बुधवार, 17 नवंबर 2010

नफ़रत के जिम्मेदार !

डॉ.लाल रत्नाकर 
समय कि विडम्बना है कि हम आगे बढ़ने के नाटक तो खूब करते आये हैं पर आगे कितना बढे है यह सोचनीय ही नहीं मूलतः सामाजिक सन्दर्भों का भुलावामात्र है. लम्बे समय से सामाजिक बदलाव कि प्रक्रिया हमारे देश में चल रही है पर यहाँ उस बदलाव को वही आगे नहीं बढ़ाने देना चाहते जिन्हें जिसे उस सामाजिक बदलाव के रोकने वाले कुछ दे देते है वह ऐसे कट्टर कुत्तों कि तरह अपने ही बंधू बांधवों पर टूटते है जैसे वास्तविक दुश्मनों कि सारी जिम्मेदारी सामाजिक बदलाव कि प्रक्रिया के अग्रणी कार्यकर्ता पर ही है न कि सामाजिक बदलाव के 'सफेदपोश दुश्मन' पर .
इन्ही के लिए किसी ने लिखा है - या रब उन्हें अक्ल दे 
                                           और दे जो अभी भी समझते नहीं 
                                           उसकी साजिश .........
यही कारण है कि सामाजिक बदलाव कि बेचैनी कहीं खो जाती है, दुनिया के सारे मुल्कों में इस बदलाव पर जितना भी काम हुआ है उसका लेखा जोखा यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ. जिसमे नेट पर प्राप्त सामग्री का इस्तेमाल भी सम्मिलित है.
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राज्‍य, धर्म और समाज सुधार


हमारे आसपास तेज़ी से हो रहे परिवर्तनों के मद्देनज़र समाज सुधारों की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता. ऐसे सुधार जितनी जल्दी हो सकें, उतना ही अच्छा होगा. समाज सुधारों के संबंध में दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं. पहला यह कि इनमें राज्य की क्या भूमिका हो? दूसरा यह कि धर्म की क्या भूमिका हो? कुछ लोगों का मानना है कि राज्य को इसमें सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और समाज सुधार के लिए हरसंभव प्रयास करने चाहिए. कुछ लोग यह मानते हैं कि समाज सुधार में धर्म की कोई भूमिका नहीं है, बल्कि वह तो सामाजिक परिवर्तनों की राह में रोड़ा है. जो लोग राज्य की सक्रिय भूमिका के हामी हैं, वे या तो राजनीति से प्रेरित हो सकते हैं या उनका यह विश्वास हो सकता है कि राज्य एक शक्तिशाली संस्था है और वह समाज में परिवर्तन एवं सुधार लाने में पूर्णत: सक्षम है. इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि राज्य प्रजातांत्रिक है या निरंकुश. कोई तानाशाह, चाहे वह स्वयं कितना ही उदार एवं ज्ञानी क्यों न हो, समाज सुधार नहीं ला सकता. ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं.

