बुधवार, 28 जुलाई 2010

राम स्वरुप वर्मा और पिछड़ा एवं दलित आन्दोलन की दशा और दिशा.


डॉ.लाल रत्नाकर
'अर्जक संघ' मानवीयतावादी संगठन का निर्माण कर जिस आन्दोलन को राम स्वरुप वर्मा (जन्म - २२ अगस्त १९२३ मृत्यु १९  अगस्त १९९८ ) ने ०१ जून १९६८ में प्रारंभ किया वह आज वह उत्तर प्रदेश में दम तोड़ रहा है, यद्यपि सामाजिक चेतना का सूत्रपात करने का जो वीडा उन्होंने उठाया उसका प्रभाव ही था की पिछड़े और दलितों की पार्टियों ने उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण सामराज्य को तहस नहश किया, जो साठ के दसक से ही शुरू हो गया इसके प्रथम चरण में चौधरी चारण सिंह ने किसानों की आवाज़ बुलंद की और कांग्रेस छोड़ कर इस सामाजिक आन्दोलन के पक्षधर बने जो १८६७ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए और राम स्वरूप वर्मा उनके मंत्रीमंडल में राजस्व मंत्री बनाये गए.   


Ramswaroop Verma (1923-1998) was born August 22, 1923 in Uttar PradeshIndia. He was the founder of Arjak Sangh, a humanist organisation. The organization emphasizes social equality and is strongly opposed to Brahminism. Verma denied the existence of god and soul. He was strongly opposed to the doctrine of karma and fatalism. Verma campaigned tirelessly against Brahminism and untouchability.

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Biography

Ramswaroop Verma came from an agriculturist family. He did his M.A. (Hindi) from Allahabad University in 1949 and Law Graduation from Agra University. In both the examinations he secured first position in the first class in the University. He qualified in the written examination of the Indian Administrative Services, but did not appear in the interview. Verma was of the view that an administrator has to work within limitations. He wanted to work for social change as a free citizen. He came in contact of prominent Indian democratic socialist leaders of his time such as Acharya Narendra Dev and Dr. Ram Manohar Lohia. Consequently, he became a member of the Socialist Party. Several times he was elected to the U.P. Assembly.In 1967, he was for some time Finance Minister of Uttar Pradesh in the government headed by Charan Singh, who later became the prime minister of India. According to Ramswaroop Verma, political and economic equality could not be achieved without a social and cultural revolution. Consequently, he founded Arjak Sangh on 1 June 1968 for achieving this aim. He also started Arjak Saptahik, a Hindi weekly. He was the chief editor of the weekly. Verma was also influenced and inspired by Ambedkar. Verma was active in party politics for a long time. However, he is best known and remembered as a thinker,writer and the founder of Arjak Sangh. He kept working for Arjak Sangh throughout his life. He kept writing articles and books and delivered many lectures for promoting humanism. Ramswaroop Verma wrote and spoke in Hindi only. He died in Lucknow on 19 August 1998.

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Books by Ramswaroop Verma

Manavwadi Prashnotri (Humanist Question-Answers), Lucknow: Arjak Sangh, 1984.
Kranti Kyon aur Kaise (Revolution: Why and How?), Lucknow: Arjak Sangh, 1989.
Manusmriti Rashtra ka Kalank (Manusmriti a National Shame), Lucknow: Arjak Sangh, 1990.
Niradar kaise mite? (How to remove Disrespect?) Lucknow: Arjak Sangh, 1993.
Achuton ki Samasya aur Samadhan (The Problem of Untouchables and its Solution) Lucknow: Arjak Sangh, 1984.

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References

Arjak Sangh Siddhanta Vaktavya - Vidhan - Karyakram ( Principles, Statute and Programmes of Arjak Sangh), Patna: Arjak Sangh, ninth edition, 2001.



मा. स्वरूप वर्मा जन्म दिवस 






Ramswaroop Verma (1923-1998) was born August 22, 1923 in Uttar 




Pradesh, India. He was the founder of Arjak Sangh, a humanist 






organisation. The organization emphasizes social equality and is strongly opposed to Brahminism. Verma denied the existence of god and soul. He was strongly opposed to the doctrine of karma and fatalism. Verma campaigned tirelessly against Brahminism and untouchability.







Ramswaroop Verma came from an agriculturist family. Verma was of the view that an administrator has to work within limitations. He wanted to work for social change as a free citizen. Several times he was elected to the U.P. Assembly.In 1967, he also served as Finance Minister of Uttar Pradesh.





According to Ramswaroop Verma, political and economic equality could not be achieved without a social and cultural revolution. Consequently, he founded Arjak Sangh for achieving this aim. He also started Arjak Saptahik, a Hindi weekly. He was the chief editor of the weekly. Verma was also influenced and inspired by Ambedkar. However, he is best known and remembered as a thinker,writer and the founder of Arjak Sangh. He kept working for Arjak Sangh throughout his life. He kept writing articles and books and delivered many lectures for promoting humanism. He died in Lucknow on 19 August 1998.

  

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

जिनका सामाजिक सरोकार रहा है !


एसा नहीं की पिछड़ी जातियां एका-एक आ गयी और सारी समस्या खड़ी हो गयी .
मुंशी राम सुन्दर यादव
(से एक मुलाकात जो पिछले दिनों जून २०१० के पहले सप्ताह उनके गाँव में हुयी 'रसिकापुर' जौनपुर जनपद का एक परंपरागत गाँव है जहाँ ज्यादातर यादव आवादी है बाकि थोड़े से और लोग है जो सामाजिक तौर तरीके से इन्ही के आस पास के है)
ऐसे ही कुछ लोग जिन्हें हम यहाँ लगा रहे है उनका सामाजिक सरोकार रहा है , बहुत सारे आंदोलनों को उन्होंने गति दी है भले ही उन आंदोलनों का परिणाम उनके प्रतिकूल गया हो पर सारा आन्दोलन खड़ा ही उनके प्रयासों से था .
मुझे याद है १९९१ के विधानसभा उत्तर प्रदेश के चुनाव होने थे और मै दिल्ली में डॉ.संजय सिंह तब संचार मंत्री थे स्वर्गीय चंद्रशेखर जी के मंत्रीमंडल में उनके यहाँ आया हुआ था कुछ लोगों को टेलीफोन के कनक्शन की सिफारिश करनी थी . तब टेलीफोन के मायने होते थे और महानगरों में लम्बी कतार लैंड लाईन टेलीफोन की, खैर यह सारे काम हो गए पर ३१. हुमायूँ रोड के  संचार भवन के अतिथि निवास में प्रवास जो राजनीति की खुमारी का मुकाम बना टेलीफोन की सुबिधा और टिकट बटवारे के दौर का नज़ारा, निहायत विचारहीन सुविधाभोगी राजनेताओं का जमावड़ा उन दिनों कांग्रेस के गर्दिश के दिन और भाजपाईयों का 'मंडल' का विरोध और 'कमंडल' का हमला करके 'विश्वनाथ प्रताप सिंह' के राज्य का पतन और श्री चंद्रशेखर जी का सत्तानासिन किया जाना.  
जिसके निहितार्थ थे अगड़ी जातियों के क्योंकि श्री चंद्रशेखर जी पिछड़ी जातियों के अघोषित शत्रु थे और पिछड़ी जातियों के कुछ नेता उनके भक्त बने हुए थे जिनका उनके लिए कोई मायने नहीं था केवल अपनी चौधराहट चलाने के स्व.चंद्रशेखर जी ये जानते थे, यद्यपि उन दिनों पिछड़ों की राजनीती के बहुत सारे वरिष्ठ और कनिष्ठ तमाम तरह के नेता थे पर वह कहीं न कहीं धोखे में थे, जिनको लग रहा था की उनका कोई समझदार नेता आ गया तो उनकी दुकान ही बंद हो जाएगी (यह बात इसलिए भी प्रासंगिक है की कई पिछड़े राजनेताओ की गति और दुर्गति इसी चालाकी के चलते हुयी है) पर स्व.चंद्रशेखर जी जो स्वभाव से पिछड़ों के विरोधी थे.वे पिछड़ों के सारे आन्दोलन को कुंद करने में कामयाब हो गए थे.
यही कारण है की पिछड़ों के बड़े नेता कभी एक साथ आकर नहीं खड़े हुए, अक्सर चंद्रजीत जी इस बात को स्वीकारते थे की कहीं न कहीं यह गड़बड़ हो रही है, पर बाकि नेता स्व.श्री चंद्रजीत यादव को पचा नहीं पा रहे थे या उनका अन्दर का बौनापन उन्हें उनके पास आने से रोकता था. पर यादव जी की महत्वाकांक्षा और उनका राजनैतिक कैरियर तथा उनका आन्दोलन सब कुछ इस स्तर का था की कई पिछड़े नेता खामखाह इनसे इर्ष्या करते थे जिसकी सारी जानकारी उन्हें थी पर वो चाहकर चलकर उन्हें समझाना चाहते थे पर कौन समझ रहा है .

