शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जब मिडिया दुश्मन बन जाये !

डॉ.लाल रत्नाकर
श्याम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सेवा के अधिकारी है, और ख्यातिलब्ध सूटर है कई बार देश विदेश में प्रदेश एवं देश का नाम रोशन कर चुके है, जब इनको राष्ट्रमंडल खेलों में आधिकारिक कार्य दिया गया तो तमाम लोगों के पेट में दर्द हो गया है जिसकी आंच से तमाम रिपोर्टर जल रहे है. पर उन्हें सारे भ्रष्टाचार एक अधिकारी को सरकारें तहस नहस करने के लिए कैसे फसाती है, यह इनके मामले में देखा जा सकता है.
श्याम सिंह यादव तेज तर्रार अधिकारी है जिससे समय समय पर कई राजनेताओं यथा अमर सिंह , कई ब्यूरोक्रेट जिन्हें वह दुखते रहते है, स्वभाव से खुश मिजाज़ यादव जी बहुत जल्दी किसी पर भी बहुत जल्दी अपने व्यक्तित्व से मान मोह लेते है , पर इनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कम लोगों को ज्यादा दिनों तक संभाल पाते है या उनसे संभलता है .   
"ये बुद्धीजीवी, राजनेता, नामचीन खिलाड़ी और मीडिया आईपीएल पर अब क्यों आंसू बहा रहे है. उस समय ये आंखों पर पट्टी बांध कर क्यों बैठे हुए थे जब टीवी पर खुलेआम खिलाड़ियों की बोलियाँ लगाई जा रही थीं. उस समय नहीं दिखाई दे रहा था कि यह खेल नहीं बल्कि पैसे बनाने का खेल शुरू हो रहा है. पर लगता यह है कि सत्ता की केंद्र संसद ही इंडियन पार्लियामेंट लिमिटेड कंपनी बनकर विदेशियों की तरह राज करते हुए अपनी हुकूमत चला रही है. महँगाई कम नहीं कर रही है, टैक्स पर टैक्स लगा रही है. वह देश के विकास की बात को लेकर, सरकारी कर्मचारियों को छठवाँ वेतन आयोग के सिफारिशों के समान वेतन देकर और ग़रीबों को मनरेगा के जरिए पैसा देकर, इस तरह लोग सरकार पर आश्रित हो रहे हैं. सरकार इस खेल में मगन है. इसका फ़ायदा उठाकर पैसे वाले, अभिनेता और नेताओं ने मिलकर इंडियन पैसा बनाओ लिमिटेड (आईपीएल) का गठन किया. इसी लालच में थरूर को जाना पड़ा लेकिन और लोग भी जाते दिख रहे हैं. ऐसे में सवाल यह खड़ा हो रहा है कि सरकार मीडिया और आयकर विभाग पहले क्यों नहीं चेता. इसमें सबसे ज्यादा मूर्ख तो आम जनता बनी जो क्रिकेट को धर्म के रूप में देख रही है. उसकी इस कमजोरी का फ़ायदा आईपीएल ने उठाया. थरूर के बाद अब मोदी की बारी और फिर सरकार की बारी. पर लगता है कि मीडिया की बारी कभी नहीं आने वाली है. आईपीएल कांड से हर्षद मेहता की याद ताजा हो रही है. लेकिन अफ़सोस है कि कुछ समय बाद ये बातें हवा हो जाएंगी."

हिम्मत सिंह भाटी
-बी बी सी हिंदी से साभार     
यही कारण है की यह देश अगर हम इनसे आगे बढ़ते है और उनको याद करते है जिनकी वजह से यह सब हो रहा उसमे सर्वाधिक पिछड़े राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों का हाथ है. यथा हम यह कह सकते है की सामाजिक न्याय के जिन पुरोधाओं के चलते सामाजिक बदलाव का दौर शुरू हुआ था क्या उनके बताये रास्ते को कोई अख्तियार किया   यदि नहीं तो क्यों ? यह एक जटिल सवाल है जिसका जवाब देने से पहले सारे  पिछड़े राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों को अपना दामन देखना होगा, एक दूसरे पर हमला बोलने के सिवा किया ही क्या है हमारे कर्ण धारों ने, न ही उन्होंने कोई नीति बनाई और न ही ऐसे स्कूल बनाये जहाँ से पिछड़ों के विकास के मार्ग प्रशस्त हो सके , उन्ही धाराओं के सहारे उन्ही के बताये रास्तों से उन्ही की देखा रेख में बदलाव की कामना करना तड़पती दोपहरी में तारे देखने जैसा ही है.
 यह खबर जो नीचे संलग्न है उसी का परिणाम है -  

