रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय

सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय :

हज़ारों वर्षों से भारत जिनसे मुक्त नहीं हो पा रहा है ?

(मनु स्मृति अगर आपको लग रहा है की संसद में जो नाटकीय रोल आप अदा कर रही हो, वह किसी देश की शिक्षामंत्री का नहीं, निहायत वेवकूफ घमंडी "बहु" का तो हो सकता है वास्तव में आप हो तो नाटक या सीरियल वाली ही न ! जिस तरह से महिषसुर प्रकरण पर आप आप अपना बयांन दे रही हो, संयोग से आपको जबाब नहीं दिया जा सका तो इसका यह मतलब नहीं की आप स्वयं "दुर्गा" हो गयीं ! सेक्स वोर्केर(वेश्याएं) हिंदुस्तान की सच्चाई है, पौराणिक काल की और झाँकेंकेंगी तो स्त्रियों की और बुरी हालत इन मनुवादियों ने प्रस्तुत की है विष कन्याएं (विष पुरुष) का संदर्भ कहीं नहीं आता है ! महिषासुर आपको समझ नहीं आएगा क्योंकि आपको दलित,पिछड़ा पुरुष पुरुष नहीं दीखता, स्मृति जी आप उसी दलित, पिछड़े, कुरूप चायवाले प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मंत्री हैं जिसके खिलाफ आप पहले भी बोल चुकी हैं, आप आइये अमेठी आपको पता चल जाएगा की महिषासुर असुर है या सुर या किसान का बहादुर नेता, उसके राज्य में भी मनुवादी आहत थे तब जिस वेश्या ने उसके साथ विश्वासघात किया हो (था थीं) उसे आप "दुर्गा" कहकर पूज्यनीय बनाती हैं, वह इन्हे कैसे पूज्य बना सकती या सकता हैं जिसके कुल का वह राजा रहा हो ! 

परम्पराओं के पाखण्ड ने हज़ारों सूरमाओं को नस्नाबूत किया है आप जैसी अपढ़ मंत्री जो उस मास्टरनी सी भी नहीं दिखती जो आजकल स्कूलों में केवल स्वेटर बनाने जाती है, आप जवाहर लाल विश्वविद्यालय को सचमुच "सास कभी बहु थी" से आगे ले जाने की नहीं सोच सकती हो !)


ताकि सनद रहे !
इस बात को तो गारंटी से कह सकता हूँ की अखिलेश जी को "ब्राह्मणवाद" चट गया है ? मुसलमान का वोट बचाने के चक्कर में गठबंधन की मलाई कांग्रेस ले गई और इनके लोग रह गए खाली समाजवादी ?
यह बात तो सही होने जा रही है जिसने भी लिखा है कि "मंडल साहब चिंता इस बात की है जब मालूम था कि भाजपा ध्रुवीकरण पर ही उतरेगा तो उससे निपटने की तैयारी क्यों नही की गयी। अब तो "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" दोनो की टीम करोड़ों लेकर काम कर रही है। 
क्या काम किया इनने। 
गैर यादव ओबीसी बुरी तरह से सांप्रदायिक कर दिया गया है। 
बसपा की बुरी हालात हो रही है।" 
और लगभग गैर जाटव / चमार भी सांप्रदायिक हो गया है।
आपको याद् है कभी मुलायम सिंह यादव या कांशीराम ने इस तरह की एजेंसियों का सहयोग चुनाव के लिए लिए थे ?

