रविवार, 12 दिसंबर 2010

आज कल उत्तर प्रदेश में दलित और द्विज सामराज्य है |

(जागरण से साभार)

यूपी के अफसरो पर उठीं निष्पक्षता पर अंगुली

Dec 13, 01:06 am
लखनऊ [नदीम]। एक डीएम को हटाने का आदेश अगर हाईकोर्ट को इस वजह से देना पड़ा कि वह सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए विपक्ष के जिला पंचायत सदस्यों को धमका रहे हैं, निर्वाचन आयोग को एक डीआईजी को चुनावी प्रक्रिया से इस वजह से अलग करना पड़ा कि उनको लेकर यह शिकायत प्राप्त हुई कि वह उम्मीदवार विशेष के 'एजेंट' के रूप में काम कर रहे हैं और एक जिले में उप्र पुलिस को हटाकर केंद्रीय बल की निगरानी में चुनाव कराना पड़ा, तो उप्र के अफसरों की 'भूमिका' पर ज्यादा कुछ कहने को बचा नहीं रह जाता।
उप्र की मुख्य सचिव रह चुकी नीरा यादव के जेल जाने के बाद जब राजनीतिकों और अफसरों के गठजोड़ पर बहस शुरू हुई थी, तो ज्यादातर लोगों की राय थी कि यह घटना कम से कम अफसरों के लिए 'आई ओपनर' [आंख खोलने वाली] साबित होगी, लेकिन पिछले तीन दिनों में हुए ताबड़-तोड़ फैसले बताते हैं कि उप्र के अफसर सबक लेने और सुधरने को तैयार नहीं है। उन्हें 'पार्टी' बनने में ज्यादा मजा आता है और फायदा दिखता है। राजनीतिकों को खुश करने में उन्हें किसी भी सीमा तक जाने में कोई गुरेज नहीं रहता। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद हाईकोर्ट को मथुरा के डीएम को तुरंत हटाने का आदेश न देना पड़ता।
डीएम के ऊपर तो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी होती है, लेकिन मथुरा के डीएम पर तो आरोप यह है कि वह खुद सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार को जिताने की जुगत में लग गए। डीएम का दबाव कुछ इतना ज्यादा बढ़ गया कि कुछ जिला पंचायत सदस्यों को कोर्ट की शरण लेनी पड़ी।
मथुरा के डीएम का उदाहरण अकेला नहीं है। देवी पाटन परिक्षेत्र के डीआईजी को चुनावी प्रक्रिया से विरत रहने का आदेश निर्वाचन आयोग को करना पड़ा। यहां के डीआईजी पर भी यही आरोप है कि उनकी भूमिका निष्पक्ष नहीं थी। गोंडा जिले में एक उम्मीदवार विशेष के पक्ष में मतदान के लिए विपक्षी दलों से जुड़े जिला पंचायत सदस्यों को डरा-धमका रहे थे। डीआईजी को लेकर मिली शिकायत के बाद निर्वाचन आयोग ने इसकी जांच कराई। डीआईजी पर लगे इल्जाम प्रथम दृष्टया सही पाए गए। आयोग ने उन्हें तुरंत चुनावी प्रक्रिया से अलग करने का आदेश दिया। बाराबंकी जिले में सत्तारूढ़ दल और प्रशासनिक मशीनरी के गठजोड़ के चलते स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होने की सम्भावना पर सवालिया निशान लगा तो हाईकोर्ट को यह आदेश देना पड़ा कि इस जिले के चुनाव की प्रक्रिया से स्थानीय पुलिस को तुरंत हटाया जाए और केंद्रीय बल की निगरानी में चुनाव कराया जाए।
आईएएस एसोसिएशन और आईपीएस एसोसिएशन पूरे घटनाक्रम पर खामोशी अख्तियार किए हैं। हालांकि 'आफ द रिकार्ड' कुछ पदाधिकारियों की राय है, अच्छे और बुरे लोग सभी जगह हैं, इसलिए कुछ लोगों के कारण पूरी सेवा के अधिकारियों को आरोपित नहीं किया जा सकता, लेकिन इस सवाल का जवाब उनमें से किसी के पास नहीं कि शीर्ष सेवाओं के अंग होने के अलग ही मायने होते हैं। किसी एक अधिकारी के व्यग्तिगत आचरण से पूरी सरकारी मशीनरी से विश्वास हटता है और इसका जिम्मेदार कौन है?

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

पिछड़ी जातियों के दुखद पहलू !

डॉ.लाल रत्नाकर
जहाँ तक भरोसे का सवाल है, वह पिछड़ी जातियों के भीतर बहुत मजबूती से भरा है, परन्तु उनकी समझ का सवाल आज भी बौना है, पिछड़ी जातियों कि राजनितिक चेतना के आयाम विविधता संजोये हुए है इनमे बौद्धिक समझ और धोखे में बने रहने कि स्थिति बहुत भयावह है, इनके विकास कि दशा और गति जीतनी भी तेज हो जाय पर ये भ्रष्ट जातियों को रोकने कि वजाय उनके अस्त्र के रूप में सामने आते है, यही दुर्भाग्य है कि सदियों कि लडाई को ये चंद लाभ और लोलुपता के कारण उन्ही को मज़बूत करने में लगा देते है |
दूसरी ओर पिछले दिनों महिला आरक्षण को लेकर एक आन्दोलन खड़ा हुआ जिसमें पिछड़ी जातियों कि महिलाओं के अलग से आरक्षण कि मांग उठी जिसे देश के संसद में इन्ही मुद्दों को दबाने के लिए ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया है. आज हमारे सामने जातीय जनगणना का सवाल है जिसके लिए संसद ने कितने विरोध देखे पर यहाँ भी वही हुआ इसे भी उसी तरह दबाने का पूरा यत्न कर दिया गया है.

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

ये है भारतीय व्यवस्था के न दिखाई देने वाले वो लोग

डॉ.लाल रत्नाकर
(जिन्हें हाई प्रोफाइल कहते है इस प्रकार के लोग अलग जगहों से इकट्ठे किये गए है यह लेख तहलका से लिया गया है)

