रविवार, 26 सितंबर 2010

यह है इस देश का सच .बी.बी.सी.से साभार-बोलने की आज़ादी नहीं है: अखिल कुमार



अखिल कुमार
अखिल कुमार का कहना है कि भारत में बोलने के बाद ज़ुबान काट दी जाती है.
राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण पदक विजेता रह चुके जाने माने मुक्केबाज़ अखिल कुमार का कहना है कि भारत में बोलने की आज़ादी नहीं है और बोलने के बाद ज़ुबान काट दी जाती है.
बीबीसी हिंदी से हुई एक विशेष बातचीत में अखिल कुमार ने इस बात को स्वीकार किया कि राष्ट्रमंडल खेल गाँव में पहुँचने के बाद जब वे अपने बेड पर आराम करने के लिए बैठे तो उनका पलंग टूट गया.
अखिल कुमार ने 2006 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के लिए स्वर्ण पदक हासिल किया था.
अखिल कुमार और बीजिंग ओलम्पिक खेलों में रजत पदक जीतने वाले मुक्केबाज़ विजेंदर कुमार समेत भारतीय मुक्केबाजी टीम शनिवार को खेलगांव पहुंची थी.
मैं उस हादसे के बारे में बहुत बात कर चुका हूँ, अब और मानसिक चिंता में नहीं पड़ना चाहता. भारत में बोलने की आज़ादी नहीं है और बोलने के बाद ज़ुबान काट दी जाती है.
अखिल कुमार
अखिल कुमार का कहना है कि एक लंबी यात्रा के बाद जब वे खेल गांव पहुंचे तो उन्हें निराशा हाथ लगी.
अखिल कहते हैं," मैं उस हादसे के बारे में बहुत बात कर चुका हूँ, अब और मानसिक चिंता में नहीं पड़ना चाहता. भारत में बोलने की आज़ादी नहीं है और बोलने के बाद ज़ुबान काट दी जाती है."
अखिल राष्ट्रमंडल खेलों में हो रही अनियमितताओं की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, " सबको पता है कि क्या क्या गड़बड़ियाँ हो रहीं है लेकिन कोई साथ देने के लिए तैयार नहीं है. मैं तो बस यही चाहता हूँ कि राष्ट्रमंडल खेल ठीक से हो जाएँ और हम मेडल जीत लें. अफ़सोस यही है कि कोई भी बोलने के लिए तैयार नहीं है. हमसे यही कहा जा रहा है कि ऐसा करने से भारत की बेइज्जती हो रही है."
बीबीसी हिंदी ने जब भारतीय मुक्केबाज़ी टीम के एक और मुक्केबाज़ दिनेश कुमार से इस मसले पर बात कि तो उन्होंने अपने को इस मुद्दे से दूर रखते हुए कहा कि अब तो चीज़ें सुधर रहीं है.
विश्व मुक्केबाज़ी प्रतियोगिता में भारत के लिए कांस्य पदक जीतने वाले दिनेश बताते हैं, " छोटी मोटी कमियां तो हर जगह ही रहती हैं, पर ऐसी कोई बड़ी बात नहीं है जो अखिल के साथ घटी."
रहा सवाल अखिल कुमार का तो अखिल अपनी बात इसी तर्क पर ख़त्म करते हैं कि खिलाडियों के लिए मूलभूत सुविधाओं का इंतज़ाम कराना बाक्सिंग संघ का काम नहीं है बल्कि राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति का है.

