सोमवार, 4 अप्रैल 2011

एकबार नहीं हज़ार बार धोखा !

डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल भारतीय राजनिति की विडम्बना कहें या इस देश कि स्मिता के साथ मजाक.
यह सब क्यों हो रहा है. यह मेरी या किसी के समझ में क्यों नहीं आ रहा है इसका कारण आसान सा है जिसे समझाने के लिए जिस साधन की जरुरत है दरअसल उसी का अभाव है पिछड़ी जातिओं में . यह अभाव कई रूपों में नज़र आता है, जिसे समय समय पर पूरा करने के लिए कई प्रकार के आन्दोलन किये जाते हैं और ये आन्दोलन उनके लिए और ताकत दे देते हैं जो इन सारे कारणों के लिए जिम्मेदार हैं.
पिछले दिनों एक ऐसा हीआन्दोलन पिछड़ी जाति में शरीक किये जाने के लिए जाटों ने किया है, बहुत ही सलीके से पहले इन्हें राज्यों की पिछड़ी जाति में शरीक किया गया और अब इनसे मांग करवाई जा रही है की ये केंद्र में पिछड़ी जातियों में शरीक कर लिए जाएँ. अब यहाँ पर इस आन्दोलन का औचित्य देखने योग्य है. जाट कहीं से पिछड़ा नहीं है पर उसे पिछड़ों में धकेलने के दो कारण स्पष्ट तौर पर नज़र आते हैं -
१.यह देश के सारे प्रदेशों में नहीं है, दिल्ली के समीपवर्ती प्रान्तों में ही यह रहता है, हरियाणा प्रान्त की यह सबसे अधिक आबादी और शक्तिशाली, आर्थिक रूप से संपन्न जाति है . 
२. इसके अपने शैक्षिक संसथान बहुतायत में हैं, जिसके कारण पुरुष ही नहीं इनकी महिलाएं शिक्षित हैं. इनकी वजह से यह जाति किसी भी तरह से पिछड़ी नहीं है. 
यही महत्त्व पूर्ण है की ये लम्बे समय से सरकारी सेवाओं  में पर्याप्त मात्रा में हैं जबकि पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं, इनके आने से वह स्वतः रूक जाएँगी हर जगह 'आरक्षण' के नाम पर इन्हें रखा जायेगा क्योंकि यह मूलतः आरक्षण बिरोधी रहे हैं.
इस योजना की समर्थक 'दलितों' की तथाकथित शुभ चिन्तक एक नेत्री जाटों को पिछड़ी जातियों में आरक्षण का समर्थन कर रही हैं जबकि उनके साथ पिछड़ों की अन्य अनेक जातियां दूर तक इन सेवाओं में नज़र नहीं आती हैं जो राजनितिक रूप से उनके साथ जुडी हुयी हैं , पिछड़ों के तथाकथित नेताओं की तो बात ही निराली है 'पिछड़ों के हित के सिवा' उनसे किसी भी तरह का गठबंधन और बयां दिलवा या करवा लो .
सामाजिक बदलाव के रास्ते जटिलतम हैं उनके परिवर्तन की परिकल्पना करना आसान नहीं हैं, इस आन्दोलन के प्रणेताओं ने सोचा तो यही रहा होगा की आगे आने वाली उनकी संततियों की रह आसान हो जाएगी सामाजिक बदलाव के आन्दोलन खड़े करने से पर हो तो उससे उलट ही रहा है, देश के भाग्य विधाता मोटी सी बात क्यों नहीं समझ पा रहे  हैं? या जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं . 
अगड़ों की बहुलता के कारण सामाजिक सन्दर्भ उतने दूषित नहीं होते जितने पिछड़ों की समय समय की चुप्पी के कारण कमजोर पड़ते है. इसी कमजोरी को मज़बूत करने के लिए ये नए समीकरण गढ़े जा रहे हैं. 
(क्रमश:...)     


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

जाट आन्दोलन और भारतीय राजनीतिकों को नियति



 पिछड़ी जातियों के दुश्मनों के रूप में नए नए गठबंधन जो पिछड़ों को पचा नहीं पा रहे हैं . जाट कभी पिछड़ा नहीं रहा है यह हमेशा से शक्तिशाली रहा है 'मंडल कमीशन का बिरोधी रहा है.'
डॉ.लाल रत्नाकर
 (अखबारों की कतरनें) 
जाट आंदोलन पर केंद्र ने बुलाई बैठक
नई दिल्ली।
Story Update : Saturday, March 26, 2011    2:31 AM
आरक्षण की मांग को लेकर जाटों के जोर पकड़ते आंदोलन ने केंद्र की चिंता भी बढ़ा दी है। आंदोलन के चलते बने हालात से कैसे निपटा जाए केंद्र इस पर मंथन करने में जुट गया है, उसने इस मसले पर चर्चा के लिए शनिवार को उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों की बैठक भी बुलाई है। इस आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट पहले ही सरकारों को फटकार लगा चुके हैं।

जरूरी चीजों की आपूर्ति सुनिश्चित करें
सूत्रों ने बताया कि गृह सचिव जीके पिल्लई तीनों राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों के साथ राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा करेंगे। यह बैठक बृहस्पतिवार के सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के बाद बुलाई जा रही है, जिसमें उसने राज्य सरकारों से कहा था कि वे दिल्ली के लिए पानी, दूध, सब्जियों आदि जरूरी चीजों की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करें। पिल्लई बैठक में सुरक्षा के हालात और राज्यों की जरूरतों का जायजा भी लेंगे। ऐसी रणनीति बनाने की कवायद भी होगी जिससे जाट आंदोलन से टे्रन और सड़क यातायात बाधित नहीं हो और न ही जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति पर असर पड़े।

टे्रन आवागमन प्रभावित हो रहा
मालूम हो कि गृह मंत्री पी चिदंबरम और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक के साथ जाटों की दो दौर की बातचीत में कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पाया था। उत्तर प्रदेश के काफूरपुर में तो जाटों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद रेलवे ट्रैक खाली कर दिया था, लेकिन हरियाणा में अभी भी वह कई जगह ट्रैक पर डटे हुए हैं। इससे टे्रन आवागमन प्रभावित हो रहा है। गौरतलब है कि पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट भी हरियाणा सरकार को तत्काल रेलवे ट्रैक खाली कराने का आदेश दे चुका है, जिससे टे्रनों की आवाजाही सामान्य हो सके।
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मायावती ने जाट आरक्षण का समर्थन किया
लखनऊ।
Story Update : Thursday, March 10, 2011    3:37 PM
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने जाटों की केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण की मांग का समर्थन करते हुए उनसे अपील की है कि वे राज्य (उत्तर प्रदेश) में कोई ऐसा काम न करें, जिससे आम जनता को असुविधा हो।

लखनऊ में गुरुवार को एक संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए मायावती ने कहा कि मैं पहले भी इस मुद्दे पर स्थिति स्पष्ट कर चुकी हूं, लेकिन मैं एक बार फिर से दोहराना चाहती हूं कि हमारी पार्टी जाटों की इस मांग का पुरजोर समर्थन करती है, लेकिन उनकी आरक्षण सम्बंधी इस मांग पर फैसला लेने में केंद्र सरकार ही सक्षम है। ऐसे में जाट समुदाय के लोग दिल्ली जाकर अनुशासित तरीके से केंद्र सरकार के सामने अपनी मांग रखें।