राडिया की रामकहानी

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लॉबीइंग की दुनिया में बड़ी खिलाड़ी और कई रहस्यों के आवरण में लिपटी नीरा राडिया के सफरनामे पर शांतनु गुहा रे की रिपोर्ट
अरबों रु के संचार घोटाले से घिरी लॉबीइस्ट नीरा राडिया ने पिछले दिनों अपने जन्मदिन पर दक्षिण दिल्ली में एक मंदिर का उद्घाटन किया. इस कृष्ण मंदिर को बनवाने के लिए दान भी उन्होंने ही दिया था. इस मौके पर मौजूद रहे लोग बताते हैं कि राडिया ने मंदिर में काफी देर तक पूजा-अर्चना की. इन दिनों उनके नाम पर जितना बड़ा बवाल मचा हुआ है उसे देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में अब तक के सबसे बड़े इस घोटाले की छाया से बाहर निकलने के लिए उन्होंने ईश्वर से मदद की प्रार्थना की होगी. मंदिर जाने से पहले दक्षिण दिल्ली की सीमा पर बने उनके फार्महाउस पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सीबीआई के नोटिस पहुंच चुके थे. यह वही फार्महाउस है जो जितना वहां होने वाले धार्मिक भोजों के लिए जाना जाता है उतना ही देर रात तक चलने वाली पार्टियों के लिए भी. दोनों ही आयोजनों में दिल्ली के रसूखदार लोग शामिल होते हैं.
अब यह तो वक्त ही बताएगा कि यह प्रार्थना सत्ता के गलियारों में मौजूद इस अकेली महिला लॉबीइस्ट की कोई मदद कर पाएगी या नहीं. अकसर साड़ी या बिजनेस सूट में नजर आने वाली राडिया के बारे में कहा जाता है कि इंसानी सोच और तकनीकी शब्दावली पर उनकी पकड़ इतनी कुशल है कि अमीर और ताकतवर लोगों की नब्ज टटोलने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती.
लॉबीइंग की दुनिया में राडिया ने शुरुआती कदम भाजपा के साथ बढ़ाए. फिर उन्होंने कांग्रेस के भीतरी गलियारों तक पहुंच बनाई और माना जाता है कि अब सीपीएम के साथ भी उनकी अच्छी छनती है. उनके बारे में होने वाली चर्चाएं बताती हैं कि आज उनकी निजी संपत्ति 500 करोड़ रु से ऊपर की है.
आयकर विभाग की जांच बताती है कि रीयल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को टेलीकॉम लाइसेंस दिलवाने में राडिया ने अहम भूमिका निभाई
कर चोरी को पकड़ने के लिए कुछ समय पहले आयकर विभाग ने जब कुछ लोगों के फोन टेप करने शुरू किए थे तो ऐसा करने वाले अधिकारियों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि यह रूटीन काम उन्हें इतने बड़े घोटाले तक पहुंचा देगा. अब आयकर विभाग समेत दूसरी कई एजेंसियां भी यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि क्या दिल्ली की सत्ता के गलियारों में राडिया की पहुंच इस कदर है कि वे किसी को भी मंत्री बनवा दें या फिर अपने कॉरपोरेट क्लाइंटों के हित में सरकार से नीतियां बनवा दें.
उधर, प्रवर्तन निदेशालय यह जानने की कोशिश कर रहा है कि कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस के लिए बनी राडिया की कंपनी के जरिए पैसा किससे किसको पहुंचा. शायद राडिया को भी ईडी की इस मंशा के बारे में अंदाजा हो गया था, इसलिए पूछताछ के लिए सबसे पहले भेजे गए नोटिसों को उन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देकर टालने की कोशिश की. इस दौरान मिले समय का इस्तेमाल उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं से संपर्क करने में किया. बताया जाता है कि राडिया ने उनसे कहा कि वे अपने राज्य के कैडर के अधिकारियों को खामोश रहने के लिए कहें जो इस घोटाले की जांच कर रहे हैं. लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ रु के इस घोटाले की आंच में कोई अपने हाथ नहीं जलाना चाहता था.
राजनीतिक रूप से राडिया को अलग-थलग पड़ते देख जांच एजेंसियों की हिम्मत बढ़ी. पूछताछ के लिए उन्हें फिर से नोटिस भेजे गए. इस बार इन नोटिसों की भाषा काफी तल्ख थी. 24 नवंबर को राडिया ईडी के दफ्तर पहुंचीं. शायद मीडिया की नजर से बचने के लिए उन्होंने वक्त चुना सुबह सवा नौ बजे. उस समय तक तो जांच अधिकारी भी दफ्तर नहीं पहुंचे थे. जांच में शामिल ईडी के एक बड़े अधिकारी राजेश्वर सिंह से जब तहलका ने बात करने की कोशिश की तो वे इससे ज्यादा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुए कि वे शायद भारत में हुए अब तक के सबसे बड़े घोटाले की जांच कर रहे हैं.
जब तक राडिया ईडी के दफ्तर से बाहर निकलतीं तब तक वहां मीडिया का भारी-भरकम जमावड़ा लग गया था. सवालों की बौछार के बीच वे सधे हुए शब्दों में उसी नफासत के साथ बोलीं जो किसी पीआर प्रोफेशनल की पहचान होती है. कुछ भी ज्यादा कहने से बचते हुए उन्होंने जो कहा उसका मतलब यही था कि मामला अदालत में है और उनकी तरफ से पूरा सहयोग दिया जाएगा.
उधर, सीबीआई अधिकारियों का दावा है कि उनके पास ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि राडिया की कंपनी का डाटा यूक्रेन स्थित सर्वरों (जिन तक किसी तीसरे पक्ष की पहुंच बहुत मुश्किल होती है) पर रहा है और उनके और उनके करीबी सहयोगियों ने अपने फोनों पर ऐसे इजराइली उपकरण लगा रखे थे जिनसे नंबरों की निगरानी संभव नहीं हो पाती. सीबीआई के पास वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की चेयरपर्सन राडिया और नेताओं, नौकरशाहों और कुछ बड़े पत्रकारों के बीच 180 घंटे की बातचीत है जो उन्हें उस दूरसंचार घोटाले के केंद्र में खड़ा कर सकती है जिसने ए राजा की कुर्सी छीन ली. गौरतलब है कि संचार मंत्री रहे राजा को वास्तविक कीमत से कहीं कम कीमत पर 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बेचने से उठे विवाद के बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
सीबीआई उन पूर्व नौकरशाहों और राडिया के बीच के गठजोड़ की भी जांच कर रही है जिन्हें राडिया ने इसलिए नौकरी पर रखा था ताकि वे अपने क्लाइंटों के हिसाब से नीतियां बनवा सकें. उनके क्लाइंटों में टाटा, रिलायंस, आईटीसी, महिंद्रा, लवासा, स्टार टीवी, यूनिटेक, एल्ड हेल्थकेयर, हल्दिया पेट्रोकैमिकल्स, इमामी और बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे बड़े नाम हैं.
पिछले ही हफ्ते राडिया के करीबियों में से एक प्रदीप बैजल से सीबीआई ने चार घंटे से भी ज्यादा समय तक पूछताछ की. गौरतलब है कि बैजल दूरसंचार मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं और देश में विवादास्पद विनिवेश प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय उन्हीं को जाता है. सीबीआई ने उनसे गुयाना और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों में उनके तथाकथित निवेशों के बारे में पूछताछ की.
इस बारे में ज्यादा जानकारी देने से इनकार करते हुए ईडी अधिकारी राजेश्वर सिंह बस इतना ही कहते हैं, 'आरोप गंभीर हैं.' सीबीआई और ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यह साबित करने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी ऐंड प्रोमोशन में सचिव रहे अजय दुआ, पूर्व वित्त सचिव सीएम वासुदेव, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन एसके नरूला और नागरिक उड्डयन सचिव रहे अकबर जंग जैसे रिटायर्ड नौकरशाह राडिया के इशारे पर काम करते हैं.
दूसरी तरफ, आयकर विभाग की जांच बताती है कि रीयल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को टेलीकॉम लाइसेंस दिलवाने में राडिया ने अहम भूमिका निभाई.

ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यूनिटेक के लिए 1,600 करोड़ रु जुटाने में राडिया की अहम भूमिका थी. गौरतलब है कि यूनिटेक 
भी उन विवादास्पद कंपनियों में से एक है जिसे ये टेलीकॉम लाइसेंस हासिल हुए थे. कंपनी ने अपनी दूरसंचार फर्म का एक बड़ा हिस्सा आखिरकार नार्वे की एक कंपनी टेलेनॉर को बेचा और उस कीमत से सात गुना ज्यादा पैसा वसूला जो उसने लाइसेंस खरीदने के लिए चुकाई थी.
एजेंसियों के पास जो बातचीत रिकाॅर्ड है उसके कुछ हिस्से राडिया का संबंध लंदन स्थित वेदांता समूह से भी जोड़ते हैं. गौरतलब है कि उड़ीसा के कालाहांडी जिले में अपनी खनन परियोजनाओं में पर्यावरण संबंधी मानकों का उल्लंघन करने के लिए इस समूह की काफी आलोचना हुई है. विश्वस्त सूत्रों ने तहलका को यह भी बताया है कि वेदांता समूह ने राडिया को भारत में अपनी नकारात्मक छवि को बदलने की भी जिम्मेदारी सौंपी थी. नतीजा यह हुआ कि अखबारों और पत्रिकाओं में वेदांता को अच्छा बताते कई महंगे विज्ञापन छपे. लेकिन इनसे कोई खास असर नहीं हुआ क्योंकि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उसकी परियोजना को रद्द कर दिया.

