मंगलवार, 1 अगस्त 2023

ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।



ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।
-पेरियार 

इस पुस्तिका के लेखक : प्रखर सामजिक न्याय के समर्थक संघर्षशील नेता श्री चंद्रजीत यादव जी का परिचय इस प्रकार है : चंद्रजीत यादव एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे। वह 1967 और 1971 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में आज़मगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से भारत की संसद के निचले सदन लोकसभा के लिए चुने गए, और 1977 में जनता पार्टी के राम नरेश यादव से हार गए। जब ​​इंदिरा गांधी ने पार्टी को विभाजित किया, वह 'सोशलिस्ट' समूह के साथ बने रहे, और 1978 के आज़मगढ़ उपचुनाव में इंदिरा कांग्रेस की मोहसिना किदवई द्वारा जीते गए तीसरे स्थान पर रहे। [1] इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर) के उम्मीदवार के रूप में आज़मगढ़ से जीत हासिल की। फिर वह कांग्रेस में वापस आ गए और 1989 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर से हार गए। 1991 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जनता दल के उम्मीदवार के रूप में आज़मगढ़ से जीत हासिल की।

वह इंदिरा गांधी मंत्रालय में केंद्रीय इस्पात और खान मंत्री थे।


 प्राक्कथन


१७ सितम्बर १९८६ को नई दिल्ली में देश के महान क्रांतिकारी समाज सुधारक पेरियार ई० वी० रामासामी का १०८वां जन्म दिवस मनाया जा रहा है। इस जन्म दिवस का आयोजन पेरियार ई० वी० रामासामी राष्ट्रीय समारोह समिति कर रही है। जिसमें देश के कोने-कोने से प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। पहली बार देश की राजधानी नई दिल्ली में तमिलनाडू की भूमि पर पैदा हुए भारत के इस महान सपूत की वर्षगांठ राष्ट्रीय पैमाने पर मनाई जा रही है। इस समारोह को भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी सम्बोधित कर रहे हैं। इस अवसर पर हिन्दी भाषा भाषियों को "पेरियार" के जीवन और कामों से परिचित कराने के लिए बहु जल्दी में मैंने इस पुस्तिका को लिखा है। मुझे आशा है कि इस पुस्तिका के पढ़ने से पाठकों को "पेरियार" (पिता) के जीवन की एक झांकी मिल सकेगी। मेरा विचार पेरियार की एक बिस्तृत जीवनी बाद में लिखने का है क्योंकि जिस "नई सामाजिक व्यवस्था” की स्थापना का आन्दोलन हम लोग चला रहे हैं, उसके लिए पेरियार ई०वी० रामासामी का जीवन लोगों को प्रेरणा प्रदान करेगा।

पेरियार संक्षिप्त परिचय

जब कभी भी भारत का आधुनिक इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें पेरियार ई० वी० रामासामी का नाम देश के उन महान क्रांतिकारी, समाज सुधारकों में गिना जायेगा, जिन्होंने भारतीय समाज से अन्धविश्वास, छुआ-छूत, सामाजिक भेदभाव और थोथे धर्म-काण्डों के विरुद्ध संघर्ष करके उसे समाप्त करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। उनके आंदोलन का एक मात्र लक्ष्य था भारत के दलितों के "आत्म सम्मान" को स्थापित करने, उनमें आत्म विश्वास पैदा करने, समाज और प्रशासन में उनका हक • दिलाने और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को जड़मूल से समाप्त कर देना। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए उन्होंने पिछड़े वर्गों को प्रशासन में उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिलाने का जो आन्दोलन चलाया और उसमें जो कामयाबी हासिल की, उसे देश के पिछड़े वर्गों के लोग कभी नहीं भुला सकते। "पेरियार" साधारण मनुष्य के आत्म सम्मान, श्रमजीवियों के श्रम गौरव और समतावादी समाज के जबरदस्त पोषक थे।

पेरियार ई० बी० रामासामी "ई० वी० आर०" के नाम से लोकप्रिय थे। उनका जन्म १७ सितम्बर, १८७९ को तमिलनाडू के इरोड नाम कस्बे में एक सम्पन्न व्यापारी परिवार में हुआ था। किन्तु उन्होंने १० वर्ष की अवस्था में ही पढ़ाई छोड़ दी थी और जब वह १२ वर्ष के तो उन्होंने अपने पिता के साथ हुए व्यापार करना शुरू कर दिया।

आगे चलकर "पेरियार" अपनी जनसेवा और लोकप्रियता के कारण इरोड नर पालिका के अध्यक्ष चुने गये और सामाजिक कामों में उन्होंने गहरी दिलचस्पी शुरू की। उनके प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर श्री राजा गोपालचारी उनसे मिले और उन्होंने उनसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने का अनुरोध किया। राजा जी ने पेरियार से कहा कि वह जिस प्रकार के सामाजिक सुधार के काम कर रहे हैं, वह महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में अच्छी तरह किया जा सकता है। पेरियार ने राजा जी की बात मानकर इरोड नगरपालिका की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया और वह कांग्रेस के महामंत्री और अध्यक्ष भी बने। वह पहले तमिल थे जिनको कांग्रेस में इतने ऊंचे पद हासिल हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन में पेरियार कई बार जेल गये और उनके नेतृत्व में आज के तमिलनाडू और उस समय के मद्रास राज्य में कांग्रेस जन साधारण की एक लोकप्रिय संस्था बन गई और उनकी वजह से गरीब और पिछड़े वर्गों के लोग भी कांग्रेस के झण्डे के नीचे आये।

वैकोम के नायक

वैकोम तत्कालीन ट्रावनकोर कोचीन राज्य में एक खूबसूरत स्थान था । उस समय ट्रावनकोर कोचीन में राजा का राज्य था। वहां एक प्रसिद्ध मन्दिर था। मन्दिर के चारों तरफ जो सड़कें थीं उन पर अछूतों को चलने की इजाजत नहीं थी । मन्दिर के आस-पास की गलियों में भी वह प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां उनके जाने पर प्रतिबन्ध था । यद्यपि इन गलियों और सड़कों पर सवर्ण हिन्दुओं के अलावा मुसलमान और ईसाई भी आते जाते थे। वहां एक दिन एक घटना घटी। “इजवा" जाति के, जो अछूत समझी जाती थी, वकील श्री माधवन को मन्दिर के परिसार की अदालत में जाने पर ब्राह्मणों ने आपत्ति उठाई और उन्हें अपमानित किया। उन्होंने कहा राजा के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में वहां विशेष समारोह हो रहा है। पवित्र पत्तियां समारोह की तैयारी में लगाई गई हैं। माघवन अछूत जाति के हैं, उनके यहां आने से यह स्थान अपवित्र हो जायेगा। उस समय केरल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष श्री के० पी० केशव मैनन और जार्ज जोसफ ने ब्राह्मणों के इस व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाई और निर्णय किया कि राजा के समारोह में पूजा के दिन वह एक छुआछूत विरोधी आन्दोलन शुरू करेंगे। वैकोम में ज्यों ही यह आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, राजा ने उनके १९ नेताओं को जिनमें एडवोकेट माघवन, बैरिस्टर केशव मैनन, श्री टी० के० माघवन, जार्ज जोसफ आदि थे उनको गिरफ्तार करने का आदेश दिया। उनकी गिरफ्तारी से यह आन्दोलन कमजोर पड़ने लगा। आन्दोलन की इस स्थिति को देखते हुए श्री केशव मैनन और श्री जार्ज जोसफ ने पेरियार को एक पत्र लिखा और उन्होंने कहा कि “आप कृपया आकर इस आन्दोलन का नेतृत्व करें, अन्यथा हम लोगों के पास राजा के सामने माफी मांगने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा । उस स्थिति में एक महान काम के लिए शुरू किया गया यह आन्दोलन असफल हो जायेगा और इसे धक्का लगेगा। हम लोग इसी बात से चिन्तित हैं। इसलिए आप कृपया आकर इस आन्दोलन को शक्ति प्रदान करें ।” उस समय पेरियार की ख्याति इस बात के लिए दूर-दूर तक फैल चुकी थी कि वह छुआछूत के खिलाफ तन मन धन से संघर्षशील है। इसके अलावा पेरियार का प्रभावशाली भाषण शक्ति और शैली की भी लोग लोहा मानने लगे थे। पेरियार को यह पत्र उस समय मिला, जब वह मदुराई जिलें में पान्नापुरम नाम स्थान पर अपना प्रचार कार्य में गये हुए थे । इस पत्र के मिलते ही उन्होंने अपना दौरा स्थगित कर दिया। वह इरोड आये और वैकोम जाने की तैयारी करने लगे। उस समय पेरियार मद्रास कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने राजा जी को एक पत्र लिखा कि वह उनकी जगह पर अध्यक्षता का काम सम्भाल लें। वैकोम के आन्दोलन के महत्व को देखते हुए उनका वहां जाना निहायत जरूरी है। पेरियार वैकोम पहुंचे, उनके वहां पहुंचते ही यह खबर बिजली की तरह चारों तरफ दौड़ गई कि वह उस आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए आये हुए हैं। ट्रावनकोर कोचीन के राजा पेरियार के परिवार से बहुत अच्छी तरह परिचित थे जब कभी वह ट्रावनकोर कोचीन से दिल्ली आते थे तो इरोड में पेरियार के अतिथि गृह में ही ठहरते थे । इस आन्दोलन का नेतृत्व करने जब पेरियार वैकोम पहुंचे तो राजा ने उन्हें अपना अतिथि बनाया। पेरियार उनके अतिथि तो जरूर बनें, किन्तु वह तो किसी बड़े उद्देश्य के लिए वहां गये थे। उन्होंने आन्दोलन की कमान को अपने हाथ में सम्भाला और १० दिनों के अन्दर ही उनके भाषणों और उनके अभियान का यह प्रभाव हुआ कि अस्पृश्यता, मूर्ति पूजा और धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ एक माहौल बनने लगा। राजा ने चुपचाप उनकी गतिविधियों को देखा। लेकिन जब उन्होंने देखा कि आन्दोलन जोर पकड़ रहा है, तब उन्होंने पेरियार की जन सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। पेरियार ने उस प्रतिबन्ध का उल्लघंन किया और जब वह जनसभा में बोल रहे थे तो राजा की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन पर मुकदमा चलाया गया पेरियार को एक महीने कठिन कारावास की सजा दी गई। पेरियार जब जेल में थे उस समय उनकी पत्नी श्रीमती नागममाई और उनकी बहन कन्नामल और कुछ अन्य लोगों ने अस्पृश्यता के खिलाफ प्रचार कार्य जारी रखा।

पिरियार जब जेल में थे तो उस समय भी आन्दोलन के प्रति जन साधारण में समर्थन बढ़ने लगा। बड़े पैमाने पर लोगों ने सत्याग्रह करने के लिए अपना नाम लिखाया। आश्चर्य की बात यह है कि पेरियार जब इस महान कार्य नं लगे हुए थे तो उनकी यह बात राजागोपालचारी की को पसन्द नहीं आई उन्होंने उनको पत्र लिखा और श्री निवास आयंगर द्वारा उनको यह संदेश भेजा कि पेरियार ई० वी० रामासामी अपने प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेश क्यों इस आन्दोलन को चला रहे हैं और उनसे यह कहा कि वह इस आन्दोलन को छोड़कर आयें और मद्रास कांग्रेस के काम को सम्भालें किन्तु पेरियार ने उनकी यह बात अनसुनी कर दी।

वैकोग के आन्दोलन की चर्चा केरल राज्य की सीमा के बाहर पूरे देश में शुरू हो गई और महात्मा गांधी जी स्वयं ९ मई, १९२५ को वैकोम गये वहां जाकर वह सत्याग्रहियों से मिले और इसके अलावा वहां के पुरातन विचार पन्थी, ब्राह्मणों से भी मिले और उन्होंने उनको समझाने बुझाने की कोशिश कि वह अछूतों को भी अन्य लोगों की भांति मन्दिर की चारों तरफ की गलियों और सड़कों पर आने जाने की इजाजत दें। किन्तु गांधी जी इस सलाह को पुरातन पन्थी ब्राह्मणों और उनके संगठन ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उन गलियों में अछूतों के आने से मन्दिर की मूर्तियां अपवित्र हो जायेंगी। क्योंकि उनकी सांस हवा में मिलकर मन्दिर को और उसकी मूर्तियों को गन्दा कर देंगी।

महात्मा गांधी ने वैकोम आन्दोलन का पूरी तरह से समर्थन किया था। फिर भी उनके और पेरियार के दृष्टिकोण में मौलिक मतभेद था। पेरियार पूरी तरह से छुआछूत के खिलाफ थे और जिस बाह्मणवादी व्यवस्था ने लोगों को जन्म से छोटा और जन्म से बड़ा के सिद्धान्त को मानकर भारतीय समाज को अन्दर से खोखला कर दिया था और समाज के विशाल बहुमत को अपमानित किया, पेरियार उस व्यवस्था को निर्मूल समाप्त करना चाहते थे । जबकि गांधी जी का कहना था कि हमें ब्राह्मणों से टकराव की स्थिति नहीं पैदा करनी चाहि । मन्दिर में प्रवेश के लिए हमें अभी जोर नहीं देना चाहिए। बल्कि मन्दिर के आस पास की सड़कों और गलियों में अछूतों को चलने का अधिकार यदि राजा दे दें तो अभी हमें इस समय उसी से संतोष करना चाहिए। आन्दोलन के बीच राजा की मृत्यु हो गई और रानी ने राज्य का कार्यभार सम्भाला। गांधी जी रानी से मिले और रानी इस बात पर सहमत हो गई कि अछूतों को मन्दिर के आसपास की गलियों और सड़कों पर चलने का अधिकार होना चाहि । गांधी जी पेरियार ई० वी० रामासामी के पास पहुंचे, जहां वह वैकोम में ठहरे हुए थे। पेरियार ने गांधी जी से कहा "सार्वजनिक सड़कों पर अछूतों को चलने का अधिकार हासिल करना कोई वही बात नहीं है यद्यपि कांग्रेस अभी अछूतों के मन्दिर प्रवेश के कार्यक्रम नहीं चला रही है, किन्तु जहां तक मेरा सम्बन्ध है मैं इस काम को अपना आर्दश मानता हूँ। इसलिए आप मेरी तरफ से भी रानी को यह कह सकते है कि फिलहाल मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश कराने का कोई कार्यक्रम नहीं है। यदि उन्हें सड़कों और गलियों में चलने की इजाजत दी जाती है तो इससे स्थिति सामान्य होने में मदद मिलेगी। फिर मैं बाद में अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित करूंगा।"

गांधी जी ने रानी को यह संदेश दिया। उसके बाद मन्दिरों के आस-पास की गलियों और सड़कों को अछूतों और शुद्रो के लिए खोल दिया गया। उस समय यह दलितों के लिए एक बड़ी विजय समझी गई। इस सफल सत्याग्रह के बाद पेरियार को "वैकोम के वीर" की उपाधि से विभूषित किया गया।

पेरियार ने क्यों कांग्रेस छोडी ?