बुजुर्गों का कहना है "ये लौंडे हैं दो के दोनों " इन्हें हर बात में विज्ञापन नज़र आता है, इन्हें कौन बताये यह हिंदुस्तान है। कांग्रेस की बात अलग है वह तो हमेशा इस तरह के प्रयोग करती रही है राजीव गांधी को बड़ी-बड़ी एजेंसीयों चुनाव प्रचार में सहयोग करती थी और जिनके चलते कांग्रेस जमीन से ही उखड़ गई है यह बात अखिलेश जी को किसी ने नहीं बताया ऐसा मुझे प्रतीत होता है क्योंकि ब्राह्मण विरोध की राजनीति प्रचार एजेंसीयों से नहीं हुआ करती क्योंकि दुनिया भर की प्रचार एजेंसीयों ब्राह्मणवाद की संवाहक हैं और यह ब्राह्मणों के लिए ही ज्यादा मुफीद होती हैं।
यहाँ यह कहना उचित होगा कि अभी उत्तर प्रदेश और बिहार में मामूली अंतर नहीं है "पीकेयूआ" नितीश को तो उल्लूएय बना देता लालू जी का भला हो बचा लिए और ससुरा बड़का इन्तज़ामकर होईगवा है, और ई यूपी में बेचारा फस गया है ? अब यहाँ कौनो न तो लालू है और न नितीश ?
भाई शिवपाल जी के बारे में कहा जा रहा की उन्हें हटाने में ऊपर वाली एजेंसीयों का बड़ा हाथ है काहे को कि उनके रहते हैं शायद इतना खेला ना हो पाता इसीलिए पहले उनको ही हटवाया अब ऐसी स्थिति में उनको भी बहन जी में ज्यादा विश्वास नज़र आ रहा है, क्योंकि जिस पी आर कंपनी ने उन्हें खाली करवा दिया उसका श्रेय है "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" को ?
तो वह अब कुछ न कुछ तो करेंगे ही ? क्योंकि वे देशी तरीके के नेता हैं और नेता जी का बरदहस्त भी है उन पर ? वैसे न जाने कैसे ये बन जाते हैं सामन्त और इन्हें लगता है देश ही इनका है ? जब अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया हो तो यह महत्वाकांक्षा और बलवती हो जाती है कि असली सामन्त यही हैं
जहां तक कांग्रेस के साथ जाने का सवाल है आज तक तो उनसे कोई 'उबरा' नहीं है ? वास्तव में इनका गठजोड़ क्या डूबते को तिनके का सहारा वाली कहावत चरितार्थ तो नहीं करेगा ? क्योंकि डर लग रहा है इससे की जो ये कंपनियां हैं "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" क्या पता बीजेपी के लिए भी काम न कर रही हों ? और इन्हें उल्लू बना रही हों ?
भाई सत्या सिंह के बहाने : आजकल बहुत सारे लोग अखिलेश जी के वफादार हो गए हैं और सरकारी एजेंसीयों के बजाए वही लोग मुख्यमंत्री और सरकार के बहुत सारे कामों का प्रचार कर रहे हैं ऐसे ही भाई सत्या सिंह हैं अभी हर जगह उनका लेखन पढ़ने को मिल जाता है और वह केवल सरकार के पाजिटिव पहलू पर ही नजर डालते हैं उसके नेगेटिव पहल उन्हें दिखाई नहीं देते मुझे लगा कि इन के बहाने सरकार के नेगेटिव पहलुओं को इन्हें बताया जाए।
भाई सत्या सिंह आप क्यों नहीं समझते हैं कि भारत जातियों का देश है और यहां जातीय आधार पर ही तमाम तरह की व्यवस्थाएं लागू हैं। जिनमें राजनीति एक अहम हिस्सा होकर जरूरी अंग है।
जब हम जात की बात कर रहे होते हैं तो अखिलेश उससे अछूते नहीं हैं किसने कहा अखिलेश यादव को कि वह जाति की बात ना करें ? जब कि जो लोग उनसे जितने लाभांवित हो रहे हैं उतना ही ज्यादा उन्हें यादव यादव कह कर प्रचारित करते हैं और यही कारण है कि आज उनके साथ अकेले यादव जाति ही खड़ी है और बाकी सारी उनकी जातियां अपना अपना काम करके (लूटपाट करके) चल बनी ? उनको भी यह पता था कि उनके लोग इन्हें वोट नहीं करेंगे इसीलिए जिसको जहां जाना था वहां चला गया है।
और आप अब छाती पीटते रहिये की अखिलेश जी ने जाती के आधार पर कुछ नहीं किया बल्कि सर्वजातीय बने रहे उनके इस प्रयास से कितना बदलाव हुआ है क्या कोई आंकड़ा है आपके पास ? इससे ना तो जातिवाद रुकने वाला है और न जातीय पहचान घटने वाली है ? क्या उन का प्रयास निरर्थक नहीं हुआ।
आश्चर्य होता है कि समाजवादी पार्टी ने जहाँ सारे मानदंडों को तोड़ते हुए पारिवारिक राजनीति में कदम रखा ? पिता ने अपने राजनीति के अनुभवहीन (समाजवादी राजनीती और सामजिक न्याय की अवधाराणा के सम्बन्ध में) पुत्र को प्रदेश की राजनीति का मुखिया बनाया ? जिसकी बार-बार प्रामाणिकता उन्होंने 5 वर्षों के शासन में वह स्वयं बीच-बीच में करते रहे हैं ! जिसको आप किसी भी तरह से भले देखें ? लेकिन नेता जी को इस बात का भान था कि उनका पुत्र उनकी बनाई हुई राजनीति को कहां ले जा रहा है इसको हम जिस रूप में भी देखें लेकिन नेताजी ने कई रूपों में देखा है। आपको याद होगा कि हमारे मुख्यमंत्री जी बिना असली चाचा के सरकार के आरंभिक दिनों में परेशान रहते थे और नाना प्रकार से अमर सिंह की याद उन्हें सताती रहती थी।
जब उनको अमर सिंह की असलियत पता चली तो फिर वह उनसे दूर होने का उपक्रम किए लेकिन इसका नुकसान यह हुआ कि उनका पूरा परिवार अमर सिंह के साथ चला गया और अपने अकेले बच गए ऐसा लगता है कि अमर का होना और ना होना कितना प्रभावी रहा यह हिसाब अलग से लगाना होगा क्योंकि अमर सिंह को यह अभिमान था कि उनके बगैर समाजवाद का कोई मायने नहीं होता और उन्होंने जो आदतें समाजवादियों में डाली वह इतिहास बन गई।
इस बात का तो हमलोगों को भी दिल ही दिल में बहुत खराब लगती थी की अमर सिंह जैसे व्यक्ति ने जमीन से जुड़े हुए लीडर को फाइव स्टार का शौकीन बना दिया था और पिछले पर में ही आम आदमी से उनका मिलना दूभर हो गया था और इस बात का बहुत दर्द पूरी अवाम को है !
एक ऐसा युवा जिसके सिंहासनारोहण के लिए उस समय फेसबुक पर हम भी लिख रहे थे और पूरी अपेक्षा थी कि पूरा समाज इसको बहुत ही बौद्धिक और वैचारिक तथा पौष्टिक तरीके से लेगा ? लेकिन हुआ क्या यह युवा 5 वर्षों तक सवर्णों के पीछे लगा रहा जैसे सत्ता उन्होंने ही इन्हें दी हो। जब की सच्चाई यह थी कि हाथी की मालकिन उसे अवाम नाराज थी उसे हटाना था इसलिए नेताजी को बहुमत मिला था और उन्होंने यह दायित्व अपने पुत्र को देकर पृष्ठभूमि में चले गए थे।
दूसरी और यह भी देखना है कि माननीय नेता जी स्वास्थ्य की दृष्टि से कितने भी उम्र के लिहाज से कमजोर या विक्षिप्त हो गए हैं। लेकिन पिता तो इन्हीं के हैं, चाचा तो इन्हीं के हैं, प्रोफेसर रामगोपाल यादव जी इन्हीं के हैं, पूरा परिवार इन्हीं का है, किस से अलग होकर यह जनता को संदेश दे रहे हैं ?
क्या यह सब उन विदेशी कंपनियों के कहने पर किया जा रहा है जो इनके भी लिए काम करती हैं, और इनके दुश्मनों के लिए भी काम करती हैं। स्वाभाविक है उनको जहां से ज्यादा पैसा मिलेगा उसके लिए ज्यादा काम करेंगे और उनके लू पोल अलग से बता भी देंगे ? दुनिया में सारी व्यापारी कंपनियां इसी तरह की होती हैं इनका कोई ईमान नहीं होता केवल और केवल उनका धर्म ही लाभ का होता है जिसके लिए वह काम करती हैं।
भारतीय लोग किसी एजेंसी के इशारे पर काम ना कर के अपने मन के मुताबिक काम करते हैं और समाज ऐसा है जो इमोशन पर भी काम करता है, और इन्होंने पुरे पिछड़ों का इमोशन, दलितों का इमोशन, केवल और केवल सवर्णों की खुशी के लिए कुर्बान कर दिया है।
इन्होंने सारे पुरस्कार केवल और केवल उन्ही लोगों को दिए हैं जो उसके पात्र ही नहीं थे। आज वोट का दौर है वह एक भी आदमी इन को वोट नहीं कर रहा है, जिसको इन्होंने लाभान्वित किया है और यह सम्मान पाने की न ही उसकी हैसियत थी। इन्होंने सब कुछ बांट दिया उनको जो इनके कभी नहीं हो सकते यही नहीं तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपति प्राध्यापक केवल और केवल एक जाती जो हमेशा से धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार में लिप्त रही है जिसे ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है को दिया है आज वही इनकी सबसे ज्यादा विरोधी हैं और इन्हें भ्रम और वहकाने में कामयाब हुए हैं।
वे क्यों किसी का और प्रभावित करें मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने उनके शासन में जमकर के सत्ता का लाभ लिया है ? और मंत्री तक के पद तक संभाला है । कैईयों को तो इन्होंने इसी बीच निकाला है और कईयों को निकालने का मन बनाए होंगे पर आगे क्या करेंगे इसका कोई अंदाजा नहीं है। इन के बहुत सारे सलाहकार इन के हित के लिए नहीं अपने हित के लिए आगे पीछे लगे रहे जिससे सत्ता का लाभ तो लिया है। लेकिन सामाजिक रुप से राजनीतिक रुप से और भविष्य की राजनीति के लिए इन को कमजोर कर दिया गलत दिशा में डाल दिया इन्हीं सारी चीजों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में किस तरह की राजनीति आगे आएगी उसकी पूर्व पीठिका इस बार का चुनाव तय करने जा रहा है।
यही तो पूंजीवादी सिस्टम चाहता था और इन्होंने यही किया है मुझे पूरा याद है कि कभी भी नेता जी ने किसी भी एजेंसी का सहारा ले कर के अपना चुनाव नहीं लड़ा था बल्कि जनता का विश्वास किया था और जनता ने उनका साथ दिया था जनता जानती थी कि उनका प्रतिनिधि कम से कम ईमानदार तो है ।
आज जिस विकास की बात करते आप थक नहीं रहे हो उस विकास से वर्तमान राजनीति का कोई लेना देना नहीं है मैंने पहले भी लिखा है यह विकास पर ही राजनीति होती तो शीला दीक्षित ने जितना विकास दिल्ली भी किया था उसके बाद जो चुनाव हुए थे उसमें वह स्वयं हार गई थी इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा क्योंकि विकास के लिए दिल्ली जैसा पढ़ा लिखा और वह दिल्ली जिस पर केवल और केवल पढ़ी-लिखी आवाम रहती हो उसमें शीला के साथ ऐसा व्यवहार किया हो मेरे मित्र मुझे यह जानकर सुनकर और जांच कर पता चल रहा है कि बहुजन राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान इस समय होने जा रहा है ।
देश में इसका बड़ा नुकसान हो चुका है देश के सारे बहुजन नायक उस महान पार्टी के अंग हो चुके हैं जो केंद्र की सत्ता में विराजमान है जिसका उद्देश्य ही बहुजन समाज का शोषण और विनाश करना है आप अगर इससे कहीं से असहमत हो तो हमें जरूर बताएं हम आपका जवाब देने के लिए तत्पर होंगे। 
डा.लाल रत्नाकर

