सोमवार, 14 जुलाई 2014

मंथन

भारतीय जनता पार्टी और डॉ. उदित राज

-ईश्वरी प्रसाद

उदित राज ने एलान किया है कि दलित समुदायों के लिए समय आ गया है कि वे भारतीय जनता पार्टी में शरीक होकर अपनी मौलिक स्थिति और मानवीय गरिमा को हासिल करें। यह एक सनसनी खेज घोषणा है। प्रचलित धारणा है कि भाजपा का संवैधानिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसका लक्ष्य भारत में रूढ़िवादी-ब्राह्मणवादी प्रतिक्रियावादी राष्ट्रीय व्यवस्था को स्थापित करना है। यह दलित राजनीति के लक्ष्यों के विपरीत है जो श्रम की श्रेष्ठता को स्थापित कर देश के सारी आजादी को सम्मान नागरिकता का दर्जा दिलाना चाहता हैं। इसलिए उदित राज के बयान को देश के ऐतिहासिक अनुभव की पृष्ठिभूमि में मूल्याँकन किया जाना चाहिए। दलितों के संदर्भ में देश को बहुत सारे कड़वे अनुभव हैं पहला, इस देश में दलितों को हजारों वर्षों से उपेक्षित और वंचित रखा गया है।

लेकिन जातिप्रथा आधारित जो घोषणा व्यवस्था कायम की गयी, वह अद्वितीय, स्थायी और कठोरतम है। आज तक इस व्यवस्था को तोड़ने की कोई निर्णायक क्रांति नहीं हुई। इसके खिलाफ होने वाले विद्रोहों को अपने में पचा लेने की भारत की जाति प्रथा में असीम क्षमता हैं। दूसरा, महात्मा ज्योतिबा फूले से चलता आ रहा दलित संघर्ष बाबासाहेब अम्बेदकर और कांशीराम से होता हुआ मायावती तक पहुँचा है। अम्बेदकर का दलित विद्रोह और कांशीराम का बहुजन आज ब्राह्मणवादियों के भरोसे मायावती का दलित हुजूम आगे बढ़ रहा है। दलितों की स्वतंत्र ताकत को मायावती ने समाप्त कर दिया है। 
तीसरा, भाजपा की सरकार ने भी दलितों के लिए कुछ नहीं किया। वाजपेयी ने बैंकटैया कमीशन (2002) और भूरिया कमीशन (2004) में गठित किया था। लेकिन इसके सिफारिशों पर कभी अमल नहीं हुआ। भाजपा जब सŸाा में आती है तो शहरों का विकास और परम्परागत समाज पर जोर दिया जाता है। इस तथ्यों के बावजूद भी उदित राज ने बीजेपी में भरोसा जताया है, इसका मुख्य वजह ऐसा लगता है कि ब्राह्मणवादी कारण होना तथा नरेन्द्र मोदी में नये राष्ट्र के निर्माण की संभावना मालूम पड़ रही है। जरूरत है उनके इस घोषणा पर गहराई से विचार हो।
 उदित राज को शुरु से ही कुछ जाति समूहों के सामाजिक जीवन के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने की तमन्ना रही है। इसीलिए उन्होंने सरकारी नौकरी के ऊँचे ओहदे को छोड़कर 2003 में एक ‘इंडियन जस्टिस पार्टी’ की स्थापना की। उन्होंने महसूस किया कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त किए बिना देश गौरवशाली नहीं हो सकता। यहाँ के मनीषियों ने ऐसा समाजिक ढाँचा की स्थापना की जिसकी कई विशेषताएं हैं। शारीरिक श्रम की अवहेलना, समाज के क्रिश्चियन मानवीय समूहों को खास व्यवसाय से बाँधना और हर व्यक्ति के सामाजिक स्थान को उसके जन्म से निर्धारित करना। भारत के पारम्परिक जीवन में सड़ रही चीजें बदल सकती है लेकिन उसका ओहदा और व्यवसाय नहीं। दुनिया मे ंअन्याय के अनेक तरीकों का उदाहरण हैं लेकिन भारत के मनीषियों ने जिस सामाजिक व्यवस्था का अनुसंधान किया, वह चिर स्थायी और अ़िद्वतीय है। उदित राज का संकल्प है कि श्रम की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया जाय और यहाँ की पूरी आबादी को लोकतंत्र के तहत समान नागरिकता का दर्जा दिलाया जाय। उनके लक्ष्यों को किसी के भाषा में यों रख सकते हैं-
हम मेहनतकश जग वालों से अब अपना हिस्सा माँगेेगे!!
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेगे!!
ऐसे विचार वाले उदित राज के वर्तमान राजनीतिक विचार को इसी परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाना चाहिए। कहाँ तक उनका विचार-दलितों को बीजेपी में शामिल कराने में सफल होगा, इस पर चर्चा होनी चाहिए। उदितराज एक देशभक्त है। इनकी देशभक्ति सुधारवादी, मानवतावादी और मेहनतकशवादी है।
 लोकसभा के चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्रमोदी ने अपने राजनीतिक चरित्र का जो प्रदर्शन किया, उससे दलितों और पिछड़ों को एक नये भारत की उम्मीद बनी है। पिछले 70 वर्षों से चलता आ रहा भारत नीचली जातियों के लिए एक झूठा सपना के सिवा कुछ नहीं था। दबे लोगों को एक नया भारत के निर्माण की सम्भावना मोदी के भाषणों में महसूस हुआ है। भारत के विकास के मानचित्र में किसानों द्वारा आत्महत्या, भष्टाचार का अन्तहीन स्वरूप आर्थिक गैरबराबरी का बढ़ता दायरा और काले धन का 5 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 50 प्रतिशत होना गरीबों और नीचली जातियों के लिए शोषण का औजार बना हैं। मोदी के भाषणों ने दो स्तरों पर दलितों और पिछड़ों को अपनी और आकर्षित किया। पहला,, मोदी स्वयं ही मेहनतकश परिवार से आते हैं। चाय बेचकर जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति दलितों के जीवन से एकाकार हो सकता है। काँग्रेस वालों ने चाय बेचने वाले की यह कहकर खिल्ली उड़ाई कि निचली जाति से आया व्यक्ति प्रधानमंत्री की गद्दी कैसे सम्भाल सकता है। कुछ नेताओं ने उसे नीच कहकर भी संबोधित किया।
 दूसरा, मोदी ने अपने भाषणों में कहा कि आने वाला दशक दलितों और पिछड़ों के लिए सम्भावनाओं से भरा बना होगा। यद्यपि भाजपा के घोषणा पत्र में इस आशय पर कोई जोर नहीं था। दलितों को लगा कि यदि यह प्रधानमंत्री हुआ तो यह भाजपा से हटकर उनके लिए काम करेगा। इसीलिए नारा बुलंद किया ‘अबकी बार, मोदी सरकार’। कुछ भाजपा के नेताओं ने मोदी की लहर को भाजपा लहर बताया, ये गलत था। लोगों में मोदी के प्रति आस्था बनी रही। नतीजतन 272 के लक्ष्य के जगह पार्टी को 282 का आँकड़ा हासिल हुआ। 
 भारत का संविधान निकम्मा साबित हुआ है। संविधान ने अछूतप्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। इसके पालन के लिए कानून भी बनाए गए हैं। लेकिन यह प्रथा 70 वर्ष के बाद आज भी चल रही है। हर्ष मान्दर ने एक लेख में लिखा है -‘दस राज्यों में ग्रामीण इलाके के ये अछूत प्रथा के अध्ययन के दौरान हमलोगों ने पाया कि आज भी तीन में से एक और कहीं-कहीं तो दो में से एक स्कूल में दलित बच्चों को क्लास में पीछे अलग बैठाने के लिए तथा दूसरी पंक्ति में अलग थाली में खाना खाने के लिए बाध्य किया जाता है। कुछ शिक्षक इन बच्चों से फर्श और शौचालय भी साफ कराते हैं जो ऊँची जाति के बच्चों से नहीं कराये जाता। ’अछूत प्रथा का प्रचलन का आलम यह है कि महाराष्ट्र के शारदा गाँव के 17 वर्ष के दलित बालक की हत्या इसीलिए हुई कि वह ऊँची जाति की एक लड़की से बात करने की हिम्मत की थी। यह संविधान की कमजोरी थी कि उसने अछूतपन को तो गैर कानूनी किया लेकिन जातिप्रथा को अक्षूण्ण रखा, उसे गैर कानूनी घोषित नहीं किया। यह एक धोखा था कि संविधान व्यक्ति और राष्ट्र से सीधा सम्बंध मानता है लेकिन इन दोनों के बीच के जाति प्रथा के चरित्र को छोड़ दिया। इसी के साथ न्याय व्यवस्था के खोखलापन का खुलासा पटना हाईकोर्ट के 16 अप्रैल 2012 के फैसला से होता है। बिहार के जहानाबाद के बयानी टोला मे ं23 दलितों की नृशंश हत्या हुई थी। यह सवर्ण जाति के रणवीर सेना द्वारा हुआ था। इसमें 11 महिलाएँ, 6 बच्चे और 4 जवान मारे गए थे। पटना हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को निर्दोष करार देकर रिहा कर दिया।