पेरियार ई० बी० रामासामी ने कांग्रेस के उच्च पदों पर रहते हुए भी अपने सामाजिक आन्दोलनों को नहीं छोड़ा। सच बात तो यह है कि वह मुख्य रूप से समाज सुधारक ये और हिन्दू समाज की कुरीतियाँ उन्हें बर्दास्त नहीं थी। छुआछूत को वह सबसे बड़ा अमानवीय कृत्य समझते थे। पेरियार ने यह भी देखा कि उस समय के मद्रास राज्य में समाज और प्रशासन पर ब्राह्मण जाति के लोग हावी थे। वो न केवल छुआछूत में विश्वास रखते ये, बल्कि वह हाथ से काम करने वालों को नीच, अछूत और शूद्र समझ कर उनकों अपमानित करते थे। पेरियार ने उनके इस प्रभुत्व के खिलाफ आन्दोलन चलाया और अपने इस आन्दोलन के बीच धर्मकाण्डों, मूर्ति पूजा और यहां तक कि भगवान पर भी गहरे प्रहार करने लगे। उनका कहना था कि जो भगवान अपनी संतान के हाथों से छू जाने से अपवित्र हो जाता है, वह भगवान नहीं हो सकता। भगवान की कल्पना घूर्तों ने केवल इसलिए की है कि भगवान और धर्म के नाम पर वह आम जनता का शोषण करते रहें। इस बीच मद्रास में जस्टिस पार्टी का प्रभाव बढ़ा। यह पार्टी विशेष रूप से गैर ब्राह्मणवादी लोगों की पार्टी थी और उस पाटी ने छुआछूत समाप्त करने और पिछड़े वर्गों के लिए महत्त्वपूर्ण काम करने शुरू किये। पेरियार की हमदर्दी इस पार्टी के प्रति बढ़ गई थी। इस बात को कांग्रेस के अन्दर के ब्राह्मण नापसन्द कर रहे थे और इस प्रश्न पर १९२१ की शूवन मल्लाई नाम स्थान पर जब मद्रास कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षकता पेरियार कर रहे थे, तो वहां यह मुद्दा उभर कर सामने आया, लेनि इसके बावजूद भी पेरियार कांग्रेस में बने रहे।

सन १९२५ में मद्रास कांग्रेस का अधिवेशन कांचीपुरम में हो रहा था जिसकी अध्यक्षकता श्री वी० कल्यानासुन्दरम् कर रहे थे। इस अधिवेशन के एक दिन पहले कांचीपुरम में ही पेरियार ने कुछ गैर ब्राह्मणों के मुख्य नेताओं की बैठक बुलाई और उसमें यह निश्चय किया गया कि अधिवेशन में गैर ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया जाये। जब इन लोगों ने प्रस्ताव पेश करने की इजाजत मांगी और कहा कि कांग्रेस ने भी सिद्धान्त रूप से गैर ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों में ५० प्रतिशत आरक्षण को स्वीकार कर लिया है। इसलिए इस अधिवेशन में इस बात पर निर्णय होना चाहिए। परन्तु अध्यक्ष ने इस प्रस्ताव को पेश करने की इजाजत नहीं दी । पेरियार अध्यक्ष के इस फैसले के खिलाफ उठकर खड़े हो गये और उन्होंने कहा कि आपने यह आदेश दिया था कि मैं यदि इस प्रस्ताव के पक्ष में ३० प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर करा कर दूं तो आप इसे पेश करने की इजाजत देंगे । किन्तु अब इस प्रस्ताव के पक्ष में ५० प्रतिनिधियों ने अपने हस्ताक्षर किये हैं, अब आप किस बुनियाद पर इसे अस्वीकार कर रहे हैं? पेरियार की यह बात सुनकर आरक्षण विरोधी सदस्यों ने उनको बोलने से रोकना चाहा और उन्हें बैठ जाने के लिए कहा। पेरियार ने बैठने सो इन्कार कर दिया ओर अध्यक्ष को अपना निर्णय देने के लिए बराबर अनुरोध करते रहे। अधिवेशन हॉल में हलचल मच गई, किन्तु अध्यक्ष ने इजाजत नहीं  दी। इस पर पेरियार ई० वी० रामासामी अधिवेशन से यह कहते हुए बाहर चले गये कि ऐसी कांग्रेस में गरीब को न्याय के लिए कोई गुजायश नहीं है, मैं उसमें नहीं रह सकता। इस प्रकार से पेरियार ने कांग्रेस छोड़ दी। उसके बाद राजा जी व श्री वी० कल्यानासुन्दरम और अन्य कांग्रेस के नेता कई बार पेरियार के पास गये, उनसे कांग्रेस में लौट आने के लिए अनुरोध किया। किन्तु पेरियार का उत्तर था “कांग्रेस दलित वर्ग और पिछड़े वर्ग के हितों की विरोधी पार्टी है, इस पर केवल एक जाति का प्रभुत्व है। इस संगठन से दलित को न्याय नहीं मिल सकता ।"

आत्म सम्मान आन्दोलन

सन १९२५ में कांग्रेस छोड़ने के तुरन्त बाद पेरियार ने “आत्म सम्मान" आन्दोलन प्रारम्भ किया। यह एक सामाजिक, राजनीतिक संगठन था, जिसके वह स्वयं अध्यक्ष थे । इसका उद्देश्य समाज से सभी प्रकार की सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने और दलितों के अन्दर नये समाज की रचना के लिए चेतना पैदा करना था। इस आन्दोलन ने तमिलनाडू के गरीबों में आत्म विश्वास पैदा किया। उन्होंने अपने हक के लिए संघर्ष शुरू किया। पेरियार के रूप में उन्हें एक ऐसा नेता मिल गया था जिसके किसी पद की लालसा नहीं थी। जो दलितों के उत्थान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार था । इसके लिए वह कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों से ढेले पत्थर भी खाये। उनके द्वारा सामाजिक बहिष्कार की यातनायें भी सही, किन्तु वह अपने काम में अडिग रहे। विश्वास और प्रयास के सहारे वह गांव-गांव घूम कर “नई सामाजिक व्यवस्था” का संदेश लोगों को देते रहे । फलस्वरूप पेरियार की लोकप्रियता जनसाधरण में दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। इस प्रकार देश के उस बड़े भाग में एक नई विचारधारा और एक नई सामाजिक क्रांति ने जन्म लिया। अपने आन्दोलन के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए पेरियार ने ("केडियरस" रिपब्लिक) साप्ताहिक और बाद में “विदुतले” (फ्रीडम) दैनिक का प्रकाशन शुरू किया। पेरियार ने छुआछूत के अलावा विशेष रूप से अर्न्तजातिय विवाह और विधवा विवाह का प्रचार भी किया। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, सामाजिक भेदभाव और समाज की बहुत-सी अन्य कुरीतियां बगैर समाप्त किये भारत आधुनिक समाज का देश नहीं बन सकता। इसलिए उन्होंने आजीवन इन कुरीतियों के खिलाफ अनवरत संघर्ष किया।

१९३८ में पेरियार ई० वी० रामासामी जसटिस पार्टी के अध्यक्ष चुने गये। १९४४ में सेलम के प्रसिद्ध सम्मेलन में पेरियार ने और उनके अनुयाई, तमिलनाडू के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री एन० अन्नादुराई ने जस्टिस पार्टी को एक नये संगठन में बदल दिया। जिसके नाम द्रविड़ कजगम रखा गया।

पेरियार और आरक्षण

आज यदि तमिलनाडू में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में ६८ प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है तो उसका पूरा श्रेय पेरियार को ही जाता है। यही नही बल्कि सारे देश में जहां कहीं भी इन वर्गों को अब तक आरक्षण मिला है, उस सम्बन्ध में जिन दो व्यक्तियों का नाम सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। उनमें से बाबा साहब डा० भीमराव अम्बेडकर और पेरियार ई० वी० रामासामी का नाम यशश्वी रहेगा। पेरियार ने बड़े जोर से इस आन्दोलन को चलाया और इस बात का विरोध किया कि केवल ३ प्रतिशत आबादी वाले ब्राह्मण मद्रास राज्य की ९० प्रतिशत नौकरियों पर काबिज है और उन्होंने छोटी जातियों के युवकों और युवतियों को सरकारी नौकरियों में आने का रास्ता अवरुद्ध कर दिया है। पेरियार ने हा कि यह अन्याय, प्रजातंत्र के सिद्धान्त के विरूद्ध है और जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, तब तक प्रशासन का स्वरूप लोकप्रिय नहीं हो सकता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है। इस प्रश्न को लेकर पेरियार ने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया। उन्होंने अनवरत रूप से इस आन्दोलन को चलाया और उनके आन्दोलन का ही यह असर था कि आरक्षण का सिद्धान्त माना गया और जब कभी भी आरक्षण को समाप्त करने की कोशिश की गई पेरियार ने आन्दोलन के जरिये और कानूनों को मदद लेकर भी आरक्षण की रक्षा की।

पेरियार ने अपने प्रचार में बराबर इस बात पर जोर दिया कि केवल राज्य स्तर पर ही आरक्षण हासिल करके हमें संतोष नहीं करना चाहिए। केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में आरक्षण हासिल करना निहायत जरूरी है। वहां अभी भी बड़ी जातियों का पूरी तरह से प्रभुत्व है और सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर वहीं छाये हुए हैं। इन जातियों के लड़के-लड़कियों को सरलता से नौकरी मिल जाती है, जैसे कि नौकरी हासिल करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा अल्पसंख्यकों के योगय लड़के-लड़कियों को इसलिए भी नौकरी नहीं मिल पाती कि उनके साथ भेद-भाव किया जाता है। पेरियार ने अपने जीवनकाल में वर्तमान शिक्षा प्रणाली की भी गहरी आलोचना की। उनका कहना था कि यह शिक्षा प्रणाली समाज में शोषण को मजबूत करती है और गरीबों के साथ भेद-भाव करती है। पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों के विद्यार्थियों को समान अवसर नहीं मिलता। उनके जीवन में वह सुविधायें हासिल हैं जो बड़ी जातियों और अमीरों के बेटे-बेटियों को मिलती है। उन्होंने वर्तमान शिक्षा पद्धति को रट्टू और अवसरवादी पद्धति करार दिया। उन्होंने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की भी कटु आलोचना की। उन्होंने एक जगह - रूस का उदाहरण देते हुए कहा है कि यहां विद्यार्थियों को एक निश्चित समय तक पढ़ाया जाता है फिर उनकी बौद्धिक, शारीरिक और आम जानकारी की परीक्षा की जाती है और तब उन्हें काम पर लगाया जाता है। वहां की शिक्षा व्यावहारिक, कर्म करके सीखने की शिक्षा है। उस प्रणाली से विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास होता है। हमारे देश की शिक्षा बेकारों को पैदा करती है। --

आरक्षण के बारे में पेरियार का बहुत साफ मत था कि हर जाति और वर्ग की उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण निर्धारित किया जाना चाहिए। यदि किसी जाति को या समुदाय को उसकी आबादी से एक प्रतिशत भी अधिक स्थान हासिल होता है तो उसे समाप्त करके वह एक जगह उस समुदाय को दी जानी चाहिए, जिसका प्रतिशत उसकी आबादी के अनुपात में कम है। पेरियार के शिष्य श्री अन्नादुराई और बाद में श्री करूणानिधि और वर्तमान समय में श्री एम० जी० रामचन्द्रन जब तमिलनाडू के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पेरियार के आदेशों को ध्यान में रखते हुए राज्य के पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण हासिल कराया। यह पेरियार के कारण ही सम्भव हुआ ।

पेरियार की दृष्टि में महिलाओं का स्थान

पेरियार महिलाओं के सम्मान और उनको हर क्षेत्र में बराबरी का स्थान देने के बड़े जबरदस्त हाभी थे। उनके विचार से सदियों से भारतीय समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव का बर्ताव करके उनको बराबरी का दर्जा नहीं दिया है। उनकी दृष्टि में महिलाओं का काम केवल घर में रोटी पकाना, बच्चों की देखभाल करना और परिवार की सेवा करना है लड़कियों को आमतौर से शिक्षा से भी वंचित रखा गया। छोटी उम्र में उनकी शादी करके उन्हें उनके पति की परिवार की सम्पति बना दिया जाता था। और बहुधा उन्हें तरह-तरह की यातनाओं का शिकार होना पड़ता था। दुर्भाग्य से यदि वह विधवा हो जाती तो उन्हें अपमान का जीवन व्यतीत करना पड़ता था ।

पेरियार ने सन १९२९ में आत्म सम्मान सम्मेलन में महिलाओं के बारे में निम्नलिखित प्रस्ताव पास कराये ।

१. महिलाओं को परिवार की सम्पति में पुरूषों के बराबर का अधिकार दिया जाये ।

२. स्कूलों को उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी दिये जाने में आपत्ति नहीं जोनी चाहिए।

३. स्कूलों में विशेष रूप से प्राइमरी स्कूलों में केवल महिलाओं को ही अध्यापिकाओं के पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए।

पेरियार ने महिलाओं को समाज और परिवार में बराबरी का दर्जा और सम्मान देने को अपने आन्दोलन का प्रमुख मुद्दा बनाया था ।

सन १९३० में इरोड सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास कराये कि परिवार में लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान तो दिया ही जाये उसके अलावा उन्हें अपना जीवन साथी स्वयं चुनने की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए। पेरियार के विचार में महिलाओं को केवल सौर्दय की गुड़िया और भोग की वस्तु मानना मानव जाति का भी अपमान है। पेरियार का कहना था कि यदि देश की उन्नति और प्रगति करके आधुनिक बनना है तो महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी का दर्जा देना राष्ट्रीय कर्त्तव्य है ।

पेरियार ई० वी० रामासामी एक महाज सामाजिक क्रांतिकारी, सेनानी और दृढ़निष्ठ तार्किक तो थे ही किन्तु साथ ही साथ वह एक सरल और सहृदय मानव भी थे। २४ दिसम्बर, १९७३ को ९५ वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। तमिलनाडू के कोने-कोने से उनके अन्तिम दर्शन करने के लिए जन-समूह उमड़ पड़ा और “पेरियार अमर रहें” के नारों से आकाश गूंज उठा ।

श्री चंद्रजीत यादव 
पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार 
पेरियार ई० वी० रामासामी की जन्म शताब्दी के अवसर पर भारत सरकार के डाक विभाग ने "स्मारक डाक टिकट" जारी करके उनका सम्मान किया था।

पेरियार के सिद्धान्तों और आदर्शो का झण्डा और मशाल अपने हाथों में लेकर आज भी उनके लाखो अनुयायी, उनके शिष्य श्री के० वीरामनी के नेतृत्व में समाज सुधार के अपने आन्दोलन को पूरे विश्वास के साथ चला रहे हैं। श्री वीरामनी द्रविड़ कजगम के महामंत्री हैं।

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★ मेरा मत है कि जो मनुष्य समाज की सेवा नहीं करता है वह केवल एक साधारण पशु के समान है।
★ अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान को भी जोखिम में डालने के लिए मनुष्य को तैयार रहना चाहिए।
★ यदि भगवान की मूर्ति मनुष्य के हाथ से छू जाने से अपवित्र हो जाती है तो उस मूर्ति को भगवान कैसे समझा जा सकता है ?
★ क्यों एक आलसी ब्राह्मण को बड़ी जाति का समझा जाये जबकि जमीन से अनाज पैदा करने वाले और मेहनती श्रमिक को छोटी जाति का समझा जाता है।
★ ऐसे देवता को क्यों मानें जो हमको शूद्र बनाकर अपमानित करता है।

-पेरियार ई० वी० रामासामी

रविवार, 23 जुलाई 2023

संघ और समाजवादी राजनीति में मूलभूत फर्क होता है ।

डॉ लाल रत्नाकर 


संघ और समाजवादी राजनीति में मूलभूत फर्क होता है । यदि समाजवादी राजनीति संघ की तरह चलाने का प्रयास किया जाएगा तो समाजवादी अवधारणा ही नष्टप्राय हो जाएगी। 

यही दुर्भाग्य है कि समाजवादी अवधारणा को समझे बगैर जो लोग वहां पर संघ की नकल करते हैं. अब वही परिवारवाद जातिवाद और भ्रष्टाचार का स्लोगन संघ लगाता है और उसका जवाब इन समाजवादियों के पास नहीं होता है । जबकि संघ का मूल उद्देश्य ही समाज में भेदभाव पैदा करना पाखंड अंधविश्वास और चमत्कार को बड़ा करके समाज को बांटने / तोड़ने का काम करना है। इसके संथापकों में मूलरूप से मनुस्मृति का पक्षधर रहा है। 

दीन दयाल उपाध्याय 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवतावाद की मूल अवधारणा ही उसी पर केंद्रित है जिसको भली-भांति संघ ने देश और प्रदेश में लागू किया है। उसको लेकर जितना बड़ा विरोध खड़ा होना चाहिए था वह किसी तरफ से नहीं हुआ। समाजवादियों को तो यह बात समझ में ही नहीं आई होगी की एकात्म मानवतावाद क्या है यह बहुत गुड शब्द है जिसमें पूरी की पूरी मनुवादी व्यवस्था को समाहित किया गया है मैं जब यह आंदोलन शुरू किया गया था और इसको प्रदेश सरकार ने बहुत बड़ा चढ़ाकर हर तरफ लागू करने का काम शुरू किया था तो मेरे किसी मित्र ने सलाह दिया था कि मुझे इनकी वह पुस्तक पढ़नी चाहिए जिसमें एकात्म मानवतावाद की अवधारणा को बताया गया है मैंने ऐसा ही किया और उस पुस्तक को पढ़ा उस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह भय मन में समा गया कि इसके विरुद्ध जिस तरह की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए कौन लड़ेगा।