साधुवाद

जय समाजवाद।






































*ब्राह्मण जज पर रोक*

द्यपि यह लिखते हुए नहीं इस पोस्ट पर लगाते हुए मुझे अपने मित्रों से बहुत अलग तरह की प्रतिक्रिया की अपेक्षा है पर यह प्रतीत होता है कि अंग्रेजों में भारत के लिए कितनी समझ रही होगी कि वह ऐसे कानून बनाए और बहुतेरे कानून आज तक उनके बनाए हुए विभिन्न महकमों में चल रहे हैं विशेष करके शिक्षा के क्षेत्र में तो भले ही पर्याप्त मात्रा में रोके गए हो पर जितने भी लोग शिक्षित हो पाए हैं कही न कही अंग्रेजी शिक्षा का ही योगदान है अन्यथा गुरुकुलों की जो दशा है एकलव्य जैसे महान पुरोधाओं को किस तरह से उन्होंने अपमानित किया और अंगूठा तक काट कर मांग लिया यह कहां का न्याय है इन सब को चलते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा अंग्रेजो ने इनके बारे में सही राय रखी होगी तभी तो:

*ब्राह्मण जज पर रोक*
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*कलकत्ता हाईकोर्ट में ब्रिटिश काल में प्रीवी काउन्सिल हुआ करती थी। अंग्रेजों ने नियम बनाया था कि कोई भी ब्राह्मण प्रीवी काउन्सिल का चेयरमैन नहीं बन सकता। क्यों नहीं हो सकता? अंग्रेजों ने लिखा है कि ब्राह्मणों के पास न्यायिक चरित्र नहीं होता है। न्यायिक चरित्र का मतलब है निष्पक्षता का भाव। अर्थात निष्पक्ष रहकर जब एक न्यायाधीश दोनों पक्षों की दलीलें सुनता है, सभी दस्तावेजों को देख कर कानून और न्याय के सिद्धान्त के अनुसार अपनी मनमानी न करते हुए जो सही है उसे न्याय दे, उसे न्यायिक चरित्र कहते है। ऐसा न्यायिक चरित्र ब्राह्मणों में नहीं है, यह अंग्रेजों का कहना था। आज की तारीख में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लगभग 600 न्यायाधीश हैं, उनमें 582 न्यायाधिशों की सीटें ब्राह्मण तथा ऊँची जाति के लोगों के कब्जे में हैं। जब तक न्यायपालिका को प्रतिनिधिक नहीं बनाया जाता, तब तक हमें न्याय मिलने वाला नहीं है। इसलिए न्यायपालिका को प्रतिनिधिक बनाने की आवश्यकता है।*

*भारत की न्यायपालिका पर हिन्दुओ का नहीं बल्कि ब्राह्मणों का कब्जा है, और ब्रिटिश लोग कहते थे कि, *"BRAHMINS DON'T HAVE A JUDICIAL CHARACTER"*. *यानी "ब्राह्मण का चरित्र न्यायिक नहीं होता, वो हर फैसला अपने जातिवादी हितों को ध्यान मे रखकर देता है।*
*सुप्रीम कोर्ट में बैठे ब्राह्मण जज हर फैसला OBC, SC, ST, मुसलमान, सिख, ईसाई और बौद्धों के खिलाफ ही देते है..*
*न्यायाधिशों की नियुक्ति में कोलिजियम का सिद्धान्त दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देशों में नहीं है, वह केवल मात्र भारत वर्ष में ही है। इसका कारण यह है कि अल्पमत वाले ब्राह्मण लोग बहुमत वाले बहुजन लोगों पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते हैं। जो बहुमत है वह अपने हक-अधिकारों के प्रति धीरे-धीरे जागृत हो रहा है, इससे ब्राह्मणों के लिए संकट खड़ा हो रहा है। इस संकट से बचने के लिए न्यायपालिका मे बेठे ब्राह्मण न्यायपालिका का इस्तेमाल एससी एसटी ओबीसी और अल्पसंख्यक के विरुद्ध कर रहे है।*
*भारतीय हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट मे 80% जज ब्राह्मण जाति से है, और ब्राह्मण कभी न्याय का पर्याय नहीं हो सकता क्योंकि ये उसके DNA मे ही नहीं.....*
निवेदक:-
*ओबीसी ललित कुमार*
*(राष्ट्रीय अध्यक्ष)*
*अभा.ओबीसी महासभा*
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शनिवार, 12 मार्च 2016

चुनौतियों से घिरे अखिलेश

अजय बोस

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अगले हफ्ते अपने कार्यकाल का चार वर्ष पूरा कर लेंगे। उन्होंने 2012 में तेज-तर्रार युवा नेता के रूप में अपनी पारी शुरू की थी, मगर आज वह अपनी ही छाया बनकर रह गए हैं। हाल ही में समाजवादी पार्टी के एक असंतुष्ट नेता ने उन्हें उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे अक्षम मुख्यमंत्री करार दिया! संभव है कि ऐसा उन्होंने निजी खुन्नस के चलते कहा हो। मगर इसमें संदेह नहीं कि समाजवादी पार्टी के साथ ही प्रदेश के लोगों का इस युवा नेता से मोहभंग हुआ है, जिसमें वे लोग कभी काफी संभावना देख रहे थे।

अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी उनकी अपनी पार्टी के भीतर ही उनका अधिकारसंपन्न नहीं होना है। चार वर्ष पहले जब उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला था, उसकी तुलना में आज पार्टी गुटों में विभाजित और दिशाहीन दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि उनके पिता और चाचाओं के साथ ही आजम खान जैसे सपा के दिग्गजों ने मुख्यमंत्री को स्वायत्तता के साथ काम करने ही नहीं दिया, ताकि वह सरकार को दूरदर्शिता के साथ चला सकें। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया कि जब-जब उन्होंने कोई नई पहल शुरू करने की कोशिश की, यादव खानदान के वरिष्ठजनों द्वारा बार-बार उन्हें नजरंदाज कर दिया गया या झिड़क दिया गया। कुछ महीने पहले हुआ यह वाकया उनकी स्थिति को बयां करने के लिए काफी है, जब अखिलेश के दो करीबियों-आनंद भदोरिया और सुनील सिंह को उनके चाचा ने पार्टी से निलंबित कर दिया था। इससे मुख्यमंत्री नाराज हो गए और उन्होंने यादव परिवार के गृहनगर सैफई में होने वाले वार्षिक महोत्सव में जाने से इन्कार कर दिया था, और वह तभी माने जब उनके पिता ने हस्तक्षेप कर उन दोनों का निलंबन वापस करवाया।

मुख्यमंत्री को यादव परिवार के सदस्यों के बोझ से उबरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। परिवार के कम से कम 19 सदस्य सत्ता के निर्वाचित पदों पर या राज्य के प्राधिकरणों में हैं या फिर केंद्रीय स्तर पर कोई न कोई पद संभाल रहे हैं। इस तरह देखा जाए, तो आज मुलायम सिंह यादव का परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक खानदान है। परिवार के भीतर की राजनीति और सपा के शासन के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में कुकुरमुत्तों की तरह उभर आए सत्ता केंद्रों ने सरकार चलाने के काम को कठिन बना दिया है। सूबे के सियासत पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक की टिप्पणी थी, 'युवा नेता ने शुरू में तो काफी कोशिश की, मगर वह जिस राजनीतिक वाहन पर सवार हैं, वह अब उनके नियंत्रण से बाहर हो गया है और उनसे इसकी स्टेयरिंग संभल नहीं रही है।'