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

बीबीसी से साभार - सावधान जानवरों में जातिवाद फ़ैल रहा है ! दलित ने छुआ तो कुत्ता हुआ अछूत

प्रवीण चित्रांष

'दलित' शेरू
इसी पालतू कुत्ते शेरू को उसके मालिक ने इसलिए घर से निकाल दिया क्योंकि इसे एक दलित महिला ने रोटी खिला दी थी.
मध्य प्रदेश के मुरैना ज़िले में एक राजपूत परिवार के पालतू कुत्ते, 'शेरू' को भेदभाव का शिकार होना पड़ा है.
शेरू को एक दलित महिला ने रोटी खिला दी जिसके बाद उसका मालिक उसे घर में रखने को तैयार नहीं.
सोमवार को कुत्ते पर फ़ैसला करने के लिए गाँव की पंचायत बैठी जिसने ये तय किया कि क्योंकि दलित महिला ने कुत्ते को अछूत बनाया है, इसलिए अब उसे ही कुत्ते को रखना होगा.
पंचायत ने महिला पर 15,000 हज़ार रूपए का जुर्माना भी लगाया.
कुत्ते को गाँव के दलित बहुल इलाक़े में एक खंभे से बाँधकर रख दिया गया.
इस महिला ने मामले की जानकारी पुलिस को दी लेकिन उसका आरोप है कि अबतक इस मामले में एफ़आईआर दर्ज नहीं किया गया है.
अब इस अछूत क़रार दिए गए कुत्ते का विवादित मामला मुरैना के ज़िला अधिकारी, पुलिस और अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ हुए मामलों की सुनवाई करनेवाले हरिजन थाना के पास पड़ा है.

मामला


पंचायत के आदेश के मुताबिक शेरु को अब इस दलित महिला सुनीता के साथ रहना होगा.
मुरैना के एक गाँव मानिकपुर में एक दलित महिला, सुनीता जाटव ने गाँव के उच्च जाति के एक प्रभावशाली किसान, अमृतलाल किरार के पालतू कुत्ते को एक रोटी खिला दी.
दरअसल सुनीता अपने पति चंदन जाटव के लिए खाना लेकर गई थी जो खेतों में काम कर रहा था.
चंदन के खाना खाने के बाद जो रोटी बच गई वो उसकी पत्नी ने इस कुत्ते को खिला दी.
कुत्ते के लिए ये रोटी उसके मुसीबत की जड़ बन गई.
कुत्ते के मालिक अमृतलाल ने उसे रोटी खाते देख लिया और सुनीता पर भड़क गया.
अमृतलाल का कहना था कि रोटी खिलाकर सुनीता ने कुत्ते को अछूत बना दिया.
इस बीच हरिजन थाने के डीएसपी बलदेव सिंह का कहना है कि वो मामले की जाँच कर रहे हैं.