आरक्षण की मांग को लेकर अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष सिमति के बैनर तले जाट समुदाय के लोगों के आंदोलन का आज छठवां दिन है। जाट आंदोलन की आग अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ हिरयाणा में भी पहुंच गई है। बीते दिनों से अमरोहा के काफूरपुर रेलवे स्टेशन के पास जाट आंदोलनकारी रेलमार्ग को अवरुद्ध करके दिल्ली-लखनऊ रेलमार्ग को ठप्प किये हुए हैं, जिससे रेल यातायात बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। जहां 20 से ज्यादा रेलगाड़ियां रद्द करनी पड़ी हैं, वहीं करीब 15 के मार्ग बदलकर उन्हें दूसरे मार्गों से चलाया जा रहा है।

बसपा प्रमुख ने रेलमार्ग पर कब्जा किये हुए आंदोलनकारी जाट समुदाय के लोगों से अपील करते हुए कहा कि वे उ?ार प्रदेश में कोई ऐसा काम न करें, जिससे आम जनता को कोई नुकसान या असुविधा हो। इस बीच अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है कि अगर जल्द उनकी मांगें नहीं मानी गईं, तो वे पूरे उत्तर भारत में रेलमार्गों को जाम कर देंगे।
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राजधानी पहुंची जाट आंदोलन की आग
नई दिल्ली।
Story Update : Friday, March 11, 2011    3:05 AM
जाट आंदोलन की आग बृहस्पतिवार को दिल्ली तक पहुंच गई। आरक्षण की मांग को लेकर जाट समुदाय ने उग्र प्रदर्शन कर गाजीपुर में राष्ट्रीय राजमार्ग-24 को करीब एक घंटे तक बंद रखा। प्रदर्शनकारियों ने करीब आधा दर्जन कारों के शीशे तोड़े और सड़क पर टायर रखकर आग लगा दी। भीड़ ने एमसीडी टोल टैक्स बूथ पर तोड़फोड़ कर आग लगाने का प्रयास किया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को समझा-बुझाकर जाम खुलवाया। पूर्वी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के मुताबिक उन्हें मामले की सूचना नहीं दी गई थी। मामले की जांच की जा रही है। अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के राष्ट्रीय महासचिव सतपाल के नेतृत्व में दोपहर 1.30 बजे प्रदर्शनकारियों ने गाजीपुर टोल टैक्स के नजदीक हंगामा शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने नारेबाजी करते हुए एनएच-24 को जाम कर दिया। इस दौरान इन लोगों ने टायरों में आग लगा दी और कई गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए। बाद में भीड़ एमसीडी टोल टैक्स के बूथ पर पहुंची और तोड़फोड़ शुरू कर दी।
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जाट नेताओं की केंद्र से बातचीत बेनतीजा
नई दिल्ली।
Story Update : Sunday, March 20, 2011    1:05 AM
आरक्षण के मुद्दे पर केंद्र सरकार और जाट नेताओं की दूसरे दौर की बातचीत किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। जाट नेताओं ने अपनी मांग मानने तक आंदोलन समाप्त करने से साफ इनकार कर दिया है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक के साथ दिल्ली बातचीत करने आए जाट नेताओं ने साफ कर दिया कि सरकार की ओर से आरक्षण की मांग को मानने की समय सीमा घोषित करने के बाद ही आंदोलन खत्म करने का फैसला होगा। लेकिन सरकार ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जता दी है।

सरकार बताएं मांग कब तक मानी जाएगी
नार्थ ब्लॉक में शनिवार को चिदंबरम और वासनिक के साथ अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेता यशपाल मलिक की अगुवाई में आए प्रतिनिधिमंडल की लगभग डेढ़ घंटे तक चली बैठक में कोई समाधान नहीं निकल पाया। जाट नेताओं ने दो टूक कह दिया कि सरकार को पहले यह बताना होगा कि उनकी आरक्षण की मांग कब तक मानी जाएगी। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद समिति ने लोगों से रेलवे ट्रैक खाली करने को कह दिया है। हालांकि अभी कई जगह लोग रेलवे ट्रैक पर डटे हैं। मलिक ने भरोसा दिया कि लोग अब रेलों के संचालन में बाधा भी नहीं डालेंगे, लेकिन आरक्षण को लेकर आंदोलन दूसरे रूप में जारी रहेगा।

समय सीमा बता पाना संभव नहीं
दूसरी तरफ चिदंबरम ने जाट नेताओं से कहा कि उनकी मांग पहले ही पिछड़ा वर्ग आयोग को भेज दी गई है और आयोग इस मांग पर विचार कर रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार के लिए इस मांग को पूरा करने की समय सीमा बता पाना संभव नहीं है। उन्होंने जाट नेताओं से आंदोलन खत्म करने का आग्रह भी किया। वहीं, जाट नेताओं ने कहा कि वे समिति की कोर कमेटी सामने इस बैठक के नतीजे रखेंगे और फिर आंदोलन को लेकर अगला कदम उठाया जाएगा। इससे पहले 16 मार्च को भी नार्थ ब्लॉक में इसी मसले पर बैठक हुई थी। तब मलिक ने बैठक के बाद आंदोलन खत्म करने के संकेत दिए थे, लेकिन आंदोलन खत्म नहीं हुआ।
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जाट आंदोलन पर गृह मंत्रालय की बैठक आज
नई दिल्ली।
Story Update : Saturday, March 19, 2011    2:24 AM
इलाहाबाद हाईकोर्ट के केंद्र व यूपी के अधिकारियों को रेल व सड़क यातायात बहाल करने के लिए कदम उठाने के दिए आदेश के बाद गृह मंत्रालय सक्रिय हो गया है। मंत्रालय ने जाट आंदोलन को लेकर शनिवार को केंद्रीय अर्द्घसैनिक बल और रेलवे अधिकारियों की बैठक बुलाई है। हाईकोर्ट के आदेश के बाद केंद्र भी राज्य सरकार से आंदोलन रोकने को लेकर उचित कदम उठाने के लिए कह सकता है।

गृह मंत्रालय द्वारा जाट आंदोलन की मार झेल रहे सभी राज्यों को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए समुचित सुरक्षा मुहैया कराने का आश्वासन भी दिए जाने की उम्मीद है। वहीं, नार्थ ब्लॉक के बाद अब कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति (सीसीपीए) ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में आंदोलन से पैदा स्थिति पर विचार किया। इससे पहले हाल में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम व सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक इसी मुद्दे पर जाट नेताओं से विचार-विमर्श कर चुके थे।


मंगलवार, 22 मार्च 2011

जाटों को आरक्षण दिया जाय तो पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो .

डॉ.लाल रत्नाकर 
जाट आन्दोलन का उद्येश्य मूलतः आधारहीन है क्योंकि मंडल आयोग ने इन्हें पिछड़ी जाती में नहीं माना है और न ही यह मंडल आयोग की शर्तों के अनुसार पिछड़े हैं . इनका आन्दोलन दबाव की राजनीती के तहत बेवकूफी भरा है ,पिछड़ी जातियों के उत्थान हेतु दिए जा रहे अवसरों पर 'मनुवादियों' की राय पर यह इनका बेवकूफी भरा कदम है . यदि इनकी बात पर सरकार इन्हें पिछड़ों में शरीक कराती है तो मंडल का उद्येश्य ही समाप्त हो जायेगा.
आईये हम पिछड़े एकजुट होकर 'इनकी नाजायज़ मांग का विरोध करें'
और जाटों को आरक्षण दिया जाय तो पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो .
