स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी है, जिसके कारण उनकी पकड़ कमजोर हुई। सपा के उद्दंड कार्यकर्ताओं ने 2012 में विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली जीत के जश्न में ही निर्दोष लोगों को निशाना बनाया था! हाल ही में पार्टी के एक विधायक के भाई ने सड़क पर झगड़ा किया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। सूबे के ग्रामीण इलाकों में मोटरसाइकिलों और बड़ी गाड़ियों में दंबगों को देखा जा सकता है, जिनकी वजह से निचली जाति वाले, अल्पसंख्यक और महिलाएं शायद ही इतना असुरक्षित महसूस करती हैं। बची-खुची कसर हिंदू कट्टरपंथी गुटों के आक्रामक अभियानों ने कर दी, जिन्हें संघ परिवार के एक गुट का संरक्षण हासिल है। इससे उपजे सांप्रदायिक तनाव ने अखिलेश यादव के प्रशासन को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया। कहीं-कहीं ऐसी खबरें भी आई हैं कि सांप्रदायिक तनाव की इन घटनाओं को भड़काने में सपा के लोगों का भी हाथ रहा है। दुर्भाग्य से राज्य सरकार अल्पसंख्यक समुदाय में बढ़ती असुरक्षा से बेखबर दिखती है। बल्कि मुजफ्फरनगर के दंगों की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने तो सरकार को क्लीन चिट दे दी है।

कानून-व्यवस्था की बदहाली के अलावा अखिलेश यादव सरकार पर किसानों की हताशा बढ़ाने का भी आरोप है, क्योंकि सूखा प्रभावित जिलों में उसकी ओर से कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए। पारंपरिक रूप से पिछड़े बुंदलेखंड क्षेत्र की स्थिति और बदतर हो गई है, जिसकी वजह से वहां के किसानों की आत्महत्या की खबरें आई हैं। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसान भी परेशान हैं, जबकि पहले इस क्षेत्र को संपन्नता का प्रतीक माना जाता था। गन्ने के दाम पिछले कई वर्षों से नहीं बढ़ाए गए हैं, जिससे किसानों की नाराजगी बढ़ गई है। दिलचस्प यह है कि भारतीय किसान यूनियन और भारतीय किसान आंदोलन जैसे संगठन बसपा सुप्रीमो मायावती की पिछली सरकार को याद कर रहे हैं, जब हर वर्ष गन्ने के दाम में बढ़ोतरी की जा रही थी और चीनी मिलें व्यवस्थित ढंग से काम कर रही थीं।

अब जबकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनाव को सिर्फ एक वर्ष रह गए हैं, मुख्यमंत्री अखिलेश और उनकी पार्टी के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर मायावती के उभरने की चुनौती है, जो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली अपमानजनक पराजय का बदला लेना चाहती हैं, तो दूसरी ओर आक्रमक तरीके से भाजपा किसी भी तरह यह चुनाव जीतना चाहती है, क्योंकि इनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। एक-एक दिन बीतने के साथ ही यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सपा अखिलेश यादव के प्रशासनिक रिकॉर्ड पर बहुत निर्भर नहीं है। बल्कि इसके बजाय अटकलें तो यह हैं कि वह भाजपा के साथ किसी तरह का तालमेल कर सकती है, ताकि ध्रुवीकरण होने से दोनों को लाभ हो। मगर इसमें एक बड़ा खतरा यह है कि इससे मुख्यमंत्री की छवि को और नुकसान होगा।

वरिष्ठ पत्रकार एवं बहनजी-ए पॉलिटिकल बायोग्राफी के लेखक

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व-तर्ज ए अवाम !

इसके साथ उत्तर प्रदेश की अवाम भी कुछ सोचती है जनाब !
परिवार की पहचान और घमासान का जो परिदृश्य नेताजी ने पैदा कर दिया है वह वास्तव में समाजवादी राजनीती का नहीं पारिवारिक राजनीती का मुखौटा है, मौजूदा मुख्यमंत्री के चयन में जो स्थितियां परिस्थितियां थीं कमोवेश वही स्थितियां आज भी हैं, बल्कि ठीक से देखा जाय तो वह उस परिवार की सियासी जंग की तरह मौजूद ही नहीं हैं गहरी साजिशों के मकड़जाल से घिरी हुयी हैं, वर्चस्व की लड़ाई में प्रदेश कहीं और छूट रहा है जबकि आपसी खीच में कार्यकर्ताओं की बहुत ही दयनीय स्थिति हो गयी है, सत्ता के गलियारों में जहाँ इस परिवार के बहुतेरे सदस्यों का मूल्याङ्कन होता है उसमें अलग अलग मोहरे अलग अलग तरह से चिन्हित होते हैं या हो रहे हैं ? जबकि यह वह दौर है जब पार्टी को सशक्त, समृद्ध और मज़बूत नेतृत्व का आधार लेकर उभारना चाहिए था ? लेकिन हुआ इसके उलट है, इस बीच के विभिन्न चुनाओं में पार्टी की सफलता को लोकप्रियता से देखा जाना दिवा स्वप्न देखने जैसा है ! 








बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

प्रधानमंत्री के नाम पत्र

मेरे पत्रकार मित्र प्रमोद रंजन जी का यह मेल मैं यहाँ यथावत लगा रहा हूँ जिसमें प्रेमकुमार मणि जी का पत्र "प्रधानमंत्री के नाम" से संलग्न है ! यह पत्र संभव है मार्च २०१६ के फारवर्ड प्रेस के अंक में आये ? 
प्रिय मित्र, 
पिछले कुछ समय से चल रही जेएनयू की घटनाएं जटिल होती जा रही हैं। ​कल  केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्‍मृति इरानी ने संसद में जो भाषण दिया, उसमें महिषासुर दिवस का भी जिक्र किया। इस संदर्भ में हम फारवर्ड प्रेस के आगमी अंक में कई सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन मासिक पत्रिका होने की दिक्‍कत यह है कि जब तक वह अंक आपके हाथों में आएगा, तब तक कई बातें शायद पुरानी लगने लगें। इसलिए, अगले अंक में प्रकाि‍शित हो रहे प्रधानमंत्री के नाम हिंदी लेखक प्रेमकुमार मणि का पत्र आप लोगों को इस मेल के साथ भेज रहा हूं। कुछ और सामग्री कल भेजूंगा। इनसे आपको संदर्भ को समझने में सुविधा होगी। 
कायदे से होना तो यह चाहिए था कि इन तथ्‍यों को जनतांत्रिक व समाजवादी, साम्‍यवादी मुल्‍यों के पक्षधर सांसद सदन में रखते, जिससे यह बात दूर तक पहुंचती। कल राज्‍य सभा में इसी विष्‍य पर चर्चा है, देखना यह है कि कल सत्‍ताधारी पक्ष क्‍या कहता है और विपक्ष में बैठे सांसद उसका कितना विरोध कर पाते हैं। 
-प्रमोद रंजन 
भारत को समझो मोदी जी!
मान्यवर मोदी जी,
मैं समझता हूं हर नागरिका को अपने प्रधानमंत्री से सीधा संवाद करने का अधिकार है और यह पत्र के द्वारा होतब दुर्लभ एप्वाइंटमेंट का झंझट भी नहीं आता। इसलिए मैंने यही माध्यम चुना है।
देश में पिछले दिनों कई तरह की वारदातें हुईं। मैं नहीं समझता इसे आपको बताने की जरूरत है। यह सही है इतने बड़े देश में अनेक तरह की घटनाएं घटती रहेंगी और छोटी-छोटी घटनाओं की नोटिस  लेने के लिए आपका कीमती वक्त बर्बाद भी करना नहीं चाहूंगा। लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि लगता है हमारा वजूद हिल जाएगा। आज कुछ हद तक हम इसी स्थिति में आ चुके हैं। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हुआ और उसके बाद पहले दिल्ली और फिर देश के अन्य हिस्सों में जो हो रहा हैवह सब बेहद गंभीर है और मैं चाहूंगा कि पूरे मुद्दे पर पहले आप स्वयं गंभीरता से चिंतन करें। मैं आपको व्यक्तिगत स्तर पर सोचने की बात इसलिए कह रहा हूं कि मुझे प्रतीत होता है आप स्वयं इस विषय पर गडमड हैं। यह आपके क्रियाकलापों से प्रकट होता है। संसद के प्रवेश द्वार पर माथा टेकने से लेकर सभा-सम्मेलनों में दोनों हाथ उठा-उठाकर भारत माता की जय के उद्घोष जैसे क्रियाकलापों से आपके अंतरभाव प्रकट होते हैं। क्या कभी आपने अपना मनोविश्लेषण किया हैमेरा आग्रह होगासमय निकालकर यह जरूर कीजिए। क्योंकि इससे पूरे देश का भवितव्य जुड़ा है। रूसी लेखक चेखव ने कहा है मनुष्य को केवल यह दिखला दो कि वास्तविक रूप में वह क्या हैवह सुधर जाएगा। इसी भरोसे मैं आप में सुधार की एक संभावना देख रहा हूं। प्रधानमंत्री जीसबसे पहले तो आप अपनी स्थिति समझिये। आप कोई सवा सौ करोड़ लोगों के चुने हुए भाग्य विधाता हो। एक महान राष्ट्र के प्रधानमंत्रीवास्तविक शासक। कभी चंद्रगुप्तअशोकअकबर जैसे लोग जिस स्थिति में थेवैसे। उन लोगों के समय में भी भारत इतना बड़ा कभी नहीं रहा। चंद्रगुप्त और अशोक के समय हमारी सीमाएं पश्चिम में तो बढ़ी हुई थीलेकिन दक्षिण मौर्यों के हाथ नहीं था। अकबर के समय भी इतना बड़ा भारत नहीं था।
लेकिन भारत केवल भौगोलिक भारत ही नहीं रहा है। एक सांस्कृतिक भारत भी है हमारे पास। जैसा की रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है कि 'भारत एक विचार है न कि एक भौगोलिक तथ्य।इस भारत की रचना शासकों ने नहीं कवियोंमनीषीयोंदार्शनिकोंसंतों और सच पूछें तो प्रकृति ने स्वयं की है। यह भारत हजारों साल में बना है। इसकी रचना प्रक्रिया सहज भी है और जटिल भी। जाने कितने आख्यानकितनी पौराणिकताकितने काव्यकितने गीतकितना भूतकितना भविष्य मिला है इसमें और यह भारत आज सवा सौ करोड़ लोगों की धड़कन बन गया है।
आप जरा अतीत में जाइए अपने सांस्कृतिक आख्यानों और पौराणिकता में। इतना तो जानते हीं होंगे कि यह जो भारत शब्द है भरत से बना हैदुष्यंत और शकुंतला के प्यार-परिणय से उद्भूत भरतजिनका जन्म और पालन किसी राजमहल में नहीं ंएक ऋषि के आश्रम में हुआ। ये आश्रम वनांचलों में होते थेजहां आज आपकी सरकार ग्रीनहंट कर रही हैक्योंकि आपकी नजर में वहां देशद्रोही पल-बढ़ रहे हैं। अत्यंत मनोरम और मर्मस्पर्शी कथा है भरत और उनकी मां शकुंतला की। और फिर हमारे महान ऋषि द्वैपायन कृष्णजिन्हें वेद व्यास भी कहा जाता हैने एक खूबसूरत महाकाव्य लिखा महाभारत- जो आरंभ में ‘जय’ और ‘भारत’   था। महाभारत हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है। अब इस भारत-महाभारत को बस सौ साल पहले कुछ लोगों ने भारत माता बना दिया। आपने कभी सोचा कि भारतवर्ष भारत माता कैसे बन गयादरअसल इंग्लैंड के लोग अपने देश को मदरलैंड कहते हैं। भारत में जन्मभूमि को पितृभूमि कहने का प्रचलन था। आप तो संघ के प्रचाारक रहे हो। इस तथ्य को ज्यादा समझते होंगे। अंगे्रजी संस्कृति के प्रभाव में कुछ लोगों ने इसमें मातृत्व जोड़ा और भारत,  भारतमाता में परिवर्तित हो गया। चूंकि यह कारीगरी करने वाले बड़े लोग थेसामंत जमींदार थे-जिनके बैठकखानों में बाघशेर के खाल लटके होते थेने इस भारत माता को बाघशेर पर बैठा दिया। इन बड़े लोंगंो की माता गायभैंस पर कैसे बैठतीं। सोचा है कभी आपने कि सामान्य जन ने भारत माता की निर्मिति की होती तो कैसी होंतीं भारतमाताशायद वह कवि निराला की एक कविता पंक्ति की तरह 'वह तोड़ती पत्थरहोती। हिंदी के प्रख्यात कवि पंत ने भी एक भारत माता की मूर्ति गढ़ी-
भारत माता ग्रामवासिनी
तरुतल निवासिनी।
पंत की भारत माता पेड़ तले रहती हैंनिराला की पत्थर तोड़ती हैं। यदि किसी ग्रामीण सर्वहारा ने मूर्ति गढ़ी होती तो चरखा चलाती या बकरी चराती भारत माता होतीं। 
लेकिन आप इस भारत माता के प्रधाानमंत्री नहीं हो। आप उस भारतवर्ष और अब केवल उस भारत-जिसे संविधान में दैट इज इंडिया कहा गया है के प्रधानमंत्री हो। इस भारत की रचना हमारे महान स्वतंत्रता आंदोलन के बीच से हुई। जिसे पूर्णता हमारी संविधान सभा ने दिया। हमने 26 जनवरी 1950 को इसे अंगीकार किया। 'हम भारत के लोग इसे आत्मसात और अंगीकार करते हैं। हमने एक महान सांस्कृतिक पीठिका पर विकसित राजनीतिक भारत को आत्मसात किया। संविधान हमारी आत्मा बन गईजैसा कि आप भी कहते हो हमारा धर्मग्रंथ बन गया।
लेकिन कुछ लोगों ने इसे आत्मसात नहीं किया। हमारा संविधान समानताभाईचारा और स्वतंत्रता के उन नारों को आत्मसात करता है जिसे कभी फ्रांसीसी क्रांति ने तय किया था। यह हर तरह के विभेद को नकारता है और सबको अवसर की समानता दिलाने का भरोसा देता है। इसमें अपने को लगातार विकसित करनेसुधारने और समय से जोडऩे की ताकत है और समय-समय पर हमने यह किया भी है। सब मिलाकर यह एक ऐसा आदर्श संविधान है जिसपर पूरे देश ने अपनी सहमति जतायी है। कुछ लोगों ने इससे खिलवाड़ करने की भी कोशिश कीजैसे 1975 में इमरजेंसीलेकिन उन्हें भी आखिर झुकना पड़ा।
और आज जो भारत है वह इस संविधान की पीठ पर हैकिसी बाघशेर की पीठ पर नहीं। वह भारत माता नहीं हैसबकी सहमति से निर्मित भारत है जो हमारे बल पर है और उसके बल पर हम हैं। कुछ-कुछ बूंद ओैर समुद्रवाला रिश्ता है हमारा। बूंद जैसे ही समुद्र से बाहर होता है मिट जाता है। हम भारत से अलग होंगे मिट जाएंगे।
प्रधानमंत्री जीलेकिन इस भारत भक्ति को कुछ लोंगो ने खिलवाड़ बना दिया है। न वह संस्कृति को समझते हें न राजनीति को। कुल मिलाकर उनकी दिलचस्पी एक फरेब विकसित करने में होती है जिसके बूते वे अपना वर्चस्व बनाये रखें। पुराने जमाने में कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक फरेब विकसित कर इन लोगों ने अपना वर्चस्व बनाए रखावर्तमान संविधान ने इनके हाथ बांध दिये तब ये नये तरीके ढूंढ रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी अपने बैठकखानों में शेर की खाल लटकाने वाले इन महाप्रभुओं ने आज अपने ड्राइंग रूम में भारत माता की खाल लटका ली है और राष्ट्र के स्वयंभू पुरोहित बन देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांट रहे हैं। ये लोग संविधान की जगह मनुस्मृति और शरीयत संहिताओं पर यकीन करते हैं। इनका भारत साधुओंफकीरों और पाखंडियों का लिजलिजा भारत है जिसमें इनके मनुवाद पर कोई आंच नहीं आती। यही इनका देश हैयही इनका राष्ट्र है।
जवाहरलाल नेहरू वि.वि. की एक घटना पूरे देश की ऐसी घटना बन गई है जिसपर हर जगह चर्चा हो रही है। मैं तो उन लोगों में हूं जो इसे सकारात्मक रूप से ही देखते हैं और समझता हूं इस बहस से हमारा मुल्क और मजबूत बनेगा। लेकिन आप से अनुरोध है कि पूरे मामले पर नजर रखें ओैर उन ताकतों को हतोत्साहित करें जो समाजिक प्रतिगामी हैंक्योंकि उनका इरादा भारत को कमजोर करना है। आज दुनिया का कोई भी देशकोई भी समाज पुरानी ओैर घिसी-पिटी सोच के बूते आगे नहीं बढ़ सकता। गति तो पीछे लौटने में भी होती है यही तो प्रतिगामिता है। हमेे तय करना होगा कि हमे आगे बढऩा है या पीछे लौटना है। धर्मांधता और संकीर्णता के बूते हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस सदी में हमें आगे बढऩा है तो विज्ञान द्वारा उपलब्ध कराये गए ज्ञान और सोच का ही सहारा लेना पड़ेगा। ग्लोबल हो रही दुनिया में हमारी सार्वजनिक चुनौतियां गंभीर होती जा रही है। हमनें बड़ी छलांग नहीं लगाई तो हम पिछडऩे के लिए अभिशप्त हो जाएंगे। एक बार पिछड़ गए तो फिर कहीं के नहीं रहेंगेे।
इसीलिए आप स्वयं अपना परिमार्जन कीजिए। आप और आप के लोग बार-बार राष्ट्रवाद की बात करते हैं। कभी सोचा है कि यह है क्याएक पत्र में विस्तार से स्पष्ट करना संभव नहीं होगा लेकिन इतना बताना चाहूंगा कि देश किन विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र बनता है। पश्चिम में राष्ट्रों का निर्माण और विकास जिन स्थितियों में हुआ उससे हमारे देश की स्थिति कुछ भिन्न थी। लेकिन दोनों जगहों पर यह आधुनिक जमाने की परिघटना है। औद्योगिक क्रांति के साथ यह पनपा और अपने कारणों से पूंजीवादी जमाने में विकसित हुआ। पश्चिम में जब राष्ट्र बन रहे थे तब  एक निश्चित भूभाग संप्रभुताआबादी और भाषा के साथ जो सबसे प्रमुख तत्व इसमें नत्थी था वह था इसके निवासियों का सामूहिक स्वार्थ। इसी सामूहिक स्वार्थ की व्याख्या हमारा संविधान अवसर की समानता के रूप में करता है।
लेकिन पश्चिम का राष्ट्रवाद एक स्थिति में आकर भयावह हो गया और आज वहां उसकी कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता। इस राष्ट्रवाद की तख्ती लेकर यूरोप ने दो-दो विश्वयुद्ध किये और तबाह हो गए। कुल मिलाकर यह राष्ट्रवाद एक ऐसा भयावह देवता साबित हुआ जिसने मानव समाज की सबसे ज्यादा बलि ली। इसी परिप्रेक्ष्य में हमारे महान कवि और चिंतक रवींद्रनाथ टैगोर ने इसकी तीखी आलोचना की। 14 अप्रैल1941 कोयानी मृत्यु के कुछ ही समय पूर्व कवि ने 'सभ्यता का संकटशीर्षक से एक लेख लिखा और व्याख्यान दिया। प्रधानमंत्री जीआपको समय निकालकर वह लेख पढऩा चाहिए।
भारत में औद्योगिक क्रांति नहीं हुई और पंूजीवाद भी सामंतवाद के रक्त मांस मज्जा के साथ विकसित हुआ। इसलिए यहां पश्चिम की तरह का नहीं एक अजूबे किस्म का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसका राजनीतिक पक्ष उपनिवेशवाद के खिलाफ  रहा तो सामाजिक पक्ष पुरोहितवाद के खिलाफ। दोनों स्थितियों में मुक्ति की कामना इसका अभीष्ट रहा। इसके निर्माण में एक तरफ  तिलकगांधी और सुभाषभगत सिंह की कोशिशें थीं तो दूसरी ओर ज्योतिबा फुलेरानाडेआंबेडकर जैसे लोग सक्रिय थे। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद सामाजिक आर्थिक वर्चस्व से मुक्ति की कामना ही अधिक प्रासंगिक हो गया। जवाहरलाल नेहरू ने सच्चे राष्ट्रनायक की तरह नये भारत की रूप-रेखा बनाई और उसमें प्रतिगामी सोच के लिए कोई जगह नहीं रखी। नये भारत के निर्माण के लिए उन्होंने साधू-संन्यासियों की जगह वैज्ञानिकोंमजदूरों और किसानों का आह्वान किया। देश में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने पर जोर दिया।
लेकिन प्रधानमंत्री जीआप राष्ट्रवाद की इस धारा की बात नहीं करते। आप का राष्ट्रवाद शिवाजीसावरकर और गोलवलकर का रहा है जो हमेशा विवादों में रहा है। सावरकरगोलवलकर का राष्ट्रवाद भारतीय नहीं हिंदू है। इसके लिए हमेशा एक अवलंब राष्ट्र चाहिए जैसे कोई दूसरा धार्मिक राष्ट्र। शिवाजी के वक्त उनका जो हिंदवी राज्य था वह मुगल राज के सापेक्ष था और सावरकर का हिंदुत्व इस्लाम के सापेक्ष। हेडगेवार गोलवलकर का हिंदू राष्ट्रवाद भी मुस्लि या इसाई राष्ट्रवाद के सापेक्ष ही संभव होगा। लेकिन भारतीय राष्ट्र की विशेषता इसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है जिसमें अवसर की समानाता विकसित करने की अकूत क्षमता है।
जहां तक मैंने समझा है जवाहरलाल नेहरू वि.वि. इस राष्ट्रवाद की सबसे खूबसूरत पाठशाला है। वहां कभी-कभार जाता रहा हूं और मैंने अनुभव किया है कि जैसे भयमुक्त भारत की कामना कवि टैगोर ने की थी वैसा ही भारत वहां के ज्यादातर छात्र गढऩा चाहते हैं। सच है कि वहां माक्र्सवादियों का गढ़ था और एक हद तक अभी भी है। मनुवादियों ने माक्र्सवादियों को तो बखूबी बर्दाश्त किया लेकिन इधर परेशानी होने लगी जब वहां नए छात्र फूले आंबेडकरवाद बांचने लगे और माक्र्सवादियों ने पहली दफा उनसे हाथ मिलाया। पहली घटना तो महिषासुर प्रसंग को लेकर हुई। मनुवादी छात्र वहां दुर्गा की पूजा करने लगे थे। फूले आंबेडकरवादी छात्रों ने महिषासुर दिवस का आयोजन किया। दुर्गा और महिषासुर इतिहास के हिस्से नहीं है हमारी पौराणिकता के हैंऔर प्रधानमंत्री जीकेवल वर्चस्व प्राप्त तबकों का ही इतिहास नही होता केवल उन्हीं की पौराणिकताकेवल उनहीं की संस्कृति नहीं होती। शासित तबकों का भीतथाकथित 'नीचलोगों का भी - जो चुनाव के वक्त आप भी बन गए थे - एक इतिहास होता हैउनकी पौराणिकता भी होती है। वर्चस्व प्राप्त तबकों की पौराणिकता में दुर्गा हैं तो दलितपिछड़े तबकों की पौराणिकता में महिषासुर। आपने देवासुर संग्राम के बारे में सुना होगा। वर्चस्व प्राप्त लोग अपनी पौराणिकता के बहाने अपने वर्चस्व को धार देते हैंसमाज के पीछे रह गए लोग अपनी पौराणिकता की नई व्याख्या कर सांस्कृतिक प्रतिकार-प्रतिरोध करते हैं। वर्चस्व प्राप्त लोग राम की पूजा करने के लिए कहते हैं हमें अपने शंबूक की याद आती है जिसकी गर्दन राम ने केवल इसलिए काट दी थी कि वह ज्ञान हासिल करना चाहता था। आपने कभी सोचा है कि एक दलित पिछड़े वर्ग से आये खिलाड़ी को कभी अर्जुन पुुरस्कार मिलेगा तब उसे कैसा लगेगा। उसके मन में अपने एकलव्य की याद क्या नहीं आएगी?