बुधवार, 25 अगस्त 2010

कैसे बदलेगी यह व्यवस्था || ? ||

राहुल छात्रों को पढ़ाएंगे राजनीति का पाठ   Aug 25, 11:43 pm

"चंडीगढ़, जागरण संवाददाता। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी 27 अगस्त को हरियाणा के कुरुक्षेत्र, करनाल और हिसार का दौरा करेंगे। वह यहां छात्रों को राजनीति का पाठ पढ़ाएंगे। उनके साथ राष्ट्रीय छात्र संगठन [एनएसयूआई] की राष्ट्रीय प्रभारी मीनाक्षी नटराजन के आने की सूचना है।
राहुल गांधी एनएसयूआई के संगठनात्मक चुनाव के लिए छात्रों से मिलने आ रहे हैं। नई दिल्ली से पहुंचे विशेष सुरक्षा दल [एसपीजी] ने उनके आगमन के मद्देनजर सुरक्षा व्यवस्था की कमान संभाल ली है। सूत्रों के अनुसार राहुल गांधी विमान से करनाल पहुंचने के बाद सड़क मार्ग से कुरुक्षेत्र जाएंगे। उसके बाद वह वापसी पर करनाल स्थित नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट [एनडीआरआई] में छात्रों से रूबरू होंगे। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में वह एनएसयूआई के छात्र सदस्यों से मिलेंगे। हिसार में राहुल हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में एनएसयूआई के सदस्यों से रूबरू होंगे। प्रदेश में इस समय एनएसयूआई के चुनाव चल रहे हैं। संगठन में कॉलेज, ब्लॉक व जिला स्तर पर चुनाव होने हैं। राहुल गांधी के हरियाणा दौरे को इन्हीं चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है।"

"कितने है नसीब वाले जिन्हें इस तरह की ट्रेनिंग की सहूलियत मिल रही है जिस लोक-तंत्र की दुहाई देकर राजतन्त्र के कायदे कानून पर इस नौजवान को   राजतिलक के लिए तैयार किया जा रहा है, इनकी इस योजना में जाने न जाने कितने 'महाराजा' राज के काबिल बनाने में लगे है. तरस आता  है इन विरोधी और राष्ट्र प्रेमियों पर की इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, तरस आता है करोरों नौजवानों पर जो देश को सही रास्ते पर ले जा सकते है पर उनकी सुधि किसको है. कमोबेश यही हाल विरोधी दलों के "कुवरों" की भी है."

राजा का बेटा राजा,
नेता का बेटा नेता.
मज़दूर का बेटा मज़बूर.
कैसे बदलेगी यह व्यवस्था || ? || 

