शनिवार, 27 जुलाई 2024

आम जीवन से जुडी कला

  •  https://www.forwardpress.in/2016/06/amjivan-se-judi-kala_omprakash-kashyap/
  • आम जीवन से जुडी कला
  • बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ.रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे
  • ओमप्रकाश कश्यप June 7, 2016
  • फारवर्ड प्रेस में महिषासुर, मक्खलि गोशाल, कौत्स, अजित केशकंबलि सहित अन्य कई बहुजन नायकों के चित्र बनाकर उन्हें जनसंस्कृति का हिस्सा बना देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित, प्रतिबद्ध कलाकार हैं. पिछले दिनों उनके आवास पर लंबी चर्चा हुई. देश की राजनीति से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर वे बड़ी बेबाकी से बोले.  बातचीत की प्रस्तुति और रत्नाकर  की कला-जीवन का विश्लेषण:
  • oil-lal-ratnakar (1)अपने चित्रों के माध्यम से उत्तर भारत के गांव, गली, घर-परिवेश, हल-बैल, खेत-पगडंडी, पशु-पक्षी, तालाब-पोखर, यहां तक कि दरवाजों और चौखटों को जीवंत कर देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर के बारे में मेरा अनुमान था कि उनका बचपन बहुत समृद्ध रहा होगा. समृद्ध इस लिहाज से कि वे सब स्मृतियां जिन्हें हम सामान्य कहकर भुला देते हैं या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं, उनके मन-मस्तिष्क में मोती-माणिक की तरह टकी होंगी. सो मैंने सबसे पहले उनसे अपने बारे में बताने का आग्रह किया. मेरा अनुमान सही निकला. उन्होंने बोलना आरंभ किया तो लगा, उनके साथ-साथ मैं भी स्मृति-यात्रा पर हूं. वे बड़ी सहजता से बताते चले गए. बिना किसी बनावट और बगैर किसी रुकावट के. जितने समय तक हम दोनों साथ रहे, मैं उनकी जीवन-यात्रा के प्रवाह में डूबता-उतराता रहा.
  • मध्‍यवर्गीय  परिवार में जन्मे डॉ. रत्नाकर के पिता डॉक्टर थे, चाचा लेक्चरर. गांव और ननिहाल दोनों जगह जमींदारी थी. जिन दिनों उन्होंने होश संभाला डॉ. आंबेडकर द्वारा देश के करोड़ों लोगों की आंखों में रोपा गया समता-आधारित समाज का सपना परवान चढ़ने लगा था. किंतु आजादी के वर्षों बाद भी देश के महत्त्वपूर्ण पदों एवं संसाधनों पर अल्पसंख्यक अभिजन का अधिकार देख निराशा बढ़ी थी. स्वाधीनता संग्राम में आमजन जिस उम्मीद के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की और कुर्बानियां दी थीं, वे फीकी पड़ने लगी थीं. दलित और पिछड़े मानने लगे थे कि केवल संवैधानिक संस्थाओं से उनका भला होने वाला नहीं है. इसलिए वे खुद को अगली लड़ाई के लिए संगठित करने में लगे थे. पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार सामाजिक-राजनीतिक चेतना के उभार का केंद्र बने थे. यही परिवेश किशोर लाल रत्नाकर के मानस-निर्माण का था. तो भी बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें उन दिनों तक उनकी समझ से बाहर थीं. बस यह महसूस होता था कि कुछ महत्त्वपूर्ण घट रहा है. परिवर्तन यज्ञ में भागीदारी का अस्पष्ट-सा संकल्प भी मन में उभरने लगा था.
  • पढ़ाई की शुरुआत गांव की पाठशाला से हुई. हाईस्कूल शंभुगंज से विज्ञान विषयों के साथ पास किया. उन दिनों कला के क्षेत्र में वही विद्यार्थी जाते थे जो पढ़ाई में पिछड़े हुए हों. परंतु रत्नाकर का मन तो कला में डूबा हुआ था. हाथ में खडि़या, गेरू, कोयला कुछ भी पड़ जाए, फिर सामने दीवार हो या जमीन, उसे कैनवास बनते देर नही लगती थी. लोगों के घर कच्चे थे. गरीबी भी थी, लेकिन मन से वे सब समृद्ध थे. तीज-त्योहार, मेले-उत्सवों में आंतरिक खुशी फूट-फूट पड़ती. सामूहिक जीवन में अभाव भी उत्सव बन जाते. रत्नाकर का कलाकार मन उनमें अंतर्निहित सौंदर्य को पहचानने लगा था. गांव का कुआं, हल-बैल, पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी, कुम्हार द्वारा बर्तनों पर की गई नक्काशी, सुघड़ औरतों द्वारा निर्मित बंदनवार, रंगोलियां और भित्ति चित्र उन्हें आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए लालायित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से अपनी कल्पना को उकेरकर उन्हें जो आनंद मिलता, उसके आगे कैनवास पर काम करने का सुख कहीं फीका था. जाहिर है, अभिव्यक्ति अपना माध्यम चुन रही थी. उस समय तक भविष्य की रूपरेखा तय नहीं थी. न ही होश था कि आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर, चित्र बनाकर भी सम्मानजनक जीवन जिया जा सकता है. गांव-देहात में चित्रकारी का काम मुख्यतः स्त्रियों के जिम्मे था. उनके लिए वह कला कम, परंपरा और संस्कृति का मसला अधिक था. उनसे कुछ आमदनी भी हो सकती है, ऐसा विचार दूर तक नहीं था.
  • माता-पिता चाहते थे कि वे विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाएं. उनकी इच्छा का मान रखने के लिए इंटर की पढ़ाई के लिए बारह-तेरह किलोमीटर दूर जौनपुर जाना पडा. कुछ दिन साइकिल द्वारा स्कूल आना-जाना चलता रहा. मगर रोज-रोज की यात्रा बहुत थकाऊ और बोरियत-भरी थी. सो कुछ ही दिनों बाद विज्ञान का मोह छोड़ उन्होंने वापस शंभुगंज में दाखिला ले लिया. वहां उन्होंने कला विषय को चुना. घर पर जो वातावरण उन्हें मिला वह रोज नए सपने देखने का था. कला विषय में खुद को
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  • अभिव्यक्त करने की अंतहीन संभावनाएं थीं. धीरे-धीरे लगने लगा कि यही वह विषय है कि जिसमें अपने और अपनों के सपनों की फसल उगाई जा सकती है. इंटर के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीए, फिर कानपुर विश्वविद्यालय से एमए तक की पढ़ाई की. तब तक विषय की गहराई का अंदाजा हो चुका था. मन में एक साध बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी थी. सो आगे शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए वे कला संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. आनंदकृष्ण से मिले. उन्होंने मदद का आश्वासन दिया. लेकिन विषय क्या हो, इस निर्णय में दिन बीतते गए.
  • उधर रत्नाकर को एक-एक दिन खटक रहा था. इसी उधेड़-बुन में वे एक दिन डॉ. आनंदकृष्ण के घर जा धमके. उस समय तक डॉ. रायकृष्ण दास जीवित थे. वे लोककलाओं की उपेक्षा से बहुत आहत रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने ही प्रोफेसर आनंदकृष्ण को लोककला के क्षेत्र में शोध कराने का सुझाव दिया. प्रोफेसर आनंदकृष्ण ने उनसे आसपास बिखरी लोककलाओं को लेकर कुछ सामग्री तैयार करने को कहा. इस दृष्टि से वह लोक खूब समृद्ध था. रत्नाकर ने यहां-वहां बिखरे कला-तत्वों के चित्र बनाने आरंभ कर दिए. चौखटों, दीवारों पर होने वाली नक्काशी, रंगोली, पनघट, तालाब, कोल्हू, मिट्टी के बर्तन, असवारी वगैरह. उस समय तक लोककला के नाम लोग केवल ‘मधुबनी’ को जानते थे. पूर्वी उत्तर-प्रदेश के गांव भी लोक कला का खजाना हैं, इसका अंदाजा किसी को न था. अगली बार वे आनंदकृष्ण जी से मिले तो उन्हें दिखाने के लिए भरपूर सामग्री थी. प्रोफेसर आनंदकृष्ण उनके चित्रों को देख अचंभित रह गए, ‘अरे वाह! इतना कुछ. यह तो खजाना है….खजाना, अद्भुत! लेकिन तुम्हें अभी और आगे जाना है. मैं तुम्हारा प्रस्ताव आने वाली बैठक में पेश करूंगा.’ उस मुलाकात के बाद रत्नाकर को ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा. विश्वविद्यालय ने ‘पूर्वी उत्तरप्रदेश की लोककलाएं’ विषय पर शोध के लिए मुहर लगा दी. शोध-क्षेत्र नया था. संदर्भ ग्रंथों का भी अभाव था. फिर भी वे खुश थे. अब वे भी इस समाज को एक कलाकार और अन्वेषक की दृष्टि से देख सकेंगे. बुद्धिजीवी जिस सांस्कृतिक चेतना की बात करते हैं, उसके एक रूप को पहचानने में उनका भी योगदान होगा. अथक परिश्रम, मौलिक सोच और लग्न से अंततः शोधकार्य पूरा हुआ. डिग्री के साथ नौकरी भी उन्हें मिल गई. अब दिनोंदिन समृद्ध होता विशाल कार्यक्षेत्र उनके समक्ष था.
  • डॉ. लाल रत्नाकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के चितेरे हैं. उनका अनुभव संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में समृद्ध हुआ है. इसका प्रभाव उनके चित्रों पर साफ दिखाई पड़ता है. उनके चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, हल-बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित हैं. स्त्री और उसकी अस्मिता को लेकर अन्य चित्रकारों ने भी काम किया है, लेकिन ग्रामीण स्त्री को जिस समग्रता के साथ डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों में उकेरा है, भारतीय कला-जगत में उसके बहुत विरल उदाहरण हैं. उनके अनुभव संसार के बारे में जानना चाहो तो उन्हें कुछ छिपाना नहीं पड़ता. झट से बताने लगते हैं, ‘मेरी कला का उत्स मेरा अपना अनुभव संसार है.’ फिर जीवन और कला के अटूट संबंध को व्यक्त करते हुए कह उठते हैं, ‘जीवनानुभवों को कला में ढाल देना आसान नहीं होता, परंतु जीवन और कला के बीच निरंतर आवाजाही से कुछ खुरदरापन स्वतः मिटता चला जाता है. जीवन से साक्षात्कार कराने की खातिर कला समन्वय-सेतु का काम करने लगती है.’