 आजाद भारत के कर्ताधर्ता ने भारत के नवनिर्माण की योजना बनायी। इस योजना का नाम समाजवादी रखा गया और लक्ष्य गरीबी दूर कर देश की सारी आबादी को नागरिक बनाना था। इसके लिए प्रचलित सेक्टर को विकास का अग्रदूत बनाया गया और उद्योगों की तरक्की के मारफत देश को पश्चिम के देशांे की तरह जातिविहीन और दरिद्रविहीन करने का सपना संजोया गया। उद्योगपतियों को सभी तरह की सुविधा मिली और कारखाने के मजदूरों को खाद्य पदार्थ की लगातार पूर्ति के लिए हरित क्रांति देश के एक हिस्से में किया गया। इस पार्टी की शासन व्यवस्था ने योजना आधारित विकास का तिरस्कार कर बाजार आधारित आर्थिक विकास को आगे बढाया। सब मिलाकर यह पूरा प्रयास पूँजीवाद को बढ़ाने वाला साबित हुआ है। साथ ही काँग्रेसी सरकार ने आर्थिक नवनिर्माण की सारी प्रक्रिया एक वर्गीय समाज के ढाँचें केा ध्यान में रख कर किया। यह सरासर गलत था। एक बड़ा अर्थशास्त्री प्रो. अशोक रूद्रा ने एक लम्बा लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि भारत का सामाजिक धरातल जाति व्यवस्था से बना है और इसकी समाप्ति के अभी कोई आसार नहीं हैं। उन्होंने लिखा है कि यदि यूरोप के इतिहास को जाति व्यवस्था के नजरिये से व्याख्या करें तो यह हास्यास्पद होगा। ठीक उसी तरह भारतीय व्यवस्था को वर्गीय फ्रेमवर्क में समझना गलत होगा। जाति प्रथा और सामन्तवादी प्रथा एक नहीं है। 
 पहला भारत में और दूसरा यूरोप में पाया जाता है। भारत के कर्णधारों ने इस देश के नवनिर्माण का रास्ता वर्गीय समाज के फ्रेम में पूँजीवादी व्यवस्था के मारफत ढूंढना चाहा जो गलत था। जातीय साम्राज्य के उपेक्षित समूहों को समान नागरिक बनाने के लिए निम्न प्रकार की संस्था और नीति की जरूरत होती है। सवर्ण जातियों की सŸाा पर एकाधिकार ने यह नहीं होने दिया। डॉ. अम्बेदकर जाति प्रथा को समाप्त करना चाहते थे, कांशी राम ने दलितों की पहचान और गरिमा के लिए जाति प्रथा की मजबूती पर जोर दिया था। विकास योजना का दलित विरोध होना लाजिमी है।
 दलितों द्वारा समान नागरिक का दर्जा हासिल करने के भारत की समसामयिक परिस्थिति में दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत हैं। पहला, दलितों का कोई ऐसा राजनीतिक संगठन जो इसके सदस्यों को एक सूत्र में बाँधकर अपनी खोयी हुई मानवीय गरिमा और नागरिक अधिकार के लिए निर्णायक संघर्ष के लिए एक जूट हो, ऐसा अभी सामने नहीं है। स्वार्थी दलित नेता यह नहीं कर सकते हैं। दूसरा, आज देश की पूरी राजनीति सिद्धांत विहीन है। इतिहास का अन्त तो नहीं हुआ है लेकिन भारत के तथाकथित प्रगतिशील लोग वर्गीय आंदोलन के मारफत दलितों के लिए समान नागरिकता का दर्जा नहीं दिला सकते हैं। इन परिस्थितियों में उदित राज का यह सूझाव कि दलितों को भाजपा में शामिल होना चाहिए, सकारात्मक सोच मालूम पड़ता है। पिछले 70 वर्षों के दौरान किसी पार्टी ने सामाजिक समता के लिए उपयुक्त योजना का पालन नहीं किया। शुरूआती दौर में काँग्रेस ने समाजवाद के नाम पर दलितों और पिछड़ों को धोखा दिया। बाद के दिनों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को गरीबों के खिलाफ किया है। समान नागरिक का स्तर दिलाने के लिए दलितों को न केवल बराबर का वोटिंग अधिकार चाहिए बल्कि आर्थिक और सामाजिक बराबरी भी चाहिए। काँग्रेस और भाजपा दो ही राष्ट्रीय पार्टियाँ है, इसीलिए भाजपा पर खास कर मोदी जैसे नेता के नेतृत्व में दलितों के पक्ष में भरोसा करना उपयुक्त है। उदितराज की यह राजनीतिक समसामयिक संदर्भ में ठीक है, अब निर्भर करता है कि मोदी किस हद तक अपने वादे को सफल बनाने में भाजपा को अपनी ओर राजी करते हैं। इस पर तुरत कोई प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं।
21 वीं शताब्दी दलितों के लिए अधिक नाजूक होने वाला है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, भारत की योजना है कि वह विश्व व्यवस्था में उŸारोŸार शरीक होता जाए। ऐसा करने से देश के विकास का ध्यान दलितों और गरीबों से हटकर बाहरी सम्पर्क में लगेगा। दूसरा, चारों ओर से जोर पड़ रहा है कि भारत जोरों से औद्योगिक विकास करे और दूसरे देशों की पूँजी का स्वागत करें। इसका मतलब है कि भारत पूँजीवादी व्यवस्था को सुदृढ करे। ऐसे में दलितों के पूर्णनिर्माण के लिए जिन संस्थाओं और नीतियों की जरूरत होगी, उसकी अनदेखी होगी। सामान्यतः यह माना जाता है कि आर्थिक विकास से लोकतंत्र मजबूत होता है। लेकिन अनुभव बतलाता है कि दोनों का सहयोग हर परिस्थिति में सामाजिक न्याय लाने में एकसाथ काम नहीं करता है। थोमस पीकेटी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘सौवीं शदीं में पूँजी’ में लिखा है कि ‘सही लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की अपनी-अपनी अलग संस्थाओं की जरूरत होती है। न तो बाजार व्यवस्था, न सिर्फ संसद और न ही दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाएं’ सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकती है। 
 अभी तक जितने सलाह नयी सरकार को मिल रहे हैं, वह पूँजी बढ़ाने और उत्पादन में इसे लगाने सम्बंधी है, मजदूरों, खासकर मेहनतकश जातियों का क्या होगा, इसकी कोई चिंता नहीं है। पिछली हजारों वर्षों का इतिहास है कि जाति प्रथा को नष्ट करने का कोई निर्णायक संघर्ष नहीं हुआ। आजाद भारत का अनुभव है कि दलित संगठन अकेले दलितों और पिछड़ों को समान नागरिकता का दर्जा नहीं दिला सकता है। क्योंकि इसके साथ आर्थिक गैर बराबरी को दूर करने का शर्त है। आगे आने वाले दिनों में आर्थिक गैर बराबरी बढ़ेगी और विकास का लाभ मेहनतकशों (मजदूरों) को न जाकर पूँजीधारकों को जाएगा। ऐसी परिस्थिति में यह उचित है कि दलित समूह मोदी जैसे भाजपा के नेता के साथ अपना सहयोग बढ़ाये।
 नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना भारत के इतिहास का एक नया मोड़ है। यह एक अप्रत्याशित घटना है। इसे नरेन्द्र मोदी ने अकेला सम्पन्न किया है। यद्यपि पार्टी की घोषणा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस चुनाव में मोदी ने अपने राजनीति के तहत एक लहर पैदा किया जिसको मोदी लहर कहते हैं। चुनाव का सर्वेक्षण करने वालों ने यह स्पष्ट एलान किया था कि कि लोगों का उत्साह मोदी के प्रधानमंत्री के सिवा दूसरा नहीं था। इसी परिप्रेक्ष्य में महात्मा गाँधी के पोता गोपाल कृष्ण गाँधी ने जो मोदी के विरोधी थे-मोदी को एक खुला पत्र में लिखा कि आपके लिए यह एक ऐतिहासिक विजय है जिसे देखकर दुनिया आश्चर्य चकित रह गई है। आपकी पार्टी के लोग भले न चाहे पर आपने जो प्रतिज्ञा लिया है, उसे अब पूरा करे। आपके मददगार आपके वादे को पूरा होते देखना चाहेंगे। आप संकल्प में महराणा प्रताप बने और शासन के कार्य में अकबर बने। यदि आपके लिए आवश्यक है तो आप अपने दिल में सावरकर रहे लेकिन दिमाग से अम्बेदकर रहे।’ देखना है कि मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ब्राह्मणवादी एजेंडा को आगे बढ़ाती है या दलितों, पिछड़ों और गरीबों को समान नागरिकता का हैसियत दिलाने के लिए कठोर और प्रभावी नीतियों को लागू करने में सफल होती है। अगर दलितों को समान नागरिक बनाने की दिशा मे ंउनका प्रयास रहा तो उदित राज का यह संकल्प कि दलितों को भाजपा में आना चाहिए, सही साबित होगा।