सोमवार, 23 अगस्त 2010

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विचार
पिछड़ों के सबसे बड़े दुश्मन "पिछड़े"
डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल भारत जैसे विशाल देश में पिछड़ों की विशाल आवादी की आज जो वास्तविक स्थिति है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदारी यदि किसी पर जाति है तो वह पिछड़ों की ही बनती है, क्योंकि सबसे अधिक अत्याचार इन्हें ही सहना पड़ता है यदि कोई इसमे आगे आता है तो वह भी पिछड़े ही पर जो आगे आता है सबसे पहले पिछड़े ही उसका साथ छोड़ जाते है यही नहीं दोषी भी उसे ही बनाते है, आपको एइसा नहीं करना चहिये, विरोध करने का तरीका ठीक नहीं था, क्या जरुरत थी हम भी समझ रहे थे की वह गलत है, पर विरोध का यह तरीका ठीक नहीं.
अदभूद तरीके से सदियों से इन्ही पिछड़ी जातियों का विरोध किया जा रहा है जिसे पिछड़ी जातियां रोज रोज भूल रही है, कभी "अहीर - गडेरी, कभी कुर्मी- काछी,कभी नाई- लोहार, कभी मुराई - मल्लाह, कभी तेली - तमोली -  बनिया - गुजर आदि आदि यह सब कहने वाले जब जबाब पाते है तो उन्हें बहुत ख़राब लगता है, नाना प्रकार के उदाहरणों से जातीय उदगार जो तकलीफ देता है उसको सहना लगभग उनका स्वभाव बन गया है. पर इन्ही पिछड़ी जातियों के अपमानों का जो सबसे ज्यादा प्रतिकार करता है उसे इस कदर बदनाम कर दिया जाता है यथा - यादव तिकड़ी 'मुलायम -लालू -शरद ' यही नहीं क्षेत्रीय स्तर पर अन्य प्रभावशाली पिछड़ी जातियों की भी यही गति की जाति है कुल मिलाकर  जहाँ ये जातियां आर्थिक रूप से समृद्ध है वहां भी सामाजिक तौर पर उन्हें अपमानित करने के हथकंडे निरंतर अख्तियार किये जाते है.
अभी अभी इन पिछड़ों में शरीक किये गए 'जाटों' का तो कुछ अलग ही राग का अलाप है, और तो और वे अभी तथाकथित उनके अपने जातीय दुश्मन के साथ परंपरागत पिछड़ों का गला काटने को तैयार बैठे हैं. हाँ इनका एक अलग जीवन यापन के तरीके रहे है जिनकी वजह से वह अधिकाधिक लूट में शरीक रहते है . यही कारण है यह लाभ तो जातीय वजह से पिछड़ा होने के नाते सबसे ज्यादा उठा रहे है और उन्हें पिछड़ों में डालने वालों की मंशा भी यही थी . 
अगर हम इनसे आगे बढ़ते है और उनको याद करते है जिनकी वजह से यह सब हो रहा उसमे सर्वाधिक पिछड़े राजनीतिज्ञों , बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों का हाथ है .
यथा हम यह कह सकते है की सामाजिक न्याय के जिन पुरोधाओं के चलते सामाजिक बदलाव का दौर शुरू हुआ था क्या उनके बताये रास्ते को कोई अख्तियार किया   यदि नहीं तो क्यों ? यह एक जटिल सवाल है जिसका जवाब देने से पहले सारे  पिछड़े राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों को अपना दामन देखना होगा, एक दूसरे पर हमला बोलने के सिवा किया ही क्या है हमारे कर्ण धारों ने, न ही उन्होंने कोई नीति बनाई और न ही ऐसे स्कूल बनाये जहाँ से पिछड़ों के विकास के मार्ग प्रशस्त हो सके , उन्ही धाराओं के सहारे उन्ही के बताये रास्तों से उन्ही की देखा रेख में बदलाव की कामना करना तड़पती दोपहरी में तारे देखने जैसा ही है. 
चाहे सवाल किसानों का हो मजदूरों का हो या माध्यम वर्ग के कर्मचारियों का हो, उनके लिए जिस तरह की नीति बनानी चहिये थी वह बनाने में किसी की रूचि नहीं रही है और न ही आगे है, सवाल खड़ा होता है वह एजेंसी ही नहीं है. यह बात ठीक भी है पर येसा नहीं है की पिछड़े और दलितों के बीच एसे लोग नहीं है, हैं पर ईमानदारी और हरिश्चंद्र के पुतले है उन्हें जब मौका मिलता है तब वह इतने ईमानदार बनने का प्रदर्शन करते है.
जिसमे वह ईमानदारी के बदले उनकी वफ़ादारी में सारा समय निकाल देते है, और ये वफादार यह शांत पर भितरघात से सारा खेल ख़राब कर देते है, जब तक यह पिछड़े राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले समझें तब तक सत्ता के चतुर 'चूहे' सारा गोदाम क़तर जाते है वह चाहे वोट का गोदाम हो या सत्ता का, समृद्धि आते ही दुर्बुद्धि स्वतः आ जाती है. 
सदियों  के इस खेल से क्या हम कोई सबक ले रहे है, हिंदी भाषी प्रदेशों के बड़े आन्दोलनों की मलाई खाने वाले कौन है ? यदि आप को इसकी जानकारी नहीं है तो सी.बी.आई. की फाइलों में देख लीजिये आय से अधिक संपत्ति के मामले किन किन पर चल रहे है, पत्रकारों को बांटे गए कोष में कितने पिछड़ों को उसमे मिला है . यही नहीं समग्र पिछड़े आन्दोलनों के संचालकों के बंश से किसको राज्य सभा और विधानपरिशदों में भेजा गया पर उसकी मलाई खाने वालों का पूरा का परिवार उक्त सदनों की शोभा बढ़ा रहे है या घटा रहे है .
ये वही तथाकथित पिछड़े है जो आज पिछड़ों के भगवान बन बैठे है,
क्रमश :...........................
     