टिप्पड़ियाँ-
जाटों को आरक्षण अवश्य दिया जाय लेकिन पिछड़ों में नहीं उनका कोटा अलग हो तथा उसके बाद आवाहन है बनिया और कायस्थों/खत्रियों को कि वे भी अपने लिए आरक्षण मांगे लेकिन उनका कोटा भी जाटों से अलग से मिले।
-उमराव सिंह जाटव

मंगलवार, 8 मार्च 2011

दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर आज छपा है, यहां नए शीर्षक के तहत पोस्ट किया जा रहा है।


नीतीश जी, सवर्ण आरक्षण लागू कीजिए, प्लीज़!

by Dilip Mandal on 07 मार्च 2011 को 20:56 बजे
(दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर आज छपा है, यहां नए शीर्षक के तहत पोस्ट किया जा रहा है।)

दिलीप मंडल

नीतीश कुमार की सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। किसी भी राज्य में पहली बार सवर्ण या ऊंची कही जाने वाली जातियों के उत्थान के लिए आयोग बना है। यह आयोग इसलिए बनाया गया है ताकि सवर्णों के विकास के लिए उपाय सुझाए जाएं। वैसे तो, विकास की तमाम योजनाओं में सवर्णों की पहले से ही हिस्सेदारी है। नरेगा से लेकर जनवितरण प्रणाली और समेकित ग्रामीण विकास से लेकर सर्वशिक्षा और विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना तक कहीं भी उनकी हिस्सेदारी में बाधा नहीं है। इस योजनाओं में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए किसी आयोग की जरूरत नहीं है।

दरअसल उनकी एक ही दिक्कत है कि उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण नहीं मिलता। सवर्णों की शिकायत है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में दिए जा रहे आरक्षण की वजह से उनका विकास रुक गया है। उनकी तरक्की के मौके कम हो गए हैं। उनके बच्चों को दाखिला नहीं मिलता, नौकरियों की तलाश में वे मारे-मारे फिरते हैं। ज्यादा नाराज होने पर वे आरक्षण के खिलाफ आत्मदाह तक कर लेते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है। सवर्णों की इस शिकायत को दूर करने के लिए ही बिहार में सवर्ण आयोग का गठन किया गया है।  

अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सवर्णों को आरक्षण देना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है और इसमें देर नहीं करनी चाहिए। ऐसा करके बिहार देश के सामने एक मिसाल कायम करेगा। बिहार को यह गौरव नीतीश कुमार के नेतृत्व में मिले, इससे बेहतर और क्या हो सकता है। लोगों ने उनके नेतृत्व वाले गठबंधन को इतने भारी बहुमत से जिताया है, अब नीतीश कुमार पर जिम्मेदारी है कि न सिर्फ बिहार के सभी समुदायों का ध्यान रखें बल्कि देश के सामने ऐसी मिसाल भी कायम करें जिसे बाकी राज्य भी अपनाएं। सवर्णों के हितों की रक्षा करना और उनके साथ हो रहे अन्याय को दूर करने की पहल करना उनका कर्तव्य भी है। बिहार चुनाव के जनादेश का संदेश भी यही है। इसलिए सवर्ण आयोग गठित करने की नीतीश सरकार की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए। अगले कदम के रूप में आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सवर्णों को आरक्षण देने के लिए कानून बनाने की तैयारी करनी चाहिए। सवर्ण आयोग का गठन एक खास सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए किया गया है। नीतीश कुमार ने ऐसा करके लोगों की महत्वाकांक्षाएं भी जगा दी हैं।

भारत के संविधान में सवर्ण या ऊंची जाति नाम की किसी श्रेणी का उल्लेख तक नहीं है। विशेष अवसर का सिद्धांत अनुसूचित जाति, जनजाति और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भी कुछ विशेष प्रावधान हैं। लेकिन सवर्णों के लिए किसी तरह का प्रावधान नहीं है। बिहार सरकार को विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार के पास भेजना चाहिए और संविधान में संशोधन कर सवर्णों के लिए आरक्षण का प्रावधान जोड़ने की मांग करनी चहिए।    

लेकिन सवाल उठता है कि यह आरक्षण किस तरह लागू किया जाए?  देश में जातिवार जनगणना नहीं होती। बिहार के भी जातिवार आंकड़े, इस वजह से उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार में सवर्णों की आबादी 10 फीसदी के आसपास होगी। अगर किसी को इस अनुमान पर संदेह है तो उसे तत्काल जातिवार जनगणना के लिए आंदोलन शुरू करना चाहिए। जातिवार जनगणना के बाद प्रामाणिक आंकड़े होंगे तो हर समुदाय के विकास के लिए योजनाएं बनाने में आसानी होगी। बहरहाल जब तक जातिवार जनगणना न हो जाए, तब तक 1931 के आंकड़ों से काम चलाया जा सकता है। इन आंकड़ों से अगर बिहार में सवर्णों की आबादी 10 फीसदी साबित होती है तो नीतीश सरकार को विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर सवर्णों के लिए शिक्षा, नौकरियों, ठेकों, सप्लाई आदि में 10 फीसदी आरक्षण लागू कर देना चाहिए। चूंकि नीतीश कुमार को लगता है कि बिहार में सवर्णों की हालत ठीक नहीं है और उनके लिए विशेष उपाय किए जाने चाहिए, तो उन्हें सवर्णों को आरक्षण देने का साहस दिखाना चाहिए। जनादेश का सम्मान करने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।

सुप्रीम कोर्ट में बालाजी केस में फैसले के बाद ओबीसी आरक्षण देश में जिस तरह लागू होता है, उसी तरह का फॉर्मूला सवर्णों के लिए लागू करना नीतीश कुमार को अन्यायपूर्ण लग सकता है। बालाजी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से कम ही रहना चाहिए। इसलिए ओबीसी आरक्षण लागू हुआ तो हालांकि आबादी में उनका हिस्सा 52 फीसदी माना गया, लेकिन आरक्षण 27 फीसदी दिया गया क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजाति को मिलाकर पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण लागू था। ओबीसी को 27 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने से 50 फीसदी की सीमा टूट जाती। इसलिए उन्हें आबादी से लगभग आधा आरक्षण मिला।

लेकिन नीतीश कुमार को सवर्णों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। 52 फीसदी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण देना एक बात है लेकिन 10 फीसदी सवर्ण आबादी के लिए 5 फीसदी आरक्षण देना सरासर अन्याय होगा। उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए।  नीतीश कुमार को विधानसभा में प्रचंड बहुमत का समर्थन हासिल है। उन्हें विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र में भेजना चाहिए कि बिहार विधानसभा ने सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का कानून पारित किया है। इसके बाद बचेंगी 90 फीसदी सीटें। इसलिए एक और कानून पारित कर बाकी 90 फीसदी सीटें, ठेके, सप्लाई के टेंडर आदि का बंटवारा संविधानसम्मत सामाजिक समूहों के बीच आबादी के अनुपात में करने का फैसला भी किया जाए।

संविधान में जिन समूहों को मान्यता प्राप्त है वे हैं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक और शैणक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग। यानी बाकी 90 फीसदी सीटें और अवसर इन तीन समुदायों को मिलना चाहिए। इन समूहों के बीच बंटवारे लिए जाति के आंकड़ों की जरूरत होगी। संबंधित आंकड़ों के लिए सरकार या तो जनगणना करा ले या फिर किसी समाजशास्त्री के नेतृत्व में एक आयोग बनाकर तीन महीने के अंदर सर्वे कराकर आंकड़े जुटा ले। बिहार सरकार केंद्र सरकार से यह कह सकती है कि जनगणना आयुक्त का कार्यालय बिहार में जातिवार जनगणना कराए। 

