गुरुवार, 8 मार्च 2018
शनिवार, 3 मार्च 2018
शनिवार, 22 अप्रैल 2017
एकात्म मानवतावाद
कुछ विद्वान मित्रों का मानना है कि भाजपा की तरफ आम लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है और वह इसलिए कि उन लोगों के मन में उनमें हिंदू होने का मुख्य केंद्र में ही आकर्षण दिख रहा है जिससे उनका रुझान उधर बढ़ा है।(विशेष रूप से गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव (चमार) दलित में)
यहाँ यह दृष्टव्य है की ई वी एम प्रसंग भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है फिर भी बाकी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जिसमें प्रचंड बहुमत की सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ सवर्ण जातियों के इर्द गिर्द घूम रहा है यहाँ अति दलित और अति पिछड़े लगभग नदारद हैं।
आजकल उत्तर प्रदेश में नई सरकार अपनी तरह के अधिकारियों को लगाने में व्यस्त है अब यह सारी व्यवस्था किस आधार पर की जा रही है इसका लेखा-जोखा तो कुछ दिनों के बाद ही पता चलेगा क्योंकि जब सरकारी आती हैं तो वह ढूंढ ढूंढ करके अपने चहेतों को पूरे प्रदेश भर में तैनात कर देती हैं।
यही काम पिछली सरकार ने भी किया होगा और पूरे 5 साल तक इस तरह की व्यवस्था में वह व्यस्त रही कि किस अधिकारी को कहां लगाया जाए। इस सरकार में और उस सरकार में फर्क इतना है कि यहां पर एक बहुत ही मजे हुए सन्यासी और राजनीतिज्ञ का नजरिया है दूसरी तरफ अनुभवहीन और अवसरवादी नेता पुत्र का उत्साह था यद्यपि इस समय राजनीतिक गलियारों में यह बहस का मुद्दा नहीं है ।
अब यह कैसे तय हो कि जिस झूठ फरेब और प्रोफगंडे से भारतीय राजनीति के समकालीन दौर में प्रदेशों और छोटी छोटी इकाइयों तक इसी तरह का पाखंड प्रबल हो रहा है उसका क्या उपाय है कि 5 सालों बाद कौन आ रहा है, मुख्य मुद्दा तो यह है कि इन 5 वर्षों तक प्रदेश की बदहाली या खुशहाली किस रूप में आने जा रही है, मौजूदा सरकार ने तमाम राजनेताओं की जन्मतिथि यों पर होने वाली छुट्टियों को समाप्त कर दिया है इससे हर पढ़ा लिखा आदमी खुश तो है, इन छुट्टियों के खत्म किए जाने से उनके बारे में लोग जल्दी भूल जाएंगे जिन्हें साल भर छुट्टियों के नाम पर लोग गालियां देते फिरते थे कि इन्होंने क्या किया है देश के लिए ।
मुझे बहुत आशंका है कि प्रदेश में छुट्टियां बहुत हो गई थी और तमाम ऐसे वैसे लोगों के नाम पर हो गई थी जिनमें बहुत कम लोग राष्ट्रवादी थे या यह कहा जाए की दलित और पिछड़े भी थे उनके लिए प्रदेश में छुट्टियां हो यह एक तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है इसलिए उनका खत्म किया जाना अनिवार्य है प्रतीत हो रहा था, आने वाले दिनों में अगर राष्ट्रवादियों के नाम पर उनके पर्व और उत्सव मनाए जाएंगे तो छुट्टियां तो करनी पड़ेगी।
इतनी छुट्टियों के साथ ही और छुट्टियां जुड़ी और इन छुट्टियों के साथ उनकी छुट्टियां जुड़ती तो बहुत सारी छुट्टियां हो जाती इसलिए जरूरी था कि पहले पुरानी छुट्टियों को खत्म किया जाए ताकि नई छुट्टियां करने में सुविधा हो। और दलित और पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों के नाम पर कोई छुट्टी हो यह मौजूदा राष्ट्रवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
मेरा मानना है कि जो लोग सत्ता में आए हैं वह प्रचार प्रसार और प्रोपगंडा में बहुत विश्वास करते हैं यहां तक कि इनकी पुरानी सरकार थी तब इन्होंने शाइनिंग इंडिया नाम का प्रचार अभियान शुरू किया था ठीक उसी तरह से जैसे पिछली सरकार ने विकास के नाम पर जनता का वोट लेना चाहा था ।
धर्म तो वही रहेगा लेकिन उसमें नए दर्शन का समावेश किया जाना है जिसके समावेश से दुनिया में फैले समाजवाद को कैसे ब्राह्मणवाद निकलेगा उसके विभिन्न सारे रास्ते तलाशे जा रहे हैं और इसी तलाश में जारी है दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद यह एक तरह का नव ब्राह्मणवाद है जिस में घुमा-फिरा करके यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से भारतीय दर्शन को माननीय से पूरी दुनिया से आई हुई समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के मूल को तहस-नहस करना और नव ब्राह्मणवाद फैलाना यह सिद्धांत मूलतः इस अंधभक्त देश में बहुत आसानी से आध्यात्म और धर्म के नाम पर फैलाया जा सकेगा जिससे कि कोई सत्ता की तरफ देखने की हिम्मत न करें और साधु संत मध्यकाल की तरफ इस देश को ले जाने का पूरा इंतजाम करें और सारा विकास उनके इर्द-गिर्द हो यही नव एकात्मवाद होगा ऐसी संभावना दिख रही है।
एकात्म-(वाद) मानवतावाद, पर परिचर्चा ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को विवादित करने के उद्देश्य को हवा देती है, जिन महानुभावों को भारत के संविधान में आस्था नहीं है वे अपने अलग तरह विचार लेकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और सांस्कृतिक समाजवाद को बढ़ावा देते हुए संविधान के मूल तत्वों से सामन्यजन का ध्यान हटाते है। - डॉ.लाल रत्नाकर)
पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन
कुछ विद्वान मित्रों का मानना है कि भाजपा की तरफ आम लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है और वह इसलिए कि उन लोगों के मन में उनमें हिंदू होने का मुख्य केंद्र में ही आकर्षण दिख रहा है जिससे उनका रुझान उधर बढ़ा है।(विशेष रूप से गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव (चमार) दलित में)
यहाँ यह दृष्टव्य है की ई वी एम प्रसंग भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है फिर भी बाकी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जिसमें प्रचंड बहुमत की सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ सवर्ण जातियों के इर्द गिर्द घूम रहा है यहाँ अति दलित और अति पिछड़े लगभग नदारद हैं।
आजकल उत्तर प्रदेश में नई सरकार अपनी तरह के अधिकारियों को लगाने में व्यस्त है अब यह सारी व्यवस्था किस आधार पर की जा रही है इसका लेखा-जोखा तो कुछ दिनों के बाद ही पता चलेगा क्योंकि जब सरकारी आती हैं तो वह ढूंढ ढूंढ करके अपने चहेतों को पूरे प्रदेश भर में तैनात कर देती हैं।
यही काम पिछली सरकार ने भी किया होगा और पूरे 5 साल तक इस तरह की व्यवस्था में वह व्यस्त रही कि किस अधिकारी को कहां लगाया जाए। इस सरकार में और उस सरकार में फर्क इतना है कि यहां पर एक बहुत ही मजे हुए सन्यासी और राजनीतिज्ञ का नजरिया है दूसरी तरफ अनुभवहीन और अवसरवादी नेता पुत्र का उत्साह था यद्यपि इस समय राजनीतिक गलियारों में यह बहस का मुद्दा नहीं है ।
अब यह कैसे तय हो कि जिस झूठ फरेब और प्रोफगंडे से भारतीय राजनीति के समकालीन दौर में प्रदेशों और छोटी छोटी इकाइयों तक इसी तरह का पाखंड प्रबल हो रहा है उसका क्या उपाय है कि 5 सालों बाद कौन आ रहा है, मुख्य मुद्दा तो यह है कि इन 5 वर्षों तक प्रदेश की बदहाली या खुशहाली किस रूप में आने जा रही है, मौजूदा सरकार ने तमाम राजनेताओं की जन्मतिथि यों पर होने वाली छुट्टियों को समाप्त कर दिया है इससे हर पढ़ा लिखा आदमी खुश तो है, इन छुट्टियों के खत्म किए जाने से उनके बारे में लोग जल्दी भूल जाएंगे जिन्हें साल भर छुट्टियों के नाम पर लोग गालियां देते फिरते थे कि इन्होंने क्या किया है देश के लिए ।
मुझे बहुत आशंका है कि प्रदेश में छुट्टियां बहुत हो गई थी और तमाम ऐसे वैसे लोगों के नाम पर हो गई थी जिनमें बहुत कम लोग राष्ट्रवादी थे या यह कहा जाए की दलित और पिछड़े भी थे उनके लिए प्रदेश में छुट्टियां हो यह एक तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है इसलिए उनका खत्म किया जाना अनिवार्य है प्रतीत हो रहा था, आने वाले दिनों में अगर राष्ट्रवादियों के नाम पर उनके पर्व और उत्सव मनाए जाएंगे तो छुट्टियां तो करनी पड़ेगी।
इतनी छुट्टियों के साथ ही और छुट्टियां जुड़ी और इन छुट्टियों के साथ उनकी छुट्टियां जुड़ती तो बहुत सारी छुट्टियां हो जाती इसलिए जरूरी था कि पहले पुरानी छुट्टियों को खत्म किया जाए ताकि नई छुट्टियां करने में सुविधा हो। और दलित और पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों के नाम पर कोई छुट्टी हो यह मौजूदा राष्ट्रवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
मेरा मानना है कि जो लोग सत्ता में आए हैं वह प्रचार प्रसार और प्रोपगंडा में बहुत विश्वास करते हैं यहां तक कि इनकी पुरानी सरकार थी तब इन्होंने शाइनिंग इंडिया नाम का प्रचार अभियान शुरू किया था ठीक उसी तरह से जैसे पिछली सरकार ने विकास के नाम पर जनता का वोट लेना चाहा था ।
धर्म तो वही रहेगा लेकिन उसमें नए दर्शन का समावेश किया जाना है जिसके समावेश से दुनिया में फैले समाजवाद को कैसे ब्राह्मणवाद निकलेगा उसके विभिन्न सारे रास्ते तलाशे जा रहे हैं और इसी तलाश में जारी है दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद यह एक तरह का नव ब्राह्मणवाद है जिस में घुमा-फिरा करके यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से भारतीय दर्शन को माननीय से पूरी दुनिया से आई हुई समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के मूल को तहस-नहस करना और नव ब्राह्मणवाद फैलाना यह सिद्धांत मूलतः इस अंधभक्त देश में बहुत आसानी से आध्यात्म और धर्म के नाम पर फैलाया जा सकेगा जिससे कि कोई सत्ता की तरफ देखने की हिम्मत न करें और साधु संत मध्यकाल की तरफ इस देश को ले जाने का पूरा इंतजाम करें और सारा विकास उनके इर्द-गिर्द हो यही नव एकात्मवाद होगा ऐसी संभावना दिख रही है।
एकात्म-(वाद) मानवतावाद, पर परिचर्चा ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को विवादित करने के उद्देश्य को हवा देती है, जिन महानुभावों को भारत के संविधान में आस्था नहीं है वे अपने अलग तरह विचार लेकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और सांस्कृतिक समाजवाद को बढ़ावा देते हुए संविधान के मूल तत्वों से सामन्यजन का ध्यान हटाते है। - डॉ.लाल रत्नाकर)
पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म'' तथा परम्परा व संस्कृति'' जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। ...