जाति का जिन्न

अमर उजाला से साभार-
गिरिराज किशोर
Story Update : Monday, August 23, 2010    9:26 PM
हम आतंकवाद की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन उसे रोक नहीं पा रहे। हम रोक भी नहीं सकते। हमारा गोशा-गोशा बंटा हुआ है, हुकूमत और राजनेताओं से भी ज्यादा। बाहरी आतंकवाद तो ताकत के बल पर रोकना शायद संभव भी हो जाए, पर आंतरिक आतंकवाद को इसके जरिये रोकना आसान नहीं। ऐसे कितने सवाल हैं, जिनका आजादी के छह दशक बाद भी कोई समाधान नहीं निकला। चाहे कश्मीर हो या भाषा का सवाल, ये सब धीरे-धीरे आतंक के पर्याय बन गए हैं। इस बीच बाबरी मसजिद का बवाल नासूर की तरह देश के सीने पर नक्श है। हाई कोर्ट दोनों फरीकों को मशवरा दे रहे हैं कि बातचीत से मसला सुलझाएं। पर संवाद की बात किसी की समझ में नहीं आती। दरअसल ईश्वर ने इस दुनिया का ताना-बाना अपनी इस सृष्टि के विकास, समृद्धि, समता, समानता और संवाद के लिए बुना था। लेकिन मनुष्य ने अहंकार और स्वार्थ के चलते आत्मकेंद्रित होकर दूसरों का शोषण करना शुरू किया। उस शोषण की जड़ें इतनी गहरी हो गईं कि उसका प्रतिकार ढूंढे नहीं मिल रहा। ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद छोटी समस्याएं भी वृहताकार बनकर जनतंत्र के लिए खतरा बन गईं?

एक ही उदाहरण काफी होगा। मिड डे मील के मामले में बच्चों के मां-बाप, अध्यापक और प्रशासन अस्पृश्यता का ऐसा जहर फैला रहे हैं, जो उन्हें बौद्धिक रूप से विकलांग बना देगा। मिड डे मिल अव्वल तो हुक्मरानों, अध्यापकों और प्रधान आदि जनप्रतिनिधियों के खाने-कमाने का धंधा बन गया। इसलिए बच्चे वह खाना या तो खा नहीं पाते या खाकर बीमार पड़ जाते हैं। हमारे बचपन में मिड डे मील के नाम पर खाने की छुट्टी में भीगे हुए चने और एक-एक फल दिए जाते थे। कभी दूध भी मिल जाता था। कभी ऐसा देखने को नहीं मिला कि चने में कंकड़ आ जाए या फल सड़ा-गला हो। दूध के मिलावटी या सिंथेटिक होने का तो खैर सवाल ही नहीं था। तब भोजन बांटने के लिए हर वर्ग के बच्चे की ड्यूटी लगती थी और हेड मास्टर खड़े होकर बंटवाते थे। गांधी जी के प्रभाव के कारण सब बांटने वाले को चुपचाप स्वीकार करते थे। लेकिन अब इसके ब्योरे हैं कि प्राइमरी स्कूलों में दलित रसोइये द्वारा तैयार मिड डे मील के खिलाफ बच्चों के अभिभावक हंगामा करते हैं। यह क्या है? कहीं यह दूसरे तरह के आतंकवाद की शुरुआत तो नहीं?

मैंने कहीं पढ़ा था कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद गोविंदवल्लभ पंत जब अल्मोड़ा गए, तो वहां उन्होंने सहभोज का आयोजन किया। उसमें सभी जातियों को आमंत्रित किया। सबके सामने खाना परोसा गया। परोसने वाले मिश्रित जातियों के लोग थे। पंत जी आदतन विलंब से पहुंचे। उनके लिए फल आदि लाए गए। पंत जी ने क्षमा याचना करते हुए कहा कि, मेरा आज व्रत है। वह फल खाने लगे। कुछ लोगों ने दबी जबान में उनकी ही बात दोहराई कि आज हमारा भी व्रत है। पंत जी ने कहा, खाओ, भरी थाली छोड़कर उठना अन्न देवता का अपमान है। गांधी जी को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह भंगी कॉलोनी में ठहरे थे, तो पंत जी उनसे मिलने गए। गांधी जी ने बस्ती के ही किसी आदमी से खाने को कुछ लाने को कहा। वह चला गया, तो बापू ने पंत जी से पूछा, आपको बस्ती के आदमी के हाथ का खाने में एतराज हो, तो कहें। पंत जी बोले, आपके सान्निध्य में रहकर इतना तो सीख ही गया हूं। वह एक रकाबी में गुड़ और चने ले आया। पंत जी ने गुड़ का टुकड़ा मुंह में डाल लिया। गांधी जी ने थोड़ी देर बाद किसी संदर्भ में कहा, हमारी अस्पृश्यता ने ही देश का बंटवारा कराया है। पंत जी समझ गए और कुछ देर बाद उठकर चले गए।