  • डॉ. रत्नाकर के कृतित्व को लेकर बात हो और स्त्री पर चर्चा रह जाए तो बात अधूरी मानी जाएगी. उनके चित्रों में ‘आधी आबादी’ आधे से अधिक स्पेस घेरती है. इसकी प्रेरणा उन्हें अपने घर, गांव से ही मिली थी. दादा के दिवंगत हो जाने के बाद खेती संभालने की जिम्मेदारी दादी के कंधों पर थी. जिसे वह कर्मठ वृद्धा बगैर किसी दैन्य के, कुशलतापूर्वक  संभालती थीं. आप उनके चित्रों में काम करतीं, मंत्रणा करतीं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करतीं, नित-नए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन-संघर्ष हैं, सब उनके चित्रों में समाए हुए हैं. लेकिन उनकी स्त्री अबला नहीं है. बल्कि कर्मठ, दृढ़-निश्चयी, गठीले बदन वाली, सहज एवं प्राकृतिक रूप-सौंदर्य की स्वामिनी है. वह खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ-साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन में गुनगुनाहट है. गीत-संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज-सुलभ व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते. बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर-सलोना मनस् है, अपनों के प्रति समर्पण की उत्कंठा है—उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है. उनके चित्रों को हम ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद-बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में भी देख सकते हैं.
  • Gif.BBYadavआधुनिक कला में देह को अकसर बाजार से जोड़कर देखा जाता है. बाजार गांव-देहात में भी होते हैं. वहां वे लोगों को जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने के जरूरी ठिकाने कहलाते हैं. वे केवल मुनाफे को ध्यान में रखकर चीजें नहीं बनाते. यानी कुछेक अपवादों को छोड़कर गांवों में बाजारवाद की भावना से दूर बाजार होता है. ऐसे ही डॉ. रत्नाकर के चित्रों में स्त्री-देह तो है, मगर किसी भी प्रकार के देहवाद से परे. गठीली और भरी देह वाली स्त्रियों के चित्र  राजा रविवर्मा ने भी बनाए हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियों के, जिनका श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता. वे उस वर्ग से हैं जो परजीवी है. दूसरों के श्रम-कौशल पर जीवन जीता है. उन्हें बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म का. डॉ. रत्नाकर द्वारा रचे गए स्त्री-चरित्र बाजारवाद की छाया से मुक्त हैं. उनके लिए देह जीवन-समर में जूझने का माध्यम है. इसलिए वहां दुर्बल छरहरी काया में भी अंतर्निहित सौंदर्य है. इस बारे में उनका कहना है, ‘मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर उन्हें नहीं आता.’ देह और देहवाद के बीच असली और नकली जितना अंतर है. डॉ. रत्नाकर के शब्दों में, ‘बाजारीकरण देह में लोच, लावण्य और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे आत्मा गायब हो जाती है. वह निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी देखे हैं. वे मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे बनाए गए चित्र उन स्त्री-पुरुषों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप-सौंदर्य खेत-खलिहानों के धूप-ताप में निखारा है.’ डॉ. रत्नाकर के स्त्री-चरित्रों में प्राकृतिक रूप-वैभव है, इसके बावजूद वे किसी भी प्रकार के नायकवाद से मुक्त हैं. वे न तो लक्ष्मीबाई जैसी ‘मर्दानी’ हैं, न ‘राधा’ सरीखी प्रेमिका, न ही इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिज्ञ. वे खेतों-खलिहानों में पुरुषों के साथ हाथ बंटाने वाली, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं सारी जिम्मेदारी ओढ़ लेने वाली कमेरियां हैं. जो अपने क्षेत्र में बड़े से बड़े नायक को टककर दे सकती हैं.’
  • अपने कई चित्रों में डॉ. लाल रत्नाकर ने कृष्ण को विविध रूपों में पेश किया है. लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम-संस्कृति से उभरे लोकनायक हैं. वे गाय चरा सकते हैं, दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के लिए ‘गोवर्धन’ जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं.
  • अपने चित्रों के लिए वे जिन रंगों का चुनाव करते हैं, उसके पीछे पूरी सामाजिकता और जीवन रहस्य छिपे होते हैं. वे उन्हीं रंगों का चयन करते हैं, जो उनके जीवन-उत्सव के लिए स्फूर्ति दायक हों. वे बताते हैं कि लाल, पीला, नीला और थोड़ा आगे बढ़ीं तो हरा, बैंगनी, नारंगी जैसे आधारभूत रंग ग्रामीण स्त्री की चेतना का वास्तविक हिस्सा होते हैं. उत्सव और विभिन्न पर्वों, मेले-त्योहारों पर ग्रामीण स्त्री इन रंगों से दूर रह ही नहीं पाती. प्रतिकूल हालात में इन रंगों के अतिरिक्त ग्रामीण स्त्री के जीवन में, ‘जो रंग दिखाई देते हैं, वे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. उन रंगों में प्रमुख हैं—काला और सफेद, जिनके अपने अलग ही पारंपरिक संदर्भ हैं.’ समाज विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ‘काला’ और ‘सफेद’ आधारभूत रंग न होकर स्थितियां हैं. पहले में सारे रंग एकाएक गायब हो जाते हैं; और दूसरी में इतने गडमड कि अपनी AJC-6-300पहचान ही खो बैठते हैं. भारतीय स्त्री, खासतौर पर हिंदू स्त्री जीवन से जुड़कर ये रंग किसी न किसी त्रासदी की ओर इशारा करते हैं. रंगों के साथ स्त्री का सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. अपनी प्रेरणाओं के लिए डॉ. रत्नाकर भी लोक पर निर्भर हैं. यह सवाल करने पर कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने चित्रों के माध्यम से लोक को संस्कारित कर रहे हैं, वे नकारने लगते हैं. उनकी दृष्टि का लोक स्वयं-समृद्ध सत्ता है, ‘अपने आप में वह इतना समृद्ध है कि उसे संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’ किसी भी बड़े कलाकार में ऐसी विनम्रता केवल उसके चरित्र का अनिवार्य गुण नहीं होती, बल्कि लोक को पहचानने की जिद में आत्म को बिसार देने के लिए भी यह अनिवार्य शर्त है.
  • एक बहुत पुरानी बहस है कि ‘जीवन कला के है या कला जीवन के लिए’ के बारे में लोगों के अपने-अपने तर्क हैं जो विशिष्ट परिस्थिति के अनुसार अदलते-बदलते रहते हैं. हमारे समय की विडंबना है कि गरीब और साधारणजन के नाम पर रची गई कला, उसके किसी काम की नहीं होती. ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी समझ नहीं होती. दरअसल कलाकार की परिस्थितियां और उसका विशिष्टताबोध किसी भी रचना को जिस खास ऊंचाई तक ले जाते हैं, उसका मूल्य चुकाना जनसाधारण की क्षमता से बाहर होता है. यह त्रासदी कमोबेश हर कला के साथ जुड़ी है. संभ्रांत होने की कोशिश में कला उस वर्ग की पहुंच से बाहर हो जाती है, जिसकी संवेदनाओं से वह वास्ता रखती है. यह कला की विडंबना है. इसलिए डॉ. रत्नाकर हमें याद दिलाना नहीं भूलते कि ‘समस्त कलाएं और जीवन के बाकी सभी उपक्रम अंततः इस दुनिया को सुंदर बनाने के उपक्रम हैं….आखिर वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो.’
  • पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं. वे संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की साहित्यिक अवधारणा को चित्रों के जरिए साकार कर रहे हैं. उन्होंने विशेषरूप से ‘फारवर्ड प्रेस’ के प्रिंट संस्‍करण के लिए ऐसे चित्र बनाए हैं, जिनके बुनियादी सरोकार आम जन की राजनीति और सामाजिक न्याय से हैं. यह समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है—उन्होंने परंपरा से हटकर ऐसे लोक-उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. अपने स्वार्थ की खातिर, अभिजन संस्कृति के पुरोधा उनका जमकर विरूपण करते आए हैं. अतः जरूरत उस गर्द को हटाने की है जो वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों ने बहुजन संस्कृति के
  • नायकों के चारित्रिक विरूपण हेतु, इतिहास के लंबे दौर में उनपर जमाई है. डॉ. रत्नाकर ने बहुजन संस्कृति के जिन प्रमुख उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, उनमें   बुद्धकालीन  दार्शनिक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल अजित केशकंबलि, पौराणिक जन नायक  महिषासुर आदि प्रमुख हैं. कुछ और चित्र जो उनसे अपेक्षित हैं, उनमें महान आजीवक विद्वान पूर्ण कस्सप, बलि राजा, पुकुद कात्यायन आदि का नाम लिया जा सकता है.
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  • लाल रत्नाकर द्वारा सभी चित्र
  • यह ठीक है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इन बहुजन विचारकों एवं महानायकों  के चित्र तो दूर, सूचनाएं भी बहुत कम उपलब्ध हैं. लेकिन असली चित्र तो देवी-देवताओं के भी प्राप्त नहीं होते. उनके बारे में प्राप्त विवरण भी हमारे पौराणिक लेखकों और कवियों की कल्पना का उत्स हैं. मूर्ति पूजा का जन्म व्यक्ति पूजा से हुआ है. इस विकृति से हमारा पूरा समाज इतना अनुकूलित है कि उससे परे वह कुछ और सोच ही नहीं पाता है. हर बहस, सुधारवाद की हर संभावना, आस्था के नाम पर दबा दी जाती है. मूर्तियों और चित्रों में गणेश, राम, सीता, कृष्ण, विष्णु आदि को जो चेहरे और भंगिमाएं आज प्राप्त हैं, उनमें से अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी के कलाकार राजा रविवर्मा की देन हैं. अतः बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे. वरिष्ठ साहित्यकार से.रा. यात्री लिखते हैं—‘भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवनचर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है. आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है.
  • मैं समझता हूं देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक से .रा. यात्री  की प्रामाणिक टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को रह ही नहीं जाता.

