन को लेकर अगला कदम उठाया जाएगा। इससे पहले 16 मार्च को भी नार्थ ब्लॉक में इसी मसले पर बैठक हुई थी। तब मलिक ने बैठक के बाद आंदोलन खत्म करने के संकेत दिए थे, लेकिन आंदोलन खत्म नहीं हुआ।
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जाट आंदोलन पर गृह मंत्रालय की बैठक आज
नई दिल्ली।
Story Update : Saturday, March 19, 2011    2:24 AM
इलाहाबाद हाईकोर्ट के केंद्र व यूपी के अधिकारियों को रेल व सड़क यातायात बहाल करने के लिए कदम उठाने के दिए आदेश के बाद गृह मंत्रालय सक्रिय हो गया है। मंत्रालय ने जाट आंदोलन को लेकर शनिवार को केंद्रीय अर्द्घसैनिक बल और रेलवे अधिकारियों की बैठक बुलाई है। हाईकोर्ट के आदेश के बाद केंद्र भी राज्य सरकार से आंदोलन रोकने को लेकर उचित कदम उठाने के लिए कह सकता है।

गृह मंत्रालय द्वारा जाट आंदोलन की मार झेल रहे सभी राज्यों को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए समुचित सुरक्षा मुहैया कराने का आश्वासन भी दिए जाने की उम्मीद है। वहीं, नार्थ ब्लॉक के बाद अब कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति (सीसीपीए) ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में आंदोलन से पैदा स्थिति पर विचार किया। इससे पहले हाल में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम व सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक इसी मुद्दे पर जाट नेताओं से विचार-विमर्श कर चुके थे।


मंगलवार, 22 मार्च 2011

जाटों को आरक्षण दिया जाय तो पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो .

डॉ.लाल रत्नाकर 
जाट आन्दोलन का उद्येश्य मूलतः आधारहीन है क्योंकि मंडल आयोग ने इन्हें पिछड़ी जाती में नहीं माना है और न ही यह मंडल आयोग की शर्तों के अनुसार पिछड़े हैं . इनका आन्दोलन दबाव की राजनीती के तहत बेवकूफी भरा है ,पिछड़ी जातियों के उत्थान हेतु दिए जा रहे अवसरों पर 'मनुवादियों' की राय पर यह इनका बेवकूफी भरा कदम है . यदि इनकी बात पर सरकार इन्हें पिछड़ों में शरीक कराती है तो मंडल का उद्येश्य ही समाप्त हो जायेगा.
आईये हम पिछड़े एकजुट होकर 'इनकी नाजायज़ मांग का विरोध करें'
और जाटों को आरक्षण दिया जाय तो पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो .
















टिप्पड़ियाँ-
जाटों को आरक्षण अवश्य दिया जाय लेकिन पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो तथा उसके बाद आवाहन है बनिया और कायस्थों/खत्रियों को कि वे भी अपने लिए आरक्षण मांगे लेकिन उनका कोटा भी जाटों से अलग से मिले।
-उमराव सिंह जाटव

मंगलवार, 8 मार्च 2011

दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर आज छपा है, यहां नए शीर्षक के तहत पोस्ट किया जा रहा है।


नीतीश जी, सवर्ण आरक्षण लागू कीजिए, प्लीज़!

by Dilip Mandal on 07 मार्च 2011 को 20:56 बजे
(दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर आज छपा है, यहां नए शीर्षक के तहत पोस्ट किया जा रहा है।)

दिलीप मंडल

नीतीश कुमार की सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। किसी भी राज्य में पहली बार सवर्ण या ऊंची कही जाने वाली जातियों के उत्थान के लिए आयोग बना है। यह आयोग इसलिए बनाया गया है ताकि सवर्णों के विकास के लिए उपाय सुझाए जाएं। वैसे तो, विकास की तमाम योजनाओं में सवर्णों की पहले से ही हिस्सेदारी है। नरेगा से लेकर जनवितरण प्रणाली और समेकित ग्रामीण विकास से लेकर सर्वशिक्षा और विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना तक कहीं भी उनकी हिस्सेदारी में बाधा नहीं है। इस योजनाओं में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए किसी आयोग की जरूरत नहीं है।

दरअसल उनकी एक ही दिक्कत है कि उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण नहीं मिलता। सवर्णों की शिकायत है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में दिए जा रहे आरक्षण की वजह से उनका विकास रुक गया है। उनकी तरक्की के मौके कम हो गए हैं। उनके बच्चों को दाखिला नहीं मिलता, नौकरियों की तलाश में वे मारे-मारे फिरते हैं। ज्यादा नाराज होने पर वे आरक्षण के खिलाफ आत्मदाह तक कर लेते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है। सवर्णों की इस शिकायत को दूर करने के लिए ही बिहार में सवर्ण आयोग का गठन किया गया है।  

अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सवर्णों को आरक्षण देना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है और इसमें देर नहीं करनी चाहिए। ऐसा करके बिहार देश के सामने एक मिसाल कायम करेगा। बिहार को यह गौरव नीतीश कुमार के नेतृत्व में मिले, इससे बेहतर और क्या हो सकता है। लोगों ने उनके नेतृत्व वाले गठबंधन को इतने भारी बहुमत से जिताया है, अब नीतीश कुमार पर जिम्मेदारी है कि न सिर्फ बिहार के सभी समुदायों का ध्यान रखें बल्कि देश के सामने ऐसी मिसाल भी कायम करें जिसे बाकी राज्य भी अपनाएं। सवर्णों के हितों की रक्षा करना और उनके साथ हो रहे अन्याय को दूर करने की पहल करना उनका कर्तव्य भी है। बिहार चुनाव के जनादेश का संदेश भी यही है। इसलिए सवर्ण आयोग गठित करने की नीतीश सरकार की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए। अगले कदम के रूप में आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सवर्णों को आरक्षण देने के लिए कानून बनाने की तैयारी करनी चाहिए। सवर्ण आयोग का गठन एक खास सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए किया गया है। नीतीश कुमार ने ऐसा करके लोगों की महत्वाकांक्षाएं भी जगा दी हैं।

भारत के संविधान में सवर्ण या ऊंची जाति नाम की किसी श्रेणी का उल्लेख तक नहीं है। विशेष अवसर का सिद्धांत अनुसूचित जाति, जनजाति और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भी कुछ विशेष प्रावधान हैं। लेकिन सवर्णों के लिए किसी तरह का प्रावधान नहीं है। बिहार सरकार को विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार के पास भेजना चाहिए और संविधान में संशोधन कर सवर्णों के लिए आरक्षण का प्रावधान जोड़ने की मांग करनी चहिए।    

लेकिन सवाल उठता है कि यह आरक्षण किस तरह लागू किया जाए?  देश में जातिवार जनगणना नहीं होती। बिहार के भी जातिवार आंकड़े, इस वजह से उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार में सवर्णों की आबादी 10 फीसदी के आसपास होगी। अगर किसी को इस अनुमान पर संदेह है तो उसे तत्काल जातिवार जनगणना के लिए आंदोलन शुरू करना चाहिए। जातिवार जनगणना के बाद प्रामाणिक आंकड़े होंगे तो हर समुदाय के विकास के लिए योजनाएं बनाने में आसानी होगी। बहरहाल जब तक जातिवार जनगणना न हो जाए, तब तक 1931 के आंकड़ों से काम चलाया जा सकता है। इन आंकड़ों से अगर बिहार में सवर्णों की आबादी 10 फीसदी साबित होती है तो नीतीश सरकार को विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर सवर्णों के लिए शिक्षा, नौकरियों, ठेकों, सप्लाई आदि में 10 फीसदी आरक्षण लागू कर देना चाहिए। चूंकि नीतीश कुमार को लगता है कि बिहार में सवर्णों की हालत ठीक नहीं है और उनके लिए विशेष उपाय किए जाने चाहिए, तो उन्हें सवर्णों को आरक्षण देने का साहस दिखाना चाहिए। जनादेश का सम्मान करने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।

सुप्रीम कोर्ट में बालाजी केस में फैसले के बाद ओबीसी आरक्षण देश में जिस तरह लागू होता है, उसी तरह का फॉर्मूला सवर्णों के लिए लागू करना नीतीश कुमार को अन्यायपूर्ण लग सकता है। बालाजी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से कम ही रहना चाहिए। इसलिए ओबीसी आरक्षण लागू हुआ तो हालांकि आबादी में उनका हिस्सा 52 फीसदी माना गया, लेकिन आरक्षण 27 फीसदी दिया गया क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजाति को मिलाकर पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण लागू था। ओबीसी को 27 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने से 50 फीसदी की सीमा टूट जाती। इसलिए उन्हें आबादी से लगभग आधा आरक्षण मिला।

लेकिन नीतीश कुमार को सवर्णों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। 52 फीसदी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण देना एक बात है लेकिन 10 फीसदी सवर्ण आबादी के लिए 5 फीसदी आरक्षण देना सरासर अन्याय होगा। उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए।  नीतीश कुमार को विधानसभा में प्रचंड बहुमत का समर्थन हासिल है। उन्हें विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र में भेजना चाहिए कि बिहार विधानसभा ने सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का कानून पारित किया है। इसके बाद बचेंगी 90 फीसदी सीटें। इसलिए एक और कानून पारित कर बाकी 90 फीसदी सीटें, ठेके, सप्लाई के टेंडर आदि का बंटवारा संविधानसम्मत सामाजिक समूहों के बीच आबादी के अनुपात में करने का फैसला भी किया जाए।

