शनिवार, 20 नवंबर 2010

नई आजादी की जरूरत

( दैनिक  भाष्कर से साभार )


‘आज से आठ दशक और सात साल पूर्व हमारे पूर्वजों ने हमारे इस महादेश में निर्माण किया था एक नए देश का। निर्माण किया था उसका एक खुली आजादी के माहौल में, यह मानते हुए कि हर इंसान हर दूसरे इंसान के बराबर है। कोई भी व्यक्ति किसी से ऊंचा नहीं और ना ही किसी से कोई नीचा है।

‘और अब हम, उस ही देश की नस्ल, भिड़े हुए हैं एक-दूसरे से एक घमासान जंग में, जो कि यह फैसला कर दिखाएगी कि यह देश या फिर ऐसा कोई भी देश, ऐसी बेहतरीन सोच और ऐसे संकल्प वाला देश, बरकरार रह सकता है भी या नहीं। 

हम यहां उस ही जंग-ए-सीने के एक ऐसे हिस्से पर जमा हुए हैं। हम यहां जमा हुए हैं उस रण-खेत के एक टुकड़े को उन्हें मखसूस करने, उनको समर्पित करने, जिन्होंने अपनी जान दे दी ताकि हमारा यह देश जीता रहे। यह बिल्कुल लाजमी है कि हम यह समर्पण-क्रिया करें।

‘लेकिन अगर हम अपनी नजर और आगे डालें, तो हम साफ देख पाएंगे कि मखसूस हम नहीं कर सकते, समर्पण हमसे नहीं हो सकता, इस जमीन को मुकद्दस करना हमारे हाथों की ताकत से परे है। यह काम वह बहादुर नौजवान और शहीद खुद कर चले हैं, यहां इस रण-खेत में अपनी जद्दोजहद से, अपनी जांफिशानी से। 

उस महान स्वयं-समर्पण में, उस संकल्प के यज्ञ में, हमारी अदना ताकत से ना कुछ जोड़ा जा सकता है, ना ही कुछ घटाया जा सकता है। दुनिया ना तो गौर करेगी और ना ही इस बात को याद रखने की कोशिश कि हमने यहां आज क्या कहा या नहीं कहा। 

लेकिन, बशर्ते, तवारीख वो कभी ना भूलेगी जो उन बहादुरों ने यहां कर दिखाया है। समर्पण उनको या उनके लिए नहीं। बल्कि आज समर्पित होना है हमको, जो उनकी कुर्बानी की वजह से जिंदा हैं, उनके बाकी काम को पूरा करने के लिए, उस काम को आगे ले जाने के लिए, जो कि हमारे सामने वे छोड़ गए हैं। 

आज हमें उन सम्मानित वीरों से वह प्रेरणा लेनी है, वह जांनिसारी हासिल करनी है, जिसके लिए उन्होंने अपनी जानें न्यौछावर करी हुई हैं। और आज, अब हमें यह प्रतिज्ञा लेनी है और जमाने को यह इत्तेला देनी है कि उन वीरों की शहादत कभी भी बेफल नहीं होगी, और परमात्मा के मेहर से हमारा देश एक नई आजादी हासिल करेगा और हमारा यह इंतजाम, अवाम का, अवाम से और अवाम ही के लिए बना हुआ यह इंतजाम दुनिया के चेहरे से कभी ना मिटेगा।’

यह ऐतिहासिक भाषण अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने 19 नवंबर, 1863 को गेटिसबर्ग में अमेरिकी गृहयुद्ध में मारे गए सैनिकों की स्मृति में निर्मित सोल्जर्स नेशनल सीमेट्री राष्ट्र को समर्पित करते समय दिया था। क्या वजह है कि दशकों बीत जाने के बाद भी दुनियाभर के लोगों पर यह उद्बोधन गहरा प्रभाव डाले हुए है?