शनिवार, 30 दिसंबर 2023

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन 

दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना)
अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 को पटना में हो गया।
उनके हम सब प्रशंसक बहुत दुखी हैं।
प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से सेवानिवृत थे। उनके उच्च शिक्षा लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से हुई थी। वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़कर उन्होंने जेएनयू में प्रोफेसर का दायित्व संभाला।
नेताजी ने इन्हें कई जिम्मेदारियां दी थी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निदेशक बनाया था, उन्हें बांग्लादेश पाकिस्तान और भारत के एकीकरण की जिम्मेदारी दी थी। 
यद्यपि समाजवादी सोच के सभी नेताओं से गहरे से जुड़े रहे इतने नाम है कि उन्हें लिखना यहां संभव नहीं है। वह प्रखर समाजवादी थे और उनकी कई किताबें : किसान आंदोलन, शूद्र राजनीति का भविष्य। सामाजिक न्याय आंदोलन आदि तो है ही अनेकों पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख निरंतर छपते रहते थे।

प्रोफ़ेसर ईश्वरी प्रसाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से सेवानिवृत्त हुए हैं विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने जितना संघर्ष किया वह "द्विज और शूद्र" की एक महत्वपूर्ण कथा है। स्वाभाविक है जे एन यू एक ऐसा केंद्र रहा है जहाँ से देश को अपनी दिशा तय करनी थी। यह अलग बात है की जवाहर लाल नेहरू ने इसके स्थापना के साथ जो सपना देखा होगा उसे निश्चित तौर पर वामपंथी "द्विजों" ने अपने हिसाब से आगे बढ़ाया होगा। नेहरू जी संघ के प्रति कितने नरम रहे होंगे इसका लेखा जोखा तो मौजूदा सत्ता में बैठे लोग आये दिन नेहरू नेहरू करके बताते रहते हैं.

