शनिवार, 15 अप्रैल 2017

बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुईं बहनजी

लखनऊ। 

बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम की शिष्या मायावती बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुई हैं। बहन जी को जहां बगैर संघर्ष के 2007 में यूपी की सत्ता मिली वहीं धन की तृष्णा से वशीभूत बसपा को बहुजन से सर्वजन में बदल दिया। जिसका खामियाजा यह हुआ कि जैसे-जैसे मायावती का खजाना भरता गया वैसे-वैसे देश और प्रदेश में बसपा का जनाधार तेजी से गिरता गया। साथ ही बहजनी की दलित समाज से दूरी बढ़ती गई। भ्रष्टï व दलाल लोगों से घिरती गई। यह बातें बसपा के बागी नेता और पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम ने निष्पक्ष दिव्य संदेश के विशेष संवाददाता राजेन्द्र के.गौतम से एक विशेष साक्षात्कार में कही।
















प्रश्न:- आपका बाल, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन सफर कैसा था?
उत्तर:- मेरा जन्म 4 मई 1958 को इलाहाबाद में हुआ था, 97 वर्षीय पिता बी.दास एक रिटायर्ड शिक्षा अधिकारी हैं, माता श्रीमती दुलारी गृहणी थीं। मेरी प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूल से शुरू हुई थी। हाईस्कूल, इंटरमीडिएट, एलएलबी इलाहाबाद से किया। इसके बाद कुछ समय के लिए वकालत की। समाज सुधारक लल्लई यादव और चौधरी चुन्नी लाल (आरपीआई) की विचारधारा से प्रभावित था।  कांशीराम साहब द्वारा शुरू किए गए साप्ताहिक समाचार पत्र बहुजन संगठन से काफी प्रेरणा मिलती थी। इसी प्रेरणा के चलते वर्ष 1980 में प्रतापगढ़ के एक गांव में बाबा साहब की जयंती मनाई थी। जिसको लेकर दबंगों ने मारा-पीटा अपमानित किया।
प्रश्न:- बसपा में किन-किन पदों पर अपने दायित्व का जिम्मेदारी से निर्वाहन किया?
उत्तर:- शुरूआती दौर में 1990 में बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी ने इलाहाबाद नगर उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसके बाद जिला प्रभारी, बहुजन सुरक्षा दल जिला प्रभारी, मुख्य जोनल कोआर्डिनेटर, इलाहाबाद कमिशनरी, लखनऊ कमिश्नरी, आजमगढ़ कमिश्नरी, बनारस कमिश्नरी, बस्ती कमिश्नरी, कानपुर कमिश्नरी, झांसी एवं चित्रकूट आदि कमिश्नरी, और मुख्य कोआर्डिनेटर हुआ करता था। 12 साल एमएलसी पार्टी का दल का नेता विधान परिषद, यूपी सरकार में वित्त मंत्री, कैबिनेट कृषि, शिक्षा मंत्री, कार्यवाहक सभापति विधान परिषद उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडू, हिमाचल और बिहार प्रदेश का कोआर्डिनेटर बनाया गया था।
प्रश्न:- बसपा से मोहभंग होने का कारण?
उत्तर:-जब तक मान्यवर कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक बसपा में अम्बेडकरी मिशन रहा। 2007 से बसपा की कमान बहनजी के हाथों में आने के बाद से मिशन और नीयत में तेजी से बदलाव आया। मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के जितने भी अम्बेडकर मिशन के नेता तैयार किए थे, उनको निकाल दिया। जिससे मिशन कमजोर हुआ। बसपा सर्वजन से बहुजन में तब्दील हुई। बहुजनों के बजाए बसपा में चमचों और चापलूसों तथा कमाऊ पूतों राज हो गया। हद तक हो गई जब 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशीराम की जयंती के अवसर पर लखनऊ में मात्र 70-80 कार्यकर्ता इक्_ïा हुए। जिससे मन काफी व्यथित हुआ और बसपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
प्रश्न:- क्या आप मानते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती दलित हितैषी हैं?
उत्तर:-शुरूआती दौर में बहनजी मन से दलित हितैषी जरूर थी। जैसे-जैसे ही सत्ता का स्वाद चखा, वैसे-वैसे दलित हितों से दूर होती गई। 36 साल से बसपा की सेवा में लगा रहा। मुझे प्रतीत होता है कि दलित हितों के प्रतिकूल जितने भी फैसले हुए हैं वह सब बहनजी  के राज में हुए हैं। आपको याद होगा कि 2007 में दलित एक्ट को नाखून विहीन किया गया। दलित समाज के प्रमोशन में आरक्षण की कोर्ट में बेहतर ढंग से पैरवी नहीं की गई। जिसके कारण लाखों दलित कर्मचारियों और अधिकारियों को डिमोट होना पड़ा। यूपी में होने वाले किसी भी दलित उत्पीडऩ के मामले पर न तो कभी निंदा व्यक्त की और न ही विरोध किया। जिसके कारण दलित समाज का आज भी उत्पीडऩ हो रहा है। बहनजी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इतना घबराती है कि पार्टी और दलित समाज से कोई दूसरे लीडर को पनपने नहीं देती हैं। यही वजह है कि बसपा में मात्र एक ही नेता हैं, बाकी गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। जिनको मुंह खोलने की इजाजत नहीं है।