इसी तरह अनेक पिछड़ों के बुद्धिजीवी रातदिन एक करके चिंतन करते सामाजिक बदलाव के बारे में  सोचते थकते नहीं थे पर कुंद बुद्धि राजनेता जनता को बेवकूफ बनाने के अलावा जो कर रहे थे उस पर आज सी.बी.आई. की नज़र है, या तो उनके भाई भतीजे या कुटुम्बी हरपने को तैयार बैठे है. इस प्रथा का सबसे अधिक असर पिछड़े नेताओं पर हुआ है उतना शायद और नेताओं पर नहीं दुखद यह है की पिछड़े समाज का विखंडन करने में जितना योग इन समकालीन नेताओं ने किया है उतना उन्होंने नहीं जो स्वाभाविक विरोधी थे, कभी भी इन पिछड़े नेताओं ने अपनी क्रीम को राजनीति में आने से जितना रोका उतना तो पराये भी नहीं. जबकि स्व.श्री चंद्रजीत यादव हमेशा अच्छे लोगों को राजनीती में लाने के पक्षधर रहे, पिछड़ों की महिलाओं को हमेशा आगे लाने के लिए आन्दोलन चलाये -
डॉ.लाल रत्नाकर 

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

मेरी कविता

 " आरक्षण "
उमराव सिंह जाटव
                                                                                                    
पहले तो बेटे के चयन पर
उधार के पैसों से मिठाई बाँटी
कि डाक्टर बनेगा बेटा
दासत्व के जुए को उतार
इज्ज़त कि रोटी खा पाएगा
लेकिन वही पिता
बुद्धन जाटव
अपने पूरे कुनबे के साथ
सिर पकड़े बैठा है अब /
कहाँ से लाएगा
पूरे पचास हज़ार वर्ष भर कि फीस?
उंगलियों पर गिनता है बार बार
एक नहीं पूरे पाँच वर्ष !!
ढाई लाख रुपया !!!
पेट के गर्त में चार रोटियाँ झोंकने के लिए
पूरे परिवार को बेगारी में जोत कर
पाता है चार हज़ार मासिक !
ऊपर से
उसके मालिक का बेटा
कक्षा का सबसे फिसड्डी विद्यार्थी
सिर्फ बाईस लाख में
खरीद लाया है प्रश्न पत्र
जो बिकते हैं खुले आम/
वही मालिक का बेटा
शीर्ष से तीसरे स्थान पर आया है
और बाज़ार से खरीदी गई अपनी प्रतिभा को भूल
मेडिकल कालेज में
सप्ताह भर से चिल्ला रहा है-
"आरक्षण प्रतिभा कि हत्या है,
आरक्षण बंद करो"
राम जतन बाल्मीकि
पूरे कुनबे के साथ
महीने भर गू-मूत में लिथड़ता है
अपमान,तिरस्कार,अवमानना से त्रस्त
दूसरों कि उतरन से तन ढाँपने के जतन में
रोज़ नंगा होता है पूरा परिवार/
बिटिया को उसने बचाए रखा
मनुवादियों द्वारा थोपी गई इस लानत से/
मनुस्मृति को जलाता रहा
शिक्षा कि महत्ता समझता रहा अपनों को/
बेटी जब छोटी थी
कंधे पर बैठा कर स्कूल पहुँचाता रहा,
अब जब सारी वर्जनाओं
सारी अवमाननाओं
दमन और अपमान को लाँघ कर
डिग्री कालेज में पहुँच गई है बिटिया
तो पूरा घर गुमसुम है,
पूरे पाँच मील पर है कालेज
और कंधा छोटा पड़ गया है पिता का
साइकल माँग कर बेटी ने
आँखों के सामने अंधेरा धर दिया है!!
उंगलियों पर बार बार गिनता है राम जतन
" हे भगवान ! बाईस सौ रुपया !!!
पूरे पाँच प्राणी ,और
दूसरों का हगा हुआ सड़ांध भरा महीना
सिर्फ पाँच हज़ार रुपया "
कहाँ से लाएगा राम जतन?
तो क्या पंजा, टोकरा,झाड़ुओं के साहचर्य में ही
कटेगा बेटी का जीवन!
ऊपर से बेटी कि सहपाठिन
जो विद्यालय में आती है
फोर्ड आइकन वातानुकूलितकार में
सप्ताह भर से चीख रही है कालेज में-
"शिक्षा के माथे पर कलंक है आरक्षण
आरक्षण कि सुविधा पर सवार लोगों को
घुसने नहीं देंगे कालेज में-पैदल भी साइकल पर भी"



अमित खटीक
अपनी महनत,अध्यन,प्रतिभा के बल पर
विपन्नता,अभावों,दारिद्र्य से जूझता
तानों तिरस्कारों को भोगता
ग्रीष्मवकाश में मजदूरी कर
पुस्तकों का खर्च उठा कर
90 प्रतिशत अंक पाकर हुलसाया
खटीक मुहल्ले ने सप्ताह भर जश्न मनाया
इंजीनीयरिंग में अगड़ों को भी पछाड़
जनरल में प्रवेश पा कर इतराया/


मेधावी मेधावी कह कर
गुरुजनों ने थपथपाया/
वही अमित खटीक
जो कल कालेज कि आँख का तारा था
आज मुँह छुपाता फिर रहा है !
क्योंकि
करोड़पति हलवाई का बेटा
बाज़ार में खुले आम बिक रहे पर्चों को हल कर
छात्रावास में उसके कमरे का सहवासी बन
अपने गिरोह के साथ प्रताड़ित कर रहा है-
" आरक्षण के बल पर आया है ।
मेरिट का अपमान है आरक्षण। मुर्दाबाद"
98 प्रतिशत अंक अमित के !
क्या वे भी आरक्षण से मिले थे?
सोच कर परेशान है अमित/
लेकिन आरक्षण विरोधी परेशान नहीं हैं-
उनके पास मेरिट खरीदने के सहज साधन हैं/




जिन बेचारों के पास
किताबें क्रय करने तक कि औकात नहीं
क्या प्राइवेट नर्सिंग होम चलाएँगे!!
और उधर अमीरों के नर्सिंग होमों में
पैसे के बल पर मेरिट खरीदनेवाले
गरीब बेबस मज़लूमों कि किडनियाँ
धोखे से निकालनेवाले
भीख मांगनेवाले गिरोहों के लिए
बेबसों कि टाँगे काटनेवाले
गर्भ में पलती कन्या को सूंघते तलाशते
गर्भ में ही उसकी हत्या करने वाले
अस्पताल कि दवाओं को बाज़ार में बेचनेवाले
हर अनैतिक कर्म,हर अवैधानिक कार्य
का आरक्षण अपने नाम कर लेनेवाले
खरीदी गई महान प्रतिभा के धनी
गले में स्टेथो लटकाए
गली गली चीख रहे हैं-
"आरक्षण मुर्दाबाद"