प्रो ईश्वरी प्रसाद जी का पूरा वैचारिक आधार बहुजन उत्थान का रहा है यही कारन है की उन्हें अपने जीवन में द्विज वामपंथियों और कांग्रेसियों ने बहुत परेशां किया और अनेक षडयंत्र किये होंगे। यही कारन रहा होगा की वह अपने जीवन में सामाजिक न्याय को बहुत ही तकनिकी तौर पर लडे, जबकि बहुतों ने चापलूसी करके सुविधा और सोहरत हासिल की। सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक ऊंचाई तक पहुंचाया यहां तक कि देश के तमाम समाजवादियों से उनके बहुत अच्छे रिश्ते रहे और पूरी जिंदगी कांग्रेश के खिलाफ लड़ते रहे. और उनका अपना सपना है कि कांग्रेश नस्त नाबूत हो जाय क्योंकि वः एक परिवार की पार्टी है. उनके अनुसार कांग्रेस का खत्म होना जरूरी है ?
हम इस दुख में उनके परिवार के साथ हैं।
सादर नमन।
सादर
डॉ लाल रत्नाकर




मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

बात करें अब कामकाज की।

बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।
सदियों सदियों का पाखंड।
नऐ कलेवर में आया है।
भक्तजनों की अंधभक्ति ने,
जनमानस को छलने खातिर!
विविध रूप का वेश धरा है।
अगवा करने वाला भी !
अब भगवा पहन पहन के।
गायों को छुट्टा छोड़ दिया।
इंसानों को जो बांध दिया है।
बुलडोजर का भय दिखलाकर।
हौसला ही सबका तोड़ दिया है।
लाठी डंडा कंकड़ पत्थर।
व्यवस्था पर प्रहार का था सिम्बल ।
जनता का सबसे माकूल हथियार रहा है।
अब उसके बदले मोबाइल पर।
व्हाट्सएप के हुए गुलाम सब।
ट्विटर ट्विटर कर कर के।
जब नेताजी हो गए बेहाल।
आओ हम सब मिलकर के,
वैज्ञानिक उपचार पर करें विचार।
बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।

डॉ लाल रत्नाकर

 

बात करें अब कामकाज की।

बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।
सदियों सदियों का पाखंड।
नऐ कलेवर में आया है।
भक्तजनों की अंधभक्ति ने,
जनमानस को छलने खातिर!
विविध रूप का वेश धरा है।
अगवा करने वाला भी !
अब भगवा पहन पहन के।
गायों को छुट्टा छोड़ दिया।
इंसानों को जो बांध दिया है।
बुलडोजर का भय दिखलाकर।
हौसला ही सबका तोड़ दिया है।
लाठी डंडा कंकड़ पत्थर।
व्यवस्था पर प्रहार का था सिम्बल ।
जनता का सबसे माकूल हथियार रहा है।
अब उसके बदले मोबाइल पर।
व्हाट्सएप के हुए गुलाम सब।
ट्विटर ट्विटर कर कर के।
जब नेताजी हो गए बेहाल।
आओ हम सब मिलकर के,
वैज्ञानिक उपचार पर करें विचार।
बहुत हुई अब जुमले बाजी।
बात करें अब कामकाज की।

डॉ लाल रत्नाकर


 

सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

एक युद्ध जहां मानवता अब परीक्षण पर है

एक युद्ध जहां मानवता अब परीक्षण पर है


सोनिया गांधी
(कांग्रेस संसदीय दल के अध्यक्ष हैं)

7 अक्टूबर, 2023 को योम किप्पुर युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर, हमास ने इज़राइल पर क्रूर हमला किया, जिसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर नागरिक थे, और 200 से अधिक लोगों का अपहरण कर लिया गया। यह अभूतपूर्व हमला इज़राइल के लिए विनाशकारी था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दृढ़ विश्वास है कि सभ्य दुनिया में हिंसा का कोई स्थान नहीं है, और अगले ही दिन हमास के हमलों की स्पष्ट रूप से निंदा की।
हालाँकि, यह त्रासदी गाजा में और उसके आसपास इजरायली सेना के अंधाधुंध अभियानों के कारण और भी गंभीर हो गई है, जिसके कारण बड़ी संख्या में निर्दोष बच्चों, महिलाओं और पुरुषों सहित हजारों लोगों की मौत हो गई है। इज़रायली राज्य की शक्ति अब उस आबादी से बदला लेने पर केंद्रित है जो काफी हद तक असहाय होने के साथ-साथ निर्दोष भी है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली सैन्य शस्त्रागारों में से एक की विनाशकारी ताकत बच्चों, महिलाओं और पुरुषों पर लागू की जा रही है, जिनका हमास के हमले में कोई हिस्सा नहीं है; इसके बजाय, अधिकांश भाग के लिए, वे दशकों के भेदभाव और पीड़ा के केंद्र में रहे हैं।
"मानव जानवर"। यह अमानवीय भाषा चौंकाने वाली है जो उन लोगों के वंशजों से आ रही है जो स्वयं नरसंहार के शिकार थे।

फिलिस्तीनियों और इजरायलियों दोनों को न्यायपूर्ण शांति से रहने का अधिकार है। हम इज़राइल के लोगों के साथ अपनी दोस्ती को महत्व देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी यादों से उस दर्दनाक इतिहास को मिटा दें, जो सदियों से फिलिस्तीनियों को उनकी मातृभूमि से बेदखल करने के लिए मजबूर किया गया था, और गरिमा और आत्म-सम्मान के जीवन के उनके मूल अधिकार के वर्षों के दमन को भी मिटा दिया गया है।
मानवता अब परीक्षण पर है. इजराइल पर क्रूर हमलों से हम सामूहिक रूप से कमजोर हुए थे। इजराइल की असंगत और समान रूप से क्रूर प्रतिक्रिया से अब हम सभी कमजोर हो गए हैं। हमारी सामूहिक चेतना को जगाने और जगाने से पहले और कितनी जानें लेनी होंगी?

कुछ शरारती सुझावों के विपरीत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थिति लंबे समय से चली आ रही और सैद्धांतिक रही है: यह एक संप्रभु स्वतंत्र के लिए सीधी बातचीत का समर्थन करना है। फ़िलिस्तीन का व्यवहार्य और सुरक्षित राज्य, इज़राइल के साथ शांति से सह-अस्तित्व में। 12 अक्टूबर, 2023 को विदेश मंत्रालय द्वारा भी यही रुख अपनाया गया था। उल्लेखनीय है कि फिलिस्तीन पर भारत की ऐतिहासिक स्थिति की पुनरावृत्ति इजराइल द्वारा गाजा पर हमला शुरू करने के बाद ही आई थी। प्रधान
इजरायली सरकार हमास के कार्यों की तुलना फिलिस्तीनी लोगों से करके गंभीर गलती कर रही है। हमास को नष्ट करने के अपने दृढ़ संकल्प में, इसने गाजा के आम लोगों के खिलाफ अंधाधुंध मौत और विनाश को अंजाम दिया है। अगर फ़िलिस्तीनियों की पीड़ा के लंबे इतिहास को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो भी किस तर्क से एक पूरी आबादी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है कुछ लोगों के कार्यों के लिए? यह लगातार दोहराया जाता है कि फ़िलिस्तीनियों को जिन जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है - वे समस्याएँ