राज्य विधानसभा को यह भी प्रस्ताव पारित करना चाहिए कि जिस तरह तमिलनाडु 69% आरक्षण देता है, उसी तरह बिहार भी सीमा से ज्यादा आरक्षण देगा। इस बारे में संसद में सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि एक कानून बनाकर बिहार के इस प्रावधान को संविधान की नवीं अनुसूचि में डाला जाए। इस तरह न्यायपालिकाएं न्याय करने की नीतीश सरकार की कोशिशों में अड़ंगा न डाल पाएंगी। ऐसा करना बेहद जरूरी है क्योंकि मामला अदालत में फंस गया तो सुशासन का एजेंडा अधूरा रह जाएगा। आरक्षण को इस तरह लागू करने से हर समुदाय को उसका वाजिब हक मिलेगा और जातियों के बीच भाईचारा बढ़ेगा। जाति संबंधी कई विवाद इस तरह हल हो जाएंगे और सामाजिक समरसता आएगी। पिछड़ों के अंदर अनुसूचि एक और दो के बीच भी अवसरों को विभाजन हो। दलितों और महादलितों के बीच विभाजन की बात नीतीश भी अब नहीं कर रहे हैं तो इस विभाजन को फिलहाल टाल दिया जाए और दलितों को एक समूह माना जाए।

मुसलमानों में भी अशराफ और पसमांदा के बीच आबादी के हिसाब से अवसरों को बंटवारा किया जाए। इस तरह कई सवाल जो राजनीतिक ताकत और दादागिरी से तय होते हैं, उन्हें हल करने का एक वैज्ञानिक तरीका मिल जाएगा। अभी तक आरक्षण संबंधी विवादों को सड़कों पर हल करने की कोशिशें होती रही हैं। इस मामले में एक नए मॉडल की नितांत आवश्यकता है। नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग बनाकर एक नया रास्ता निकाला है। इस पर अब पूरे देश की नजर होगी। साथ ही इस बात पर भी नजर होगी कि सवर्ण आयोग के अगले कदम के रूप में नीतीश कुमार क्या करते हैं। यह बहुत जरूरी है कि सवर्ण आयोग और सवर्णों और बाकी समुदाय को आबादी के अनुपात में आरक्षण के मामले में राजनीतिक इच्छा शक्ति में किसी तरह की कमी नहीं होनी चाहिए। 

बिहार का यह मॉडल पूरे देश को रास्ता दिखा सकता है। आरक्षण और अवसरों के बंटवारे को लेकर देश भर में उत्पात होते रहते हैं। अगर बिहार ने एक ऐसा फॉर्मूला दे दिया, जिससे सामाजिक समरसता का मार्ग खुले, तो बाकी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार भी इस पर अमल कर सकती है। जाट और गुर्जरों के आरक्षण संबंधी आंदोलनों का भी इस फॉर्मूले से समाधान निकल सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इस तरह सवर्णों की अरसे से चली आ रही यह शिकायत दूर हो जाएगी कि आरक्षण की वजह से उनके साथ अन्याय हो रहा है।

एक आदर्श लोकतंत्र में किसी भी समुदाय के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। सवर्णों को जब दुर्बल समुदाय मान लिया गया है और उनके लिए आयोग गठित कर दिया गया है तो सवर्णों के लिए विशेष अवसर देने में किसी तरह का संकोच नहीं करना चाहिए। किसी भी दुर्बल समुदाय को हक से वंचित रखना अच्छी बात नहीं है। सवर्णों को आरक्षण के साथ अगर बाकी जाति समूहों को उनकी आबादी अनुपात में अवसर मिल जाएंगे तो फिर किसी को भी शिकायत करने का मौका नहीं मिलगा। इस तरह हर जाति समूह को विकास करने  का मौका मिलेगा। इससे बेहतर सुशासन और क्या हो सकता है?

नीतीश कुमार के सामने एक ऐतिहासिक मौका है। बिहार के मतदाताओं ने उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी सौपी है। सवर्णों को आरक्षण देने के साथ ही, सभी सामाजिक समूहों को आबादी के अनुपात में आरक्षण देकर वे बिहार के सामाजिक सवालों को हल करने के साथ ही देश को भी दिशा दिखा सकते हैं। उन्हें यह अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। बिहार के जनादेश का वास्तविक अर्थों में सम्मान इसी तरह किया जा सकता है।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पुस्‍तक अंश : मीडिया, माफिया और आरक्षण