गांधी जी ने पुणे पैक्ट को जिस तरह खारिज किया था, उस पर डॉ. अंबेडकर नाराज थे। दलित समाज इस घटना के लिए बापू को सबसे बड़ा खलनायक मानता है। लेकिन इससे खुद दलित समाज के अंतर्विरोध नहीं छिप जाते। इस देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा दलित है। लेकिन जिन सवर्णों की वह आलोचना करता है, उनके दोष उसमें भी आ गए हैं। वह भी ऊंची जातियों की तरह विभाजित है। उसमें भी सवर्णों की तरह माइक्रो जातियां हैं। पहले बंटवारा सवर्ण और दलितों के बीच था। अगर ये दोनों वर्ग अपने-अपने बीच अविभाजित न होकर सुगठित रहते, तब शायद स्थिति इतनी न बिगड़ती। लेकिन ऐसा नहीं है। नतीजा यह है कि आज धर्मों से ज्यादा जातियों का घमासान है।

जातियों में भी उपजातियों का। अब तो वह गोत्रों तक आ गया है। पहले खापें हुक्का-पानी बंद कर देती थीं, जातिगत भोज कराती थीं, गांव निकाला देती थीं। पंचायतें भी अपनी सीमा में सजाएं देती थीं। लेकिन आज खाप और पंचायतें मृत्यु दंड देती हैं। भला किस अधिकार से? पंचायतों और खापों का काम अपने मुसीबतजदा भाइयों की मदद करना है या उनकी जीवन लीला समाप्त करना? अनेक किसान कर्ज के बोझ से परेशान होकर आत्महत्या कर लेते हैं। उनके साथी ग्रामवासी और नेता उन्हें मरते देखते हैं। सवाल है, ऐसे किसानों के लिए खाप और पंचायतें क्या करती हैं? जिन नौजवानों को वे सजा-ए-मौत देती हैं, उनके अच्छे कामों का क्या कभी संज्ञान लेती हैं? इस तरह के सवाल बार-बार उठते हैं। गांधी पूरे भारतीय समाज को एक करना चाहते थे। डॉ. अंबेडकर भी दलित समाज को जोड़ना चाहते थे। क्या ये लोग उनके मन जोड़ पाए? ऐसा लगता है कि इन सबके बाद समाज टूटा और बिखरा है। आंतरिक आतंकवाद परवान चढ़ा है। लोग डर-डरकर जीते हैं। डर ही सबसे बड़ा खतरा है, जो न मरने देता है, न जीने देता है।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

जातीय जनगणना के पक्ष में खुलकर आये दिग्विजय

दैनिक जागरण ०६-०८-२०१० से साभार-


जातीय जनगणना के पक्ष में खुलकर आये दिग्विजय 
नई दिल्ली [राजकिशोर]। जातीय जनगणना पर कांग्रेस अभी अपना रुख स्पष्ट नहीं कर सकी है लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने पत्ते खोल पार्टी नेतृत्व पर दबाव बढ़ा दिया है।
उन्होंने जातीय जनगणना का न सिर्फ पुरजोर समर्थन किया बल्कि कहा कि इसका विरोध करने वाले सच्चाई से भाग रहे हैं। यहां काबिलेगौर है कि नक्सल मुद्दे पर दिग्विजय के निशाने पर रहे गृह मंत्री पी. चिदंबरम ही कांग्रेस में जातीय जनगणना के सबसे ज्यादा खिलाफ माने जाते हैं।
बेंगलूर के नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया की तरफ से जातीय जनगणना पर आयोजित एक संगोष्ठी में दिग्विजय ने तमाम सांसदों और बुद्धिजीवियों की मौजूदगी में जातीय जनगणना की जोरदार पैरवी की। इस कार्यक्रम में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को भी आना था लेकिन शायद कांग्रेस का रुख स्पष्ट न होने के चलते वह कन्नी काट गए।
यही नहीं, कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने भी कहा, 'अभी पार्टी इस मसले पर विचार-विमर्श कर रही है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद कांग्रेस अपना रुख जाहिर करेगी।' यह याद दिलाने पर कि मंत्री समूह ने 7 अगस्त तक सभी राजनीतिक दलों से इस मसले पर राय मांगी है? नटराजन का जवाब था कि अभी उसमें वक्त है।
बहरहाल, कांग्रेस के दूसरे नेताओं से जुदा दिग्विजय ने बिना किसी लाग-लपेट के जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया। कांग्रेस के ही सांसद व ओबीसी संसदीय फोरम के अध्यक्ष हनुमंत राव की मौजूदगी में दिग्विजय ने साफ कहा, 'जाति भारत में एक सचाई है, जिसे सभी राजनीतिक दल और समाज स्वीकार कर चुका है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि जाति आधारित जनगणना के विरोध के पीछे तर्क क्या है? इससे क्या नुकसान होने जा रहा है? और, इसमें परेशानी क्या है? अब वक्त आ गया है कि बरसों से अटकी इस प्रक्रिया को शुरू किया जाए।'
दिग्विजय ने समता मूलक समाज के लिए जातियों का सही आंकड़ा होने का तर्क देते हुए कहा, 'मैं जातीय जनगणना का पुरजोर तरीके से समर्थन करता हूं क्योंकि यह एक सचाई है।' बाद में पत्रकारों के इस सवाल पर कि क्या कांग्रेस भी आपके मत की है? उनका जवाब था, 'हर राजनीतिक दल जाति की अहमियत जानता व समझता है।'
उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री चिदंबरम जाति आधारित जनगणना के विरोध में हैं। उनके नायब गृह राज्य मंत्री अजय माकन तो सभी सांसदों को पत्र लिखकर जातीय जनगणना के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। कांग्रेस अभी खुद इस पर अंतिम निर्णय नहीं ले सकी है। ऐसे में दिग्विजय के इस मसले पर मुंह खोलने से यह मुद्दा गरमा गया है। भाकपा सांसद डी. राजा ने पूरी तरह दिग्विजय की बात का समर्थन किया। दिग्विजय को कामरेड की संज्ञा देते हुए राजा ने कहा, 'हमें उम्मीद है कि मंत्रिसमूह को सद्बुद्धि आएगी और वह जाति आधारित जनगणना के समर्थन में फैसला देगा।'