अशोक बजाज पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म'' तथा परम्परा व संस्कृति'' जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
उन्होंने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र, वृहस्पति, और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति समाज व सृष्टि का ही नहीं अपितु मानव के मन, बुध्दि, आत्मा और शरीर का समुचय है। उनके इसी विचार व दर्शन को ''एकात्म मानववाद'' का नाम दिया गया, जिसे अब एकात्म मानव-दर्शन के रूप में जाना जाता है। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनर्जीवित करता है, जिन्हें ''चिति '' (राष्ट्र की आत्मा) और ''विराट'' (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते हैं।मूल समस्या: स्व के प्रति दुर्लक्ष्यआजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नहीं थी क्योंकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत च्यादा चिन्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजी शासनकाल में सबका लक्ष्य एक था ''स्वराज'' लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा? हम किस दिशा में आगे बढेंग़े? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ''स्व'' का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराय का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ''स्व'' दब जाता है। इसीलिए लोग राष्ट्र के स्वराय की कामना करते हैं, जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्राय: उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्म-शक्ति क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर विपथगामिनी बन जाती है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनता है। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है। नैतिक पतन एवं अवसरवादिताराष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन हैं। फलत: भारत की राजनीति, अवसरवादी एवं सिद्वांतहीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन गई है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलों के न कोई सिद्वांत एवं आदर्श हैं और न कोई आचार-संहिता। एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों में गठबंधन किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं अपितु उसके मूल में चुनाव और पद ही प्र्रमुख रूप से रहते हैं। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वेच्छाचारिता है। इसी का परिणाम है कि आज भी सभी के विषय में जनता के मन में समान रूप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरणहीनता के विषय में कुछ कहा जाए तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता स्थापित नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कृति एकात्मवादीराष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराय का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ संबंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराय तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अत: राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं। व्यक्ति के सुख का विचार सम्पूर्ण समाज या सृष्टि का ही नहीं, व्यक्ति का भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है। सामान्यत: व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है। शरीर सुख को ही लोग सुख समझते हैं, किन्तु हम जानते हैं कि मन में चिंता रही तो शरीर सुख नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति शरीर का सुख चाहता है। किन्तु किसी को जेल में डाल दिया जाए और खूब अच्छा खाने को दिया जाए तो उसे सुख होगा क्या? आनंद होगा क्या? इसी प्रकार बुद्वि का भी सुख है। इसके सुख का भी विचार करना पड़ता है। क्योंकि यदि मन का सुख हुआ भी और आपको बड़े प्रेम से रखा भी तथा आपको खाने-पीने को भी खूब दिया, परंतु यदि दिमाग में कोई उलझन बैठी रही तो वैसी हालत होती है, जैसे पागल की हो जाती है। पागल क्या होता है? उसे खाने को खूब मिलता है, हष्ट-पुष्ट भी हो जाता है, बाकी भी सुविधाएं होती हैं। परंतु दिमाग की उलझनों के कारण बुद्वि का सुख प्राप्त नहीं होता। बुद्वि में तो शांति चाहिए। इन बातों का हमें विचार करना पड़ेगा।
शनिवार, 15 अप्रैल 2017
चंद्रजीत यादव एक चिंतक
Tenth Lok sabha |
Members BioprofileYADAV, SHRI CHANDRAJIT [J.D. - Azamgarh (Uttar Pradesh)] |
![]() | Father's NameDate of Birth Place of Birth Marital Status Spouse's Name Children Educational Qualifications Profession Permanent Address Present AddressPositions held 1957-67 1967 1971-74 1971 1974-77 1980 1991 Other Positions held Social and Cultural Activities Special Interests Favourite Pastime and Recreation Sports and Clubs Countries visited | Shri Ishwari Prasad Yadav1st January, 1930 Savupaha in Distt. Azamgarh (Uttar Pradesh) Married in 1949 Smt. Asha Yadav One son M.A., LL.B. Educated at S.K.P. College, Azamgarh; Banaras Hindu University, Varanasi and Lucknow University, Lucknow (Uttar Pradesh) Lawyer Mohalla Hari Bansh Pura, Azamgarh (Uttar Pradesh) 78, North Avenue, New Delhi-110001. Tel. 3017214 Member, Uttar Pradesh Legislative Assembly Deputy Leader, C.P.I. Group, Uttar Pradesh State Legislature Elected to Lok Sabha (Fourth) General Secretary, A.I.C.C. Re-elected to Lok Sabha (Fifth) Union Minister, Steel and Mines Elected to Lok Sabha (Eighth) for the third time Member, Committee on Government Assurances Elected to Lok Sabha (Tenth) for the fourth time Chairman, Public Accounts Committee President, Indo-G.D.R. Friendship Society, Uttar Pradesh; National Committee on Aid for Democratic Republic of Vietnam; Vice-President, Afro-Asian Peace and Solidarity Committee; General Secretary, U.P. Kisan Sabha; President, All India Peace and Solidarity Organisation; Vice-President, Indo-Soviet Cultural Society; Member, Presidium of the World Peace Council; Vice-President, Asian Solidarity Organisation; Chairman, W.P.C. Asia Committee Reading biographies and poetry Gardening and swimming Cricket Widely travelled. |
जब वे एक साथ होंगे !
(बीजेपी की जीत से आहत सपा बसपा एक साथ आने की सोच रही है जबकि वैचारिक रूप से इन दलों का आंतरिक सेतु तोड़ने का जो महँ काम किया है इनके नेताओं ने वह भरना बहुत आसान नहीं है , मीडिआ अपने पुरे सवाब पर है जिसे हम इस तरह देख सकते हैं की इनके बीच जिस तरह के जहर का समावेश इन्होने किया है वह बहुत ही पीड़ा दायक है )
आजकल यह चर्चा बहुत जोरों पर है कि मायावती जी और अखिलेश जी एक साथ आ रहे हैं । वैसे तो इस विचार का स्वागत करने वाले लोग आजकल भाजपा में चले गए हैं । और भाजपा तो उनके सपनों की पार्टी थी ही लेकिन जब तक वे सपा बसपा का विनाश नहीं कर लिए तब तक वे वहीँ जमे रहे । अब सामाजिक सरोकारों को एक सतह पर लाने के लिए जिस तरह से वह उनको मजबूत करने के लिए अखिलेश और मायावती को एक साथ लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं ? और जैसा की योगी जी का भी मानना है कि वह उनके प्रभाव के कारण ही एक साथ आ रहे हैं?
अब देखना यह है कि एक साथ आकर यह क्या जनता को बताते हैं ? क्योंकि इन्होंने अपने कार्यकाल में उसी जनता का सबसे ज्यादा नुकसान किया है जिसकी वजह से यह नेता बने थे और उसी जनता ने इन्हें नकार दिया है! फिर भी यह देखना है कि इनके पास सामाजिक न्याय का कोई मुद्दा बचा है क्या ? क्यों कि यह सवर्णों के लिए बेहद बेचैन रहे है ? और अगर यह है तो वह क्या है या केवल सत्ता के लिए साझा हो रहा है या कोई मुद्दे भी यहां हैं। यदि ऐसा है तो यह अपने मिशन में कितने सफल हो पाएंगे उस पर बहुत कुछ अभी से नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि उनका यह समझौता समाज के लिए ना होकर क्या इनके अपने निजी स्वार्थ के लिए ज्यादा नजर आ रहा है ?
क्योंकि इन्होंने सत्ता में रहते हुए इस तरह के समझौतों पर कभी विचार ही नहीं किया बल्कि उल्टे एक दूसरे पर प्रहार ही किया है । यह तो भला हो जनता का कि वह इनके इस मंसूबे के साथ एक साथ आने पर इनके लिए एक साथ खड़ी हो जाए और इनसे पूछें कि क्या आपको सामाजिक न्याय की कोई समझ है और अगर समझ है तो आरक्षण पर आप कहां कहां खड़े हुए हैं !