प्रश्न:- क्या कारण बसपा दलित उत्पीडऩ के मामलों को मुखर तौर से नहीं उठाती है और सड़कों पर संघर्ष के लिए क्यों घबराती?
उत्तर:-जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को महलों और राजसी व विलासतापूर्ण जीवन जीने की आदी हो गई हों, जिसने संघर्ष को तिलांजलि दे दी हो, दलित महापुरूषों के संघर्ष के आह्वïान से किनारा कर लिया हो। उससे आप संघर्ष की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। 2007 के बाद से बसपा पूरी तरह से सड़क के संघर्ष से दूर हो चुकी है। जब बसपा सुप्रीमो मायावती पर कोई आरोप लगते हैं, तब मजबूरन संघर्ष के लिए पार्टी को मैदान में उतरना पड़ता है। यही वजह है कि बसपा न तो दलित उत्पीडऩ के मामलों को सड़क से लेकर सदन तक उठाती है और न ही धरना-प्रदर्शन भी नहीं करती है।
प्रश्न:- बसपा सुप्रीामो मायावती का जनता और बसपा पदाधिकारियों से दूरी बनाए रखने के क्या कारण हैं?
उत्तर:-बसपा के आम कार्यकर्ता और पदाधिकारी से बहनजी न मिलने की पीछे एक मात्र कारण है कि बहनजी को विश्वास है कि दलित समाज उनका ऐसा वोट बैंक है, जो उनको छोड़कर नहीं जाएगा। यही वजह है कि बसपा के पदाधिकारी, विधायक, सांसद महीनों नहीं मिल पाते हैं। अब पार्टी में चंदा लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती से मिलवाने का चलन बढ़ गया है। अगर आपको आसानी से मिलना है तो आप पार्टी के फंड में चंदा जमा कर दें तो आसानी से मिल सकते हैं। जनता से इसलिए नहीं मिलती हैं कि न तो अपना और पार्टी का कोई विजन आम जनमानस के सामने आता है।
प्रश्न:- आखिर बसपा में मिशनरी और ईमानदार कार्यकर्ता के बजाए धन्ना सेठों को टिकट क्यों दिए जाते हैं?
उत्तर:-यह आम चर्चा है कि बसपा के टिकट बिकते हैं। इस चर्चा को कभी भी बसपा सुप्रीमो मायावती ने अस्वीकार नहीं किया। बसपा में टिकट बिकने की बीमारी 2007 से शुरू हो गई थी। 2017 तक धन संग्रह की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया। बहनजी द्वारा किए जा रहे धन संग्रह का लाभ बहुजन समाज को न मिलकर उनके भाईयों व उनके परिजनों को मिल रहा है। इसी वजह से बसपा 2017 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारी। पैसे के चक्कर में जिताऊ और टिकाऊ व मिशनरी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सुरक्षित सीटों पर खूब वसूली की गई है। इन तथ्यों को बसपा सुप्रीमो मायावती के सामने वर्ष 2012 और 2017 के विधान सभा चुनावों से पहले वास्तविक स्थिति को बताया था। जिसका बसपा को इन चुनावों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। लेकिन इस ईमानदारी की सजा तमिलनाडू और बिहार राज्य में भेजकर मिली।
प्रश्न:- राजनीतिक तौर पर बसपा के कमजोर होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:- मान्यवर कांशीराज के परिनिर्वाण के बाद से बीएसपी में जब से बहन मायावती ने पार्टी संभाली, तबसे बहन जी अपना (एजेंडा) लागू करने लगी। कांशीराम साहेब के बताए गये रास्ते से हटकर जनशक्ति को छोड़ते हुए धनशक्ति को अपनाने लगी। जिसके फलस्वरूप बसपा देश के 12 राज्यों में विधायक थे। आज सब खत्म हो गया। चार राज्यों में एमपी हुआ करते थे। सब समाप्त हो गया। कांशीराम ने बड़े संघर्ष और त्याग के कारण बसपा को राष्टï्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाया था, जो बहजनी की गलत नीतियों के कारण अब समाप्ति की ओर है।
प्रश्न:- बसपा की करारी हार के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
उत्तर:-बसपा की इस हार के लिए पूरी तरह से बहनजी जिम्मेदार हैं। ईवीएम का विरोध मात्र दलित समाज और पैसे लेकर टिकट पाने वाले प्रत्याशियों का ध्यान बांटने के लिए किया जा रहा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की शह पर कुछ चापलूस पदाधिकारियों ने टिकट बिकवाने में अहम भूमिका निभाई। जिनका खुलासा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर चारबाग स्थिति रवीन्द्रालय में आयोजित एक राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में किया जाएगा।
प्रश्न:- भविष्य की क्या योजना है?
उत्तर:-बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। मिशन सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है। अभी इसके तहत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ कर व रायशुमारी कर बसपा का विकल्प बनने के लिए एक राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी है।


-पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम

कांशीरामवाद को परास्त किया हेडगेवारवाद ने !

