गुरुवार, 1 जुलाई 2010

जनगणना में जाति

खुर्शीद आलम
वर्ष २०११ की जनगणना में ‘जाति’ का कॉलम शामिल करने की कुछ राजनीतिक पार्टियों की मांग पर सरकार ने स्वीकृति प्रदान कर दी है, लेकिन सरकार द्वारा गठित ग्रुप ऑफ मिनिस्टर में इसको लेकर मतभेद हैं और अभी तक कोई सहमति नहीं बन पाई है। कांग्रेस भी इस मुद्दे पर बंटी हुई है। जबकि मुसलमानों में इसे लेकर एक नई बहस शुरू हो गई है कि जाति का कॉलम होने पर क्या लिखवाएं। कुछ लोग जहां जाति/बिरादरी के बजाय इसलाम लिखवाने की बात कर रहे हैं, वहीं ज्यादातर लोगों का मानना है कि जाति लिखवाने से अगर फायदा मिल सकता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। भारतीय समाज में जाति आदमी के जन्म से जुड़ी होती है और कोई चाहकर भी इससे बाहर नहीं निकल सकता। इसलाम में जात-पांत की यह व्यवस्था नहीं है, बल्कि यहां पहचान के लिए उन्हें नाम दिया गया है। इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है कि जिन समूहों ने इसलाम से प्रभावित होकर यह धर्म कुबूल किया, उन्हें भी मुसलिम समाज में अपनी पहचान चाहिए। इस कारण उस समूह ने अपने नाम के साथ ‘अंसारी’ शब्द जोड़ लिया। अंसार का अर्थ अल्लाह का मददगार है। अल्लाह के समीप जाति, नस्ल पर गर्व को कभी पसंद नहीं किया गया, बल्कि इनसान की मुक्ति के लिए उसके कामों को ही पैमाना बनाया गया है और अल्लाह से डरने वालों को ही लोक, परलोक, दोनों जगह कामयाब बताया गया है। सवाल यह है कि भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में मुसलिम समाज में जाति-बिरादरी का वजूद है या नहीं। इस बारे में कोई एक राय नहीं पाई जाती। कुछ लोग मुसलिम समाज और इसलाम, दोनों को एक बनाकर पेश करते हैं और मामले को मिला देते हैं। इसलाम में कबीलों और बिरादरियों का वजूद है और कुरान ने इसे स्वीकार किया है कि अल्लाह ने ही यह जाति-बिरादरी बनाई है। लेकिन इसलाम में ऊंच-नीच और छोटे-बड़े के आधार पर जाति की कोई कल्पना नहीं है। जबकि सचाई यह है कि मुसलिम समाज में जाति, बिरादरी, कबीले और पेशों की बुनियाद पर अलग-अलग पहचान पाई गई है। उदाहरण के लिए, शादी-ब्याह के मामले में बड़ी संख्या ऐसे उलेमा और मसाएल बताने वालों की है, जो जाति और नस्ल को पूरी महत्ता से पेश करते हुए इसको शादी में बराबरी के मसले से जोड़कर देखते हैं। १९२५ से अब तक इस विषय पर काफी चर्चा हो चुकी है, जिससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि जाति और नस्ल भारतीय परिप्रेक्ष्य में बड़ी सचाई हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। वयस्क लड़की द्वारा अभिभावक की इजाजत के बिना अन्य जाति में अपनी मरजी से शादी को नहीं माना गया है। इसके विपरीत अभिभावक की इजाजत के बिना वयस्क लड़की द्वारा अपनी जाति में मरजी की शादी को वैध माना गया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इसलाम में भी ज्यादातर लोग वैवाहिक संबंधों के परिप्रेक्ष्य में जाति को आधार मानते हैं। दारूल उलूम देवबंद के फतवों से लेकर मौलाना अहमद रजा खां और मौलाना अशरफ अली थानवी के फतवों के संग्रहों में जाति और नस्ल को आधार माना गया है। इसलिए यह कहना सचाई पर परदा डालना है कि मुसलिम समाज में ‘जाति’ का कोई मसला नहीं है। लिहाजा जनगणना में जाति की अनदेखी कर आगे की कोई भी कार्रवाई ठोस नहीं हो सकती। हालांकि जाति के कॉलम को भरना कोई नया मसला नहीं है, बल्कि असल बहस इसके आधार पर मिलने वाली सुविधाओं और सरकारी योजनाओं से लाभान्वित होने के संदर्भ में है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि मामले को बेहतर तौर पर हल किया जाए और ऐसी रणनीति अपनाई जाए, जिससे मुसलिम समाज को फायदा पहुंचे।
(अमर उजाला से साभार)