बातचीत के टेप राडिया का संबंध सुनील अरोड़ा से भी साबित करते हैं. अरोड़ा राजस्थान में तैनात आईएएस अफसर हैं जिन्होंने राडिया को अलग-अलग मंत्रालयों में तैनात अपने दोस्तों तक पहुंचाया. इन टेपों में रिकॉर्ड बातचीत उन नोट्स का हिस्सा है जो सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं. ऐसा लगता है कि नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल के खिलाफ मोर्चा खोलकर इंडियन एयरलाइंस के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर की अपनी कुर्सी गंवाने वाले अरोड़ा ने राडिया के लिए भारत में कई दरवाजे खोले. यह पता चला है कि इंडियन एयरलाइंस के मुखिया के तौर पर अरोड़ा के कार्यकाल के दौरान सात विमान उन कंपनियों से लीज पर लिए गए थे जिनके एजेंट के तौर पर राडिया की कंपनियां काम कर रही थीं. वरिष्ठ आयकर अधिकारी अक्षत जैन कहते हैं, 'हमारे पास सबूत हैं कि राडिया की कंपनी ने अरोड़ा के मेरठ स्थित भाई को काफी पैसा दिया है.'
राडिया आज भी जेट एयरवेज के मुखिया नरेश गोयल और उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल से खार खाती हैं. उन्हें लगता है कि इन दोनों की वजह से उनकी अपनी एयरलाइन का सपना पूरा नहीं हो सका
अब राडिया की पृष्ठभूमि पर एक नजर. 19 नवंबर ,1960 को सुदेश और इकबाल मेमन के घर नीरा राडिया का जन्म हुआ. ईदी आमिन के पतन के वक्त उनके परिवार को अफ्रीका छोड़कर ब्रिटेन जाना पड़ा. कभी कुख्यात हथियार डीलर अदनान खशोगी का उभरता प्रतिद्वंद्वी कहे जाने वाले मेमन ने लंदन में विमान लीज कारोबार में काम शुरू किया. परिवार के इस कारोबार की राडिया स्वाभाविक उत्तराधिकारी थीं. लंदन में उन्होंने एक अमीर व्यापारी परिवार से ताल्लुक रखने वाले जनक राडिया से शादी की. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि 1996 में काले धन की जमाखोरी के एक मामले में वे जांच के घेरे में आईं और फिर वे भागकर भारत आ गईं. यहां पहले उन्होंने तब सहारा सुप्रीमो सुब्रत रॉय के चहेते उत्तर कुमार बोस के साथ काम किया जो एयर सहारा का काम देख रहे थे. सहारा इंडिया के निदेशकों में से एक अभिजित सरकार भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, 'उन्होंने कुछ समय तक हमारे लिए काम किया.' मगर बोस तब राय की नजरों से उतर गए जब यह पाया गया कि जो एयरक्राफ्ट लीज पर लिए गए हैं उनके किराए बाजार भाव से 50 फीसदी ज्यादा हैं.
इसके बाद राडिया ने अपने बूते आगे बढ़ने का फैसला किया. उनकी नजर बंद हो चुकी मोदीलुफ्त पर थी जिसे फिर से शुरू कर वे मैजिक एयर के नाम से चलाना चाहती थीं, मगर इसके लिए उन्हें जरूरी मंजूरियां नहीं मिलीं. ताकतवर प्राइवेट एयरलाइंस लॉबी ने हर कदम पर उन्हें मात दी और जल्दी ही राडिया ने इस काम के लिए खाड़ी स्थित जिन फायनेंसरों को राजी किया था वे पीछे हट गए. मलेशियन एयरलाइंस सहित कई एयरलाइनों से पायलटों और उड्डयन विशेषज्ञों की जो क्रैक टीम राडिया ने बनाई थी वह एक लंबी और परेशान कर देने वाली यथास्थिति के बाद टूट गई.
ऐसे कई लोग हैं जो दावा करते हैं कि राडिया आज भी जेट एयरवेज के मुखिया नरेश गोयल और नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल से खार खाती हैं. उन्हें लगता है कि इन दोनों व्यक्तियों की वजह से उनकी अपनी एयरलाइन का सपना पूरा नहीं हो सका. राडिया को क्राउन एयर के प्रोमोटर के तौर पर सुरक्षा मंजूरी तो नहीं मिली लेकिन वे तत्कालीन उड्डयन मंत्री और भाजपा के अनंत कुमार के करीबी संपर्क में आ गईं. भाजपा नेतृत्व के सूत्र बताते हैं कि जब पीएमओ से उन्हें साफ संकेत मिले कि कुमार की कुर्सी जाने वाली है तो राडिया ने मान लिया था कि क्राउन एयर अब एक मर चुका सपना है. इसके बाद भी राडिया ने एनडीए शासनकाल के दौरान जमीन का एक विशाल टुकड़ा बहुत ही सस्ते दामों में अपनी स्वर्गवासी मां के नाम पर बनी सुदेश फाउंडेशन को आवंटित कराने में सफलता पा ली.
आईबी की एक पुरानी रिपोर्ट बताती है कि राडिया को सुरक्षा संबंधी मंजूरी देने के खिलाफ जो एतराज थे उनमें से कुछ का संबंध मुंबई स्थित एक व्यक्ति चंदू पंजाबी के साथ उनकी डीलिंग से भी था जिसकी पृष्ठभूमि संदिग्ध थी. पंजाबी ठाकरे परिवार का भी करीबी था. राडिया ने फिल्म अग्निसाक्षी की फंडिंग में भी अहम भूमिका निभाई थी. इस फिल्म के निर्माता बाल ठाकरे के बेटे बिंदा ठाकरे थे. पंजाबी के बारे में बताया जाता है कि बांद्रा स्थित सी रॉक होटल में उसका भी कुछ हिस्सा था. 1992 में मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्टों में से एक इस होटल में भी हुआ था और अब यह होटल टाटा समूह की इंडियन होटल्स कंपनी द्वारा चलाया जाता है. नेटवर्किंग के अपने गुण की बदौलत राडिया ने सिंगापुर एयरलाइंस के साथ तालमेल स्थापित कर लिया और भारत में उसके रखरखाव, रिपेयर और ओवरहॉल सुविधा स्थापित करने में मदद की. सरकार की नीति में इस बदलाव  कि विदेशी एयरलाइंस भारत में नहीं आ सकतीं, के बारे में भी यह चर्चा चली थी कि यह बदलाव उनके विरोधियों गोयल और पटेल ने करवाया था.
नौकरशाह और राजनेताओं से अपने संपर्क और कुमार के साथ उनके गठजोड़ ने राडिया के लिए दिल्ली की सत्ता के गलियारों के कई दरवाजे खोले. एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक पूर्व मुखिया और एनडीए सरकार के दौरान ताकतवर रहे नौकरशाह एसके नरूला रिटायर होने के बाद भी राडिया के विश्वासपात्र हैं और उनकी तरफ से सरकार के साथ कुछ महत्वपूर्ण सौदेबाजियों को अंजाम देते हैं.
राडिया को सबसे बड़ा ब्रेक तब मिला जब उनका परिचय रतन टाटा के करीबी सहयोगी आरके कृष्ण कुमार से हुआ. कुमार वही शख्स थे जिन्हें टाटा ने अपनी एयरलाइन के सपने को हकीकत में बदलने की जिम्मेदारी सौंपी थी. टाटा-सिंगापुर एयलाइंस गठजोड़ नाकाम रहा मगर जल्दी ही राडिया ने पब्लिक रिलेशंस के क्षेत्र में फिर से शरुआत की. उन्होंने वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की शुरुआत की और उन्हें टाटा समूह की सभी कंपनियों का काम मिल गया. अब उनके पास भारत के सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी घराने का नाम था. जल्दी ही उनकी कंपनी की जड़ें आठ शहरों में जम गई थीं.
जब टाटा समूह टाटा फायनैंस के दिलीप पेंडसे के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करना चाहता था और पेंडसे ने मराठी मानुस कार्ड खेलकर उसका यह प्रयास विफल कर दिया था तब एक दिन दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने पेंडसे को एक बहुत ही छोटे मामले में गिरफ्तार कर लिया. पेंडसे ने आरोप लगाया कि यह सब राडिया के इशारे पर हुआ है क्योंकि पुलिस विभाग में पहुंच उनकी रणनीतियों का एक अहम पहलू है. यह एक ऐसा हथियार है जिसे वे अकसर अपना काम निकालने के लिए इस्तेमाल करती हैं. इसका राडिया को इतना खयाल है कि पिछले आठ सालों में एक स्टाफर को इसी काम के लिए रखा गया है कि ग्राउंड लेवल पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं. उधर, राडिया पुलिस के सीनियर स्टाफ के साथ बनाकर रखती हैं. दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर केके पॉल राडिया के करीबी दोस्त थे जिन्हें एनडीए की सरकार के आखिरी चार महीने के दौरान ही यह पद मिला था. महाराष्ट्र के एक पूर्व डीजीपी को जब फरवरी, 2007 में रातों-रात मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से हटाया गया तो यह चर्चा खूब उड़ी थी कि राडिया उसे दिल्ली में सीबीआई या किसी इंटेलिजेंस एजेंसी में कोई अहम पद दिलवाने के लिए भारी लॉबीइंग कर रही हैं. इंटेलिजेंस के सूत्र मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर हसन गफूर से जुड़े उस विवाद में राडिया का हाथ होने से इनकार नहीं करते जब उनका एक विवादास्पद इंटरव्यू एक मैगजीन में छप गया था. इससे पहले वे महाराष्ट्र के डीजीपी पद के लिए पहली पसंद कहे जा रहे थे. गफूर विवाद का फायदा एएन राय को हुआ जो टाटा मोटर्स के मुखिया रविकांत के करीबी रिश्तेदार हैं. राय भी दक्षिण मुंबई के उसी रेजीडेंसियल कांप्लेक्स में रहते हैं जहां कांत सहित टाटा मोटर्स के तीन-चार बड़े लोगों का आशियाना है.
दिलचस्प यह भी है कि राडिया ने अपनी कमर्शियल एयरलाइन का सपना 2004 में एक बार फिर जिंदा किया और फिर मलेशियन एयरलाइंस के उड्डयन विशेषज्ञों की एक टीम बनाई. इसके मुखिया नग फूक मेंग पहले भी क्राउन एयर का हिस्सा रह चुके थे. अपने विरोधी प्रफुल पटेल के उड्डयन मंत्री होने के बावजूद आशावादी राडिया इस मोर्चे पर जम गईं. लेकिन 14 महीने तक कोशिशों के बाद आखिरकार उन्हें मैदान छोड़ना पड़ा.
इसी अवधि के दौरान राडिया ने दयानिधि मारन के साथ भी एक तीखी लड़ाई लड़ी. मारन, कारोबारी सी शिवशंकरन को रतन टाटा के कथित संरक्षण से नाराज थे. राडिया ने डीएमके मुखिया करुणानिधि की पत्नी राजति अम्मल के एक करीबी के साथ संपर्क बढ़ाया और चेन्नई की कई यात्राएं करके अम्मल के साथ अच्छी दोस्ती कर ली. उन्हें तब मौका मिला जब मारन और करुणानिधि परिवार में फूट पड़ी जिसकी वजह से दयानिधि मारन को संचार मंत्रालय छोड़ना पड़ा. माना जाता है कि राडिया  चेन्नई गईं और उन्होंने डीएमके सुप्रीमो, उनके बेटे एमके स्टालिन और टाटा के बीच एक गुपचुप वार्ता आयोजित की थी.
एएआई के पूर्व सीएमडी नरूला ने नौकरशाही के उस शीर्ष स्तर तक उनकी पहुंच के द्वार खोले जिसके रिटायर होने में पांच-छह साल बचे होते हैं और जो रिटायर होने के बाद कॉरपोरेट इंडिया के साथ अवसरों की तलाश में होता है. बैजल और वासुदेव ने भी इस काम में अहम भूमिका निभाई. इनकी सेवाओं का इनाम देते हुए राडिया ने बैजल, वासुदेव और नरूला को पार्टनर बनाते हुए नियोसिस नाम की फर्म खोली. जल्दी ही इसने टेलीकाॅम क्षेत्र की बड़ी खिलाड़ी हुवाई सहित कुछ चीनी कंपनियों को अपनी परामर्श सेवाएं देनी शुरू कर दीं.
राडिया की इस अचानक बड़ी छलांग और सिंगापुर की उनकी कई यात्राओं ने कई लोगों का ध्यान उनकी तरफ खींचा. बताया जाता है कि बड़े नकद सौदों में से कुछ को उनके नाम से मिलते-जुलते कोड के साथ किया गया था. उनकी अबाध उन्नति ने बहुतों को हैरान भी किया. उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज लि. (आरआईएल) का काम संभाला तो अपने संपर्कों की बदौलत मुकेश अंबानी को करोड़ों का अप्रत्याशित लाभ करवा दिया. आरआईएल का काम संभालने के लिए राडिया ने न्यूकॉम बनाई. अब भारत के दो सबसे बड़े उद्योगपति उनके पास थे, जिनसे उन्हें चर्चाओं के मुताबिक 100 करोड़ रु सालाना मिल रहे थे. राडिया ने इस क्षेत्र में काम शुरू करने के छह साल के भीतर ही हर स्थापित खिलाड़ी को मीलों पीछे छोड़ दिया था. जल्दी ही वे कॉरपोरेटों के लिए ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों को भी अपनी सेवाएं देने लगीं. तेलगू देशम पार्टी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उन लोगों में से कुछ हैं जिनके साथ राडिया ने करीबी से काम किया. कहा जाता है कि नैनो प्रोजेक्ट को बंगाल से गुजरात लाने में राडिया की भूमिका अहम थी.
अगर स्पेक्ट्रम घोटाला इतना बड़ा नहीं हुआ होता तो उनकी यह निर्बाध यात्रा निश्चित रूप से जारी रहती. मगर राडिया जिस कारोबार में हैं वहां टिके रहने के लिए नेताओं और कॉरपोरेट्स के विश्वास की जरूरत होती है. और ये दोनों इसमें पैसे के लिए आते हैं. इसके अलावा कोई भी ऐसे शख्स के साथ काम नहीं करना चाहता जिसकी छवि पर दाग लग चुका हो.