आप जरा कलेजे पर हाथ रखकर सोचिए प्रधानमंत्री जीकि महिषासुरशंबूक और एकलव्य कौन थेवे विदेशी थे या विधर्मीउनकी चर्चा करनाउनको रेखांकित करना आपको राष्ट्रद्रोही कदम लगता है। अब अपने संघ के लोगों को कहिये कि वे अपने हिंदुत्व पर पुनर्विचार करें। उनका भारत तो अखंड भारत नहीं ही है उनका हिंदुत्व भी अखंड नहीं है। खंडित हिंदुत्व है उनकाब्राह्मण-हिंदुत्व है। आपके लोग इसी हिंदुत्व की बात करते हैं।
हम जे.एन.यू की ओर एक बार फिर चलें। 9 फरवरी2016 की घटना थी। यदि किसी छात्र ने देश विरोधी नारे लगाये हैं तो यह गलत है। जैसा कि मुझे बताया गया है कि भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने जैसे जुमले बोले गए। मैं इसकी तीखी भत्र्सना करना चाहूंगा। किसी की बर्बादी की बात हमें नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान की भी नहीं। वह हमारा पड़ोसी हैफले-फूले। दुनिया के तमाम देश फलेें-फूलें। आपका एक नारा मुझे सचमुच पसंद है सबका साथसबका विकास। लेकिन यह जमीन पर तो उतरे।
प्रधानमंत्री जीवि.वि. इसी के लिए तो बनते हैं। वहां अनेक देशों के लोग पढ़ते हैं। पुराने जमाने में जब हमारे यहां नालंदा था चीन के ह्वेनसांग और फाहियान वहां पढऩे आये थे। ब्रिटिश काल में भी हमारे लोग ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जाते थे। आपको पता होगा भारतीय छात्र वहां भारत की आजादी पर भी चर्चा करते थे। उनका संगठन था। उनकी कार्यवाही थी लेकिन ब्रिटेन के लोगों ने इसके लिए उनपर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया। आपके सावरकर भी वहां पढऩे गए थे और अपनी प्रसिद्ध किताब 'इंडियन वॉर ऑफ  इंडिपेंडेंस: 1857उन्होंने ब्रिटेन में रहकर पूरी की। वहीं उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसायटीकी स्थापना की। हमें भी अपनी यूनिवर्सिटियों को इतनी आजादी देनी चाहिए कि वहां लोग मुक्त मन से विचार कर सकें। विश्वविद्यालय में जो जो विश्व शब्द है उस पर ध्यान दीजिये। आप उसे संघ का शिशुमंदिर बनाना चाहते हैंयूनिवर्सिटियां मानव जाति पर समग्रता से विचार करती हैंउसे देशभक्ति की पाठशाला मत बनाइए। हममें तो अभी वि.वि. पालने का शउर ही विकसित नहीं हुआ है। मान लीजिये जे.एन.यू में सौ-दो सौ पाकिस्तानी छात्र पढ़ते तो वह पाकिस्तान की बात नहीं करेंगे। विदेशों में हमारे छात्र पढ़ते हैं तो अपने भारत की बात नहीं करते हैं?