सोमवार, 5 जुलाई 2010

राहुल से कुछ सवाल

(अमर उजाला से साभार)
तवलीन सिंह
Story Update : Sunday, July 04, 2010    9:47 PM
पिछले दिनों भारत के युवराज साहब का जन्मदिन था। राहुलजी, क्योंकि अकसर देश के देहाती क्षेत्रों की धूल खाया करते हैं, गरीबों के गरीबखानों में कई-कई रातें गुजारते हैं, जन्मदिन की खुशी में विदेश यात्रा पर निकल पड़े। उनकी गैरहाजिरी में उनके भक्तों ने हर तरह से उनका जन्मदिन मनाया। मंदिरों में उनकी लंबी उम्र के लिए दीये जलाए गए, खास पूजन हुए, किसी जयपुरवासी ने राहुल चालीसा लिख डाली, युवाओं ने रक्तदान किया, आतिशबाजियां हुईं, कविताएं पढ़ी गईं और देश के अखबारों में उनकी खूब तारीफें पढ़ने को मिलीं।
राहुलजी की लोकप्रियता इतनी है कि हम पत्रकारों पर स्वाभाविक ही असर होना ही था। सो, भारतीय मीडिया में आपको राहुलजी के प्रशंसक ज्यादा और आलोचक कम मिलेंगे। दूसरी बात यह है कि हम पत्रकारों में एक अनकही मान्यता-सी है, राहुलजी देश के अन्य युवराजों से कहीं ज्यादा अच्छे हैं। भारत में युवराजों की बहार-सी आई हुई है, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक।
कश्मीर में अगर उमर अब्दुल्ला हैं, तो पंजाब में सुखबीर सिंह बादल और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव। दक्षिणी राज्यों की तरफ देखें, तो तमिलानाडु में करुणानिधि के कई वारिस हैं, जिनमें दो भावी युवराज आजकल गद्दी के लिए झगड़ रहे हैं। आंध्र की गद्दी को हासिल करने के लिए जूझ रहे हैं स्वर्गवासी मुख्यमंत्री, वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगन। युवराजों की इस भीड़ में राहुलजी हीरे की तरह चमकते हैं, शायद इसलिए हम भारतीय पत्रकारों के मुंह से आप एक शब्द आलोचना का नहीं सुनेंगे, राहुलजी को लेकर।
विदेशी पत्रकारों की लेकिन और बात है। अपने युवराज साहब के जन्मदिन पर भी वे आलोचना करने में लगे रहे। पहले तो अमेरिका के प्रसिद्ध ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने राहुलजी का मजाक उड़ाते हुए लिखा कि भारत देश उनकी विरासत है और वह जब चाहे, उसको हासिल कर सकते हैं। ब्रिटेन के ‘इकोनॉमिस्ट’ अखबार ने ऐसी ही धुन आलापते हुए लिखा कि राहुल गांधी का वाहन है भारत देश, जिसको आजकल मनमोहन सिंह चला रहे हैं, लेकिन राहुलजी जब चाहें, अपनी गाड़ी की चाबी वापस मांग सकते हैं। दोनों अखबारों ने आलोचना की कि राहुलजी इतनी अहम जगह पर विराजमान होने के बावजूद अभी तक आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को लेकर मौन हैं। अभी कोई नहीं जानता कि उनके राजनीतिक-आर्थिक विचार क्या हैं।
सच पूछिए, तो यह पढ़कर एक जिम्मेदार राजनीतिक पंडित होने के नाते मैं खुद गहरी सोच में पड़ गई। वास्तव में, राहुलजी देश के सबसे बड़े नेता हैं, आजकल। उनका कुसूर नहीं कि कांग्रेस पार्टी उनकी खानदानी कंपनी बनकर रह गई है और वह इस कंपनी के सीईओ हैं। न ही इसमें उनका कोई कुसूर है कि भारत के अन्य राजनीतिक दलों का आज बुरा हाल है। मार्क्सवादी दलों के अलावा भारतीय जनता पार्टी ही एक पार्टी है, जिसमें अभी तक खानदानी कंपनी की परंपरा नहीं चली है। उनके पास भावी नेता भी है, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है, लेकिन गुजरात दंगों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में राहुलजी का प्रधानमंत्री बनना तकरीबन तय है, लेकिन अभी तक देशवासियों को बिलकुल नहीं मालूम है कि भारत की समस्याओं के बारे में वह क्या सोचते हैं। कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब उनसे मांगना हमारा अधिकार है। राहुलजी जब गरीबों के घरों में रातें गुजारते हैं, तो वहां से सीखते क्या हैं? क्या कभी उनको खयाल आता है कि भारत का आम आदमी ६० वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी क्यों गरीब है? क्यों नहीं हम उसको दे पाए हैं, पीने के लिए साफ पानी और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी? क्यों देश के अधिकतर किसान आज भी बारिश के पानी पर निर्भर हैं? गांव-गांव जब घूमते हैं इतने उत्साह से राहुल भैया, तो कभी सोचते हैं कि सड़कें इतनी टूटी-फूटी क्यों हैं? बिजली क्यों नहीं मिलती है, आम आदमी को २४ घंटे? एक छोटे मकान का सपना क्यों आम भारतीय देखता रहता है उम्र भर?
ये चीजें बुनियादी हैं, अन्य देशों के आम लोगों को अकसर उपलब्ध हैं, तो क्या कारण है कि लाखों-करोड़ों रुपये के निवेश के बावजूद हमारे देश में आम आदमी आज भी बेहाल है? राहुलजी जब दिल्ली की सड़कों पर घूमते हैं और लाल बत्तियों पर देखते हैं, तो चिलचिलाती धूप या बर्फ जैसी ठंड में छोटे बच्चों को काम करते देखकर क्या उनका दिल दुखता है? क्या उनको कभी यह खयाल आता भी है कि देश पर उनके परनाना ने राज किया, दादी ने राज किया, पिता ने राज किया और उनके बाद उनकी अम्मा की बारी आई। पिछले ६२ वर्षों में भारत पर तकरीबन उन्हीं के परिवार का राज रहा है, तो क्यों देश का इतना बुरा हाल है आज भी कि आम आदमी का जीवन विकसित पश्चिमी देशों के जानवरों से बदतर है? अधिकार है, दोस्तों, हमको इन थोड़े से सवालों के जवाब मांगने का अपने भावी प्रधानमंत्री से।