सरोकार से साभार-

पुस्‍तक अंश : मीडिया, माफिया और आरक्षण

मीडिया के तमाम विधाओं में दशकों तक हस्‍ताक्षर रहे दिलीप मंडल जी आजकल भारतीय जनसंचार संस्‍थान में अध्‍यापन कर रहे हैं. पत्रकारिता को जारी है ही. हाल ही में राधाकृष्ण प्रकाशन से उनकी किताब “मीडिया का अंडरवर्ल्ड: पेड न्यूज, कॉरपोरेट और लोकतंत्र” आयी है. किताब को आए ज्‍़यादा दिन नहीं हुए पर गहमागहमी शुरू हो गयी है. ख़ास कर मीडिया घरानों के अन्‍दर तो भयानक हड़कंप मची है. इसमें भारतीय मीडिया के बदलते स्‍वरूप की अच्‍छी पड़ताल की गयी है. लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाला मीडिया किस प्रकार कॉरपोरेटिया गया है, कैसे उसकी जद में जातिवाद कुंडली मारे बैठा है, पैसे लेकर ख़बर छपाई का जो नया दौर शुरू हुआ है : दिलीपजी की किताब मीडिया के इन लक्ष्‍णों का बड़ी सफ़ाई से खुलासा करती  है.  पेश है उनकी किताब का एक अंश. संभव हुआ तो आगे भी सरोकार के पाठकों के लिए और भी किताबों के अंश साझा करने का प्रयास किया जाएगा.
मीडिया को नियंत्रित करने और सहमति का निर्माण करनेवाले पहलुओं- सरकारी दबाव और प्रलोभन तथा बाजार और विज्ञापन के असर- की विस्तार से चर्चा देसी और उससे कई गुणा ज्यादा विदेशी विश्लेषकों ने की है। भारतीय परंपरा से एक जुमले को उधार लेकर कह सकते हैं कि मीडिया की कई विकृतियों और विचलनों की व्याख्या साम-दाम-दंड-भेद के जरिए की जा सकती है। मीडिया बिक जाता है, मीडिया पट जाता है, मीडिया डर जाता है, मीडिया कई घपले इसलिए करता है कि उनमें एक दूसरे से आगे निकलने की रेस लगी है। लेकिन एक और पहलू है जो मीडिया के विचलन का कारण बनता है। इसे आप सहमति का षड्यंत्र कह सकते हैं। इसका विशिष्ट भारतीय सामाजिक संदर्भ है।
सरकार भय दिखाकर या रेगुलेट करके या कॉरपोरेट कंपनियां पैसे के जोर पर जो हासिल नहीं कर पाती हैं, वो सब मीडिया कई बार खुद ही कर देता है। मिसाल के तौर पर ये पहेली किसी को परेशान कर सकती है कि पूरा मीडिया आंख मूंदकर आर्थिक उदारीकरण का समर्थन क्यों करता है। क्या इसके लिए उसे कोई लालच देता है या फिर उस पर कोई दबाव है? ये दोनों ही कारण यहां लागू नहीं होते। मीडिया आर्थिक उदारीकरण का समर्थन इसलिए करता है क्योंकि ये उसके कारोबारी हित में है और इस सवाल पर मीडिया में आम सहमति है। मीडिया व्यवसाय का हित उदारीकरण और दूसरी सरकारी नीतियों के साथ इस तरह जुड़ गया है कि वैकल्पिक नीतियों के लिए मीडिया में गुंजाइश खत्म सी हो गई है। मिसाल के तौर पर, ‘हिंदुस्तान मीडिया वेंचर लिमिटेड’ ने अपने ड्राफ्ट रेड हेयरिंग प्रोस्पेक्टस में कहा है कि “भारत में आर्थिक उदारीकरण और डिरेगुलेशन की नीतियां बदलती हैं तो इसका असर अर्थव्यवस्था और आर्थिक हालात पर और खासकर हमारे कारोबार पर हो सकता है।” इससे समझा जा सकता है कि मीडिया में आर्थिक नीतियों को लेकर आम सहमति क्यों है।
आम सहमति के षड्यंत्र को सूत्र वाक्यों में कहने की जगह वास्तविक उदाहरण के जरिए कहना ज्यादा उपयोगी होगा, क्योंकि आम सहमति की कुछ प्रवृत्तियां विशिष्ट तौर पर भारतीय हैं और मीडिया विमर्श के पश्चिमी मॉडल उन्हें समझने में पूरी तरह कारगर नहीं हैं।
आरक्षण और मीडिया
28 मई 2006, दिन रविवार- एक दिन पहले यानी शनिवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में आरक्षण विरोधियों की एक रैली हुई थी। आरक्षणविरोधी आंदोलन के दौरान हुई ये सबसे बड़ी रैली थी, जिसमें दिल्ली के साथ ही देश के कई शहरों से छात्र और युवक आए थे। केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी को 27 फीसदी कोटा दिए जाने के बाद देश भर के कैंपसों में छात्रों का एक समूह आंदोलन कर रहा था। आंदोलनकारियों ने यूथ फॉर इक्वैलिटी नाम का एक संगठन बनाया था। रामलीला मैदान की रैली यूथ फॉर इक्वैलिटी ने ही आयोजित की थी। रविवार को दिल्ली से प्रकाशित लगभग सभी अखबारों में इस रैली और आरक्षण विरोधी आंदोलन की खबर पहले पन्ने पर थी।
(वैसे तो कोई कह सकता है कि इस तरह का कंटेंट एनालिसिस करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि रिजर्वेशन के सवाल पर भारतीय मीडिया की राय जगजाहिर है। देश का मीडिया आरक्षण के खिलाफ है, देश के दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को लेकर मीडिया की एक खास तरह की राय है जो बार-बार सामने आई है और इस बारे में पहले भी कई अध्ययन हुए हैं और सबमें एक ही तरह की बात सामने आई है। ऐसे में ये बताने के लिए किसी तरह का अध्ययन क्यों किया जाना चाहिए कि मंडल-2 के समय भी मीडिया आरक्षण के खिलाफ था। हां, इसमें अगर कोई विचलन हो या नई बात हो तभी इस तरह के कंटेंट एनालिसिस किया जाना चाहिए। लेकिन यहां पर इस अध्ययन को इस मकसद से शामिल किया जा रहा है कि आम सहमति के षड्यंत्र का खुलासा भाषा, कंटेंट-टेक्सट और फोटो, और साज-सज्जा के संदर्भ में किया जा सके और इस पुस्तक की मूल स्थापना, कि मीडिया का पेड हो जाना इसकी अकेली समस्या नहीं है, ये एक बड़ी प्रवृत्ति का एक हिस्सा भर है। – लेखक)
सबसे पहले देखिए कि उस रविवार को अखबारों ने पहल पन्ने पर इस बारे में सबसे बड़ी खबर के लिए किस तरह के शीर्षक और उपशीर्षक छापे।
  1. ANTI-RESERVATION STIR GETS FIERY/Self-Immolation attempted In Cuttack, Delhi-Times of India
  2. Mandal-1 re-run/Medicos to continue stir, hold massive rally- The Statesman
  3. Hope and Despair/Docs still despondent- Hindustan Times
  4. Immolation bid at anti-quota rally-The Tribune
  5. Immolation bids at Delhi. Cuttack/Delhi youth gets 40% burns, cuttack student in ICU/Maha rally in Capital, Docs to intensify stir-The Pioneer
  6. RAGE BURNS HEARTS, LIVES/Anti quota still on, youth who set self in fire alive- The Asian Age
  7. PRESCRIPTION READY/Six new AIIMS before ‘08/MBBS seats doubled to 2400- Indian Express
  8. Tension as rally ends in immolation bid- Express Newsline
  9. Centre orders increase in medical seats/students seek written assurance on this, decide to continue stir- The Hindu
  10. ‘Increase Seats by 55%’/Nine Central Medical Institutes told to follow order in next academic year- Economic Times
  11. आत्मदाह के प्रयास से जाग उठा अतीत/दिल्ली में रहने वाले बिहार के युवक ने लगाई खुद को आग, कटक में एक डॉक्टर ने भी किया आत्मदाह का प्रयास
  12. महारैली में छात्र ने खुद को लगाई आग, आरक्षण विरोधी सरकार पर बरसे- पंजाब केसरी