2जी स्पेक्ट्रम: 85 कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने को मंजूरी

Source: भास्कर न्यूज   |   Last Updated 05:42(14/12/10)
 
 
 
 
 
 
नई दिल्ली. केंद्रीय विधि मंत्रालय ने 2जी स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली 85 कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने को हरी झंडी दे दी है। इसके लिए इन कंपनियों के लाइसेंस हासिल करने के लिए आवश्यक मानदंडों का पालन न करने को आधार बनाया गया है। दूरसंचार मंत्रालय ने विधि मंत्रालय से पूछा था कि क्या 1.76 लाख करोड़ रुपए के घोटाले में कथित रूप से शामिल 85 कंपनियों के लाइसेंस निरस्त किए जा सकते हैं?

सूत्रों के अनुसार, विधि मंत्रालय ने लाइसेंस रद्द करने के दो आधार बताए लाइसेंस आवंटन के दिन तक कंपनियां बोली प्रक्रिया में शामिल होने की आवश्यक शर्र्तो पर खरी नहीं उतरती थीं। इन कंपनियों के पास पर्याप्त आधार पूंजी नहीं थी। विधि मंत्रालय ने इस संबंध में देश के अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती की सलाह भी मांगी थी। इधर, दूरसंचार मंत्रालय सभी 85 कंपनियों से पूछने जा रहा है, ‘क्यों न लाइसेंस रद्द कर दिया जाए?’ इन कंपनियों में कई रीयल एस्टेट कंपनियां भी शामिल हैं। दूरसंचार क्षेत्र में सेवा देने का उनका कोई अनुभव नहीं है।

राजा से पूछताछ नहीं करेगी एक सदस्यीय समिति

दूरसंचार मंत्रालय की ओर से लाइसेंस व स्पेक्ट्रम आवंटन में नीतियों के पालन की समीक्षा के लिए गठित एक सदस्यीय समिति के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश शिवराज वी पाटिल ने साफ किया है कि वह अपनी जांच के दौरान पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा को पूछताछ के लिए नहीं बुलाएंगे। यही नहीं, उन्होंने कहा कि न केवल राजा बल्कि वह किसी अधिकारी से पूछताछ नहीं करेंगे।

इसकी वजह यह है कि उनका काम नियमों के पालन की जांच करना है। पूछताछ का अधिकार उनके पास नहीं है। इधर, दूरसंचार सचिव आर चंद्रशेखर ने कहा है कि जिन कंपनियों को कैग ने अपनी रपट में अपात्र करार दिया है और जिन्हें सेवा शुरू न करने का आरोपी ठहराया है उन सभी कंपनियों को इस सप्ताह के अंत तक कारण बताओ नोटिस जारी कर दिए जाएंगे।

उन्होंने कहा कि इन कंपनियों को सोमवार देर शाम से नोटिस भेजने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। एक सदस्यीय समिति के प्रमुख पाटिल ने कहा कि वह 1999 की नई टेलीकॉम पॉलिसी के होते हुए वर्ष 2001 में सेलुलर टेलीकॉम मोबाइल सर्विस लाइसेंस लाने, दूरसंचार विभाग के अंदर 2001-09 के बीच लाइसेंस व स्पेक्ट्रम देने के मामले में अंजाम दी गई कार्रवाई में नियमों के उल्लंघन की समीक्षा करेंगे।

उनका कार्य यह देखना है कि किसी स्तर पर किसी के भी द्वारा नियमों की अवेहलना या उल्लंघन तो नहीं किया गया है। इसके लिए वह किसी भी अधिकारी या बाहरी विशेषज्ञ को बुला सकते हैं, उससे परामर्श ले सकते हैं। पाटील ने कहा कि हालांकि वह पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा या फिर उससे पूर्व के किसी भी दूरसंचार मंत्री को पूछताछ के लिए नहीं बुलाएंगे। यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

उनका कार्य फाइलों पर हुई लिखित कार्यवाही के माध्यम से किसी भी तरह की गलती पकड़ना है। जरूरत होने पर वह फाइलों पर लिखी टिप्पणी को जानने के लिए किसी भी अधिकारी को तलब कर सकते हैं। पाटील ने कहा कि वह कोशिश करेंगे कि वह अपनी रपट जल्द दे दें। उन्हें उम्मीद है कि वह एक महीने में अपनी रपट दे देंगे लेकिन जरूरत होने पर दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल उनका कार्यकाल बढ़ा सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने मांगी राडिया के खिलाफ शिकायत की कॉपी

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार से उस शिकायत की कॉपी मांगी है, जिसके आधार पर कापरेरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के फोन टेप किए गए। नवंबर 2007 में मिली इस शिकायत की कॉपी सीलबंद लिफाफे में मांगी गई है। जस्टिस जीएस सिंघवी व एके गांगुली की बेंच ने यह निर्देश अटॉर्नी जनरल को दिए हैं। बेंच सोमवार को टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

इस याचिका में रतन टाटा ने राडिया से उनकी बातचीत के प्रकाशन पर रोक लगाने की मांग की है। कोर्ट ने टाटा को एक और हलफनामा प्रस्तुत करने और सरकारी हलफनामे का जवाब देने की अनुमति भी दी है। इसके लिए जनवरी 2011 के पहले सप्ताह तक का समय दिया गया है।

बेंच ने बताया कि दो पत्रिकाएं ‘ओपन’ और ‘आउटलुक’ अगले तीन सप्ताह में अपना जवाब पेश करें। मामले की अगली सुनवाई अगले साल 2 फरवरी 2011 होगी। इधर, आउटलुक के वकील अनिल दीवान व ओपन के वकील राजीव धवन- ने टाटा की याचिका को चुनौती दी है। उनका कहना था कि याचिका जनहित की बजाय व्यक्तिगत हित में है। दीवान ने कहा कि प्रेस को किसी भी भ्रष्टाचार को उजागर करने का पूरा अधिकार है। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा हर कीमत पर की जानी चाहिए।

टाटा के वकील हरीश साल्वे ने कहा कि कोर्ट को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी नागरिक की निजता व सम्मान की रक्षा के बीच संतुलन बनाना चाहिए। इस पर बेंच ने कहा, ‘सम्मान का अधिकार सबसे मूल्यवान है। इसकी रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए।’

उधर, अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती ने बताया कि इस मामले में सीबीआई कोई हलफनामा पेश नहीं करेगी। पिछले सप्ताह केंद्र सरकार ने एक हलफनामा पेश कर सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि एक शिकायत के बाद 2007 में राडिया के फोन टेप करने शुरू किए गए थे। शिकायत मिली थी कि राडिया मात्र 9 साल में 300 करोड़ रुपए का बिजनेस खड़ा कर चुकी है। उस पर विदेशी एजेंट होने और देशविरोधी गतिविधियों में शामिल होने का भी आरोप था।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

OBC OF INDIA: SC ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर उठाए सवाल

OBC OF INDIA: SC ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर उठाए सवाल