गरीबों के रहनुमा थे वीपी सिंह

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चौथी दुनिया से साभार 


अंग्रेजों का जमाना था. उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद तहसील की दो रियासतें थीं, डैया और मांडा. विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म इसी डैया के राजघराने में 25 जून, 1931 को हुआ था. बचपन का लालन-पालन अपनी मां की गोद में यहीं हुआ, लेकिन अपने मूल पिता के परिवार में बालक विश्वनाथ का रहना पांच वर्ष तक ही हुआ. डैया के बगल की रियासत मांडा के राजा थे राजा बहादुर राम गोपाल सिंह. वह नि:संतान थे. अपनी राज परंपरा चलाने के लिए उन्होंने बालक विश्वनाथ को माता-पिता की सहमति से गोद ले लिया. फिर तो विश्वनाथ ने पीछे नहीं देखा. गंभीरता से पठन-पाठन में जुट गए. परिणामस्वरूप हाईस्कूल तक कई विषयों में उत्कृष्टता मिली. बाद में वह बनारस के उदय प्रताप सिंह कॉलेज में पढ़ने आए. वहां अच्छे छात्रों की पंक्ति में थेविश्वनाथ. प्रिंसिपल ने उन्हें प्रिफेक्ट बनाया. तब तक भारत को आज़ादी मिल चुकी थी. विश्वनाथ की मसें भी भींग रही थीं. विश्वनाथ ने छात्रसंघ गठित करने की मांग रखी. अध्यक्ष पद के लिए प्रिंसिपल का एक लाड़ला छात्र खड़ा हुआ. उसे गुमान था कि वह प्रिंसिपल का उम्मीदवार है. प्रतिरोध व्यवस्था में पक्षपात के ख़िला़फ विश्वनाथ के कान खड़े हुए. आजीवन इस्तीफों से मूल्यों को खड़ा करने और गलत का प्रतिरोध करने वाले भावी वी पी सिंह का यही उदय था. बस क्या था, प्रिफेक्ट पद से इस्तीफा दे दिया. यह उनकी ज़िंदगी का पहला इस्तीफा था. समान विचारों के छात्रों ने संघ के अध्यक्ष पद के लिए उन्हें खड़ा कर दिया. युवा कांग्रेस का आग्रह टालकर वह स्वतंत्र उम्मीदवार बने और प्रिंसिपल के उम्मीदवार को हराकर जीत गए. वोट को आकृष्ट करने की क्षमता का यही बुनियादी अनुभव बना वी पी सिंह का. राजनीति इसी अंतराल में उनका विषय बनी. उनके व्यक्तित्व में दो ध्रुव थे. वैज्ञानिक बनने और सामाजिक कार्यों से मान्यता की मंशा थी. चित्रकारी सामाजिक ध्रुव का हिस्सा थी. इन ध्रुवों के बीच कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी. इसी के बीच एक ठोस वी पी सिंह का उदय हुआ. 24 साल वर्ष की आयु में वह राजनीति की तऱफ संयोगवश मुख़ातिब हो गए. यहां भी वोट की राजनीति की कल्पना नहीं थी. 1955 में कांग्रेस के चवन्निया सदस्य बने, 24 साल की उम्र में. कांग्रेस में आने का विचार इतर था, सत्ता में हिस्सेदारी नहीं. अपने इलाक़ेके साधारण आदमी की सुनवाई जो नहीं हो रही थी, वही उनकी राजनीति का कालांतर में केंद्र बनी. वी पी सिंह तन-मन से कांग्रेस की राजनीति में आ गए.