  13. आरक्षण विरोधियों ने निकाली रैली/ अभी जारी रहेगा मेडिकल छात्रों का आंदोलन-हिंदुस्तान
  14. आरक्षण: दो ने किया आत्मदाह का प्रयास/ गुटखा बेचता है दिल्ली में जलने वाला युवक, उड़ीसा में छात्र को रोक लिया गया
  15. आरक्षण की आग: आत्मदाह पर उतरे आंदोलनकारी/दिल्ली में युवक और कटक में डॉक्टर ने जान देने का प्रयास किया-अमर उजाला
  16. आरक्षण के विरोध में आत्मदाह की कोशिश/प्रधानमंत्री से बातचीत के बाद आंदोलनकारी दुविधा में- दैनिक भास्कर
ऊपर जिन अखबारों के पहले पन्ने की आरक्षण विरोधी आंदोलन से जुड़ी हेडलाइन दी गई है, वो एक प्रतिनिधि सैंपल है, हालांकि इस लिस्ट में सारे अखबार शामिल नहीं है। ऊपर दिए गए शीर्षकों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि सिर्फ तीन अखबारों द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस और इकॉनोमिक टाइम्स न दिल्ली की रैली या कटक में कथित आत्मदाह के प्रयास की तुलना में इस आंदोलन से जुड़ी सरकारी घोषणा (मेडिकल में सीटें बढ़ाई जाएंगी) को ज्यादा महत्वपूर्ण माना है। 12 (एक्सप्रेस न्यूजलाइन की हेडलाइन आत्मदाह की बात करती है और एक्सप्रेस से अलग इसे भी जोड़ लें तो 13) अखबारों की हेडलाइन में आत्मदाह का जिक्र किसी न किसी रूप में आया है। दैनिक हिंदुस्तान ने दिल्ली में युवक के जलने को आंदोलन से जोड़कर नहीं देखा है लेकिन कटक की घटना को आंदोलन का हिस्सा माना है। दिल्ली में जलने वाले युवक ऋषि गुप्ता को तो अखबारों ने छात्र तक बता दिया। बाकी अखबारों में किसी ने उसे आंदोलनकारी बताया है तो किसी ने आरक्षण का विरोधी। जिस अखबार ने अपने सब हेडिंग में उसे गुटखा बेचने वाला बताया है, उसने भी अपने शीर्षक में उसके जलने के आरक्षण विरोध से जोड़कर लिखा है।
प्रेस काउंसिल का दिशानिर्देश है और पत्रकारिता के लिहाज़ से यही नैतिकता और ईमानदारी है कि जो बात ख़बर में न हो उसे हेडलाइन में न लिया जाए। तो क्या इस कसौटी पर ये अखबार सही उतरते हैं। दिल्ली में जिस युवक ऋषि गुप्ता के जलने को आंदोलन के दौरान आत्मदाह, छात्र द्वारा आत्मदाह का प्रयास, मंडल वन की वापसी आदि कहा गया उसके बारे में देखिए कि खुद अखबार क्या कहते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने डीसीपी, सेंट्रल नीरज ठाकुर के हवाले से कहा है कि अब तक किसी को भी नहीं मालूम कि उसने ऐसा क्यों किया है। गुप्ता ने पांच साल पहले बिहार से 12वीं की परीक्षा पास की थी और दिल्ली में वो गुटखा बेचता है। वो खतरे से बाहर है। अखबार के पेज-7 में एक खबर है –Agitators say they were not aware of immolation plans. खबर में एलएनजेपी अस्पताल की डॉक्टर नेहा, जो यूथ फॉर इक्वैलिटी की सदस्य हैं, कहती हैं कि दिल्ली में जिस ऋषि गुप्ता ने खुद को आग लगा ली, वो रैली में शामिल नहीं था। और वो यूथ फॉर इक्वैलिटी का सदस्य भी नहीं है।
स्टेट्समैन लिखता है-डीसीपी सेंट्रल नीरज ठाकुर ने कहा कि 23 साल का ऋषि गुप्ता बिहार का रहने वाला है और इन दिनों शहादरा इलाके में रहता है। वो सिगरेट और गुटखा बेचता है। ठाकुर ने ये भी बताया कि उसने रामलीला मैदान से बाहर गुरु नानक चौक पर खुद पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। जिस समय वो जला उस समय पुलिस वहां मौजूद नहीं थी। मौके पर मौजूद एक डॉक्टर रहे ने कहा कि ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में आरक्षण दिए जाने के विरोध में चल रहे आंदोलन का ऋषि समर्थन करना चाहता था क्योंकि हो सकता है कि उसे भी आरक्षण की वजह से नुकसान उठाना पड़ा हो।
हिंदुस्तान टाइम्स ने पहले पेज की अपनी हेडलाइन में आत्मदाह की बात नहीं की है। खबर के अंदर ये ज़रूर लिखा है कि शहादरा के 24 साल के गुटखा विक्रेता ऋषि राज गुप्ता ने रैली मैदान के बाहर आत्मदाह करने का प्रयास किया। आंदोलनकारी डॉक्टरों ने स्पष्ट किया है कि गुप्ता के आत्मदाह का आंदोलन की उनकी पूरी योजना से कोई लेना-देना नहीं है। मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के सदस्य जितेंद्र सिंघला का कहना है कि ये आदमी हमारी रैली में शामिल नहीं था और हमें नहीं मालूम कि उनसे आत्मदाह की कोशिश क्यों की
द ट्रिब्यून ने लिखा है कि आत्मदाह की कोशिश करने वाले छात्र ऋषि रंजन ने रैली स्थल रामलीला मैदान में (ध्यान देने की बात है कि ये घटना रामलीला मैदान से बाहर गुरु नानक चौक पर हुई है) खुद को आग लगा ली, जबकि वहां मौजूद पुलिसवालों ने उसे रोकने की कोशिश की (ये बात भी अजीब है कि खुद डीसीपी कह रहे हैं कि जब ये घटाना हुई तब पुलिस वहां मौजूद नहीं थी)।
द पायोनियर ने भी डीसीपी नीरज ठाकुर के हवाले से ये बताया है कि ऋषि रंजन गुप्ता सड़क किनारे गुटखा बेचता है। इस अखबार का कहना है कि वो रैली में शामिल था (पायोनियर ने गुप्ता को आंदोलनकारी बताने के लिए किसी के उद्धरण का इस्तेमाल नहीं किया है, जबकि यूथ फॉर इक्वैलिटी और तमाम दूसरे संगठन दूसरे अखबारों को बता रहे थे कि गुप्ता आंदोलन में शामिल नहीं था)।
एशियन एज का शीर्षक पढ़कर ऐसा लगता है कि ऋषिराज गुप्ता के जलने का आरक्षण विरोधी आंदोलन से संबंध है, जबकि इसी खबर में पहले ही पैराग्राफ में डॉक्टर नेहा के हवाले ये कहा गया है कि गुप्ता आंदोलन का हिस्सा नहीं है, वो गुटखा बेचता है और छात्र नहीं है।
एक्सप्रेस न्यूज लाइन ने भी खबर में कहा है कि आत्मदाह की कोशिश करने वाला गुटखा विक्रेता है। यूथ फॉर इक्वैलिटी के नेताओं ने कहा है कि वो इस युवक को नहीं जानते। एक्सप्रेस ने लिखा है कि पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि कहीं उसे आत्मदाह करने के लिए उकसाया तो नहीं गया। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। एक्सप्रेस ने भी कहा है कि ये घटना रैली मैदान से बाहर हुई। एक्सप्रेस न्यूजलाइन में छपी एक खबर- Family says youth often took part in rallies में पुलिस के हवाले से कहा गया है कि ये परिवार भोलानाथ नगर में डॉक्टर एस के जैन के मकान में किराए पर रहता है और इस बात की जांच की जा रही है कि क्‍या उस डॉक्टर ने ऋषि को रैली में साथ चलने को कहा।
द हिंदू ने लिखा है कि एक युवक ने रैली मैदान से बाहर कथित रूप से आत्मदाह करने की कोशिश की। अखबार ने पुलिस के हवाले से कहा है कि वो छात्र नहीं है, पढ़ाई छोड़ चुका है और शहादरा में गुटखा बेचता है। रैली के आयोजकों ने भी इस घटना से खुद को अलग बताया है। ये संभवत: अकेला अखबार है जिसने पहले से ही ये नहीं मान लिया है कि गुप्ता का जलना आत्मदाह है। इसलिए अखबार ने आत्महत्या से पहले “कथित” शब्द का इस्तेमाल किया है।