दलित ग्राम प्रधान को गाँव से निकाला

उत्तराखंड की दलित महिला ग्राम प्रधान
पंचायत चुनावों में जीतने वाली महिलाओं के बारे में इस तरह का ख़बरे लगभग भारत के हर राज्य से आती रहती हैं.
उत्तराखंड की एक दलित महिला ग्राम प्रधान को गाँव के तथाकथित ऊंची जाति के लोगों ने गाँव से बाहर निकाल दिया है.
विधो देवी नाम की इस ग्राम प्रधान ने अपने साथ हुई इस ज़्यादती की शिकायत शासन से करते हुए दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की है.
घटना को हुए 10 दिन से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन इस मामले में प्रशासन के स्तर पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
निर्वोरोध प्रधान
इस पहाड़ी राज्य में दलितों के साथ भेदभाव कोई नई बात नहीं हैं लेकिन राजधानी देहरादून से क़रीब 90 किलोमीटर दूर इस दलित महिला ग्राम प्रधान को जिस तरह दर-दर भटकना पड़ रहा है उससे पंचायती राज व्यवस्था की सार्थकता पर सवाल उठ रहे हैं.
विधो देवी ने प्रशासन को जो शिकायत पत्र दी है उसके मुताबिक़ वे कालसी तहसील के गैंग्रो गांव की आरक्षित सीट से निर्विरोध प्रधान चुनी गई थीं.
उनका कहना है कि गाँव के तथा कथित ऊँची जाति के प्रभावशाली लोग यह बात सहन नहीं कर पाए और उन्होंने विधो देवी को प्रधान मानने से ही इनकार कर दिया.
मुझे गांव की प्रधानी नहीं चाहिए. मेरा निवेदन है कि मेरे परिवार के रहने की व्यवस्था की जाए.''
विधो देवी, गैंग्रो गांव की प्रधान
पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता करने की बात तो दूर उन्हें सरेआम अपमानित कर बैठकों में घुसने ही नहीं दिया जाता था.
उनकी अनुपस्थिति में ही योजनाएँ बनाई जाने लगीं और बैठक की कार्यवाही पर कथित तौर पर उनसे जबरन दस्तख़त करा लिए जाने लगे.
इन तथाकथित ऊँची जाति के लोगों ने उन पर सामूहिक भोज देने का दंड लगाकर उस दिन उन्हें गाँव से निकाल दिया जिस दिन पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा था.
विधो देवी आज अपने पति मंगल दास और बच्चों के साथ दर-दर भटक रही हैं .
बीबीसी से उन्होंने कहा, ''मुझे गांव की प्रधानी नहीं चाहिए. मेरा निवेदन है कि मेरे परिवार के रहने की व्यवस्था की जाए.''
वे कहती हैं, ''जिन लोगों ने मेरे साथ ऐसा किया है वे दबंग लोग हैं, हम तो छोटे लोग ठहरे. मुझे तो अब वहाँ लौटने में भी डर लग रहा है.''
गाँव वालों की चुप्पी
उधर, गैंग्रो गाँव में लोग इस घटना के बाद से चुप्पी साधे हुए हैं. इस पर बात करने को कोई तैयार नहीं है.
इस संबंध में संपर्क करने पर कालसी के एसडीएम इला तोमर ने कहा, ''यह बहुत दुखद घटना है.जल्द ही इसकी जांच कराकर दोषियों को सज़ा दी जाएगी.''
घटना को शर्मनाक बताते हुए दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, ''उत्तराखंड में दलितों की भयावह स्थिति है. इस विषय पर सरकार और बुद्धिजीवियों की भूमिका भी संदिग्ध है.''
उन्होंने कहा, ''कोई इस पर बात करने को तैयार नहीं है. इसे बहुत स्वाभाविक ढँग से लिया जाता है. इस तरह के मामलों पर वे चुप हैं और सवर्णों के ही साथ है.''
पंचायती राज के लिए काम कर रहे ग़ैर सरकारी संगठन 'रूलक' के अध्यक्ष अवधेश कौशल कहते हैं, ''ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण मामला है. यह न्याय व्यवस्था और सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह उस दलित महिला को उसके पद पर दुबारा बहाल कराए. यह सुनिश्चित किया जाए कि वह गाँव में सम्मानजनक तरीके से रह सके.”

रविवार, 19 सितंबर 2010

भेद-भाव के कारण क्या है ?

घिनौने हिन्दू धर्म का और भी घिनौना रूप। समयान्तर पत्रिका के नवंबर 2010 अंक में इस पुस्तक कि समीक्षा छपी है। 

लेखक -- दीवान सिंह बजेली
डार्लिंग जीः किश्वर देसाई; अनु. सोनल मित्रा; हार्पर कोलिंस; पृ.ः 442; मूल्यः 299
पुस्तक लेखक का घिनौना मनुवादि रूप देखिये-- " बलराज जिन्होंने फिल्म में अभिनय के लिए अपना नाम बदलकर सुनील रखा क्योंकि फिल्मों में बलराज साहनी एक प्रसिद्ध नाम पहले से ही विद्यमान था। बलराज का जन्म एक महिवाल ब्राह्मण परिवार में हुआ था जून 6, 1929 को जो विभाजन के समय पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। उनके पिता दीवान रघुनाथ दत्त इलाके के एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। जब बलराज की उम्र छोटी थी उनके पिता की मृत्यु हो गई। बलराज ने मैट्रिक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की पर अभावों के कारण आगे नहीं पढ़ सके और मिलिट्री में भती हो गए। विभाजन के समय उनका परिवारµमां, भाई और बहिनµतबाह हो गए। तब बलराज लखनऊ में थे। लंबे अंतराल के बाद बलराज अपने परिवार से मिल पाए। .........किश्वर पुस्तक का आरंभ दिलीपा से करती है। संभवतः बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि दिलीपा नर्गिस की नानी थी। वह बलिया की रहने वाली एक ब्राह्मणी थी। वह बाल विधवा कष्टकारक व अपमान से भरा जीवन बिताने के लिए बाध्य थी। कट्टरपंथी ब्राह्मण समाज ने उसका जीवित रहना दूभर कर दिया था। कहा जाता है कि वह चिलचिला के एक सारंगी वादक शेख मियांजान के संपर्क में आई और उनके साथ उनकी पत्नी के रूप में रहने लगी। मियांजान गाने-बजाने वाली औरतों के साथ काम करते थे। मियांजान व दिलीपा की पुत्री हुई जिसका नाम था जद्दनबाई जो एक प्रसिद्ध गायिका बनी। बाद में जद्दनबाई बंबई की तत्कालीन तथाकथित बड़ी सोसाइटी की सक्रिय सदस्य बनी और अपने को फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित करने में सफल हुईं।"