1957 में कठौली गांव के एक भूदान शिविर में अपना एकमात्र फार्म लैंड, 200 एकड़ की उपजाऊ और नहर से जुड़ी भूमि, बिल्कुल सड़क के किनारे वाली भूदान में दे दी. तब विनोबा भावे ने कहा था कि राजपुत्र सिद्धार्थ ने त्याग किया तो संसार का कल्याण हुआ. राजपुत्र विश्वनाथ ने आज जो त्याग किया है, उससे भविष्य में भारत का कल्याण होगा. 1969 के विधानसभा चुनाव में वह सोरांवा विधानसभा सीट से जीतकर विधानसभा पहुंच गए. यहीं से उनका राजनीतिक प्रशिक्षण शुरू हुआ.
विधायक के रूप में 1974 तक का कार्यकाल बचा था, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें 1971 का लोकसभा चुनाव फूलपुर क्षेत्र से लड़ना पड़ा. इसमें उन्होंने जनेश्वर मिश्र जैसे तपे-तपाए समाजवादी नेता को पछाड़ा था. वह राजनीति के मानचित्र पर आ गए थे. 10 अक्टूबर, 1976 को इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में व्यापार के उपमंत्री बना दिए गए. जहां वह दिसंबर 1976 तक रहे. आपातकाल की समाप्ति के बाद जनवरी 1977 में नए चुनाव की घोषणा हुई. उन्हें फूलपुर से चुनाव लड़ना पड़ा. आपातकाल की ज़्यादती का फल उस चुनाव में कांग्रेसियों को भोगना पड़ा. इंदिरा भी हारीं, वीपी भी. सत्ता बदल गई. केंद्र में पहली बार ग़ैर कांग्रेसी सरकार का आगमन हुआ. कांग्रेस के लोग इंदिरा को छोड़ रहे थे. वीपी ने इंदिरा का साथ न छोड़ने का निर्णय लिया. जनता शासनकाल में इंदिरा गिरफ़्तार हुईं. विरोध में कांग्रेसियों का जेल भरो अभियान शुरू हुआ. वह दिल्ली कोर्ट में पेश हुईं तो उस प्रदर्शन में वीपी भी थे. उन्होंने इलाहाबाद में तीन बार जेल भरो अभियान चलाया. नैनी जेल में बंद किए गए. यह आज़ाद भारत में वीपी की पहली जेल यात्रा थी. जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी की केंद्र में वापसी हुई. वीपी इस बार इलाहाबाद सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें जगह नहीं मिली. लोकसभा सदस्य बने छह माह भी नहीं हुए थे कि एक दिन इंदिरा गांधी का बुलावा आया और उन्होंने पार्टी प्रमुख के सामने वीपी को बताया कि आप उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. अपना मंत्रिमंडल बनाइए. वीपी ने इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया. वह मंत्रिमंडल गठन में गुटों से परे रहे. उन्होंने ख़ुद को छोटा नहीं बनाया, व्यापक राजनीति शुरू की. पहला मुद्दा था दलितों-पिछड़ों का. उन्होंने पिछड़े वर्ग के एक वकील को हाईकोर्ट का जज बनाया. राज्य में पिछड़े वर्गों के लिए मंडल कमीशन की स़िफारिशों को लागू किया. फिर आई डकैतों की समस्या. इसके लिए वीपी अपनी कुर्सी तक को जोख़िम में डालने से नहीं चूके. उन्होंने अफसरों को अपना इस्तीफा देने तक की धमकी दी. एक मुठभेड़ में थानेदार, सिपाही मारा गया तो मुख्यमंत्री ख़ुद उन्हें कंधा देने पहुंचे. शहादत की यह इज़्ज़त थी. पुलिस का मनोबल बढ़ा. डकैत घिरने लगे. इससे वीपी को ख़ूब राष्ट्रीय प्रचार और यश मिला. इसी बीच वीपी जिंदवारी क्षेत्र से विधानसभा के लिए भी चुने गए. वीपी के बड़े भाई चंद्रशेखर सिंह एक दिन डकैतों द्वारा ग़लतफहमी में मारे गए. उन्हीं दिनों मुलायम सिंह यादव ने आरोप लागाया कि वीपी के निर्देश पर डकैतों के नाम पर पिछड़े मारे जा रहे हैं. इससे वीपी को बड़ा क्षोभ हुआ. बिना किसी से परामर्श लिए वीपी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इस तरह वीपी जून 1980 से जून 1982 तक स़िर्फ दो साल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वह अब कांग्रेस की राजनीति का अपरिहार्य हिस्सा हो चुके थे. जुलाई 1983 में वह राज्यसभा के सदस्य बने. यहां वह अप्रैल 1988 तक रहे. फिर केंद्र में 29 जनवरी, 1983 से सितंबर 1984 तक वाणिज्य मंत्री रहे. आपूर्ति मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला. सितंबर 1984 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने. दिसंबर 1984 से जनवरी 1987 तक भारत सरकार के वित्त मंत्री रहे. इंदिरा गांधी की असामयिक मौत के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने भी वीपी को वित्त मंत्री बनाया. वीपी ने महसूस किया कि इस व्यवस्था में केवल धनपतियों की चलती है. उन्होंने पूंजीवादी, काले धनपतियों और कर चोरों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूंक दिया. वह वित्त से रक्षा मंत्री बना दिए गए. बतौर रक्षा मंत्री उन्होंने बोफोर्स सौदे मेंदलाली के मद्दे को उठाया और सत्ता के चरित्र का पर्दाफाश कर दिया. तब तक प्रधानमंत्री राजीव गांधी से उनका मतभेद काफी बढ़ चुका था. उन्होंने रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उन्हें नहीं मालूम था कि जनता उनके नेतृत्व का इंतज़ार कर रही है. मुजफ़्फरनगर के किसान सम्मेलन में लाखों की भीड़ को देखकर पता चल गया कि देश की जनता उन्हें अपना नेता मान चुकी है. 19 जुलाई, 1987 को वीपी कांग्रेस से निकाल दिए गए. वीपी ने जनमोर्चा का गठन किया. इसी बीच अमिताभ बच्चन के इस्तीफे से ख़ाली हुई इलाहाबाद सीट से वीपी ने निर्दलीय लड़कर कांग्रेस के सुनील शास्त्री को सवा लाख वोटों के अंतर से हरा दिया. वीपी के प्रयास से व्यापक विपक्षी एकता बनी. सात प्रमुख विपक्षी दलों को मिलाकर एक राष्ट्रीय मोर्चा तैयार हुआ. राजीव सरकार को भ्रष्टाचार, महंगाई समेत कई मुद्दों पर घेरना शुरू हो गया. बोफोर्स मुद्दा अग्रणी बना. लोकसभा चुनाव जनवरी, 1990 में होना चाहिए था, लेकिन राजीव गांधी ने नवंबर, 1989 में ही चुनाव कराने का निर्णय ले लिया. वीपी को पूरे देश में चुनावों का संचालन देखना पड़ा. कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ, कहीं रक्तपात भी नहीं हुआ. केवल जनता की इच्छा थी कि सत्ता और विकास आम आदमी के दरवाज़े तक जाए. इसलिए जनता ने उस चुनाव में कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया. राष्ट्रीय मोर्चा पूर्ण बहुमत में आया. वीपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने दो दिसंबर, 1989 को अपना कार्यभार संभाल लिया. चौधरी देवीलाल उप प्रधानमंत्री बनाए गए. राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार तो बन गई, पर उसमें घटकवाद जारी रहा. मेहम कांड को लेकर देवीलाल नाराज़ रहने लगे तो चंद्रशेखर का भी वीपी से दुराव जारी रहा. फिर भी जिन मुद्दों पर सरकार बनी थी, वीपी ने सब पर अमल किया. सबसे चौंकाने वाली बात उनके द्वारा सात अगस्त, 1990 को मंडल कमीशन की स़िफारिशों को लागू करने की घोषणा थी. वीपी का यह निर्णय भारतीय इतिहास में वंचितों के उत्थान के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ.
जब सामाजिक जीवन विचार केंद्रित, सार्थक परिवर्तन-परिचालित न हो, जनांदोलन रहित हो जाए, ताक़तवर लोगों की सरपरस्ती के तहत ही जीने की मजबूरी हो, लोकतंत्र के विकास के लिए न कोई आकांक्षा हो और न तैयारी, व्यापक असमानता, कुव्यवस्था एवं बेरोज़गारी ही संरचना का चरित्र हो जाए, राजनीति का अकेला अर्थ हो जाए सत्ता के ज़रिए धन का संग्रह, तो वैसे समय में वीपी सिंह जैसे इतिहास पुरुष की याद आनी स्वाभाविक है, जो आज हमारे बीच नहीं हैं.
मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने से नाराज़ भाजपा ने राम जन्मभूमि मामले को लेकर सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. वीपी ने विवाद को सुलझाने के लिए कई बैठकें बुलाईं, लेकिन नतीजा स़िफर रहा. आख़िरकार भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया. सरकार अल्पमत में आ गई और सात नवंबर, 1990 को वीपी ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इसी बीच कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए जनता दल से 25 सांसदों को लेकर अलग हुए गुट के नेता चंद्रशेखर को समर्थन देने की घोषणा कर दी. कांग्रेस समेत कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए. इस्तीफा देने के बाद भी वीपी के क़दम नहीं रुके. वह पूरे देश में घूम-घूमकर जनता के हितों के लिए संघर्ष करते रहे. इस दौरान जनता दल कई बार टूटा. धीरे-धीरे दलगत राजनीति से वीपी का मोहभंग होता गया और जुलाई 1993 में उन्होंने पार्टी संसदीय दल के नेता पद से त्यागपत्र दे दिया. कुछ महीने बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता भी छोड़ दी. दलगत राजनीति से बाहर आए तो जनचेतना मंच से जनसंघर्ष की शुरुआत की. दिल्ली की 30 हज़ार आबादी वाली वजीरपुर झुग्गी बस्ती को उजाड़ने के लिए सरकार ने बुलडोज़र चलाने की कोशिश की तो वह यह कहते हुए बुलडोज़र के सामने खड़े हो गए कि अगर सरकार सभी अनाधिकृत फार्म हाउसों को भी ढहा दे तो हम इन झुग्गी बस्तियों को उजाड़ने से नहीं रोकेंगे. बाध्य होकर सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा. इस प्रकार झुग्गी झोपड़ी वालों की समस्या को वीपी ने एक राष्ट्रीय परिघटना बना दिया. तब तक वीपी गुर्दे और कैंसर जैसी कई बीमारियों से घिर गए थे. धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरता गया, पर ज़िंदगी ने हार नहीं मानी. शैय्या पर वह कविताएं लिखते रहे, चित्र बनाते रहे. मौत के नीम अंधेरे में उन्होंने संबंधों, सरोकारों और मुसीबतों पर कविताएं लिखीं. वीपी का जाना हुआ बिल्कुल चुपचाप.

  1. 26-27 नवंबर 2008 को पूरा देश मुंबई आतंकी हमले से सहमा था. डॉक्टर दोपहर में रूटीन चेकअप में आए. उन्हें देखते ही वीपी बोल पड़े, डॉक्टर, मुझे आज़ाद कर दो. सचमुच पांच मिनट बाद यानी एक बजकर 55 मिनट पर उनकी धड़कन ठहर गई. आज़ाद हो गए. ज़िंदगी को सलाम करके चले गए. परीक्षित का अंत हो गया. इस प्रकार वीपी जबसे राजनीति में आए, केंद्र में रहे. कांग्रेस की राजनीति में तो एक विश्वासपात्र की तरह रहे ही, उनके चरित्र की छाप बाहर भी फैलती गई. जब भ्रष्टाचार के मुद्दे का शंखनाद किया तो जन-लहर के प्रणेता बन गए. उनका नक्षत्रीय उत्थान हुआ. इसके पहले भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोज़गारी का मुद्दा जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति का कारण बना, जिस पर संपूर्ण भारत आपातकाल की स्मृतियों से एकजुट हुआ. वीपी का मुद्दा भी भ्रष्टाचार था और संस्थागत स्वरूपों का क्षरण. जयप्रकाश की क्रांतिकारी पहल में ब हुत से युवा नेता शामिल हुए, पर वे क्रांति के आदर्शों पर क़ायम न रहकर, सत्ताकामिता के शिकार हो गए. वीपी कीविद्रोही जमात में उस समय की विपक्षी राजनीति और असंतुष्ट नेता थे, जो कुचक्रों के चलते मुख्यधारा से छिटकते चले गए. वीपी ने युवा वर्ग को ही नहीं, संपूर्ण जनता को गोलबंद किया. ऐसी जन लहर कभी भारतीय राजनीति में नहीं आई थी, जबकि मुद्दा और व्यक्तित्व दोनों जनता की नज़र में प्रधान होकर भविष्य का सपना बन जाए. व्यापक लोकतंत्रीय जनहित में इस सपने को भुनाना नहीं, उतारना ही वीपी की असली छाप को समझने का सबब है.