दैनिक जागरण ने आधिकारिक सूत्रों का नाम लिए बगैर उनके हवाले से लिखा है कि “ऋषिरंजन गुप्ता बिहार का रहने वाला है और दिल्ली में पान मसाला बेचता है। वह भी रैली में शिरकत करने आया था। तभी उसने खुद को आग लगाने के बाद यह युवा यूथ फॉर इक्वैलिटी जिंदाबाद के नारे लगाता हुआ मैदान में घुस गया। स्नातक पास इस युवक के हाथ और चेहरा जला है।” अखबार ने पेज -2 पर एक संबंधित खबर अलग से छापी है, जिसका शीर्षक है –बेरोजगारी के दंश ने सीने में दफन आग सुलगा दी। इस खबर में लिखा गया है- ग्रेजुएशन की डिग्री और कंप्यूटर का कोर्स करने के बाद भी वह नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खाता रहा। अब शुरू हुई आरक्षण विरोध की रैली ने शायद उसके सीने में दफन आग को सुलगा दिया और वह रैली में पहुंच गया। संभवत: उसके अंदर की आग ने उसे इतना उद्वेलित कर दिया कि उसने आग लगा ली।
पंजाब केसरी ने तो शीर्षक में ही ऋषि गुप्ता को छात्र बता दिया है। खबर में लिखा है – सूत्रों से पता चला है कि छात्र महारैली में आंदोलनरत छात्रों को ये संदेश देना चाह रहा था कि हड़ताल और रैली से कुछ नहीं हुआ है, इसलिए वह मजबूरीवश आत्महत्या करना चाह रहा है। आरक्षण विरोधी मुहिम का ये पहला मामला है, जिसमें आत्महत्या का मामला प्रकाश में आया है।
दैनिक हिंदुस्तान ने दिल्ली में रैली मैदान के पास ऋषि गुप्ता के जलने को आरक्षण विरोधी आंदोलन से जोड़कर नहीं देखा है।
राष्ट्रीय सहारा अकेला अखबार है जिसने अपनी लीड खबर के उपशीर्षक में साफ किया है कि बगुप्ता छात्र नहीं है बल्कि वो गुटखा बेचता है। इस अखबार ने खबर मे भी आंदोलनकारियों के हवाले से कहा है कि गुप्ता के बारे में वे कुछ नहीं जानते जबकि डीसीपी नीरज ठाकुर ने इस अखबार को बताया कि छात्रों के आंदोलन से गुप्ता को कोई लेना-देना नहीं है। इसके बावजूद अखबार मे अपनी हेडलाइन में आरक्षण: दो ने किया आत्मदाह का प्रयास लिखा है।
अमर उजाला ने लिखा है कि- शायद आरक्षण विरोधियों के सब्र का बांध टूटने लगा है। इसके साथ ही लोगों को मंडल विरोधी आंदोलन का 1990-1991 का दौर फिर से याद आने लगा है तब राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह का प्रयास किया था। रैली में ( घटना मैदान से बाहर की है-लेखक) आत्मदाह करने वाला युवक ऋषिरंजन गुप्ता 40 प्रतिशत जल गया है और दिल्ली के लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में भर्ती है। वह रैली में आरक्षण विरोधी नारे भी लगा रहा था (जबकि आंदोलनकारी संगठन भी नहीं कह रहे हैं कि वो रैली में शामिल था-लेखक)।
दैनिक भास्कर ने हेडलाइन में लिखा है कि आरक्षण के विरोध में आत्मदाह की कोशिश। लेकिन खबर के पहले ही पैरा में लिखा है कि – दिल्ली में रामलीला मैदान में रिषि (अखबार के शब्द) नामक युवक ने आत्मदाह की कोशिश की। बाद में पता चला कि आरक्षण विरोधी नहीं, गुटखा वेंडर था।
ऋषि गुप्ता के जलने की घटना पर ज्यादातर अखबारों ने जिस तरह से शीर्षक लिखे हैं, उसमें एक पैटर्न साफ नजर आता है। ऋषि गुप्ता बिहार का है, ये पुलिस ने सभी अखबार वालों को बताया है और ये बात ज्यादातर रिपोर्ट में आई है। बिहार में गुप्ता उपनाम पिछड़ी जाति के लोग लगाते हैं, ये बात इतने अखबारों में मौजूद किसी को नहीं पता होगी, ये मान पाना थोड़ा कठिन है। ऋषि गुप्ता के पिता और भाई से बात करने के बाद ये जान पाना मुश्किल नहीं था कि ये परिवार हलवाई जाति का है और ये बिहार की अति पिछड़ा जाति है। क्या रिपोर्टरों के लिए ये जान पाना मुश्किल था। ऋषि लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में भर्ती था और ये अस्पताल रैली स्थल रामलीला मैदान से 500 मीटर की दूरी पर है। ऋषि के परिवार के लोग अस्पताल में उसके साथ थे और कुछ लोग बाहर भी थे। ऐसे में पत्रकारों ने अपना बुनियादी काम क्यों नहीं किया। क्या ये एक सामूहिक लापरवाही थी। या सामूहिक षड्यंत्र।
इसी खबर में एक और आत्मदाह की कोशिश की खबर है। ये घटना उड़ीसा के कटक में एससीबी मेडिकल कॉलेज की है। ज्यादातर अखबारों ने लिखा है कि पीजी के छात्र सुरेंद्र मोहंती ने खुद को आग लगा ली। मिसाल के तौर पर
टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहल पन्ने पर लिखा है कि आरक्षण का मुखर विरोधी मोहंती हॉस्टल से बाहर निकला और खुद पर मिट्टी का तेल डाल लिया। कोई कुछ करता इससे पहले ही उसने आग लगा ली। इसी आधार पर अखबार मे अपने उपशीर्षक में लिखा है कटक और दिल्ली में आत्मदाह की कोशिश। लेकिन इसी अखबार में पेज सात पर एक खबर दी गई है कि एससीबी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल आर आर मोहंती ने कहा है कि “उसे कोई बर्न इंजुरी नहीं है न ही उसने जहर खाया है। उसे आईसीयू में रखा गया है क्योंकि उसे सदमा (acute state of psychosis) पहुंचा है।”
हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा है कि एससीबी मेडिकल कॉलेज के छात्र सुरेंद्र मोहंती को उसके दोस्तों ने बचा लिया। लेकिन इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई है कि ये घटना आरक्षण विरोधी आंदोलन से संबंधित है या नहीं।
पायोनियर ये तो बताता है कि कटक में सुरेंद्र मोहंती को साथी आंदोलनकारियों ने जलने से बचा लिया और वो आईसीयू में है, लेकिन अखबार ने ये नहीं बताया है कि वो आईसीयू में क्यों है।
इंडियन एक्सप्रेस ने पेज तीन पर एक खबर में लिखा है कि आरक्षण विरोधी आंदोलनकारियों द्वारा दिल्ली और कटक में आत्महत्या की कोशिशों के बाद कांग्रेस के नेता सक्रिय हो गए हैं और कहा है कि इस समस्या का समाधान निकलने ही वाला है।
कटक की घटना के बारे में दैनिक जागरण ने लिखा है- उड़ीसा के कटक जिले में भी आरक्षण के विरोध में मेडिकल पोस्ट ग्रेजुएट के छात्र ने आत्मदाह का प्रयास किया। एससीबी मेडिकल कॉलेज के छात्र सुरेंद्र मोहंती ने इस समय आत्मदाह का प्रयास किया जब डॉक्टर कैंडिल लाइट मार्च की तैयारी कर रहे थे। मोहंती का इलाज कर रहे चिकित्सकों ने कहा है कि वह बिल्कुल नहीं जला है। लेकिन उसकी हालत बिगड़ने लगी जिसके बाद उसे सघन निगरानी कक्ष में भर्ती कराना पड़ा। ऐसा माना जा रहा है कि उसने कोई जहरीला पदार्थ खा लिया है।
अमर उजाला ने लिखा है कि आत्मदाह के प्रयास के बाद कटक के डॉ. सुरेंद्र मोहंती अस्पताल में इलाज करा रहे हैं।