अगर केवल टैक्स्चुअल स्तर पर ही बात करें तो यह भाषण वाक्यों की सरलता और संक्षिप्तता की एक मिसाल है। इसे याद करना सरल है और इससे भी ज्यादा सरल है इसका पाठ करना, जो बताता है कि यह भाषण संक्षिप्त होने के साथ ही कितना लयपूर्ण भी है। इस लयात्मकता को यहां खास तौर पर नपे-तुले दोहराव के साथ अर्जित किया गया है। लिंकन ने यहां ‘देश’ शब्द को कई बार दोहराया है। 

एक अर्थ में यह शब्द स्पीच का ‘स्थायी’ बन गया है। उसकी टेक। इसी तरह ‘समर्पण’ और ‘कुर्बानी’ शब्द भी कई बार आए हैं। ये तीन शब्द इस समूची स्पीच की त्रयी हैं। इन्हीं तीन शब्दों की ठोस बुनियाद पर लिंकन अपने उद्बोधन की ताकत को स्थापित करते हैं। 

अंतिम वाक्य में, जो कि सबसे कठिन वाक्य भी है, भाषण का सबसे सुविख्यात और बार-बार दोहराया गया एक और शब्द आता है : ‘अवाम’। लेकिन यह सब महज एक रूखा-सूखा विश्लेषण है। लिंकन का भाषण कोई ऐसा पाठ नहीं है, जिसका साहित्यिक युक्तियों या प्रभावों के आधार पर विश्लेषण किया जाए। यह एक जीवित, धड़कता हुआ उद्बोधन है, जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है।

लिंकन का यह वाक्य कि ‘हर इंसान दूसरे इंसान के बराबर है’ अमेरिकियों को जैफरसन के जमाने से ही याद था। इसे उन अमेरिकियों ने संजोकर रखा, जो यह मानते थे कि हब्शी दास भी मनुष्य हैं, जबकि जो ऐसा नहीं मानते थे, वे इस विचार से नफरत करते थे।

जब लिंकन ने इस विचार और इस विश्वास का आह्वान किया तो वे वही बात कर रहे थे, जो पहले भी सभी के द्वारा सुनी जा चुकी थी। एक जानी-पहचानी ध्वनि को उसकी लय में सुनना अच्छा लगता है, लेकिन इसके बाद लिंकन ने जो किया, वह पूरी तरह अनपेक्षित और अलग था।

मैंने उन तीन शब्दों का उल्लेख किया है, जो पूरे उद्बोधन में बार-बार आए हैं। देखा जाए तो वे अपने आपमें मामूली शब्द हैं। लेकिन एक और शब्द है (और वह भी इतना ही मामूली है) जिसका उपयोग लिंकन ने अपने उद्बोधन में दो बार प्रभावशीलता के साथ किया है। 

यही वह शब्द है, जिस पर लगभग ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन जिसके कारण ही गेटिसबर्ग में नवंबर की उस शाम लिंकन द्वारा दिया गया भाषण इतना महत्वपूर्ण बन गया है। यह शब्द है : ‘नया’। यह भाषण के पहले और अंतिम वाक्य में आता है। पहले वाक्य में यह शब्द बिल्कुल आमफहम तरीके से आता है, लेकिन अंतिम वाक्य में यह शब्द लगभग जादुई बन जाता है। ‘..और यह कि हमारा यह देश, इर्श्वर की अनुकंपा से एक ‘नई आजादी’ को हासिल करेगा।’

और चूंकि हर युग में, हर समाज और हर देश ने एक ऐसी स्वतंत्रता को जाना है, जो केवल इसीलिए प्राप्त होती है कि एक वक्त के बाद वो कहीं खो जाए, जो केवल इसीलिए हासिल की जाती है कि बाद में उस पर बदनुमा दाग लग जाएं, कुछ लोग उस आजादी का मजा लें और बाकी लोग उससे महरूम रहें, और चूंकि इतिहास के हर काल और दुनिया के हर कोने में लोग इस बात के साक्षी रहे हैं कि जिन लोगों पर उन्होंने भरोसा किया था, वे ही अत्याचारी बन जाते हैं और जिन लोगों को उन्होंने अपना प्रतिनिधि समझा था, वे ही निरंकुश शासक हो जाते हैं, इसीलिए यह मनुष्य के मन की गहनतम अभिलाषा रही है कि वह एक ‘नई आजादी’ को हासिल करने की कोशिश करे।

जब तक इस दुनिया में ऐसे लोग हैं, जिन्हें ‘नई आजादी’ की जरूरत है, तब तक अब्राहम लिंकन द्वारा एक सौ सैंतालीस साल पहले कहे गए ये शब्द उन्हें रोमांचित करते रहेंगे और हमारे मन पर अमिट छाप छोड़ते रहेंगे। -लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।

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