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

पेट्रोल-डीजल की कीमत बाजार के भरोसे छोड़ना सही नहीं

अमर उजाला के सम्पादकीय से साभार-
[लेकिन जिस सरकार को इसकी परवाह ही नहीं है।]
दूसरा पहलू(अर्थव्यवस्था-और सामाजिक पिछड़ापन )परंजय गुहाठाकुरता
यह शुरू से कहा जाता रहा है कि आर्थिक उदारीकरण की नीति का लाभ सिर्फ अमीरों को मिलता है, गरीबों को इससे कोई फायदा नहीं होता। पेट्रो उत्पादों की कीमत से संबंधित यूपीए सरकार की नीति से यह साफ-साफ झलक जाता है। पिछले दिनों सरकार ने पेट्रोल-डीजल-केरोसिन और रसोई गैस के दाम बढ़ाए। इस मूल्यवृद्धि के खिलाफ सीटू ने पश्चिम बंगाल में बंद आयोजित किया। आगामी सोमवार को विपक्ष इस मूल्यवृद्धि के विरोध में राष्ट्रव्यापी बंद आयोजित करने जा रहा है। इसके बावजूद सरकार पसीजती नजर नहीं आती। जी-२० की बैठक से लौटते हुए प्रधानमंत्री ने पेट्रो पदार्थों में हुई मूल्यवृद्धि को वापस लेने से तो इनकार किया ही, यह तक संकेत दिया कि पेट्रोल की तर्ज पर डीजल को भी डीकंट्रोल किया जाएगा। यानी इस पर दी जा रही सरकारी सबसिडी अब पूरी तरह हटा ली जाएगी। इसका नतीजा यह होगा कि महंगा होकर डीजल अब पेट्रोल के बराबर हो जाएगा। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ऐसा क्यों कर रही है? वह तर्क दे रही है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए इसके सिवा उपाय नहीं है। ऐसा क्यों है कि अचानक मंत्रिमंडलीय समूह पेट्रो उत्पादों को प्रशासनिक मूल्य व्यवस्था से मुक्त करने की किरीट पारिख कमेटी की अनुशंसा को हरी झंडी दे देता है? इसके लिए ठीक यही समय क्यों चुना गया? क्या पेट्रोल-डीजल की कीमत को बाजार के हवाले करने का जी-२० की बैठक से कोई सीधा संबंध है? भूलना नहीं चाहिए कि जी-२० के मुल्क अपने यहां तेल सबसिडी पूरी तरह खत्म करने के हामी हैं, और इस दिशा में भारत के आगे बढ़ने का टोरंटो में स्वागत किया गया है। वहीं पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री के बारे में कहा कि जब वह बोलते हैं, तब सारी दुनिया सुनती है। क्या इस तारीफ के लिए केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए हैं, और अब डीजल को नियंत्रण मुक्त करने जा रही है? क्या सरकार को इस देश के आम लोगों की कोई चिंता नहीं है कि डीजल से सबसिडी पूरी तरह खत्म कर देने पर उसका क्या होगा? यह बेकार का तर्क है कि पेट्रोल-डीजल को डीकंट्रोल करना समय की जरूरत है। बेशक हम बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश के ७० फीसदी लोग अब भी २० रुपये रोजाना पर गुजारा कर रहे हैं। कमोबेश यह तथ्य सरकार भी मानती है। अब अचानक यह सचाई सामने रखी जा रही है कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे मुल्कों में डीजल के दाम पेट्रोल से भी अधिक हैं। सवाल है कि क्या वहां आबादी का बड़ा हिस्सा भूख और बेरोजगारी से जूझता है? अगर नहीं, तोहमें अपनी आर्थिक व्यवस्था अमेरिका-इंग्लैंड जैसी क्यों बनाने के बारे में सोचना चाहिए? वहां पेट्रोल-डीजल के दाम घटने पर किराये घट जाते हैं। यहां खासकर निजी परिवहन सेवा में क्या ऐसा संभव है? जाहिर है, नहीं है। फिर तेल मूल्यों को बाजार के भरोसे छोड़ने का औचित्य क्या है? सरकार कह रही है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए पेट्रोल के बाद अब डीजल को सबसिडी से बाहर कर देना चाहिए। लेकिन मेरा मानना है कि सरकार की यह कवायद पूरी तरह राजनीतिक है। यूपीए सरकार आज इस स्थिति में है कि कोई उसे चुनौती नहीं दे सकता। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा खुद हाशिये पर है। वाम दल अगर सरकार के साथ होते, तो वह यह कदम हरगिज नहीं उठा सकती थी। लेकिन लेफ्ट न सिर्फ सरकार के साथ नहीं हैं, बल्कि पिछली बार की तुलना में उनकी ताकत भी कम हो चुकी है। दूसरी तरफ सरकार की निरंकुशता का आलम यह है कि संसद में कटौती प्रस्ताव का भी अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। आम चुनाव में अभी कई साल हैं। ऐसे में, सरकार निरंकुश ढंग से चले, तो कोई उसका हाथ पकड़ने वाला भी नहीं है। असल बात यह है कि सरकार को अब खुद अपनी और तेल कंपनियों की फिक्र है। बाजार में पेट्रोल या डीजल जिस दाम पर मिलता है, उसका आधा सीमा और उत्पाद शुल्क के रूप में टैक्स ही होता है। इस टैक्स का ६० से ७० फीसदी हिस्सा केंद्र का होता है, शेष राज्य का। यानी इसमें राज्य की भागीदारी कम है। बावजूद इसके केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने पिछले दिनों तमाम राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखकर कहा कि वे टैक्स की अपनी हिस्सेदारी कम करें। यानी केंद्र अपनी हिस्सेदारी में थोड़ी भी कमी करने के लिए तैयार नहीं है। फिर इस सरकार को भला जन हितैषी कैसे मानें? दरअसल सरकार को सलाह देने वाले लोग कॉरपोरेट कल्चर वाले हैं, जिन्हें देश की वास्तविक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं। यही लोग तेल मूल्यों को बाजार के हवाले कर देने की सलाह देते रहे हैं। पेट्रोल पर पड़ने वाला बोझ तो चलिए, फिर भी वहन करने लायक है। लेकिन डीजल तो यातायात और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है। इससे सबसिडी हटा लेंगे, तो क्या खेती महंगी नहीं हो जाएगी? जाहिर है, डीजल के बाद केरोसिन की बारी आएगी। कॉरपोरेट कल्चर वाले सरकारी सलाहकार तर्क देते हैं कि चालीस फीसदी केरोसिन में मिलावट कर उसे बाजार में बेच दिया जाता है, मिलावटी केरोसिन पड़ोसी देशों में चला जाता है, इसलिए इस पर सबसिडी देने का कोई मतलब नहीं है। वे यह नहीं सोचते कि तब भी साठ प्रतिशत केरोसिन का इस्तेमाल गरीब कर रहे हैं और वे ईंधन तथा रोशनी के लिए इसी पर निर्भर हैं। केरोसिन के मूल्य को बाजार के भरोसे छोड़ने का सीधा मतलब होगा देश के गरीबों से अन्याय करना। फिर सबसिडी हटा लेने से महंगाई और बढ़ेगी। लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है।
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जाति जनगणनाबायोमैट्रिक के नाम पर धोखा
दिलीप मंडल

केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने जाति गणना को कहने को तो हरी झंडी दे दी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि मंत्रियों के समूह ने इस काम को बुरी तरह से फंसा दिया है। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के समूह का जो फॉर्मूला दिया हैउसके आधार पर जाति की गणना अगले पांच साल तक जारी ही रहेगी (यह समय बढ़ सकता है) और जो आंकड़े आएंगे, उसमें देश की लगभग आधी आबादी को शामिल नहीं किया जाएगा। साथ ही आंकड़ों के नाम पर सिर्फ जातियों की संख्या आएगी। न तो जातियों और जाति समूहों की शैक्षणिक स्थित का पता चलेगा और न ही सामाजिक-आर्थिक हैसियत का। मंत्रियों के समूह की इस बारे में की गई सिफारिश पर बहस आवश्यक है क्योंकि इसे लेकर अभी काफी उलझन बाकी है।  
ओबीसी गिनती का प्रस्ताव औंधे मुंह गिरा
मंत्रियों के समूह ने उचित फैसला किया है कि जाति की गणना के दौरान सिर्फ ओबीसी की गिनती नहीं की जाएगीबल्कि सभी जातियों के आंकड़े जुटाए जाएंगे। वामपंथी दलों ने ओबीसी गिनती के लिए प्रस्ताव दिया था।[i] कुछ समाजशास्त्री भी चाहते थे कि सभी जातियों की गिनती न करके सिर्फ ओबीसी की गिनती कर ली जाए क्योंकि सवर्ण समुदायों के लिए सरकार की ओर से कोई कार्यक्रम या योजना नहीं है। उनका सुझाव था कि सिर्फ अनुसूचित जाति,जनजाति और ओबीसी की गिनती करा ली जाए।[ii]
जाति गणना के बदले ओबीसी गणना की बात करने वाले लोग जाति के आंकड़ों को सिर्फ आरक्षण और सरकारी योजनाओं के साथ जोड़कर देखते हैंजो बहुत ही संकीर्ण विचार है। जाति भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक पहचान है और इससे जुड़े समाजशास्त्रीय आंकड़ों का व्यापक महत्व है। इसी नजरिए इस देश में धर्म (जिसके आधार पर देश टूट चुका है) और भाषा (जिसकी वजह से हुए दंगों में हजारों लोग मारे गए हैं) के आधार पर हर जनगणना में गिनती होती है। अगर समाजशास्त्रीय आंकड़े जुटाने का लक्ष्य न हो तो जनगणना के नाम पर सिर्फ स्त्री और पुरुष का आंकड़ा जुटा लेना चाहिए।
जाति गणना और बायोमैट्रिक की धांधली
जाति गणना पर मंत्रियों के समूह ने जो फॉर्मूला बनाया है उसमें एक गंभीर खामी यह है कि इसमें जाति की गिनती को जनगणना कार्य से बाहर कर दिया गया है। मंत्रियों के समूह ने फैसला किया है कि जाति की गणना नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के तहत बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के क्रम में कर ली जाएगी।[iii] बायोमैट्रिक ब्यौरा यूनिक आइडेंटिटी नंबर के लिए इकट्ठा किया जाना है। यानी जब लोग अपना यूआईडी नंबर के लिए जानकारी दर्ज कराने के लिए आएंगे तो उनसे उनकी जाति पूछ ली जाएगी। यह एक आश्चर्यजनक फैसला है। धर्मभाषाशैक्षणिक स्तरआर्थिक स्तर से लेकर मकान पक्का है या कच्चा तक की सारी जानकारी जनगणना की प्रक्रिया के तहत जुटाई जाती है और ऐसा ही 2011 की जनगणना में भी किया जाएगालेकिन जाति की गिनती को जनगणना की जगह यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर की बायोमैट्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की बात की जा रही है।
यहां एक समस्या यह है कि बायोमैट्रिक डाटा कलेक्शन करने के लिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (जिसके मुखिया नंदन निलेकणी हैं, जिन्हें सरकार ने कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दिया है) को पांच साल का समय दिया गया है। साथ ही पांच साल में देश में सिर्फ 60 करोड़ आईडेंटिटी नंबर दिए जाएंगे। इस बात में जिसको भी शक हो वह यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट - http://uidai.gov.in/ पर जाकर इन दोनों बातों को चेक कर सकता है कि बायोमैट्रिक डाटा कितने साल में इकट्ठा किया जाएगा और कितने लोगों का बायोमैट्रिक डाटा जुटाया जाएगा। इंटरनेट पर इस सरकारी साइट को खोलते ही सबसे पहले पेज पर ही ये दोनों बातें आपको दिख जाएंगी।
यानी प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने जब बायोमैट्रिक दौर में जाति की गणना कराने की सिफारिश की थी, तो उन्हें यह मालूम था कि इस तरह जाति गणना का काम पांच साल या ससे भी ज्यादा समय में कराया जाएगा और इसमें भी देश के लगभग 120 करोड़ लोगों में सिर्फ 60 करोड़ लोगों के आंकड़े ही आएंगे।[iv]मंत्रियों के समूह ने देश के बहुजनों के साथ इतनी बड़ी धोखाधड़ी करने का साहस दिखाया, यह गौर करने लायक बात है। पांच साल बाद आए आकंड़ों का लेखा जोखा करने, अलग अलग जाति समूहों का आंकड़ा तैयार करने में अगर कुछ साल और लगा दिए गए, तो अगली जनगणना तक भी जाति के आंकड़े नहीं आ पाएंगे।
बायोमैट्रिक में गिनती यानी एससी/एसटी/ओबीसी की घटी हुई संख्या
15 साल में जिस देश में सभी मतदाताओं का मतदाता पहचान पत्र नहीं बना, उस देश में बायोमैट्रिक नंबर कितने साल में दिए जाएंगे, इसका अंदाजा भी आप लगा सकते हैं। मतदाता पहचान पत्र में तो सिर्फ मतदाता की फोटो ली जाती है जबकि बायोमैट्रिक नंबर के लिए तो फोटो के साथ ही अंगूठे का और आंख का डिजिटल निशान लिया जाएगा। इस काम के लिए कोई आपके घर नहीं आएगा बल्कि जगह जगह कैंप लगाकर यह काम किया जाएगा। इसमें कई लोग छूट जाएंगे जिनके लिए बारा बार कैंप लगाए जाएंगे। दर्जनों बार कैंप लगने के बावजूद अभी तक वोटर आईडी कार्ड का काम पूरा नहीं हुआ है। यह तब है जबकि वोटर आईडेंटिटी कार्ड बनवाने में राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी लेती हैं। बायोमैट्रिक नंबर दिलाने में पार्टियों की कोई दिलचस्पी नहीं होगी।
सरकार ने यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट पर साफ लिखा है कि यह नंबर लेना जरूरी नहीं है।[v] यानी कोई न चाहे तो यह नंबर नहीं लेगा। बहुत सारे लोग इसका कोई और महत्व न देखकर इसे नहीं लेंगे। ऐसे में जाति की गणना से काफी लोग बाहर रह जाएंगे। जबकि जनगणना के कर्मचारी हर गांव, बस्ती के हर घर में जाकर जानकारी लेते हैं और इसमें लोगों के छूट जाने की आशंका काफी कम होती है।
बायोमैट्रिक के नाम पर जिस तरह की गड़बड़ी हो रही है और उसे देखते हुए कोई सरकार कल यह फैसला कर सकती है कि आईडेंटिटी नंबर नहीं दिए जाएंगे। इस तरह जाति गणना का काम फंस जाएगा। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में लाखों लोग घुमंतू जातियों के हैं। इन लोगों का बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना संभव नहीं है। साथ ही शहरों में अस्थायी कामकाज के लिए आने वालों गरीबों का भी बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना आसान नहीं हैं। इस तरह आबादी का एक बड़ा हिस्सा यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर के लिए बायोमैट्रिक आंकड़ा देने की गतिविधि में शामिल नहीं हो पाएगा और उस तरह उनकी जाति का हिसाब नहीं लगाया जाएगा। आप समझ सकते हैं कि इनमें से ज्यादातर लोग अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों से हैं। इस तरह स्पष्ट है कि बायोमैट्रिक के साथ जाति गणना कराने से एससी/एसटी/ओबीसी समूहों की संख्या घटकर आएगी। 