अब कटक और दिल्ली की घटनाओं को उन्हीं तथ्यों पर तौल कर देखिए जिनका जिक्र अलग अलग अखबारो ने किया है। दिल्ली में एक छोट-मोटे दुकानदार के जलने की घटना को आरक्षण विरोधी आंदोलन से जोड़कर देखने का तर्क समझ पाना आसान नहीं हैं, खासकर तब जबकि वह युवक खुद भी पिछड़ी जाति का है। ऐसी स्थिति में जो सवाल उठने चाहिए वो पुलिस ने उठाए हैं, पत्रकारों ने नहीं। मिसाल के तौर पर क्या ऋषि गुप्ता को किसी ने उकसाया। या वो किसके कहने पर रामलीला मैदान गया था। किसी पत्रकार ने ये पूछने की कोशिश नहीं की कि आरक्षण विरोधी रैली के बाहर एक गुटखा विक्रेता क्यों जल जाता है। जबकि आंदोलनकारी इस मामले में सफाई देने की मुद्रा में हैं और उन्होंने बार बार कहा है कि इस घटना का उनके आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है, गुप्ता उनकी रैली में नहीं था, वो आंदोलनकारी नहीं है, वो यूथ फॉर इक्वैलिटी का सदस्य नहीं है। इसके बावजूद इस घटना को आरक्षण विरोधी आंदोलन से जोड़ा गया और ऐसा दो-चार अखबार ने नहीं किया। लगभग पूरी मीडिया ने इस लहर में बह जाने का रास्ता चुना। उसी तरह उड़ीसा में जिस मेडिकल छात्र को आग तक नहीं लगी, मामूली सा भी जख्म नहीं हुआ, उसके लिए आत्मदाह जैसे भारी भरकम शब्दों का इस्तेमाल क्या अनजाने में हो गया।
इन खबरों के साथ इस्तेमाल की गई तस्वीरें और उनके कैप्शन भी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अखबारों ने इस मसले पर एक खास पक्ष में खड़े होने का निर्णय कर लिया था।
मिसाल के तौर पर
अमर उजाला ने अस्पताल ले जाते ऋषि गुप्ता की तस्वीर छापी है और कैप्शन दिया है भड़कती आग
पंजाब केसरी ने कैप्शन दिया है-दिल्ली में आरक्षण विरोधियों की महारैली के दौरान एक छात्र ने खुद को जला लिया तो पुलिस कर्मचारी उसे पकड़ कर ले जाते हुए।
दैनिक जागरण का कैप्शन है- रैली के दौरान आत्मदाह का प्रयास करने वाला शाहदरा का ऋषि रंजन गुप्ता
इंडियन एक्सप्रेस की पहले पेज पर आरक्षण वाली खबर के साथ तस्वीर का कैप्शन है- THE SCARE: Rishi Gupta, 23,  gutkha vendor, sucide bid
टाइम्स ऑफ इंडिया की पहले पेज पर तस्वीर के साथ कैप्शन है- Rishi Gupta is being led away after trying to burn himself at Ramlila Grounds. जबकि इस तस्वीर के साथ की खबर बताती है कि जलने की घटना रामलीला मैदान में नहीं मैदान के पास हुई है। अगले पैरे में एक बार फिर पुलिस के हवाले से कहा गया है कि वारदात आरक्षण विरोधी रैली के बाहर (“outside the anti quota rally”) हुई है।
द स्टैट्समैन का कैप्शन कहता है कि ऋषि गुप्ता ने मंडल-1 की याद ताजा कर दी। जबकि इसी कैप्शन में आगे लिखा है कि वो चार साल से दिल्ली में गुटखा बेचता है।
एक दिन के कवरेज का ये सैंपल उसी बात को एक बार फिर रेखांकित करता है कि भारतीय मीडिया एलीट के पक्ष में झुका हुआ है। 1990 में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गयी थी तब भी मीडिया का रुख ऐसा ही था।……………………. 16 साल में बहुत कुछ बदल गया, लेकिन मीडिया का जातिवादी चरित्र अपनी जगह जस का तस कायम है।
इससे पहले राम जन्मभूमि आंदोलन के समय भारतीय मीडिया का सांप्रदायिक चेहरा भी देश ने देखा था। उस दौरान प्रेस काउंसिल ने कई अखबारों की कड़ी निंदा की थी। मीडिया का सांप्रदायिक होना इसके बाद भी जारी रहा और खासकर दंगों के कवरेज में मीडिया का पक्षपात हमेशा से विवादों के घेरे में रहा है।
मीडिया की ये प्रवृत्तियां बताती हैं कि कई बार पेड न्यूज न होने और सरकार का भी सीधे तौर पर दबाव न होने के बावजूद मीडिया कमजोर के खिलाफ ताकतवर के पक्ष में झुक जाता है। कॉरपोरेट मीडिया का ये आंतरिक संरचना का दबाव है और इसके लिए किसी और बाहरी कारक की जरूरत नहीं होती। किसी अखबार को आरक्षण के खिलाफ होने के लिए किसी तरह का भुगतान करने की जरूरत नहीं है। आंतरिक संरचना का दबाव इतना प्रभावी होता है कि इसके लिए अखबार अपने पाठकों के एक बड़े हिस्से को नाराज करने का जोखिम भी उठा लेता है। मिसाल के तौर पर आरक्षण के खिलाफ अखबारों को इस बात का भय होना चाहिए कि वंचित समुदायों का मध्यवर्ग और एलीट नाराज हो जाएगा। इस एलीट की संख्या कम भी नहीं है। लेकिन अब तक की सारी मिसालें ये कहती हैं कि अखबार इस बात से बेपरवाह रहे हैं। इसकी वजह शायद ये है कि जिस तरह पश्चिमी देशों में 60 के दशक तक विकल्पों की बात करने वाला मीडिया मौजूद था, वैसा कोई ताकतवर मीडिया भारत में  कभी बन ही नहीं पाया। इस मायने में देखें तो भारत का मुख्यधारा मीडिया ज्यादातर मुद्दों पर एक स्वर में बोलता है। इसलिए कहने को तो भारत में मीडिया का लोकतंत्र है, लेकिन खासकर विचार के क्षेत्र में चुनने के विकल्प न होने के कारण पाठकों के लिए इस लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जाता।
अगर आर्थिक नीतियों का ही मामला ले तो मुख्यधारा का पूरा प्रेस बाजार अर्थव्यवस्था का समर्थन करता है। आर्थिक सुधारों के खिलाफ पक्ष लेने वाला कोई भी प्रमुख अखबार न होने के कारण पाठकों के पास ये विकल्प ही नहीं है कि वो चुनने की आजादी का इस्तेमाल करे। देश का कोई भी प्रमुख अखबार मजदूर आंदोलनों का समर्थक नहीं है। कोई भी प्रमुख अखबार विदेशी पूंजी के खुले खेल का विरोधी नहीं है, कोई भी अखबार निजीकरण के खिलाफ नहीं है, न ही कोई ऐसा अखबार है जो कॉरपोरेट सेक्टर को दी जा रही सुविधाओं और छूट का विरोध करता है। आर्थिक नीतियों के मूल कथ्य को लेकर एक व्यापक आम सहमति भारतीय मीडिया में है।
एन्‍ड नोट
1 http://www.edelcap.com/CMT/Upload/ArticleAttachments/HVML_IPO_DRHP_060310.pdf
2
3 शोलों को हवा: नवभारत टाइम्‍स
4 मुकुल शर्मा और रुचिरा गुप्‍ता का अध्‍ययन
नोट: किताब के आवरण को छोड़ कर कोई भी तस्‍वीर मूल किताब का हिस्‍सा नहीं है.
किताबी लाल सरोकार से नए जुड़े हैं. इनका कहना है कि ये किताब पढ़ने के शौकीन हैं. और कभी-कभार अपनी पसंदीदा किताबें या उसके अंश सरोकार के पाठकों के साथ साझा करेंगे. इन्‍होंने अपना ई मेल पता देने से फिलहाल इनकार कर दिया है. इसलिए इनसे सीधा संपर्क करना ज़रा मुश्किल है. वैसे editor@sarokar.net के मार्फ़त इन तक संदेश पहुंचाया जा सकता है.

" पुस्‍तक अंश : मीडिया, माफिया और आरक्षण " को 1 प्रतिक्रिया

  1. anjule says:
    कालेजों और स्चूलों में आए दिन यही तो होता है… कोई ताकतवर लोबी पहले … कमजोरों को मरती है फिर ..समझौता होता है….ये हर जगह इसी रूप में हैं …चाहें वो मीडिया हो या किसी और जगह ……दिलीप जी ख़बरों का सही खबर ले रहे हैं किताब मेरे पास है लेकिन अभी पढ़ा नहीं है…पहुँगा तो जरुर इस बुक की खबर लूँगा…कितनी निर्ममता से उन्होंने मीडिया की पोल खोली है इस बुक में…

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...