मंत्री ने इज़राइल के साथ पूर्ण एकजुटता व्यक्त करते हुए प्रारंभिक बयान में फ़िलिस्तीनी अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गाजा में इजरायली बलों और हमास के बीच "शत्रुता की समाप्ति के लिए तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम" के लिए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत की अनुपस्थिति का कड़ा विरोध करती है।
बाहरी शक्तियों द्वारा संचालित अशांत साम्राज्यवादी इतिहास में निहित हैं-केवल बातचीत के माध्यम से हल किया जा सकता है। यह भी लगातार दोहराया जा रहा है कि इस वार्ता में फिलिस्तीनियों की वैध आकांक्षाओं को शामिल किया जाना चाहिए, जिसमें एक संप्रभु राज्य की आकांक्षा भी शामिल है।
दशकों से उन्हें इससे वंचित रखा गया है, साथ ही साथ इज़राइल की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा रही है। दुनिया को कार्रवाई करनी चाहिए

इस पागलपन को ख़त्म करने के लिए दोनों तरफ से आवाज़ें उठ रही हैं। कई इजरायली, हार चुके हैं, न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती। आतंकी हमलों में इजराइल के मित्र और परिवार अब भी मानते हैं कि फिलिस्तीनियों के साथ बातचीत ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। कई फ़िलिस्तीनी स्वीकार करते हैं कि हिंसा से केवल और अधिक पीड़ा होगी और यह उन्हें आत्म-सम्मान, समानता और सम्मान के जीवन के उनके सपने से और भी दूर ले जाएगी। 

कांग्रेस का रु

न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती. डेढ़ दशक से अधिक समय से इजरायल की निरंतर नाकाबंदी ने गाजा को घने शहरों और शरणार्थी शिविरों में बंद अपने दो मिलियन निवासियों के लिए "खुली हवा वाली जेल" में बदल दिया है। यरूशलेम और वेस्ट बैंक में, इजरायली राज्य द्वारा समर्थित इजरायली निवासियों ने दो-राज्य समाधान की दृष्टि को नष्ट करने के एक स्पष्ट प्रयास में फिलिस्तीनियों को अपनी ही भूमि से बाहर निकालना जारी रखा है। शांति तभी आएगी जब नीतियों और घटनाओं को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाले देशों के नेतृत्व में दुनिया दो-राज्य के दृष्टिकोण को बहाल करने की प्रक्रिया को फिर से शुरू कर सकती है और इसे वास्तविकता बना सकती है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्षों से अपने दृढ़ विश्वास पर कायम रही है कि फिलिस्तीनियों और इजरायलियों दोनों को न्यायपूर्ण शांति से रहने का अधिकार है। हम इज़राइल के लोगों के साथ अपनी दोस्ती को महत्व देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी यादों से फिलिस्तीनियों को सदियों से उनकी मातृभूमि से जबरन बेदखल करने के दर्दनाक इतिहास और सम्मान और आत्मसम्मान के जीवन के उनके मूल अधिकार के वर्षों के दमन को मिटा दें।

कुछ शरारती सुझावों के विपरीत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थिति लंबे समय से चली आ रही है और सैद्धांतिक है: यह इजरायल के साथ शांति से सह-अस्तित्व में फिलिस्तीन के एक संप्रभु स्वतंत्र, व्यवहार्य और सुरक्षित राज्य के लिए सीधी बातचीत का समर्थन करना है। 12 अक्टूबर, 2023 को विदेश मंत्रालय द्वारा भी यही रुख अपनाया गया था। उल्लेखनीय है कि फिलिस्तीन पर भारत की ऐतिहासिक स्थिति की पुनरावृत्ति इजराइल द्वारा गाजा पर हमला शुरू करने के बाद ही आई थी। प्रधान मंत्री ने इज़राइल के साथ पूर्ण एकजुटता व्यक्त करते हुए प्रारंभिक बयान में फिलिस्तीनी अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गाजा में इजरायली बलों और हमास के बीच "शत्रुता की समाप्ति के लिए तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम" के लिए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत के बहिष्कार का कड़ा विरोध करती है।

दुनिया को कार्रवाई करनी चाहिए

इस पागलपन को ख़त्म करने के लिए दोनों तरफ से आवाज़ें उठ रही हैं। आतंकी हमलों में दोस्तों और परिवार को खोने के बाद भी कई इजरायली मानते हैं कि फिलिस्तीनियों के साथ बातचीत ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। कई फ़िलिस्तीनी स्वीकार करते हैं कि हिंसा से केवल और अधिक पीड़ा होगी और यह उन्हें आत्म-सम्मान, समानता और सम्मान के जीवन के उनके सपने से और भी दूर ले जाएगी।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई प्रभावशाली देश पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं जबकि उन्हें युद्ध समाप्त करने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। सबसे ऊँची और सबसे शक्तिशाली आवाज़ें सैन्य गतिविधि की समाप्ति के लिए होनी चाहिए। अन्यथा, यह चक्र जारी रहेगा और आने वाले लंबे समय तक इस क्षेत्र में किसी के लिए भी शांति से रहना मुश्किल हो जाएगा।


(हिन्दू  अंग्रेजी* से साभार)  


A war where humanity is on trial now

Sonia Gandhi

is Chairperson of the Congress Parliamentary Party

October 7, 2023, on the 50th anniversary of the Yom Kippur War, Hamas launched a brutal attack on Israel, killing more than a thousand people, mostly civilians, and kidnapping over 200 more. The unprecedented attack was devastating for Israel. The Indian National Congress strongly believes that violence has no place in a decent world, and the very next day unequivocally condemned Hamas's attacks.

This tragedy is, however, being compounded by the Israeli military's indiscriminate operations in and around Gaza that have led to thousands of deaths, including large numbers of innocent children, women and men. The power of the Israeli state is now focused on exacting revenge from a population that is largely as helpless as it is blameless. The destructive might of one of the world's most potent military arsenals is being unleashed upon children, women and men who have no part in the Hamas assault; they, instead, for the most part, have been at the heart of decades of discrimination and suffering.

"human animals". This dehumanising language is shocking coming from the descendants of those who themselves were the victims of the Holocaust.

both the Palestinians and Israelis have the right to live in a just peace. We value our friendship with the people of Israel. But this does not mean that we erase from our memories, the painful history forced dispossession of the Palestinians from what was their homeland for centuries, and of years of suppression of their basic right to a life of dignity and self-respect.

Humanity is on trial now. We were collectively of diminished by the brutal attacks on Israel. We are now all diminished by Israel's disproportionate and equally brutal response. How many more lives will have to be taken before our collective conscience is stirred and awakened?