रविवार, 18 मई 2014

लोक सभा चुनाव: मायावती का दलित वोट बैंक खिसका


(के फेसबुक से साभार ) 
लोक सभा चुनाव: मायावती का दलित वोट बैंक खिसका
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं राष्ट्रिय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
हाल के लोक सभा चुनाव के परिणामों पर मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि उन की हार के पीछे मुख्य कारण गुमराह हुए ब्राह्मण,पिछड़े और मुसलमान समाज द्वारा वोट न देना है जिस के लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. इस प्रकार मायावती ने स्पष्ट तौर पर मान लिया है कि उस का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया है. मायावती ने यह भी कहा है कि उस की हार के लिए उसका यूपीए को समर्थन देना भी था. उस ने आगे यह भी कहा है कि कांग्रेस और सपा ने उस के मुस्लिम और पिछड़े वोटरों को यह कह कर गुमराह कर दिया था कि दलित वोट भाजपा की तरफ जा रहा है. परन्तु इस के साथ ही उस ने यह दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में उसकी पार्टी को कोई भी सीट न मिलने के बावजूद उस का दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं गिरा है. उस ने अपने वोट बैंक में इजाफा होने का दावा भी किया है. 
आईये उस के इस दावे की सत्यता की जांच उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर करें:- 
यदि बसपा के 2007 से लेकर अब तक चुनाव परिणामों को देखा जाये तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि पिछले 7 साल से जब से मायावती ने बहुजन की राजनीति के स्थान पर सर्वजन की राजनीति शुरू की है तब से बसपा का जनाधार बराबर घट रहा है. 2007 के असेंबली चुनाव में बसपा को 30.46%, 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.42% (-3.02%), 2012 असेंबली चुनाव में 25.90% (-1.52%) तथा 2014 के लोक सभा चुनाव में 19.60% (-6.3%)वोट मिला है. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के स्थिर रहने का दावा उपलब्ध आंकड़ों पर सही नहीं उतरता है.
मायावती का यह दावा कि उस का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक 2009 में 1.51 करोड़ से बढ़ कर 2014 में 1.60 करोड़ हो गया है भी सही नहीं है क्योंकि इस चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में बढ़े 1.61 करोड़ नए मतदाताओं में से बसपा के हिस्से में केवल 9 लाख मतदाता ही आये हैं . राष्ट्रीय चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भी बसपा का वोट बैंक 2009 के 6.17 % से 2% से अधिक गिरावट के कारण घट कर 4.1% रह गया है. सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के निदेशक संजय कुमार ने भी बसपा के कोर दलित वोट बैंक में सेंध लगने की बात कही है. 
मायावती का कुछ दलितों द्वारा गुमराह हो कर भाजपा तथा अन्य पार्टियों को वोट देने का आरोप भी बेबुनियाद है. मायावती यह अच्छी तरह से जानती हैं कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा चमारों सहित 2012 के असेंबली चुनाव में ही उस से अलग हो गया था. इस का मुख्य कारण शायद यह था कि मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुण्डों. माफियायों और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जो कि उनके वर्ग शत्रु हैं . इस से नाराज़ हो कर चमारों का एक हिस्सा और अन्य दलित उपजातियां बसपा से अलग हो गयीं. मायावती का बोली लगा कर टिकेट बेचना और दलित वोटों को भेड़ बकरियों की मानिंद किसी के भी हाथों बेच देना और इस वोट बैंक को किसी को भी हस्तांतरित कर देने की ताकत रखना दलितों को एक समय के बाद रास नहीं आया. इसी लिए पिछले असेंबली चुनाव और इस लोक सभा चुनाव में दलितों ने उसे उसकी औकात बता दी है.
किसी भी दलित विकास के एजंडे के अभाव में दलितों को मायावती की केवल कुर्सी की राजनीति भी पसंद नहीं आई है क्योंकि इस से मायावती के चार बार मुख्य मंत्री बनने के बावजूद भी दलितों की माली हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित बिहार. उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलितों को छोड़ कर विकास के सभी मापदंडों जैसे: पुरुष/महिला शिक्षा दर, पुरुष/महिला/0-6 वर्ष के बच्चों के लैंगिक अनुपात और नियमित नौकरी पेशे आदि में हिस्सेदारी सब से पिछड़े हैं. मायावती के व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण दलितों को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल सका. दूसरी तरफ बसपा पार्टी के पदाधिकारियों की दिन दुगनी और रात चौगनी खुशहाली से भी दलित नाराज़ हुए हैं जिस का इज़हार उन्होंने इस चुनाव में खुल कर किया है. यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की 40 सीटें ऐसी हैं जहाँ दलितों की आबादी 25% से भी अधिक है. 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा 17 सुरक्षित सीटों पर नंबर दो पर थी जो इस बार कम हो कर 11 रह गयी है. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के बरकरार रहने का दावा तथ्यों के विपरीत है. 
मायावती ने 2012 के असेंबली चुनाव में भी मुसलामानों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उसे वोट नहीं दिया. इस बार फिर मायावती ने इस आरोप को न केवल दोहराया है बल्कि बाद में उनके पछताने की बात भी कही है. मायावती यह भूल जाती हैं मुसलामानों को दूर करने के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार हैं. 1993 के चुनाव में मुसलामानों ने जिस उम्मीद के साथ उसे वोट दिया था मायावती ने उस के विपरीत मुख्य मंत्री बनने की चाह में 1995 में मुसलामानों की धुर विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला लिया था. इस के बाद भी उसने कुर्सी पाने के लिए दो बार भाजपा से सहारा लिया था. इतना ही नहीं 2003 में उस ने गुजरात में मुसलमानों के कत्ले आम के जिम्मेवार मोदी को कलीन चिट दी थी तथा उस के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था. इस बार भी मायवती भाजपा से हाथ नहीं मिलाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी मौकापरस्ती के बरक्स मायावती यह कैसे उम्मीद करती है कि मुसलमान उसे आँख बंद कर वोट देते रहते. मुज़फ्फर नगर के दंगे में मायावती द्वारा कोई प्रतिक्रिया न दिया जाना भी मुसलामानों को काफी नागुबार गुज़रा. 
मायावती द्वारा पिछली तथा इस बार की हार के लिए अपनी कोई भी गलती न मानना भी दलितों और मुसलामानों के लिए असहनीय है. पिछली बार उसने इस का दोष मुसलामानों को दिया था. इस बार वह इसे कांग्रेस सरकार को समर्थन देना बता रही है. अगर यह सही है तो मायावती के पास इस का क्या जवाब है कि उस ने कांग्रेस सरकार को समर्थन क्यों दिया? केवल कट्टरपंथी ताकतों को रोकने की कोशिश वाली बात भी जचती नहीं. दरअसल असली बात तो सीबीआई के शिकंजे से बचने की मजबूरी थी जो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में अभी भी बनी हुयी है. भाजपा भी मायावती की इसी मजबूरी का फायदा उठाती रही है और आगे भी उठाएगी. इस के लिए मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार जिम्मेवार है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों ने इस बार मायावती के सर्वजन वाले फार्मूले को बुरी तरह से नकार दिया है. मुसलामानों ने भी उस से किनारा कर लिया है. वर्तमान में दलितों, मुसलामानों, मजदूरों, किसानों और छोटे कारखानेदारों और दुकानदारों के लिए मोदी की कार्पोरेट प्रस्त हिंदुत्व फासीवादी राजनीति सब से बड़ा खतरा है जिस का मुकाबला मायावती और मुलायम सिंह आदि की सौदेबाज, अवसरवादी और कर्पोरेट प्रस्त राजनीति द्वारा नहीं किया जा सकता है. इस के लिए सभी वामपंथी, प्रगतिशील और अम्बेडकरवादी ताकतों को एकजुट हो कर कार्पोरेट और फासीवाद विरोध की जनवादी राजनीति को अपनाना होगा.
अन्तः में मैं चिंतक व भाषाविद नोम चोमस्की की भारत के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी को दोहराना चाहूँगा जिस में उसने 15 मई को बोस्टन में कहा था कि “भारत में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है| भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा| आर एस एस और भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में आने वाला है, ठीक इसी अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था| नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा लिया था| भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है| कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है| अब भारत के वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा|”( नोम चोमस्की उस दिन केम्ब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे| इसके पश्चात उन्होंने अलग से श्री. राम शरण जोशी से अनौपचारिक संक्षिप्त बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी).
  • Yugal Kishore Saran ShastriRam Murat और 36 और को यह पसंद है.
  • Anupam Parihar दारापुरीजी!! बिलकुल सही तथ्य हैं आपके। मायावतीजी केवल दलितोब का वोट हासिल कर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीती रहीं, उन्हें दलितों ने इस बार नकार दिया है।
  • Anupam Parihar आपकी पोस्ट शेयर कर रहा हूँ--
  • Haider Naqvi Sir one political buzz is Mayawati strategically moved her vote bank to BJP to buy some favours. Had she did openly it would have cost her the minorities, crucial for her in assembly polls.
  • S.r. Darapuri मायावती २००३ में गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार करने गयी थीं और उस ने मोदी को 2000 मुसलामानों के कत्ले आम के आरोप में क्लीन चिट दी थी.