यह निश्चित जानिए कि यदि आरक्षण के मामले पर और सामाजिक न्याय के तमाम सवालों पर आप का ज्ञान नहीं है। तो जनता आपके झांसे में अब दुबारा आने वाली नहीं है इसलिए आपका यह मेल मिलाप केवल और केवल भाजपा के कल्पनातीत बहुमत का भय ही है जो इनको एक साथ खड़ा कर रहा है ।
खुदा न खाश्ता यह एक साथ आकर अगर जीत भी गए तो इनके सलाहकार वही 15 फीसदी लोग होंगे और वह सामाजिक न्याय की सारी शक्तियों का बड़ा नुकसान करायेंगे।
डॉ.लाल रत्नाकर
बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुईं बहनजी
लखनऊ।
बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम की शिष्या मायावती बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुई हैं। बहन जी को जहां बगैर संघर्ष के 2007 में यूपी की सत्ता मिली वहीं धन की तृष्णा से वशीभूत बसपा को बहुजन से सर्वजन में बदल दिया। जिसका खामियाजा यह हुआ कि जैसे-जैसे मायावती का खजाना भरता गया वैसे-वैसे देश और प्रदेश में बसपा का जनाधार तेजी से गिरता गया। साथ ही बहजनी की दलित समाज से दूरी बढ़ती गई। भ्रष्टï व दलाल लोगों से घिरती गई। यह बातें बसपा के बागी नेता और पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम ने निष्पक्ष दिव्य संदेश के विशेष संवाददाता राजेन्द्र के.गौतम से एक विशेष साक्षात्कार में कही।
प्रश्न:- आपका बाल, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन सफर कैसा था?
उत्तर:- मेरा जन्म 4 मई 1958 को इलाहाबाद में हुआ था, 97 वर्षीय पिता बी.दास एक रिटायर्ड शिक्षा अधिकारी हैं, माता श्रीमती दुलारी गृहणी थीं। मेरी प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूल से शुरू हुई थी। हाईस्कूल, इंटरमीडिएट, एलएलबी इलाहाबाद से किया। इसके बाद कुछ समय के लिए वकालत की। समाज सुधारक लल्लई यादव और चौधरी चुन्नी लाल (आरपीआई) की विचारधारा से प्रभावित था। कांशीराम साहब द्वारा शुरू किए गए साप्ताहिक समाचार पत्र बहुजन संगठन से काफी प्रेरणा मिलती थी। इसी प्रेरणा के चलते वर्ष 1980 में प्रतापगढ़ के एक गांव में बाबा साहब की जयंती मनाई थी। जिसको लेकर दबंगों ने मारा-पीटा अपमानित किया।
प्रश्न:- बसपा में किन-किन पदों पर अपने दायित्व का जिम्मेदारी से निर्वाहन किया?
उत्तर:- शुरूआती दौर में 1990 में बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी ने इलाहाबाद नगर उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसके बाद जिला प्रभारी, बहुजन सुरक्षा दल जिला प्रभारी, मुख्य जोनल कोआर्डिनेटर, इलाहाबाद कमिशनरी, लखनऊ कमिश्नरी, आजमगढ़ कमिश्नरी, बनारस कमिश्नरी, बस्ती कमिश्नरी, कानपुर कमिश्नरी, झांसी एवं चित्रकूट आदि कमिश्नरी, और मुख्य कोआर्डिनेटर हुआ करता था। 12 साल एमएलसी पार्टी का दल का नेता विधान परिषद, यूपी सरकार में वित्त मंत्री, कैबिनेट कृषि, शिक्षा मंत्री, कार्यवाहक सभापति विधान परिषद उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडू, हिमाचल और बिहार प्रदेश का कोआर्डिनेटर बनाया गया था।
उत्तर:- शुरूआती दौर में 1990 में बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी ने इलाहाबाद नगर उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसके बाद जिला प्रभारी, बहुजन सुरक्षा दल जिला प्रभारी, मुख्य जोनल कोआर्डिनेटर, इलाहाबाद कमिशनरी, लखनऊ कमिश्नरी, आजमगढ़ कमिश्नरी, बनारस कमिश्नरी, बस्ती कमिश्नरी, कानपुर कमिश्नरी, झांसी एवं चित्रकूट आदि कमिश्नरी, और मुख्य कोआर्डिनेटर हुआ करता था। 12 साल एमएलसी पार्टी का दल का नेता विधान परिषद, यूपी सरकार में वित्त मंत्री, कैबिनेट कृषि, शिक्षा मंत्री, कार्यवाहक सभापति विधान परिषद उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडू, हिमाचल और बिहार प्रदेश का कोआर्डिनेटर बनाया गया था।
प्रश्न:- बसपा से मोहभंग होने का कारण?
उत्तर:-जब तक मान्यवर कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक बसपा में अम्बेडकरी मिशन रहा। 2007 से बसपा की कमान बहनजी के हाथों में आने के बाद से मिशन और नीयत में तेजी से बदलाव आया। मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के जितने भी अम्बेडकर मिशन के नेता तैयार किए थे, उनको निकाल दिया। जिससे मिशन कमजोर हुआ। बसपा सर्वजन से बहुजन में तब्दील हुई। बहुजनों के बजाए बसपा में चमचों और चापलूसों तथा कमाऊ पूतों राज हो गया। हद तक हो गई जब 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशीराम की जयंती के अवसर पर लखनऊ में मात्र 70-80 कार्यकर्ता इक्_ïा हुए। जिससे मन काफी व्यथित हुआ और बसपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
उत्तर:-जब तक मान्यवर कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक बसपा में अम्बेडकरी मिशन रहा। 2007 से बसपा की कमान बहनजी के हाथों में आने के बाद से मिशन और नीयत में तेजी से बदलाव आया। मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के जितने भी अम्बेडकर मिशन के नेता तैयार किए थे, उनको निकाल दिया। जिससे मिशन कमजोर हुआ। बसपा सर्वजन से बहुजन में तब्दील हुई। बहुजनों के बजाए बसपा में चमचों और चापलूसों तथा कमाऊ पूतों राज हो गया। हद तक हो गई जब 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशीराम की जयंती के अवसर पर लखनऊ में मात्र 70-80 कार्यकर्ता इक्_ïा हुए। जिससे मन काफी व्यथित हुआ और बसपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
प्रश्न:- क्या आप मानते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती दलित हितैषी हैं?