अ़फग़ानिस्तान के बादशाह अमानुल्ला प्रबुद्ध एवं आधुनिक विचारों वाले शासक थे. 1920 और 1930 के दशकों में उन्होंने अ़फग़ानिस्तान के रूढ़िग्रस्त कबीलाई समाज में परिवर्तन लाने की कोशिशें कीं. नतीजे में उनके ख़िला़फ विद्रोह हो गया और उन्हें अपनी गद्दी खोनी पड़ी.
अ़फग़ानिस्तान के बादशाह अमानुल्ला प्रबुद्ध एवं आधुनिक विचारों वाले शासक थे. 1920 और 1930 के दशकों में उन्होंने अ़फग़ानिस्तान के रूढ़िग्रस्त कबीलाई समाज में परिवर्तन लाने की कोशिशें कीं. नतीजे में उनके ख़िला़फ विद्रोह हो गया और उन्हें अपनी गद्दी खोनी पड़ी. इसके साथ-साथ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भी उन्हें अपदस्थ करने में भूमिका निभाई. दूसरा उदाहरण ईरान के शाह का है. उन्होंने ईरानी जनता को आधुनिक तौर-तरीक़े अपनाने के लिए बाध्य किया और एक तऱफ अयातुल्लाओं, तो दूसरी तऱफ परंपरावादी कृषक वर्ग को नाराज़ कर लिया. उन्हें भी अपनी गद्दी खोनी पड़ी. यद्यपि उसके पीछे अन्य कारण भी थे, जैसे उनका अमेरिका के पिट्ठू बतौर काम करना और अयातुल्लाह खुमैनी को देश निकाला दे देना.
आज परंपरावादी, दकियानूसी धार्मिक नेता भी कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग अपने विचारों को फैलाने के लिए कर रहे हैं. उनकी अपनी वेबसाइटें हैं. मोबाइलों पर शादियां हो रही हैं और तलाक भी. एक समय इंग्लैंड के पुरोहित वर्ग ने रेलवे का इस आधार पर विरोध किया था कि तेज़ गति से आवागमन की इस सुविधा का ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले युवा दुरुपयोग करेंगे. वे शहरों में जाएंगे और शराब पीना एवं जुआ खेलना सीखेंगे.
दूसरी ओर प्रजातांत्रिक राज्य को मतदाताओं की धार्मिक भावनाओं का भी ख्याल रखना पड़ता है. उस पर अलग-अलग दिशाओं से परस्पर विरोधी दबाव भी पड़ते हैं. भारत के उदारवादी एवं प्रबुद्ध हिंदू वर्ग ने पंडित नेहरू और अंबेडकर के नेतृत्व में स्वतंत्रता के तुरंत बाद हिंदू विधि में उपयुक्त परिवर्तन लाने के उद्देश्य से हिंदू कोड बिल तैयार किया, परंतु परंपरावादियों के कड़े विरोध के कारण उन्हें यह बिल वापस लेना पड़ा और बाद में उसका अत्यंत कमज़ोर संस्करण संसद से पारित हो सका. नेहरू जी का ऊंचा राजनीतिक कद और उनका करिश्माई व्यक्तित्व भी किसी काम न आया. डॉ. अंबेडकर को तो इससे इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने क़ानून मंत्री के पद से इस्ती़फा दे दिया.
समान नागरिक संहिता हमेशा से भाजपा के हिंदुत्व गठबंधन के एजेंडे में शामिल रही है. उसने इसके पक्ष में देश में वातावरण बनाने का प्रयास भी किया, परंतु शहरी हिंदू मध्यम वर्ग के अलावा वह किसी और तबके को अपने साथ नहीं ले सकी. इसी कारण यद्यपि भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन छह साल तक सत्ता में रहा, तथापि वह समान नागरिक संहिता लागू नहीं कर सका. इस तरह प्रजातांत्रिक राज्य में समाज सुधार की राह में अलग तरह के रोड़े हैं. राज्य तभी हस्तक्षेप कर सकता है, जबकि मामला मानव जीवन या क़ानून और व्यवस्था से जुड़ा हो. जैसे कि ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा प्रतिबंधित कर दी थी. यद्यपि सती प्रथा पारंपरिक हिंदू क़ानून का हिस्सा थी, तथापि यहां सवाल निर्दोष स्त्रियों को ज़िंदा जला दिए जाने से बचाने का था. इसी तरह इन दिनों ऑनर किलिंग (इज़्ज़त के लिए हत्या) का दौर चल रहा है. हो सकता है कि धार्मिक परंपरा सगोत्र या अंतरजातीय विवाह की आज्ञा न देती हो, परंतु किसी को दूसरे की जान लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. इस मामले में राज्य को प्रभावी हस्तक्षेप करके हत्याओं के इस शर्मनाक सिलसिले को तुरंत रोकना चाहिए. अगर इस तरह के मामलों में राज्य तुरंत हस्तक्षेप नहीं करता है तो और अधिक निर्दोषों का ख़ून बहने की आशंका बनी रहती है. लेकिन समाज सुधार के सभी मामले इस श्रेणी में नहीं आते और अन्य मामलों में राज्य को फूंक-फूंक कर क़दम बढ़ाना चाहिए. ऐसा ही एक मसला लैंगिक न्याय का है. इस मामले में सदियों पुरानी परंपराएं और रीति-रिवाज हैं. समस्या यह है कि इन्हें धर्म का हिस्सा मान लिया गया है.
इस तरह समाज सुधार के दो अलग-अलग पहलू हैं. पहली श्रेणी में हैं शुद्ध सामाजिक मसले, जैसे दहेज प्रथा, सामाजिक बहिष्कार आदि. दूसरी श्रेणी में आते हैं विवाह, तलाक आदि से संबंधित पर्सनल लॉ, जिन्हें धर्म का हिस्सा माना जाता है. पर्दा प्रथा और ड्रेस कोड से जुड़े मसले भी हैं, जिन्हें कुछ लोग धार्मिक मानते हैं तो कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक. जो भी हो, उक्त मुद्दे अत्यंत संवेदनशील हैं. क्या राज्य कोई ड्रेस कोड लागू कर सकता है? जहां भी ऐसी कोशिश हुई है, कामयाब नहीं हुई. अ़फग़ानिस्तान के बादशाह अमानउल्ला और ईरान के शाह दोनों ने पर्दा प्रथा ख़त्म करने का प्रयास किया और दोनों असफल रहे. इन दिनों यूरोप में बुर्के को लेकर बवाल मचा हुआ है. बेल्जियम ने बुर्के को प्रतिबंधित कर दिया है और फ्रांस ऐसा करने जा रहा है. मानवाधिकार कार्यकताओं एवं संगठनों ने इन प्रतिबंधों को घोर आपत्तिजनक बताया है और यूरोपियन मानवाधिकार संसदीय समिति ने इन्हें ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया है. कोई व्यक्ति क्या पहने और क्या न पहने, इसका निर्णय उस पर छोड़ दिया जाना चाहिए. यह भी सही है कि अक्सर यह निर्णय संबंधित व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक नहीं ले पाता. महिलाओं पर बुर्का पहनने का सामाजिक दबाव रहता है. यद्यपि कई महिलाएं अपनी अलग पहचान दर्शाने के लिए या सांस्कृतिक परंपरा के कारण भी बुर्का पहनती हैं. अगर किसी महिला को बुर्का पहनने पर मजबूर किया जा रहा हो, धमकी दी जा रही हो या दबाव डाला जा रहा हो, तब तो कोई कार्यवाही की जा सकती है, परंतु यह कार्यवाही भी बुर्के पर प्रतिबंध लगाना कतई नहीं हो सकती. वैसे भी अगर बुर्के पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है तो इससे सबसे ज़्यादा परेशानी महिलाओं को ही होगी. एक ओर उन पर बुर्का पहनने के लिए समाज एवं परिवार का दबाव होगा और दूसरी ओर जुर्माने या जेल जाने का डर.
यहां परिवर्तन के विरोध के कारणों पर कुछ चर्चा उचित होगी. उन्नीसवीं सदी में आधुनिक युग की शुरुआत के साथ ही तार्किकता का जोर बढ़ा. इस नए युग का सबसे ज़्यादा लाभ पढ़े-लिखे श्रेष्ठ वर्ग ने उठाया. इस वर्ग को यह भ्रम हो गया कि धर्म और परंपरा का युग समाप्त हो गया है और अब दुनिया पर विज्ञान का राज होगा, लेकिन इस वर्ग के लोग भूल गए कि उनका सामाजिक आधार बहुत छोटा था. भारत सहित अन्य देशों में समाज का बड़ा हिस्सा पिछड़ा, रूढ़िग्रस्त एवं पारंपरिक बना रहा. इसके अलावा परिवर्तन की प्रक्रिया जटिल थी. आधुनिकता एक ओर तकनीकी परिवर्तन लाई तो दूसरी ओर सामाजिक और परंपरा से जुड़े मुद्दों के प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा. तकनीकी परिवर्तनों का तनिक भी विरोध नहीं हुआ, क्योंकि उनसे सब लाभांवित हो रहे थे. रेलवे, कारों, घड़ियों, रेडियो, टेलीविज़न, कंप्यूटर एवं मोबाइल आदि को समाज ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन्हें अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया. यहां तक कि पुरातनपंथी धार्मिक नेता भी इन नए औजारों और अविष्कारों का इस्तेमाल करने लगे.
आज परंपरावादी, दकियानूसी धार्मिक नेता भी कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग अपने विचारों को फैलाने के लिए कर रहे हैं. उनकी अपनी वेबसाइटें हैं. मोबाइलों पर शादियां हो रही हैं और तलाक भी. एक समय इंग्लैंड के पुरोहित वर्ग ने रेलवे का इस आधार पर विरोध किया था कि तेज़ गति से आवागमन की इस सुविधा का ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले युवा दुरुपयोग करेंगे. वे शहरों में जाएंगे और शराब पीना एवं जुआ खेलना सीखेंगे. आज हालत यह है कि ईसाई पादरी, इस्लामिक उलेमा, शंकराचार्य और सिख ग्रंथी सभी जेट हवाई जहाजों में सफर करते हैं. स्पष्टत: जिस चीज में किसी व्यक्ति को अपना फायदा नज़र आता है, उसे वह बिना किसी गुरेज के स्वीकार कर लेता है. अपितु मसला जब विवाह, तलाक, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, चयन के अधिकार या लैंगिक न्याय से जुड़ा होता है तो परिवर्तन को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता और कभी-कभी तो उसका कड़ा विरोध होता है. पुरोहित वर्ग ऐसे परिवर्तनों को धर्म के लिए ख़तरा क़रार दे देता है, क्योंकि इन परिवर्तनों से उसके नेतृत्व एवं प्रभुत्व को चुनौती मिलती है. ग़रीबी और अशिक्षा पुरोहित वर्ग के प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाती है. वंचित वर्ग सदियों पुरानी परंपराओं से चिपका रहता है, क्योंकि परिवर्तन में उसे अपना कोई ़फायदा नज़र नहीं आता. उल्टे ग़रीब एवं अशिक्षित तबके को ऐसा लगता है कि परिवर्तनवादी लोग उसकी परंपराओं एवं प्रथाओं से अनावश्यक छेड़छाड़ कर रहे हैं. इससे परिवर्तनों की राह कठिन हो जाती है और राज्य असहाय नज़र आने लगता है.
इस प्रकार धर्म और सामाजिक परिवर्तन का ऐसा घालमेल हो जाता है कि ऊपरी तौर पर देखने से प्रतीत होता है कि धर्म सामाजिक परिवर्तन की राह में बाधक है. यह मान्यता सही नहीं है. अगर संवेदनशीलता और रचनात्मकता से काम लिया जाए तो धर्म और धार्मिक ग्रंथ बदलाव के प्रभावी हथियार बन सकते हैं. आख़िरकार यह ज़रूरी तो नहीं कि हम धार्मिक शिक्षाओं की उसी व्याख्या को स्वीकार करें, जो सदियों से चली आ रही है. क्या धर्मग्रंथों की व्याख्या करने पर पुरोहित वर्ग का एकाधिकार है? हम धार्मिक शिक्षाओं की वर्तमान व्याख्या का रचनात्मक ढंग से विरोध कर सकते हैं. हम इन शिक्षाओं की नई व्याख्या और नई समझ विकसित कर सकते हैं. यही तरीक़ा राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को चुनौती देने के लिए अपनाया था और इसी राह पर चलकर सर सैय्यद अहमद ख़ान ने मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा पाने एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया था. उन्होंने कुरान और हदीस की पुनर्व्याख्या की. उन्होंने कहा कि ईश्वर की वाणी (अर्थात कुरान) कभी ईश्वर के कृत्य (अर्थात उसके बनाए हुए इस ब्रह्मांड) की विरोधी नहीं हो सकती. और विज्ञान क्या है? वह केवल ईश्वर की सृष्टि का सुव्यवस्थित अध्ययन ही तो है. इसी प्रकार लैंगिक न्याय के हित में सभी धर्मों के सुधारकों ने धार्मिक ग्रंथों का रचनात्मक इस्तेमाल किया. मुसलमानों में मौलवी चिराग अली एवं मौलवी मुमताज़ अली ख़ान ने भारत में और मोहम्मद अब्दू ने मिस्र में कुरान एवं हदीस की वैकल्पिक व्याख्या कर महिलाओं को उनके अधिकार दिलाए. तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीबी और अशिक्षा सामाजिक बदलाव की राह में बड़े रोड़े हैं. समाज सुधारकों की आवाज बहुत कम लोगों तक पहुंच पाती है. जैसे-जैसे शिक्षा और जागरूकता बढ़ेगी, उनका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेगा. अगर राज्य क़ानून के ज़रिए समाज सुधार लाने की कोशिश करने के बजाय ग़रीबी एवं अशिक्षा को मिटाने पर ध्यान दे और सामाजिक नेता समाज को परिवर्तन की आवश्यकता का भान कराने का प्रयत्न करें तो इससे काम बन सकता है. यह सब कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है. कई शक्तिशाली निहित स्वार्थ किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरोधी हैं. यदि ग़रीबी उन्मूलन के लिए गंभीर प्रयास किए जाते हैं तो इससे आर्थिक रूप से समृद्ध वर्ग बेचैन हो जाता है, क्योंकि इन प्रयासों का नतीजा होगा टैक्सों में बढ़ोत्तरी, राज्य के हस्तक्षेप में वृद्धि और आर्थिक संसाधनों का पुनर्वितरण. इसी तरह धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग समाज में जागरूकता बढ़ने से घबराता है. इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवर्तन लाना असंभव है. हमारा उद्देश्य केवल यह जताना है कि समाज सुधारकों के समक्ष कठिन चुनौतियां हैं. केवल आशावादिता, आस्था, धैर्य और सही रणनीति से उन्हें मदद मिल सकती है.
(लेखक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं)

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वर्ण व्यवस्था के अमानवीय बन्धनों ने शताब्दियों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है। ऐसा सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण किया गया जो अपनी सोच और स्थापनाओं में दलित विरोधी है और समाज के अनिवार्य अर्न्तसम्बन्धों को खंडित करने वाला भी।


जनवादी प्रगतिशील और राजतान्त्रिक साहित्य द्वारा भरत में केवल वर्ग की ही बात करने से उपजी एकांकी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य समाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है- ऐसी समानता जिसके बगैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता।



दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारस्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध। अपने पुराण साहित्यकारों के प्रति आस्थावान न रह कर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिसमें जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है। 



यह पुस्तक दलित साहित्य आन्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरी करती हुई दलित-रचनात्मकता की कुछ मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज भी करती है, और साहित्य के स्थापित तथा सर्वस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओं के बल पर चुनौती देता है।