SC ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर उठाए सवाल

डॉ.लाल रत्नाकर 
भारत कि न्यायिक व्यवस्था जिस कदर उलझी हुयी है उससे हमें लगातार यैसे सवालों से जूझना पड़ रहा है, जिससे पूरी दुनिया  कि नज़रों में यहाँ कि क़ानूनी हरकतें मानवीय वसूलों को हिलाकर रख देती है, यह काम जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश करते या करवाते है तब और बड़ी बिडम्बना होती है.
अमर उजाला से साभार -
(SC ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर उठाए सवाल 
नई दिल्ली।Story Update : Saturday, November 27, 2010    1:44 AM
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि हाईकोर्ट में वाकई कुछ साफ-सफाई की जरूरत है। वहां कुछ गड़बड़ है। सर्वोच्च अदालत ने हाईकोर्ट की एकल बेंच के आदेश को रद्द करते हुए कुछ न्यायाधीशों की ईमानदारी पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की बेंच ने कहा कि विलियम शेक्सपीयर ने ‘हेमलेट’ में कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ गड़बड़ है। उसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ गड़बड़ है। बेंच ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से कहा कि जिन न्यायाधीशों को वह सुधार नहीं सकते, उनके तबादले की सिफारिश समेत कुछ कठोर उपाय करें क्योंकि हाईकोर्ट में वाकई साफ-सफाई की जरूरत है। कोर्ट ने 12 पन्नों के आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के रिश्तेदारों से घिरे होने (अंकल जज सिंड्रोम) का इशारा करते हुए टिप्पणियां की हैं। ‘अंकल जज सिंड्रोम’ के तहत न्यायाधीश उन पार्टियों के पक्ष में अनुकूल आदेश पारित कर रहे हैं जिनका प्रतिनिधित्व उनकी पहचान वाले वकील कर रहे हैं।

आम आदमी का विश्वास हिल जाएगा
हाईकोर्ट की राकेश शर्मा की एकल बेंच के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गहरी नाराजगी जताई। एकल बेंच ने बहराइच जिले के वक्फ बोर्ड से कहा था कि वह इस साल मई-जून में होने वाले मेले के दौरान अपनी भूमि का एक हिस्सा सर्कस मालिक को शो दिखाने के लिए अस्थायी तौर पर आवंटित करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे स्तब्धकारी आदेशों से आम आदमी का विश्वास हिल जाएगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों की ढेरों शिकायतें मिल रही हैं। कुछ न्यायाधीशों के पुत्र और रिश्तेदार लखपति हो गए हैं। अब वे दिन नहीं रहे जब न्यायाधीशों के पुत्र और अन्य रिश्तेदार अपने संबंधों का फायदा नहीं उठाते थे और किसी भी अन्य वकीलों तरह बार में संघर्ष करते थे। वैसे, बेंच ने कहा कि हमारे कहने का यह आशय नहीं है कि सभी वकील जिनके हाईकोर्ट के न्यायाधीशों से करीबी संबंध हैं, अपने संबंधों का दुरुपयोग कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की खरी-खरी
* शेक्सपीयर ने ‘हेमलेट’ में कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ गड़बड़ है। उसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ गड़बड़ है।
* हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जिन न्यायाधीशों को सुधार नहीं सकते, उनके तबादले की सिफारिश समेत कुछ कठोर उपाय करें क्योंकि वाकई साफ-सफाई की जरूरत है।
* कुछ न्यायाधीशों के बारे में ढेरों शिकायतें मिल रही हैं। कुछ के पुत्र और रिश्तेदार लखपति हो गए हैं। उनका बैंक बैलेंस काफी बढ़ गया है। )

कौन है संसद से शक्तिशाली

जातिवादी वर्चस्व के आगे संसद की भी नहीं चलती!

by Dilip Mandal on 26 नवंबर 2010 को 11:34 बजे






(26 नवंबर, 2010 को जनसत्ता के संपादकीय पेज पर प्रकाशित)

-दिलीप मंडल
आजादी के बाद भारत ने राजकाज के लिए संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को चुना और इस नाते देश के लोगों की  इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख मंच हमारे देश की संसद है। जनता द्वारा सीधे चुने प्रतिनिधियों की संस्था होने के नाते लोकसभा को संसद के दोनों सदनों में ऊंचा दर्जा हासिल है। इस देश पर वही सरकार राज करती है, जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन हासिल हो। ऐसे देश में पिछले बजट सत्र में जनता के प्रतिनिधियों ने आम राय से जिस बात का समर्थन किया था, उसे शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले पलट दिया जाए, तो इस पर चिंता होनी चाहिए।

संसद के बजट सत्र में लोकसभा में इस बात पर आम सहमित बनी थी कि 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल किया जाए। लोकसभा में ऐसे विरल मौके आते हैं जब पक्ष और विपक्ष का भेद मिट जाता है। जनगणना में जाति को शामिल करने को लेकर लोकसभा में हुई बहस में यही हुआ। कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही वामपंथी दलों और तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों ने इस बात का समर्थन किया कि जनगणना में जाति को शामिल करना अब जरूरी हो गया है और मौजूदा जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए। संसद में हुई बहस के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि लोकसभा की भावना के मुताबिक कैबिनेट फैसला करेगी। उनकी इस घोषणा का लोकसभा में जोरदार स्वागत हुआ और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया। इस घोषणा के लिए तमाम दलों के सांसदों ने प्रधानमंत्री और यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गांधी की जमकर वाहवाही की।
लेकिन बजट सत्र के बाद और शीतकालीन सत्र से पहले ऐसा कुछ हुआ कि 2011 की जनगणना से जाति को बाहर कर दिया गया। यह शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि लोकसभा में बनी आम राय को बदलने के  लिए परदे के पीछे क्या कुछ हुआ होगा। प्रधानमंत्री की लोकसभा में घोषणा के बाद इस मामले पर विचार करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों की एक समिति गठित की गई, जिसके अध्यक्ष वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बनाए गए। जिस सवाल पर लोकसभा में आम सहमति हो और प्रधानमंत्री जिसके लिए सदन में आश्वासन दे चुके हों, उस पर पुनर्विचार के लिए मंत्रियों की समिति गठित करने का निर्णय आश्चर्यजनक है। इस समिति की सिफारिशों के बाद कैबिनेट ने यह फैसला किया कि फरवरी, 2011 से शुरू होने वाली जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा बल्कि उसी वर्ष जून से सितंबर के बीच जाति की अलग से गिनती कर ली जाएगी।

इस फैसले में सबसे बड़ी प्रक्रियागत खामी यह है कि जिस बात को लेकर चर्चा संसद में हुई हो और जिस तरह की सहमति बनी हो, उसे पलटने का फैसला कैबिनेट ने उस दौरान किया, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा था। अगर यही फैसला करना था कि जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा, तो फिर इसके लिए किसी भी तरह की जल्दबाजी नहीं थी। आजादी के बाद से ही भारत में जाति का प्रश्न जोड़े बगैर जनगणना होती रही है और जनगणना के मामले में यथास्थिति को बनाए रखने यानी जैसी जनगणना होती रही है, उसे जारी रखने की घोषणा करने के लिए संसद के दो सत्रों के बीच का समय किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अगर यह घोषणा संसद के बजट या शीतकालीन सत्र के दौरान होती तो सांसदों के पास यह मौका होता कि वे इस पर फिर से विचार करते। अगर कैबिनेट की यही राय थी कि जनगणना के बारे में फैसले को तत्काल घोषित करना आवश्यक है तो इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का विकल्प भी था।