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

इनको कैसे समझाएं ?

इनको कैसे समझाएं ?

बात यहीं ख़खतम नहीं हो रही है इनकी दूरियां बढ़ें या घटें वो तो एक बात है, आने वाली पीढि़यां इनके इन दुष्कर्मों से ज्यादा खतरनाक होती जा रही हैं, उन्हें तो आर एस एस के खतरनाक ‘हिंदुत्व’ कि चाट/चास लगी है. उमा भारतियां, कल्याण और मोदी इनके उदाहरण हैं ये क्या आपके उस समीकरण से अलग हैं. मोदी का तांडव क्या दलित की रासलीला है, नहीं मदारी के इशारे पर ‘नाचने’ का ‘राजा का खेल’ देखते चलिए जिधर इशारा है वहाँ से कुछ नहीं बदलना है, वहाँ तो संतों कि जमात जमकर बैठी है, कोई सर्वजन सुखाय और कोई सवर्ण सुखाय में लगा है, राम और लखन (दलितों के संतों) कि संगत/पंगत में चले गए हैं. कैसा आंदोलन और किसकी चिंता। सोचिये और डरिए जाटव साहब की डांट झेलिये वो अपने पद और कद से उतरने को तैयार नहीं है.और ये पूजा पाठ से नहीं उबरेंगी । पिछड़े अब अगड़े हो गए हैं, कांग्रेस जाटों को पिछड़ा बना दी है, कुर्मी कोयरी नाउ लोहार कोहार  कुम्हार गुजर मलल पाल  मल्लाह को मोदी रास आ रहे हैं। 

सामाजिक बदलाव का सपरिवार लोक सभा में पहुंचना ही रह गया हैए क्या अब वो जगह केवल आरामगाह होकर रह गयी है । धन्य है हमारे राजनेता जिनकी राय सुमारी पर यादव जी इटली मज़बूत करने में लगे हैं और अन्य पिछड़ों के मोदी को रोकने में लगे हैं. देखते हैं क्या क्या होता है !
समय न किसी को माफ़ किया है और न ही करेगा यदि ऐसा न होता तो मुग़ल और अंग्रेज कि औलादें ही इस मुल्क पर राज कर रही होतीं, लालू मुलायम और मायावती मोदी को यह मौक़ा ही न मिलता। मगर अफ़सोस यही होता है कि अवं ने इन्हे द्विजों से राज्य छीनकर इन्हे दिया और ये थाल में उन्हें ही परोस रहे है। 

रविवार, 8 दिसंबर 2013

दूसरों (पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों के अलावा) के इशारों पर ये थिरकते रहे तो !


बदलाव-2014

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विकल्प हीनता के कारण सपा और बसपा के समर्थक भी उससे किनारा कर लेंगें यदि ये दूसरों (पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों के अलावा) के इशारों पर ये थिरकते रहे तो !
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रेखाचित्र ; डॉ लाल रत्नाकर 

सभी दलों से दलित पिछड़े खींचे चले आयेंगे जो नहीं आये तो जनता उन्हें धकेल कर किनारे कर देगी .
बदलाव के प्रासेस में स्वाभाविक है मेरी बात नेताओं को भी ठीक न लगे पर है ये जरूरी, इसे आम आदमी से लेकर सारे बुद्धिजीवी पसंद करेंगे. क्या दिक्कत है ये नेता सत्ता क्यों नहीं चाहते. क्यों ये सत्ता में बैठे चोरों और अपराधियों के शिकंजे में ये जकडे रहना ही पसंद करते हैं, इस मकड जाल को तोड़कर
आओ गले लग जाओ 'राजनीती में कोई अछूत और दुश्मन नहीं होता' तो आप भी अपना हठ छोडो और "गाँठ" जोड़ो, बनाओ गठबंधन और पुरे देश में अपनी सत्ता फैलाओ, पुरे देश के बुद्धिजीवी आपका इंतज़ार कर रहे हैं पुरे देश की अवाम आपको दिल्ली का ताज -2014 में सौपना चाहती है.
कब तक हम महापुरुषों का नाम लेकर भाग्य की माला जपते रहेंगे उन्होंने उस समय के समाज को चुनौती दी थी तभी वो आगे बढे, अब की तरह नहीं की बगैर संघर्ष के नहीं मिलने वाला कुछ। कांशीराम ने इस सदी में ही अपने संघर्षों से सत्ता प्राप्त करने का मंत्र दिया, पर मायावती को गलत फहमी हो गयी की उन्हें यह सत्ता 'ब्राह्मणों ने दी' यही गलती 'नेताजी को है की उन्हें सत्ता सवर्णों ने दी है। 
सामाजिक बदलाव के इस स्वरुप से ही असली बदलाव होगा, किसी को देश से निकालने की जरूरत नहीं है सबको 'इमानदारी और जिम्मेदारी से काम करने की व्यवस्था दलित और पिछड़े ही दे सकते है.' सदियों से शोषक जातियां अपने समुदाय के हित के लिए 'राष्ट्र' हित को नकारकर समुदाय हित के चलते 'बहुसंख्य' आबादी को तमाम सुबिधाओं से बंचित रखती हैं।
एकतरफ देश में बेरोजगारी आसमान छू रही है दूसरी तरफ ये अपनी चौधराहट में बिदेशी कंपनियों को खुली छुट देकर देश को कंगाल और रोजगार बिहीन बनाकर 'मंनरेगा' और न जाने कितने तरह के 'भिक्षा अभियान' को बढ़ावा रहे हैं। 
यदि इनके पास योजना नहीं है तो इन्हें राज करने का कोई अधिकार ही नहीं है, ये केवल पूंजीपतियों के लिए योजना तैयार करते हैं और तमाम आवादी को मजदूर बनाकर रखते हैं।
अतः अब योजना ऐसी बनानी चाहिए जिसमें जनोपयोगी रोजगार को बढ़ावा मिले असमान पूंजी की भण्डारण व्यवस्था पर रोक लगे, प्रतिस्पर्धा का साफ़ सुथरा मानक लागू हो .
आइये इन्हें लागू कराने के लिए एकजूट हों 
और नेत्रित्व को तैयार करें .
अन्यथा पिछड़ों दलितों और अल्पसंखयकों का, 
नहीं तो केजरीवाल जैसे लोग आयेंगे और अवाम को भरमाएंगे, उदितराज, योगेन्द्र यादव जैसे चिंतकों को क्या आपको जरूरत नहीं है, यदि ऐसा है तो कांग्रेस कि मातम पुर्शी में लगे रहो और "नरेंद्र मोदी" गरजते गरियाते आयेंगे और ये भाजपा वाले सदियों सदियों की सामजिक परिवर्तन कि लड़ाई को अपने लिए इस्तेमाल करेंगे।
-डॉ लाल रत्नाकर 