भूमिका

गत वर्षों में होने वाली बहसों, चर्चाओं, सहमति, असहमतियों के बीच जो सवाल उठते रहे हैं, उन सवालों ने ही इस पुस्तक की परिकल्पना के लिए मुझे उकसाया है। 
दलित साहित्य की अवधारणा क्या है ?’’ उसकी प्रासंगिकता क्या है ? दलित-चेतना का अर्थ है ?- आदि सवाल दलित, गैर-दलित रचनाकारों, आलोचकों, विद्वानों के बीच उठते रहें है। यहाँ यह सवाल भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि दलित साहित्यकार किसे कहें ? इन तमाम सवालों को केन्द्र में रखकर ही दलित साहित्य और उसके सौन्दर्यशास्त्र पर बात हो सकती है। आदर्शवाद ही महीन बुनावट में असमंजस की स्थितियाँ हिन्दी यथास्थितिवाद को ही पुख्ता करती हैं। ये आदर्शवादी स्थितियाँ हिन्दी क्षेत्रों में किसी बड़े आन्दोलन के जन्म न ले पाने के कारणों में से एक है। सामन्ती अवशेषों ने कुछ ऐसे मुखौटे धारण किए हुए हैं जिनके भीतर संस्कारों और सोंच को पहचान पाना मुश्किल होता है। व्यक्तिगत जीवन के दोहरे मापदंडों में ही नहीं साहित्य, संस्कृति के मोर्चे पर भी छद्म चेहरे रूप बदलकर मानवीय संवेदनाओं से अलग एक काल्पनिक संसार की रचना में लगे हुए रहतें हैं। बुनियादी बदलाव की संघर्षपूर्ण जद्दोजहद को कुन्द कर देने में इन्हें महारत हासिल है। यही यथास्थितिवादी लोग दलित साहित्य की जीवन्तता और सामाजिक बदलाव की मूलभूत चेतना को अनदेखा कर उस पर जातीय संकीर्णता एवं अपरिपक्वता का आरोप लगा रहे हैं।


सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्ब’ और ‘प्रतीक’ को प्रमुख माना है विद्वानों ने जबकि सौन्दर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है। कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है। साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं। यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं। 



हिन्दी में दलित साहित्य की चर्चा और उस पर उठे विवादों ने हिन्दी साहित्य को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। जहाँ एक ओर हिन्दी साहित्य के मठाधीश, समीक्षक, आलोचक, दलित साहित्य के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं, वहीं कुछ लोग यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि दलित साहित्य के लिए दलित होना जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि हिन्दी में दलित समस्याओं पर लिखनेवालों की एक लम्बी परम्परा है। ऐसी ही चर्चा के दौरान कथाकार की एक लम्बी परम्परा है। ऐसी ही चर्चा के दौरान कथाकार काशीनाथ सिंह ने अपने एक अध्यक्षीय भाषण में टिप्पणी की थी, ‘‘घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा होना जरूरी नहीं।’’ विद्वान कथाकार का यह तर्क किस सोच को उजागर करता है ? घोड़े को देखकर उसके बाह्य अंगों, उसकी दुलकी चाल, उसके पुट्ठों, उसकी हिनहिनाहट पर ही लिखेंगे। लेकिन दिन-भर का थका-हारा, जब वह अस्तबल में भूखा-प्यासा खूंटे से बँधा होगा, तब अपने मालिक के प्रति उसके मन में क्या भाव उठ रहे होंगे, उसकी अन्तःपीड़ा क्या होगी, इसे आप कैसे समझ पाएँगे ? मालिक का कौन-सा रूप और चेहरा उसकी कल्पना होगा, सिर्फ घोड़ा ही जानता है। 



दलित साहित्य की भाषा, बिम्ब, प्रतीक, भावबोध परम्परावादी सहित्य से भिन्न हैं, उसके संस्कार भिन्न हैं। 
हिन्दी के चर्चित कवि मंगलेश डबराल से एक साक्षात्कार में ललित कार्तिकेय द्वारा पूछा गया प्रश्न बहुत अहम है, ‘‘आपकी कविताओं में पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों की झलक तो मिलती है, लेकिन पहाड़ी समाज के भीतर के सामाजिक अन्तर्विरोध को आप अपने काव्य में नहीं लाते ?’’



यही स्थिति समूचे हिन्दी साहित्य की है। मानवीय सम्बन्धों के अमूर्त रेखांकन से गद्गद हिन्दी साहित्य यह बताने में असमर्थ नहीं है कि महादेवी वर्मा जो ‘नीर भरी दुःख की बदरी’ हैं, उनकी इस पीड़ा का स्रोत क्या है ? 
दलित लेखकों द्वारा आत्मकथाएँ लिखने की जो छटपटाहट है वह भी इन स्थितियों की ही परिणति है। सामाजिक अन्तर्विरोधों से उपजी विसंगतियों ने दलितों में गहन नैराश्य पैदा किया है। सामाजिक संरचना के परिणाम बेहद अमानवीय एवं नारकीय सिद्ध हुए हैं। सामाजिक जीवन की दग्ध अनुभूतियाँ अपने अन्तस् में छिपाए दलितों के दीन-हीन चेहरे सहमें हुए हैं। इन भयावह स्थितियों के निर्माता कौन हैं ? दोहरे सांस्कृतिक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढो़ते रहने को अभिशप्त जनमानस की विवशता साहित्य के लिए जरूरी क्यों नहीं है ? क्यों साहित्य एकांगी होकर रह गया है ? ये सारे प्रश्न दलित साहित्य की अन्तःचेतना में समायोजित हैं। 



दलित साहित्य के लिए अलग सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी यह एक अहम सवाल है। इस पुस्तक की रचना प्रक्रिया के दौरान ऐसे अनेक प्रश्नों से सामना हुआ, जिन पर समीक्षकों को गम्भीरता से सोचना होगा। अलग सौन्दर्यशास्त्र की परिकल्पना से हिन्दी साहित्य का विघटन नहीं विस्तार होगा, ऐसी मेरी मान्यता है। 



हिन्दी समीक्षक रचना के मापदंडों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं। रचना का मापदंड क्या हो सकता हो ? कैसे हो ? इसके लिए जरूरी है कि उसके उदगम और भावबोध पर चर्चा हो, समाजशास्त्रीय आलोचना का विकास हो। उन मापदंडों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है, जो सामन्ती सोच के पक्षधर हैं, कुलीन घरानों के नायकत्व से आतंकित हैं। उनकी अभिलाषाएँ, उनकी आकांक्षाएँ ही यदि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र का निर्धारण करती हैं, तो ऐसा साहित्य मानवीय संवेदनाओं को कहाँ तक सँजो पाएगा, इसमें सन्देह नहीं है। 



इस पुस्तक में दलित साहित्य और उसकी सोच एवं दृष्टि को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक के लिखने में अनेक मित्रों, विद्वानों का सहयोग मिला है। उनके प्रति आभार, बिना किसी औपचारिकता के। दलित साहित्य-आन्दोलन से जुड़े उन तमाम लोगों का आभार, जिनकी जद्दोजहद ने मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ, धर्मपाल पीहल एवं डॉ. जय किशन, (उस्सानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद), जिनके सम्बल एवं प्रोत्साहन, सहयोग के बगैर यह सामग्री पुस्तक रूप नहीं ले सकती थी। 
पुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने में मेरे मित्र टिकारामजी ने जो सहयोग दिया, उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। 
प्रस्तुत सामग्री के कुछ अंश ‘हंश’, ‘पहल’, ‘संचेतना’, ’वसुधा’ और ‘भारत अश्वघोष’ में छप चुके हैं। आभार।

दलित साहित्य की अवधारणा


‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दहन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त-हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि। 
डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।’
इसी प्रकार कँवल भारतीय का मानना है कि ‘दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतन्त्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है, और इसके अन्तर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।’ 


मोहनदास नैमिशराय ‘दलित’ शब्द को और अधिक विस्तार देते हुए कहते हैं कि दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के लिए समानार्थी लगता है। लेकिन इन दोनों शब्दों में प्रर्याप्त भेद भी है। दलित की व्याप्ति अधिक है तो सर्वहारा की सीमित। दलित के अन्तर्गत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण का अन्तर्भाव होता है, तो सर्वहारा केवल आर्थिक शोषण तक ही सीमित है। प्रत्येक दलित व्यक्ति सर्वहारा के अन्तर्गत आ सकता है, लेकिन प्रत्येक सर्वहारा को दलित कहने के लिए बाध्य नहीं हो सकते...अर्थात सर्वहारा की सीमाओं में आर्थिक विषमता का शिकार वर्ग आता है, जबकि दलित विशेष तौर पर सामाजिक विषमता का शिकार होता है।’ 



दलित शब्द व्यापक अर्थबोध की अभिव्यंजना देता  है। भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया वह व्यक्ति ही दलित है। दुर्गम पहाडों, वनों के बीच जीवनयापन करने के लिए बाध्य जनजातियाँ और आदिवासी, जरायमपेशा घोषित जातियाँ सभी इस दायरे में आती हैं। सभी वर्गों की स्त्रियाँ दलित हैं। बहुत कम श्रम-मूल्य पर चौबीसों घंटे काम करने वाले श्रमिक, बँधुआ मजदूर दलित की श्रेणी में आते हैं। 



इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि दलित शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया होता है जो समाज-व्यवस्था के तहत सबसे निचली पायदान पर होता है। वर्ण-व्यवस्था ने जिसे अछूत या अन्त्यज की श्रेणी में रखा। उसका दलन हुआ। शोषण हुआ, इस समूह को ही संविधान में अनुसूचित जातियाँ कहा गया है जो जन्मना अछूत है। 
दलित शब्द साहित्य के साथ जुड़कर एक ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है। 
अनेक विद्वानों ने ’दलित साहित्य’ की व्याख्या करते हुए उसे परिभाषित किया है। दलित चिन्तक कंवल भारती की धारणा है कि ‘दलित साहित्य’ से अभिप्राय उस साहित्य से है। जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है।’ 



दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (MASS  LITERATURE )। सिर्फ इतना ही नहीं, लिटरेचर ऑफ एक्शन (LITERATURE OF ACTION) भी है जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामन्ती मानसिकता के विरूद्ध आक्रोशजनित संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य। 



मराठी कवि नारायण सूर्वे का कहना है कि ‘दलित शब्द की मिली-जुली परिभाषाएँ हैं। इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियाँ ही नहीं, समाज में जो भी पीड़ित हैं, वे दलित हैं। ईश्वर निष्ठा या शोषण निष्ठा जैसे बन्धनों से आदमी को मुक्त रहना चाहिए। उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सहज स्वीकार किया जाना चाहिए। उसके सामाजिक अस्तित्व की धारणा समता, स्वतन्त्रता और विश्वबन्धुत्व के प्रति निष्ठा निर्धारित होनी चाहिए। यही दलित साहित्य का आग्रह है। ‘दलित साहित्य’ संज्ञा मूलतः प्रश्न सूचक है। महार, चमार, माँग, कसाई, भंगी जैसी जातियों की स्थितियों के प्रश्नों पर विचार तथा रचनाओं द्वारा उसे प्रस्तुत करनेवाला साहित्य ही दलित है। 
डॉ. सी.बी. भारती की मान्यता है कि ‘नवयुग का व्यापक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है। जो कुछ भी तर्कसंगत, वैज्ञानिक, परम्पराओं का पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्य सृजन है हम उसे दलित साहित्य के नाम से संज्ञायित करते हैं।’ 



राजेन्द्र यादव दलित शब्द को काफी व्यापक दायरे में देखते हैं। वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं। पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं। लेकिन डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन उनके इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है: ‘इससे साहित्य में सही स्थिति सामने नहीं आती। दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिला। सामाजिक स्तर पर जातिभेद के जो शिकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है।’ 
बाबूराव बागूल ‘दलित’ विशेषण को सम्यक क्रान्ति का नाम मानते हैं जोकि क्रान्ति का साक्षात्कार है। 



यही मान्यता अर्जुन डाँगले की भी है। उनका कहना है कि ‘दलित’ शब्द का अर्थ साहित्य के सन्दर्भ में नए अर्थ देता है। दलित यानी शोषित, पीड़ित सामाज, धर्म व अन्य कारणों से जिसका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शोषण किया जाता है, वह मनुष्य और वही मनुष्य क्रान्ति कर सकता है। यह दलित साहित्य का विश्वास है।’ 
इन विवेचनाओं एवं विशेषणों के आधार पर जो तथ्य स्थापित होते हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि दलित शब्द दबाए गए, शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित के अर्थों के साथ जब साहित्य से जुड़ता है तो विरोध और नकार की ओर संकेत करता है। वह नकार या विरोध चाहे व्यवस्था का हो, सामाजिक विसंगतियों या धार्मिक रूढियों, आर्थिक विषमताओं का हो या भाषा प्रान्त के अलगाव का हो या साहित्यिक परम्पराओं, मानदंडों या सौन्दर्यशास्त्र का हो, दलित साहित्य नकार का सहित्य है जो संघर्ष से उपजा है तथा जिसमें समता, स्वतन्त्रता और बन्धुता का भाव है, और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिवाद का विरोध है। 



साहित्य के साथ दलित शब्द जुड़ते ही उसकी व्यापकता और अधिक क्रान्ति बोधक हो जाती है। अर्थ और अधिक व्यंजनात्मक होकर साहित्य की भूमिका और सामाजिक उत्तरदायित्वों को और अधिक विश्लेषित करने की क्षमता हासिल कर लेता है। दलित शब्द विरोध की अभिव्यक्ति का प्रतीक बन जाता है। मानवीय संवेदनाओं के सरोकारों से जुड़कर सामाजिक प्रतिबद्धता स्थापित करता है। 
दलित साहित्य की जितनी भी परिभाषाएँ हैं, उनका एकमात्र स्वर है। सामाजिक परिवर्तन अम्बेडकरवादी विचार ही उनकी एकमात्र प्रेरणा है। बाबूराव बागूल के शब्दों में कहें, ‘मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को महान माननेवाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है।’



आज दलित साहित्य चर्चा के केन्द्र में है। वैसे तो दलित साहित्य के अनेक विद्वान दलित साहित्य का इतिहास बहुत पुराना मानते हैं। सिद्ध कवियों, भक्त कवियों की रचनाओं में दलित चेतना के सूत्र बीज रूप में मानते हैं। ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हीरा डोम की कविता को भी कई विद्वान पहली हिन्दी दलित कविता मानतें हैं। अछूतान्द के आन्दोलन और उसकी रचनाओं में सामाजिक उत्पीड़न को स्पष्ट देखा जा सकता है। आजादी के बाद भी अनेक दलित कवि हुए हैं, जिन पर गांधीवाद का प्रभाव ज्यादा है। उनमें हरित जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। माताप्रसाद, मंशाराम विद्रोही आदि ने बहुतायत में दलित लेखन किया है। 



लेकिन दलित साहित्य की प्रेरणा जब अम्बेडकर-दर्शन को स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ तथ्य स्वयं ही विश्लेषित हो जाते हैं। सातवें दशक में शिक्षित होकर कार्यक्षेत्र में उतरे दलित लेखकों की जद्दोजहद और संघर्ष ने हिन्दी दलित साहित्य की जो भूमि तैयार की उसका नोटिस गैर-दलितों ने काफी विलम्ब से लिया जबकि दलित पत्र-पत्रिकओं में यह गूँज पहले ही अपने पैर जमा चुकी थी। सातवें दशक में ‘निर्णायक भीम’ (सम्पादक आर. कमल, कानपुर) पत्रिका में दलित लेखकों को जो एक मंच प्रदान किया, उसकी बदौलत हिन्दी के कई नाम उभरकर सामने आए। इस बीच अनेक दलित पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन इस संघर्ष के लिए अनुकूल साबित हुआ। मोहनदास नैमिशराय स्वतन्त्र लेखन एवं पत्रकारिता  से जुड़े और अपनी एक विशिष्ट पहचान निर्मित की।



31 जुलाई, 1992 को ‘हंस’ पत्रिका ने ‘दलित चेतना : विशिष्ट सन्दर्भ प्रेमचन्द्र’ विषय पर नई दिल्ली में वार्षिक गोष्ठी का आयोजन किया जिसकी चर्चा लम्बें समय तक चली और अन्त में ‘स्त्री दलित है या नहीं’ पर केन्द्रित हो गई। लेकिन इस चर्चा से यह लाभ जरूर हुआ कि जो दलित साहित्य को अभी तक अनदेखा कर रहे थे, उनका ध्यान इस ओर गया। कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य से ढूँढ़-ढूँढ़कर दलित साहित्य की सूचियाँ दिखाने लगे। कल तक जहाँ दलित साहित्य का जिक्र नहीं था, वहाँ प्रेमचन्द्र, नागार्जुन, धूमिल, अमृतलाल नागर, गिरिराज किशोर, यहाँ तक कि तुलसीदास भी दलित कवियों की श्रेणी में आने लगे। 



शिवपुरी में कथाकार पुन्नी सिंह ने ‘कमल’ के मंच से दलित साहित्य पर संगोष्ठी कराई, जिसमें नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने भाग लिया था। उसी वर्ष (1993) अक्टूबर के अखिल भारतीय हिन्दी दलित-लेखक-साहित्य सम्मेलन का आयोजन डॉ. विमल कीर्ति ने नागपुर में किया। हिन्दी दलित साहित्य के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने का अवसर मुझे मिला था। डॉ. महीप सिंह, कथाकार, सम्पादक-संचेतना को उद्घाटनकर्ता के तौर पर आमन्त्रित किया गया था। डॉ. महीप सिंह ‘संचेतना’ का मराठी दलित साहित्य (हिन्दी में) विशेषांक प्रकाशित कर चुके थे। दो दिन इस सम्मेलन में डॉ. महीप सिंह ने दलित लेखकों की जद्दोजहद बहुत करीब से देखी थी। दलित लेखकों ने अपनी पूर्व हिन्दी साहित्य पर अनेक सवाल उठाए थे जिन पर आगे चलकर एक सार्थक बहस हुई थी। और इसके रचनात्मक परिणाम भी दिखाई पड़े। प्रेमचन्द्र और उनकी चर्चित कहानी ‘कफन’ पर उठाए गए सवालों पर ‘समकालीन जनमत’ ने बहस चलाई थी। ‘हंस’, ‘कथानक’, ‘इंडिया टुडे’ आदि पत्रिकाओं ने दलित कहानियाँ प्रकाशित कीं। ‘प्रज्ञा साहित्य’, ‘सुमन लिपि’ ‘युद्धरत आम आदमी’ ‘पश्यन्ति’ ने दलित अंक निकाले। नागपुर से ‘अंगत्तर’ त्रैमासिक  (डॉ. विमल कीर्ति) का नियमित प्रकाशन शुरू हुआ। राष्ट्रीय सहारा ने ‘हस्तक्षेप’ साप्ताहिक परिशिष्ट के दो अंक निकाले, राजकिशोर ने आज के प्रश्न श्रृंखला में ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक का सम्पादन किया। 