Contrary to some mischievous suggestions, the position of the Indian National Congress has been long standing and principled: it is to support direct negotiations for a sovereign independent. viable and secure state of Palestine coexisting in peace with Israel. This is also the stand taken by the Ministry of External Affairs on October 12, 2023. It is noteworthy that the reiteration of India's historic position on Palestine came only after Israel began its assault on Gaza. The Prime

The Israeli government is making a grievous error in equating the actions of Hamas with the Palestinian people. In its determination to destroy Hamas, it has unleashed indiscriminate death and destruction against the ordinary people of Gaza. Even if the long history of the suffering of the Palestinians is ignored, by what logic can a whole population be held responsible

for the actions of a few? It bears constant repeating that the complex problems faced by Palestinians - problems that

Minister had made no mention of Palestinian rights in the initial statement expressing complete solidarity with Israel. The Indian National Congress is strongly opposed to India's abstention on the recent United Nations General Assembly Resolution calling for an "immediate, durable and sustained humanitarian truce leading to a cessation of hostilities" between Israeli forces and Hamas in Gaza.

are rooted in a troubled imperial history orchestrated by outside powers-can only be solved through dialogue. It bears constant repeating, too, that this dialogue must accommodate the legitimate aspirations of the Palestinians, including that of a sovereign state,

that have been denied to them for decades, while at the same time ensuring the security of Israel. The world must act

There are voices on both sides speaking for an end to this madness. Many Israelis, having lost There can be no peace without justice. Israel's friends and family in the terror attacks, still believe that a dialogue with the Palestinians is the only way forward. Many Palestinians acknowledge that violence will only lead to more suffering and take them further away from their dream of a life of self-respect, equality and dignity.


बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

अंबेडकर काव्य में जनकल्याण- भावना

अंबेडकर काव्य में जनकल्याण- भावना


सुरेश चन्द्र

भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचार, संघर्ष और लेखन ने दुनिया के मानव समाज को प्रभावित किया है। उन्होंने ज्ञान को मानव के तमाम प्रकार के शोषण से मुक्ति का साधन मानकर तदनुरूप सार्थक उपक्रम किए। आज उन्हें ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। दुनिया के सबसे बड़े तोकतंत्र भारत के संविधान की रचना करके उन्होंने भारत राष्ट्र को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया। मानव सभ्यता के विकास में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अद्वितीय योगदान को ध्यान में रखते हुए उनको केंद्र में रखकर हिंदी के साहित्यकारों ने विभिन्न विधाओं में साहित्य की रचना की है। मैं इस साहित्य को हिंदी अम्बेडकर साहित्य के रूप में संज्ञायित करता हूँ। हिंदी अम्बेडकर साहित्य के अंतर्गत अम्बेडकर काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा चुका है। यहाँ हिंदी अम्बेडकर काव्य में अभिव्यक्त बहुआयामी जन कल्याण की भावना को रेखांकित करने का लघु प्रयास किया जा रहा है।

दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारत के शोषित पीड़ित जनों के हितों की सुरक्षा के लिए जोरदार बहस की जीवन व्यवहार में ऊंच-नीच बरतते हुए जो लोग केवल सत्ता सुख चाहते थे, उनकी सच्चाई बयान करते हुए उन्होंने बहु सुखाय शासन व्यवस्था लागू करने की बात बलपूर्वक कही। डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा दूसरे गोलमेज सम्मेलन में व्यक्त की गई जन कल्याण की भावना को बिहारी लाल हरित ने 'भीमायण' महाकाव्य के 'लंदन' शीर्षक कांड में शब्द दिए हैं। बहस करते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा कि मम जनतंत्र शासन चाहता, प्राणी मात्र से है नाता / बहु सुखाय हो बहु हितकारी, ऐसा शासन सत्ता हो बिहारी।'

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बहुआयामी विपरीतताओं का सामना करते हुए दलित के रूप में पहचान प्राप्त भारत के साधारण जनों को जीवन जीने की मानवीय स्थितियाँ प्रदान कीं मनुवादी व्यवस्था के आधार 'मनुस्मृति' को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जला दिया। 'मनुस्मृति वर्ण व्यवस्था के तहत भारत के जिन साधारण जनों को अधिकार रहित अपमानजनक जीवन जीने के लिए बाध्य करती थी, भारत के उन साधारण जनों को सबके बराबर लाकर खड़ा कर दिया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर की यह जन कल्याण भावना ए.आर. अकेला कृत 'भीम ज्ञान गीतांजलि' शीर्षक गीत संग्रह में सर्वत्र विन्यस्त है। ए.आर. अकेला कृत 'भीम ज्ञान गीतांजलि' शीर्षक गीत संग्रह के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ अग्रांकित है-तूफानों में दीये बाबा ने जलाए हैं/मुरझाए हुए चेहरे दलितों के खिलाए हैं। / लाचार गुलामों की दुनिया ही बदल डाली / मनु ने जो रोपे थे दरख्त वो हिलाए हैं/मुरझाए हुए चेहरे दलितों के खिलाए हैं।'

गोपालदास नीरज ने अपने गीत में डॉ. भीमराव अम्बेडकर को पीड़ित जनों के पालक बताते हुए कल्याण राग के गायक के रूप में चित्रित किया है- तुम दलितों के लिए अयोध्या दुखियों के वृन्दावन थे / इतिहासों तक ने जिनका दुख कभी नहीं स्वीकारा था / मिलजुल कर तुमने उनका जीवन यहाँ संवारा था / शूल चुने चुमने शोषित के, मूक जनों को वाणी दी। वाणी के संग-संग जीवों को संज्ञा की कल्यानी दी। / तुम कल्याण राग के गायक सचमुच पुरुष पुरातन थे। पीड़ित के पालक तुम नर के चोले में नारायण थे।'

डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा रचित भारत का संविधान प्रत्येक शोषित पीड़ित के कल्याण की गारंटी का दस्तावेज है। संविधान के माध्यम से भारत राष्ट्र के नागरिकों समानता का अधिकार देने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जन कल्याण भावना को हेमलता शर्मा ने 'अमरत्व भीम के विचारों ने पाया है' शीर्षक कविता में व्यक्त किया है भारत-विधान बाबा भीम ने बनाया है/ अधिकार हमें समता का दिलाया है/दुत्कारा गया सर्वाधिक जो भारत में / अम्बेडकर ने वही समाज तो उठाया है।'



२४ सितंबर, १९३२ ई. को डॉ. भीमराव अम्बेडकर और महात्मा गाँधी के मध्य पूना (महाराष्ट्र) में हुआ पूना पैक्ट भारत के इतिहास की अत्यंत उल्लेखनीय घटना है। इस पैक्ट ने भारत की राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल दी। 'भीमकथा' में पूना पैक्ट से पूर्व अपनी बेजोड़ जनप्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर कहते हैं कि मुझको यह अच्छी तरह ज्ञात, गाँधी एक श्रेष्ठ पुरुषों में हैं लेकिन मेरे करोड़ों अछूत, जीवन के अंधकार में हैं। उनके अधिकार न छोड़ेगा, चाहे मुझे खंबे से लटका दो/ जीवन पशुओं की भाँति जिया, उसका प्रतिफल भी बतला दो ॥' भारत में बहुजन साधारण जनों के प्रति तथाकथित उच्चवर्णी जनों के अपमानयुक्त असमान जीवन व्यवहार को डॉ. भीमराव अम्बेडकर समाप्त कर देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने पूना पैक्ट से पूर्व गाँधी के समर्थकों के सामने अछूतों के हित में समान अधिकार की माँग रखी। भीम शतक' शीर्षक खंड काव्य में माता प्रसाद 'मित्र' ने इस संबंध में लिखा है कि कहें अम्बेडकर, भारत हमारा देश / करते इसे हम हृदय से प्यार हैं। / देश हो स्वतंत्र नहिं मतभेद रंचमात्र / लेकिन अछूत यहाँ बहुतै लाचार हैं। इसलिए पहले समान अधिकार मांग / फिर हो स्वतंत्र देश रहा यह विचार है।'

