मंगलवार, 3 मई 2011

एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर

एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफरPDFPrintE-mail
दलित मत से साभार 
Written by अशोक 
  
Sunday, 01 May 2011 19:२५
Written by अशोक 
जब आप एस.आर लाखा के बारे में बात करेंगे तो लगेगा जैसे कोई फिल्म देख रहे हैं. एक अद्भुत फिल्म. जो हर किसी के लिए प्रेरणा हो सकती है. सफलता को पाने की ललक, जिद और जूनून उनके पूरे जीवन में साफ दिखता है. बचपन में अपने मां-बाप के साथ उन्होंने ईंट-भट्ठे पर काम किया लेकिन हार नहीं मानी. पढ़ाई के दौरान कई बार घर से स्कूल की दूरी बढ़ने के बावजूद वह हर बार उसका पीछा करते रहे.
चप्पल पहनने से कितनी राहत मिलती है यह वो आठवीं कक्षा के बाद जान पाएं. इन तमाम मुश्किलों के बावजूद लाखा सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर कलेक्टर बने. इसके बावजूद वो अपने गर्दिश के दिनों को कभी नहीं भूले और 30 साल के करियर में हर वक्त समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे. चाहे तमाम जिलों में कलेक्टर का पद हो, या सोशल सेक्टर में रहे हों या फिर यूपी के 570 आईएएस में से सबसे भ्रष्ट तीन नौकरशाह चुनने की बात हो, हर नई जिम्मेदारी के साथ उन्होंने साबित किया कि उनसे बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता था.
रिटायर होने के बाद एस.आर लाखा इन दिनों एक नई जिम्मेदारी के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके है. हाल ही में उन्हें ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ के कुलपति पद की जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके 'विजन' के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है-----
अपका जन्म कहां हुआ, बचपन कहां गुजरा?
-  जन्म 12 मार्च 1949 को पंजाब में एक गांव है भंगरनाना. नवाशहर जिले में है, वहीं हुआ था. एक छोटे से घर में हुआ था. मां-बाप खेती करते थे. चौथी तक की पढ़ाई यहीं हुई. मिडिल क्लास में पढ़ने के लिए घर से पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में गया. हाई स्कूल के लिए गांव से आठ किलोमीटर गया. डिग्री तक की शिक्षा सिख नेशनल कॉलेज से की. एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से किया. इस दौरान मां-बाप के साथ खेती-बारी में सहयोग भी करता था. फिर 76 में दिल्ली आ गया. पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद 77 फरवरी में सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी मिली थी. सेक्सन आफिसर की नौकरी थी. इसमें रहा. साथ-साथ आईएएस की तैयारी भी करता रहा. 78 का जो आईएएस का रिजल्ट आया, उसमें सेलेक्ट हो गया. 79 में मंसूरी में ट्रेनिंग हुई, फिर मैं यूपी कैडर में आ गया.
परिवार में कौन-कौन था. सामाजिक परिवेश और घर की आर्थिक स्थिति कैसी थी?
-  जब मैं पैदा हुआ था तब घर की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी. जब बारिश होने लगती थी तो पूरा परिवार चिंतित हो जाता था कि अगर बारिश नहीं रुकी तो रोटी कैसे खाएंगे. तब मां कहती की जाओ काम कर के कुछ खाने को ले आओ. तो ऐसी स्थिति थी. चप्पल मुझे आठवी क्लास के बाद पहनने को मिली. उससे पहले गर्मी के दिनों में हम यूं ही नंगे पांव स्कूल में जाते थे. तो आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी. मां-बाप मजदूरी करने जाते थे. हम भी उनके साथ चले जाया करते थे. पहले सुबह स्कूल में पढ़ने जाते, फिर शाम को मां-बाप के साथ काम करने जाते थे. वो भट्ठे पर ईंट बनाने का ठेका लेते थे, फिर बटाई पर खेती करते और जानवर रखते तो हम भी उनकी मदद करते. जानवर होते थे तो उनको चारा डालने का काम करते थे. दूध निकालते थे. हम चार भाई थे, एक बहन थी. मैं चौथे नंबर का भाई था. मुझसे छोटी एक बहन थी. बड़ा भाई इंग्लैंड चला गया तो पैसे भेजने लगा. फिर मेरे पिताजी ने देखा कि मैं पढ़ने में ठीक हूं तो मुझे पढ़ाने लगे.
बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए?
- हां, आर्थिक स्थिति खराब थी तो मां-बाप भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करते थे. एक हजार ईंट बनाने के तब दो रुपये मिलते थे. तो हम भी मां-बाप के साथ रात को काम करते थे. सन् 1966 की बात है.
इतनी मुश्किलों और गरीबी से गुजरने के बाद आप कलेक्टर बने थे. इस दौरान आपका सामना तमाम गरीब परिवारों से होता होगा. उन्हें देखकर उस वक्त आपके जहन में क्या चलता था. क्या आपको अपनी मुफलिसी के दिन याद आते थे?
- मेरी पूरी ब्यूरोक्रेसी लाइफ के कुल 30 सालों में से छह साल तक मैं सोशल सेक्टर में रहा. यहां मुझे वंचित समाज के लिए काम करने का मौका मिला. एससी/एसटी समाज के लोगों का प्रोजेक्ट मंजूर करना, उनकी दिक्कतें दूर करने का काम था. यहां मुझे बहुत मजा आता था. एक आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. मैं यह भी ध्यान रखता था कि कोई स्टॉफ उनसे कमिशन ना ले. ऐसा करने पर मैं बड़ी कार्रवाई करता था. तो अपने समाज के गरीब लोगों के लिए काम करने का अपना आनंद है. मुझे याद है कि जब मैं फैजाबाद में कलेक्टर था. मैं कहीं जा रहा था तो एक ईंट-भट्ठा दिखा. मै अपनी गाड़ी रुकवा कर वहां काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया. मैने उनसे पूछा कि आजकल ईंट बनाने का दाम कैसा चल रहा है. तो उन्होंने बताया कि अब एक हजार बनाने के दस रुपये मिलते हैं. वहां से चले तो मेरे ड्राइवर ने पूछा कि साहब आप इतनी गर्मी में इतनी दूर क्यों गए थे? हालांकि मैने तब ड्राइवर को नहीं बताया कि मैं इसलिए गया था क्योंकि आज जिस झोपड़ी में वो मजदूर रहते थे. मैं भी उसी झोपड़ी से निकला था और वहां से उठकर अब कलेक्टर की गाड़ी में यहां आया हूं. यह जो सफर मैने तय किया है. वह मुझे याद आता था. तो ब्यूरोक्रेसी में रहने के दौरान भी मेरे पूरे करियर में यह अहसास, यह दर्द मेरे अंदर रहा. जब मैं पब्लिक सर्विस कमिशन का चेयरमैन बना. तब उस समय एससी/एसटी/ओबीसी और गरीबों का जो भी बैकलॉग था. मैने उसे भरने की पूरी कोशिश की और भरा भी. इससे मुझे आज भी बहुत संतुष्टि मिलती है.
आज भी मैं किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई वगैरह में कोई कठिनाई होते देखता हूं तो खुद को रोक नहीं पाता. जैसे हमारे यहां एक इंटर कॉलेज खुला है. कुछ दिन पहले वाल्मीकी परिवार के कुछ लोग हमारे पास आएं कि साहब फीस बहुत ज्यादा है और हम इतनी फीस नहीं दे पाएंगे. मैनें उनसे कहा कि वो बच्चों की पढ़ाई जारी रखें उनकी फीस मैं भर दूंगा. वाल्मीकी समाज में आज शिक्षा का बड़ा अभाव है. जब भी किसी गरीब आदमी को देखता हूं तो तुरंत मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ जाते हैं. जैसे हमारे मां-बाप काम करते थे. हम भी उनके साथ काम करते थे. फिर गांव से दलिया बनाकर भट्ठे पर ले जाते थे. दूध बेचते थे. जानवर चराते थे. तो हमेशा गरीबों के लिए दर्द रहता है.
सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने के बाद जब आप ट्रेनिंग के लिए मसूरी पहुंचे, वो आपके लिए कितने गौरव का पल था?
- 11 जुलाई को मैं मसूरी पहुंचा था, सन् 79 को. तब मसूरी में बहुत बारिश हो रही थी. इससे पहले मैने कभी पहाड़ देखे नहीं थे. जब हम टैक्सी में देहरादून से मसूरी जा रहे थे तो हमारी गाड़ी बादल और पहाड़ों के बीच में चल रही थी. तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं. यह एक सपने के जैसा था. फिर हम अकादमी में पहुंचे. वहां हमें कमरा अलॉट किया गया. ट्रेनिंग सोमवार से शुरू होनी थी और मैं शनिवार को ही पहुंच गया था. मैं खाना खाकर अपने कमरे में सो गया. दो दिन-दो रात तक बारिश होती रही. मैं दो दिन-दो रात तक लगातार सोता रहा. मैं खाना खाने के बाद जैसे बेहोश हो जाता था. वहां के स्टॉफ ने पूछा कि आप दो दिन से लगातार सो रहे हो. तो मैने कहा कि यार मैने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है (चेहरे पर वह दर्द फिर उभर आया). अब जरा अच्छी जगह आया हूं मुझे चैन से सो लेने दो. इसके बाद फिर शुरू करना है काम.
अपने करियर में आपने किन-किन शहरों में किन-किन पदों पर काम किया?
-सबसे पहली पोस्टिंग जहां बैठे हैं (यूनिवर्सिटी कैंपस  की ओर इशारा करते हुए), और जिसे आज ग्रेटर नोएडा कहते हैं, इसी इलाके में हुई. तब यह सारा एक था. मैं एसडीएम सिकंदराबाद के पद पर आया था. फिर तीन साल बाद यहीं कलेक्टर बन गया. बुलंदरशहर जिले में. फिर फैजाबाद में और देवरिया में कलेक्टर रहा. ज्यादा काम मैने सोशल सेक्टर में किया. डायरेक्टर सोशल वेलफेयर साढ़े तीन साल रहा, तीन साल शिड्यूल कास्ट कॉरपोरेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर रहा. इसमें जो भारत सरकार की योजनाएं थी, स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के अंतर्गत इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जो आर्थिक योजना थी, वो उन्हें दिया. साथ ही उनके लिए स्पेशल ट्रेनिंग का कार्यक्रम भी आयोजित किया. इसके बाद भी कई विभागों में काम किया. सूडा का चेयरमैन रहा.
बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
- खुद के और अपने मां-बाप के जिस सपने और अरमान के साथ मैं आईएएस बना, उसका मैने हमेशा ख्याल रखा. जो हमारे बड़े थे, वो मुझसे अक्सर कहा करते थे कि आईएएस बनने के बाद तुम अपने समाज के लोगों का ख्याल रखना. उनकी जितनी मदद हो सके जरूर करना. तो इसे मैं अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं कि मैं पूरी जिंदगी अपने बड़ों की उम्मीद और अपने इस कमिटमेंट को नहीं भूला, चाहे मुझे कितनी भी दिक्कते आईं. मैं कभी नहीं भूला.
जब आप बुलंदशहर में थे तो 26 जनवरी के दिन दलित बस्ती में झंडा फहराने को लेकर आप काफी चर्चा में रहे थे. दलित समाज से तमाम आईएएस होते हैं. आम तौर पर ऐसा सुनने को नहीं मिलता. लेकिन वो कौन सी बात थी जिसने आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया?
- इसकी एक कहानी है. हुआ यह था कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो नवाशहर में हमारे एसडीएम बैठते थे. वहां डीएसपी का भी आफिस था. एक दिन मैं उसके आगे से निकलने लगा तो लोग कहने लगे कि यहां से मत जाओ, यहां एसडीएम का बंगला है, डीएसपी का बंगला है. तो मुझे उस वक्त बड़ा अजीब लगा कि हम उनके बंगले के आगे से भी नहीं निकल सकते? तो जब मैं खुद डीएम बना तो मुझे एक  बात याद आई कि बाबा साहेब आगरा में आए थे. यहां उन्होंने काफी काम किया और स्कूल भी खोला था. जब मैं सिकंदराबाद का एसडीएम था तो मैने वहां म्यूनिसिपल कारपोरेश बोर्ड में बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई. लेकिन कुछ लोगों ने अपने वाल्मीकी समाज के लोगों को भड़का दिया और मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया. वो मुकदमा चलता रहा. जब मैं कलेक्टर बनकर बुलंदशहर आया तो मैने इसे ठीक करवाया. यानि लोग चाहते नहीं थे कि मैं बाबा साहब की प्रतिमा लगवाऊं. उसके बाद कासगंज गया तो वहां भी एक चौराहे पर बाबा साहेब का बुत लगवाया.
तो जो आपने पूछा कि मैं दलित बस्ती में क्यों गया था तो मैं वहां इसलिए गया था ताकि उनलोगों का हौंसला बढ़े कि हमारे समाज का कलेक्टर आया है और हमारे बीच में आया है. आमतौर पर वो लोग कलेक्टर की गाड़ी को बाहर से देखते थे. मैने सोचा उनके बीच जाकर उन्हें कांफिडेंस दिया जाए. ताकि उन्हें लगे कि अपना आदमी है तो इसके दिल में अपनों के लिए दर्द भी है.
आप बतौर ब्यूरोक्रेट्स रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. इस जिम्मेदारी को आप कितना बड़ा मानते हैं?
- मैं आईएएस के पद से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से रिटायर नहीं हुआ. मेरी जिंदगी में जो अरमान हैं, मेरे अंदर समाज के लिए काम करने की जो ख्वाहिश है, वह अभी भी है. और मेरी ख्वाहिश है कि मैं जब तक जिंदा रहूं इस समाज के लिए काम करुं. गुरु रविदास जी ने कहा था कि ‘जे जन्म तुम्हारे लिखे’ बल्कि अब मुझे काम करते हुए ज्यादा खुशी हो रही है. क्योंकि आईएएस रहते हुए ऑल इंडिया सर्विस रुल का ख्याल रखना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस के बाहर रहने के बाद आदमी खुलकर काम कर सकता है. मगर काम समाज के लिए करना है, अपने लिए काम नहीं करना है. समाज के लिए ‘पे-बैक’ करना है. समाज ने जो हमें दिया है, अब मुझे उसे समाज को लौटाना है.
जहां तक कुलपति की जिम्मेदारी का सवाल है तो जब मैं कमिशन में गया था. तो मैने उस जिम्मेदारी को भी बहुत बड़ा माना था और बहुत अच्छा काम किया. अब इस जिम्मेदारी को भी मैं बहुत बड़ा चैलेंज मानता हूं. यह एक ड्रीम प्रोजेक्ट है. और मैं चाहता हूं कि इसकी ख्याति दुनिया भर में फैले और यह संस्थान सामाजिक परिवर्तन का सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बने.
देश में पहले से ही कई विश्वविद्यालय (University) है. ऐसे में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय औरों से किस मायने में अलग है. आप इसको किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं?
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय परंपरागत विश्वविद्यालयों से थोड़ा अलग है. इसकी जो सबसे खास बात है, वह यह कि इसको तीन हिस्सों में बांटा गया है. एक मैनेजमेंट का है, दूसरा इंजीनियरिंग का है जबकि तीसरा ह्यूमिनिटिज (Huminities) का है.  यूनिवर्सिटी का मकसद होता है एजूकेशन ऑफ यूनिवर्सिलाइजेशन. तो जो बुद्धिस्ट दर्शन है, बुद्धिस्ट कल्चर है, सिविलाइजेशन है, इसमे हजारों सालों से जो काम नहीं हुआ है, लोगों को उसकी जानकारी देना और जागरूक करना है. खासकर के शिड्यूल कॉस्ट के बच्चे हैं हम उनकों स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के तहत बाहर के देशों में भी पढ़ने के लिए भेजते हैं. ताकि विद्यार्थियों का एक्सपोजर विदेशों में भी हो. किसी और विश्वविद्यालय में यह सुविधा नहीं है. यह सिर्फ हमारे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में है. अगर अनुसूचित जाति के वैसे बच्चे जिनके पास पैसे नहीं है लेकिन वो बाहर पढ़ने जाना चाहते हैं, तो हम उन्हें भेजते हैं. इस साल भी हमने इसके लिए तीन करोड़ रुपये की व्यवस्था की है और 30 बच्चे बाहर भेजना है. पिछले साल 12 बच्चे गए थे. बाहर की कुछ यूनिवर्सिटी के साथ हमारा एग्रीमेंट है, उससे टाइअप करके बच्चों को भेजा जाता है.
दूसरा जो बुद्धिस्ट दर्शन है, उस पर सर्च करना, सिविलाइजेशन पर सर्च करना और उसकी पब्लिसिटी करना ये बहुत महत्वपूर्ण है.
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है?
- इसका पूरा कैंपस 511 एकड़ में फैला हुआ है. ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी इसको फाइनेंनसियली सपोर्ट करती है. पहले 2002 में इसकी नींव पड़ी लेकिन फिर कुछ राजनीतिक परिवर्तन होने के कारण 2008 से ठीक से काम शुरू हुआ. अभी यहां 60 फीसदी से ज्यादा का निर्माण हो गया है. कुल चार स्कूल (फैकल्टी) बाकी हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाएंगें. इसके साथ ही सभी आठो स्कूल (फैकल्टी) काम करना शुरू कर देंगे. अभी एक हजार बच्चे हैं और जुलाई से 2100 और बच्चे हो जाएंगे. हमारे हॉस्टल (लड़के-लड़कियां) की कैपेसिटी तीन हजार से ज्यादा हैं. यहां कांशीराम जी के नाम पर एक बहुत बड़ा आडिटोरियम बनने जा रहा है. 40 एकड़ में हमारा स्पोर्ट्स स्टेडियम बन रहा है. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का मैदान औऱ स्वीमिंग पूल बनेगा. यह शुरू हो चुका है. इसी तरीके से बुद्धिस्ट सेंटर, मेडिटेशन सेंटर और लाइब्रेरी सब आधुनिक हैं. एक साल में यह सारे काम खत्म हो जाएंगे.
सन् 2008 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी, जल्दी ही इसके तीन साल होने वाले हैं. इन तीन सालों में विश्वविद्यालय ने कितना सफर तय किया है?
- यह तीसरा सत्र है. अभी तक यहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में ज्यादा बच्चे रहे हैं. जबकि ह्यूमिनिटिज में अब तक अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाया है. अब हमारा फोकस बच्चों को ह्यूमिनिटिज में दाखिला देना है. एससी/एसटी वर्ग के गरीब बच्चों के लिए यहां मुफ्त शिक्षा है लेकिन हम इस कोशिश में भी हैं कि समाज के अन्य बच्चों को भी जो पढ़ने में ठीक हैं, उन्हें लिए फीस स्ट्रक्चर में थोड़ी रियायत दी जाए ताकि वो भी आगे बढ़ें.
अभी तक कितने पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं. कितने बाकी है?
- चार पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं और चार बाकी है. जैसे वोकेशनल एजूकेशन का बाकी था. लॉ एंड जस्टिस का बाकी था. स्कूल ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन ये अभी नहीं चल पाया है. स्कूल ऑफ मैनेजमेंट चल रहा है, स्कूल ऑफ इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी चल रहा है, स्कूल ऑफ लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस शुरू होना है. स्कूल ऑफ वोकेशन स्टडीज भी शुरू होना है, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलाजी और इंजीनियरिंग चल रहा है.
इस विश्वविद्यालय के तमाम पाठ्यक्रम में बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन एक महत्वकांक्षी पाठ्यक्रम था. यह शुरू नहीं हो पाया है, इसके पीछे क्या वजह थी. इसको आप कैसे शुरू करेंगे?