17 अगस्त,1998 को जनवादी लेखक संघ, नई दिल्ली ने साहित्य अकादमी के सभासागर में दलित आत्मकथा ‘जूठन’ (ओमप्रकश वाल्मीकि) पर संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें दलित, गैर-दलित विद्वानों, लेखकों ने भाग लिया तथा दलित साहित्य पर एक गम्भीर चर्चा हुई। 
गत वर्षों में दलित साहित्य आन्दोलन से हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों और विद्वानों के दृष्टिकोण में बदलाव की प्रक्रिया का जो रूप उभरा है, वह एक उम्मीद जगाता है। इन सबके बाद भी हिन्दी समीक्षकों, साहित्यकारों और पाठकों का एक ऐसा वर्ग है, जो दलित साहित्य पर लगातार आरोप लगाता रहा है। कभी उस पर जातिवादी होने का आरोप तो कभी समाज में विघटन करने का आरोप, तो कभी साहित्य की ‘उत्कृष्टता’ और ‘पवित्रता’ को नष्ट-भष्ट कर देने का आरोप तो कभी नामवरजी को लगता है कि दलित लेखकों की साहित्य में घुसपैठ करके आरक्षण माँगने की नीयत है। इसलिए वे बार-बार यह दोहराते हैं कि साहित्य में आरक्षण नहीं होता। यह वाक्य उछलकर दलित साहित्य को खारिज कर देने की मुहिम चलाई जा रही है जबकि यह सवाल ही बेबुनियाद है, साथ ही पूर्वग्रहों से भरा हुआ भी। कुछ विरोध तो केवल व्यक्तिगत हैं, जैसे नामवरजी के लिए नेतृत्व का संकट। कुछ कारण सामन्ती प्रवृत्तियों के भी हैं, जो दलित साहित्य के लिए संकट उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं।
           