कोख में मार दी गईं १९०० बेटियां

केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की रपट में सामने आई सच्चाई सिर्फ कन्या भ्रूण हत्या से प्रभावित नहीं हुआ लिंग अनुपात
(अमर उजाला से साभार)
नई दिल्ली। पुरुषों के मुकाबले देश में लगातार महिलाओं की कम होती संख्या के कारण पैदा हो रही कई किस्म की नृशंस सामाजिक विकृतियों के बीच केंद्र सरकार ने स्वीकार किया है कि 200१ से २०05 के दौरान रोजाना करीब 1800 से 1900 कन्या भू्रण हत्याएं हुई हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की एक रपट में कहा गया है कि साल 200१ से २०05 के बीच रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है।

हालांकि महिलाओं से जुड़ी समस्या पर काम कर रही संस्था सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी का कहना है कि यह आंकड़ा भयानक है, लेकिन वास्तविक तस्वीर इससे भी अधिक डरावनी हो सकती है। उन्होंने कहा कि गैर कानूनी और छुपे तौर पर कुछ इलाकों में जिस तादाद में कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है उसके अनुपात में यह आंकड़ा कम लगता है। उन्होंने कहा कि आधिकारिक आंकड़े इतने भयावह हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है।

सरकारी रपट में कहा गया है कि ६ साल के बच्चों का लिंग अनुपात सिर्फ कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण ही प्रभावित नहीं हुआ है, बल्कि इसकी वजह कन्या मृत्यु दर का अधिक होना भी है। बच्चियों की देखभाल ठीक तरीके से न होने के कारण उनकी मृत्यु दर अधिक है। इसलिए जन्म के समय मृत्यु दर एक महत्वपूर्ण संकेतक है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। रपट के मुताबिक 1981 में 6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 962 था, जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया है। इसका श्रेय मुख्य तौर पर देश के कुछ भागों में हुई कन्या भ्रूण की हत्या को जाता है।

उल्लेखनीय है कि 1995 में बने जन्म-पूर्व नैदानिक अधिनियम (प्री नेटल डायग्नास्टिक एक्ट, 1995) के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है, जबकि इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है। भारत सरकार ने 201१-12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढ़ा कर 950 करने का लक्ष्य रखा है। देश के 328 जिलों में बच्चों का लिंग अनुपात 950 से कम है।

(यह सब क्यों हो रहा है क्या हम कभी इस पर नज़र डालते है शायद नहीं जरा पूछो दहेज़ लोभियों से दुराचारियों से इन अबलाओं को मारते हुए उनके तौर तरीके कितने खतरनाक होते है ) 

पिछड़ी जातियों का यह ब्लॉग उनके विविध प्रकार के रोके जा रहे अधिकारों के आलोक में काम करेगा .

जब जातीय जनगरना के संगोष्ठी लखनऊ अप्रैल १८,२०१० में अपनी बात रख रहा था तब मैं..                      



पिछड़ी जातियों का यह ब्लॉग उनके विविध प्रकार के रोके जा रहे अधिकारों के आलोक में काम करेगा .
एक आलेख जो दैनिक जागरण से साभार लिया गया है -

