डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल भारतीय राजनिति की विडम्बना कहें या इस देश कि स्मिता के साथ मजाक.
यह सब क्यों हो रहा है. यह मेरी या किसी के समझ में क्यों नहीं आ रहा है इसका कारण आसान सा है जिसे समझाने के लिए जिस साधन की जरुरत है दरअसल उसी का अभाव है पिछड़ी जातिओं में . यह अभाव कई रूपों में नज़र आता है, जिसे समय समय पर पूरा करने के लिए कई प्रकार के आन्दोलन किये जाते हैं और ये आन्दोलन उनके लिए और ताकत दे देते हैं जो इन सारे कारणों के लिए जिम्मेदार हैं.
यह सब क्यों हो रहा है. यह मेरी या किसी के समझ में क्यों नहीं आ रहा है इसका कारण आसान सा है जिसे समझाने के लिए जिस साधन की जरुरत है दरअसल उसी का अभाव है पिछड़ी जातिओं में . यह अभाव कई रूपों में नज़र आता है, जिसे समय समय पर पूरा करने के लिए कई प्रकार के आन्दोलन किये जाते हैं और ये आन्दोलन उनके लिए और ताकत दे देते हैं जो इन सारे कारणों के लिए जिम्मेदार हैं.
पिछले दिनों एक ऐसा हीआन्दोलन पिछड़ी जाति में शरीक किये जाने के लिए जाटों ने किया है, बहुत ही सलीके से पहले इन्हें राज्यों की पिछड़ी जाति में शरीक किया गया और अब इनसे मांग करवाई जा रही है की ये केंद्र में पिछड़ी जातियों में शरीक कर लिए जाएँ. अब यहाँ पर इस आन्दोलन का औचित्य देखने योग्य है. जाट कहीं से पिछड़ा नहीं है पर उसे पिछड़ों में धकेलने के दो कारण स्पष्ट तौर पर नज़र आते हैं -
१.यह देश के सारे प्रदेशों में नहीं है, दिल्ली के समीपवर्ती प्रान्तों में ही यह रहता है, हरियाणा प्रान्त की यह सबसे अधिक आबादी और शक्तिशाली, आर्थिक रूप से संपन्न जाति है .
२. इसके अपने शैक्षिक संसथान बहुतायत में हैं, जिसके कारण पुरुष ही नहीं इनकी महिलाएं शिक्षित हैं. इनकी वजह से यह जाति किसी भी तरह से पिछड़ी नहीं है.
यही महत्त्व पूर्ण है की ये लम्बे समय से सरकारी सेवाओं में पर्याप्त मात्रा में हैं जबकि पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं, इनके आने से वह स्वतः रूक जाएँगी हर जगह 'आरक्षण' के नाम पर इन्हें रखा जायेगा क्योंकि यह मूलतः आरक्षण बिरोधी रहे हैं.
इस योजना की समर्थक 'दलितों' की तथाकथित शुभ चिन्तक एक नेत्री जाटों को पिछड़ी जातियों में आरक्षण का समर्थन कर रही हैं जबकि उनके साथ पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं जो राजनितिक रूप से उनके साथ जुडी हुयी हैं , पिछड़ों के तथाकथित नेताओं की तो बात ही निराली है 'पिछड़ों के हित के सिवा' उनसे किसी भी तरह का गठबंधन और बयां दिलवा या करवा लो .
इस योजना की समर्थक 'दलितों' की तथाकथित शुभ चिन्तक एक नेत्री जाटों को पिछड़ी जातियों में आरक्षण का समर्थन कर रही हैं जबकि उनके साथ पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं जो राजनितिक रूप से उनके साथ जुडी हुयी हैं , पिछड़ों के तथाकथित नेताओं की तो बात ही निराली है 'पिछड़ों के हित के सिवा' उनसे किसी भी तरह का गठबंधन और बयां दिलवा या करवा लो .
सामाजिक बदलाव के रास्ते जटिलतम हैं उनके परिवर्तन की परिकल्पना करना आसान नहीं हैं, इस आन्दोलन के प्रणेताओं ने सोचा तो यही रहा होगा की आगे आने वाली उनकी संततियों की रह आसान हो जाएगी सामाजिक बदलाव के आन्दोलन खड़े करने से पर हो तो उससे उलट ही रहा है, देश के भाग्य विधाता मोटी सी बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? या जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं .
अगड़ों की बहुलता के कारण सामाजिक सन्दर्भ उतने दूषित नहीं होते जितने पिछड़ों की समय समय की चुप्पी के कारण कमजोर पड़ते है. इसी कमजोरी को मज़बूत करने के लिए ये नए समीकरण गढ़े जा रहे हैं.
(क्रमश:...)
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