गत कुछ दशकों से पंजाबी साहित्य एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलितों के बारे में दलित लेखकों और अदलित लेखकों द्वारा बहुत कुछ लिखा जा रहा है। दलित चेतना, दलित विमर्श, दलित सरोकार, दलित संकल्प आदि अवधारणापरक शब्दों के केन्द्र में काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, आत्मकथा, संस्करण आदि की सर्जना की जा रही है। आज �दलित� शब्द निर्धारित आयतन तक सीमित न रहकर व्यापक संदर्भों में प्रयुक्त होने लगा है। �दलित� शब्द की व्युत्पत्ति, इसकी विद्यमानता, अर्थ एवं परिभाषा की यदि शल्यक्रिया न भी की जाए, तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कोई पुरुष या स्त्री जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्तर पर शोषित है; जो जिंदगी की यातनाओं और यंत्रणाओं को झेलने के लिए बाध्य है; जो सामाजिक व्यवस्था के इन्द्रजाल में फँसा और पिसा हो और जो जिंदगी की विसंगतियों और विरोधाभास में संगति न बिठा पाया हो, वही दलित है। यूँ तो �दलित� शब्द का प्रयोग संस्कृत, उत्तरी भारत की सभी भाषाओं एवं पूर्वी एशिया की पुरातन बोलियों में मिलता है, लेकिन ज्योतिबा फुले और डॉ. अम्बेडकर जैसे विचारकों ने इस शब्द को आधुनिक संदर्भगत अर्थ प्रदान करते हुए इसकी प्रयोग-प्रासंगिकता को अधिक व्यापक बनाया। उनके चिंतन क्षेत्र में दलित वर्ग, अनुसूचित जाति, मानवीय भेदभाव एवं आर्थिक असमानता के रूप में अधिक विवेचित और व्याख्यायित है। 
मराठी, हिन्दी, मलयालम, तमिल, तेलुगु और कन्नड भाषाओं के साहित्य की मानिंद पंजाबी साहित्य की अन्यान्य विधाओं में दलित वर्ग को निष्ठापूर्वक एवं ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। इस सत्य तथ्य पर अधिक जोर देने की आवश्यकता महसूस नहीं होती कि पंजाबी साहित्य अत्यन्त समृद्ध एवं मानव-मूल्यों से भरपूर साहित्य है तथा पंजाबी साहित्यकार प्रारम्भ से ही साहित्य के उद्देश्य व इसके सामाजिक सरोकारों के प्रति सचेतनता से प्रतिबद्ध रहा है। यही वजह है कि पंजाबी कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में दलित चेतना, विमर्श और सरोकारों को व्यापक स्वर मिले हैं। पंजाबी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के जरिए दलितों के मन में नई चेतना पैदा करके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बदलाव पैदा किया ह। यह भी सही है कि पंजाबी रचनाकार का उद्देश्य लोगों को सस्कृतिक तौर पर जागरूक करके, सामाजिक समस्याओं के बारे में जानकारी देकर, उनके चेतना स्तर को उदात्त बनाकर, उनके अपने अधिकारों के प्रति सचेत कराकर और उनमें उत्साह, वीरता, दृढता, निडरता, तप-त्याग की भावना पैदा करके उन्हें समूचे समाज की उन्नति की ओर प्रेरित करना रहा है। 
इसे सुखद ही कहा जाएगा कि भारत के अन्य राज्यों की तुलना में पंजाब में पिछडी जातियों के लोगों का जीवन और उनकी सामाजिक स्थिति कुछ बेहतर है। इसका मुख्य कारण सिख गुरुओं, भक्तों एवं सूफी कवियों की समदृष्टि है, जिन्होंने अपने साहित्य में दलित लोगों को बराबर का दर्जा दिया है। भारतीय समाज में, विशेषकर पंजाबी समाज में जाति-पात आधारित भेदभाव समाप्त करने के लिए गुरु नानक, गुरु अमरदास, गुरु अर्जुन देव और गुरु गोविन्द सिंह ने केवल साहित्य में ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप में भी ईमानदार प्रयास किए। �लंगर और पंगत� (सभी लोगों का एक पंक्ति में बैठकर 
मुफ्त भोजन करना) तथा �खालसा पंथ� का निर्माण इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यह सच्चाई भी किसी सबूत की मोहताज नहीं है कि गुरु गोविन्द सिंह के �पंज प्यारे� (पाँच प्रिय शिष्य) निम्न, मध्य एवं उच्च वर्गों के लोग थे। इसमें हैरत भी नहीं कि पंजाबी साहित्य के इतिहास में दलित समाज के पक्ष में सशक्त स्वर की शुरुआत गुरु नानक की वाणी से होती है। 
नीचा अंदर नीच जाति 
नीची हू अति नीच 
नानक तिन के संग साथि 
वडिआ सिऊ क्या रीस 
(आदि ग्रंथ, पृ.१५) 
जाहिर है कि गुरु नानक घोषित तौर पर दलित वर्ग के साथ खडे होने का प्रण लेते हैं और इस शोषित वर्ग के साथ सहृदयता भरा व्यवहार करने तथा सामाजिक समानता की प्रेरणा भी देते हैं। दलित वर्ग से संबंधित भाई मरदाने को गुरु नानक ने अपना प्रिय शिष्य बनाकर जीवन भर साथ रखा, जबकि द्रोणाचार्य ने भील जाति के एकलव्य को अपना शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था। इसमें भी आश्चर्य नहीं कि गुरु अर्जुन देव ने गुरु गथ साहिब के संपादन के समय नामदेव, कबीर और रविदास जैसे दलित भक्तों की वाणी को सम्मानजनक स्थान दिया। कहना न होगा कि समूचे गुरु काव्य और गुरु ग्रंथ साहिब में सम्मिलित भक्त वाणी और भट्टों की वाणी में दलित सरोकार अपने व्यावहारिक रूप में सामने आते हैं। यह भी जहाँ मध्यकाल का गुरमति काव्य सचेत तौर पर सामाजिक व्यवस्था का विरोध करता है, वहीं पंजाबी किस्सा काव्य में स्वतंत्र प्रेम के समर्थनार्थ जाति आधारित विवाह की पारम्परिक प्रथा को मारक चुनौती दी गई है। दरअसल, यह काव्य सामंती व्यवस्था के खिलाफ उठ रही दबी-कुचली एवं किस्तों में साँस लेने वाली जातियों के विद्रोह और क्रान्ति को ही उजागर करता है। सूफी कवि शाह हुसैन के काव्य में उच्च जाति को करारी चुनौती दी गई है - 
सभै जाति वड्डियाँ 
निमाणी फकीराँ दी जाति। 
(जाँ फोलां तां लाल, पृ.४३) 
साफ है कि मध्यकालीन गुरुमति काव्य, किस्सा काव्य एवं सूफी काव्य की तीनों धाराएँ सनातनी सामंती सामाजिक ढाँचे को हर स्तर पर ललकारती हैं। इनमें सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी को सार्थक व अनिवार्य महसूस करते हुए जाति-पात और ऊँच-नीच के विभाजन से ऊपर उठकर मानवतावाद का संदेश दिया गया है। गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज भक्त वाणी से स्पष्ट होता है कि ये भक्त सभी दशर्नशास्त्रों के तत्त्वों के ज्ञाता थे, ताकिर्कता के सभी तर्कों से वाकिफ थे और वेदों का सार आम जनता को समझाने की ताकत रखते थे। भक्त नामदेव ने अपने समय की जातिगत ऊँच-नीच भावना का खण्डन किया और लोगों को संदेश दिया कि आध्यात्मिक पथ के राही के लिए जाति का कोई अर्थ नहीं होता। गुरु की कृपा किसी जाति-पात को नहीं देखती है - 
कहा करउ जाति कहा करउ पाति 
राम को नाम जपउ दिन राति 
(आदि ग्रंथ, पृ. ४८५) 
कबीर ने भी ब्राह्मण की उच्चता पर पैने प्रश्न चिह्व लगाए। जन्म आधारित जातिगत विभाजन के तहत ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ मनुष्य होने का दर्जा दिया गया। लेकिन कबीर ने इस अंतराल को गैर-कुदरती साबित करने के लिए तीखा सवाल किया - 
जो तूं ब्राह्मण ब्राह्मणी जाईआ । 
तउ आन बाट काहे नहीं आईआ । 
तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद । 
हम कत लोहू तुम कत दूध ।। 
(आदि ग्रंथ, पृ. ३२४) 
इतना ही नहीं, कबीर ने अपनी वाणी के जरिए दलित वर्ग की मानसिक उलझन को खोलने का प्रयत्न किया। ब्राह्मणों, पंडितों, राजाओं और मुल्लाओं के झूठ-फरेब भरे जीवन पर तीखे व्यंग्य किए। जाति-पात व्यवस्था के जालिम ठेकेदारों पर निर्मम प्रहार करते हुए प्रेम-भावनापूर्ण समाज के सृजन की पेशकारी की - 
अवलि अलह नूर उपाइया । 
कुदरत के सब बंदे ।। 
एक नूर तै सब जग उपजिआ । 
कउन भले को मंदे ।। 
(आदि ग्रंथ, पृ.१३४९) 
रविदास ने भी अपने समय की जाति-पात, ऊँच-नीच व्यवहार एवं अमानवीय मूल्यों का कडा विरोध किया और मानव प्रेम का संदेश दिया। वे प्रत्येक मनुष्य की सामाजिक उन्नति के पक्षधर थे। उनकी प्रेरणादायी वाणी नीची जाति के लोगों में आत्मविश्वास, संतोष और स्वाभिमान के भाव जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
इसमें कोई शक नहीं कि आधुनिक पंजाबी साहित्य में पिछले कुछ दशकों से मराठी और हिन्दी साहित्य के प्रभावाधीन उत्पन्न दलित साहित्य प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि म अम्बेडकर अधिक कार्यशील हैं। लेकिन यह भी सच है कि वस्तुगत दृष्टि से यह साहित्य पुरातन पंजाबी साहित्य से कटा हुआ नहीं है। इसके मूल में प्रगतिवादी और क्रांतिकारी साहित्य के बीज देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि सुजान सिंह, संत सिंह सेखो, संतोख सिंह धीर, गुरदयाल सिंह, संतराम उदासी, लाल सिंह दिल, गुरदास राम आलम, बलबीर माधोपुरी आदि रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से दलित मनुष्य के जीवन यथार्थ को चित्रित करते आ रहे हैं। कह देना होगा कि आधुनिक पंजाबी साहित्य अपने मानवतावादी रुझान के कारण दलित मनुष्य पर किसी-न-किसी रूप में केन्दि्रत है। 
इस संदर्भ में आधुनिक पंजाबी कविता की प्रगतिवादी धारा दलित मुक्ति की अवधारणा को दृढतापूर्वक स्वीकार करती है। इस काव्य का दार्शनिक आधार माक्र्सवादी जीवन-दर्शन होने की वजह से इस धारा के कवियों ने वर्ग दृष्टिकोण से ही काव्य सृजन किया है। इनमें गुरदास राम आलम एक ऐसा प्रगतिवादी कवि है,जो दलित सरोकारों के साथ सीधे जुडता है। उनकी कविता उन सभी सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थापनाओं का विरोध करती है जो जाति-वर्ग व्यवस्था के विषय में खामोश रही है। उनकी �अछूत का इलाज� कविता दलित सरोकारों के साथ गहराई में जुडी आधुनिक पंजाबी कविता के इतिहास में प्रथम कविता मानी जा सकती है। कवि अपने दलित चिंतन के द्वारा दलित मनुष्य को धर्मों के ठेकेदारों की चालों के प्रति सचेत करता है। वह दलित मुक्ति के लिए दलित मानव को आत्म-ग्लानि की भावना से मुक्त होकर आत्म-सम्मान से जीने की प्रेरणा देता है। कवि आलम ने अपने परिवेश की मूक स्वीकृति अथवा उसके अनुकूलीकरण की कभी कोशिश नहीं की। पूँजीपति ताकतों के विरुद्ध उनका संघर्ष एवं विद्रोह बराबर सोद्देश्य रहा है, क्योंकि वह दबे-कुचले और शोषित मनुष्य की जिंदगी को अधिक सुखी एवं अर्थवान बनाने के मकसद से प्रेरित है। इसीलिए उनकी �इलेक्शन�, �भेडां� (भेडें), �खोता� (गधा), �मेरी कविता�, �मेरा काम�, �शायर� और �मैं शायर हूँ� कविताएँ व्यवस्था के उत्पीडन व दमन, यातनामय व यंत्रणामय जिंदगी के प्रति असहमति और विद्रोह का स्वर बुलन्द करती हैं। कवि में दलित चेतना की मौजूदगी है, स्थितियों में परिवर्तन लाने की क्षमता है और है अमानवीय तत्त्वों और सत्ताओं से टकराने की ताकत भी। मौजूदा व्यवस्था की को तीखी चुनौती देते हुए बदलाव की मानसिकता की तैयारी में वह सहभागी बनता है - 
मैं शायर हूँ एक श्रेणी का, 
संसार को खुश नहीं कर सकता। 
मैं लिखता हूँ मजदूरों के लिए, 
जरदार को खुश नहीं कर सकता। 
(आलम काव्य, पृ.४०) 
उनका काव्य संवेदनशील हृदय और सचेत मस्तिष्क की उपज इसलिए बनता है कि कवि ने स्वयं दलित जीवन का गहरा अनुभव भोगा था। तभी तो वह कविता को लोक चेतना पैदा करने वाले कारगर हथियार के रूप में देखता है। 
कवि संतोख सिंह धीर के काव्य में यथास्थिति से विद्रोह का आभास नजर आता है। उनकी अधिकांश कविताएँ व्यवस्था परिवर्तन के औजारों की शिनाख्त में संलग्न दीखती हैं। इनमें जनचेतना के सीमान्तों का विस्तार है। कवि दलित मानव मुक्ति के लिए माक्र्सवादी दर्शन आधारित लोकयुद्ध की जरूरत महसूसता है और मजदूरों को इस लोकयुद्ध का नायक बनने की प्रेरणा देता है - 
संसार भर के मजदूरों ! 
रंग-बिरंगे फूलों के 
गुलदस्ते की तरह गुँथ जाओ 
(संजीवनी, पृ.११२) 
उनके �सिंहावली� संग्रह की अनेक कविताएँ दलित सरोकारों को गहराई में रूपायित करती हैं। उन्हें विश्वास है कि दलित मुक्ति के लिए दलित वर्ग के अपने प्रयास ही अंतिम विजय का कारण बनेंगे। इसी महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर उनके काव्य-कर्म की सार्थकता व्यापक मानव-स्थितियों से सम्बद्धता के आधार पर साबित होती है। कवि मनुष्य और मनुष्य की ना-बराबरी पर चोट करते हुए उच्च वर्ग की घृणित भावना, सामाजिक भेदभाव और सामाजिक विषमता से परेशान मनुष्य की 
छटपटाहट की गहरी पहचान करता है - 
कितने ऊँचे हैं वे 
जिनको नीच कहते हैं 
फेंके हुए 
दुत्कारे हुए 
धिक्कारे हुए 
तिरस्कृत किए हुए 
ये, जो गिरे पडे हैं 
मिट्टी में 
धूल में 
इनको संभालो 
ये किसी ताज की कलगी पर 
जगमगाने वाले हीरे हैं। 
(सिंहावली, पृ.४०) 
विद्रोही एवं क्रान्तिकारी कवि संतराम उदासी की कविता भी सामंतवादी व्यवस्था और मानवीय शोषण पर चोट करने से गुरेज नहीं करती। उनके काव्य में सामाजिक सरोकार तीव्रता से उभरकर आते हैं। इसका एक कारण यह है कि उनकी कविता के केन्द्र में गाँव है और गाँव में मजदूर-किसान नायक के रूप में सामने आते हैं। कवि के दलित सरोकारों के मूल में उनका स्वयं का ग्रामीण जीवन अनुभव और नक्सलवादी आन्दोलन की सैद्धान्तिक समझदारी कार्यशील रही है। दलित जीवन की आर्थिक त्रासदी को मुख्य मुद्दा मानते हुए वह सामाजिक यथार्थ और व्यवस्थागत हकीकत के सभी पहलुओं के साथ गहराई से संयुक्त है। समकालीन पंजाबी कवियों में उनकी महान् प्राप्ति दलित स्त्री के त्रासद जीवन की सच्ची तस्वीर पेश करने में है। इसी बिन्दु पर उन्होंने दलित सरोकारों को सही आधार दिया है। व्यक्ति चेतना से दलित चेतना की ओर अग्रसर होने के कारण ही उनकी कविता सामाजिक व्यवस्था के ठोस मुद्दों से टकराव का दस्तावेज बन गई है। यह पंजाबी समाज का कडवा सच है कि यहाँ दलित औरतों को केवल भोग-विलास की वस्तु समझकर ही इस्तेमाल किया जाता है। इसके ऊपर सितम यह है कि इस अकाट्य सच से दलित मर्द भी वाकिफ है, लेकिन एकदम खामोश है। कवि उदासी की �बुर्जुआ ताने-बाने�, �मजदूर लडकी की पहली रात�, �माँ जैसी भाभी�, आदि कविताएँ इसी हकीकत को उच्च सीमा पर बयान करती हैं। मजदूर वर्ग की मानसिक, शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक लूट-दमन का भी दिल दहला देने वाला चित्रण है। उनकी �उठने का समय� जैसी कविताएँ मजदूर-किसानों की बाजुओं की सत्ता का गहरा अहसास कराकर दलित वर्ग को सामाजिक बदलाव के लिए चुनौतीमयी प्रेरणा देती है - 
उठो मजदूर-किसानों उठो रे उठने का समय 
जडें दुश्मन की उखाड रे उखाडने का समय 
(सम्पूर्ण रचनाएँ, पृ.१६६) 
आधुनिक पंजाबी काव्य के निर्भीक कवि लाल सिंह दिल की कविता जहाँ समूची भारतीय समाज की संरचना को जाति-वर्ग के दृष्टिकोण से विश्लेषित करती है, वहीं दलित मानव की मुक्ति के संभावना क्षेत्र की तलाश करते रहने की निरन्तर कोशिश में संलग्न भी है। कवि व्यक्तिगत जीवन में जातियों की कठोरता के भोगे हुए संताप को अपने काव्य में निरपेक्षता से अभिव्यक्त करता है। उनकी �शाम का रंग� कविता सदियों से शोषित और पीडत दलित मनुष्य की व्यथा-कथा पेश करती है। कवि को गहरा दुःख है कि दिल चीरने वाली गालियाँ, असहनशील तिरस्कार-दुत्कार और बेबसी इस कुचले वर्ग की कालजयी सम्पत्ति है। �जट्टवादी संस्कृति� पंजाबी समाज में एक तरह से �ब्राह्मणी संस्कृति� का ही प्रतीक है। परन्तु कवि दिल का विरोध �जट्ट संस्कृति� से है जट्ट से नहीं। इसीलिए वह कई स्थानों पर निर्धन जट्ट की त्रासद स्थिति को चित्रित करता है, तो �फालों से तीखे दाँत� कविता के माध्यम स जट्ट संस्कृति के विस्थापन की कोशिश में नजर आता है - 
हम जट्ट हैं 
हम थक गए 
हम नहीं लड सकते 
जमीन हमारे पैरों से बहुत दूर चली गई 
जमीन को हमारा हाथ लगवाओ। 
(नागलोक, पृ.७९) 
दलित सरोकारों से ओत-प्रोत कवि की �बेगानियाँ�, �वेश्या� और �भोलियाँ�, कविताएँ नारी पीडा को अपने भीतर समेटती हैं। मौजूदा दुनिया की अमानवीयता ही कवि में बेहतर मानवीय दुनिया की जरूरत का अहसास जगाती है। 
समाजार्थिक व्यवस्था को ललकारते हुए बलबीर माधोपुरी दलित चेतना की उस प्रवृत्ति के साथ संलग्न होता है जो मराठी और हिन्दी साहित्य से प्रभाव ग्रहण करती है। उनके �भखदा परताल� संग्रह की कविताएँ दलित मुक्ति का सवाल लेकर सीधे तौर पर मानवीय सरोकारों के साथ जुडती हैं। ये कविताएँ व्यवस्था की चक्की में पिस रहे साधनहीन मनुष्य के जीवन का यथार्थ चित्रण करती हुई सामाजिक परिवर्तन लाने वाली चेतना बनती है - 
ये निरे अक्षर नहीं 
यह तो 
साफ पानी की लहर है 
और लहरें 
समानता के लिए 
किनारों के साथ रगड खाती हैं, 
मंजिल की ओर बढती सडकें। 
(भखदा परताल, पृ.१३) 
�काव्य लोचा� कविता में कवि का नया रुझान अम्बेडकारी विचारधारा पर आधारित दलितवादी प्रवृत्ति की ओर अग्रसर होता है और अनेक पर्तों और वर्गों वाले भारतीय समाज के सच को बडे कैनवस पर चित्रित करता है। कवि की काव्य चेतना एकलव्य, बंदा बहादुर और पीर बुद्धू शाह से पाब्लो नरूदा तक के लोक नायकों और योद्धाओं के साथ भाईचारे के रिश्ते का सृजन करती है - 
बस मैं तो चाहता हूँ 
कि मेरी कविताएँ 
उस काव्यधारा में शामिल हों 
जिसमें 
एकलव्य, बंदा बहादुर की वाराँ हैं 
पीर बुद्धू शाह का संघर्ष है, 
पाब्लो नरूदा की वेदना है। 
(भखदा परताल, पृ.१६) 
उनकी �लहरें�, �मेरा बुजुर्ग�, �मेरा गाँव�, �उसने कहा� और �संस्कृति� कविताएँ जाति के हीनता बोध, पुरातनता की निरन्तरता, भारतीय वर्ण-व्यवस्था के यथार्थ, गरीबी की दलदल और दलित मानव के चेतन को वाणी देती हैं। 