देखा आपने, सुनील दत्त और नर्गिस कि महानता उनके अप्रतिम प्रेम,श्रेष्ठ अभिनय,उनकी निस्स्वार्थ समाज सेवा से भी बढ़ कर लेखक के अनुसार यह थी कि दोनों न केवल ब्राह्मण थे बल्कि उच्च कुलीन ब्राह्मण थे। मुसलमान बनने के बाद भी नर्गिस कि नानी में लेखक को उच्च कुलीन ब्राह्मण रक्त ही नज़र आया। थू है ऐसे लेखक और धर्म पर जिसमें इंसान का पीछा न तो जाति छोडती है और जाति पर गर्व करनेवाले उसे छोडने में अपनी हेठी समझते है.

जातीय अहंकार का यह हिस्सा देखने लायक जो है .

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

जातीय जनगणना एक साल खिसकाने पर शरद खफा


 Sep 14, 08:39 pm
नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। वर्तमान जनगणना से अलग अगले साल जाति जनगणना करवाने के कैबिनेट के फैसले पर फिर विरोध शुरू हो गया है। जाति जनगणना को लेकर संसद में काफी उग्र रहे जद-यू अध्यक्ष शरद यादव ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और लोकसभा के नेता प्रणब मुखर्जी ने संसद का भरोसा तोड़ दिया।
उन्होंने कहा कि सरकार का फैसला न सिर्फ पैसे की बर्बादी है बल्कि यह पूरी जनगणना का उद्देश्य ही विफल कर देगा। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को पत्र भेजकर उन्होंने पुनर्विचार करने और वर्तमान जनगणना में ही इसे लागू करने की मांग की है।
जाति जनगणना को लेकर विपक्षी दलों ने पिछले दो संसदीय सत्रों में लगातार सरकार पर दबाव बनाया था। पिछले दिनों कैबिनेट ने इसे हरी झंडी तो दे दी लेकिन जून से सितंबर 2011 के बीच जाति जनगणना कराने का फैसला किया। शरद ने मंगलवार को इस पर आपत्ति जताते हुए कहा, सरकार अपना वादा नहीं निभा पाई। पहले भी सरकार ने भरोसा दिलाया था कि वर्तमान जनगणना के साथ ही इसे लागू किया जाएगा लेकिन उसे टाल दिया गया। जाति जनगणना के पीछे मंशा केवल पिछड़ों की संख्या जानना नहीं है बल्कि यह जानना भी जरूरी है कि वे कितने पिछड़े हैं। यह तभी हो सकता है जब जाति जनगणना वर्तमान जनगणना के साथ ही हो। जाति जनगणना अलग से करवाने पर इसका उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। शरद ने कहा कि यह पैसे की भी बर्बादी है। वित्त मंत्री व जाति जनगणना पर बने मंत्री समूह के अध्यक्ष प्रणब को पत्र लिखकर उन्होंने अपनी आपत्ति जता दी है
(दैनिक जागरण से साभार)