नहीं बंटेगा समाज
Story Update : Friday, August 13, 2010    11:02 PM
जाति जनगणना कराने के मुद्दे पर ओबीसी नेताओं को एक मंच पर लाने की पहल करने वाले महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एनसीपी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल से संजय मिश्र की बातचीतः

क्या यह सही नहीं कि सियासत की मजबूरी में सरकार जाति गणना को राजी हुई है?
इसमें सियासत खोजना ओबीसी के साथ नाइंसाफी होगी। पिछले 80 सालों में हमारे पास सही आंकड़ा नहीं है कि ओबीसी की संख्या कितनी है। हम काफी देरी से यह फैसला कर रहे हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के पहले इसकी प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए थी। चौदहवीं लोकसभा की संसदीय समिति ने भी ओबीसी की गणना की सिफारिश की थी। उस समिति की अध्यक्ष भाजपा नेता सुमित्रा महाजन थीं। समिति का कहना था कि ओबीसी की सही संख्या का पता नहीं होने की वजह से पिछड़े वर्गों के विकास कार्यक्रमों की योजनाएं विफल होती हैं।

सरकार ओबीसी पर राजी हुई है, तो अब इसके भीतर भी जाति गिनती की मांग कहां तक उचित है?
जनगणना के फार्म में एससी, एसटी, एनटी और अदर्स मतलब ओपन कैटेगरी मार्क करने के विकल्प पहले से हैं। हमारी मांग बस इतनी थी कि इसमें ओबीसी का एक विकल्प बढ़ाया जाए। इससे पता तो चले कि देश में ओबीसी की तादाद कितनी है। यह केंद्र सरकार पर निर्भर है कि वह ओबीसी गणना में जाति उल्लेख कैसे कराएगी।

जातिगत जनगणना ओबीसी आरक्षण बढ़ाने की अगली सीढ़ी नहीं है?
सरकार आंकड़ों का उपयोग सामाजिक-शैक्षणिक विकास को तय करने में करे, तो इसमें बुराई भी क्या है। मंडल आयोग ने तीन दशक पहले ओबीसी की संख्या 52 फीसदी बताई थी। उसने तो 1981 से ही ओबीसी की स्वतंत्र गणना कराने की सिफारिश की थी। रही बात आरक्षण की, तो अनुमानतः इस समय ओबीसी की तादाद कुल आबादी का 54 प्रतिशत है, जबकि हमें 27 फीसदी ही आरक्षण मिलता है।

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है। ऐसे में यह पहल सामाजिक बंटवारे का नया पिटारा नहीं खोलेगी?
तात्कालिक प्रतिक्रियाओं की वजह से व्यापक सामाजिक बदलावों को तो नहीं रोका जा सकता। इस बात की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए कि जब भी मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत केंद्र या राज्य की तरफ से पहल होती है, तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में यह पूछा जाता है कि ओबीसी की संख्या कितनी है? मुश्किल यह है कि ओबीसी की तादाद का जो आंकड़ा हमारे पास है, उसे अदालतें नहीं मानतीं। ऐसे में हमारे पास ताजा प्रामाणिक गणना कराने के अलावा कोई रास्ता है क्या?

