रविवार, 23 जनवरी 2011

सोची-समझी साजिश !

(कौशलेन्द्र यादव का यह लेख दैनिक भास्कर में छपा है -)
(कांग्रेस दरअसल आज़ादी क्या अनंतकाल से पिछड़े हुए समुदाय की दुश्मन है, इसके कहे किये का सारा मकसद पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखना है, पहले जाटों को शरीक किया फिर गुजरों को अलग करने का आन्दोलन खड़ा किया है अब मुसलमानों को इसमें शरीक करने का नाटक रच कर उन्हें गुमराह कर रही है-डॉ.लाल रत्नाकर)

केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने हाल ही में कहा कि दलित-पिछड़े मुसलमान जिन्हें पसमांदा कहा जाता है, उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलेगा और यह आरक्षण पिछड़े वर्ग को दिए गए 27 फीसदी आरक्षण में से ही दिया जाएगा। पसमांदा एक फारसी लफ्ज है जिसका अर्थ है- जो पीछे छूट गया। इस प्रकार भारत के 85 फीसदी मुसलमान जो अंसारी, कुरैशी, सैफी, मंसूरी, शक्का, सलमानी, उस्मानी, घोषी आदि फिरकों में बंटे हैं, उन्हें संयुक्त रूप से पसमांदा कहा गया। एक तरह से यह शब्द कांशीराम के बहुजन शब्द के समानांतर है।


बहरहाल, जब मुल्क में इस्लामी हुकूमत कायम हुई तो कुछ लोग जबरन मुुसलमान बने और कुछ ने स्वेच्छा से इस्लाम कबूल किया। स्वेच्छा से इस्लाम कबूल करने वालों में हिंदू धर्म की दलित-पिछड़ी जातियां थीं जिनके साथ हिंदू धर्म में इंसान तो क्या जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता था। बेहतर सम्मान और समान अवसर की उम्मीद में इन लोगों ने इस्लाम अख्तियार किया क्योंकि इस्लाम अख्तियार करने के बाद बकौल कुरान-ए-पाक खुदा के आगे सब बराबर हो जाते हैं। लेकिन यहां भी पसमांदा मुसलमानों के साथ साजिश कर दी गई। 



इस्लाम ग्रहण करने के बाद उनका मजहब तो बदल गया, लेकिन उनके पेशे में कोई तब्दीली नहीं आई। मसलन, ग्वाला जब मुसलमान बना तो उसे वहां घोषी कहा गया, लेकिन वह गाय-भैंस के दूध का व्यापार हिंदू होने पर भी करता था और यह काम उसे घोषी होने पर भी करना पड़ा। हिंदू जुलाहा अंसारी बनने के बावजूद कपड़े बुनता रहा, लोहार सैफी बनकर भी हथौड़ा पीटता रहा, हिंदू धुनिया को मंसूरी बनने के बाद भी रूई धुनने से फुरसत न मिली। इसी प्रकार नाई सलमानी बन गया लेकिन उस्तरा न छूटा, तेली उस्मानी बन गया लेकिन तेल पेरने से पिंड न छूटा। न तो इनका पेशा बदला और न ही इनकी सामाजिक हैसियत में कोई तब्दीली आई।



इसके उलट जब सवर्णों ने इस्लाम कबूल किया तो अपनी पूरी शानो-शौकत के साथ। बादशाहों और आलिमों ने एक कूटनीति के जरिए इनको इस बात का वचन भी दिया क्योंकि भारत में बहुत थोड़े से मुसलमान बाहर से आए थे और हिंदुस्तान पर हुकूमत करने के लिए उन्हें स्थानीय प्रतिष्ठित लोगों और वर्चस्व वाली जातियों का समर्थन भी चाहिए था। बादशाह अकबर के सामने 1605 में तो कुछ ब्राह्मणों ने बाकायदा एक दरख्वास्त दी कि हम इस्लाम कबूल करने को तैयार हैं, बशर्ते हमें वहां शेख लिखने की इजाजत दी जाए। बादशाह की तरफ से बाकायदा उनको ये इजाजत दी भी गई। इस प्रकार हमारे यहां के शेख-सैयद धर्म परिवर्तित सवर्ण हैं। जो विशेषाधिकार इनको यहां हासिल थे, वही इनको इस्लाम में भी मिले और देखते ही देखते ये बादशाहों के सिपहसालार बन गए। 



पसमांदा मुसलमानों ने जंगे-आजादी में जो कुरबानी दी, उसका भी उन्हें प्रतिदान न मिला। मुस्लिम लीग के खिलाफ मोमिन पार्टी और जमीयतुल मंसूर जैसे संगठन खड़ा करके पसमांदा मुसलमानों ने जोरदार आंदोलन चलाया। अब्दुल कयूम अंसारी और मौलाना अतीकुर्रहमान मंसूरी इस तंजीम के बड़े नेता बने। इन्होंने कहा कि पसमांदा मुसलमान भारत के मूल निवासी हैं, न कि गोरी-गजनवी की औलाद, अत: उन्हें देश का बंटवारा कतई मंजूर नहीं है। जिन्ना ने जब पाकिस्तान के गवर्नर जनरल पद की शपथ ली तो उनका यह दर्द छलका भी। उन्होंने कहा कि अगर पसमांदा मुसलमानों ने हमारा साथ दिया होता तो पाकिस्तान की सरहदें दिल्ली तक होतीं।



लेकिन आज तक कोई भी राज्यपाल पसमांदा नहीं बना। सलमान खुर्शीद जिस कांग्रेस में है, उसका एक भी मंत्री पसमांदा नहीं है। उपराष्ट्रपति अंसारी लिखते जरूर हैं लेकिन वह भी अशराफ मुसलमान हैं। संविधान सभा में अशराफ मुसलमानों ने मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में पसमांदा मुसलमानों को मिलने वाले आरक्षण का विरोध किया था। मुसलमानों के जितने भी मसलक हैं-बरेलवी, देवबंदी, अहले हदीस, इन सब में अशराफ मुसलमानों का वर्चस्व है और पसमांदा मुसलमानों को नुमांइदगी न देने के मसले पर सब एक रहते हैं।



दरअसल, पिछड़े वर्ग के कोटे से आरक्षण देने का निर्णय कांग्रेस ने बहुत सोची-समझी साजिश के तहत किया है। इसमें पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों को लड़ाने की साजिश शामिल है। अभी तक पिछड़े वर्ग के लोग ही पसमांदा मुसलमानों के साथ उनके हक की लड़ाई लड़ते रहे हैं। अब ये आपस में लड़ेंगे। पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी कोटे के बाहर भी आरक्षण दिया जा सकता है। तमिलनाडु में लोगों को इसी संविधान के तहत 69 फीसदी आरक्षण मिला है। पसमांदा मुसलमानों को भी आरक्षण इसी फॉर्मूले के तहत दिया जा सकता है, लेकिन कांग्रेस आरक्षण की सीमा पचास फीसदी से आगे नहीं बढ़ाना चाहती। इन समस्याओं का एक ही समाधान है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का फॉर्मूला लागू किया जाए। 

yadavkaushalendra@yahoo.in

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