माननीय शरद यादव जी उस समय थे मैंने इस पर उनसे चर्चा की तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा यही सब इनके छुपे हुए अजंडे हैं देखते जाओ किस तरह से यह बाबा साहब अंबेडकर के सारे संवैधानिक अधिकारों को समाप्त कर देंगे और बहुमूल्य हथियार जो वोट देने का अधिकार है वह भी जनता के हाथ से चला जाएगा।

वही मूल चिंता का विषय है जिस पर आज भी कोई बात नहीं हो रही है मैं इस बात को स्पष्ट तौर पर कह सकता हूं कि जब तक समाजवादी पार्टी में एक मजबूत संगठन इस तरह का नहीं बनेगा जहां पर उनके छुपे हुए एजेंण्डो पर बड़ी बहस करके उसकी सच्चाई को समाज के सामने पर्चा पोस्टर और बुकलेट के रूप में ले आना होगा की यह सारी योजनाएं कैसे संविधान के खिलाफ है और मनुवाद के पक्ष में तब तक इस लड़ाई को मजबूती से नहीं लड़ा जा सकता।

 इसी एकात्म मानवतावाद के सिद्धांत में यह भी बात उजागर होती है जिसमें जातीय आधार पर समाज के शीर्ष पर काबिज रहना है और एन केन प्रकारेण सत्ता अपने हाथ में रखना है। इसका बहुत मजबूत उदाहरण राम मंदिर न्यास के संगठन में सम्मिलित किए गए लोगों से लिया जा सकता है।


ऐसे कुत्सित विचारों जो संविधान विरोधी हैं के नकल करने और उनके अनुकरण की बजाए संवैधानिक मूल्यों पर अच्छे और अनुभवी लोगों को विश्वविद्यालयों विद्यालयों जैसे सत्ता के केंद्रों में नीतियां बनाने की जगहों पर बैठाना होगा। समय-समय पर यह करने में तमाम समाजवादियों से चूक हुई है जो केवल संघ की नकल करके बहुत जल्द एक्सपोज हो जाते हैं और पता यह चलता है कि उधर का गोबर इधर का सोना हो जाता है और इधर का सोना समाजवाद के केंद्र में रहते हुए भी अर्थहीन होता है उस सोने पर विश्वास नहीं किया जाता और उसे अविश्वसनीय बनाकर एक किनारे फेंक दिया जाता है। इसलिए मेरा मानना है कि जब तक इस तरह के संगठनात्मक ढांचे का निर्माण करके उनकी विश्वसनीयता नहीं होगी तब तक इस खतरनाक संगठन से लड़ना आसान नहीं होगा। 

जबकि संघ के खिलाफ अनेकों बार समाजवादियों का यही आवाहन रहा है कि इनको सत्ता में आने से रोकना है लेकिन आज ऐसी हालत है कि वही लोग सत्ता पर काबिज हो गए हैं और पुणे छुपे हुए एजेंडों से ऐसे ऐसे लोग संविधान और संवैधानिकता को तहस नहस कर रहे हैं।

निश्चित रूप से इस पैनल में अपने अपने अनुभव के आधार पर बात रख रहे हैं लेकिन उसके भीतर की साजिश को कोई उजागर नहीं कर रहा है जिसको लोग यह बता रहे हैं कि यह किस तरह से समाज को अनेकों तरह से धर्म के नाम से, राजनीति के नाम पर, मुफ्त में अन्न प्रदान करके योग्यता के नाम पर अपने अयोग्य हर जगह बैठा रहे हैं या बैठा दिए हैं जो उनका नारा लगाकर निरंतर लोगों को अपमानित करके सत्ता के अधिकारों से प्रताड़ित करके सच के खिलाफ झूठ को कितना बड़ा कर रहा है।

अब सवाल यह है कि ऐसे लोगों को कहां से लाया जाएगा जब विश्वविद्यालयों में क्वालिफिकेशन मात्र संघ का सदस्य होना सुनिश्चित कर दिया गया हो और अनुभवी एवं योग्य लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

ऐसे में हमें उन लोगों की फौज खड़ी करनी होगी जो लोग इस तरह से बाहर का रास्ता दिखा दिए गए हैं और उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा की जब सत्ता में हम आएंगे तो सबसे पहले उनको उनके योग्य पदों पर भर्ती करेंगे उसके लिए हमें जो भी पापड़ बेलना पडे़ बेलेंगे। अब सवाल यह है कि उनके लिए उनके पास संसाधन कहां से आएंगे इस पर हम अलग से राय देंगे। 

जिनको पहले अवसर मिला उन्होंने अपनी काबिलियत समझकर समाजवाद और अंबेडकरबाद एवं वामपंथ के नाम पर अपनी दुकान चलाई समाज को बिल्कुल अलग-थलग छोड़ दिया और यह मान लिया कि जो राजनेता है उन्हीं के ऊपर सारी जिम्मेदारी है। ऐसे में वह नेता निरंकुश हुए और अपने परिवार को ही सबसे बड़ी जागीर समझ कर उसी के माध्यम से देश के उन खतरनाक लोगों से लड़ना चाहे जो आज उन्हें कैसे-कैसे डराए हुए हैं वह आपके सामने उपस्थित है।

समाजवादियों में मैंने बहुत सारे ऐसे युवाओं को देखा है जो किसी भी तरह से समाजवादी नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनका उद्देश्य भी उसी तरह का है जहां नैतिकता योग्यता सुचिता और समानता का बिल्कुल अभाव है वह लूट खसोट के उद्देश्य से संघियों जैसे निकम्मे और बहुतायत में पतित हो जाते हैं, जो बहुत जल्दी बदनाम हो जाते हैं और उसका परिणाम क्या होता है कि उसका सारा दोष उनके नेताओं पर जाता है और यह पता चलता है कि इस पार्टी में इसी तरह के लूट खसोट वाले लोग ही हैं।

संघ के बारे में बहुत गहराई से विचार करना होगा इनके सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को समझना होगा और उसके प्रति जनता में जागरूकता पैदा करनी होगी कि किस तरह से वह संगठन अलोकतांत्रिक है और मनुवादी के साथ-साथ ब्राह्मणवादी है जो समता समानता और बराबरी का विरोधी है। जब तक जनता में इसके प्रति आक्रोश नहीं पैदा किया जाएगा और गांव गांव से इन लोगों को खदेड़ने के लिए पीडीए के लोग तैयार नहीं होंगे तब तक इंडिया में बैठा हुआ मनुवादी भी अपनी खुराफात करता रहेगा और अवसर मिलने के बावजूद उसका लाभ उठाने में समाजवादी कामयाब नहीं हो पाएंगे । 

इसलिए खास करके उन पैनलिस्टों से सुझावात्मक निवेदन है कि उन बातों पर जोर डालें जिससे समाज में एक तरह की जागृति पैदा हो और लोग आक्रामक होकर अपने खिलाफ किए जा रहे लिवलिवे मनुवाद को अच्छे विचार रूपी डिटर्जेंट से धोएं और भली-भांति धोबी घाट की तरह धुलाई करें। जब तक यह बात बताने में वह कामयाब नहीं होंगे और जनता को यह बात समझ में नहीं आएगी की देश में उनकी भी उतनी हिस्सेदारी है जितनी किसी भी पूंजीपति और उनके दलालों की जिस तरह से देश की सारी संपत्तियों को निजी हाथों में दे दिया जा रहा है कल बचेगा क्या ? किसको कहेंगे अपना देश है ! अभी आगे आपकी पीढ़ी पड़ी है जिसके लिए जिस तरह से समान शिक्षा और रोजगार की बात की जाती थी वह सब लूट लिया जाएगा आगे कुछ नहीं मिलेगा । इसलिए इस बहस के मायने बहुत कुछ उपयोगी नजर नहीं आ रहा है। इसलिए विनीता यादव जी ऐसे लोगों को पैनल में बुलाइए जो लोग आपके अभियान में स्पष्ट रूप से श्री अखिलेश यादव जी को यह संदेश देने में कामयाब हो सके की किस रास्ते पर चलकर परिवर्तन की किरण नजर आएगी।

आइए नजर डालते हैं समाजवादी विमर्श पर :

समाजवादी समागम आधार-पत्र

1. भूमिका

समाजवाद मानव समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण, विषमता और अत्याचारों को दूर करने का सिद्धांत है यह स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, सम्पन्नता और सहयोग के जरिये सुखमय जीवन की स्थापना का दर्शन है. इसने विभिन्न प्रकार के अन्यायों, शोषण, गैर-बराबरी और अत्याचारों का रचना और संघर्ष की दुहरी रणनीति के जरिये निर्मूलन का रास्ता दिखाया है. इसके जरिये दुनिया के अधिकांश देशों की प्रगतिशील जनता ने चेतना निर्माण, रचनात्मक कार्य और सत्याग्रह के समन्वय से समतामूलक आदर्शों, संस्थाओं और तरीकों का लगातार संवर्धन किया है. निजी और सामुदायिक जीवन में न्याय, नैतिकता और मानवीयता को बढ़ावा देना समाजवादियों का मकसद है. इसीलिए हर समाजवादी साध्य और साधन को एक ही सच का दो पहलू मानता है,

देश-समाज में चतुर्मुखी स्वराज राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक की स्थापना समाजवाद की बुनियाद है. बिना पूर्ण स्वराज के समाजवादी समाज की दिशा में नहीं बढ़ा जा सकता है. मानवमात्र के प्रति सम्मान, 'वसुधैव कुटुम्बकम' के आदर्श में विश्वास और कथनी और करनी की एकता समाजवादी आचरण की कसौटी है. समाजवादी विचारधारा पूजीवाद और साम्राज्यवाद में निहित मुनाफाखोरी, स्वार्थ, अनैतिकता, श्रमजीवी वर्गों और शक्तिहीन समुदायों और क्षेत्रों के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के विनाशकारी दोहन की विरोधी है. हम जानते हैं कि पूँजीवादी शक्तियों ने समाज और राजसत्ता संचालन के लिए लोकतांत्रिक समाजवादी सूत्रों में से साधारण नागरिकों के लिए कुछ कल्याणकारी उपायों को अपनाकर यूरोप- अमरीका-जापान-चीन में अपना आकर्षण बनाया है. इससे भारत जैसे नव-स्वाधीन देशों के मध्यम वर्ग में भी इसके प्रति मोह हुआ है. लेकिन इसमें निहित शोषण और विषमता की अनिवार्यता तथा इसकी टेक्नोलाजी द्वारा समाज में बेरोजगारी का विस्तार और प्रकृति का लगातार विनाश हुआ है पूंजीवादी व्यवस्था में मानव समाज में बंधुत्व स्थापित करने और समाज और प्रकृति के टिकाऊ सहअस्तित्व की दृष्टि से खतरनाक दोष है।

राष्ट्रीयता और समाजवाद को परस्पर पूरक मानने के कारण प्रत्येक समाजवादी पूंजीपतियों की हितरक्षा के लिए धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की एकता की आड़ में सामाजिक हिंसा और राज्यसत्ता के इस्तेमाल की राजनीति अर्थात 'फासीवाद' के खिलाफ है. हर समाजवादी रोटी और आजादी यानी पूर्ण रोजगार और नागरिक अधिकार दोनों को एक जैसा जरूरी मानता है, इसीलिए कम्युनिस्ट व्यवस्था में विषमता और शोषण के निर्मूलन के नाम पर स्त्री-पुरुषों के मौलिक अधिकारों के हनन, सत्ता के केन्द्रीयकरण और कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही को गलत मानता है. पूंजीवादी उत्पादन पद्धति, वर्ग- व्यवस्था और टेक्नोलाजी के विकल्प की जरुरत के प्रति यूरोपीय सोशल डेमोक्रेटिक विचारधारा की उदासीनता से भी हम असहमत हैं. क्योंकि यह मानव और प्रकृति दोनो के लिए हानिकारक हैं और नव-स्वाधीन देशों के लिए अनुपयोगी और असंभव सिद्ध हो चुके हैं.

यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विदेशी गुलामी से आजादी के बाद भारत समेत अनेकों नव-स्वाधीन देशों द्वारा अपनायी गयी 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' ने पूंजीवादी की बुराइयों और सरकारीकरण के दोषों को बढ़ावा दिया और अंततः विश्व-पूंजीवाद के आगे आत्मसमर्पण किया है. इसके दो खराब नतीजे सामने हैं. पहले, आधी शताब्दी से जादा लम्बी अवधि की इस असफलता ने इन देशों को वैश्वीकरण के नाम पर पूंजीवादी विश्व की वित्तीय संस्थाओं के अधीन किया. इससे नयी तरह की गुलामी हो गयी है. दूसरे, इस आर्थिक लाचारी ने 1991-92 से चल रहे बेलगाम निजीकरण, भोगवाद, सांस्कृतिक कट्टरता, पर्यावरण प्रदूषण और बाजारवाद के जरिये सभी नव-स्वाधीन देशों में गम्भीर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है.

इसलिए इक्कीसवीं शताब्दी का यह तकाजा है कि सभी स्त्री-पुरुषों की बुनियादी जरूरतों के अभाव को योजनाबद्ध तरीके से दूर करते हुए समाज में सभी के लिए सम्मानपूर्ण जीवन को संभव बनाया जाये. यह बिना अन्याय-मुक्त समाज और प्रकृति-संवर्धक विश्व- व्यवस्था के असंभव है. जबकि पूंजीवाद साम्राज्यवाद ने लोभ, शोषण, विषमता, हिंसा और वर्चस्व पर आधारित समाज-व्यवस्था को प्रबल बनाया है. इसलिए दुनिया को, विशेषकर किसानों, मजदूरों, युवजनों, मध्यमवर्ग और महिलाओं को पूंजीवाद से बेहतर व्यवस्था की जरूरत है. जिससे सभी प्रकार की गरीबी से मानव को मुक्ति मिले. एक समतामूलक, न्यायपूर्ण और आतंकमुक्त दुनिया बने. इंसान और पृथ्वी दोनों की स्थायी सुरक्षा संभव हो. इस जरुरत को 2016 में ही दुनिया के 193 राष्ट्रों की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2030 तक 'सतत विकास लक्ष्य' के रूप में स्वीकार कर लिया है. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक न्याय और परस्पर हितकारी सहयोग पर आधारित परिवर्तन ही हम सबका सपना और उद्देश्य होना चाहिए. इससे समाजवादी विकल्प को मजबूती मिलेगी. अन्यथा पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अन्याय और शोषण का दुहरा दोष समाज और प्रकृति दोनों के लिए असहनीय हो चुका है.

II. भारत में समाजवाद विकास के नौ दशक (1934-2019)

भारत समेत दुनिया के विभिन्न देशों में स्थानीय देश-काल-पात्र की विशेषताओं के अनुसार समाजवादी आन्दोलन ने रूप और आकार लिया है औद्योगिक क्रांति का लाभ पानेवाले यूरोपीय देशों में समाजवादी आन्दोलन ने औद्योगिक श्रमिकों के संगठन और आंदोलनों के जरिये अपना आधार बनाया यह इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, हालैंड और इटली जैसे देशों की सबसे महत्वपूर्ण बात थी. इससे 1848 में कम्युनिस्ट घोषणा- पत्र के प्रकाशन और 1917 की रुसी क्रांति के बीच यूरोप में समाजवादी दर्शन और आन्दोलन का तेजी से प्रसार हुआ. द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के बाद साम्राज्यवाद के चंगुल से दो तिहाई विश्व के आजाद होने से समाजवाद के विभिन्न रूपों की महत्ता बढ़ी. लेकिन औद्योगिक राष्ट्रों के सभी उपनिवेशों में तीन शताब्दियों से उद्योगीकरण अवरुद्ध रहा. इससे श्रमजीवियों में कारखाना श्रमिको का प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच के दशकों में ही कुछ संख्या विस्तार हुआ. यह भारत में आत्मनिर्भर समाजवादी आन्दोलन के सामाजिक-राजनीतिक आधार के लिए अपर्याप्त था. फिर भी भारत में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे बड़े मंच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंतर्गत किसानों, मजदूरों, महिलाओं और विद्यार्थियों-नौजवानों के बीच आर्थिक न्याय, राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक समता के प्रश्नों के बारे में सरोकार पैदा हुआ. इस सन्दर्भ में समाजवाद के आदर्शों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए समर्पित देशभक्तो ने 1934 में स्थापित कांग्रेस समाजवादी पार्टी के मंच से प्रचारित और लोकप्रिय बनाया. भारतीय समाजवादियों द्वारा एक साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समाजवादी नवनिर्माण के दुहरे लक्ष्य के लिए काम किया गया.