जनगणना में जाति का हौवा





कौशलेंद्र प्रताप सिंह
जातीय जनगणना के मुद्दे ने भारतीय राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया है। इस मुद्दे पर तीन पक्षकार खम ठोंककर दंगल में उतर गए हैं। केंद्र सरकार जहा मंत्रियों की कमेटी बनाकर इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने के मूड में है, वहीं पिछड़े वर्ग के नेता इस कोशिश में है कि इसकी आच ठंडी न होने पाए। मीडिया भी इसमें एक पक्ष बनकर उन खतरों को गिनाने में लगा है जो बजरिए जाति जनगणना उभर कर सतह पर आ जाएंगे। लेकिन असली डर तो कहीं और छिपा बैठा है। जाति जनगणना से जैसे ही यह तथ्य उभर कर आएगा कि किस प्रकार 10-15 फीसदी आबादी देश के 90 फीसदी संसाधनों पर कुंडली मारे बैठी है, वैसे ही तूफान आ जाएगा। इसीलिए जवाहर लाल नेहरू से लेकर वाजपेयी तक सबकी कोशिश यही रही है कि जाति-जनगणना के मुद्दे को टाला जाए।
जातीय जनगणना का विरोध करने वाला वही तबका है जिसने मंडल आयोग लागू होने पर देश में भूचाल ला दिया था। हालाकि ये लोग देश को आज तक नहीं बता पाए कि मंडल आयोग की संस्तुतिया दस फीसदी से भी कम क्यों लागू हैं और मंडल आयोग लागू होने के बाद भी केंद्रीय सेवाओं में पिछड़े वर्ग की भागीदारी केवल चार प्रतिशत क्यों हैं? कितना आश्चर्यजनक और हास्यास्पद है कि मंडल के आरक्षण का विरोध करने वाले राजनेता महिला आरक्षण के मुद्दे पर एकजुट नजर आए और उन्हें यहा पर योग्यता का हनन और जातिवाद का बढ़ावा जैसी बुराइया नहीं दिखीं। जो लोग इस जनगणना से जातिवाद बढ़ने की बात कर रहे हैं उनसे एक सवाल जरूर पूछना चाहूंगा कि जनगणना के फॉर्म में छोटा किसान और बड़ा किसान कॉलम हैं, उनसे तो किसानों के बीच कोई भेदभाव नहीं बढ़ रहा है, मजहब के सवाल पर कोई साप्रदायिकता नहीं बढ़ रही है, भाषा के सवाल पर भाषावाद नहीं बढ़ रहा है तो जाति पूछने पर जातिवाद कैसे बढ़ जाएगा? अमेरिका में लोगों को अपनी नस्ल बतानी होती है लेकिन उससे तो कभी नस्लवाद नहीं बढ़ा? सच्चर कमेटी ने मुसलमानों के बीच सर्वे करके उनकी सामाजिक, प्रशासनिक भागीदारी का पता लगाया उससे भी तो कोई साप्रदायिकता नहीं बढ़ी, फिर जनगणना के नाम पर ही कोई हौवा क्यों खड़ा किया जा रहा है? आज जिस तकनीकी समस्या का हवाला दिया जा रहा है कि जातियों के आकडे़ जुटाना संभव नहीं है, वह भारत के सूचना महाशक्ति होने के दावे पर स्वत: सवाल खड़ा कर रही है। जाति जनगणना के कुछ ऐसे फायदे हैं जिनकी ओर किसी की नजर नहीं जा रही हैं। दलित और पिछड़े वर्ग की कुछ जातिया खासी मलाईदार हो गई हैं। अब आवश्यकता है कि इन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर निकाला जाए। सामाजिक न्याय की संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग वित्ता निगम को सुपात्र तक सहायता पहुंचाने के लिए पिछड़े वर्ग के सही आकड़े की आवश्यकता है। मद्रास हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया है कि सरकार जातियों की जनगणना कराए। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कोई स्पष्ट निर्देश तो नहीं दिया लेकिन उसने यह रेखाकित जरूर किया है कि सरकार के पास ओबीसी के सही आकड़े होने चाहिए।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार के कई मंत्रालय भी सरकार से जातीय जनगणना कराने की माग कर रहे हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, योजना आयोग, जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री होते हैं, ने कई बार जातीय जनगणना की माग की है। केंद्र सरकार सर्वे के माध्यम से उनकी माग को घुमा-फिराकर पूरा भी करती रही है, लेकिन उसे जनगणना से डर लगता है। योजना एवं कार्यान्वयन मंत्रालय ने एक बार यहा तक कहा कि सर्वे द्वारा जुटाए गए आकड़े विश्वसनीय नहीं हैं, अत: जाति आधारित जनगणना कराई जानी चाहिए। सरकार अनुसूचित जाति-जनजाति की जाति आधारित जनगणना कराती भी रही है। उसे बस परहेज है तो उस जनगणना में ओबीसी और सवणरें के जोड़ने से।
यह भी भारत के इतिहास में शायद पहली बार हुआ कि सदन में आश्वासन देने के बावजूद प्रधानमंत्री ने जाति जनगणना का अपना वादा पूरा नहीं किया और इसे मंत्री समूह को सौंप दिया। प्रधानमंत्री जिस सोनिया-सिब्बल-चिदंबरम खेमे के दिशा-निर्देश पर काम करते हैं, वहां यह उम्मीद भी बेमानी है कि वह दलितों-पिछड़ों के हक में कोई सार्थक फैसला ले पाएंगे। शिकायत तो दलित-पिछड़े वर्ग के उन सासदों से है जो सरकार के इस फैसले पर मौनी बाबा बने बैठे हैं।
[जातीय जनगणना पर कौशलेंद्र प्रताप सिंह की टिप्पणी]
(चित्र -डॉ.लाल रत्नाकर व् कुमार संतोष )

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