- मुझे लगता है कि इसमें माइंड सेट की दिक्कत थी. पहले ज्यादा ध्यान मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग पर दिया गया. ध्यान देना भी चाहिए. लेकिन यह यूनिवर्सिटी है. इसका जो मुख्य फोकस था वो वोकेशनल एजूकेशन फॉर बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर था. इसको थोड़ा सा पीछे कर दिया गया था. अब मैने 2008 में इस विश्वविद्यालय की चांसलर बहन जी ने जिस-जिस विषय की घोषणा की थी, मैने उसे फिर से बिल्कुल वैसा ही (रि स्टोर) कर दिया है. अब इसमें रिसर्च का काम होगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां बुद्धिस्ट के ऊपर काम हो रहा है, उनको बुलाया जाएगा. हम सोच रहे हैं कि अगस्त में बुद्धिज्म पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार विश्वविद्यालय में करवाई जाए. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन्हें बुलाया जाए. हमारी कोशिश है कि एक डिस्कशन हो और उससे एक थीम निकले कि बुद्धिस्ट स्टडीज का पाठ्यक्रम (syllabus)  कैसे बनाया जाए. जैसे जापान की एक यूनिवर्सिटी में बुद्धिज्म पर काफी काम हो गया है. कोलंबियन यूनिवर्सिटी में इस पर काफी काम हो रहा है. बाहर के देशों में बुद्धिज्म एंड सिविलाइजेशन पर कैसे काम हो रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए हम अपने कोर्स को एडप्ट करें और इसके पहले बुद्धिज्म पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कांफ्रेंस करवाएं. इसके बाद हम यह तय करेंगे कि बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर भविष्य में हमारा लाइन ऑफ एक्शन क्या होगा.
इसी प्रकार से लॉ, जस्टिस एंड गवर्नेंस है. यह बाबा साहेब का सब्जेक्ट है. वैसे बाबा साहेब को किसी विषय में बांधा नहीं जा सकता. तो हम सोच रहे हैं कि इसमें एक सब्जेक्ट ऐसा बनाया जाए, जिसमें शिड्यूल कॉस्ट के लिए संविधान में जो कानून बने हैं उस एक विषय अलग से रखा जाए. इस विषय पर एक पेपर रखा जाए ताकि लोगों को पता चल सके. साथ
ही विद्यार्थी अनुसूचित जाति को मिलने वाले कानूनी अधिकार को जान सके.
गौतम बुद्ध का जो दर्शन है, वह शांति, समानता और सौहार्द है. यह विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर है. ऐसे में दलित एवं वंचित समाज को आगे बढ़ाने के लिए यह विश्वविद्यालय कितना प्रतिबद्ध है?
- सौ फीसदी...। हमने पहले ही कह रखा है कि यहां एससी/एसटी समुदाय के बच्चे यहां तक बीपीएल परिवार के जनरल वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो हमने उनकी फीस माफ की हुई है. इसके अलावे अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ऐसे बच्चें जो पढ़ने में काफी अच्छे हैं और जिनके आगे बढ़ने की संभावना है उन्हें हम पढ़ने के लिए विदेशों में भेजते हैं. यह व्यवस्था किसी और विश्वविद्यालय में नहीं है. यहां बच्चों के लिए आवासीय व्यवस्था जरूरी है. इससे बच्चों को एक विशेष वातावरण मिलेगा. बच्चों के व्यक्तित्व का और बेहतर विकास हो पाएगा.
विश्वविद्यालय को लेकर भविष्य की योजना क्या है?
- फिलहाल तो सबसे प्रमुख योजना ‘बुद्धिस्ट स्टडीज और सिविलाइजेशन’ को टेक आफ कराना है. लॉ, जस्टिस को शुरू करना है. 40 एकड़ में जो हमारा स्पोर्ट्स कंप्लेक्स है उसको लांच करना है.
आने वाले पांच सालों में आप इस विश्वविद्यालय को कहां देखना चाहते हैं?
- आने वाले पांच सालों में न सिर्फ भारत बल्कि एशिया और विश्व स्तर पर इस विश्वविद्यालय की एक पहचान बने, ऐसा मैं चाहता हूं. इसके लिए हमने तीन चीजों को चिन्हित किया है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना
इकठ्ठा कर के यह पता लगाएं कि ऐसी कौन सी किताबें हैं जो हार्वर्ड में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में, या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है और हमारे पास नहीं है. इसी तरह हमारी जो इंजीनियरिंग लैब है. उसमें हम आईआईटी खड़गपुर, कानपुर और आईआईटी दिल्ली के स्तर के सारे इंस्ट्रूमेंट लाने के लिए प्रतिबद्ध है. हम देख रहे हैं कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है. तो जो गैप है, उसे पहचान करके दूर करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि बच्चों को उसका पूरा फायदा मिले. हम पाली भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश में लगे हैं.
कई ब्यूरोक्रेट्स रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आ जाते हैं. क्या आपने राजनीति में आने की सोची है?
- मेरा मकसद समाज की सेवा करना है ना कि राजनीति में आना. अभी तक मैने राजनीति से बाहर रह कर अच्छा काम किया है. मैं आज भी यह सोचता हूं कि मैं राजनीति से बाहर रह कर समाज के लिए ज्यादा बेहतर काम कर सकता हूं.
आपकी किन चीजों में रुचि है?
- मैं लिखने के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन पढ़ने का मुझे बहुत शौक है. मेरे घर पर और ऑफिस में दोनों जगह लाइब्रेरी है. आज भी बाबा साहेब को पढ़ता रहता हूं. लेकिन इतना कष्ट है कि मुझे समाज के लिए जितना करना चाहिए था लगता है कि मैं उतना कर नहीं पाया. यही जो टिस है वो मुझे और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करती है. जिंदगी निकलती जा रही है. मगर काम करने को लेकर मेरी भूख बनी हुई है.
क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है?
समाज के लोगों द्वारा मिली सराहना ही मेरे लिए पुरस्कार है. जब समाज के लोग आकर मिलते हैं और यह बताते हैं कि मैने विभिन्न पदों पर रहते हुए समाज के लिए, उनके लिए कुछ अच्छा किया. जब समाज के लोग इज्जत देते हैं तो अच्छा लगता है. यही मेरे लिए सच्चा पुरस्कार है.
एक ब्यूरोक्रेट्स का जीवन तमाम लोगों से घिरा हुआ होता है. आपके करियर की ऐसी कौन सी घटना है, जिसने आपको प्रभावित किया हो और जिसे आप याद रखना चाहते हैं?
- जब कानपुर में मैं स्लम एरिया का चेयरमैन था तो एक बस्ती में लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे. कोई बुनियादी व्यवस्था तक नहीं थी. मैने उनके लिए पीने के साफ पानी, सड़क एवं सफाई, उनके बच्चों के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था कराई. मैने उनके लिए सरकार द्वारा प्रायोजित रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से मदद किया. उन्हें बताया कि शराब पीना गलत है, इसे छोड़ दो. इस प्रकार जो बस्ती एक स्लम एरिया थी मैने उसे दो साल में आदर्श कालोनी बना दिया. तभी मुझमें यह विश्वास आया कि जब एक कालोनी आदर्श बन सकती है, तो पूरा समाज बन सकता है. बस उनके बीच काम करने की जरूरत है. लोग सुनते हैं और रेस्पांस देते हैं.
व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कौन सा वक्त आपके लिए मुश्किल औऱ चुनौती वाला रहा?
- जो मुझे याद आ रहा है तो 30 साल के नौकरीपेशा पीरियड में सबसे बड़ी चुनौती 96 में आई. तब सभी आईएएस ने एजीएम की बैठक में 530 आईएएस में से सर्वसम्मति से मुझे जनरल सेक्रेट्री सेलेक्ट कर लिया. यूपी या फिर पूरे देश की ब्यूरोक्रेसी में मैं पहला शिड्यूल कॉस्ट आईएएस था जिसे आईएएस की इतनी बड़ी बॉडी ने जनरल सेक्रेट्री नियुक्त किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा.
मेरे साथ एक दूसरी घटना बचपन में घटी. मुझे याद है कि 66-67 में मेरे मां-बाप ने एक एकड़ जमीन बटाई पर ली थी. जुलाई या फिर अगस्त का महीना था. बहुत गर्मी और उमस थी. मां ने कहा कि पास वाले कुंए से पानी लेकर आओ. मैंने पास के ही मंदिर के एक कुएं से पानी खींच लिया. तभी एक आदमी भागा-भागा आया. वह पुजारी था. उसने कहा कि तुम तो शिड्यूल कास्ट हो तो तुमने कैसे पानी निकाल लिया और उसने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैने पूछा कि मुझे क्यों मार रहे हो तो उसने कहा कि तुम छोटी जाति से हो और यहां से पानी नहीं निकाल सकते. जब वह मुझे मारता रहा तो मुझे भी गुस्सा आ गया फिर मैने भी पानी की बाल्टी उठाकर उसके सर पे मार दी. वह वहीं बेहोश हो गया. फिर गांव में पंचायत हुई और समझौता हुआ. उस वक्त मैने महसूस किया कि जाति की जो पीड़ा है, जो दुख है, वह कितना बड़ा है.
आपके सपने क्या हैं?
- मैं गुरुग्रंथ साहब के दर्शन पर बहुत ज्यादा विश्वास करता हूं. उसमें कहा गया है कि ‘नानक साचक आइए, सच होवे तो सच पाइये’. यानि कि अगर आप सच पर चलते रहिए तो जीत निश्चित ही आपकी ही होगी. मैं इस पर काफी विश्वास करता हूं. हमारे समाज को सच्चाई नहीं मिली. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है. वह यह है कि हमारा समाज जिस चीज का हकदार था उसे वह नहीं मिला. बावजूद इसके अगर हम सच पर चलेंगे तो एक दिन जीत हमारी होगी. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है और इसको कैसे ठीक किया जाए. यह मेरा एक्शन प्लान है.

इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप दलित मत.कॉम से 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. अगर आप कुलपति एस.आर लाखा तक कोई संदेश देना चाहते हैं तो हमें ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

पंगत में बैठे तो याद आ गई जात Written by Dalitmat





Wednesday, 27 April 2011 08:58
दलितों को यकीन था कि गांव में यज्ञ होने के बाद यहां सामाजिक समरसता बढ़ेगी. सो उन्होंने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. दलित महिलाओं ने यज्ञ के भंडारे के लिए सब्जी काटने से लेकर आटा गूथने और रोटी बेलने तक में पूरी मदद की. सब खुश थे कि गांव एक होने को है. लेकिन तभी एक दलित भंडारे में खाना परोसने लगा. फिर बवाल हो गया और 35 लोगों की पंगत में से 20 सवर्ण यह कहते हुए थाली छोड़ कर खड़े हो गए कि इससे पुण्य नष्ट हो जाएगा.
घटना उत्तर प्रदेश के महाराजगंज के तहत आने वाले मिठौरा ब्लॉक के खोस्टा गांव की है, जहां 23 अप्रैल को यह घटना घटी. गांव की आबादी 2200 है, जिसमें 1400 दलित हैं. सात साल बाद गांव में शतचंडी यज्ञ का आयोजन किया गया था. परंपरा के मुताबिक नाऊ ने गांव में हर किसी के घर जाकर इसमें शामिल होने का न्यौता दिया. सभी दलितों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. लेकिन पंगत से सवर्णों के उठ खड़े होने से अपमानित दलितों ने आपमान का घूंट पी लिया. इसके बाद किसी भी दलित ने यहां भोजन नहीं किया और कार्यक्रम का बहिष्कार कर सभी यज्ञ स्थल से चले गए. उन्होंने भविष्य में सवर्णों के ऐसे किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं होने का फैसला किया है. दलितों में इस बात को लेकर बेहद गुस्सा है कि शुरू से उन्होंने पूरे यज्ञ में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. मेहनत वाले सारे काम किए, यज्ञ के लिए पैसा और चावल दिया, तब किसी ने कोई छुआछूत नहीं दिखाई लेकिन खाने के समय सवर्णों को अचानक अपनी जात याद आ गई. दूसरी ओर गांव के सवर्णों का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया.
पूरे घटनाक्रम में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि गांव में तकरीबन दो दर्जन दलित राजमिस्त्री का काम करते हैं. जिस मंदिर पर यज्ञ हो रहा था, इसे इन्होंने ही बनाया था. साथ ही आस्था के कारण उन्होंने मंदिर का पूरा निर्माण कार्य मुफ्त में किया. अब वो खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. तो वहीं जिस युवक द्वारा पंगत में खाना परोसने पर 'ढ़कोसलों के रचयिता' लोग पंगत से उठ गए थे, उस युवक का नाम छोटेलाल है और वह मेरठ से बीएड कर रहा है.

पहले गोली मारी, फिर साइकिल पर लादकर गांव भर घुमाया Written by Dalitmat






Wednesday, 27 April 2011 09:19
इसे शायद ‘मैनुफैक्चरर डिफेक्ट’ कहना ज्यादा सही होगा. क्योंकि इस तरह की घटना उस घटियापने को दर्शाता है जो वर्षों से कुछ खास लोगों के खून में घुली हुई है. मुजफ्फरनगर के निरगाजनी गांव में ऐसी ही एक घटना घटी, जिसमें गेंहू काटने से इंकार करने पर एक सवर्ण ने एक दलित की गोली मारकर हत्या कर दी. फिर उसे साइकिल पर रखकर गांव भर में घुमाया. यही नहीं उस हरामी ने पिता की मौत के बाद सदमे में पड़े उसके बेटे को भी जमकर पीटा. मरने वाले का नाम करमचंद है. घटना तब घटी जब करमचंद अपने बेटे के साथ अपने खेतों में सिंचाई कर रहा था. उसी समय दंभी दबंग अपने परिवार के साथ वहां पहुंच गया. आते ही इनलोगों ने बाप-बेटे को पीटना शुरू कर दिया. पूरे परिवार से घिरा करमचंद जान बचाने के लिए पास स्थित मंदिर की छत पर चढ़ गया. हमलावरों ने मंदिर की छत पर ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी. हत्या के बाद शव को गंगनहर में फेंक कर फरार हो गए. गौरतलब है कि कुछ दिन पहले करमचंद ने इनलोगों के खेत में गेहूं काटने से मना कर दिया था, जिसके कारण वह गुस्से में थे.

दलित चेतना और जूतम पैजार

संपादन-डॉ.लाल रत्नाकर 

दलित महिला विरोधी डॉ. धर्मवीर?


अनीता भारती

12 सितम्बर 2005 को राजेन्द्र भवन में धर्मवीर  की पुस्तक ‘प्रेमचंद सामंत का मुंशी’ के लोकार्पण का दलित महिलाओं ने सशक्त विरोध किया। दलित महिलाओं ने धर्मवीर के दलित स्त्री विरोधी लेखन के खिलाफ न केवल नारे लगाए अपितु उन पर चप्पल भी फेंक कर मारी। सवाल उठता है कि आखिर दलित महिलाओं को धर्मवीर के खिलाफ इतने कडे़ विरोध में क्यो उतरना पडा।  हम थोडा अतीत में झांक कर देखें तो 22-23 जलाई 1995 को साउथ एवन्यू के एम.पी हॉल में आयोजित ‘हिन्दी दलित साहित्य सम्मेलन में’ धर्मवीर का ऐसा ही विरोध हुआ था। दलित महिलाओं ने उनके लेखन के खिलाफ नारे लगाते हुए उन्हे मंच से खींच लिया था। तथा उनके लेखन का बहिष्कार करने की पुरज़ोर अपील की थी। तब इन महाश्य ने दलित महिलाओं से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी थी और कसम खाई थी कि वे आईंदा दलित महिला विरोधी लेखन नहीं करेंगे।
सौजन्‍य : blog.insightyv.com