सोमवार, 13 सितंबर 2010

जाट बिगाड़ेंगे कॉमनवेल्थ खेल

नई दिल्ली /मेरठ/हिसार. लेट-लतीफी और भ्रष्टाचार से पहले ही विवादों में घिरे राष्ट्रमंडल खेलों की राह में अब जाट बिरादरी ने बाधा बनने की धमकी दी है। जाट नेताओं का कहना है कि यदि केंद्र सरकार ने उनकी आरक्षण की मांग को पूरा नहीं किया तो वे खेल नहीं होने देंगे। आयोजन स्थल राजधानी दिल्ली की पानी की आपूर्ति ठप कर देंगे। साथ ही शहर में सब्जी, दूध आदि भी नहीं आने देंगे। 

राजमार्ग जाम 

जाटों ने अपनी मांग के समर्थन में सोमवार को मेरठ में राष्ट्रीय राजमार्ग को काफी देर तक बंद रखा। बाद में पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने काफी मशक्कत के बाद जाम हटवाया और यातायात सामान्य हुआ। वहीं, मोहद्दीन में जाट आरक्षण संघर्ष समिति के बैनर तले जाटों ने केंद्र के प्रति कड़ी नाराजगी दिखाते हुए कहा कि सरकार उनके आंदोलन को हल्के में लेने की कोशिश न करे। 

हिसार में हिंसा 

आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा के हिसार में जाटों ने सड़क जाम किया। इन पर पुलिस ने फायरिंग की जिसमें एक १६ वर्षीय छात्र की मौत हो गई। इसके बाद प्रदर्शनकारी उग्र हो गए। इन लोगों ने पुलिस को खदेड़ते हुए कैट चौकी, मय्यड़ पेट्रोल पंप और कॉपरेटिव बैंक को आग के हवाले कर दिया। आठ वाहनों को भी फूंक दिया। हिसार-रेवाड़ी रेलवे मार्ग पर पटरी उखाड़ दी। प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पत्थर फेंका और उन्हें लाठियों से पीटा भी।
(साभार दैनिक भाष्कर )

बुधवार, 8 सितंबर 2010

अब गिनती के बाद पूछी जाएगी जाति

भारतीय संसद धन्य है , इसके नौकरशाह खुल्लम खुल्ला गुंडागर्दी पर आमादा , न प्रधानमंत्री न सरकार - देखो इनकी मनमानी  .

अब गिनती के बाद पूछी जाएगी जाति

नई दिल्ली [राजकिशोर]। जनगणना के साथ ही जाति पूछने के फैसले से केंद्र सरकार ने अब कदम वापस खींचने का फैसला किया है। जातीय जनगणना में व्यावहारिक दिक्कतों पर गृह मंत्रालय की आपत्तियों के मद्देनजर अब जनगणना के बाद जातीय गणना कराई जाएगी। गुरुवार को कैबिनेट में इस नए फैसले को मंजूरी के आसार हैं। अलग से जातीय जनगणना पर करीब 2,000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।
सरकार का एक वर्ग हालांकि, अलग से जातीय गणना में समय और धन की बर्बादी रोकने के लिए जनगणना के साथ ही इसे कराने का पक्षधर था। इस वर्ग को यह भी आशंका है कि अलग से जातीय गणना के फैसले से इसमें अनावश्यक देर होगी। इसके बावजूद, गृह मंत्रालय जनगणना के साथ जातीय गणना कराने पर तैयार नहीं है। उसने इस प्रक्रिया को लेकर हाथ खड़े कर दिए हैं। गृह मंत्रालय का साफ कहना था कि एक साथ ये दोनों काम नहीं हो सकते, इससे जनगणना का काम काफी पीछे चला जाएगा। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दखल देना पड़ा।
चूंकि, पिछड़ा वर्ग लॉबी और भाजपा समेत ज्यादातर राजनीतिक दल अब जातीय जनगणना के पक्ष में मत दे चुके थे, लिहाजा इससे पीछे हटने का सरकार के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। लिहाजा, जनगणना में देरी न हो, इसके मद्देनजर अब सरकार ने तय किया है कि ये दोनों काम अलग-अलग हों। वर्ष 2011 से पहले जनगणना का काम पहले से नियत कार्यक्रम पर किया जाएगा। इसमें एक चरण का काम यानी घरों के सर्वेक्षण सरकार कर चुकी है। अब लोगों की शिक्षा और अन्य अहम जानकारियां ली जाएंगीं लेकिन, इसमें जो जाति का कॉलम जोड़ा जा रहा था, वह नहीं होगा। अब जनगणना का काम खत्म होने के बाद जातीय गणना के लिए अलग से अभियान चलाया जाएगा। ऐसे में, जातीय आंकड़े 2013 से पहले आने की उम्मीद कम ही है।