थोड़ी बात काश्मीर मुद्दे पर भी कर लेें। अफजल गुरु पर कतिपय छात्रों ने चर्चा की। इसके लिए इतना कोहराम मचाकर हमने केवल कश्मीरी समस्या को रेखांकित ही किया है। यह हमारा मूर्खतापूर्ण कदम कहा जाएगा। कश्मीर की समस्या पूरे भारत की समस्या से कुछ अलग और जटिल है। आपने वहां उस पी.डी.पी. के साथ सरकार बनाईजो अफजल को शहीद मानता है। आपका कदम सही है। सरकार बनाकर आपने संवाद बनाने की कोशिश की है। संवाद बनाकर ही बातें आगे बढ़ती हैबढऩी चाहिए यही तरीका है। पाकिस्तान की बार-बार की हरकतों के बावजूद हम उससे संवाद बनाने की कोशिश करते हैं काश्मीर तो अपना है। और मैं समझता हूं कि काश्मीर के मसले को आप मुझसे बेहतर समझते हैं क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार आप कुछ समय तक वहां रहे हैं। काश्मीर की समस्या थोड़ा पेचीदा हैवह ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं थाअलग रियासत था। वह एक खास परिस्थिति में भारत से जुड़ाजो स्वाभाविक था। इस तरह उसकी स्थिति कुछ वैसी है जैसा किसी परिवार में गोद लिए बच्चे की होती है इसलिए हमारे संविधान में वहां के लिए एक विशेष धारा है। ऐसी धाराओं का सम्मान होना चाहिए। ऐसी ही धाराओं की बदौलत भविष्य में कभी अन्य देश भी भारतीय संघ में जुड़ सकते हैं। इसमें पाकिस्तानबांग्लादेशनेपाल भी हो सकता है। हमें सपने देखने नहीं छोडऩे चाहिए। सपने कभी सच भी होते हैं।
तो प्यारे प्रधानमंत्री जीनाराज नागरिकोंखासकर युवाओं से संवाद विकसित करना चाहिएतकरार नहीं। दंड देकरजबर्दस्ती देशभक्ति नहीं थोपी जा सकती। मुझे उन नाराज नौजवानों से अधिक खतरा आपके उन भक्तों से है जो राष्ट्रवाद की ताबीज-कंठी लटकाकर देश को लूट रहे हैं। कभी आपने अपने मित्र बड़े अंबानी से नहीं पूछा कि भाई जिस देश में किसानछोटे-छोटे कर्जांे को लेकर आत्महत्या कर रहे हैंवहां तुम हजार करोड़ का अपना घर क्यों बना रह होआपने पूंजीपतियों के लिए लाखों करोड़ के कर्ज माफी की घोसना की है लेकिन भारत के किसानों-मजदूरों की चिंता आपको नहीं है। हैदराबाद वि.वि. का एक होनहार छात्र रोहित वेमुला आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ। आपको इसपर रोना भी आया। आपको समझ सकता हू। आप ही के शब्दोंमें आप नीच जात होपिछड़ी जमात के आदमी होमाक्र्सवादी शब्दावली के सर्वहारा हो आपबचपन में चाय बेचने वालेदूसरों के घर मजदूरी करनेवाली महान मां के बेटे। आप पर कुछ भरोसा है। आपसे संवाद करने से बात बन सकती है। कुछ समय पहले आंबेडकर की मूरत पर जब आप माला चढ़ा रहे थेे तब मेरे मन में ख्याल आया था कि काश उनके विचारों की माला अपने गले में डाल लेते। एक मौन क्रांति हो जाती। इसीलिए विवेकानंद के शब्द उधार लेकर कहना चाहूंगा कि उठोजागो और रूको नहीं। तुम्हारे संस्कार संघ के संस्कार नहीं हैंतुम मनुवादियों के घेरे से विद्रोह करोउन्हें ध्वस्त करो। उनका देश झूठा हैरास्ट झूठा हैधर्म झूठा है। आप झूठ के लाक्षागृह से निकल जाओ मोदी जी। आपका तो कमराष्ट्र का ज्यादा भला होगा।

सादर
आपका
प्रेमकुमार मणि

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

भाजपा जाटों को मूर्ख तो नहीं बना रही है ?