1995 से लेकर 2005: दोनों  बार अपनी सार्वजनिक बेइज्जती भूलकर लगातार निर्लज्जता से दलित/गैर दलित स्त्रियों के खिलाफ अश्लील व आपत्तिजनक सस्ता लेखन कर रहें हैं। ‘कथादेश’ में चली बहस इसकी गवाह है। पिछले सालों  से धर्मवीर का लेखन उत्तरोत्तर दलित/गैर  दलित स्त्री विरोधी होता जा रही है। कोई ताकत उनको अनर्गल लिखने से नहीं रोक पा रही है क्योंकि वे किसी भी तर्क, विचार, सिद्धान्त और दर्शन को मानने को तैयार  नहीं है। धर्मवीर और लेखन मानवतावाद की स्थापना के खिलाफ अमानवीयता के झण्डे गाड़ना चाहता है। वह दबी कुचली दलित/गैर दलित स्त्री की अस्मिता को स्वीकारने को तैयार नहीं है। वे उसको चरित्रहीन सिद्ध करने पर तुले हैं और हद तो इस बात की है कि जो स्त्री उनके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत रखती है उसकी तो वे सरे आम नाक, चोटी काटकर वेश्या घोषित कर पत्थर मारकर हत्या तक कर देने की हिमायत कर रहें है। वे अपनी कपोल कल्पित भौंडी कल्पना के सहारे प्रेमचन्द की ‘कफ़न’ कहानी की नायिका बुधिया का बलात्कार हुआ दिखाकर बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा बताकर उसके भ्रुण परीक्षण की बात कर रहे हैं।
डॉ. धर्मवीर दलित साहित्यकार होते हुए भी वर्ण व्यवस्था को बरकरार रखना चाहते हैं, इसलिए वो अन्तरजातीय विवाह का कट्टर विरोध करते हैं, जो कि अम्बेडकर के
डॉ. धर्मवीर की चिट्ठी अनीता भारती के नाम, सौजन्‍य: अनीता भारती
जाति उन्मूलन दर्शन का एक आधारभूत स्तम्भ है। वे कहते  हैं, ‘दलित नारी के साथ गै़र दलितों द्वारा जो विवाह-बाह्य मैथुन होता है  वह जारकर्म नहीं होता बल्कि बलात्कार और केवल बलात्कार होता है।’ विवाहित स्त्री के अन्य पुरुषों के साथ सम्बन्ध को धर्मवीर जी ‘जारकर्म’ कहते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि दलित स्त्रियाँ केवल अपने समाज के दलित पुरुषों से ही शादी करें, अन्य जाति के पुरूषों के साथ अपनी मर्जी से की गई शादी के बावजूद भी उनका बलात्कार होगा। भला धर्मवार ये कौम सा दर्शन दलित समाज को अम्बेडकरवादी विचारधारा के खिलाफ दे रहें हैं?
डॉ. धर्मवीर वर्णव्यवस्था को मजबूत कर लिंगीय समानता के खिलाफ लिख रहें है। डॉ. धर्मवीर किसी हिन्दू मनुस्मृतिकार की तरह दलित औरतों को पितृसत्तात्मक समाज में उनके सामने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के संरक्षक बन कर उन्हें मात्र घर की चार दीवारी में सिमटा देखना चाहते हैं। इसके अलावा अगर किसी औरत ने उनके इस सांमतवादी लेखन के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उनके खिलाफ फतवा जारी कर देगें। उनके विचार से ‘ऐसी सोच वाली स्त्री अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहती है तो लड़े। रखैल के रूप में अधिकार मांगे, वेश्या के रूप में अपने दाम बढ़वाए और देवदासी के रूप में पुजारी की सम्पति में हाथ मारे ” (प्रेमचन्द सामन्त का मुंशी).  असल बात यह है कि धर्मवीर दलित स्त्री पर सौ फीसदी कब्जा चाहते हैं। अगर वह काबू में आ जाती है तो ठीक है, नहीं तो उन्होंने उसके लिए वेश्या, रखैल, देवदासी आदि सम्बोधन तो रखे हैं ही।
डॉ. धर्मवीर ‘जारसत्ता’ को अपना मौलिक चिन्तन बताकर, उसे स्थापित कर अरस्तू की तरह दार्शनिक बनना चाहते हैं। पहले उनको उनके कुछ सहयोगी लेखकों ( प्रत्यक्ष रुप से श्योराज बैचेन, कैलाश दहिया, दिनेश राम,  अप्रत्यक्ष रुप से वो लेखक जो  चुप्पी मारे बैठे हैं या फिर अपनी पत्रिकाओं में धर्मवीर के लेख ,इन्टरव्यू छाप कर) ने धर्मवीर को  डॉ. अंबेडकर घोषित करने की नाकाम कोशिश की, चेतनशील दलित साहित्यकारों ने जब इनका डॉ अम्बेडकर बनने का सपना पूरा ना होने दिया तो वे अब दार्शनिक बनने चले। जो लोग पहले इन्हें अम्बेडकर घोषित करने की कुचेष्ठा कर रहे थे अब वे ही इन्हें ‘जारसत्ता’  दर्शन का  जनक घोषित करने की पूर्ण कोशिश में लगे हैं। इनके लेखन की तर्ज पर ही इनके दर्शन की शिकार भी ग़रीब-दलित औरतें ही हैं। इनके मतानुसार दलित स्त्रियों को केवल और केवल एक ही काम है और वह है ‘जारकर्म’। डॉ धर्मवीर का कहना है ‘दलित/गैर दलित स्त्रियों के इस ‘जारकर्म’ की हिमायत में भारत का कानून भी लिप्त है. कानून के हिसाब से भारत की हर  पत्नी ‘जारकर्म’  से जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती है। कानून को इस बात से कोई ऐतराज नहीं है कि वह ऐसा करती है। इसलिए हिन्दुस्तान के इस कानून को पढ़कर यदि कोई अंदाज़ा  लगाए कि भारत की नारियों के चरित्र कैसे हैं तो वह क्या ग़लती करता है?’ (‘अस्मितावाद बनाम वर्चस्ववाद’ कथादेशअप्रैल 2003) तात्पर्य यह है कि उनके अनुसार आज भारत की दलित -   गैर दलित  स्त्री के सामने  सामाजिक, आर्थिक से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, अस्मिता के कोई मुद्दे नहीं हैं। अगर स्त्री पर चर्चा होगी तो केवल उसके ‘जारकर्म’ की। इन लेखकों को दलित-गैर दलित महिलाओं के संघर्ष और त्याग से कोई सरोकार नहीं है उसका एक ही उद्देश्य है कि वे कैसे सिद्ध करें कि भारतीय स्त्री चरित्रहीन है। वे स्त्रियों के तन-मन  पर पूरा कब्जा चाहते हैं। धर्मवीर स्त्रियों के संदर्भ में  यौन  शुचिता का प्रश्न उठाकर अपने मनुवादी अहम की पुष्टि कर रहे हैं। वे दलित/गैर दलित स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति मानते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थेरीगाथा की स्त्रियां’ की भूमिका में कहा है “अपनी पुस्तक के शीर्षक के

जनसत्ता में संपादक के नाम अनीता भारती का पत्र. सौजन्‍य: अनीता भारती
पद ‘थेरीगाथा की स्त्रियां मैंने जानबूझ गलत लिखा है, सही पद ‘थेरीगाथा की भिक्षुणियां’ है, लेकिन गलत शीर्षक रखकर मैं बताना चाहता हूं कि बुद्ध ने मेरी स्त्रियां छीनी हैं। घर से बेघर करके और विवाह से छीनकर स्त्रियों को सन्यास वाली सामाजिक मृत्यु की भिक्षुणियों बनाना उसका धार्मिक अपहरण कहा जाना चाहिए।”