हर तीसरा भारतीय है भ्रष्ट

Sep 08, 11:03 pm
नई दिल्ली। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त [सीवीसी] के पद से पिछले सप्ताह सेवानिवृत्त हुए प्रत्यूष सिन्हा ने कहा है कि हम भारतीयों में से एक-तिहाई निहायत ही भ्रष्ट हैं जबकि आधे ऐसा बनने की कगार पर खड़े हैं।
सिन्हा के मुताबिक, उनके काम का सबसे खराब पहलू यही रहा कि वह भ्रष्टाचार को फलते-फूलते देखते रहे। उन्हें लगता है कि लोग अब ज्यादा भौतिकतावादी हो गए हैं। उन्होंने कहा, 'जहां तक मुझे याद है, जब हम छोटे थे तब यदि कोई भ्रष्टाचार में शामिल पाया जाता था तो हम उसे बड़ी हिकारत से देखते थे। उसके साथ सामाजिक कलंक जुड़ जाता था। आज इसके उल्टा हो गया है। भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है।'
सिन्हा ने बताया कि हमारे देश में 20 प्रतिशत लोग अभी भी ईमानदार हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें लालच नहीं दिया जाता है लेकिन वे उससे विचलित नहीं होते। वहीं, तीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो निहायत ही भ्रष्ट हैं। इनके अलावा जो लोग बच गए, वे बिल्कुल कगार पर खड़े हैं। उन्हें मौका मिलने की देर है।
उन्होंने कहा, 'आज देश की स्थिति यह हो गई है कि जिसके पास ज्यादा पैसा है, उसे बड़ा सम्मान मिलता है। इस पर कोई न तो सवाल करता है, न ही जानने की कोशिश करता है कि उसने वह पैसा कहां से और किस तरीके से कमाया।'
हाल ही में भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं। इनमें राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण कार्यो में हुई अनियमितता, इंडियन प्रीमियर लीग में कर चोरी जैसे मामले शामिल हैं। भारत को संट्टेबाजों का अड्डा भी कहा जाता है। पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के स्पॉट फिक्सिंग में फंसने के मामले में भारतीयों के भी शामिल होने की बात सामने आई है। भ्रष्टाचार के गहरे पैठने का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने भी जीवन के हर स्तर पर फैली रिश्वत, उगाही और धोखाधड़ी के कारण अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ने की बात कही है।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जब मिडिया दुश्मन बन जाये !