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

समाजवाद के ये चहरे !

समाजवाद के ये चहरे ! डॉ.लाल रत्नाकर 

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अमर सिंह और नरेश अग्रवाल में क्या फर्क है !

समाजवादी पार्टी को बर्बाद करने में इन दोनों के बयान बहुत ही महत्वपूर्ण हैं ! आपको याद होगा जबतक अमर सिंह सपा में थे इसी तरह बडबोलापना करते करते कांग्रेस के 'दलाल' के रूप में काम करते रहे जो जग जाहिर है, उसकी उन्हें उनकी कीमत मिलाती थी जिसमें इजाफा भले ही हुआ पर उन दिनों माननीय नेताजी का गंभीर और महत्त्व पूर्ण कद बौना होने लगा था. जिसे किसी तरह रोका गया पर अब ये नए विचारवान श्री नरेश अग्रवाल कहाँ से अवतरित हो गए हैं.आश्चर्य होता है की इन दलालों को समाजवाद से क्या लेना देना ! क्या भाजपा से वास्तव में कोई इनकी बड़ी डील है जो ये अपने मुह से उस बात को जिसे भाजपा चाहती है, चाय बेचने वाले को प्रधानमंत्री न बनाने की (बनने) बात कर रहे हैं यह स्टेटमेंट देखें ; दैनिक भास्कर से साभार -

''चाय बेचने वाला नहीं बन सकता पीएम''

समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल ने नरेंद्र मोदी के साथ ही देश के चाय बेचने वालों और देश-समाज की जी जान से सुरक्षा कर रहे सिपाहियों पर कटाक्ष किया है। उन्होंने बुधवार को कहा कि ऐसा व्यक्ति जो चाय बेचता रहा हो उसका राष्ट्रीय दृष्टिकोण नहीं हो सकता। वह देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता।
हरदोई से आने वाले असरदार नेता नरेश ने कहा, ‘नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। चाय की दुकान से ऊपर उठने वाले का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य नहीं हो सकता। जैसे अगर आप सिपाही को पुलिस कप्तान बना दें तो उसका कभी नजरिया नहीं बड़ा हो सकता। उसकी सोच सिपाही की ही रहेगी।’ एक सभा में अग्रवाल ने कहा, ‘देश का प्रधानमंत्री राष्ट्रीय व्यक्तित्व वाला समर्थ व्यक्ति होना चाहिए। जहां तक भीड़ का सवाल है वह तो मदारी भी जमा कर लेता है।‘
मोदी अपनी चुनावी सभाओं में गांधी-नेहरू परिवार पर यह कहते हुए निशाना साधते रहे हैं, 'उन्होंने गरीबी नहीं देखी, लेकिन मैंने इसे झेला है। मैं गरीबों का दर्द जानता हूं।' पटना में 27 अक्टूबर को हुई हुंकार रैली में मोदी ने कहा, 'मैं एक गरीब परिवार में पैदा हुआ था। मैं गरीबी में पला बढ़ा हूं। मैंने रेलवे स्टेशनों और ट्रेन में चाय बेची है। जो लोग ट्रेन में चाय बेचते हैं वे रेलमंत्री से ज्यादा रेलवे को जानते हैं।' मोदी के बारे में कहा जाता है कि जब वे महज 6 साल के थे, तभी अपने पिता की मदद वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में करते थे। 
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सपा को कोई तो तो बचाए न जाने कहाँ से इन बुद्धि बांकुरों को उठाकर सपा में ला दिया गया है, यदि इनसे कोई पूछे की यदि चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री के योग्य नहीं तो "सपा में गाय भैंस चराने वाले" ज्यादा हैं उन्हें तो मुख्यमंत्री भी बनने बनाने के वे हिमायती नहीं होंगे. यह प्रदेश क्या श्री नरेश अग्रवाल की जागीर है !
एक थे अमर सिंह ! दुसरे हैं माननीय नरेश अग्रवाल, नरेश जी हम जिस इलाके से आते हैं हैं वहां एक कहावत है की ' क्या बनिया की छेड़ मरकही' बात ये है की नरेश जी जिस बिरादरी से आते हैं माना जाता है की उनसे तो कोई भी 'दुह' दुहना का मतलब निकालने से है यानी बनिए से तो कोई भी कितना भी निकाल सकता है यानी ऐसा सरल ऐसी बकरी के माफिक होता है, जिसे कहीं भी कोई भी दुह ले, लेकिन इनका रोज़ का बेहूदा बयांन सपा की नीतियों के खिलाफ नहीं जा रहा है क्या ? क्या ये जानते हैं गरीब गुरबे और संघर्षशील जातियां समाजवादी पार्टी में भरोषा रखती हैं विशेषकर दलित और पिछड़े या मुस्लिम पर ये तो पतंग बाज़ी करते होंगे वहां बैठकर की 'सवर्णों' और बनियों ने सरकार बनाई है, (मैंने सूना और देखा है ऐसे तिकडम्बाज़ नेताओं को जो इसी तरह की जुगाली करते नहीं थकते)  इनको पता नहीं समाजवादी और पूंजीवादी में क्या फर्क है ' .
माँ.नरेश अग्रवाल आप 'पूंजीवाद' व्यवस्था के समर्थक सम्प्रदाय के उत्पाद हो मोदी 'मज़दूर' श्रेणी से है आप समाजवादियों के खेमें में हो ! मोदी पुजिवादियों के ! आपकी तुलना मोदी से करना 'बे - मानी' है !(आप गलत फहमी न पालें) पर यह गणित आपको नहीं आती होगी आपको दौलत बनाने का गुना भाग जरूर आता होगा. 
गणित यह है की आपकी वजह (बेहुदे बयानों) से ही गरीब गुरबे सपा से "दूर' होते जायेंगे और आपके भाई बंद तो पहले से ही सपा को गालियाँ देते नहीं थकते, अतः आप सपा के जड़ में गरम गरम मट्ठा डाल रहे हो *****जबकि मोदी भाजपा को (जहाँ आपके सारे बड़े बड़े एवं खाने पीने के (मिलावटी), दवा, दारु, तेल (खाने पिने और पेट्रोल, डीजल, केरोसीन, सुगन्धित और बदबूदार), फल, सब्जी, मांस, लकड़ी, सीमेंट, लोहा,किताब, कापी, डीग्री बेचने की दुकाने खोले बैठे हुए सारे भाई बंद, यथा हर तरह के सामान 'बेचने' वाले यानी जूता, चपपल, साडी, पेटीकोट, चोली, अंडर वीयर, रूमाल , चूड़ी और कंगन, लिपस्टिक, सेविंग क्रीम से लेकर हेयर रेमुवर बनाने वाले और चरणबद्ध तरीके से बेचने वाले, परचून से लेकर माल चलाने वाले हैं ) जहाँ गरीबों और राष्ट्र प्रेमियों के लिए 'वोटों का इंतजाम कर रहा हो, देश की विदेशी महारानी के खिलाफ अभियान चलाया हो ऐसे में आप, सपा के लिए या भाजपा के लिए काम कर रहे हों नरेश जी ! कभी दिल पर हाथ रखकर सोचो. नेता जी समाजवादी और सज्जन और गरीब, मजदूर और किसानों के मसीहा रहे हैं, उन्हें 'पूंजीवादियों की तरफ मत धकेलो ? यह खामियाजा प्रदेश को ले डूबेगा ! (नरेश जी आप जानते हो भाजपा को प्रदेश में कोई शिकस्त दे सकता है तो वह 'नेता जी' आप सपा को अंदर से कमजोर कर रहे हो)
"कुतर्कों की कमी नहीं होती किसी के नाश के लिए वो तो हमलोग भी जानते हैं" पर आप जैसी घटिया राजनीति से तौबा कर ली थी हमने, अब समझ में आता है की ये 'नेताजी' लोग कैसे अपनी नीतियों के खिलाफ हो जाते हैं, उसमें योगदान होता है आप जैसे पूंजीवादियों का. जिसका खामियाजा भोगती हैं बिचारवांन और राष्ट्रप्रेमी कौमें और आप और देश हित के लिए पहुंचती है सिपाही के रूप में आपकी रक्षा के लिए जिन्हें भी आप भ्रष्ट बनाते हो अपने भ्रष्टाचार के लिए, जो नहीं भरती हो पाते हैं पुलिस में वो बेचते हैं चाय या चाय बनाने का दूध .
राज करते है नरेश अग्रवाल और उनके 'सु' या 'कु' पूत !!!
जो इन्हें/उन्हें बोलने की आज़ादी है वो क्या और किसी को उसे विश्लेषित करने की भी नहीं है समाजवाद में . समाजवादी साथियों ; जागो !
(समाजवादियों को इसपर मुहं खोलना होगा अन्यथा ये नए समाजवादी समाजवाद का नामों निशान मिटा देंगें।)
क्रमशः। ...................... 