स्वतंत्रता की रुपरेखा में न्याय और समता के तत्व की प्रबलता में निरंतर योगदान भारतीय समाजवादी आन्दोलन की विशिष्टता बनी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतर्गत जमींदारी उन्मूलन, किसानों को भूमि स्वामित्व का अधिकारी बनाना, जीवन- यापन लायक मजदूरी, प्रति सप्ताह 40 घंटे काम की मर्यादा, सामान काम के लिए सामान वेतन, बालश्रम पर प्रतिबन्ध, किसानों को सस्ता ऋण, अलाभकर जोतों को लगान मुक्ति, बेरोजगारी - बीमारी दुर्घटना-बुढ़ापे में सहायता, अनिवार्य निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था, बड़े उद्योगों का सार्वजनिक स्वामित्व, धर्म और भाषाई अस्मिता का सम्मान जैसे प्रश्नों पर संगठन और संघर्षो का सिलसिला बनाने से कांग्रेस के दृष्टिकोण में भी जनहितकारी परिवर्तन हुए. 1939 के कराची प्रस्ताव से लेकर 1937 के कांग्रेस चुनाव घोषणापत्र और 1949 में प्रस्तुत भारतीय संविधान में समाजवादियों का यह योगदान प्रतिबिंबित हुआ.

अपने विवेक, ज्ञान, साहस, त्याग और संघर्ष से अबतक के आठ दशकों में भारतीय समाजवादियों ने देश और दुनिया में अपनी एक आकर्षक पहचान बनायी है. ब्रिटिश साम्राज्यवाद से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति में सफलता के बाद भारतीय समाजवादियों ने समाजवादी समागम

सत्तासुख पाने की बजाय कांग्रेस से अलग होकर एक लोकतान्त्रिक प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई. आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार समाजवादियों पर दो युगों का दायित्व था 1. नव- स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की रचना, और 2. समाजवादी समाज की स्थापना. 1952 से 1971-72 तक चुनावी प्रक्रिया पर कांग्रेस के वर्चस्व के बावजूद समाजवादियों ने किसानों, मजदूरों, पिछड़ों-वंचितों दलितों- अल्पसंख्यकों, महिलाओं और युवजनों की जरूरतों को प्राथमिकता दी. महिला समेत सभी पिछड़ी जमातों के लिए विशेष अवसर की जरुरत पर बल दिया. राजनीतिक स्वराज के बाद सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक स्वराज की दिशा में समाज और देश को आगे बढ़ने में वैचारिक, संगठनात्मक और आन्दोलन आधारित विविध योगदान किया. गांधी से लेकर आम्बेडकर तक से निकटता का सकारात्मक सम्बन्ध बनाया.

भारत के समाजवादियों की विशेषताओं और विविधताओं को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सात्विक, राजसी और तामसिक प्रवृत्तियों के रूप में वर्गीकृत किया। है. डा. राममनोहर लोहिया द्वारा 1961 में एथेंस में संपन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में प्रस्तुत 'सप्तक्रांति' का कार्यक्रम विश्व समाजवादी चिंतन में भारतीय समाजवादियों का अनूठा योगदान माना जाता है. लोहिया के अनुसार बीसवी सदी की दुनिया में सात क्रांतियाँ एकसाथ चल रही है: 1. नर-नारी की समानता के लिए. 2. चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध, 3 संस्कारगत और जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए 4. परदेसी गुलामी के खिलाफ और लोकतंत्र और विश्व-सरकार के लिए, 5. निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए, 6. निजी जीवन में राज्यशक्ति के अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ, और 7. निःशस्त्रीकरण और सत्याग्रह के लिए हम समाजवादी मानते हैं कि अपने देश में भी इनको एकसाथ चलाने की कोशिश करनी चाहिए. इससे आनेवाले दिनों में ऐसा संयोग संभव है कि इंसान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता- जूझता ऐसा समाज और दुनिया बना पाएगा जिसमें आतंरिक शांति और भौतिक संतोष हो.

भारत के लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण की जरूरतों के लिए समाजवादियों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण और ग्राम-स्वराज के लिए चौखम्भा राज का रास्ता सुझाया. देश के किसानो की दशा सुधारने के लिए भूमि सुधार, सिंचाई सुविधा और संतुलित दामनीति के लिए कई बार सिविलनाफरमानी की राष्ट्रीय स्वावलंबन के लिए जरूरी उद्योग विस्तार में सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूती की जरूरत और मुट्ठीभर उद्योगपति घरानों के एकाधिकार के खतरों के प्रति जनमत निर्माण में योगदान किया. 'दाम बांधो' और 'खर्च पर सीमा' की जरूरत पर बल दिया. औरत और मर्द की समानता को आदर्श माननेवाले समाजवादियों ने सभी औरतों को वंचित भारत का हिस्सा मानते हुए विशेष अवसर का अधिकारी बताया. भारत-विभाजन से असहमत और दो राष्ट्र सिद्धांत के विरोधी समाजवादियों ने हिन्दू-मुसलमान सद्भाव और हिन्द-पाक महासंघ का रास्ता दिखाया. जाति से जुड़े अन्यायों के लिए जनजागरण और जाति तोड़ो सम्मेलनों से लेकर सत्याग्रह तक किया गया. '60 के दशक में मानसिक और बौद्धिक स्वराज के लिए अंग्रेजी के वर्चस्व को दूर करने और देशी भाषाओं के सार्वजनिक जीवन में सम्मान के लिए किये गए आन्दोलन के दूरगामी परिणाम हुए है. 1975-76 में सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा नवोदित लोकतंत्र को ही निर्मूल करने की चेष्टा करने पर समाजवादियों ने देशभर में लोकतंत्र-समर्थकों के साथ मिलकर साहस के साथ जन-प्रतिरोध को दिशा दी. इससे 1977 के आम चुनाव में तानाशाही ताकते पराजित हुई और नागरिक अधिकार, प्रेस की आजादी और लोकतंत्र पुनः स्थापित हुए भारतीय समाजवादियों ने देश की अर्थव्यवस्था को अवरोध मुक्त करने के नाम पर 1992 से शुरू वैश्विक पूजीवाद को प्रोत्साहन विशेषकर उदारीकरण-निजीकरण- वैश्वीकरण की नीतियों को गलत बताया इसे देश की आजादी, लोकतंत्र और समतामूलक प्रगति के लिए शुरू से हानिकारक माना. इसके विरुद्ध किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, महिलाओं और छात्रों युवजनों के अनेको प्रतिरोधों के साथ लगातार एकजुटता बनायी. इसीके समान्तर शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण का विरोध किया गया. समाजवादियों ने राजनीति के साम्प्रदायिकरण को देश की एकता और लोकतंत्र के लिए खतरनाक माना इसके विपरीत समाज में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी जमातों के साथ न्याय के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन का समर्थन किया. समाजवादियों ने महिलाओं के लिए विधानमंडल में एक तिहाई जगहों के आरक्षण पर भी जोर दिया. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि भारत के समाजवादियों ने देश की आजादी के लिए महात्मा गांधी के आवाहन पर 'भारत छोड़ो आन्दोलन' (1942-46) से लेकर राजनीतिक आजादी के बाद 1947-67 के दौरान आर्थिक-सामाजिक-मानसिक स्वराज के लिए और फिर लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में 'लोकतंत्र बचाओ आन्दोलन' ((1975-77) में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की. फिर 1990 के दशक से आजतक पूंजीवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ किसानों मजदूरों-दलितों-आदिवासियों महिलाओं युवजनों की पुकार पर आजादी बचाओ देश बनाओ के लिए हर जन हस्तक्षेप में बार बार अगली कतार के सेनानी रहे. इसीलिए आज समाजवादियों के लिए 'गांधी-लोहिया- जयप्रकाश के अनुयायी' का विशेषण इस्तेमाल किया जाता है. हमने यह दिखाया है. कि भारत में समाजवाद के लिए गांधी के ग्राम-स्वराज, लोहिया की सप्त-क्रांति और जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति के लिए प्रयास ही सही रास्ता रहा है. देश के समक्ष उपस्थित नयी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए आज भी समाजवादियों को पहले की तरह ही रचना, चुनाव और सत्याग्रहों के जरिए परिवर्तनकारी जनशक्ति के निर्माण के लिए आम आदमी औरत के साथ एकजुट होना चाहिए..


III. भारत की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक चुनौतियाँ - क्या करें? हमें इस बारे में कोई भ्रम नहीं है कि आज वैश्विक पूंजीवाद भारत समेत पूरी

दुनिया में गंभीर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकटों के विस्तार का मुख्य कारण है. तीन दशकों से जादा अवधि तक हम भारतीय इसके दबाव में रहे हैं. पूंजीपतियों और राजसत्ता के अपवित्र गठजोड़ ने देश को अंतर्राष्ट्रीय और आतंरिक दोनों मोर्चों पर गहरे संकट में धकेल दिया है. पहले केंद्र में कांग्रेस गठबंधन के 2004 से 2014 तक के 10 बरस के पूजीवाद परस्त राज ने किसानों, नौजवानों और आम आदमी को समस्या- ग्रस्त बनाया इससे पैदा देशव्यापी जन असंतोष से चौतरफा विकल्प की भूख जगी भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण हुआ और केंद्र में सत्ता बदली. लेकिन इसके बाद 2014 और 2011 की चुनावी विजय के जरिये भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार के मजबूती से जम जाने के बाद से देश के आर्थिक संकट में सामाजिक साप्रदायिक उग्रता और राजनीतिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं की अवहेलना की चुनौतियाँ भी जुड़ गयी है. इसके जवाब में क्या करना चाहिए?

अपनी दिशा की पहचान के लिए समाजवादी विरासत के साथ ही गांधी के अपनाये उपायों का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि इनमें से अधिकांश की आज नयी प्रासंगिकता है. दूसरे, आज की चिंताजनक परिस्थितियों के निर्माण में अन्य बातों के अलावा हमारा भी योगदान है. हमारी फूट, हमारी अनीतियाँ हमारी अकर्मण्यता और हमारे अज्ञान ने देश को इस दशा में पहुंचाने में जो भूमिका निभाई है उसकी समीक्षा किये बिना समाजवादियों को प्रभावशाली बनाना असंभव है. समाज को बेहतर हालात की और आगे बढ़ाना मुश्किल है समाजवादियों को फिर से सगुणों से लैस होना होगा और समाज से. विशेषकर अंतिम व्यक्तियों से परस्पर विश्वास का रिश्ता बनाना होगा. इसमें गांधीजी से जादा किससे सीखा जा सकता है?

गांधीजी ने आजादी की लड़ाई के दौरान देशभक्त समाजसेवकों को सत्याग्रही बनाने के लिए 1. चरित्र-निर्माण के एकादश व्रत, और 2 राष्ट्रनिर्माण मूलक लोकसेवा के 18 रचनात्मक कार्यक्रमों की कसौटी बताई थी. नरेन्द्रदेव और युसूफ मेहर अली से लेकर जयप्रकाश, कमलादेवी चत्तोपाध्याय और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों की पहली पीढ़ी ने गांधी की सिखावन का सम्मान किया था. हम भी ध्यान दे सके तो लाभ ही मिलेगा.

लोकसेवकों में चरित्र बल के लिए सुझाए 11 व्रत निम्नलिखित हैं: 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य, 5. असंग्रह, 6 सर्वधर्मसमानत्व, 7 स्वदेशी, 8. अस्पृश्यता 9. शरीरश्रम, 10 अस्वाद, व 11. अभय 

गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में निम्नलिखित सामाजिक कार्य थे: 1. कौमी एकता, 2 अस्पृश्यता उन्मूलन, 3. महिला सशक्तिकरण, 4. प्रौढ़ शिक्षा तथा 5. आदिवासी सेवा..आर्थिक मोर्चे से जुड़े कार्यों में 1. खादी, 2. ग्रामोद्योग, 3. आर्थिक समता, और 4. पशु संवर्धन पर जोर था. गांधी जी ने सांस्कृतिक कार्यों की सूची में 1. नशाबंदी, 2. स्वच्छता, 3. स्वस्थ्य और सफाई सम्बन्धी शिक्षा, 4. अंग्रेजी की दासता से छुटकारा और देशी भाषाओं का व्यवहार, तथा 5. राष्ट्रभाषा का प्रचार चिन्हित किया था. रचनात्मक कार्यों के राजनीतिक अंग में 1. किसान 2. श्रमजीवी, और 3 विद्यार्थियों के बीच चेतना निर्माण और जीवंत संगठन पर बल था.

इसी प्रकार गांधीजी ने देश को सात पापों से बचने की जरूरत पर बल दिया था:

1. सिद्धान्तहीन राजनीति,

2. परिश्रम बिना धन हासिल करना,

3. विवेकहीन सुखभोग,

4. चरित्र के बिना ज्ञान,

5. नैतिकता के बिना (अनैतिक) व्यापार,

6. मानवता विहीन (अमानवीय) विज्ञान, व

7. त्याग के बिना पूजा.

लेकिन वैश्वीकरण - बाजारीकरण के इस दौर में इन सातों पापों की प्रबलता बढ़ रही है. इससे हमारे जीवन में स्वराज का अधूरापन बढ़ रहा है. स्वराज के बढ़ते संकट की तस्वीर के कुछ आयाम तो सचमुच चौकानेवाले है.

IV. आज की दशा के मुख्य नौ पहलूः

1. किसान भारत की दशा हम काले धन को बढ़ावा देनेवालों को पिछले दशकों में कई लाख करोड़ की रियायत दे चुके है और दूसरी तरफ हमारी गलत दामनीति से जुड़ी खेती की कर्जदारी के बोझ से पीड़ित किसानों में से पिछले दो दशकों में 3.5 लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं. देश की 50% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है लेकिन हम किसानों के कल्याण के लिया कुल बजट का 2% से भी कम खर्च कर रहे है. केन्द्रीय बजट 2018/19 में यह राशि मात्र 46,700 करोड़ रुपये थी. यह चिंता की बात है कि आजकल कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर 3.7% (2004-05 से 2013-14) से आधा घटकर 1.9% प्रतिशत रह गई है.

2. श्रमजीवी भारत पर प्रहार कामकाजी वर्ग के साथ हमारा आचरण बेहद चिंताजनक है. क्योंकि हमारे श्रम कानूनों में ऐसे संशोधनों की शुरुआत हो चुकी है जिससे पिछले कई दशकों में हासिल सभी लाभ किनारे कर दिए जायेंगे, नौकरी सुरक्षा को ख़त्म करके अनुबंध श्रमिकों की तायदाद बढाई जा रही है. पेंशन का प्रावधान प्रश्नों के दायरे में है. श्रमिकों का संगठन करना भी अत्यंत दुरूह बनाया जा रहा है. देश के लगभग 48 करोड़ श्रमिक बल में से 93% अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हैं. महिला श्रमिक देश की श्रमशक्ति का 32% है, अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमशक्ति देश के सकल उत्पादन में 40% योगदान करता है. देश के प्रमुख श्रमिक संगठनों की सर्वसम्मत मांग है कि सरकार पूरे देश की न्यूनतम मजदूरी 15,000/- और पेंशन 6,000/- मासिक निर्धारित करे लेकिन हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित मानदंडों के आधार पर न्यूनतम मजदूरी दर तय करने से इनकार कर रहे है. क्या हम वैश्विक पूंजीवाद के दबाव में 'श्रम कानून सुधार' के नाम पर मजदूरों को निहत्या बनाकर विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों को आकर्षित करने में जुट रहे हैं? कमजोर श्रम कानून और पर्यावरण प्रावधान से विदेशी कम्पनियाँ कम लागत पर माल निर्माण करने और विश्व बाजार में जादा मुनाफा कमाने के लिए चीन और बांग्लादेश से भारत आ सकते हैं लेकिन हमारी श्रमिकों की जरूरतों की अनदेखी करना पूरी तरह से अन्याय है.