उत्तर:-शुरूआती दौर में बहनजी मन से दलित हितैषी जरूर थी। जैसे-जैसे ही सत्ता का स्वाद चखा, वैसे-वैसे दलित हितों से दूर होती गई। 36 साल से बसपा की सेवा में लगा रहा। मुझे प्रतीत होता है कि दलित हितों के प्रतिकूल जितने भी फैसले हुए हैं वह सब बहनजी के राज में हुए हैं। आपको याद होगा कि 2007 में दलित एक्ट को नाखून विहीन किया गया। दलित समाज के प्रमोशन में आरक्षण की कोर्ट में बेहतर ढंग से पैरवी नहीं की गई। जिसके कारण लाखों दलित कर्मचारियों और अधिकारियों को डिमोट होना पड़ा। यूपी में होने वाले किसी भी दलित उत्पीडऩ के मामले पर न तो कभी निंदा व्यक्त की और न ही विरोध किया। जिसके कारण दलित समाज का आज भी उत्पीडऩ हो रहा है। बहनजी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इतना घबराती है कि पार्टी और दलित समाज से कोई दूसरे लीडर को पनपने नहीं देती हैं। यही वजह है कि बसपा में मात्र एक ही नेता हैं, बाकी गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। जिनको मुंह खोलने की इजाजत नहीं है।
उत्तर:-शुरूआती दौर में बहनजी मन से दलित हितैषी जरूर थी। जैसे-जैसे ही सत्ता का स्वाद चखा, वैसे-वैसे दलित हितों से दूर होती गई। 36 साल से बसपा की सेवा में लगा रहा। मुझे प्रतीत होता है कि दलित हितों के प्रतिकूल जितने भी फैसले हुए हैं वह सब बहनजी के राज में हुए हैं। आपको याद होगा कि 2007 में दलित एक्ट को नाखून विहीन किया गया। दलित समाज के प्रमोशन में आरक्षण की कोर्ट में बेहतर ढंग से पैरवी नहीं की गई। जिसके कारण लाखों दलित कर्मचारियों और अधिकारियों को डिमोट होना पड़ा। यूपी में होने वाले किसी भी दलित उत्पीडऩ के मामले पर न तो कभी निंदा व्यक्त की और न ही विरोध किया। जिसके कारण दलित समाज का आज भी उत्पीडऩ हो रहा है। बहनजी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इतना घबराती है कि पार्टी और दलित समाज से कोई दूसरे लीडर को पनपने नहीं देती हैं। यही वजह है कि बसपा में मात्र एक ही नेता हैं, बाकी गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। जिनको मुंह खोलने की इजाजत नहीं है।
प्रश्न:- क्या कारण बसपा दलित उत्पीडऩ के मामलों को मुखर तौर से नहीं उठाती है और सड़कों पर संघर्ष के लिए क्यों घबराती?
उत्तर:-जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को महलों और राजसी व विलासतापूर्ण जीवन जीने की आदी हो गई हों, जिसने संघर्ष को तिलांजलि दे दी हो, दलित महापुरूषों के संघर्ष के आह्वïान से किनारा कर लिया हो। उससे आप संघर्ष की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। 2007 के बाद से बसपा पूरी तरह से सड़क के संघर्ष से दूर हो चुकी है। जब बसपा सुप्रीमो मायावती पर कोई आरोप लगते हैं, तब मजबूरन संघर्ष के लिए पार्टी को मैदान में उतरना पड़ता है। यही वजह है कि बसपा न तो दलित उत्पीडऩ के मामलों को सड़क से लेकर सदन तक उठाती है और न ही धरना-प्रदर्शन भी नहीं करती है।
उत्तर:-जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को महलों और राजसी व विलासतापूर्ण जीवन जीने की आदी हो गई हों, जिसने संघर्ष को तिलांजलि दे दी हो, दलित महापुरूषों के संघर्ष के आह्वïान से किनारा कर लिया हो। उससे आप संघर्ष की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। 2007 के बाद से बसपा पूरी तरह से सड़क के संघर्ष से दूर हो चुकी है। जब बसपा सुप्रीमो मायावती पर कोई आरोप लगते हैं, तब मजबूरन संघर्ष के लिए पार्टी को मैदान में उतरना पड़ता है। यही वजह है कि बसपा न तो दलित उत्पीडऩ के मामलों को सड़क से लेकर सदन तक उठाती है और न ही धरना-प्रदर्शन भी नहीं करती है।
प्रश्न:- बसपा सुप्रीामो मायावती का जनता और बसपा पदाधिकारियों से दूरी बनाए रखने के क्या कारण हैं?
उत्तर:-बसपा के आम कार्यकर्ता और पदाधिकारी से बहनजी न मिलने की पीछे एक मात्र कारण है कि बहनजी को विश्वास है कि दलित समाज उनका ऐसा वोट बैंक है, जो उनको छोड़कर नहीं जाएगा। यही वजह है कि बसपा के पदाधिकारी, विधायक, सांसद महीनों नहीं मिल पाते हैं। अब पार्टी में चंदा लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती से मिलवाने का चलन बढ़ गया है। अगर आपको आसानी से मिलना है तो आप पार्टी के फंड में चंदा जमा कर दें तो आसानी से मिल सकते हैं। जनता से इसलिए नहीं मिलती हैं कि न तो अपना और पार्टी का कोई विजन आम जनमानस के सामने आता है।
उत्तर:-बसपा के आम कार्यकर्ता और पदाधिकारी से बहनजी न मिलने की पीछे एक मात्र कारण है कि बहनजी को विश्वास है कि दलित समाज उनका ऐसा वोट बैंक है, जो उनको छोड़कर नहीं जाएगा। यही वजह है कि बसपा के पदाधिकारी, विधायक, सांसद महीनों नहीं मिल पाते हैं। अब पार्टी में चंदा लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती से मिलवाने का चलन बढ़ गया है। अगर आपको आसानी से मिलना है तो आप पार्टी के फंड में चंदा जमा कर दें तो आसानी से मिल सकते हैं। जनता से इसलिए नहीं मिलती हैं कि न तो अपना और पार्टी का कोई विजन आम जनमानस के सामने आता है।
प्रश्न:- आखिर बसपा में मिशनरी और ईमानदार कार्यकर्ता के बजाए धन्ना सेठों को टिकट क्यों दिए जाते हैं?