जो धर्म कुछ लोगों के लिए लाभ का विषय हो और कुछ लोगों के लिए हानि अथवा वंचना का विषय बना दिया जाय, उस धर्म से समाज का समान विकास अवरुद्ध होना ही होना है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर संपूर्ण मानव समाज का कल्याण होता हुआ देखना चाहते थे। अपनी लोक कल्याणकारी भावना को व्यावहारिक रूप देने के लिए ही उन्होंने भेदमूलक हिंदू धर्म को त्याग कर लोक कल्याण की भावना से परिपूर्ण बौद्ध धर्म को अपनाया। बौद्ध धर्म के माध्यम से लोक कल्याण करने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सर्वोत्तम क्रांतिकारी उपक्रम को कविवर माता प्रसाद ने अग्रांकित पंक्तियों में चित्रित किया है तेइस सितंबर छप्पन घोषणा किए हैं भीम/चौदह अक्टूबर बौद्ध धर्म अपनाएँगे / बुद्धिवाद, प्रेम, समता से युक्त बुद्ध धर्म / अंधविश्वास, जाति, वर्ण हम हटाएँगे। / आत्मसम्मान, बंधुत्व, पंचशील हेतु/हिंदू वर्ण धर्म से दूर भारत का संविधान जन कल्याण भावना का वैधानिक दस्तावेज है। भारत के संविधान के रचनाकार बनकर डॉ. भीमराव अम्बेडकर जन कल्याण के पक्ष में अकाट्य बहस किया करते थे। वे जन कल्याण के महान लक्ष्य को साधने के लिए राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ लोकतंत्र को सामाजिक स्तर पर बरते जाने के लिए सार्थक तर्क देते थे। 'युगस्रष्टा' शीर्षक महाकाव्य में कवि ने इस संदर्भ में लिखा है कि-'संविधान के हर वाचन में भीमराव उत्तर देते थे / जिसको सुनकर वहाँ उपस्थितदां तले उंगली लेते थे/ राजनीति का लोकतंत्र तब तक ही कायम रह पाएगा / जब तक सामाजिक लोकतंत्र सकी तह को गह पाएगा।

भारत राष्ट्र में किसानों एवं मजदूरों का जीवन भाँति-भाँति की समस्याओं से ग्रसित रहा है। भारत में किसानों एवं मजदूरों की समस्याओं का निदान जन कल्याण का अति विशिष्ट आयाम है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर महान अर्थशास्त्री थे। उन्होंने किसानों एवं मजदूरों के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनकी समस्याओं के निदान हेतु बहुविधि उपक्रम किए। हिंदी अम्बेडकर काव्य में मजदूरों एवं मजदूरों के कल्याण के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किए गए प्रयासों का व्यापक स्तर पर चित्रण हुआ है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जनसम्मेलन में भाग लिया और अपने व्याख्यान में किसानों एवं मजदूरों की आर्थिक स्थिति सुधारने के उपायों की बात कही। जवाहर लाल कौल व्यग्र ने 'युगस्रष्टा' में लिखा है 'भूमि-दासता बेगारी का प्रश्न भीम ने ऐसा लिया / उठाय जगह-जगह पर जोरों से था उस क्षण/खेती प्रथा बंद होवे, खेतों के मालिक वह हो रहे जोतते उसको जो निज खून-पसीना देकर पंढरपुर की सभा बीच बोले थे बाबा साहब / तीन समस्याएँ है हमको आज देखनी सत्वर / समता का दर्जा समाज में, राष्ट्रीय धन में हिस्सा / सब समान हैं और मदद सबकी होनी आवश्यक।' मजदूरों के लिए श्रम अनुसार पारिश्रमिक और एक दिन में श्रम करने का समय निश्चित होना जन कल्याण का उल्लेखनीय आयाम है। इससे मजदूरों को पूँजीपतियों के द्वारा किए जाते रहे उनके शोषण से काफ़ी हद तक राहत मिली। यह सब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की श्रमिक हित विषयक चेतना और तद्विषयक संघर्ष का परिणाम है। 'भीमकथा अमृतम्' में आर.डी. निमेष ने इस सच्चाई का सटीक वर्णन किया है-'श्रम सम्मेलन गिरा सुनाए, शिशु शिक्षा अब सुलभ कराए। पारिश्रमिक उचित दिलवाए, भोजन वस्त्र मकान दिलाए। / कामकाज का समय न कोई, श्रमिक वर्ग हित निश्चित होई।'

मनुष्य के कल्याण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन शिक्षा है। गौतम बुद्ध, संत शिरोमणि रैदास, कबीर और ज्योतिबा फुले ने शिक्षा द्वारा ही मानव कल्याण के द्वार खोले। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी अपने जीवन में शिक्षा को सर्वाधिक महत्त्व दिया। शिक्षा प्राप्त करने के लिए वंचित जनों का आह्वान करते हुए उन्होंने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने शिक्षा को जिस प्रकार जन कल्याण के प्रमुख साधन के रूप में स्वीकार किया, हिंदी अम्बेडकर काव्य में शिक्षा को उसी रूप में स्थान दिया गया है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जन कल्याण के हिमायतियों से चंदा का संग्रह करके सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना की। भीमकथा अमृतम्' की अग्रांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-संस्थान आदर्श बनाना, मध्यवर्ग अनुसूचित हित जाना। / बुनियादी पत्थर रखवाया, प्यूपल शिक्षा संस्थान बनाया / बीस जून छियालीस सुहानी, कॉलिज की रचना करि आनी ॥' अपनी जन कल्याण भावना के तहत डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने लोगों की शिक्षा के लिए जो प्रयास किए, उन प्रयत्नों का वंचित जनों ने लाभ उठाया है। शिक्षा प्राप्त वंचित जन अब अपनी बहुआयामी प्रगति करने के साथ अपने और अपने समाज के लिए अधिकारों की बात करता है, शिक्षा के बल पर ही वंचित जन अपने वास्तविक इतिहास और भारत के निर्माण में अपने योगदान से अवगत हो रहे हैं। यही कारण है कि दलित साहित्य के उल्लेखनीय हस्ताक्षर सूरजपाल चौहान ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर को मानवता के प्रतीक मानते हुए शोषितों के हृदय में ज्ञान का दीपक जलाने वाले बताया है-'मानवता के प्रतीक / तुमने / इस भारत भूमि पर आकर / भूखे, नंगे और शोषितों को जगाया। / तुमने ही उनके बंद हृदय में / जलाया ज्ञान का दीप / बनकर साहेब / दलित जनों के / उन्हें नई राह दिखाई।'


आज की भारत राष्ट्र डॉ. भीमराव अम्बेडकर के द्वारा गढ़ा गया आज भारत का वह प्रत्येक नागरिक जिसके पूर्वजों को वर्ण, जाति और धर्म के आधार पर विकास से पूर्णतः वंचित कर दिया जाता था, किसी भी पद पर आसीन हो सकता है तथा जितना चाहे उतना विकास कर सकता है सूरजपाल चौहान ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर को इसीलिए अपनी कविता में आगे देश के नव निर्माता लिखा है और उन्हें शत्-शत् नमन किया है।

उपर्युक्त अध्ययन के आलोक में यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी अम्बेडकर काव्य के रचयिताओं ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर की लोक कल्याणकारी भावना को व्यापक रचनात्मक धरातल पर वाणी दी है। अब आवश्यकता इस बात की है कि भारत का प्रत्येक नागरिक हिंदी अम्बेडकर काव्य में चित्रित लोक कल्याण की भावना को समझे और उसके अनुरूप व्यवहार करे।