डॉ.लाल रत्नाकर
श्याम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सेवा के अधिकारी है, और ख्यातिलब्ध सूटर है कई बार देश विदेश में प्रदेश एवं देश का नाम रोशन कर चुके है, जब इनको राष्ट्रमंडल खेलों में आधिकारिक कार्य दिया गया तो तमाम लोगों के पेट में दर्द हो गया है जिसकी आंच से तमाम रिपोर्टर जल रहे है. पर उन्हें सारे भ्रष्टाचार एक अधिकारी को सरकारें तहस नहस करने के लिए कैसे फसाती है, यह इनके मामले में देखा जा सकता है.
श्याम सिंह यादव तेज तर्रार अधिकारी है जिससे समय समय पर कई राजनेताओं यथा अमर सिंह , कई ब्यूरोक्रेट जिन्हें वह दुखते रहते है, स्वभाव से खुश मिजाज़ यादव जी बहुत जल्दी किसी पर भी बहुत जल्दी अपने व्यक्तित्व से मान मोह लेते है , पर इनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कम लोगों को ज्यादा दिनों तक संभाल पाते है या उनसे संभलता है .   
"ये बुद्धीजीवी, राजनेता, नामचीन खिलाड़ी और मीडिया आईपीएल पर अब क्यों आंसू बहा रहे है. उस समय ये आंखों पर पट्टी बांध कर क्यों बैठे हुए थे जब टीवी पर खुलेआम खिलाड़ियों की बोलियाँ लगाई जा रही थीं. उस समय नहीं दिखाई दे रहा था कि यह खेल नहीं बल्कि पैसे बनाने का खेल शुरू हो रहा है. पर लगता यह है कि सत्ता की केंद्र संसद ही इंडियन पार्लियामेंट लिमिटेड कंपनी बनकर विदेशियों की तरह राज करते हुए अपनी हुकूमत चला रही है. महँगाई कम नहीं कर रही है, टैक्स पर टैक्स लगा रही है. वह देश के विकास की बात को लेकर, सरकारी कर्मचारियों को छठवाँ वेतन आयोग के सिफारिशों के समान वेतन देकर और ग़रीबों को मनरेगा के जरिए पैसा देकर, इस तरह लोग सरकार पर आश्रित हो रहे हैं. सरकार इस खेल में मगन है. इसका फ़ायदा उठाकर पैसे वाले, अभिनेता और नेताओं ने मिलकर इंडियन पैसा बनाओ लिमिटेड (आईपीएल) का गठन किया. इसी लालच में थरूर को जाना पड़ा लेकिन और लोग भी जाते दिख रहे हैं. ऐसे में सवाल यह खड़ा हो रहा है कि सरकार मीडिया और आयकर विभाग पहले क्यों नहीं चेता. इसमें सबसे ज्यादा मूर्ख तो आम जनता बनी जो क्रिकेट को धर्म के रूप में देख रही है. उसकी इस कमजोरी का फ़ायदा आईपीएल ने उठाया. थरूर के बाद अब मोदी की बारी और फिर सरकार की बारी. पर लगता है कि मीडिया की बारी कभी नहीं आने वाली है. आईपीएल कांड से हर्षद मेहता की याद ताजा हो रही है. लेकिन अफ़सोस है कि कुछ समय बाद ये बातें हवा हो जाएंगी."

हिम्मत सिंह भाटी
-बी बी सी हिंदी से साभार     
यही कारण है की यह देश अगर हम इनसे आगे बढ़ते है और उनको याद करते है जिनकी वजह से यह सब हो रहा उसमे सर्वाधिक पिछड़े राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों का हाथ है. यथा हम यह कह सकते है की सामाजिक न्याय के जिन पुरोधाओं के चलते सामाजिक बदलाव का दौर शुरू हुआ था क्या उनके बताये रास्ते को कोई अख्तियार किया   यदि नहीं तो क्यों ? यह एक जटिल सवाल है जिसका जवाब देने से पहले सारे  पिछड़े राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों तथा सामाजिक आन्दोलन चलाने वाले लोगों को अपना दामन देखना होगा, एक दूसरे पर हमला बोलने के सिवा किया ही क्या है हमारे कर्ण धारों ने, न ही उन्होंने कोई नीति बनाई और न ही ऐसे स्कूल बनाये जहाँ से पिछड़ों के विकास के मार्ग प्रशस्त हो सके , उन्ही धाराओं के सहारे उन्ही के बताये रास्तों से उन्ही की देखा रेख में बदलाव की कामना करना तड़पती दोपहरी में तारे देखने जैसा ही है.
 यह खबर जो नीचे संलग्न है उसी का परिणाम है -  

आम जीवन से जुडी कला

 https://www.forwardpress.in/2016/06/amjivan-se-judi-kala_omprakash-kashyap/ आम जीवन से जुडी कला बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को ...