ओबीसी के मुद्दे पर आप उत्तर के नेताओं के साथ मिलकर मुखरता से आवाज उठा रहे हैं, मगर महाराष्ट्र में जब उत्तर भारतीयों पर हमले होते हैं, तब कोई ऐसी पहल क्यों नहीं होती?
देश ही नहीं, दुनिया में सामाजिक दूरियां मिट रही हैं। ऐसे में महाराष्ट्र हो या कोई और प्रदेश, किसी को क्षेत्र विशेष के आधार पर नागरिक अधिकारों से जबरदस्ती वंचित नहीं किया जा सकता। हम मनसे या शिवसेना के नजरिये का समर्थन नहीं करते। हमारा साफ मानना है कि सभी को कहीं भी किसी तरह अपना रोजी रोजगार करने का हक है। लखनऊ और बनारस से लेकर पटना तक मैं बीते सालों में कई बार जाकर यह बात कह चुका हूं।

रविवार, 1 अगस्त 2010

ये 'हिन्दुस्तानी'

भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबे 
ये 'हिन्दुस्तानी'
देश को हथियाने पर आमादा ये बता रहे है की इनकी जाती हिन्दुस्तानी है जबकि यह देश अरबों भारतियों का है देश और जाती का फर्क इन्हें समझ नहीं आ रहा है जबकि इसी हिंदुस्तान में जातियों की सूचि दर सूचि जारी करने वाले अब ये क्यों ये बता रहे की उनकी जाती हिन्दुस्तानी है |

 करोरों दबे कुचलों की लड़ाई में जातियों में बाँट कर राज करने वाले अब चिल्ला रहे है की जातीय गणना नहीं होगी. यह कहीं  लिख लें जातीय गड़ना नहीं तो इनको इसक खमियाजा भुगतना होगा . इन देश द्रोहियों को ये समझ क्यों नहीं आ रहा की आंकड़े छुपाना देश द्रोह है न की आंकडे जुटाना .

जनगणना में जाती गिनो 

नहीं तो देश बांटों १५ और ८५ में |

जिसकी जीतनी आवादी 

उसकी उतनी हिस्सेदारी |

धरती पर , दौलत पर 

सम्पदा और अधिकारों पर |

डॉ.लाल रत्नाकर
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किताब में खून
सहीराम
Story Update : Sunday, August 08, 2010    8:46 PM
खून-पसीना बहानेवाले बेचारे कहां शिकायत करते हैं जी? हमारे यहां किसानों को देख लो, शिकायत करने के बजाय वे आत्महत्या करना ही ज्यादा पसंद करते हैं। पर जिन्हें लगता है कि उनके खून को खून नहीं माना जा रहा, तो वे पलटकर यह शिकायत जरूर करते हैं कि तुम्हारा खून खून और हमारा खून पानी? वैसे अगर आपका खून खौलता नहीं है, तो धर्म के नाम पर ललकार लगानेवाले भी आपके खून को पानी करार देने पर ही आमादा रहते हैं। ऐसी शर्तों और ललकारों के चलते कितने ही निर्दोषों का खून पानी की तरह बह जाता है। हालांकि महादान मानकर रक्तदान करने वाले लोगों को भी कई बार बाद में पता चलता है कि उनका खून नाली में बहा दिया गया। इधर देश की राजधानी दिल्ली में तो सड़कों पर ही काफी खून बहता रहता है। हमारे खाप वाले तो बेधड़क अपना ही खून बहा देते हैं।