सोमवार, 4 नवंबर 2013

कुचक्र रचती है कांग्रेस !

कांग्रेस पिछड़ों के हिस्से को यदि देश की जागरूक जातियों में 'वोट' के लिए बांटना शुरू किया वोट तो उसको मिलेंगे नहीं और पुरे देश में ये सन्देश जाएगा की ये पिछड़ों की विरोधी है . जो वास्तव में है भी इसके अंदर बैठे कांग्रेसी इस की नियति को निति को बजे समाजवादी रखने के जातिवादी और 'द्विजवादी' बनाकर सत्यानाश पर आमादा है, वास्तव में बीजेपी इनकी बी टीम है ये उसे जिताने की तैयारी कर रहे हैं, इन्होने राहुल को मुस्लिम युवाओं के खिलाफ बोलने की राय दी जिससे 'जाट' खुश हों, पर ओ उलटा पड़ गया, अब जाटों को आरक्षण की बात कर रहे हैं, न इन्हें आचार संहिता का डर है और न क़ानून का.

यदि ये अपने कुचक्र से बाज़ नहीं आये तो इन्हें 'बंगाल की खाड़ी' में जनता डालेगी ! 

जाटों पर चुनावी दांव लगाने को सरकार तैयार

congress political bet on jat community

संबंधित ख़बरें

वित्त मंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता वाला जीओएम ओबीसी श्रेणी में जाटों का कोटा तय करने की सिफारिश करने पर विचार कर रहा है। दरअसल सरकार अपने इस सियासी दांव से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में भाजपा को चित करना चाहती है।
उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में इस बिरादरी की अच्छी खासी संख्या चुनाव नतीजे तय करने में निर्णायक भूमिका अदा करती रही है। इसके अलावा मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी इस बिरादरी की संख्या अच्छी खासी है।
जीओएम में शामिल एक मंत्री के अनुसार फिलहाल आरक्षण की मांग पर सभी का रुख सकारात्मक है। जीओएम ने अब तक आरक्षण के पक्ष में विभिन्न जाट संगठनों और राज्य सरकारों के दावों का अध्ययन करना शुरू कर दिया है। अब इस बारे में जल्द ही निर्णय ले लिया जाएगा।
उक्त मंत्री का कहना था कि ज्यादा संभावना जीओएम द्वारा जाटों को ओबीसी श्रेणी में आरक्षण का कोटा तय करने की सिफारिश की जाएगी।
उल्लेखनीय है कि बेहद विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में घिरे हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और रालोद अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने कई बार प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष से मुलाकात कर इस संबंध में जल्द निर्णय का अनुरोध किया था।
हालांकि एनसीबीसी के सूत्रों का कहना है कि उसकी पहली सिफारिश, जिसमें जाट बिरादरी को आरक्षण देने के लायक नहीं माना गया था, के आधार पर अदालत सरकार के फैसले को फिर से पलट सकती है। वैसे भी वर्ष 2011 में भारी दबाव के बाद सरकार ने एनसीबीसी को अपने फैसले की समीक्षा का अधिकार दिया।
इसके बाद एनसीबीसी अलग से जाटों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आईसीएसएसआर से अध्ययन कराया है। हालांकि आईसीएसएसआर ने फिलहाल अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी है।

रविवार, 3 नवंबर 2013

सवर्णवादी सोच के निहितार्थ ; पिछड़ी राजनीति !

सन्दर्भ;सुश्री अनुप्रिया के नाम 

डॉ.लाल रत्नाकर 
अनुप्रिया जी छोडिये दीवाली को ! 
यह पाखण्ड की परम्परा थोथे आदर्शों को ढोने का 'सवर्णीय' हथकंडा है निरंतरता और सतत संघर्षों से हटाने का उनका हथियार ! देश के कई हिस्सों में जातियों से जुड़े पर्व पाखण्ड के तौर पर लोकप्रिय बना दिए गए हैं जिससे उनका (जन सामान्य) ध्यान बटाए रखा जाय ! आपका आन्दोलन दबाये जाने के सारे कुचक्र किये जा रहे हैं उन अपराधिय जातियों द्वारा जिन्होंने 'सता के लिए सारी मर्यादायों का खात्मा कर दिया है' मैं फेसबुक से आपकी सक्रियता से तो वाकिफ ही हूँ, जमीनी हकीकत से जैसा लोग अवगत कराते रहते है, उससे आपका आन्दोलन 'कुर्मियों' के खेमे में डालने की पूरी साजिश हो रही है यथा आपको उससे सावधान रहना होगा, पिछडा नेत्रित्व विहीन है,समुचित नेत्रित्व से ही यह आन्दोलन धार पकड़ेगा, अभी तक इसके मूवमेंट का सारा श्रेय ऊँची जातियों को ही जाता रहा है (आज़ादी के पहले के हिस्से को छोड़ दें) लोहिया, विपि सिंह आदि पर राजनैतिक रूप से स्वर्गीय श्री राम स्वरुप वर्मा राम सेवक यादव , चंद्रजीत जी मन से इसे आगे ले जाना चाहते थे, अब सक्रीय रूप से श्री शरद यादव जी इसके लिए चिन्हित होते हैं, लालू, मुलायम, नितीश इस आन्दोलन के प्रति अपना गैर ज़िम्मेदाराना रूप दीखा चुके हैं, आज यह जिम्मेदारी आप जिस सिद्दत से उठाये हुए दीख रही हो उससे पूरा पिछड़ा बुद्धिजीवी आपके साथ खडा होगा, मुझे जो डर है अपढ़ पिछड़े इसके टूकडे न कर डालें, मैं जानता हूँ इसके लिए सवर्णों के पास नुख्सों की कमी नहीं है. जिसका असर अब तक के सभी राजनेताओं पर देख चुका हु / जिसे आप भी महशुस कर रही होंगीं. अतः आप इस दायित्व को जिम्मेदारी से उठाएंगी और हमेशा इसका ध्यान रखेंगी की इन जातियों के रिश्ते के आपसी धागे बहुत नाज़ुक हैं, कोई भी ज़रा सा जोर लगाता है तो वो टूट जाते हैं, और सदियाँ गुजर जाती हैं उन्हें जोड़ने में. आज श्री मुलायम सिंह 'सवर्णों' को जोड़ने में लगे हैं पिछड़ों के सदियों के संघर्षों के परिणामों से प्राप्त हक को तोड़कर ! इसकी सज़ा क्या होगी ये तो वक़्त ही बतायेगा !  
अब जो उत्तरदायित्व आप के हिस्से आया है उसमें इमानदारी बरतनी होगी, राजनीती को तो उन्होंने घिनौना बनाकर छोड़ा है, जिससे आप इसे नकारात्मक लें अतः आप सावधान रहें यही मेरा सुझाव है.    