डॉ.लाल रत्नाकर
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुलास में उल्लिखित जाट की गाय की कथा की याद आती है तब उसका आरक्षण के लिए किया जाने वाला यह संघर्ष याद आता है !
खबरें ;

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

क्या यही राष्ट्रवाद है!

रोहित वेमुला 
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भारतीय शिक्षा व्यवस्था का आधुनिक उत्पीड़न का चेहरा।  ब्राह्मिणवाद का क्रूर उत्पात और राजनैतिक समर्थन के साथ भारतीय न्याय व्यवस्था के मुखौटे का जितना भयावह रूप निकल कर सामने आया है इसपर बहस हो इससे पहले ही नया उत्पात जिसे राष्ट्रवाद का नाम देकर देश के प्रख्यात विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से जिस प्रायोजित उत्पात को अंजाम दिया गया है, उसके फलितार्थ आने वाले दिनों में पुरे देश के दलितों, पिछड़ों  व् अल्पसंख्यकों को सहने होंगे !
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है उन दलों के किसी (दल) संगठन को इसकी चिंता नहीं है, जो इन वर्गों के वोट के बलपर राजनीती करते हैं ? जिससे यह आंदोलन चलाना केवल भारतीय दलित पिछड़े युवाओं  के लिए गहरे संकट में आता जा रहा है, किसी दल का राष्ट्रीय प्रवक्ता जब ये कहता हो की ऐसी हत्याए तो आम बात हैं, इसपर राजनीती की रोटी सेंका जाना ठीक नहीं है, ऐसा कहना कितना शर्मसार करता है सामाजिक गैर बराबरी की सोच और उस आंदोलन को जिसके बलपर पूरा परिवार सत्ता के भिटहुर पर बैठा है !
सामजिक न्याय के सवाल पर ब्राह्मिणवादी सत्ता हमेशा अलग अलग हमला करती है, दलित और पिछड़ों अल्पसंख़्यको को बाँट कर वह अपना निहितार्थ पूरा करती है जबकि शीर्ष पर हर तरह से किसी ब्राह्मिन को ही रखती है। 
कन्हैया कुमार कुछ इसी तरह का उनका प्रयोग है !       



क्या यही राष्ट्रवाद है!
-डॉ. लाल रत्नाकर 
यह शर्मसार करता राष्ट्रवाद ?
क्या यही राष्ट्रवाद है!
यह किसका राष्ट्रवाद है ?
सदियों से लूट रहे लूटेरों का राष्ट्रवाद ?
जिसे किसी जाति ने हथिया लिया हो!
धर्म या गिरोह के नाम पर !
और उसका मनमाना प्रयोग कर रहा हो,
जातियों के दमन के लिये !
उन जातियों के होनहारों को आत्महत्या,
तक मजबूर करने का राष्ट्रवाद है!
यह शर्मसार करता राष्ट्रवाद?
क्या यही राष्ट्रवाद है!
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भाजपा के राष्ट्रवाद का विरोध हो रहा न की देश का। क्योंकि संघ और भाजपा के राष्ट्रवाद में दलित नहीं है और न ही पिछड़ा को कोई जगह किसान मजदूर की हालत तो विचित्र है केवल बामन और बनियों की जगह है वहां उनके अनुरूप नीतिया बनाना ही इनका राष्ट्रवाद है, जिसका सभी दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और किसान मज़दूर उनके अमानवीय नीतियों का विरोध करते हैं  जिसको ये राष्ट्रवाद का विरोध कहते हैं।   

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

http://www.livehindustan.com/news/national/article1-budget-session-all-party-meeting-prime-minister-modi-says-iam-not-a-pm-of-bjp-i-am-pm-of-country-517218.html

मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं: मोदी

नई दिल्ली, एजेंसियांFirst Published:16-02-2016 08:19:07 PMLast Updated:16-02-2016 08:28:02 PM
मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं: मोदी
जेएनयू विवाद की गूंज शनिवार को बजट सत्र के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भी सुनाई दी। पीएम मोदी के सामने विपक्ष ने यह मुद्दा उठाया।
इस पर मोदी ने कहा कि वह भाजपा के नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं। इसलिए कोई भी कार्रवाई देश के नेता के तौर पर करूंगा, पार्टी नेता के रूप में नहीं। पीएम ने कहा कि विपक्ष की हर चिंता को दूर किया जाएगा।
संसद में चर्चा को तैयार : केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा कि अगर 23 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में विपक्ष जेएनयू मुद्दे पर चर्चा चाहता है तो सरकार इसके लिए तैयार है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों ने जेएनूय छात्रों पर देशद्रोह के केस में कार्रवाई पर चिंता जताई। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि छात्रों द्वारा की गई नारेबाजी अत्यंत आपत्तिजनक थी।
विपक्ष ने क्या कहा
कांग्रेस : बैठक में राज्यसभा में विपक्ष के नता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि देश की अखंडता और संविधान के खिलाफ नारेबाजी लगाने वाले छात्रों का कांग्रेस कतई समर्थन नहीं करती। हालांकि आजाद ने देशद्रोह के आरोप में कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी का विरोध किया। साथ ही उन्होंने कहा कि भाजपा के कई नेता कांग्रेस नेतृत्व को देशद्रोहियों का समर्थक बनाकर बदनाम कर रहे हैं, इस पर रोक लगाई जाए।
तृणमूल कांग्रेस : पार्टी ने सर्वदलीय बैठक में जीएसटी विधेयक को पारित कराने के विषय पर चर्चा की।
जदयू : पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि संसद में सुचारू रूप से कामकाज के साथ सभी विषयों पर चर्चा होनी चाहिए।
सरकार ने दिया जवाब : कांग्रेस की चिंता पर वेंकैया नायडू ने कहा कि बोलते वक्त सभी दलों को संयम बरतना चाहिए। हालांकि उन्होंने कांग्रेस को यह भी याद दिलाया कि विपक्ष की ओर से पीएम मोदी के संदर्भ में हिटलर जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
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प्रधानमंत्री जी 
आप देश के प्रधानमंत्री होने का अहसास किसको करा रहे हैं, आप संघियों के प्रधानमंत्री होकर रह गए हैं आपके नाक के नीचे ब्राह्मिणों का तांडव चल रहा है आप "देश" की बात करते हैं, मुट्ठीभर ब्राह्मिणों के लोगों ने आपको दबोच लिया है दिखाने को आप जोशी आडवाणी और सिन्हा को भले अलग किये हों पर आपके इर्द गिर्द नागपुर से लेकर पाटालपुर तक ब्रह्मिनो का जमावड़ा है ?
हैदराबाद,जेयनयु, AIIMS  वाराणसी जहाँ देखिये केवल ब्राह्मिणों का आज राज चल रहा है, आज तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों के ब्राह्मिणवाद को मात देकर आपने जो कुछ किया है यह राष्ट्रवाद किसका है केवल और केवल संघियों का राष्ट्र है, जितना बड़ा नाटक ये राष्ट्र के नामपर कर रहे हैं इससे देश को जितना गर्त में ले जाने की तैयारी है उसका खामियाज़ा जनता भोग रही है?
हाँ ! कांग्रेस ने ब्राह्मिनवाद का जितना विस्तार ६० वर्षों में किया होगा यह तो आप एक साल में ही कर दिए हैं ?
जनता ने आपको उसी ब्राह्मिनवाद को मिटाने के लिए वोट दिया है उस ब्राह्मिनवाद को बढ़ाने के लिए नहीं ?
  

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...