3. युवा भारत की भयानक स्थिति भारत की आबादी में 35 बरस से कम के स्त्री-पुरुषों का बहुमत हो चुका है. इस दृष्टि से हम विश्व में युवाशक्ति से भरपूर राष्ट्र बन चुके है. लेकिन युवाशक्ति को राष्ट्रनिर्माण में सार्थक आजीविका के जरिये सम्मानजनक भूमिका चाहिए अन्यथा यह हताश और दिशाहीन होने के खतरों से घिर रही है. 1. शिक्षा का व्यवसायीकरण और स्तरहीनता, 2. बढती बेरोजगारी और 3. रोजगार की गुणवत्ता में गिरावट हमारे युवजनों और समाज दोनों के लिए तीन सबसे बड़ी चुनौतियाँ है, मानव संसाधन इंडेक्स में 2018 के सर्वेक्षण में हमारा स्थान 115 पाया गया है. यानी दुनिया में तो भारत की युवाशक्ति दयनीय स्तर पर है दक्षिण एशिया में भी भारत सिर्फ अफगानिस्तान और पकिस्तान से बेहतर पाए गए है! रोजगार के नज़रिए से, कृषि में रोजगार निर्माण लगभग शून्य है. सरकारी नौकरियों में पिछले तीन दशकों में 1991 की तुलना में वास्तव में गिरावट हुई है. कार्पोरेट क्षेत्र तो 'नई अर्थनीतियों की आड़ में शुरू से ही पूजी प्रधान टेक्नोलाजी के भरोसे चल रहा है। और 'रोजगारविहीन विस्तार' ('जावलेस ग्रोथ में जुटा हुआ है. आज कई करोड़ युवक-युवतियां सार्थक रोजगार के लिए श्रमबाज़ार में भटक रहे हैं और हम उनकी असहायता के प्रति उदासीनता दिखा रहे है. अगर हमारी युवाशक्ति के सपने टूट गए तो देश में भविष्य के प्रति भरोसा कैसे बनेगा?

4. सामाजिक क्षेत्र में साधनो की बढ़ती कमी शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, कुपोषण - निवारण, पेय जल, ग्रामीण सशक्तिकरण गारंटी योजना और वृद्धावस्था पेशन सामाजिक क्षेत्र के सात अंग है इनमें से अधिकांश के लिए उपलब्ध संसाधनों में 'राजकोषीय घाटे' को कम करने के नाम पर कटौती का सामना करना पड़ रहा है. सरकारी अनुदान कम हो रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य की कमजोर हो रही सार्वजनिक सेवाओं ने निजी क्षेत्र की पकड़ को बढ़ाने का रास्ता बनाया है. 38% बच्चों के कुपोषण का शिकार होने और विश्व के देशों में 119 में से 100 स्थान होने के बावजूद संसाधनों की स्थिति में कोई सुधार नहीं किया गया है हमारे देश में 90% से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. इनको वृद्धावस्था में 60 बरस की उम्र के बाद केंद्र सरकार की ओर से 200 रूपए की प्रतिमाह मदद प्रदान की जाती है. यह हास्यास्पद है कि इसकी राशि 2006 से ही जस की तस बनी हुई है.

5. दलित, आदिवासी, महिलाओं और अल्पसंख्यकों की समस्याओं के लिए देश की ओर से बजट में की जानेवाली संसाधनों की व्यवस्था में भी कमी का सच चिंताजनक

6. हमने वैश्वीकरण और उद्योगीकरण के लोभ में अपने पर्यावरण की अपार हानि कर डाली है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वच्छ पेय जल को जीवन के अधिकार का अनिवार्य तत्व माना है लेकिन हमारी जल आपूर्ति का लगभग 70% गंभीर रूप से प्रदूषित है, पेयजल की गुणवत्ता के मामले में भारत 122 देशों में 120 वे स्थान पर है. 600 जिलों में से एक तिहाई में भूजल पीने योग्य नहीं है. हर साल लगभग 4 करोड़ स्त्री-पुरुष और बच्चे पानी से पैदा होनेवाली बीमारियों से पीडीत होते है. 78,000 मौत के शिकार हो जाते हैं. नीति आयोग के अनुसार 60 करोड़ स्त्री-पुरुष अत्यधिक 'जल- तनाव' का सामना कर रहे हैं. आगे 2030 तक देश की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है. फिर भी इसके लिए 2014 की तुलना में 2018-19 के बजट में 44 प्रतिशत की गिरावट हुई है.

7. इस सबके साथ देश में आर्थिक विषमता में चौकानेवाला दृश्य उपस्थित हो गया है. 2016 में देश के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों का देश की कुल संपत्ति के 58 प्रतिशत पर नियंत्रण था जबकि निचली आधी आबादी के हिस्से में केवल 2.1 प्रतिशत सम्पदा थी. सिर्फ एक बरस के बाद 2017 सबसे संपन्न 1 प्रतिशत संसाधनों के 73 प्रतिशत उपभोग करते पाए गए और निचले आधे हिस्से के 67 करोड़ के हिस्से में केवल 1 प्रतिशत पाया गया.

8. पूंजीपतियों की हर तरह से मदद के तीन दशकों के बाद भी हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजीनिवेश में गिरावट ने पूंजीवाद समर्थकों में चुप्पी पैदा कर दी है. क्योंकि हमारे पूंजीपतियों ने देश के बैंकों को अनुत्पादक ऋण लेकर खोखला कर दिया है. इन्होने 2012 तक 12 अरब रुपये का अनुत्पादक ऋण ले रखा था और यह राशि अगले 6 बरस में यानी 2018 में बढ़कर 95 अरब हो गयी है. इसमें से 75 प्रतिशत ऋण सार्वजनिक बैकों से लिए गए है. यह और भी चौकानेवाली जानकारी है कि कुल 12 कंपनियों ने इसमें से 25 प्रतिशत रकम ली है.

9. 2014 में संपन्न लोकसभा चुनाव में 464 दलों ने 29 राज्यों औए 7 केन्द्रशासित प्रदेशों में हिस्सा लिया. इसमें कुल 543 सीटों के लिए 8251 व्यक्ति चुनाव में उम्मेदवार बने. कुल मिलाकर 5 अरब रुपये खर्च किये गए! यह 2009 में हुए चुनाव खर्च का ढाई गुने से ज्यादा था. अब 2019 के चुनाव को तो दुनिया का सबसे महंगा चुनाव पाया गया. इसमें भारतीय जनता पार्टी का खर्च लगभग 45 प्रतिशत और कांग्रेस का 15 से 20 प्रतिशत के बीच था. अनाम बैंक बांड के जरिये दिए गए चुनाव चंदे की रकम में से 95 प्रतिशत रकम भारतीय जनता पार्टी के हिस्से में आई है. इसमें से काला धन कितना था? इतना पैसा कहाँ से और क्यों आया? अधिकांश दलों के नेता चुप हैं. कुछ चुनाव विशेषज्ञों ने इसे देशी-विदेशी कार्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा धनशक्ति का अबतक की भारतीय राजनीति में सबसे खुला हस्तक्षेप बताया है.

V. वैकल्पिक समाजवादी रास्ता

देश की दशा के प्रति चितित समाजवादियों ने अपने 84वे स्थापना दिवस पर 17 मई, 2018 को दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय समागम में एक सोशलिस्ट मेनिफेस्टो का प्रारूप देश के विचारार्थ प्रस्तुत किया है. यह दस्तावेज कार्पोरेट पूंजीवाद के द्वारा 1992 से भारत में अपनाए गए विकास मार्ग को दोषपूर्ण मानता है. क्योंकि इस 'विकास'' का मतलब पश्चिम की विशाल बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए स्वतंत्रता है. यह 1. हमारी अर्थव्यवस्था को लूटने, 2. पर्यावरण को प्रदूषित करने, 3. प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन और 4. हमारी संस्कृति में हिंसा के बीज बोने में जुटे हुए हैं.

समाजवादियों का आवाहन है कि भारत में 'विकास' का अर्थ ऐसे समाज का निर्माण होना चाहिए जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण हो. इसमें हर नागरिक समाज के लिए उपयोगी वस्तुओं-सेवाओं के उत्पादन में लगे सभी वयस्क स्त्री-पुरुष को योग्यता और क्षमता के अनुकूल आजीविका का अवसर स्थिर आय, घर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, प्रदूषण मुक्त परिवेश, सामाजिक शांति और वृद्धावस्था में सम्मानपूर्ण निर्वाह के लिए पेंशन हो. हमारे राज्य के लोकतांत्रीकरण को तेज करने के लिए संविधान के 73-74वें संशोधन के आगे जाकर ग्रामसभा और नगर पालिकाओं को सुशासन का प्रभावशाली औजार बनाना चाहिए, जिला योजना और मेट्रोपालिटन योजना के लिए समितियों का गठन करना चाहिए. देश के लोगों को संविधान सम्मत तरीके से पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण स्व-शासन का अवसर मिलना चाहिए.

समाजवादी समागम ने वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों द्वारा पैदा संकट से देश को निकालने के लिए तत्काल 8 सूत्रीय समाधान अपनाने का सुझाव दिया है. इसमें संविधान के मूल्यों और निर्देशों के सम्मान को सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है. आयात- निर्यात को महत्त्व देने की बजाय देशवासियों की क्रयशक्ति संवर्धन बढ़ने और विषमताएं घटाने को मापदंड बनाने पर बल है. मशीनीकरण और रोजगार निर्माण में संतुलन बनाने और श्रमप्रधान उद्योगों तथा गाँव आधारित रोजगारों के लिए सरकारी सहयोग की बात रेखांकित की गयी है. विकास योजनाओं में विकेंद्रीकरण, स्थानीय ज्ञान व संसाधन उपयोग, उर्जा बचत, और स्थानीय लोगों की अधिकतम भागीदारी की जरूरत की याद दिलाई गयी है. विकास के कार्यों में वंचित वर्गों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को प्राथमिकता पर जोर है. विकास के उद्देश्य से बनी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय योजनाओं और समझौतों के मामले में विधानमंडल और संसद में पर्याप्त चर्चा की अनिवार्यता बताई गयी है

समाजवादियों का सुझाव है कि भूमि अधिग्रहण, सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों, वित्तीय सेवाओं, आवश्यक सेवाओं, और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण रोका जाये. कृषि को पुनर्जीवन देनेवाली राष्ट्रीय पहल की जाए टिकाऊ और विकेन्द्रित ऊर्जा नीति बनायी जाये. सामाजिक क्षेत्र के सभी सात कार्यों शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, पेय जल, कुपोषण निर्मूलन, ग्रामीण रोजगार गारंटी और वृद्धावस्था पेंशन में पर्याप्त धनराशी आवंटन हो और इसके लिए जरुरत पड़ने पर संपन्न वर्गों पर नए कर लगे मजदूरों और नौजवानों की मांगों को ध्यान दिया जाये. दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की जरूरतों को प्राथमिकता मिले. मंडल आयोग, सच्चर आयोग वर्मा आयोग, पेसा कानून (1996) की सिफारिशों को लागू करने में सुस्ती दूर की आए

समाजवादियों के दस्तावेज में न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को महत्त्व देना और राजनीतिक हस्तक्षेप को तत्काल दूर करना एक असाधारण पहल है. इसके लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति को योग्यता आधारित और पारदर्शी बनाने का सुझाव दिया गया है. पुलिस व्यवस्था में लोकतान्त्रिक सुधार और जेल सुधार को महत्त्व देना भी एक उल्लेखनीय पक्ष है. यह दस्तावेज मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत बुद्धिजीवियों के लिए मजीठिया समिति की सिफारिशें लागू करने और मीडिया के व्यावसायीकरण को रोकने का समर्थन करता है. देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने की जरुरत की याद दिलाता है.

समाजवादियों के दस्तावेज के समापन अंश में चुनाव सुधार और राजनीतिक सुधार के कई बिंदु उठाए गए है. यह इंगित किया गया है कि सामान्य नागरिक और सत्ता केन्द्रों में फासला बढ़ाना अशुभ है. इससे हमारा लोकतंत्र उथला हो रहा है. दलों पर नेताओं की पकड़ बढ़ रही है और आंतरिक लोकतंत्र कमजोर हो चुका है. कार्पोरेट राजनीति में दखल बढ़ा रहे है. मीडिया का गलत इस्तेमाल बढ़ रहा है. जनांदोलनों की उपेक्षा की जाती है. सत्ता-प्रतिष्ठान की आलोचना को 'देशद्रोह' और 'विदेशी ताकतों की मदद' बताने का दौर आ गया है. चुनाव व्यवस्था में धन का प्रभाव बढ़ रहा है और जनता का प्रतिनिधित्व घट रहा है. महिला, अल्पसख्यक, दलित, क्षेत्रीय समुदाय आदि की हिस्सेदारी संतोषजनक नहीं है. इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन के विवादास्पद होने से चुनाव के नतीजों की वैधता सवालों के दायरे में आ गयी है. यह सब भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है.

यह महत्वपूर्ण है कि 'समाजवादी घोषणापत्र (ड्राफ्ट)' में जम्मू-कश्मीर और उत्तर- पूर्व प्रदेशों की समस्याओं और लोकतान्त्रिक जरूरतों का अलग से उल्लेख है. इसी प्रकार विदेशनीति की भी राष्ट्रहित की कसौटी पर समीक्षा महत्वपूर्ण है.

VI. सारांश

सारांशतः आज 'नयी आर्थिक नीतियों यानी कारपोरेट पूंजीवाद और 'लंगोटिया पूंजीपतियों' की मनमानी के तीन दशक लम्बे दबदबे के बाद भारत के समाजवादियों में तीन बिन्दुओं की साफ़ समझ बन रही है: एक, हमारा समाज पूंजीवाद के दोषों के कारण समस्याग्रस्त है और इससे विकास की बजाय विनाश बढ़ने से लोगों का मोह टूट रहा है. लेकिन बिना स्पष्ट समाजवादी विकल्प प्रस्तुत किए देश में फ़ैल रही दिशाहीनता नहीं दूर होगी. दो, इक्कीसवीं सदी के भारत को विकास के लोकतान्त्रिक मार्ग पर ले जाने के लिए पुन्जीनिर्माण, रोजगार निर्माण, जलनीति, ऊर्जा उत्पादन, लोकतंत्र - विस्तार, सामाजिक न्याय, सत्ता-विकेंद्रीकरण और पर्यावरण संवर्धन को परस्पर सम्बंधित रखना होगा. तीसरे, समाजवादियों को चुनाव कौशल की तुलना में रचना-संघर्ष के संयोग से विचार-विकास, सिद्धांतनिष्ठा, लोकसेवा, जनमत निर्माण और लोकशक्ति-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए. दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि बिना गांधी-लोहिया- जयप्रकाश की विरासत से प्रेरणा पाए हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे. समाजवाद की राह व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और पूंजीवाद से नहीं गुजरती है.जिसको आगे बढ़ाया चौ चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने। 

समाजवादी मेनिफेस्टो से साभार। 

सादर 

एक समाजवादी शुभचिंतक। 

रविवार, 25 जून 2023

उनका साहित्य और कलात्मक योगदान बहुत महत्वपूर्ण है



 मानीय विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीतिक प्रतिभा और क्षमता तो अपनी जगह है उनका साहित्य और कलात्मक योगदान बहुत महत्वपूर्ण है अपने चित्रों और कविताओं के माध्यम से उन्होंने बहुत बड़ी बात कही है। अब यह अलग बात है की जो लोग उनसे नाराज हो गए हैं वह उनकी कविताओं और चित्रों से भी नाराज हो गए क्योंकि उनके चित्रों और कविताओं में जो भले उन्हें समझ आए या न आए पर उनमें भी उन्हें सामाजिक न्याय दिखाई देता है। जब भी आप सामाजिक न्याय की बात करेंगे तो देश का एक बहुत समृद्धि तबका ऐसा है जो हर तरह से नाराज हो जाएगा। हालाँकि यह सही है कि आज भी बहुजन समाज में वैज्ञानिक तथ्यों का बहुत अभाव है,. माननीय विश्वनाथ प्रताप सिंह जी जब कांग्रेसछोड़े थे तो उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किए थे उन महत्वपूर्ण कार्यों को सूचीबद्ध किया जाए तो बहुत सारे ऐसे बिंदु जिसे उन्होंने अघोषित रूप से चिन्हित करके उस पर क्रियान्वयन किया था हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहते हुए दस्यु उन्मूलन का जो काम चला था और जिसमें उनके भाई को डकैतों द्वारा मार दिया गया था वह सब ऐसी घटनाएं थी जिसमें उन्हें सामाजिक विद्रूपता नजर आती थी और उसी विद्रूपता को लेकर के उनका एक चित्र जो यहां पर मैं संलग्न कर रहा हूं बहुत ही स्पष्ट तौर पर कई मुद्दों को रेखांकित करता है। चित्र की प्रतीकात्मकता, कविताओं  के माध्यम से स्पष्ट तौर पर गद्य की तरह अपनी बात कह देना, जो सहज ही काव्यमयी हो जाती हैं।