संविधान में जिन समूहों को मान्यता प्राप्त है वे हैं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक और शैणक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग। यानी बाकी 90 फीसदी सीटें और अवसर इन तीन समुदायों को मिलना चाहिए। इन समूहों के बीच बंटवारे लिए जाति के आंकड़ों की जरूरत होगी। संबंधित आंकड़ों के लिए सरकार या तो जनगणना करा ले या फिर किसी समाजशास्त्री के नेतृत्व में एक आयोग बनाकर तीन महीने के अंदर सर्वे कराकर आंकड़े जुटा ले। बिहार सरकार केंद्र सरकार से यह कह सकती है कि जनगणना आयुक्त का कार्यालय बिहार में जातिवार जनगणना कराए। 

राज्य विधानसभा को यह भी प्रस्ताव पारित करना चाहिए कि जिस तरह तमिलनाडु 69% आरक्षण देता है, उसी तरह बिहार भी सीमा से ज्यादा आरक्षण देगा। इस बारे में संसद में सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि एक कानून बनाकर बिहार के इस प्रावधान को संविधान की नवीं अनुसूचि में डाला जाए। इस तरह न्यायपालिकाएं न्याय करने की नीतीश सरकार की कोशिशों में अड़ंगा न डाल पाएंगी। ऐसा करना बेहद जरूरी है क्योंकि मामला अदालत में फंस गया तो सुशासन का एजेंडा अधूरा रह जाएगा। आरक्षण को इस तरह लागू करने से हर समुदाय को उसका वाजिब हक मिलेगा और जातियों के बीच भाईचारा बढ़ेगा। जाति संबंधी कई विवाद इस तरह हल हो जाएंगे और सामाजिक समरसता आएगी। पिछड़ों के अंदर अनुसूचि एक और दो के बीच भी अवसरों को विभाजन हो। दलितों और महादलितों के बीच विभाजन की बात नीतीश भी अब नहीं कर रहे हैं तो इस विभाजन को फिलहाल टाल दिया जाए और दलितों को एक समूह माना जाए।

मुसलमानों में भी अशराफ और पसमांदा के बीच आबादी के हिसाब से अवसरों को बंटवारा किया जाए। इस तरह कई सवाल जो राजनीतिक ताकत और दादागिरी से तय होते हैं, उन्हें हल करने का एक वैज्ञानिक तरीका मिल जाएगा। अभी तक आरक्षण संबंधी विवादों को सड़कों पर हल करने की कोशिशें होती रही हैं। इस मामले में एक नए मॉडल की नितांत आवश्यकता है। नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग बनाकर एक नया रास्ता निकाला है। इस पर अब पूरे देश की नजर होगी। साथ ही इस बात पर भी नजर होगी कि सवर्ण आयोग के अगले कदम के रूप में नीतीश कुमार क्या करते हैं। यह बहुत जरूरी है कि सवर्ण आयोग और सवर्णों और बाकी समुदाय को आबादी के अनुपात में आरक्षण के मामले में राजनीतिक इच्छा शक्ति में किसी तरह की कमी नहीं होनी चाहिए। 

बिहार का यह मॉडल पूरे देश को रास्ता दिखा सकता है। आरक्षण और अवसरों के बंटवारे को लेकर देश भर में उत्पात होते रहते हैं। अगर बिहार ने एक ऐसा फॉर्मूला दे दिया, जिससे सामाजिक समरसता का मार्ग खुले, तो बाकी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार भी इस पर अमल कर सकती है। जाट और गुर्जरों के आरक्षण संबंधी आंदोलनों का भी इस फॉर्मूले से समाधान निकल सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इस तरह सवर्णों की अरसे से चली आ रही यह शिकायत दूर हो जाएगी कि आरक्षण की वजह से उनके साथ अन्याय हो रहा है।

एक आदर्श लोकतंत्र में किसी भी समुदाय के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। सवर्णों को जब दुर्बल समुदाय मान लिया गया है और उनके लिए आयोग गठित कर दिया गया है तो सवर्णों के लिए विशेष अवसर देने में किसी तरह का संकोच नहीं करना चाहिए। किसी भी दुर्बल समुदाय को हक से वंचित रखना अच्छी बात नहीं है। सवर्णों को आरक्षण के साथ अगर बाकी जाति समूहों को उनकी आबादी अनुपात में अवसर मिल जाएंगे तो फिर किसी को भी शिकायत करने का मौका नहीं मिलगा। इस तरह हर जाति समूह को विकास करने  का मौका मिलेगा। इससे बेहतर सुशासन और क्या हो सकता है?

नीतीश कुमार के सामने एक ऐतिहासिक मौका है। बिहार के मतदाताओं ने उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी सौपी है। सवर्णों को आरक्षण देने के साथ ही, सभी सामाजिक समूहों को आबादी के अनुपात में आरक्षण देकर वे बिहार के सामाजिक सवालों को हल करने के साथ ही देश को भी दिशा दिखा सकते हैं। उन्हें यह अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। बिहार के जनादेश का वास्तविक अर्थों में सम्मान इसी तरह किया जा सकता है।

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