सोमवार, 23 अगस्त 2010

जाति का जिन्न

अमर उजाला से साभार-
गिरिराज किशोर
Story Update : Monday, August 23, 2010    9:26 PM
हम आतंकवाद की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन उसे रोक नहीं पा रहे। हम रोक भी नहीं सकते। हमारा गोशा-गोशा बंटा हुआ है, हुकूमत और राजनेताओं से भी ज्यादा। बाहरी आतंकवाद तो ताकत के बल पर रोकना शायद संभव भी हो जाए, पर आंतरिक आतंकवाद को इसके जरिये रोकना आसान नहीं। ऐसे कितने सवाल हैं, जिनका आजादी के छह दशक बाद भी कोई समाधान नहीं निकला। चाहे कश्मीर हो या भाषा का सवाल, ये सब धीरे-धीरे आतंक के पर्याय बन गए हैं। इस बीच बाबरी मसजिद का बवाल नासूर की तरह देश के सीने पर नक्श है। हाई कोर्ट दोनों फरीकों को मशवरा दे रहे हैं कि बातचीत से मसला सुलझाएं। पर संवाद की बात किसी की समझ में नहीं आती। दरअसल ईश्वर ने इस दुनिया का ताना-बाना अपनी इस सृष्टि के विकास, समृद्धि, समता, समानता और संवाद के लिए बुना था। लेकिन मनुष्य ने अहंकार और स्वार्थ के चलते आत्मकेंद्रित होकर दूसरों का शोषण करना शुरू किया। उस शोषण की जड़ें इतनी गहरी हो गईं कि उसका प्रतिकार ढूंढे नहीं मिल रहा। ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद छोटी समस्याएं भी वृहताकार बनकर जनतंत्र के लिए खतरा बन गईं?

एक ही उदाहरण काफी होगा। मिड डे मील के मामले में बच्चों के मां-बाप, अध्यापक और प्रशासन अस्पृश्यता का ऐसा जहर फैला रहे हैं, जो उन्हें बौद्धिक रूप से विकलांग बना देगा। मिड डे मिल अव्वल तो हुक्मरानों, अध्यापकों और प्रधान आदि जनप्रतिनिधियों के खाने-कमाने का धंधा बन गया। इसलिए बच्चे वह खाना या तो खा नहीं पाते या खाकर बीमार पड़ जाते हैं। हमारे बचपन में मिड डे मील के नाम पर खाने की छुट्टी में भीगे हुए चने और एक-एक फल दिए जाते थे। कभी दूध भी मिल जाता था। कभी ऐसा देखने को नहीं मिला कि चने में कंकड़ आ जाए या फल सड़ा-गला हो। दूध के मिलावटी या सिंथेटिक होने का तो खैर सवाल ही नहीं था। तब भोजन बांटने के लिए हर वर्ग के बच्चे की ड्यूटी लगती थी और हेड मास्टर खड़े होकर बंटवाते थे। गांधी जी के प्रभाव के कारण सब बांटने वाले को चुपचाप स्वीकार करते थे। लेकिन अब इसके ब्योरे हैं कि प्राइमरी स्कूलों में दलित रसोइये द्वारा तैयार मिड डे मील के खिलाफ बच्चों के अभिभावक हंगामा करते हैं। यह क्या है? कहीं यह दूसरे तरह के आतंकवाद की शुरुआत तो नहीं?

मैंने कहीं पढ़ा था कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद गोविंदवल्लभ पंत जब अल्मोड़ा गए, तो वहां उन्होंने सहभोज का आयोजन किया। उसमें सभी जातियों को आमंत्रित किया। सबके सामने खाना परोसा गया। परोसने वाले मिश्रित जातियों के लोग थे। पंत जी आदतन विलंब से पहुंचे। उनके लिए फल आदि लाए गए। पंत जी ने क्षमा याचना करते हुए कहा कि, मेरा आज व्रत है। वह फल खाने लगे। कुछ लोगों ने दबी जबान में उनकी ही बात दोहराई कि आज हमारा भी व्रत है। पंत जी ने कहा, खाओ, भरी थाली छोड़कर उठना अन्न देवता का अपमान है। गांधी जी को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह भंगी कॉलोनी में ठहरे थे, तो पंत जी उनसे मिलने गए। गांधी जी ने बस्ती के ही किसी आदमी से खाने को कुछ लाने को कहा। वह चला गया, तो बापू ने पंत जी से पूछा, आपको बस्ती के आदमी के हाथ का खाने में एतराज हो, तो कहें। पंत जी बोले, आपके सान्निध्य में रहकर इतना तो सीख ही गया हूं। वह एक रकाबी में गुड़ और चने ले आया। पंत जी ने गुड़ का टुकड़ा मुंह में डाल लिया। गांधी जी ने थोड़ी देर बाद किसी संदर्भ में कहा, हमारी अस्पृश्यता ने ही देश का बंटवारा कराया है। पंत जी समझ गए और कुछ देर बाद उठकर चले गए।

गांधी जी ने पुणे पैक्ट को जिस तरह खारिज किया था, उस पर डॉ. अंबेडकर नाराज थे। दलित समाज इस घटना के लिए बापू को सबसे बड़ा खलनायक मानता है। लेकिन इससे खुद दलित समाज के अंतर्विरोध नहीं छिप जाते। इस देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा दलित है। लेकिन जिन सवर्णों की वह आलोचना करता है, उनके दोष उसमें भी आ गए हैं। वह भी ऊंची जातियों की तरह विभाजित है। उसमें भी सवर्णों की तरह माइक्रो जातियां हैं। पहले बंटवारा सवर्ण और दलितों के बीच था। अगर ये दोनों वर्ग अपने-अपने बीच अविभाजित न होकर सुगठित रहते, तब शायद स्थिति इतनी न बिगड़ती। लेकिन ऐसा नहीं है। नतीजा यह है कि आज धर्मों से ज्यादा जातियों का घमासान है।

जातियों में भी उपजातियों का। अब तो वह गोत्रों तक आ गया है। पहले खापें हुक्का-पानी बंद कर देती थीं, जातिगत भोज कराती थीं, गांव निकाला देती थीं। पंचायतें भी अपनी सीमा में सजाएं देती थीं। लेकिन आज खाप और पंचायतें मृत्यु दंड देती हैं। भला किस अधिकार से? पंचायतों और खापों का काम अपने मुसीबतजदा भाइयों की मदद करना है या उनकी जीवन लीला समाप्त करना? अनेक किसान कर्ज के बोझ से परेशान होकर आत्महत्या कर लेते हैं। उनके साथी ग्रामवासी और नेता उन्हें मरते देखते हैं। सवाल है, ऐसे किसानों के लिए खाप और पंचायतें क्या करती हैं? जिन नौजवानों को वे सजा-ए-मौत देती हैं, उनके अच्छे कामों का क्या कभी संज्ञान लेती हैं? इस तरह के सवाल बार-बार उठते हैं। गांधी पूरे भारतीय समाज को एक करना चाहते थे। डॉ. अंबेडकर भी दलित समाज को जोड़ना चाहते थे। क्या ये लोग उनके मन जोड़ पाए? ऐसा लगता है कि इन सबके बाद समाज टूटा और बिखरा है। आंतरिक आतंकवाद परवान चढ़ा है। लोग डर-डरकर जीते हैं। डर ही सबसे बड़ा खतरा है, जो न मरने देता है, न जीने देता है।

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