एक ऐसा संयोग रहा है कि मैंने उनकी कविताओं को एक कवि सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर जहां पर उनको मुख्य अतिथि बनाया गया था सुनने का अवसर मिला जब उनसे रात्रि रुकने का आग्रह किया जा रहा था तो उन्होंने तपाक से जो उदाहरण दिया था कि यदि अभी चला गया तो सुबह इलाहाबाद में ताजा रहूंगा और सुबह निकला तो इलाहाबाद में बासी हो जाऊंगा बासी और ताजा का मतलब मैं टिप्पणी में लिखूंगा यहां पर मेरा कहने का तात्पर्य है हर बात को वह प्रतीकात्मक तरीके से कहते थे।

एक और घटना मुझे याद आती है जब वह जनमोर्चा बनाए थे तो उसकी एक मीटिंग लखनऊ में 19 विक्रमादित्य मार्ग जो उस समय श्री संजय सिंह जी की कोठी हुआ करती थी उसमें जनमोर्चा के कार्यकर्ताओं की एक मीटिंग रखी थी। (यह समय उन तमाम पार्टियों से गठबंधन होने का था जो विपक्ष में थी यानी कांग्रेस के खिलाफ सभी दलों का एक गठबंधन बनना था उसी को आगे चलकर जनता दल के नाम से जाना गया) जनमोर्चा के उत्साही कार्यकर्ताओं ने उनसे टिकट की बात की तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा यह लड़ाई सामूहिक लड़ाई होगी और जो गठबंधन के बाद तय होगा हम उसी को अमल करेंगे इसमें जो लोग केवल टिकट के लिए आए हैं मेरा उनसे विनम्र निवेदन है कि वह वहां चले जाएं जहां उनको टिकट मिल रहा हो। अपने कार्यकर्ताओं से इतने स्पष्ट तौर पर कह देने की ताकत भी उन्हीं में थी।

एक और घटना की याद आती है अमेठी में चुनाव हो रहे थे श्री राम सिंह जी जनता दल से लोकसभा के प्रत्याशी थे। राजा साहब को अमेठी लोकसभा के बॉर्डर की एक सभा में मीटिंग में आना था जिस कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी हमारे ऊपर थी उस मीटिंग का मैं संचालन भी कर रहा था और बीच-बीच में राजा साहब से लोगों के संदेश भी दे रहा था। 

मंडल कमीशन लागू हो चुका था जनता दल में भी विशेष तरह की अंतर्कलह पैदा हो गई थी। उसी बीच वहां के कुछ स्थानीय संभ्रांत राजपूत उनसे व्यक्तिगत तौर पर मिलना चाह रहे थे जब हमने यह बात उनसे कही तो उन्होंने कहा कि यह कैसे संभव होगा लोगों में गलत संदेश जाएगा, मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप इनसे मिल लीजिए यह मीटिंग बहुत गोपनीय तरीके से कराऊंगा, मेरी बात उन्होंने मान ली और वहां के स्थानीय लोगों से वह मिले बातचीत हुई उसका ज़िक्र यहां उचित नहीं है, उसको मैं कहीं और लिखूंगा। जितने भी वहां के स्थानीय राजपूत नाराज थे वह सब राजा साहब की जय जयकार करने लगे। मेरे कहने का मतलब यह है कि उनके पास हर बात का माकूल जवाब हुआ करता था।

वैसे तो उनसे  अन्य कई अन्य अनेक अवसरों पर अनौपचारिक मुलाकात हुई और दो बार तो मैंने उनको अपनी पेंटिंग के कैटलाग भी दिया जो उस समय की मेरी प्रदर्शनियों के थे। कुल मिलाकर यह कह सकता हूं कि वह ऐसे राजनीतिज्ञ थे जो इमानदारी और राष्ट्रहित के साथ खड़े थे और यही कारण था कि कांग्रेस को उस दौर में उनकी रणनीति ने परास्त ही नहीं कर दिया था बल्कि अनेक प्रदेशों में ऐसे राजनीतिक भी खडे़ किए जो सोच भी नहीं सकते थे जो आज वह है।

यह वह बातें हैं जो उनके लिए मैंने अपने बहुत करीबी अनुभवों से साझा किया हूं। जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि वह सत्य के साथ खड़े रहने वाले ऐसे व्यक्ति थे  जो साहित्य संगीत और कलाओं के मर्मज्ञ थे ऐसा व्यक्तित्व जो ईमानदार होता है वह सत्य के साथ होता है सत्य ही सामाजिक न्याय को आगे बढ़ा सकता है।

-डॉ लाल रत्नाकर






रविवार, 28 मई 2023

सिद्दारमैया : शूद्र नेता, जिसने दिया आक्रामक हिंदुत्व को कड़ा जवाब

सिद्दारमैया : शूद्र नेता, 

जिसने दिया आक्रामक हिंदुत्व को कड़ा जवाब

कर्नाटक के मतदाताओं को सिद्दारमैया की जनकल्याणकारी राजनीति और मोदी की ‘जय बजरंगबली’ मार्का सांप्रदायिक राजनीति में से एक को चुनना था और उसने अपनी पसंद साफ़ कर दी है। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह विश्लेषण

कांचा आइलैया शेपर्ड May 25, 2023

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

कहा जा रहा है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत, राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का नतीजा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी की यात्रा ने इस जीत को मुमकिन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन यह भी सही है कि अमूमन कोई भी राष्ट्रीय पार्टी तब तक किसी राज्य में चुनाव नहीं जीत सकती, जब तक कि राज्य में उसका कोई ऐसा मज़बूत नेता न हो, जिसे जनसाधारण का समर्थन हासिल हो। 

सिद्दारमैया जैसे जननेता के बिना कांग्रेस कर्नाटक में चुनाव नहीं जीत पाती। सिद्दारमैया की ख्याति न केवल एक अच्छे प्रशासक के रूप में रही है, बल्कि उन्हें ऐसा नेता भी माना जाता है जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं था। यद्यपि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार ने भी जीत में अहम भूमिका का निर्वहन किया। लेकिन राज्य में उनका कोई ख़ास जनाधार नहीं है। सिद्दारमैया के परिपक्व और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध नेतृत्व और लोगों को गोलबंद करने की उनकी क्षमता के कारण ही कांग्रेस को जीत हासिल हो सकी। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को कर्नाटक मॉडल को अन्य राज्यों में लागू करने से पार्टी को होने वाले लाभ को समझना होगा। 

सिद्दारमैया का दूसरी बार कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनना, पूरे भारत के लिए सुखद समाचार है। निस्संदेह उनके समक्ष चुनौतियां हैं। उन्हें भाजपा से जूझना होगा और अपनी सरकार इस तरह से चलानी होगी जिससे राज्य की जनता, जिसने न केवल भाजपा बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी धूल चटाई है, संतुष्ट और प्रसन्न रहे। कर्नाटक के मतदाताओं को सिद्दारमैया की जनकल्याणकारी राजनीति और मोदी की ‘जय बजरंगबली’ मार्का सांप्रदायिक राजनीति में से एक को चुनना था और उसने अपनी पसंद साफ़ कर दी है। सिद्दारमैया की लोकप्रियता और उनकी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक रणनीति ने उन्हें सच्चे अर्थों में जननेता बना दिया था।  

देश एक चौराहे पर खड़ा है। जनता को सांप्रदायिक और लोकतांत्रिक जनकल्याणकारी राज्य में से एक को चुनना है। जाहिर है कि कर्नाटक चुनाव हमें कई सबक सिखाता है। अगर जनता सांप्रदायिकता को ख़ारिज कर देती है तो इसके हिंदुत्ववादी विचारधारात्मक मशीनरी के लिए गहरे निहितार्थ होंगे।

कर्नाटक दत्तात्रेय होसबोले का गृह राज्य है। वे आरएसएस के अगले मुखिया होंगे, इसकी काफी संभावना है। ऐसे में वे जरूर चाह रहे होंगे कि भाजपा को किसी भी तरह यह चुनाव जीतना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि होसबोले आरएसएस के उन नेताओं में से थे, जिन्होंने वर्ष 2013 के आम चुनाव में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की वकालत की थी। शायद इसी अहसान का बदला चुकाने के लिए मोदी ने अपनी सरकार की पूरी ताकत कर्नाटक में जीत हासिल करने के लिए झोंक दी। उन्होंने कर्नाटक की ढेरों यात्राएं कीं, ओबीसी कार्ड का भरपूर उपयोग किया और सांप्रदायिकता की आग को जम कर सुलगाया। कर्नाटक की पूर्व भाजपा सरकार ने कई मुस्लिम-विरोधी निर्णय लिए थे। होसबोले और बी.एल. संतोष जैसे आरएसएस नेताओं के तुष्टिकरण के लिए पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने सरकारी स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाया और मुसलमानों के लिए आरक्षण कोटा समाप्त कर दिया।   

सिद्दारमैया ने इससे मुकाबला करने के लिए जनता को अपने साथ जोड़ा और 2013 से लेकर 2018 तक मुख्यमंत्री के रूप में अपनी शानदार प्रशासनिक रिकॉर्ड को लोगों के सामने रखा। राज्य के गरीब, ओबीसी, दलित और आदिवासी उन्हें फिर से गद्दी पर बैठाने के लिए आतुर थे। मुसलमान भी उनके साथ थे क्योंकि उन्होंने टीपू सुल्तान की सकारात्मक भूमिका पर जोर दिया था और टीपू की खुलकर सराहना की थी।

सिद्दा, जिस नाम से वे जाने जाते हैं, किसी छोटे-बड़े शहरी व्यापारी परिवार से नहीं आते और ना ही वे ऐसी किसी जाति से हैं, जिसे राजनैतिक कारणों से ओबीसी का दर्जा दिया गया हो। वे एक शूद्र चरवाहा जाति से आते हैं जिसके सदस्य शिक्षा, गरिमा और सम्मान से जीने के अधिकारों से तभी से वंचित हैं जबसे प्राचीन हिंदू ग्रंथ अस्तित्व में आए। 

सिद्दारमैया, मुख्यमंत्री, कर्नाटक

बहरहाल संघ, भाजपा और उनके संगी-साथियों को यह अहसास हो गया है कि अब सत्ता में कौन आएगा। यह ओबीसी मतदाता तय करेंगे। और इसलिए वे कई गैर-शूद्र नेताओं को ओबीसी नेताओं के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। संघ परिवार ने पहले तो मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का विरोध किया, लेकिन बाद में उन्हें यह समझ में आया कि ओबीसी वोटों के बिना वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ नहीं हो सकेंगे। इसलिए नरेंद्र मोदी और सुशील मोदी जैसे नेताओं, जिन्होंने मंडल आरक्षण का विरोध किया था और जो कमंडल आंदोलन के आक्रामक योद्धा थे, ने अचानक ओबीसी का चोला ओढ़ लिया। 

परन्तु सिद्दारमैया ने उनके रचे चक्रव्यूह को सफलतापूर्वक भेद दिया। वे मंडल आंदोलन के मज़बूत स्तंभ थे। चरवाहों के परिवार – एक ऐसे परिवार, जिसकी जड़ें कृषि और पशुपालन से जुड़ीं थीं – से आने वाले सिद्दारमैया ने दस वर्ष की आयु में पहली बार स्कूल में दाखिला लिया। उन्होंने बीएससी किया और फिर एलएलबी। उस समय किसी कुरुबा लड़के के लिए यह स्वप्न जैसा था। कानून के पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वकालत करने लगे। लेकिन साथ-साथ वे मैसूर क्षेत्र में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी सक्रिय हो गए। इस युवा वकील पर 1980 के दशक में कृषक आंदोलन के एक प्रमुख नेता एम.डी. नंदुंदास्वामी की नज़र पड़ी। उन्होंने ही सिद्दारमैया को कर्नाटक राज्य रायथा संघ के उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ने का मौका दिया। वे जीत गए और 1983 में विधायक बने। बाद में उन्होंने जनता पार्टी की सदस्यता ले ली और उस खिचड़ी पार्टी में गरीबों के हितचिंतक गुट के नेता के रूप में उभरे। वे एक के बाद एक चुनाव जीतते चले गए और जल्दी ही मंत्री बन गए। 

जनता दल के विभाजन के बाद वे देवेगौडा के जनता दल में चले गए, जहां उनकी पहचान निर्धन वर्गों, ओबीसी, दलितों और आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में थी। जब देवगौड़ा प्रधानमंत्री बनने के पहले कनार्टक के मुख्यमंत्री थे, तब सिद्दारमैया उनके मंत्रिपरिषद में वित्त मंत्री रहे। वहीं देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के बाद जब जे.एच. पटेल मुख्यमंत्री बने तब पहली बार वे उपमुख्यमंत्री बनाए गए। बाद में जब कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) की संयुक्त सरकार बनी तब भी देवगौड़ा ने उन्हें उपमुख्यमंत्री ही बनाया। लेकिन जब संयुक्त सरकार का पतन हुआ तब भाजपा के साथ मिलकर देवगौड़ा ने सरकार का गठन किया और अपने पुत्र को प्राथमिकता दी। 

इसके बाद सिद्दारमैया ने जनता दल (सेक्युलर) को भी छोड़ दिया। उन्होंने ‘अहिनदा’ (अल्पसंख्याका, हिंदूलिदा, दलिता) के हितों को समर्पित क्षेत्रीय पार्टी का गठन करने पर भी विचार किया। कन्नड़ में हिंदूलिदा का अर्थ होता है– पिछड़े। 

अंततः उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा। लेकिन यहां भी उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और तार्किकता के प्रति अपनी दृढ़ प्रतिबद्धता को बनाए रखा। भाजपा के दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से सिद्दारमैया ने जो कुछ कहा और किया, उससे धर्मनिरपेक्षता और तार्किकता में उनकी गहरी आस्था झलकती है। उन्होंने भगवाकरण से कभी समझौता नहीं किया। डी.के. शिवकुमार की कलाई पर आप भगवा धागों का पूरा बंडल देख सकते हैं, लेकिन सिद्दा कभी इन चक्करों में नहीं पड़े। 

राहुल गांधी और प्रियंका सहित कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने अपनी हिंदू आस्था को प्रदर्शित करने के लिए कई मंदिरों की यात्रा की, लेकिन सिद्दारमैया ने कभी किसी मंदिर में माथा नहीं टेका। वे बसवा और अक्का महादेवी को अपनी आध्यात्मिक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत और उद्धृत करते रहे। 

सिद्दारमैया क्यों हैं असली ओबीसी?