डॉ. धर्मवीर दलित/गैर दलित स्त्रियों की वैयक्तिक स्वतन्त्रता और उनके मौलिक अधिकार छीन कर उन्हें अपनी परिभाषा के अनुसार चलाना चाहते हैं। वे बुद्ध का दर्शन जो कि मैत्री, करूणा, समता और संवेदना पर आधारित है उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध करते हुए कहते हैं, “इस देश को बुद्ध की ज़रूरत  नहीं है। दलितों को बुद्ध की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। बुद्ध के लौटने की प्रार्थना करना सहीं नहीं है। वे अपने घर नहीं लौटे थे, तो देश में क्या लौटेंगे?  दलितो में क्या लौटेगें? बुद्ध को लौटना है तो पहले अपने घर लौटे। घर बारी  बने, पत्नी से प्यार करें, बच्चों को स्कूल भेजें और कबीर की तरह भगवान के गुण गाएं।” (धर्मवीर का बीज व्याख्यान) मैं धर्मवीर को बुद्ध विरोधी, अम्बेडकर विरोधी, प्रेमचन्द विरोधी चर्चा में न जाकर केवल दलित स्त्री विरोधी चर्चा में ही रहना चाहूंगी। डॉ. धर्मवीर “जारकर्म” का झण्डा दलित स्त्रियों पर गाड़ कर अपने आप पर गर्व करते हुए  कहते हैं कि   ” लेकिन आप   गर्व से कह सकते हैं कि परिवार से, समाज में, साहित्य में और कानून  में “जारसत्ता की खोज आप के धर्मवीर ने की है। आप अंग्रेजी में कह सकते हैं “IS THE FIIRST DALIT CONTRIBUTION TO THE WHOLE WORLD THINKING”  आगे वह और गर्वीले अंदाज में घोषणा करतें हैं “लोग मेरे इल्हाम से परेशान हैं। मुझे यह दैवी ज्ञान कैसे प्राप्त हो गया कि किस औरत के पेट में किस पुरुष का बच्चा है। लेकिन मैं इल्हाम से नीचे रहकर ही इस बात  को जानता हूं।”
डॉ. धर्मवीर यह मानने लगे हैं कि उनको दैवीय शक्ति प्राप्त हो गई है जिससे वह सभी दलित गैर दलित महिलाओं के भ्रूण परीक्षण कर लेगें। बुद्ध का विरोध करने वाले दलित
सौजन्‍य: गुगल
लेखक  ने आखिर ब्राह्मणवादी गढ्ढे में गिरकर अपना नैतिक पतन कर ही लिया। धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन के हजारों उदाहरण दिए जा  सकते   हैं। अब सवाल है कि धर्मवीर प्रेमचंद के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पडे हैं? उन्हे प्रेमचंद से क्या दुश्मनी है?
धर्मवीर जी को प्रेमचन्द इसलिए अप्रिय हैं क्योंकि प्रेमचन्द दलित स्त्री पात्रों को अधिक मानवीय, सहनशील, संघर्षमयी दिखाते हैं और दलित स्त्री लेखन भी प्रेमचन्द को नकारता नहीं है। वह उनकी खूबियों और कमियों को एक साथ स्वीकरता है। पिछले दस सालों से लगातार दलित महिलाएं शालीनता से लिख-लिखकर डॉ.धर्मवीर जी से अपनी बहस चला रही हैं। परन्तु डॉ. धर्मवीर उस शालीनता को ताक पर रखकर उनको निरन्तर चरित्रहीन, निठ्ठली, निकम्मी, आवारा, कामचोर, पेटपूजक और ना जाने किन-किन सम्बोधनों से नवाज़तें जा रहे हैं और उनके विरोध में ना तो दलित लेखक और ना ही दलित पत्रिकाएं कुछ कह रही हैं। तब दलित महिलाएं क्या करें? कहां जाएं?  चप्पल फेंक कर विरोध करना दलित महिलाओं के मन में जमा उनका अपने खिलाफ लिखा गया दलित साहित्य के प्रति उनका दुख है। दलित समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के साथ-साथ उनका चरित्रहनन  करने पर भी क्या दलित महिलाएं चुप बैठकर लिखती रहें? बिच्छू कितनी  बार काटेगा? आखिर आप कभी तो उसे अपने हाथ से हटायेगें?  कुछ दलित साहित्यकारों का मानना है कि विरोध करने से दलित आन्दोलन टूटेगा या फिर वे यह मानते हैं कि घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए थी। पर जब घर में ही समस्या हो तो समस्या का निदान कैसे  होगा?   दलित साहित्यकारों से खुला प्रश्न है जिस आन्दोलन में पचास प्रतिशत समाज की हिस्सेदारी को नगण्य घोषित किया जा रहा है उसको जानबूझ कर उपेक्षित किया जा रहा है क्या वैसा आन्दोलन वास्तव में दलित आन्दोलन हो सकता है? क्या दलित आन्दोलन के आधार स्तम्भ समता, समानता, बंधुत्व नहीं होने चाहिएं? क्या उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘जारसत्ता’ से उत्पन्न चरित्रहनन की बात होगी? क्या दलित साहित्य दलित समाज की अन्य समस्याओं को छुऐगा भी नहीं? दलित महिलाओं के बारे में सोचते समय उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर केवल उनकी यौनिक्ता  के मुद्दे  ही क्यों चर्चा में लाए जाते हैं? दलित महिलाओं के संघर्ष का आज के दलित आन्दोलन में क्या स्थान है?  क्या दलित साहित्यकार अम्बेडकर,  बुद्ध, फूले का  बेबुनियादी विरोध करके भी दलित साहित्यकार कहलाने लायक है? ये साहित्यकार मानवता का दामन छोड़कर अमानवीय होकर दलित चेतना की वकालत आखिर कब तक करेगें? बहस खुली है। दलित स्त्रियां जवाब चाहती हैं। उन्हें अपनी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान की रक्षा के लिए जवाब चाहिए। जो अपने आप को दलित साहित्यकार समझतें हैं, और जो धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन का मौन और साथ रहकर समर्थन कर रहे हैं, दलित महिलाएं  उनसे  भी जवाब चाहती हैं अन्यथा धर्मवीर के साथ-साथ वो भी अपने आप को सवालों के कटघरे में खड़े देखेंगे। आने वाल समय  से साहित्यकारों को जिनका प्रगतिशील चिंतन से कोई वास्ता नहीं है, जो एक मूल मंत्र “अवसरवाद” को लेकर चल रहे हैं, उनको कभी माफ नहीं करेगा। और दलित स्त्रियां तो कभी माफ नहीं करेंगी। धर्मवीर तो मात्र प्रतीक हैं. जो भी धर्मवीर बनने की कोशिश करेगा दलित महिलाएं उस साहित्यकार और उसके लेखन का हर स्तर पर विरोध करेंगी चाहे वह विरोध किसी को आक्रमक ही क्यों ना लगे।
छात्र जीवन से ही दलित आंदोलन में सक्रिय अनीता भारती ने कुछ समय तक दलित पत्र ‘मूकनायक’ का संपादन किया व सामाजिक क्रांतिकारी गब्दूराम बाल्मीकि पर एक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी. पत्र-पत्रिकाओं में दलित-आदिवासी महिलाओं के मुद्दों पर निरंतर विभिन्‍न विधाओं में लिखने वाली, पेशे से अध्‍यापिका अनीता ‘दलित लेखक संघ’ की महासचिव हैं. बिरसा मुंडा सम्मान, वीरांगना झलकारी बाई सम्मान, समेत कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित अनीता से anita.bharti@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011


