सोमवार, 23 अगस्त 2010

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विचार
पिछड़ों के सबसे बड़े दुश्मन "पिछड़े"
डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल भारत जैसे विशाल देश में पिछड़ों की विशाल आवादी की आज जो वास्तविक स्थिति है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदारी यदि किसी पर जाति है तो वह पिछड़ों की ही बनती है, क्योंकि सबसे अधिक अत्याचार इन्हें ही सहना पड़ता है यदि कोई इसमे आगे आता है तो वह भी पिछड़े ही पर जो आगे आता है सबसे पहले पिछड़े ही उसका साथ छोड़ जाते है यही नहीं दोषी भी उसे ही बनाते है, आपको एइसा नहीं करना चहिये, विरोध करने का तरीका ठीक नहीं था, क्या जरुरत थी हम भी समझ रहे थे की वह गलत है, पर विरोध का यह तरीका ठीक नहीं.
अदभूद तरीके से सदियों से इन्ही पिछड़ी जातियों का विरोध किया जा रहा है जिसे पिछड़ी जातियां रोज रोज भूल रही है, कभी "अहीर - गडेरी, कभी कुर्मी- काछी,कभी नाई- लोहार, कभी मुराई - मल्लाह, कभी तेली - तमोली -  बनिया - गुजर आदि आदि यह सब कहने वाले जब जबाब पाते है तो उन्हें बहुत ख़राब लगता है, नाना प्रकार के उदाहरणों से जातीय उदगार जो तकलीफ देता है उसको सहना लगभग उनका स्वभाव बन गया है. पर इन्ही पिछड़ी जातियों के अपमानों का जो सबसे ज्यादा प्रतिकार करता है उसे इस कदर बदनाम कर दिया जाता है यथा - यादव तिकड़ी 'मुलायम -लालू -शरद ' यही नहीं क्षेत्रीय स्तर पर अन्य प्रभावशाली पिछड़ी जातियों की भी यही गति की जाति है कुल मिलाकर  जहाँ ये जातियां आर्थिक रूप से समृद्ध है वहां भी सामाजिक तौर पर उन्हें अपमानित करने के हथकंडे निरंतर अख्तियार किये जाते है.
अभी अभी इन पिछड़ों में शरीक किये गए 'जाटों' का तो कुछ अलग ही राग का अलाप है, और तो और वे अभी तथाकथित उनके अपने जातीय दुश्मन के साथ परंपरागत पिछड़ों का गला काटने को तैयार बैठे हैं. हाँ इनका एक अलग जीवन यापन के तरीके रहे है जिनकी वजह से वह अधिकाधिक लूट में शरीक रहते है . यही कारण है यह लाभ तो जातीय वजह से पिछड़ा होने के नाते सबसे ज्यादा उठा रहे है और उन्हें पिछड़ों में डालने वालों की मंशा भी यही थी . 
अगर हम इनसे आगे बढ़ते है और उनको याद करते है जिनकी वजह से यह सब हो रहा उसमे सर्वाधिक पिछड़े राजनीतिज्ञों , बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों का हाथ है .
यथा हम यह कह सकते है की सामाजिक न्याय के जिन पुरोधाओं के चलते सामाजिक बदलाव का दौर शुरू हुआ था क्या उनके बताये रास्ते को कोई अख्तियार किया   यदि नहीं तो क्यों ? यह एक जटिल सवाल है जिसका जवाब देने से पहले सारे  पिछड़े राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों को अपना दामन देखना होगा, एक दूसरे पर हमला बोलने के सिवा किया ही क्या है हमारे कर्ण धारों ने, न ही उन्होंने कोई नीति बनाई और न ही ऐसे स्कूल बनाये जहाँ से पिछड़ों के विकास के मार्ग प्रशस्त हो सके , उन्ही धाराओं के सहारे उन्ही के बताये रास्तों से उन्ही की देखा रेख में बदलाव की कामना करना तड़पती दोपहरी में तारे देखने जैसा ही है. 
चाहे सवाल किसानों का हो मजदूरों का हो या माध्यम वर्ग के कर्मचारियों का हो, उनके लिए जिस तरह की नीति बनानी चहिये थी वह बनाने में किसी की रूचि नहीं रही है और न ही आगे है, सवाल खड़ा होता है वह एजेंसी ही नहीं है. यह बात ठीक भी है पर येसा नहीं है की पिछड़े और दलितों के बीच एसे लोग नहीं है, हैं पर ईमानदारी और हरिश्चंद्र के पुतले है उन्हें जब मौका मिलता है तब वह इतने ईमानदार बनने का प्रदर्शन करते है.
जिसमे वह ईमानदारी के बदले उनकी वफ़ादारी में सारा समय निकाल देते है, और ये वफादार यह शांत पर भितरघात से सारा खेल ख़राब कर देते है, जब तक यह पिछड़े राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले समझें तब तक सत्ता के चतुर 'चूहे' सारा गोदाम क़तर जाते है वह चाहे वोट का गोदाम हो या सत्ता का, समृद्धि आते ही दुर्बुद्धि स्वतः आ जाती है. 
सदियों  के इस खेल से क्या हम कोई सबक ले रहे है, हिंदी भाषी प्रदेशों के बड़े आन्दोलनों की मलाई खाने वाले कौन है ? यदि आप को इसकी जानकारी नहीं है तो सी.बी.आई. की फाइलों में देख लीजिये आय से अधिक संपत्ति के मामले किन किन पर चल रहे है, पत्रकारों को बांटे गए कोष में कितने पिछड़ों को उसमे मिला है . यही नहीं समग्र पिछड़े आन्दोलनों के संचालकों के बंश से किसको राज्य सभा और विधानपरिशदों में भेजा गया पर उसकी मलाई खाने वालों का पूरा का परिवार उक्त सदनों की शोभा बढ़ा रहे है या घटा रहे है .
ये वही तथाकथित पिछड़े है जो आज पिछड़ों के भगवान बन बैठे है,
क्रमश :...........................
     

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