शूद्र, जो भारत में आबादी का लगभग 52 प्रतिशत हैं, दो हिस्सों में बंटे हैं। उनमें से कुछ ओबीसी हैं और कुछ सामान्य श्रेणी में आते हैं। जैसे जाट, पटेल, मराठा, रेड्डी, कम्मा, नायर इत्यादि। कर्नाटक में लिंगायत और वोक्क्लिंगा, जिन्हें हम जाट और रेड्डी के समकक्ष मान सकते हैं, शूद्र बड़े किसान हैं, जिन्हें आरक्षण हासिल है। वे ओबीसी कहलाते हैं। सिद्दारमैया, जो कुरुबा (चरवाहा) जाति से हैं, की जिंदगी कृषि और और पशुपालन से जुड़ी रही है। इस अर्थ में वे लिंगायतों और वोक्क्लिंगाओं के समान हैं। दूध और मांस पर आधारित अर्थव्यवस्था और खाद्यान्न उत्पादकों से उनकी गहरा और नजदीकी रिश्ता है। 

मोदी, जो शहरी मोद-घांची व्यापारी समुदाय से आते हैं, सिद्दारमैया को लिंगायतों का विरोधी सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन सिद्दारमैया ओबीसी के असली प्रतिनिधि हैं, जो कन्नड़ शूद्रों को आरक्षण का लाभ दिलवाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। लिंगायत और वोक्क्लिंगा दोनों इस तथ्य से वाकिफ हैं। इन जातियों के गरीब सिद्दारमैया के साथ हैं। देवराज अर्स के बाद वे एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी कर्नाटक की जनता में गहरी पैठ है। 

भाजपा मोदी के ओबीसी होने का ढिंढोरा पीट कर दो बार आम चुनाव जीत चुकी है। मेरा मानना है कि मोदी को तभी हराया जा सकता है जब देश के शूद्र कृषक ओबीसी जातियों के नेता एक मंच पर आ जाएं। सिद्दारमैया के अलावा, दक्षिण भारत के सभी मुख्यमंत्री, जिनमें पिनयारी विजयन, एम.के. स्टालिन, के. चंद्रशेखर राव और जगन मोहन रेड्डी शामिल हैं, शुद्र कृषक या शिल्पकार जातियों से हैं। उत्तर भारत में नीतीश कुमार, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत की सामाजिक पृष्ठभूमि भी यही है। अगर ये सब अपनी-अपनी पार्टियों के साथ मिलकर जोर लगाएं तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को यह समझना होगा कि भाजपा के व्यवसायी ओबीसी जमावड़े का मुकाबला केवल कृषक ओबीसी नेता मिलकर कर सकते हैं। सिद्दारमैया का मॉडल राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जा सकता है।  

मोदी ने लोगों से वोट देने के पहले ‘जय बजरंगबली’ कहने का आह्वान करके यह सिद्ध कर दिया है कि वे आक्रामक सांप्रदायिकता का सहारा लेने से नहीं हिचकिचाएंगे। लेकिन कर्नाटक के नतीजे उनके लिए बड़ा धक्का हैं।  

अब समय आ गया है जब पूरे देश के शूद्र-ओबीसी नेताओं को एक होकर देश को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। उन्हें सकारात्मक, लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी नीतियों को प्रोत्साहन देना होगा ताकि ओबीसी राजनीति के नाम पर सांप्रदायिकता फैलाने की प्रवृति पर रोक लग सके। शहरी सांप्रदायिक ओबीसी राजनीति, कृषक उत्पादक शूद्र/ओबीसी राजनीति से एकदम अलग है।   

कृषक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना और अवारा पूंजीवादियों, जिनमें ओबीसी, दलित और आदिवासी वर्गों की भागीदारी नहीं है, की गोलबंदी को रोकना ज़रूरी है। हमारे देश ने लोकतंत्र और पूंजीवाद का रास्ता चुना था। लेकिन इन ताकतों ने इस राह को कलंकित कर दिया है। फुले, आंबेडकर और पेरियार ऐसे लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें राजनीति में धर्म की कोई भूमिका न हो। सिद्दारमैया अपने पूरे राजनैतिक जीवन में इसी विचारधारा के अनुरूप काम करते आये हैं। कांग्रेस के बुद्धिजीवी वर्ग को, अगर वह समझता है कि उसकी पार्टी के लिए क्या अच्छा है, सिद्दारमैया के दिखाए रास्ते पर चलकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी वापसी के लिए रणनीति बनानी चाहिए। 

(आलेख पूर्व में वेब पत्रिका ‘द वायर’ द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित। यहां लेखक की अनुमति से हिंदी अनुवाद प्रकाशित) 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)

(साभार  : फारवर्डप्रेस )




देश को राजतन्त्र की ओर ले जा रहे हैं मोदी जी

देश को राजतन्त्र की ओर ले जा रहे हैं मोदी जी 

जबकि माननीय प्रधानमंत्री जी जब दुनिया के किसी देश में जाते हैं तो कहते हैं कि मैं बुद्ध के देश से आया हूं।
नई संसद में जिस तरह से सैंगोल को ला करके लोकतंत्र की सारी मान्यताओं को तहस-नहस कर दिया गया है। उससे उनकी यह भावना जो विश्व की जनता को गुमराह करती है उसका ज्वलंत प्रमाण आज तब देखने को मिला जब राजतंत्र का पहला हमला अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से सुसज्जित महिला पहलवानों को जो उनके सांसद बृजभूषण शरण सिंह के दुराचारी आचरण के खिलाफ महीनों से जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं। जिस तरह से सरकारी मशीनरी यानी दिल्ली पुलिस ने उनको रौंदा है उसके बहुत सारे विवरण अनेकों अखबारों में आपको मिल जाएंगे अनेकों सोशल मीडिया के चैनलों पर आपको लेकिन जितना मैं देख पाया हूं ह्रदय विदारक है।

यह महिला पहलवान जिस समाज से आते हैं वह समाज मोदी का बहुत कट्टर वोटर रहा है, इसलिए उनसे भी सवाल है कि क्या उन्हीं परिवारों की लड़कियां जिनके साथ आज लोकतंत्र की सारी मान्यताओं को तोड़कर उनके प्रदर्शन की जगह को तहस-नहस कर दिया और उन्हें न जाने कहां ले जा कर के बंद किया गया है क्या यह सब उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है ? वह कब तक सोते रहेंगे?
यह सही है कि इन महिला पहलवानों ने यह हौसला बना करके आई हैं कि हम इस सरकार के अत्याचारों के खिलाफ लड़ेंगे यह सरकार जब तक उनकी बातों को नहीं मानेगी तब तक वह अपनी लड़ाई जारी रखेंगी। आज इस निरंकुश आततायी सरकार का असली चेहरा सामने आ ही गया है।

शासकीय निरंकुशता ;

उनके सारे किरदार क्या कहते हैं जो उनके अहंकार को दर्शाता है कि करदाताओं के 20 हजार करोड़ रूपए जिससे राजा ने अपने लिए महल बनाया उससे अगर 20 विश्वविद्यालय बना दिए गए होते तो न जाने कितने बच्चे पढ़कर पूरी दुनियां में देश का नाम रौशन करते! क्या यह धन का दुरुपयोग नहीं है।


अब यह बात विचारणीय है कि यदि लोकतंत्र को कायम रखना है तो प्राचीन राजतन्त्र के प्रतीकों की जरुरत क्या है ?

सेंगोल का प्रवेश :

सेंगोल भारत का एक प्राचीन स्वर्ण राजदण्ड है। [1] इसका इतिहास चोल साम्राज्य से जुड़ा है। सेंगोल जिसे हस्तान्तरित किया जाता है, उससे न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है।[2]

ऐसा दावा है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे सौंप दिया था। [1]बाद में इसे इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया था।[3]सेंगोल सोने और चांदी से बना है
प्राचीन काल में भारत में जब राजा का राज्याभिषेक होता था, तो विधिपूर्वक राज्याभिषेक हो जाने के बाद राजा राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर बैठता था। राजसिंहासन पर बैठने के बाद वह कहता था कि अब मैं राजा बन गया हूँ 'अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽस्मि'। (मैं अदण्ड्य हूँ , मैं अदण्ड्य हूँ, मैं अदण्ड्य हूँ ; अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता।) तो पुरानी विधि ऐसी थी कि उनके पास एक संन्यासी खड़ा रहता था, लँगोटी पहने हुए। उसके हाथ में एक छोटा, पतला सा पलाश का डण्डा रहता था। वह उससे राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए उसे कहता था कि 'राजा ! यह 'अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि' गलत है। 'दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि' अर्थात तुझे भी दण्डित कर सकता है। [5]
चोल काल के दौरान ऐसे ही राजदंड का प्रयोग सत्ता हस्तान्तरण को दर्शाने के लिए किया जाता था। उस समय पुराना राजा नए राजा को इसे सौंपता था।[6]राजदंड सौंपने के दौरान 7वीं शताब्दी के तमिल संत संबंध स्वामी द्वारा रचित एक विशेष गीत का गायन भी किया जाता था। [3]

कुछ इतिहासकार मौर्य, गुप्त वंश और विजयनगर साम्राज्य में भी सेंगोल को प्रयोग किए जाने की बात कहते हैं।[6]
वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक सवाल किया था: "ब्रिटिश से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में किस समारोह का पालन किया जाना चाहिए?" इस प्रश्न ने नेहरू को वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श करने के लिए प्रेरित किया। राजाजी ने चोल कालीन समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था। राजाजी ने तमिलनाडु के तंजौर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ - थिरुववादुथुराई अधीनम से संपर्क किया। थिरुववादुथुराई अधीनम 500 वर्ष से अधिक पुराना है और पूरे तमिलनाडु में 50 शाखा मठों को संचालित करता है। अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के 'सेंगोल' तो तैयार करने के लिए चेन्नई में सुनार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को नियुक्त किया।[3]

इस अवसर पर चर्चित लेखक श्री ओम प्रकाश कश्यप जी का फारवर्डप्रेस आया ताजा आलेख यहां साभार लिया जा रहा है। 

लोकतंत्र में ‘राजदंड’ का क्या काम?

नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री करें या राष्ट्रपति, यह बड़ा सवाल नहीं है। इससे अधिक बड़ा सवाल नए संसद भवन में सेंगोल को राजदंड के रूप में स्थापित किया जाना है। यह अच्छे अवसर को बुरी घटना बना देने जैसा है। बता रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप May 26, 2023
(साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन)

हर साल 15 अगस्त के दिन भारतीय प्रधानमंत्री जब लालकिले पर तिंरगा फहराते हैं तो उसका एक प्रतीकात्मक संदेश यह भी होता है कि भारत राजशाही से पीछा छुड़ाकर, उत्तरदायी और लोकोन्मुखी जनतांत्रिक शासन-प्रणाली को अपना चुका है। यह इस बात का परिचायक भी है कि देश में ऐसी सरकार कायम है, जो जनता की है, जनता के लिए सोचती है और बगैर किसी भेदभाव के जनता के हित में काम भी करती है। लेकिन यह तो हुई निखालिस प्रतीकात्मक बात। मौजूं सवाल यह है कि क्या भारत सचमुच धर्म और राजशाही की गोद से निकले अर्द्धसामंती और अधिनायकवादी संस्कारों पर जीत हासिल कर पाया है?  


हालिया प्रकरण, संसद के नए भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति के बजाय प्रधानमंत्री से कराने; तथा गृहमंत्री द्वारा ‘सेंगोल’ को नए संसद भवन में स्थापित करने की घोषणा से उपजे विवाद को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। समानांतर प्रश्न यह भी है कि क्या हम सही मायने में लोकतांत्रिक देश बन पाए हैं? या हमारे नेता जो संवैधानिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर संसद और विधायिकाओं में जाते हैं, वे इस देश को सच्चा लोकतंत्र बनाने की खातिर सचमुच गंभीर हैं?

वर्तमान परिस्थितियों में इनके उत्तर निराशाजनक हो सकते हैं। गृहमंत्री द्वारा कथित राजदंड की प्रक्रिया को दुबारा आरंभ करने की मनमानी घोषणा से एक सवाल यह भी उभरता है कि क्या इस देश के गृहमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी किसी वस्तु को राष्ट्रीय महत्व का बताकर, उसको राष्ट्रीय प्रतीक घोषित करने का अधिकार है? खासकर तब जब एक प्रधानमंत्री ने जिसे वह प्रतीक सौंपा गया था – उसे अप्रासंगिक मानकर तत्काल संग्रहालय के हवाले कर दिया हो, और पूरे 75 वर्ष उसने महज ‘याद’ बनकर काटे हों। 

सवाल यह भी है कि संसद भवन, जो भारतीय जनता की इच्छा और संचेतना का प्रतीक है, वहां ‘राजदंड’ को स्थापित करना, क्या लोकतंत्र को अपमानित करने जैसा नहीं है? क्या स्वस्थ लोकतंत्र में जनता की इच्छा से परे भी ‘राज’ के पास कोई और शक्ति होती है? यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान जो कथित सेंगोल की भेंट के बाद बना था, उसमें भी किसी प्रतीक को ‘राजदंड’ के रूप में अपनाने का कोई प्रावधान नहीं है।

सेंगोल का एकाएक चर्चा में आना 

सेंगोल के बारे में जो जानकारियां सत्तापक्ष के हवाले से प्रकाशित हुई हैं, उनमें बताया गया है कि भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने शासन के औपचारिक हस्तांतरण के समय नेहरू से पूछा था कि क्या वे सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को खास प्रतीक के जरिए पूरा करना चाहते हैं? इस पर नेहरू ने राजगोपालाचारी से सलाह ली थी। पुरातन संस्कारों में जीने वाले राजगोपालाचारी ने उन्हें सेंगोल के बारे में बताया था। तब आनन-फानन में मद्रास के एक जौहरी से चांदी का करीब पांच फुट लंबे सेंगोल की रचना कराई गई और उसके ऊपर सोने की परत चढ़ाई गई। शिखर पर नंदी की आकृति वाले सेंगोल का डिजाइन-निर्माण तमिलनाडु के तिरुवावडुदुरई आदिनम मठ की देख-रेख में कराया गया, जिसे स्वाधीनता हस्तांतरण से करीब 15 मिनट पहले शैव मंत्रों के उच्चारण के बीच जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था। 

यदि सत्ता हस्तांतरण में सेंगोल की भूमिका इतनी ही महत्वपूर्ण है तो सवाल यह भी उठता है कि माउंटबेटन या उनके पूर्ववर्ती वायसरायों को किसने राजदंड सौंपा था? यदि नहीं सौंपा था तो जो पुरोहितवर्ग अब प्रधानमंत्री मोदी को राजदंड सौंपे जाने पर उत्साहित है, क्या उन्होंने एक बार भी अंग्रेज वायसरायों/गवर्नरों के पास राजदंड न होने के कारण, उनके शासन के औचित्य पर सवाल उठाए थे?

‘सेंगोल’ तमिल शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति ‘सेन्नई’ से बताई जाती है। तमिल राजतंत्र में सेंगोल काफी महत्वपूर्ण माना जाता था। जब भी कोई नया राजा राज्य का कार्यभार संभालता, राजपुरोहित उसे राजदंड सौंपता था। लेकिन बात उन दिनों की है जब राजतंत्र पर ब्राह्मणशाही का कब्ज़ा होता था। कानून के नाम पर ‘मनुस्मृति’ जैसी निर्लज्ज व्यवस्थाएं थीं। सेंगोल के इतिहास को 2,000 वर्ष पुराना बताया जाता है। एक पौराणिक मिथ के अनुसार मदुरै की दैवी मीनाक्षी ने उसे राजदंड के रूप में नायक राजाओं को सौंपा था। यदि पोंगापंथ की भाषा में कहें तो जैसे वेद आसमान से उतरे थे, वैसे ही सेंगोल जैसा प्रतीक भी आसमान से टपका होगा। 


(आनंद भवन, प्रयागराज में प्रदर्शित ‘सेलोंग’ के नीचे विवरणिका टिप्पणी में इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू को भेंट सुनहरी छड़ी बताया गया है)

लोकतंत्र के प्रति निष्ठावान प्रधानमंत्री का समझदारी भरा निर्णय

नेहरू ने भी औपचारिकतावश ‘सेंगोल’ को लिया अवश्य था, परंतु उसे अवसर विशेष पर मिलने वाले उपहारों से अधिक महत्व कभी नहीं दिया था। मिलने के साथ ही उन्होंने सेंगोल को इलाहाबाद में आनंद भवन स्थित संग्रहालय को सौंप दिया था। यह लोकतंत्र के प्रति एक निष्ठावान प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया समझदार फैसला था। आनंद भवन संग्रहालय में भी सेंगोल के कथित महत्व को लेकर कोई रिकार्ड नहीं है। बताते हैं कि 1978 में कांची मठ के ‘महापेरिवा’ ने उस घटना का जिक्र अपने एक साथी से किया था। उसके बाद ही वह चर्चा में आ गया। 2021 में आरएसएस नेता एस. गुरुमूर्ति द्वारा संपादित तमिल अखबार ‘तुगलक’ में सेंगोल पर उनके द्वारा ही एक लेख प्रकाशित हुआ। इसमें गुरुमूर्ति ने एक पुजारी द्वारा अपने एक शिष्य को दी गई जानकारी को आधार बनाया गया है, जिसे पढ़कर शास्त्रीय नर्तकी पद्मा सुब्रमण्यम ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखा। छोटे-से-छोटे मुद्दे को खास हिंदुत्ववादी चश्मे से देखने वाली सरकार को सेंगोल अपने सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुकूल जान पड़ा; उसके बाद उसे नए संसद भवन में स्थापित करने का फैसला लिया गया।  