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

सरोकार

डॉ.लाल रत्नाकर 
उत्तर प्रदेश की सरकार के सरोकार क्या हैं, सवर्णों के हकों की रक्षा करना या सवर्ण बन जाना, इन सब मुद्दों पर विचार करने का वक़्त आ गया है.
पिछली सरकार जितना संबर्धन 'द्वीजों' का की आज़ादी से अब तक किसी भी सरकार में नहीं हुआ रहा होगा, अब लगता है यह समाजवादी सरकार पिछली सरकार के आंकड़े तोड़ने में लगी है.
यही सारे कारण है की आज के लम्बे संघर्षो से प्राप्त पिछड़ों के हक़ को ये सरकार समाप्त कर दी है, यह सवर्ण मानसिकता नहीं तो क्या है, जब स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह (पूर्व प्रधानमंत्री) ने मंडल कमीशन लागू किया तो सारे सवर्ण उन्हें क्या क्या नहीं कह रहे थे - कुर्मी है ........या क्या ओ बी सी है / और बहुत कुछ यहाँ तक की यह राजपूत ही नहीं है ....
यदि समाजवादी पार्टी के नए लोहिया को अपना ही नारा भूल गया है -
समाजवादियों ने बाधी गाँठ, पिछड़ा पाए सौ में साठ !
अतः अब सरोकार का सवाल है सरकारें तो आती जाती रहती हैं जहाँ चाह वहां राह निकाल ही लेती अवाम !  


बुधवार, 18 सितंबर 2013

उत्तर प्रदेश की सरकार किसके लिए;

लोकसभा में भी सुनाई देगी आरक्षण की गूंज

इलाहाबाद (ब्यूरो)। त्रिस्तरीय आरक्षण को लेकर शुरू हुआ आंदोलन का दायरा बड़ा होता जा रहा है। जनता दल यूनाइटेड के नेता शरद यादव तक पहुंच, अपना दल की अनुप्रिया पटेल का आंदोलन में शामिल होना, इंडियन जस्टिस पार्टी के डॉ. उदित राज का इससे जुड़ना इस बात का संकेत है कि इसकी सियासी गूंज लोकसभा चुनाव में भी सुनाई देगी। अलग-अलग दलों के नेताओं का एक मंच पर आना एक नए सियासी समीकरण का संकेत भी माना जा रहा है। आरक्षण समर्थक पहले ही इस बात की घोषणा कर चुके हैं और छोटी-छोटी सभाओं के जरिए इसका मंच भी तैयार कर चुके हैं। जिस तरह से तमाम पाबंदियों तथा चप्पे-चप्पे पर पुलिस की पहरेदारी के बावजूद पिछड़ी जाति की कई उपजातियों और संगठन के लोग आरक्षण बचाओ महापंचायत के लिए निकले, गिरफ्तारी दी, पुलिस लाइन में फोर्स की मौजूदगी में बेखौफ हो सभा की उससे साफ है कि यह आंदोलन व्यापक होता जा रहा है।
आंदोलन के बाद ही इसका संकेत दे दिया था कि आगामी लोकसभा भी इससे अछूता नहीं रहेगा। आंदोलन की अगुवाई करने वाले अजीत यादव, दिनेश यादव, मनोज समाजसेवी, लालाराम सरोज आदि का साफ तौर पर कहना है कि वे आंदोलन चुनाव तक किसी न किसी रूप में जिंदा रखेंगे। इसके लिए उन्हाेंने पूरे देश में शहर तथा गांवों में नुक्कड़ सभाओं, पर्चे बांटने आदि की घोषणा की है जिसका दौर शुरू हो चुका है। एम्स का मुद्दा संसद में उठाने वाले शरद यादव इस आंदोलन की कमान संभालने के लिए भी तैयार हैं। एक मुद्दे पर ही सही लेकिन इनकी यह एका बड़ी पार्टियों खासतौर, पर पिछड़ों की राजनीति करने वालों, और सरकार की बेचैनी बढ़ा दी है। मुजफ्फरनगर तथा दंगों से संबंधित एक रिपोर्ट को लेकर चौतरफा घिरी प्रदेश सरकार के लिए मंगलवार को प्रस्तावित आरक्षण समर्थकों की महापंचायत की सफलता से परेशानी और बढ़ सकती थी। सामाजिक न्याय मोर्चा की बुधवार को बैठक होगी, जिसमे आगे की रणनीति पर चर्चा होगी।
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महापंचायत को लेकर शहर में दहशत, सैकड़ों गिरफ्तार

इलाहाबाद (ब्यूरो)। रोक के बावजूद त्रिस्तरीय आरक्षण व्यवस्था के हजारों समर्थक मंगलवार को सड़कों पर निकले और गिरफ्तारी दी। उन्होंने फोर्स की मौजूदगी में पुलिस लाइन में महापंचायत भी आयोजित की। बालसन चौराहा पर छोटे-छोटे समूह में पहुंचे आरक्षण समर्थकों को पुलिस लाइन लाया गया। ग्रामीण क्षेत्र के प्रमुख बाजारों और मार्गों पर भी सैकड़ों समर्थकों ने गिरफ्तारी दी। इंडियन जस्टिस पार्टी के डॉ. उदित राज को बमरौली एयरपोर्ट, इंडियन नेशनल लीग के अध्यक्ष राघवेंद्र प्रताप सिंह समेत अन्य नेताओं को जंक्शन तथा शहर से बाहर ही रोक लिया गया। पुलिस के अनुसार बालसन चौराहा पर 540 तथा कुल तकरीबन सात सौ लोगों ने गिरफ्तारी दी। इसके विपरीत आरक्षण समर्थकों ने हजारों की संख्या में गिरफ्तारी दिए जाने का दावा किया है। शाम को सभी को छोड़ दिया गया। अंतिम समय में कहीं बवाल न हो जाए इसलिए उन्हें बसों से अलग-अलग मुहल्लों में छोड़ा गया। पूरे आंदोलन के दौरान राहत की बात यह रही कि कहीं से उपद्रव की सूचना नहीं है। हालांकि आंदोलन के मद्देनजर बैरिकेडिंग, जांच के कारण घरों से निकले लोगों को कुछ परेशानी जरूर हुई। बालसन चौराहा समेत कुछ स्थानों पर पुलिस को लाठी भी पटकनी पड़ी।
पूर्व की घटनाओं को देखते हुए सामाजिक न्याय मोर्चा की ओर से घोषित ‘आरक्षण बचाओ महापंचायत’ को लेकर पूरे शहर में दहशत और तनाव का माहौल रहा। जिला प्रशासन के रोक के बाद भी समर्थक इसके लिए अड़े रहे। इसको लेकर प्रदेश सरकार भी पूरी तरह से सतर्क रही। महापंचायत में शामिल होने के लिए दूरंतों ट्रेन से आ रहे जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव को गाजियाबाद तथा अपना दल की अनुप्रिया पटेल को रायबरेली में ही सोमवार देर रात को गिरफ्तार कर लिया गया। शहर तथा दूसरे जिलों से जोड़ने वाले मार्गों पर चप्पे-चप्पे पर फोर्स तैनात रही। छात्रों तथा प्रतियोगियों के बहुलता वाले इलाकों में काफी सख्ती थी। इसकी वजह से कहीं भी युवाओं का जमावड़ा नहीं हो पाया। जहां भी दो-चार लोग इकट्ठा हुए पुलिस ने उन्हें हटा दिया। इसके बाद भी आरक्षण समर्थक बालसन चौराहा पहुंचने में सफल हुए। गलियों में एकत्रित प्रतियोगी छोटे-छोटे समूह में आनंद भवन, हासिमपुर रोड, जीटी रोड हर तरफ से बालसन चौराहा पहुंचे, जिन्हें वहीं गिरफ्तार कर लिया गया। खास यह कि समर्थकों ने इसका कोई प्रतिरोध नहीं किया और नारेबाजी करते हुए पुलिस की बस, वैन में चढ़ गए। इसके बाद उन्हें पुलिस लाइन ले जाया गया। इस दौरान वे प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करते हुए चल रहे थे। पुलिस और आरक्षण समर्थकों के बीच लुका-छिपी का यह खेल दिन भर चला।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को निवेदित पत्र