संसद में इस फैसले की घोषणा न करने से यह संदेह पैदा होता कि है कि इस सवाल पर कुछ पर्दादारी थी। जनगणना से जाति को अलग करने का फैसला 9 सितंबर, 2010 को घोषित किया गया। ठीक इसके बाद देश के उन इलाकों में जनगणना शुरू हो गई, जहां सर्दियों में बर्फ गिरती है। मिसाल के तौर पर हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में जनगणना सितंबर महीने में कर ली गई। यानी कैबिनेट ने जनगणना के बारे में फैसला इस तरह किया गया कि संसद को इस फैसले को सुधारने या फिर से विचार करने का मौका न मिले। शीतकालीन सत्र में अगर कैबिनेट के फैसले को बदलने पर विचार होता भी है तो यह एक विचित्र स्थिति होगी क्योंकि उस समय तक कई जिलों में जनगणना संपन्न हो चुकी होगी। सरकार के सामने यह विकल्प था कि वह बर्फबारी वाले जिलों में जनगणना का काम बर्फ पिघलने के बाद कराती। यह इसलिए भी सही होता क्योंकि जाति आधारित जनगणना पर विवाद चल रहा है और इस सवाल पर लोकसभा एक अलग नतीजे पर पहुंची थी।

जाति जनगणना के प्रश्न पर सरकार जिस तरह से लगातार व्यवहार करती रही है, उसकी वजह से संदेह का वातावरण बन गया है। मई महीने में केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जाति आधारित जनगणना के खिलाफ यह तर्क दिया था कि जनगणना की शुचिता को बनाए रखना आवश्यक है। इस बाद संसद में चर्चा के दौरान उन्होंने जनगणना महानिदेशक के हवाले से कहा कि सभी जातियों की गिनती में कितनी जटिलताएं हैं। जबकि जनगणना महानिदेशक पहले ही कह चुके हैं कि अगर सरकार इस बारे में फैसला करती है तो उनका कार्यालय जाति आधारित जनगणना करा सकता है। वैसे भी 1941 तक देश में सभी जातियों की गिनती होती रही है और अब तो आधुनिक तकनीक और कंप्यूटर का जमाना है। लोकसभा में आम राय बनने और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मंत्रियों का समूह यह सुझाव देता है कि जातियों की गिनती बायोमैट्रिक डाटा संकलन के दौरान करा ली जाएगी। जब संसद में इस बात पर हंगामा मचता है कि इस तरह जाति के आंकड़े आने में कम से कम 20 साल लगेंगे तो सरकार इस प्रस्ताव को वापस ले लेती है। और आखिरकार कैबिनेट यह तय करती है कि जनगणना से जाति को बाहर रखा जाएगा और जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जातियों की अलग से गिनती करा ली जाएगी।

बायोमैट्रिक जाति गणना की तरह ही अलग से जाति गणना का फैसला भी निरर्थक है। अलग से जाति गिनने पर सरकार लगभग 2,000 करोड़ रुपए खर्च करने वाली है। इस फैसले की सबसे बड़ी खामी यह यह कि अलग से जातियों की गिनती करने से सिर्फ यह जानकारी मिलेगी कि इस देश में किस जाति के कितने लोग हैं। यह आंकड़ा राजनीति करने वालों के अलावा किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है। जनगणना से दरअसल यह आंकड़ा सामने आना चाहिए कि किस जाति की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है। इस जानकारी के बगैर सिर्फ यह जानकर कोई क्या करेगा कि विभिन्न जातियों की संख्या कितनी है। आर्थिक-शैक्षणिक स्तर की जानकारी देश में विकास योजनाओं को बनाने का महत्वपूर्ण आधार साबित होगी। इससे यह पता चलेगा कि आजादी के 63 साल बाद किस जाति और जाति समूह ने विकास का सफर तय किया है और कौन से समूह और जातियां पीछे रह गई हैं। इस तरह मिले आंकड़ों के आधार पर खास जातियों और समूहों के लिए विकास और शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। आरक्षण प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग में शामिल होने या किसी समुदाय को आरक्षित समूह की सूची से बाहर करने की मांग को लेकर हुए आंदोलनों की वजह से इस देश में काफी खून बहा है। जनगणना में जाति को शामिल करने से जो आंकड़े सामने आएंगे, उससे इस तरह के सवालों को हल किया जा सकेगा। इस मायने में जनगणना से बाहर जाति की किसी भी तरह की गिनती बेमानी है।

अलग से जाति गणना में कई और खामियां भी हैं। मिसाल के तौर पर, इस वजह से देश के राजकोष पर 2,000 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा। देश में जनगणना के लिए अलग से कानून है। अलग से जाति की गणना के लिए कानूनी प्रक्रिया तय करनी पड़ेगी। जनगणना कानून की वजह से लोग बिना किसी हिचक के जानकारियां देते हैं, क्योंकि जनगणना अधिकारी को दी गई निजी सूचनाओं को सार्वजनिक करने पर रोक है। कानूनी तौर पर ऐसी पाबंदी के बिना जाति की गिनती कराने पर सही जानकारी देने में लोग हिचक सकते हैं। जनगणना में देश के लगभग 25 लाख सरकारी शिक्षक शामिल होगें और इस प्रक्रिया में तीन हफ्ते से ज्यादा समय लगेगा। जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जाति गणना के लिए शिक्षकों को इससे भी ज्यादा समय के लिए स्कूलों से दूर रहना होगा। सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा पर इसका बुरा असर पड़ेगा। और फिर सवाल उठता है कि अलग से जाति गणना क्यों। इस तरह अलग से गिनती कराने से जातियों से जुड़े आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े नहीं आएंगे। स्पष्ट है कि अलग से जाति की गणना कुछ जानने के लिए नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण आंकड़ों को छिपाने के लिए की जाएगी। 2,000 करोड़ रुपए का खर्च इसलिए होगा ताकि जातियों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां छिपी रहें जबकि उद्देश्य अगर सूचनाएं जुटाना है, तो इसके लिए कोई खर्च नहीं करना होगा। 2011 के जनगणना फॉर्म में जाति का एक कॉलम जोड़ देने से जातियों की संख्या भी सामने आ जाती और उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति भी।

लेकिन सरकार नहीं चाहती कि ये आंकड़े सामने आएं। इसलिए जनगणना में जाति को शामिल करने की जगह जनगणना से जाति को अलग कर दिया गया। यह सब लोकसभा में बनी सहमति का निरादर करके किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि इस देश में आखिर वह कौन सी सत्ता है जो देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की अनदेखी कर सकती है। कहीं यह भारतीय समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था तो नहीं, जिसके आगे संसद की भी नहीं चलती? 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

नई आजादी की जरूरत

( दैनिक  भाष्कर से साभार )


‘आज से आठ दशक और सात साल पूर्व हमारे पूर्वजों ने हमारे इस महादेश में निर्माण किया था एक नए देश का। निर्माण किया था उसका एक खुली आजादी के माहौल में, यह मानते हुए कि हर इंसान हर दूसरे इंसान के बराबर है। कोई भी व्यक्ति किसी से ऊंचा नहीं और ना ही किसी से कोई नीचा है।

‘और अब हम, उस ही देश की नस्ल, भिड़े हुए हैं एक-दूसरे से एक घमासान जंग में, जो कि यह फैसला कर दिखाएगी कि यह देश या फिर ऐसा कोई भी देश, ऐसी बेहतरीन सोच और ऐसे संकल्प वाला देश, बरकरार रह सकता है भी या नहीं। 