उत्तर:-यह आम चर्चा है कि बसपा के टिकट बिकते हैं। इस चर्चा को कभी भी बसपा सुप्रीमो मायावती ने अस्वीकार नहीं किया। बसपा में टिकट बिकने की बीमारी 2007 से शुरू हो गई थी। 2017 तक धन संग्रह की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया। बहनजी द्वारा किए जा रहे धन संग्रह का लाभ बहुजन समाज को न मिलकर उनके भाईयों व उनके परिजनों को मिल रहा है। इसी वजह से बसपा 2017 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारी। पैसे के चक्कर में जिताऊ और टिकाऊ व मिशनरी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सुरक्षित सीटों पर खूब वसूली की गई है। इन तथ्यों को बसपा सुप्रीमो मायावती के सामने वर्ष 2012 और 2017 के विधान सभा चुनावों से पहले वास्तविक स्थिति को बताया था। जिसका बसपा को इन चुनावों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। लेकिन इस ईमानदारी की सजा तमिलनाडू और बिहार राज्य में भेजकर मिली।
उत्तर:-यह आम चर्चा है कि बसपा के टिकट बिकते हैं। इस चर्चा को कभी भी बसपा सुप्रीमो मायावती ने अस्वीकार नहीं किया। बसपा में टिकट बिकने की बीमारी 2007 से शुरू हो गई थी। 2017 तक धन संग्रह की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया। बहनजी द्वारा किए जा रहे धन संग्रह का लाभ बहुजन समाज को न मिलकर उनके भाईयों व उनके परिजनों को मिल रहा है। इसी वजह से बसपा 2017 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारी। पैसे के चक्कर में जिताऊ और टिकाऊ व मिशनरी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सुरक्षित सीटों पर खूब वसूली की गई है। इन तथ्यों को बसपा सुप्रीमो मायावती के सामने वर्ष 2012 और 2017 के विधान सभा चुनावों से पहले वास्तविक स्थिति को बताया था। जिसका बसपा को इन चुनावों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। लेकिन इस ईमानदारी की सजा तमिलनाडू और बिहार राज्य में भेजकर मिली।
प्रश्न:- राजनीतिक तौर पर बसपा के कमजोर होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:- मान्यवर कांशीराज के परिनिर्वाण के बाद से बीएसपी में जब से बहन मायावती ने पार्टी संभाली, तबसे बहन जी अपना (एजेंडा) लागू करने लगी। कांशीराम साहेब के बताए गये रास्ते से हटकर जनशक्ति को छोड़ते हुए धनशक्ति को अपनाने लगी। जिसके फलस्वरूप बसपा देश के 12 राज्यों में विधायक थे। आज सब खत्म हो गया। चार राज्यों में एमपी हुआ करते थे। सब समाप्त हो गया। कांशीराम ने बड़े संघर्ष और त्याग के कारण बसपा को राष्टï्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाया था, जो बहजनी की गलत नीतियों के कारण अब समाप्ति की ओर है।
उत्तर:- मान्यवर कांशीराज के परिनिर्वाण के बाद से बीएसपी में जब से बहन मायावती ने पार्टी संभाली, तबसे बहन जी अपना (एजेंडा) लागू करने लगी। कांशीराम साहेब के बताए गये रास्ते से हटकर जनशक्ति को छोड़ते हुए धनशक्ति को अपनाने लगी। जिसके फलस्वरूप बसपा देश के 12 राज्यों में विधायक थे। आज सब खत्म हो गया। चार राज्यों में एमपी हुआ करते थे। सब समाप्त हो गया। कांशीराम ने बड़े संघर्ष और त्याग के कारण बसपा को राष्टï्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाया था, जो बहजनी की गलत नीतियों के कारण अब समाप्ति की ओर है।
प्रश्न:- बसपा की करारी हार के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
उत्तर:-बसपा की इस हार के लिए पूरी तरह से बहनजी जिम्मेदार हैं। ईवीएम का विरोध मात्र दलित समाज और पैसे लेकर टिकट पाने वाले प्रत्याशियों का ध्यान बांटने के लिए किया जा रहा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की शह पर कुछ चापलूस पदाधिकारियों ने टिकट बिकवाने में अहम भूमिका निभाई। जिनका खुलासा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर चारबाग स्थिति रवीन्द्रालय में आयोजित एक राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में किया जाएगा।
उत्तर:-बसपा की इस हार के लिए पूरी तरह से बहनजी जिम्मेदार हैं। ईवीएम का विरोध मात्र दलित समाज और पैसे लेकर टिकट पाने वाले प्रत्याशियों का ध्यान बांटने के लिए किया जा रहा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की शह पर कुछ चापलूस पदाधिकारियों ने टिकट बिकवाने में अहम भूमिका निभाई। जिनका खुलासा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर चारबाग स्थिति रवीन्द्रालय में आयोजित एक राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में किया जाएगा।
प्रश्न:- भविष्य की क्या योजना है?
उत्तर:-बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। मिशन सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है। अभी इसके तहत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ कर व रायशुमारी कर बसपा का विकल्प बनने के लिए एक राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी है।
-पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम
उत्तर:-बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। मिशन सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है। अभी इसके तहत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ कर व रायशुमारी कर बसपा का विकल्प बनने के लिए एक राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी है।
-पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम
कांशीरामवाद को परास्त किया हेडगेवारवाद ने !
यूपी विधानसभा चुनाव की विस्मयकारी विजय के बाद नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह की रणनीति की भूरि-भूरि चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है लोग अब मोदी की तुलना इंदिरा गाँधी से करने लगे हैं.आज उनके करिश्मे से अभिभूत ढेरों लोग अभी से ही उन्हें 2019 लोकसभा चुनाव का विजेता घोषित करने लगे हैं.लेकिन भारी अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मोदी की प्रशंसा में पंचमुख राजनीति के पंडितों में कोई भी भाजपा की चौकाने वाली सफलता के पृष्ठ में हेडगेवार की चर्चा नहीं कर रहा है, जबकि ऐसा किया जाना जरुरी था. कारण, भाजपा की वर्तमान सफलता मोदी – शाह से बढ़कर हेडगेवारवाद की विजय है. कैसे! इसे जानने के 1925 के दिनों के पन्ने पलटने पड़ेंगे.