हो सकता है, कभी खून की कद्र रही हो, हालांकि इतिहास ऐसी कोई गवाही नहीं देता। पर एक जमाना था, जब शायर पूछ लेते थे-ऐ रहबरे मुल्को कौम बता, यह किसका लहू है, कौन गिरा? अब कोई नहीं पूछता। हो सकता है खून ज्यादा हो गया हो। आबादी ज्यादा होने का स्यापा तो लोग ही करते हैं। पर खून चाहे कितनी ही इफरात में हो, यह तय है कि पानी जरूर घट गया। मिलता ही नहीं। कहीं इसीलिए तो लोग खून पानी की तरह नहीं बहाते? खैर, तब शायर लोग यह आगाही भी करते रहते थे-लहू पुकारेगा आस्तीं का। वैसे आस्तीन तो सांपों के पलने की जगह ही है। खून कभी तलवार पर अवश्य लगता था और वीरों के बारे में यह कहा जाता था कि उनकी तलवार खून की प्यासी रहती है। इधर तो भाई लोगों के शार्प शूटर ही खून के प्यासे रहते हैं। इधर दिल्ली के शहर कोतवाल ने कहा है कि जिन पुलिसवालों की वरदी पर खून लगा होगा, यानी जो घायलों को अस्पताल तक पहुचाएंगे, उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा। पुलिस में यह नया ही रिवाज होगा। अभी तक तो पुलिसवालों के हाथ ही खून से रंगे होते थे।

बहरहाल, इधर खून-पसीना, खून-पानी, खूंरेजी की शृंखला में एक नई चीज आई है खून-दौलत। सचिन तेंदुलकर की एक जीवनी आने वाली है, बताया जाता है कि उसके पन्ने उनके खून से रंगे हैं। इतिहास रक्तरंजित रहे हैं, सत्ताएं भी रक्तरंजित रही है, पर किताबें कभी नहीं। सचिन का तो पसीना ही बड़ा महंगा है साहब। तो सोचिए, खून कितना महंगा होगा। सचिन ने करोड़ों कमाए हैं और कमाएंगे। अपना खून भला इस तरह बेचने की क्या जरूरत थी! खून तो वे बेचते हैं, जिनके पास रोटी का कोई साधन नहीं। सचिन तो ऐसे नहीं हैं।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

मुसलमानों को आरक्षण देने की तैयारी

अमर उजाला से साभार -
नई दिल्ली।
Story Update : Thursday, July 29, 2010    1:25 AM
मुसलमानों को नौकरियों और शिक्षा में बढ़ावा देने के लिए सरकार उन्हें आरक्षण देने पर विचार कर रही है। बुधवार को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि मुसलिमों को ओबीसी कोटे के जरिए आरक्षण दिया जा सकता है। खुर्शीद ने कहा कि कांग्रेस नेतृत्व इस मुद्दे पर प्रतिबद्ध है। कांग्रेस के घोषणापत्र में इस बारे में प्रतिबद्धता जाहिर की गई थी।

रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट में की गई थी सिफारिश
खुर्शीद से पूछा गया था कि क्या सरकार अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के बारे में रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों को मानने के लिए तैयार है। आयोग की रिपोर्ट पिछले साल दिसंबर में संसद में पेश की गई थी। इसमें मुसलमानों को दस फीसदी और अन्य अल्पसंख्यकों को शासकीय नौकरियों में पांच फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की गई थी। आयोग ने सुझाव दिया था कि अगर १५ फीसदी आरक्षण को लागू करने में परेशानियां आती हैं, तो अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के लिए वैकल्पिक रास्ता भी अपनाया जा सकता है।

दूसरे विकल्प पर भी काम
मंडल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक संपूर्ण अन्य पिछड़ा वर्ग जनसंख्या का ८.४ फीसदी अल्पसंख्यक हैं। इस आधार पर कुल ओबीसी आरक्षण के २७ फीसदी में से ८.४ फीसदी अल्पसंख्यकों के लिए और उसमें से छह फीसदी मुसलिमों के लिए रखा जाना चाहिए। खुर्शीद ने कहा कि आयोग ने कहा था कि या तो इसे 15 फीसदी के हिसाब से दीजिए या 27 फीसदी की भागीदारी के हिसाब से। हम दूसरे विकल्प पर काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि सच्चर समिति ने भी दूसरे विकल्प की सिफारिश की थी। खुर्शीद इस मुद्दे पर सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के संपर्क में हैं क्योंकि फैसला उसे करना है।

आंध्र, कर्नाटक, केरल की तर्ज पर दिया जा सकता है कोटा
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी मई में मुसलिम नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल को भरोसा दिलाया था कि मुसलिमों को आरक्षण देने की प्रक्रिया पर आगामी छह महीने में काम हो जाएगा। समझा जा रहा है कि पार्टी अल्पसंख्यकों को उसी तरीके से आरक्षण देने के पक्ष में है, जैसा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में है। तमिलनाडु में ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण में से 3.5 फीसदी आरक्षण मुसलिमाें को दिया गया है, जबकि आंध्र प्रदेश में मुसलिमों को चार फीसदी आरक्षण दिया गया है।

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

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