सिर्फ नीति और न्यायपरक कह देना पर्याप्त नहीं
यूं तो ‘सेन्नई का अर्थ ‘नीति और न्यायपरकता’ बताया गया है, जो अपने आप में बहुत ही भरमाने वाले शब्द हैं। ‘नीति’ शब्द खुद भी राजनीति का हिस्सा है। दूसरे शब्दों में सिर्फ ‘नीति और न्यायपरकता’ में, न्यायपूर्ण और उत्तरदायी शासन की कोई अवधारणा शामिल नहीं है। घटिया से घटिया राजा की भी कोई न कोई नीति होती थी। उसके अनुरूप राज करने को ही वह ‘नीति और न्यायपरक’ घोषित कर देता है। हिटलर ने जब जर्मनी में तानाशाही कायम की थी तो वह पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी के साथ हुए अन्याय को न्याय में बदलना चाहता था। इसी तरह मुसोलिनी इटली के पुराने गौरव को वापस लौटाने के नाम पर, इतिहास की बेईमानियों से निजात दिलाने के नाम पर तानाशाही चला रहा था। चंगेज खान जब भारत को रौंदता हुआ आया था, तब उसकी भी कोई न कोई नीति अवश्य रही होगी, जिसके अनुसार शासन करना उसकी निगाह में न्यायपरक होना था। भारत में में तो पांच पांडवों के न्याय दिलाने के नाम पर 18 अक्षौहिणी (83 लाख सैनिक, लाखों हाथी, घोड़े अलग) को मरवा देने को ‘धर्म-युद्ध’ कहने की भी परंपरा रही है। इसलिए उत्तरदायी शासन के संदर्भ में धर्म, नीति, और न्यायपरकता की बातें करना उस समय तक बेमानी है, जब तक वह समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्यों से प्रतिबद्ध न हो। भारत में जहां सामाजिक स्तर पर भारी असमानता है, हम चाहें तो ‘न्याय’ को ‘सामाजिक न्याय’ से भी स्थानापन्न कर सकते हैं। 

उद्घाटन कौन करे, बड़ा सवाल नहीं

नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री करें या राष्ट्रपति, यह बड़ा सवाल नहीं है। इससे अधिक बड़ा सवाल नए संसद भवन में सेंगोल को राजदंड के रूप में स्थापित किया जाना है। यह अच्छे अवसर को बुरी घटना बना देने जैसा है। सेंगोल (राजदंड) पूरी तरह से धार्मिक और राजसी परंपरा को स्थापित करता है। ऐसी सत्ता का प्रतीक है जब राजा को राज्य का स्वाभाविक उत्तराधिकारी और सर्वेसर्वा मान लिया जाता था। मनुस्मृति के अनुसार ईश्वर के बाद पृथ्वी और यहां की समस्त संपदा का वास्तविक स्वामी ब्राह्मण को बताया गया है। इसलिए राजपुरोहित राजा (प्रजापालक) को प्रतीक के तौर पर सत्ता के संचालन की जिम्मेदारी सौंपता था। 

पुराणों में राजा वेन की कहानी आती है। वेन को पहला निर्वाचित राजा माना जाता है। निर्वाचित होने के कारण वह स्वाभाविक रूप से अपनी प्रजा के प्रति उत्तरदायी था। जब वेन ने ब्राह्मणों और उनकी सत्ता के आगे झुकने से इंकार कर दिया तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देश के पहले निर्वाचित राजा की हत्या कर दी। बाद में वेन के पुत्र पृथु को इस शर्त के साथ सत्ता सौंपी कि वह ब्राह्मणों के सभी आदेश मानेगा। उनके प्रति सदैव विनत रहेगा। सेंगोल के साथ भी उसी आदेश का भाव है। संवैधानिक व्यवस्था में ऐसे प्रतीक की अहमियत सांस्कृतिक ‘कचरे’ से ज्यादा नहीं हो सकती।

दिशाहीन विपक्ष का दिशाहीन विरोध 

विपक्षी दल नए भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा न कराए जाने को मुद्दा बना रहे हैं। बीते नौ वर्षों में विपक्ष भाजपा के साथ कूटनीति की लड़ाई हर बार हारता आया है। इस बार भी वह भटका हुआ है। यदि भाजपा का सेंगोल को अधिकृत राजमुद्रा का दर्जा उसकी दूरगामी राजनीतिक सोच को दर्शाता है तो विपक्ष का उद्घाटन समारोह से बहिष्कार का मुद्दा उसके राजनीतिक सोच की सीमा है। बजाय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के विवाद में उलझने के उसे पूछना चाहिए था कि गृहमंत्री ने, पूर्व प्रधानमंत्री को अवसर विशेष पर दिए गए उपहार को, किस हैसियत से राजकीय दर्जा देने का फैसला किया है? और सेंगोल का जो स्वरूप है क्या वह भारत की धर्मनिरपेक्षता, बहुरंगे सांस्कृतिक मूल्यों से मेल खाता है? 

भारत की संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित होते हैं। लोकसभा सांसद के रूप में प्रधानमंत्री अपने क्षेत्र की जनता के सीधे प्रतिनिधि हो सकते हैं, मगर प्रधानमंत्री पद का चयन जनप्रतिनिधियों द्वारा ही किया जाता है। उसके बाद देश का प्रधानमंत्री पूरी जनता का प्रतिनिधि माना जाता है। इसलिए जनता का प्रमुखतम प्रतिनिधि लोकतंत्र के सबसे बड़े सदन का उद्घाटन करे तो नैतिकता संबंधी कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता। वैसे भी संसद की गरिमा ईंट-पत्थरों से बनी इमारत में न होकर, उसके आदर्शों में होती है। ईंट-पत्थरों से बनी इमारत के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति का जाना जरूरी नहीं है। हां, इस अवसर पर उनका अनुपस्थित रहना अखर सकता है। मगर गृहमंत्री की घोषणा के बाद मामला सिर्फ ईंट-पत्थरों से बनी इमारत के उद्घाटन का नहीं रह जाता। सेंगोल ने उसे प्रतीकात्मक सत्ता-अंतरण का ‘पर्वकाल’ बना दिया है।

बताया गया है कि मद्रास के उसी मठ के प्रतिनिधि पूरे धार्मिक कर्मकांडों के साथ सेंगोल को प्रधानमंत्री के हाथों में सौंपने वाले हैं; और वर्तमान प्रधानमंत्री 75 वर्ष बाद उस घटना की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति का हिस्सा बनने को लालायित हैं। सेंगोल के माध्यम से उनकी दूसरी इच्छा दक्षिण में पार्टी की पैठ बनाना भी है। हालांकि इसमें उन्हें सफलता मिलेगी, इसकी संभावना कम ही है। इसलिए कि सेंगोल का मुद्दा दक्षिण में जिन लोगों को प्रभावित करेगा, वे पहले से ही दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थन करते आए हैं। वहां उनकी इतनी बड़ी संख्या नहीं है कि धुर दक्षिणपंथ की राजनीति को बढ़ावा दे सकें। यह भी हो सकता है कि सेंगोल का मुद्दा दक्षिण में विरोधी शक्तियों को एकजुट करने का काम करे। 

क्या ‘राजदंड’ संसद की गरिमा बढ़ाएगा

राजदंड सामंतवाद का प्रतीक है। लोकतंत्र में राज्य जनता की मर्जी से चलता है। संसद में लिए गए सभी निर्णय जनता की इच्छा की ही अभिव्यक्ति करते हैं। ऐसे में अध्यक्ष के पास सेंगोल को रखना क्या लोकतंत्र की भावना के अनुरूप होगा? संसद में अध्यक्ष का काम उसकी कार्रवाही को व्यवस्थित रखना है। उसके अलावा उसके हाथों में कोई अधिकार नहीं होता। उनके आसन के पास ‘राजदंड’ का रखा जाना लोकतंत्र की भावना के एकदम विपरीत और संविधान विरोधी आचरण है। भारत में पहले ही मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है। संसद भवन में कथित राजदंड की उपस्थिति क्या राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के लिए अवमाननाकारी नहीं होगी!

वैसे भी जिस दिशा में वर्तमान सरकार जा रही है, उससे किसी समझदार फैसले की उम्मीद नहीं की जा सकती। बीते फरवरी में ‘विज्ञान प्रसार’ जैसी दशकों से चली आ रही पत्रिका को अकस्मात बंद कर दिया गया। कुछ अर्सा पहले डार्विन को स्कूली शिक्षा से बाहर का रास्ता दिखाया गया। साफ है कि सरकार धर्म और संस्कृति के नाम पोंगापंथ को मजबूत करना चाहती है। असली चुनौती यही है। इसलिए यदि विपक्ष को राजनीति ही करनी है तो बजाय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की बहस में उलझने के उसे लोकतंत्र और उसकी गरिमा को बचाने के लिए संघर्ष करना चाहिए। यदि विपक्ष दिशाहीन है तो इस देश के बुद्धिजीवियों और जागरूक लोगों को आगे आना चाहिए। उद्घाटन किसके हाथों हो, इस आशय का वाद देश की उच्चतम अदालत में पहुंच चुका है। लेकिन इसमें अदालत कुछ हस्तक्षेप कर सकती है, इसकी कम संभावना ही है। हां, राजन्य के प्रतीक को लोकतंत्र में ‘राजदंड’ के रूप में स्थापित करना गंभीर मसला है। सरकार मनमानी पर उतारू हो तो उसपर देश की उच्चतम अदालत का पक्ष जानने की कार्यवाही अवश्य की जानी चाहिए। 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

राजदंड से राजशाही अनुभूति पाने का अनैतिक लोभ

संघी खेमा जो भी करता है, उसे महान साबित करने वाली कहानियों को विश्वसनीय बना कर लोगों तक पहुंचाने में कभी कोई कमी नहीं करता। अब भी यही किया जा रहा है। जबकि लोग सवाल कर रहे हैं कि संसद भवन के उद्घाटन में भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख द्रौपदी मुर्मू क्यों आमंत्रित नहीं हैं। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी May 26, 2023

(भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।)

यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जब भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र बन चुका है, जहां दंड की एकमात्र पद्धति संविधान के आधार पर तय होती है, ऐसे में धर्मदंड और राजदंड जैसे शब्दों की आवश्यकता ही क्या है। क्या किसी विशेष प्रकल्प के तहत भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ के स्थान पर इस कथित राजदंड ‘सेंगोल’ को प्रस्थापित किया जा रहा है? आखिर यह राजदंड क्या है? इसकी प्राचीनता और प्रामाणिकता क्या है? यह किस राजतंत्र की पुरा संपत्तियों में पाया गया? मीडिया में जिस तरह से इसे चोल साम्राज्य से शुरू करके मौर्य शासन तक ले जा रहे हैं, वह भी बेहद हास्यास्पद है। लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि असली ‘सेंगोल’ या उसका मूल कहां संरक्षित है? क्या यह किसी जगह की खुदाई से मिला है या ऐसी परंपराओं का कहीं ज़िक्र मिलता है, जहां पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस प्रकार का ‘सेंगोल’ सत्ता हस्तांतरण के समय एक-दूसरे को सौंपा जाता था?


‘सेंगोल’ स्थापना की जिस तरह भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की और उसके बाद से मीडिया और आईटी सेल ने अपना काम शुरू किया तथा लगभग यह विमर्श खड़ा कर दिया है कि यह ‘सेंगोल’ भारत की पहचान रहा है प्राचीन उज्ज्वल अतीत का यह स्वर्णिम पृष्ठ है, जो कहीं कोने में दबा हुआ था या इतिहास के इस गौरवशाली प्रतीक को जानबूझकर छिपा लिया गया, या उपेक्षित रखा गया है। अब कहा यह जा रहा है कि इसे नरेंद्र मोदी खोजकर लाए हैं और नई संसद में स्थापित करके देश की महानसेवा कर रहे हैं।

संघी खेमा जो भी करता है, उसे महान साबित करने वाली कहानियों को विश्वसनीय बना कर लोगों तक पहुंचाने में कभी कोई कमी नहीं करता। अब भी यही किया जा रहा है। जबकि लोग सवाल कर रहे हैं कि संसद भवन के उद्घाटन में भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख द्रौपदी मुर्मू क्यों आमंत्रित नहीं हैं, उनके हाथों यह लोकार्पण क्यों नहीं हो रहा है। विपक्ष के 19 दल इस बात को उठाते हुए संसद भवन के उद्घाटन कार्यक्रम में नहीं जा रहे हैं। इन सवालों का जवाब देने के बजाय ‘सेंगोल’ राग छेड़ दिया गया है, यह देश की जनता का ध्यान भटकाने के अलावा कुछ भी नहीं है।

सेंगोल, जिसे आनंद भवन, प्रयागराज से हटाकर नए संसद भवन में स्थापित किया जाना है

यह बहस तेजी पकड़ रही है कि कथित ‘सेंगोल’ की ऐतिहासिकता और जरुरत क्या है? क्या लोकतंत्र में संस्कृति के नाम पर ऐसी मूर्खताओं को बर्दाश्त किया जा सकता है? चूंकि किसी मठ के पुजारी ने दिल्ली आ कर यह सेंगोल (राजदंड) जवाहरलाल नेहरू को सौंपा, इसलिए वह वैधानिक नहीं हो जाता है। हमें यह भी सोचना होगा कि उस समय संविधान नहीं बना था, छोटी-छोटी रियासतों में राजा राज करते थे। क्या उन तमाम चीज़ों को फिर से दोहराए जाने की ज़रूरत महसूस होती है?

सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी वर्तमान के राजा हैं? संसद भवन उनका राजमहल है और जनता प्रजा है? आख़िर क्यों एक लोकतांत्रिक देश को ग़ुलाम भारत के राजतांत्रिक प्रतीकों की पुनर्स्थापना करनी चाहिए? ‘सेंगोल’ का जिस तरह महिमामंडन किया जा रहा है, उससे ऐसा लग रहा जैसे मोदी सरकार कोहिनूर भारत वापस ले आई हो, यह ‘सेंगोल’ न तो ऐतिहासिक है और न ही संपूर्ण भारत के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है। 

तर्क दिया जा रहा है कि दक्षिण के चोल साम्राज्य में ऐसा राजदंड अपने उत्तराधिकारी को सौंपने का प्रचलन था, इसके पक्ष में कोई अकाट्य प्रमाण नहीं दिए गए है। बस सुनी-सुनाई बातें और वही काल्पनिक पौराणिक किस्सेबाजी ही काम में ली जा रही है। हो सकता हो कि सभी राजतंत्रों में यह प्रथा रही हो, कहीं दंड तो कहीं तलवार सौंपते रहे हों, धातु सौंपने के अलावा कुछ था भी नहीं कि ज्ञान-विज्ञान का कोई भंडार सौंपते या कला-साहित्य-संस्कृति का कोई ख़ज़ाना देते। ऐसा कुछ जब था ही नहीं तो बस यह राजदंड सौंपकर ही परंपरा का निर्वहन किया जाता था, ताकि राजा को दंडाधिकारी होने का गर्व प्राप्त हो सके।

अब सवाल यह भी है कि मोदी किससे उत्तराधिकार ले रहे हैं? क्या संसद भवन का यह उद्घाटन भारत की नई आज़ादी है, जिसके लिए इलाहाबाद के म्यूज़ियम से इस ‘सेंगोल’ को खोजना पड़ा? वैसे भी यह कोई प्राचीन वस्तु नहीं है कि चोल वंश के राजाओं का असली पुश्तैनी राजदंड नेहरू को मिला हो। यह बाज़ार से बनवाकर मंगवाया गया था। नेहरू ने उसे महत्व नहीं दिया और संग्रहालय में रखने की वस्तु मानकर एक तरफ़ रखवा दिया।

खैर, अतीतजीविता से ग्रस्त और नेहरू की नक़ल में व्यस्त वर्तमान शासकों को राजशाही वाली अनुभूति चाहिए और इसलिए राजदंड का दिखावा किया जा रहा है। फिर यह सवाल तो है कि क्या यह किसी अंधविश्वास से जुड़ी बात है या सत्ता की हनक है, अथवा चमकीली धातुओं के प्रति मोह या निपट जड़ता? क्या कहा जाए इसे?

 (संपादन : राजन/नवल/अनिल)

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