1925 के पूर्व दिनों में हालात बड़ी तेजी से ब्राह्मणों के विरुद्ध होने लगे थे.उन दिनों अग्रणीय ब्राह्मण विद्वान लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में ब्राह्मणों को विदेशी प्रमाणित करने की होड़ तुंग पर पहुँच चुकी थी.1922 में सिन्धु-सभ्यता के सत्यान्वेषण ने भारत में प्राचीनतम विदेशागत लोगों के आगमन की पुष्टि कर दी थी. उधर सिन्धु सभ्यता के सत्यान्वेषण और ज्योतिबा फुले के आर्य –अनार्य सिद्धांत से प्रेरित ई.व्ही.रामास्वामी नायकर पेरियार दक्षिण भारत में आर्य-द्रविड़ सिद्धांत का प्रचार कर ब्राह्मण सत्ता के विनाश की आधारशिला तैयार करना शुरू कर चुके थे.इस दौरान ब्रिटेन में 30 वर्ष से ऊपर की महिलाओं के मताधिकार का कानून पास हो चुका था.इन सारे हालातों पर किसी की सजग दृष्टि थी तो बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’,जिसमें शुद्रातिशूद्रों का प्रवेश पूरी तरह निषिद्ध था, के पूर्व सदस्य डॉ.हेडगेवार की. उन्हें यह अनुमान लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि अग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में भी संसदीय प्रणाली लागू होगी,जिसमें विशिष्टजन ही नहीं ,भूखे-अधनंगे दलित-पिछड़ों को भी वोट देने, अपना प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा .वोटाधिकार मिलने पर दलित-आदिवासी और पिछड़े और चाहें जो कुछ भी करें,अंततः तिलक-नेहरु इत्यादि द्वारा विदेशी प्रमाणित किये गए ब्राह्मणों को वोट तो नहीं ही देंगे.इसी चिंता से ही, जिन दिनों देश के दूसरे नेता आजादी की जंग लड़ रहे थे,उन्होंने आजाद भारत के ब्राह्मणों के हित में मुस्लिम-विद्वेष और हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष के प्रचार-प्रसार के जरिये विशाल हिन्दू समाज बनाने में खुद को निमग्न किया. उन्होंने अपनी प्रखर मनीषा से यह जान लिया था कि जो दलित-पिछड़े हिन्दू-धर्म के अनुपालन के नाम पर सदियों से पशुवत जिंदगी जीते रहे हैं,उन्हें जब मुस्लिम विद्वेष और हिन्दू-धर्म के नाम पर उद्वेलित किया जायेगा, वे आसानी से हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत हो जायेंगे. और जब असंख्य जातियों में बंटे लोग हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत होंगे ,नेतृत्व स्वतः ही ब्राहमणों के हाथ में चला जायेगा. इसी सोच के तहत उन्होंने विशाल हिन्दू समाज बनाने के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी.डॉ.हेडगेवार से यह गुरुमंत्र पा कर संघ अरसे से चुपचाप काम करता रहा.किन्तु मंडल रिपोर्ट के बाद जब दलित-पिछड़ों के हाथ में सत्ता के जाने के आसार दिखा,संघ ने अपने तीन दर्जन आनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर राम जन्मभूमि मुक्ति के नाम पर आजाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया.इस आन्दोलन में संघ परिवार ने बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया. परिणाम सबको मालूम है.इस आन्दोलन को दूर से निहारते रहने वाले ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दू-ध्रुवीकरण की नैया पर सवार होकर केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए. राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन की सफलता के बाद संघ परिवार चुनाव दर चुनाव विकास की आड़ में प्रधानतः हिन्दू ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता दखल की मंजिलें तय करता गया .बहरहाल संघ संस्थापक की दूरगामी परिकल्पना को किसी ने समझा तो वह थे कांशीराम.
कांशीराम ने जब सार्वजानिक जीवन में प्रवेश कर भारत के अतीत ,वर्तमान और भविष्य का अध्ययन किया तो उन्हें विशाल ‘हिन्दू समाज’ के विपरीत ‘बहुजन समाज’ बनाने से भिन्न कोई उपाय नजर नहीं आया.उन्होंने डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से यह जान लिया कि अगर हिन्दू धर्म-संकृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत के जरिये वंचित जातियों को हिन्दू के नाम पर गोलबंद कर नेतृत्व यदि ब्राह्मण व सवर्णों के हाथ में थमाया जा सकता है तो हिन्दू –धर्म –संस्कृति के अंधकार पक्ष अर्थात वर्ण व्यवस्था की वंचना और व्यवस्था के लाभान्वित वर्ग के खिलाफ वंचितों को आक्रोशित कर विशाल बहुजन समाज बनाया जा सकता है. ऐसा होने पर सत्ता की बागडोर अवश्य ही दलित-आदिवासी –पिछडों या इनसे धर्मान्तरित लोगों के हाथ में थमाई जा सकती है.हालांकि कांशीराम ने यह कभी कबूल नहीं किया कि उन्होंने हेडगेवार का अनुसरण किया है,लेकिन उनकी कार्य प्रणाली में उसकी झलक मिलती है.चूंकि कार्य प्रणाली एक होने के बावजूद ‘विशाल हिन्दू-समाज ‘और ‘बहुजन समाज ‘दो विपरीत ध्रुव हैं,इसलिए उनका उल्टा फार्मूला ही एक दूसरे के खिलाफ रास आता है.यही कारण है कि भारतीय समाज का लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद जब कांशीराम ने 6 दिसंबर 1978 को बामसेफ (आल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनरिटीज इम्प्लायज फेडरेशन) नामक अपंजीकृत,गैर-धार्मिक,गैर-आन्दोलानात्मक और गैर-राजनीतिक संगठन बनाया तो हेडगेवार जिस आर्य-अनार्य सिद्धांत से अपने समाज को बचाना चाहते थे, उसको प्रधानता देने से वे खुद को रोक नहीं पाए .हाँ!डॉ.हेडगेवार और कांशीराम ने अपने-अपने सपनों के भारत निर्माण के जो वैचारिक संगठन तैयार किया उनमें एक ही साम्यता रही कि दोनों ही घोषित तौर पर अराजनैतिक संगठन रहे,पर मूल मकसद राजनीतिक रहा. इस मकसद को हासिल करने के लिए संघ जहां वंचितों की धार्मिक चेतना के राजनीतीकरण पर सक्रिय रहा,वहीँ बामसेफ वर्ण-व्यवस्था के वंचितों की जाति चेतना पर. संघ जहां अल्पसंख्यकों,विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ नफरत को हथियार बनाया,वहीँ बामसेफ शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक –धार्मिक-शैक्षिक )पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाये सवर्णों,विशेषकर ब्राह्मणों के खिलाफ बहुजनों को संगठित करने का हर मुमकिन प्रयास किया.हां ,बामसेफ ने भी संघ की तर्ज पर जागृति जत्था,बामसेफ सहकारिता,समाचार पत्र एवं प्रकाशन,संसदीय संपर्क शाखा,विधिक सहयोग एवं सलाह,विद्यार्थी,युवक,महिलाएं,औद्योगिक श्रमिक ,खेतिहर श्रमिक इत्यादि जैसे कई विंग स्थापित किये .इनके जरिये ही कांशीराम ने योजनाबद्ध तरीके से पहले दलितों की जाति चेतना का राजनीतिकरण किया जो धीरे-धीरे पिछड़ों और अल्पसंख्यकों तक में प्रसारित हो गयी. इसके फलस्वरूप मंडल उत्तर काल में सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील होने के लिए बाध्य हुए.यह कांशीराम की जाति चेतना की रणनीति का ही कमाल था कि तमाम राजनीतिक दल,जिनमें संघ का राजनीतिक संगठन भाजपा भी है,नेतृत्व गैर-ब्राह्मणों,विशेषकर पिछड़ों के हाथ में देने के लिए बाध्य हुए.