अतः अन्ना का आना अभी "शुभ नहीं है"


डॉ.लाल रत्नाकर 
एक शिक्षक और कलाकार

बोया पेड़ बबूल का -आम कहाँ से खाय |
अन्ना जी का उत्तर प्रदेश जाना अभी शायद जल्दबाजी का काम है, जब पूरे देश से भ्रष्टाचार मिट जायेगा तो इस पिछड़े राज्य से भी मिट ही जायेगा . आखिर  बहन जी का उत्तर प्रदेश पर राज्य करना देश की पहली दलित प्रयोगशाला है, इसमे 'भ्रष्टाचार की बात भी बेमानी लगती है क्योंकि बेईमानों को हटाकर बिना बेईमानी के कैसे राज करेंगी' भ्रष्टाचार के आगोश में जब पूरा देश डूबा हो तो बहन जी का भ्रष्टाचार समुद्र में बूंद जैसा ही है.पर आज जिस तरह से 'भ्रष्टतम' समाज पैदा हो गया है उसका क्या होगा ? उसका ठीकरा प्रदेश के जन जन तक पर फोड़ा जा रहा है पर भ्रष्ट बिलकुल अलग और पुराने तरीके से ही लगे हैं. पहले उदारीकरण तो था नहीं आजकल भ्रष्टाचार में भी उदारता बरती जा रही है, फला फला के लिए  आज़ादी है, फला फला के लिए उसमें जेल, इसका इलाज कैसे होगा. यदि उत्तर प्रदेश में इनका यही हाल रहा तो बाकि के प्रदेश का क्या हश्र होगा. त्रिपाठी जी ने इशारे इशारे में ही उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व और वर्तमान पर इशारा किया पर अभूतपूर्व दलों की ओर इशारा तक नहीं किया है. पूरे प्रदेश में सिस्टम के नाम पर बहु बेटियों तथा निक्कमे स्वजातियों को बैठाये हुए है हर जगह, जिसका अदृश्य रूप जब जब सबके सामने आता है तो दिखाई देता है कि घोर भ्रष्टाचार और अत्याचार में लम्बे समय से डूबा है यह प्रदेश. लेकिन पुलिस की भर्ती में धांधली की आवाज़ तो हाई कोर्ट तक जाती है, पर सारी भर्तियों में - जातीय निक्कमों की फौज की फौज - सारे सरकारी दफ्तरों , विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में थोक में है पर उनपर न तो मिडिया नज़र उठाता है और न अन्ना हजारे निकलते हैं सुधार के लिए "दलित राज्य की उपलब्धियों को नकारने का मतलब तो समझ में आता ही होगा" पर सारी उपलब्धियों का श्रेय "द्विज" शक्तियों को देना बहुत बड़ी साजिश है भ्रष्टाचार को बनाये रखने की.
अतः अन्ना का आना अभी "शुभ नहीं है"
---------------------


अन्ना मामले पर शिक्षकों की नाराजगी

रामदत्त त्रिपाठी

अन्ना
अन्ना हज़ारे यूपी का दौरा करने वाले हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुहिम चलाना चाहते हैं.