बायोमैट्रिक के नाम पर बहुत बड़ी साजिश
ताज्जुब की बात है कि 9 फरवरी से लेकर 28 फरवरी 2011 के बीच जब देश भर में जनगणना होगी और धर्म और भाषा से लेकर तमाम तरह के आंकड़े जुटाए जाएंगे तब जाति पूछ लेने में क्या दिक्कत है? जनगणना से जाति गणना के काम को बाहर करना एक बहुत बड़ी साजिश है, जिसका पर्दाफाश करना जरूरी है। 1871 से 1931 तक जनगणना विभाग जाति गणना का काम करता था और उस समय तो सरकारी कर्मचारी भी कम थे और कंप्यूटर भी नहीं थे। सवा सौ साल पहले अगर जनगणना के साथ जाति की गिनती होती थी, तो नए समय में इस काम को करने में क्या दिक्कत है।
यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि 1931 की जनगणना अभी भी जाति की गिनती से मामले में देश का एकमात्र आधिकारिक दस्तावेज है और मंडल कमीशन से लेकर तमाम सरकारी नीतियों में इसी जनगणना के आंकड़े को आधार माना जाता है। 1931 की जनगणना के तरीकों को लेकर किसी भी तरह का विवाद नहीं है और न ही किसी कोर्ट ने कभी इस पर सवाल उठाया है। जाहिर है कि 1931 में जिस तरह जाति की गिनती जनगणना के साथ हुई थी, वह 2011 में भी संभव है। अब चूंकि कंप्यूटर और दूसरे उपकरण आ गए हैं, इसलिए इस काम को ज्यादा असरदार तरीके से किया जा सकता है। जाहिर है जनगणना के साथ जाति गणना न कराना एक साजिश के अलावा कुछ नहीं है। इसका मकसद सिर्फ इतना है कि किसी भी तरह से ऐसा बंदोबस्त किया जाए कि जाति के आंकड़े सामने न आएं।     
बायोमैट्रिक यानी आर्थिक-शैक्षणिक आंकड़े नहीं
बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के साथ जाति गणना को जोड़ने में और भी कई दिक्कतें हैं। इसकी एक बड़ी दिक्कत के बारे में केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई कैबिनेट नोट में लिख चुके हैं। बायोमैट्रिक आंकड़ा संकलन के साथ जाति की गिनती करने से जातियों से जुड़े सामाजिकआर्थिक और शैक्षणिक तथ्य और आंकड़े सामने नहीं आएंगे। जनगणना के फॉर्म में ये सारी जानकारियां होती हैं,जबकि बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ यह काम संभव नहीं है। बायोमैट्रिक आंकड़ा जुटाते समय लोगों से जो जानकारियां ली जाएंगी वे इस प्रकार हैं – नाम, जन्म की तारीख, लिंग, पिता/माता, पति/पत्नी या अभिभावक का नाम, पता, आपकी तस्वीर, दसों अंगुलियों के निशान और आंख की पुतली का डिजिटल ब्यौरा।[vi]
सामाजिकआर्थिक और शैक्षणिक आंकड़ों के बिना हासिल जाति के आंकड़े दरअसल सिर्फ जातियों की संख्या बताएंगेजिनका कोई अर्थ नहीं होगा। सिर्फ जातियों की संख्या जानने से अलग अलग जाति और जाति समूहों की हैसियत के बारे में तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं होगा। यानी जिन आंकड़ों के अभाव की बात सुप्रीम कोर्ट और योजना आयोग ने कई बार की हैवे आंकड़े बायोमैट्रिक के साथ की गई जाति गणना से नहीं जुटाए जा सकेंगे।
जाति जनगणना का लक्ष्य सिर्फ जातियों की संख्या जानना नहीं होना चाहिए। न ही जाति की गणना को सिर्फ आरक्षण और आरक्षण के प्रतिशत के विवाद से जोड़कर देखा जाना चाहिए। जनगणना समाज को बेहतर तरीके से समझने और संसाधनों तथा अवसरों के बंटवारे में अलग अलग सामाजिक समूहो की स्थिति को जानने का जरिया होना चाहिए। जनगणना में जाति को शामिल करने से हर तरह के सामाजिकशैक्षणिक और सामाजिक आंकड़े सामने आएंगे। इन आंकड़ों का तुलनात्मक अधघ्ययन भी संभव हो पाएगा। सरकार इन आंकड़ों के आधार पर विकास के लिए बेहतर योजनाएं और नीतियां बना सकती हैं। अगर ओबीसी की किसी जाति की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति बेहतर हो गई हैइसका पता भी जातियों से जुड़े तमाम आंकड़ों के आधार पर ही चलेगा। इन आंकड़ों से जातिवाद के कई झगड़ों का अंत हो जाएगा और नीतियां बनाने का आधार अनुमान नहीं तथ्य होंगे।
बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गणना कराने में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि पहचान पत्र बनाने वाली एजेंसी को जनगणना का कोई अनुभव नहीं है,न ही उसके पास इसके लिए संसाधन या ढांचा है। जनगणना का काम जनगणना विभाग ही सुचारू रूप से कर सकता है। जनगणना के दौरान जाति की गणना करने से जनगणना विभाग इसकी निगरानी कर पाएगा। बायोमैट्रिक आंकड़ा संकलन के दौरान यह व्यवस्था नहीं होगी।[vii] इसे देखते हुए जाति गणना के काम को जनगणना विभाग के अलावा किसी और एजेंसी के हवाले करने का कोई कारण नहीं है।
बायोमैट्रिकएक अवैज्ञानिक तरीका
साथ ही नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के लिए 15 साल से ज्यादा उम्र वालों की ही बायोमैट्रिक सूचना ली जाएगी। परिवार के बाकी लोगों के बारे में इन्हीं से पूछकर कॉलम भरने का समाधान गृह मंत्रालय दे रहा हैजो अवैज्ञानिक तरीका है।[viii]बायोमैट्रिक और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर का काम अभी प्रायोगिक स्तर पर है। इसे लेकर विवाद भी बहुत हैं। इसलिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर और बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गणना जैसे महत्वपूर्ण कार्य को शामिल करना सही नहीं है।



[i] सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का 12 अगस्त, 2010 को दिया गया बयानhttp://in.news.yahoo.com/43/20100812/818/tnl-caste-census-should-ensure-scientifi_1.html
[ii] योगेंद्र यादव का द हिंदू अखबार में 14 मई को छपा लेखhttp://beta.thehindu.com/opinion/op-ed/article430140.ece?homepage=true
[iii] समाचार पत्रों में छपी रिपोर्ट, यहां देखिए टाइम्स ऑफ इंडिया का लिंकhttp://timesofindia.indiatimes.com/india/GoM-clears-caste-query-in-census-at-biometric-stage/articleshow/6295048.cms
[iv] यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट का होमपेज
[v] http://uidai.gov.in/ देखें इस साइट का FAQs सेक्शन, पूछा गया सवाल है -Will getting a UID be compulsory?
[vii] भारत के पूर्व रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त डॉ. एम विजयनउन्नी, कास्ट सेंसस: /टुअर्ड्स एन इनक्लूसिव इंडिया, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूशन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी, नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी का प्रकाशन, पेज- 39  
[viii] केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई का मंत्रियों के समूह की बैठक में सौंपा गया नोट

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