बहरहाल सवर्णवादी दलों की लाचारी दीर्घ स्थाई न हो सकी.कारण, जाति चेतना के चलते क्षत्रप बने बहुजन समाज के नेता 2009 आते-आते अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सवर्णपरस्ती की राह पकड़ लिए.अब उनमें सवर्णों के खिलाफ बहुजनों को ध्रुवीकृत करने का जज्बा ही नहीं रहा.इस कारण बहुजन नेतृत्व ‘भूरा बाल..’तिलक तराजू..इत्यादि जैसे उन नारों से तौबा कर लिया,जो बहुजनों की जाति चेतना के राजनीतिकरण में प्रभावी रोल अदा किया करते थे. किन्तु घोषित तौर पर विकास की बात करनेवाले संघवादी डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से कभी डिगे नहीं.इसलिए उनका धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण से कभी विचलन नहीं हुआ.यही कारण है 2014 से हेडगेवारपंथी हिंदी पट्टी की राजनीति में नए सिरे से छाते चले गए.बहुजनों के सौभाग्य से अरसे बाद लालू प्रसाद यादव ने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में जाति चेतना के राजनीतिकरण का रिस्क लिया और रास्ता दिखाया कि जाति चेतना के जरिये साधू-संतों और लेखकों तथा मीडिया और धनपतियों के प्रबल समर्थन से पुष्ट करिश्माई मोदी को शिकस्त दी जा सकती है.
लालू यादव ने जिस तरह अपने प्रबल प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार से गंठजोड़ कर मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान को पकड़कर जाति चेतना की राजनीति को तुंग पर पहुँचाया,वैसे हालात यूपी में बने थे .किन्तु बहुजन हित की बजाय अपने मान-अभिमान को प्राथमिकता देने वाले मायावती और अखिलेश यादव ने शक्तिशाली भाजपा के खिलाफ गंठबंधन से तौबा किया ही,मोहन भागवत की भांति ही संघ के मनमोहन वैद्य ने आरक्षण पर बयान देकर जो अवसर स्वर्णिम अवसर सुलभ कराया, उसका सद्व्यहार करने कोई रूचि नहीं लिया.खासतौर से संघ के मनमोहन वैद्य के बाद सपा की अपर्णा यादव के आरक्षण विरोधी बयान ने मायावती के समक्ष तो दोहरा अवसर सुलभ करा दिया था.किन्तु वह इसका सद्व्यहार करने आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ी,जिसका परिणाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया.बहरहाल यूपी में भाजपा की हैरतंगेज विजय के बाद लगता है कि हेडगेवारवाद ने कांशीरामवाद पर निर्णायक विजय हासिल कर ली है. लेकिन ऐसा नहीं है.यदि सामाजिक न्यायवादी दल संगठित होकर इमानदारी से दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मातरित तबकों के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों सहित सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-मीडिया, ज्ञान-उद्योग और पौरोहित्य इत्यादि तमाम क्षेत्रों में संख्यानुपात में भागीदारी की मांग उठायें तो इससे जाति चेतना का वह सैलाब उठेगा जिसके सामने धार्मिक चेतना पर निर्भर राजनीति तिनके की भांति बह जाएगी.पर लाख टके का सवाल है कि बहुजन नेतृत्त्व क्या कांशीरामवाद को नए सिरे से धार देने की दिशा में आगे बढ़ेगा !
-एच एल दुसाध
March 25, 2017
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कांशीराम जहाँ छोड़ गए,मायावती वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाईं !
मित्रों,एक लेख लिखने के लिए अभी-अभी 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ,’सामाजिक न्याय की राजनीति की हार’ के पन्ने उलट रहा था.अचानक इसके पृष्ठ 161 पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ,जिस पर 16 जून ,2009 को जनसता में प्रकाशित अरुण कुमार पानीबाबा का ‘मायावती का चरित्र और व्यक्तित्व शीर्षक से लेख संकलित है.पानीबाबा ने लिखा है-:
‘मायावती का व्यक्तित्व और चरित्र मूलतः अराजनीतिक है.बरसों-बरस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मायावती को राजनीतिज्ञ स्तर के व्यक्ति को झेलने का अभ्यास नहीं है,और यह सीख पाना संभव नहीं है.इसलिए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मायावती को कांशीराम जहां पहुंचा कर गए थे.उससे एक इंच भी आगे वे नहीं बढ़ सकतीं.’
इसका मतलब यह हुआ कि 2009 में ही राजनीतिक विश्लेषकों ने बहन जी को उनकी सीमाबद्धता का अहसास करा दिया था,किन्तु उन्होंने उससे कोई सबक नहीं लिया और चुनाव दर चुनाव उस ‘बसपा’ के पतन की स्क्रिप्ट लिखती गयीं,जिस बसपा को दुनिया भर के समाज परिवर्तनकामी बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे.
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कांशीराम जहाँ छोड़ गए,मायावती वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाईं !
मित्रों,एक लेख लिखने के लिए अभी-अभी 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ,’सामाजिक न्याय की राजनीति की हार’ के पन्ने उलट रहा था.अचानक इसके पृष्ठ 161 पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ,जिस पर 16 जून ,2009 को जनसता में प्रकाशित अरुण कुमार पानीबाबा का ‘मायावती का चरित्र और व्यक्तित्व शीर्षक से लेख संकलित है.पानीबाबा ने लिखा है-:
‘मायावती का व्यक्तित्व और चरित्र मूलतः अराजनीतिक है.बरसों-बरस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मायावती को राजनीतिज्ञ स्तर के व्यक्ति को झेलने का अभ्यास नहीं है,और यह सीख पाना संभव नहीं है.इसलिए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मायावती को कांशीराम जहां पहुंचा कर गए थे.उससे एक इंच भी आगे वे नहीं बढ़ सकतीं.’
इसका मतलब यह हुआ कि 2009 में ही राजनीतिक विश्लेषकों ने बहन जी को उनकी सीमाबद्धता का अहसास करा दिया था,किन्तु उन्होंने उससे कोई सबक नहीं लिया और चुनाव दर चुनाव उस ‘बसपा’ के पतन की स्क्रिप्ट लिखती गयीं,जिस बसपा को दुनिया भर के समाज परिवर्तनकामी बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे.
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