हम यहां उस ही जंग-ए-सीने के एक ऐसे हिस्से पर जमा हुए हैं। हम यहां जमा हुए हैं उस रण-खेत के एक टुकड़े को उन्हें मखसूस करने, उनको समर्पित करने, जिन्होंने अपनी जान दे दी ताकि हमारा यह देश जीता रहे। यह बिल्कुल लाजमी है कि हम यह समर्पण-क्रिया करें।

‘लेकिन अगर हम अपनी नजर और आगे डालें, तो हम साफ देख पाएंगे कि मखसूस हम नहीं कर सकते, समर्पण हमसे नहीं हो सकता, इस जमीन को मुकद्दस करना हमारे हाथों की ताकत से परे है। यह काम वह बहादुर नौजवान और शहीद खुद कर चले हैं, यहां इस रण-खेत में अपनी जद्दोजहद से, अपनी जांफिशानी से। 

उस महान स्वयं-समर्पण में, उस संकल्प के यज्ञ में, हमारी अदना ताकत से ना कुछ जोड़ा जा सकता है, ना ही कुछ घटाया जा सकता है। दुनिया ना तो गौर करेगी और ना ही इस बात को याद रखने की कोशिश कि हमने यहां आज क्या कहा या नहीं कहा। 

लेकिन, बशर्ते, तवारीख वो कभी ना भूलेगी जो उन बहादुरों ने यहां कर दिखाया है। समर्पण उनको या उनके लिए नहीं। बल्कि आज समर्पित होना है हमको, जो उनकी कुर्बानी की वजह से जिंदा हैं, उनके बाकी काम को पूरा करने के लिए, उस काम को आगे ले जाने के लिए, जो कि हमारे सामने वे छोड़ गए हैं। 

आज हमें उन सम्मानित वीरों से वह प्रेरणा लेनी है, वह जांनिसारी हासिल करनी है, जिसके लिए उन्होंने अपनी जानें न्यौछावर करी हुई हैं। और आज, अब हमें यह प्रतिज्ञा लेनी है और जमाने को यह इत्तेला देनी है कि उन वीरों की शहादत कभी भी बेफल नहीं होगी, और परमात्मा के मेहर से हमारा देश एक नई आजादी हासिल करेगा और हमारा यह इंतजाम, अवाम का, अवाम से और अवाम ही के लिए बना हुआ यह इंतजाम दुनिया के चेहरे से कभी ना मिटेगा।’

यह ऐतिहासिक भाषण अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने 19 नवंबर, 1863 को गेटिसबर्ग में अमेरिकी गृहयुद्ध में मारे गए सैनिकों की स्मृति में निर्मित सोल्जर्स नेशनल सीमेट्री राष्ट्र को समर्पित करते समय दिया था। क्या वजह है कि दशकों बीत जाने के बाद भी दुनियाभर के लोगों पर यह उद्बोधन गहरा प्रभाव डाले हुए है?

अगर केवल टैक्स्चुअल स्तर पर ही बात करें तो यह भाषण वाक्यों की सरलता और संक्षिप्तता की एक मिसाल है। इसे याद करना सरल है और इससे भी ज्यादा सरल है इसका पाठ करना, जो बताता है कि यह भाषण संक्षिप्त होने के साथ ही कितना लयपूर्ण भी है। इस लयात्मकता को यहां खास तौर पर नपे-तुले दोहराव के साथ अर्जित किया गया है। लिंकन ने यहां ‘देश’ शब्द को कई बार दोहराया है। 

एक अर्थ में यह शब्द स्पीच का ‘स्थायी’ बन गया है। उसकी टेक। इसी तरह ‘समर्पण’ और ‘कुर्बानी’ शब्द भी कई बार आए हैं। ये तीन शब्द इस समूची स्पीच की त्रयी हैं। इन्हीं तीन शब्दों की ठोस बुनियाद पर लिंकन अपने उद्बोधन की ताकत को स्थापित करते हैं। 

अंतिम वाक्य में, जो कि सबसे कठिन वाक्य भी है, भाषण का सबसे सुविख्यात और बार-बार दोहराया गया एक और शब्द आता है : ‘अवाम’। लेकिन यह सब महज एक रूखा-सूखा विश्लेषण है। लिंकन का भाषण कोई ऐसा पाठ नहीं है, जिसका साहित्यिक युक्तियों या प्रभावों के आधार पर विश्लेषण किया जाए। यह एक जीवित, धड़कता हुआ उद्बोधन है, जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है।

लिंकन का यह वाक्य कि ‘हर इंसान दूसरे इंसान के बराबर है’ अमेरिकियों को जैफरसन के जमाने से ही याद था। इसे उन अमेरिकियों ने संजोकर रखा, जो यह मानते थे कि हब्शी दास भी मनुष्य हैं, जबकि जो ऐसा नहीं मानते थे, वे इस विचार से नफरत करते थे।

जब लिंकन ने इस विचार और इस विश्वास का आह्वान किया तो वे वही बात कर रहे थे, जो पहले भी सभी के द्वारा सुनी जा चुकी थी। एक जानी-पहचानी ध्वनि को उसकी लय में सुनना अच्छा लगता है, लेकिन इसके बाद लिंकन ने जो किया, वह पूरी तरह अनपेक्षित और अलग था।

मैंने उन तीन शब्दों का उल्लेख किया है, जो पूरे उद्बोधन में बार-बार आए हैं। देखा जाए तो वे अपने आपमें मामूली शब्द हैं। लेकिन एक और शब्द है (और वह भी इतना ही मामूली है) जिसका उपयोग लिंकन ने अपने उद्बोधन में दो बार प्रभावशीलता के साथ किया है। 

यही वह शब्द है, जिस पर लगभग ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन जिसके कारण ही गेटिसबर्ग में नवंबर की उस शाम लिंकन द्वारा दिया गया भाषण इतना महत्वपूर्ण बन गया है। यह शब्द है : ‘नया’। यह भाषण के पहले और अंतिम वाक्य में आता है। पहले वाक्य में यह शब्द बिल्कुल आमफहम तरीके से आता है, लेकिन अंतिम वाक्य में यह शब्द लगभग जादुई बन जाता है। ‘..और यह कि हमारा यह देश, इर्श्वर की अनुकंपा से एक ‘नई आजादी’ को हासिल करेगा।’

और चूंकि हर युग में, हर समाज और हर देश ने एक ऐसी स्वतंत्रता को जाना है, जो केवल इसीलिए प्राप्त होती है कि एक वक्त के बाद वो कहीं खो जाए, जो केवल इसीलिए हासिल की जाती है कि बाद में उस पर बदनुमा दाग लग जाएं, कुछ लोग उस आजादी का मजा लें और बाकी लोग उससे महरूम रहें, और चूंकि इतिहास के हर काल और दुनिया के हर कोने में लोग इस बात के साक्षी रहे हैं कि जिन लोगों पर उन्होंने भरोसा किया था, वे ही अत्याचारी बन जाते हैं और जिन लोगों को उन्होंने अपना प्रतिनिधि समझा था, वे ही निरंकुश शासक हो जाते हैं, इसीलिए यह मनुष्य के मन की गहनतम अभिलाषा रही है कि वह एक ‘नई आजादी’ को हासिल करने की कोशिश करे।

जब तक इस दुनिया में ऐसे लोग हैं, जिन्हें ‘नई आजादी’ की जरूरत है, तब तक अब्राहम लिंकन द्वारा एक सौ सैंतालीस साल पहले कहे गए ये शब्द उन्हें रोमांचित करते रहेंगे और हमारे मन पर अमिट छाप छोड़ते रहेंगे। -लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...