यह तथ्य भी निराधार नहीं है कि कविता मानवीय चेतना का प्रतिफल है और मनुष्य की चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व तथा अनुकूल व्यवस्था से ही निर्धारित होती है। लेकिन दलित सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार को इस बात का खास ख्याल रखना होगा कि व्यवस्था बदलाव की बेचैनी में कविता के काव्यात्मक सरोकारों की दुनिया कहीं संकरी और सीमित तो नहीं हो पा रही है। इसलिए कवि दलित सरोकारों की संकेतित पट्टियों तक ही सीमित न रहकर समूचे सामाजिक खेत में और सभी दिशाओं में हल चलाएँ तभी दलित सरोकारों के वृहत्तर संदर्भों के जरिए जिंदगी के धनात्मक और गहरे अर्थों को व्यक्त किया जा सकेगा।  

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

बी.बी.सी.हिंदी से साभार -

डॉ.लाल रत्नाकर -

भारत में 17 साल पहले ग़ैरक़ानूनी क़रार दिए जाने के बावजूद आज भी भारत में मैला ढोने की प्रथा कायम है. मैला प्रथा यानि इंसान से इंसान का मल साफ़ करवाना.
वर्षों से ये काम कथित निचली जाति के सफ़ाई कर्मचारी ही करते आए हैं और इनमें भी 82 फ़ीसदी महिलाएं हैं.
बीबीसी की टीम ऐसी ही कुछ महिलाओं से मिलने मेरठ पहुंची.

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/11/101115_safai_karamchari_da.shtml 



'स्कूल आओगे तो मारेंगे'

मिर्चपुर में एक महीने से भी अधिक समय से दलित परेशान हो रहे हैं.
हरियाणा के हिसार ज़िले के मिर्चपुर गाँव में दलितों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा को एक महीने से ज्य़ादा का समय हो चुका है लेकिन दलित समुदाय के लोग उच्च जाति के कथित दबाव की वजह से वापस नहीं जाना चाहते.
गांव से बाहर बसाए जाने की मांग को लेकर दलित परिवार दिल्ली के कनाट प्लेस इलाक़े के वाल्मिकी मंदिर मे आसरा लिए हुए है.
दलित समुदाय और तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों के बीच हुए संघर्ष के बाद बिखरी ज़िंदगी मे सबसे ज्यादा ख़ामियाजा बच्चों को उठाना पड़ रहा है, जो हिंसा के बाद बने माहौल मे स्कूल जाने से डरते हैं.
मनदीप हरियाणा के मिर्चपुर गाँव के सरकारी स्कूल मे एक महीने पहले तक पाँचवी कक्षा मे पढ़ती थी लेकिन 22 अप्रैल की घटना के बाद वो जब भी स्कूल गई तो डरी सहमी वापस लौटी. मनदीप अब गांव के उस स्कूल में नहीं जाना चाहती.
मनदीप रोती हुई कहती है " वो हमें स्कूल जाते वक़्त रोकते थे. वो कहते हैं कि हम तुम्हे जिंदा जला देंगे. मैं वहां नही जाना चाहती. वो हमें जला देंगे."
मनदीप अकेली नहीं है, दलित परिवारों के कई ऐसे बच्चे हैं जो इस हिंसा के बाद स्कूल नहीं जा पाए.
वो हमे स्कूल जाते वक़्त रोकते थे. वो कहते कि हम तुम्हे जिदां जला देंगे. मैं वहाँ नही जाना चाहती. वो हमें जला देंगे
मनदीप
आठवीं कक्षा मे पढ़ने वाले आशीष कहते हैं " मै बहुत डरा हुआ हूं. वो कहते हैं कि पहली बार तो रात मे आग लगाई थी अबकी बार दिन मे आग लगा देंगे. वो कहते हैं कि अगर स्कूल मे आओगे तो मारेंगे . मै एक महीने से स्कूल नहीं गया हूँ. मेरा ये साल तो खराब ही हो गया."