मेरा मानना है की बिना परिश्रम के प्राप्त मूल्य /सम्मान संपदा सत्ता की कोई परवाह नहीं होती, माया मुलायम और उनके पुत्र के साथ कुछ ऐसा ही है -

बुधवार, 14 अगस्त 2013

संघर्ष के परिणाम -

साथियों ;
संघर्ष के परिणाम -
अभी दो दिन पहले ही राजनारायण जी ने इस पोस्ट को तैयार किया है और उन्होंने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जजों का उल्लेख किये हैं उन जजों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिए जिन्होंने इतना घटिया बयान दिया है !
परन्तु उम्मीद बंधी है की संसद इसे गंभीरता से ली है तमाम पिछड़े दलित सांसदों ने इस मसले को गंभीरता से उठाया है जिससे यह बयान आया है .
पर अभी इसकी गंभीरता को न्यालय की मानसिकता पर इंतज़ार करने की वजाय संसद संबिधान संसोधन लाये जो ज्यादा उपयुक्त होगा अन्यथा न्यालय इसे लटका कर रखेगा ऐसा संदेह स्वाभाविक है -


पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए : अनशन

सामजिक न्याय के लिए संघर्ष ;
 "हमें खाद्य सुरक्षा कानून और लैप-टॉप नहीं चाहिये। देना है तो हमारा संवैधानिक हक-अधिकार, भेदभाव रहित न्याय व्यवस्था और दलित-आदिवासी-पसमांदा और समस्त पिछड़ी जातियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी दे दो। हम अपने भोजन और लैप-टॉप का इंतजाम खुद कर लेंगे।" - अनुप्रिया पटेल।
उत्तर प्रदेश सरकार चाहे तो सौ फर्जी मुकदमे लाद दे पर आरक्षण समर्थकोँ के लिये हमेशा लड़ूगी। दलित- आदिवासी- पसमांदा और समस्त पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण की लड़ाई कोई नौकरी लेने और पैसा कमाने की लड़ाई नहीं है बल्कि समाज और जीवन के सभी क्षेत्रों में न्याय- भागीदारी-बराबरी स्वाभिमान और सम्मान की लड़ाई है। आरक्षण समर्थकों को बदनाम करने की साजिश बंद हो। उत्तर प्रदेश सरकार की पुलिस- प्रशासन आरक्षण समर्थक छात्रों को बदनाम कर रही है। प्रदेश भर में दर्ज आरक्षण समर्थक छात्रों पर से मुकदमा वापस लिया जाय और उन्हें परेशान- प्रताड़ित न किया जाय। आरक्षण समर्थक सभी क्रांतिकारी छात्र-युवाओं का सम्मान की इस लड़ाई में साथ देने के लिये शुक्रिया।
अनुप्रिया जी ..आज पिछड़ा वर्ग कराह रहा है जहाँ ज़रा भी सम्बेदना है. पर तथाकथित पिछड़े समर्थक राज्नीतिज्ञों ने जितना धोखा दिया है उतना तो सवर्ण भी न देता. जिस मंडल कमीशन को आज भी कई प्रदेश पूर्ण रुपेंन लागू भी नहीं कर पाए हैं वहीँ उत्तर प्रदेश में लोक सेवा आयोग के फैसले को जिस तरह से निरस्त किया गया है, वह बहुत ही गंभीर मसला है. यदि इसी समय इस लड़ाई को न लड़ा गया तो आने वाले दिनों में यह लटक जाएगा और द्विजों की भेंट चढ़ जाएगा. वर्तमान/निवर्तमान शासक जिस तरह से उत्तर प्रदेश में भी द्वीज बंदना में लगे हैं लगता है सब कुछ उन्हें "भेंट" स्वरुप समर्पित कर देंगे. मुझे लगता है आप साहस और हिम्मत की सोच समृद्ध लगती हैं जिसकी वजह से इमानदार तरीके से लड़ सकती हैं. आप आगे बढेंगी तो लोग आ जायेंगे. हम लोगों के पास जीतनी क्षमता है उसका भी उपयोग कर सकती हैं. 

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आरक्षण समर्थकों पर से मुकदमा हटाने की मांग
लखनऊ। आरक्षण के समर्थन में अपना दल के कार्यकर्ताओं ने सोमवार को विधान भवन के सामने तीन दिवसीय क्रमिक अनशन शुरू किया। उन्होंने मांग की है कि लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में त्रिस्तरीय आरक्षण फार्मूला लागू किया जाए। पार्टी की विधायक अनुप्रिया पटेल और आरक्षण समर्थकों के खिलाफ इलाहाबाद के जार्जटाउन थाने में दर्ज मुकदमों को शीघ्र वापस लिया जाए। अपना दल के पूर्व विधायक ज्वाला प्रसाद यादव के नेतृत्व में प्रदेश और जिला स्तर के पदाधिकारी क्रमिक अनशन में शमिल हुए।
उन्होंने आरोप लगाया कि केन्द्र व राज्य में बैठी पूर्व और वर्तमान सरकारों ने हमेशा ओबीसी और एससीएसटी का हक मारा है। वोट की राजनीति के कारण उक्त वर्ग का हक मारने का काम किया जा रहा है। अब इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। नसिं।
(हिंदुस्तान)

13 अगस्त, 2013 को आरक्षण के समर्थन में लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश विधान भवन के सामने चल रहे क्रमिक अनशन के दूसरे दिन अपना दल की राष्ट्रीय महासचिव व विधायक अनुप्रिया पटेल ने देश और प्रदेश की सरकारों से दलित-आदिवासी-पसमांदा और समस्त पिछड़ों को ठगने का धंधा छोड़कर आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की वकालत की। सत्ता के केन्द्रों- मीडिया,ब्यूरोक्रैसी,जुडीशियरी आदि में बैठे मठाधीशों के द्वारा आरक्षण के खिलाफ किये जा रहे साजिश को खत्म करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन की जरूरत पर बल दिया। अनुप्रिया पटेल ने आरक्षण समर्थकों पर थोपे गये मामले को फर्जी बताते हुये राज्य सरकार से मुकदमें वापस लेने की अपील की और कहा कि इन्हे परेशान-प्रताड़ित करने का अंजाम बुरा होगा।

पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए सुश्री अनुप्रिया पटेल ने अपना दल की ओर से 12-13-14 अगस्त, 2013 
को तीन दिवसीय क्रमिक अनशन का कार्यक्रम उत्तर प्रदेश विधानसभा के सामने रखा गया था। हमारी प्रमुख 
माँगे थी कि- UPPSC में त्रिस्तरीय आरक्षण फॉर्मूला लागू हो। आरक्षण समर्थकों पर से मुकदमा वापस हो और पुलिस-प्रशासन आरक्षण समर्थकों को परेशान-प्रताड़ित करना बंद करे। साथ ही उत्तर प्रदेश में 2007-2012 और 2012 से अबतक दलित-आदिवासी-पसमांदा- समस्त पिछड़ी जातियों को मिले सभी स्तरों की नौकरियों के बारे में राज्य सरकार श्वेत पत्र जारी करे। इस आंदोलन को लेकर बड़े भाई डॉ.लाल रत्नाकर ने पोस्टर बनाकर समर्थन किया जिसके लिये धन्यवाद। आप सभी शुभचिंतकों, समर्थकों, विचारकों को भी विचार-भावनात्मक समर्थन के लिये धन्यवाद। हमारा संघर्ष जारी रहे यही अपील है।



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