(नई धारा के अक्टूबर 2023 से साभार )


शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

भारतीय संविधान की कल्पना एक कार्यशील लोकतंत्र के लिए क्यों की गई, न कि चुनावी निरंकुशता के लिए

भारतीय संविधान की कल्पना एक कार्यशील लोकतंत्र के लिए क्यों की गई, न कि चुनावी निरंकुशता के लिए

फली नरीमन की स्पष्ट रूप से लिखी गई, व्यापक रूप से शोध की गई संविधान की अवश्य पढ़ी जाने वाली मार्गदर्शिका की सुंदरता यह है कि यह केवल वकीलों और शिक्षाविदों के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीयों के लिए है।

कूमी कपूर द्वारा लिखित

इण्डियन एक्सप्रेस से साभार ;

New Delhi | Updated: October 21, 2023 17:24 IST



आपको अपना संविधान जानना चाहिए, फली एस नरीमन द्वारा

मेरे जैसा कोई कानून पृष्ठभूमि वाला पत्रकार इतना अभिमानी क्यों नहीं है कि वह कानूनी विशेषज्ञ फली नरीमन की नवीनतम पुस्तक की समीक्षा करे? क्योंकि इस स्पष्ट रूप से लिखी गई, व्यापक रूप से शोध की गई संविधान की अवश्य पढ़ी जाने वाली मार्गदर्शिका की सुंदरता यह है कि यह केवल वकीलों और शिक्षाविदों के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीयों के लिए है। रोचक उपाख्यानों द्वारा जीवंत की गई एक बहुत ही पठनीय शैली में, लेखक हमें गणतंत्र के संस्थापक दस्तावेज़ के निर्माण और अदालतों द्वारा व्याख्या के संदर्भ में इसके धीमे विकास की पृष्ठभूमि देता है। वह अनावश्यक तकनीकीताओं और कानूनी पचड़ों में फंसने से बचने की कोशिश करता है जो आम आदमी को डरा सकती हैं।

नरीमन तंज कसते हुए बताते हैं कि भारतीय संविधान का मसौदा और कल्पना एक कामकाजी लोकतंत्र के लिए बनाई गई थी, न कि चुनावी निरंकुशता के लिए। 1950 में अधिनियमित, यह सौ से अधिक संशोधनों के साथ दुनिया का सबसे लंबा संविधान है। सम्मानित राष्ट्रमंडल इतिहासकार आइवर जेनिंग्स ने हमारे संविधान की लंबाई, कठोरता और शब्दाडंबर के लिए उत्कृष्ट आलोचना की। लेकिन भारतीय संविधान के प्रारूपकारों को जेनिंग्स पर आखिरी हंसी आई, जिन्हें श्रीलंकाई संविधान का मसौदा तैयार करने का काम सौंपा गया था। वह संविधान केवल 14 वर्ष तक चला। हमारा संविधान 70 वर्षों से समय की कसौटी पर खरा उतरा है, यह एक प्रभावशाली रिकॉर्ड है, यह देखते हुए कि किसी संविधान की औसत आयु केवल 17 वर्ष है।

लेखक बताते हैं कि कोई संविधान अपनी सामग्री पर जीवित नहीं रहता है, यह लोगों के प्रतिनिधियों के बीच संवैधानिकता की भावना है जो इसे जीवित और कार्यशील रखती है। पिछले 75 वर्षों में, केंद्र में दो प्रकार की बहुसंख्यक सरकारें रही हैं: 1952 से 1989 तक कांग्रेस सरकारें और 2014 के बाद से भाजपा का नियंत्रण। कोई भी रिकॉर्ड प्रेरणादायक नहीं था. भारत का संविधान अधिकांश की तुलना में कार्यकारी विंग को अधिक शक्ति प्रदान करता है। किसी भी अन्य राष्ट्रमंडल देश में आपातकाल की स्थिति को छोड़कर, केंद्र में मुख्य कार्यकारी (राष्ट्रपति) और राज्यों में मुख्य कार्यकारी (राज्यपाल) के पास अध्यादेश द्वारा कानून बनाने की शक्ति नहीं है।

कार्यपालिका के प्रभुत्व को इस तथ्य से बल मिलता है कि संसद सत्र और राज्य विधानसभाओं की अवधि के लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं है। निर्णय पूरी तरह से संबंधित सरकारों पर छोड़ दिया गया है। सिद्धांत रूप में, सरकार अपने तक ही सीमित कानून लागू करती है। व्यवहार में, यह सरकार ही है जो कानून बनाती है और अपने बहुमत के माध्यम से संसद से उन पर सहमति दिलाती है। संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की सीमा और प्रकृति है, जो एक सर्वव्यापी अंतिम न्यायालय के रूप में कार्य करता है। हमारी आजादी के शुरुआती वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट आम तौर पर संविधान की व्याख्या के लिए विधायकों के साथ चलता था। लेकिन 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। "न्यायिक शक्ति पर लगातार विधायी और कार्यकारी अतिक्रमण ने अंततः अदालत को उसकी वास्तविक भूमिका - राष्ट्र के विवेक के रक्षक - के प्रति सचेत कर दिया।" ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह प्रस्ताव तैयार किया कि विधायिका के पास नागरिक के मौलिक अधिकारों की गारंटी सहित संविधान की मूल संरचना या ढांचे में संशोधन या परिवर्तन करने की शक्ति नहीं है।

लेखक संविधान की तुलना में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के लिए नए सिरे से किए गए प्रयास के पक्ष और विपक्ष में तर्कों पर चर्चा करता है। जबकि अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि राज्य पूरे देश में यूसीसी को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा, इरादे की यह अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 37 के तहत लागू करने योग्य नहीं है। नरीमन का मानना है कि क्योंकि संवैधानिक लोकतंत्रों में बहस बहुमत के शासन पर आधारित है, अदालतें इसके पक्ष में झुकती हैं अल्पसंख्यक - इसलिए नहीं कि अल्पसंख्यक आवश्यक रूप से सही हैं - बल्कि इसलिए कि उनके पास अपनी आकांक्षाओं को कानून में बदलने के लिए आवश्यक वोट नहीं हैं। उनके विचार में, केवल बहुमत की इच्छा पर थोपे गए व्यक्तिगत कानूनों का लागू शासन धर्मनिरपेक्षता नहीं है। वह पारसी पर्सनल लॉ का उदाहरण देते हैं जहां निर्वसीयत उत्तराधिकार कानून में बदलाव की मांग की गई थी क्योंकि यह महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण था। इंदिरा गांधी ने तब तक अधिनियम में संशोधन करने से इनकार कर दिया जब तक कि पहले समुदाय में भारी सहमति न बन जाए। कानून को वर्षों बाद 1991 में बदल दिया गया जब बॉम्बे पारसी पंचायत ने सहमति व्यक्त की कि समुदाय सर्वसम्मति से इस सुधार की इच्छा रखता है।

आरक्षण एक और विवादास्पद विषय है जिस पर संवैधानिक धाराओं की दोनों तरह से व्याख्या की जा सकती है। साढ़े तीन दशकों से नीति निर्माता लगातार सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का दायरा बढ़ा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेदों पर कई मामलों का फैसला किया है 

आम जीवन से जुडी कला

 https://www.forwardpress.in/2016/06/amjivan-se-judi-kala_omprakash-kashyap/ आम जीवन से जुडी कला बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को ...