धमकियाँ

वाल्मिकी मंदिर मे मौजूद दलित परिवारों का आरोप है कि मिर्चपुर मे उच्च जाति के लोग लगातार दलित परिवारों पर समझौते का दबाव बना रहे हैं और उन्हें लगातार धमकियां मिल रही हैं.
वाल्मीकि मंदिर कैंप मे मौजूद सूरजमुखी कहती हैं " बच्चे स्कूल नहीं जा सकते, ज़मींदारों के बच्चे हमारे बच्चों के साथ लड़ते हैं."
मिर्चपुर मे हम अब मजदूरी नहीं कर सकते. हमारा परिवार बिखरा हुआ है. जहां ज़िंदा लोगों को जला दिया गया वहाँ जाकर हम क्या करेंगे. अगर हम मजदूरी नहीं कर सकते तो अपना पेट कैसे भरेंगे?
सूरजमुखी
सूरजमुखी कहती हैं. "मिर्चपुर मे हम अब मजदूरी नहीं कर सकते. हमारा परिवार बिखरा हुआ है. जहां ज़िंदा लोगों को जला दिया गया वहाँ जाकर हम क्या करेंगे. अगर हम मजदूरी नहीं कर सकते तो अपना पेट कैसे भरेंगे?"
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मिर्चपुर के दलितों की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हरियाणा सरकार और हिसार के जिला कलेक्टर को नोटिस जारी किया था.
सर्वोच्च न्यायालय में मिर्चपुर के दलितों के वकील कॉलिन गोंजाल्विस कहते हैं "हमें खुशी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर गौर किया. हमारी माँग है कि इन परिवारों को उचित मुआवज़ा दिया जाए और अगर ज़रूरी हो तो इन्हे कहीं और बसाया जाए."
अब फ़ैसला अदालत को करना है.

रविवार, 14 नवंबर 2010

सोसियल ब्रेनवाश के प्रकाशन के एक वर्ष पूरे होने पर अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग सम्मेलन

27 नहीं पिछड़ा वर्ग को मिले 54 प्रतिशत आरक्षण

Nov 15, 01:43 am
मेरठ। अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण सूची में शामिल जातियों की जनसंख्या बहुतायत में है। उनके उत्थान को जरूरी है कि ओबीसी आरक्षण 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 54 प्रतिशत किया जाये।
रविवार को बच्चा पार्क स्थित प्यारे लाल शर्मा स्मारक में हुए अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग सम्मेलन में महाराष्ट्र के सांसद राजीव सेठी ने वकालत की। कहा कि इस बार जाति आधार पर जनगणना होगी तो जनगणना आंकड़ों से यह बात साबित हो जायेगी कि ओबीसी आरक्षण सूची में शामिल जातियों की जनसंख्या अन्य जातियों की तुलना में 64 प्रतिशत है। ऐसे में उनके उत्थान के लिए 54 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए।
नगीना सांसद यशवीर सिंह ने महिलाओं के उत्थान को मध्यप्रदेश व झारखंड की तरह सरकारी नौकारियों में उन्हें आरक्षण देने की वकालत उप्र के लिए की। कहा कि महिलाओं को अलग से आरक्षण देने के लिए विधेयक भी पारित होना चाहिए। ऑल इंडिया बैकवर्ड एम्पलाइज फैडरेशन के तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम में संगठन के प्रदेश अध्यक्ष कौशलेन्द्र प्रसाद यादव ने कहा कि अपने अधिकार के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल सभी जातियों को संगठित होना होगा। यदि वह संगठित होती है तो उनका समस्याओं का समाधान तेजी से होगा। जरूरी यह भी है कि ओबीसी व दलित का आपस में संगम हो। अध्यक्षता करते हुए हाईकोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति सखाराम सिंह ने संगठन की स्मारिका सोशल ब्रेनवास का विमोचन किया। एमएलए डी पी यादव, कांता यादव, डा. राजेन्द्र यादव, पूर्व मंत्री प्रभु वाल्मिीकि आदि ने सम्बोधित किया।
(दैनिक जागरण से साभार)
सामाजिक सरोकारों और केंद्र के मंत्री एंधिमुत्त्तु राजा चूँकि दलित समाज से आते है अतः इन पर भ्रष्टाचार को लेकर जो हमला किया गया है वह सामाजिक सरोकारों से भी कहीं न कहीं जुड़ता है . 
(डॉ.लाल रत्नाकर)
झुकना ही पड़ा डीएमके को
दूरसंचार मंत्री ए राजा के पक्ष में अब तक मजबूती से खड़ी डीएमके को आखिरकार अपने मंत्री को इस्तीफा देने को कहना ही पड़ा। पार्टी मुख्यालय की ओर से जारी बयान के मुताबिक, संसद की कार्यवाही को बाधित होने से बचाने के लिए उसने राजा को इस्तीफे के निर्देश दिए थे। बयान में कहा गया है कि कुछ विपक्षी पार्टियां नियोजित तरीके से राजा के इस्तीफे को लेकर संसद ठप करने की तैयारी में थीं। वैसे, राजा ने स्पेक्ट्रम आवंटन में दूरसंचार मंत्रालय की 1999 से जारी प्रक्रिया का ही पालन किया है।

एंधिमुत्त्तु राजा का सफरनामा
-- तमिलनाडु के नीलगिरि विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राजा पेशे से वकील हैं।
-- स्कूल के दिनों से ही डीएमके में अपना भविष्य तैयार करना शुरू कर दिया था।
-- साहित्यिक योग्यता के कारण जल्दी ही पार्टी अध्यक्ष एम. करुणानिधि के बेहद करीब हो गए।
-- 1996 में पहली बार लोकसभा में चुने गए।
-- पहला मंत्रालय केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के रूप में 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में मिला।
-- 2004 में पेरांबलूर में चुने जाने के बाद कैबिनेट मिनिस्टर बने। उन्हें पर्यावरण एवं वन मंत्रालय दिया गया।
-- दयानिधि मारन के अपने पद से इस्तीफा देने के बाद वर्ष 2007 में पहली बार दूरसंचार मंत्री बने।
-- 17 अक्तूबर 2008 को श्रीलंका में तमिल नागरिकों की हत्या को लेकर पद से इस्तीफा दिया।
-- वर्ष 2009 में दोबारा इस पद की जिम्मेदारी सौंपी गई।
Fifteenth Lok Sabha
Members Bioprofile
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Raja,Shri Andimuthu
Constituency   :Nilgiris (SC) (Tamil Nadu )
Party Name     :Dravida Munnetra Kazhagam(DMK)
Father's NameShri S.K. Andimuthu
Mother's NameSmt. Chinnapillai
Date of Birth10 May 1963
Place of BirthVelur, Distt. Perambalur (Tamil Nadu)
Marital StatusMarried
Date of Marriage04 Feb 1996
Spouse's NameSmt. M.A. Parameswari
No.of Daughters1
Educational QualificationsB.Sc., B.L., M.L.
Educated at Government Arts College, Musiri, Distt. Trichy; Government Law College, Madurai and Government Law College, Trichy, Tamil Nadu
ProfessionAdvocate

Permanent Address
Vill. Velur,
Taluka and Distt. Perambalur - 621 212
Tamil Nadu
Tels. (04328)277052,268255
Fax. (04328) 276376
Present Address
2-A, Motilal Nehru Marg,
New Delhi - 110 011
Tels. (011) 23010468, 23016553 (R), 23319696, 23739191, 24329191, 24369191 (O) 09868180390 (M)
Fax. (011) 24362333 (O)23017146 (R)
Positions Held
1996Elected to 11th Lok Sabha
1999Re-elected to 13th Lok Sabha (2nd term)
13 Oct. 1999 - 29 Sept. 2000Union Minister of State, Rural Development
30 Sept. 2000- 21 Dec. 2003Union Minister of State, Health and Family Welfare
2004Re-elected to 14th Lok Sabha( 3rd term)
23 May 2004 - 17 May 2007Union Cabinet Minister, Environment & Forests
18 May 2007Union Cabinet Minister, Communication and Information Technology
2009Re-elected to 15th Lok Sabha (4th term)
31 May 2009Union Cabinet Minister, Communications and Information Technology
Books Published
An Autobiography of Democracy” Oru Suyasarithai—Collection of Tamil poems
Literary Artistic & Scientific Accomplishments
Involved in social and Tamil literature movements since student days
Social And Cultural Activities
Contributing articles to leading Tamil and English Dailies and magazines, involved in public life during college days through Dravidar Kazhagam founded by Periyar EVR; President, Dr. Ambedkar Thinkers Forum, Perambalur; Secretary, (i) Rationalist Forum, Perambalur; and (ii) Tamil Ilakkiya Peravai (Literary movement), Perambalur; District Secretary, DMK Party, Perambalur
Special Interests
Activities on Social Reforms
Favourite Pastime and Recreation
Reading books and writing poems in Tamil
Countries Visited
Widely travelled

आम जीवन से जुडी कला

 https://www.forwardpress.in/2016/06/amjivan-se-judi-kala_omprakash-kashyap/ आम जीवन से जुडी कला बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को ...