लखनऊ यूनिवर्सिटी के कुलपति द्वारा ने विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को अन्ना हजारे के स्वागत में सभा करने और विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस में रुकने देने की अनुमति रद्द कर देने की शिक्षक और कर्मचारी संघ में तीखी प्रतिक्रिया हुई है.
समझा जाता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने राज्य सरकार के दबाव में यह कदम उठाया है.
लखनऊ विश्विद्यालय शिक्षक और कर्मचारी संघ प्रशासन के फैसले से बहुत नाराज है. दोनों संगठनों ने अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई.
शिक्षक संघ के अध्यक्ष डाक्टर दिनेश कुमार ने बताया कि वे और उनके साथी कुलपति प्रोफ़ेसर मनोज कुमार मिश्र से मिले थे और उनसे मालवीय सभागार में सभा कर लेने देने का अनुरोध किया. मगर कुलपति नही माने.
प्रशासन द्वारा एस सम्बन्ध में असहमति व्यक्त करने के कारण अतिथि गृह में कक्ष उपलब्ध कराना संभव नही है
मनोज दीक्षित, प्रोफेसर
डाक्टर दिनेश कुमार के अनुसार कुलपति ने कहा कि वह इस तरह का विवादास्पद कार्यक्रम नहीं होने देंगे.
दिनेश कुमार के मुताबिक़ इससे पहले उन्हें मालवीय सभागार में सभा की अनुमति दी गयी थी और उन्होंने उसके लिए आवश्यक धन राशि भी जमा कर दी थी.
शिक्षक संघ के अनुसार मालवीय सभागार के अलावा अन्ना हजारे तथा उनके साथियों किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल आदि के रुकने के लिए विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस देने से भी मना कर दिया गया है. गेस्ट हाउस के इंचार्ज प्रोफेसर मनोज दीक्षित ने इसकी पुष्टि की है.
मनोज दीक्षित ने शिक्षक संघ को लिखे एक पत्र में बताया है कि, ''प्रशासन द्वारा एस सम्बन्ध में असहमति व्यक्त करने के कारण अतिथि गृह में कक्ष उपलब्ध कराना संभव नही है.''
विश्वविद्यालय कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष जगदीश सिंह और महामंत्री राकेश यादव भी अपना विरोध दर्ज कराने के लिए प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित थे.
लखनऊ विश्विद्यालय परिसर गोमती नदी के किनारे झूले लाल मैदान के पास है , जहां पहली मई को अन्ना हजारे की जन सभा होनी है.
विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने इस आम सभा से पहले मालवीय सभागार में स्वागत कार्यक्रम रखा था. इसके बाद विश्वविद्यालय के शिक्षक, कर्मचारी और छात्र अन्ना हजारे की रैली में भी शामिल होने वाले थे.
इस घटना से मै बहुत आहत हूँ. आपने कार्य परिषद को भी विशवास में लेना उचित नही समझा. आपका यह कृत्य विश्विद्यालय की स्वायत्तता व् अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है.
अनिल सिंह, प्रोफेसर
विश्विद्यालय कार्यपरिषद के सदस्य अनिल कुमार सिंह ने कुलपति के फैसले की निंदा की है.
अनिल कुमार सिंह ने कुलपति को लिखे एक पत्र में कहा कि, ‘‘इस घटना से मै बहुत आहत हूँ. आपने कार्य परिषद को भी विशवास में लेना उचित नही समझा. आपका यह कृत्य विश्विद्यालय की स्वायत्तता व् अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है. आपके निर्णय से विश्विद्यालय की गरिमा को अपार क्षति हुई है.’’
अनिल कुमार सिंह ने याद दिलाया है कि इसके पहले जय प्रकाश नारायण , वीपी सिंह एवं अन्य सामाजिक राजनीतिक नेताओं की सभाएं विश्विद्यालय परिसर में होती रही हैं.
शिक्षक संघ के महासचिव डाक्टर आरबी सिंह का कहना है कि कुलपति के इस निर्णय को एक चुनौती के रूप में लिया गया है.
अब शिक्षक और छात्र भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन में ज्यादा सक्रियता से काम करेंगे. उनका कहना है अन्ना हजारे के जाने के बाद शिक्षक संघ इस मसले पर अपनी आम सभा की बैठक बुलाएगा.
कुलपति प्रोफ़ेसर मनोज कुमार ने फोन नहीं उठाया लेकिन गेस्ट हॉउस के इंचार्ज प्रोफ़ेसर मनोज दीक्षित ने सभागार और गेस्ट हॉउस का आरक्षण रद्द करने के निर्णय की पुष्टि की है
प्रेक्षकों का कहना है कि लखनऊ विश्विद्यालय के इस निर्णय से साफ़ है कि मायावती सरकार अन्ना हजारे के उत्तर प्रदेश दौरे से काफी असहज महसूस कर रही है.

(बी बी सी हिंदी से साभार)

वाह कुलपति महोदय आपने कर दिया कमाल !

विवि में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आप 'भ्रष्टाचारियों के साथ'

लविवि में अन्ना के लिए जगह नहीं

Apr 27, 03:01 am
-बुकिंग के बाद मालवीय सभागार और अतिथि गृह देने से किया इंकार
-विवि में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को झटका
लखनऊ, 26 अप्रैल (संवाद सूत्र) : भ्रष्टाचार के खिलाफ देश को एकजुट करने वाले गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में कोई जगह नहीं है। शिक्षक भले ही अन्ना को बुला कर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को बल देना चाहते हों लेकिन लविवि प्रशासन के लिए यह महज 'विवादित' कार्यक्रम है और ऐसा कोई कार्यक्रम वह अपने यहां कराने को राजी नहीं है। इसी वजह से विवि प्रशासन ने परिसर स्थित मालवीय सभागार व अतिथि गृह की पहली मई की उस बुकिंग को भी निरस्त कर दिया, जिसे शिक्षकों ने अन्ना के लिए आरक्षित कराया था।
मंगलवार को बुकिंग निरस्त होने की सूचना आने के बाद कुलपति प्रो. मनोज कुमार मिश्र से मिलने गए लूटा पदाधिकारियों ने मुलाकात के बाद बताया कि कुलपति ने परिसर में किसी भी 'विवादित' कार्यक्रम की अनुमति देने से मना कर दिया है। शिक्षकों के मुताबिक वे अन्ना का स्वागत करना चाहते हैं लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं है। शिक्षकों का आरोप है कि निर्धारित कार्यक्रम के दौरान मंच पर कुलपति, कुलसचिव और प्रतिकुलपति के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया था, लिहाजा यह कार्यवाही द्वेष की भावना से की गई है।
लूटा के कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ. दिनेश कुमार और महामंत्री डॉ. आरबी सिंह ने बताया कि अन्ना से कार्यक्रम की स्वीकृति मिलने पर एक मई के लिए बीती 23 अप्रैल को मालवीय सभागार बुक कराया गया था। इसके लिए निर्धारित पांच सौ रुपये का भुगतान भी कैशियर कार्यालय में कर दिया गया था। आमंत्रित अतिथियों में अन्ना हजारे, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल को ठहराने के लिए अतिथि कक्ष के छह कमरे दिए जाने की स्वीकृति भी विवि प्रशासन ने दे दी थी। शिक्षक कार्यक्रम की तैयारियों में जुटे थे कि इसी बीच लविवि प्रशासन ने उन्हें मालवीय सभागार की बुकिंग रद करने की सूचना भेज दी।
विवि के निर्णय के खिलाफ कार्यपरिषद सदस्य अनिल सिंह, लविवि शिक्षक संघ के कार्यवाहक अध्यक्ष दिनेश कुमार, महामंत्री आरबी सिंह और कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष जगदीश सिंह ने प्रेसवार्ता कर कुलपति की भूमिका को कठघरे में खड़ा किया। शिक्षकों ने कहा कि एक मई के बाद बैठक कर विवि प्रशासन के इस फैसले के विरोध में आंदोलन की रणनीति तय की जाएगी।
--------------
''कार्यपरिषद सदस्य और जिम्मेदार नागरिक के नाते इस समाचार से आहत हूं। कुलपति ने एकतरफा फैसला लिया है, जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और विवि की गरिमा के विरुद्ध है।''
अनिल सिंह, कार्यपरिषद सदस्य
लखनऊ विश्वविद्यालय
''अन्ना हजारे के आगमन से विवि में होने वाली भीड़ को देखते हुए उनकी सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता था। किसी तरह की दुर्घटना से बचने के लिए कार्यक्रम रद किया गया है।''
प्रो.एसके द्विवेदी,प्रवक्ता,लखनऊ विश्वविद्यालय


प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...