     
यूपी विधानसभा चुनाव की विस्मयकारी विजय के बाद नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह की रणनीति की भूरि-भूरि चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है लोग अब मोदी की तुलना इंदिरा गाँधी से करने लगे हैं.आज उनके करिश्मे से अभिभूत ढेरों लोग अभी से ही उन्हें 2019 लोकसभा चुनाव का विजेता घोषित करने लगे हैं.लेकिन भारी अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मोदी की प्रशंसा में पंचमुख राजनीति के पंडितों में कोई भी भाजपा की चौकाने वाली सफलता के पृष्ठ में हेडगेवार की चर्चा नहीं कर रहा है, जबकि ऐसा किया जाना जरुरी था. कारण, भाजपा की वर्तमान सफलता मोदी – शाह से बढ़कर हेडगेवारवाद की विजय है. कैसे! इसे जानने के 1925 के दिनों के पन्ने पलटने पड़ेंगे.



1925 के पूर्व दिनों में हालात बड़ी तेजी से ब्राह्मणों के विरुद्ध होने लगे थे.उन दिनों अग्रणीय ब्राह्मण विद्वान लोकमान्य तिलक के नेतृत्व  में ब्राह्मणों को विदेशी प्रमाणित करने की होड़ तुंग पर पहुँच चुकी थी.1922 में सिन्धु-सभ्यता के सत्यान्वेषण ने भारत में प्राचीनतम विदेशागत लोगों के आगमन की पुष्टि कर दी थी. उधर सिन्धु सभ्यता के सत्यान्वेषण और ज्योतिबा फुले के आर्य –अनार्य सिद्धांत से प्रेरित ई.व्ही.रामास्वामी नायकर पेरियार दक्षिण भारत में आर्य-द्रविड़ सिद्धांत का प्रचार कर ब्राह्मण सत्ता के विनाश की आधारशिला तैयार करना शुरू कर चुके थे.इस दौरान ब्रिटेन में 30 वर्ष से ऊपर की महिलाओं के मताधिकार का कानून पास हो चुका था.इन सारे हालातों पर किसी की सजग दृष्टि थी तो बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’,जिसमें शुद्रातिशूद्रों का प्रवेश पूरी तरह निषिद्ध था, के पूर्व सदस्य डॉ.हेडगेवार की. उन्हें यह अनुमान लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि अग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में भी संसदीय प्रणाली लागू होगी,जिसमें विशिष्टजन ही नहीं ,भूखे-अधनंगे दलित-पिछड़ों को भी वोट देने, अपना प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा .वोटाधिकार मिलने पर दलित-आदिवासी और पिछड़े और चाहें जो कुछ भी करें,अंततः तिलक-नेहरु इत्यादि द्वारा विदेशी प्रमाणित किये गए ब्राह्मणों को वोट तो नहीं ही देंगे.इसी चिंता से ही, जिन दिनों देश के दूसरे नेता आजादी की जंग लड़ रहे थे,उन्होंने आजाद भारत के ब्राह्मणों के हित में मुस्लिम-विद्वेष और हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष के प्रचार-प्रसार के जरिये विशाल हिन्दू समाज बनाने में खुद को निमग्न किया. उन्होंने अपनी प्रखर मनीषा से यह जान लिया था कि जो दलित-पिछड़े हिन्दू-धर्म के अनुपालन के नाम पर सदियों से पशुवत जिंदगी जीते रहे हैं,उन्हें जब मुस्लिम विद्वेष और हिन्दू-धर्म के नाम पर उद्वेलित किया जायेगा, वे आसानी से हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत हो जायेंगे. और जब असंख्य जातियों में बंटे लोग हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत होंगे ,नेतृत्व स्वतः ही ब्राहमणों के हाथ में चला जायेगा. इसी सोच के तहत उन्होंने विशाल हिन्दू समाज बनाने के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी.डॉ.हेडगेवार से यह गुरुमंत्र पा कर संघ अरसे से चुपचाप काम करता रहा.किन्तु मंडल रिपोर्ट के बाद जब दलित-पिछड़ों के हाथ में सत्ता के जाने के आसार दिखा,संघ ने अपने तीन दर्जन आनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर राम जन्मभूमि मुक्ति के नाम पर आजाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया.इस आन्दोलन में संघ परिवार ने बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया. परिणाम सबको मालूम है.इस आन्दोलन को दूर से निहारते रहने वाले ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दू-ध्रुवीकरण की नैया पर सवार होकर केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए. राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन की सफलता के बाद संघ परिवार चुनाव दर चुनाव विकास की आड़ में प्रधानतः हिन्दू ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता दखल की मंजिलें तय  करता गया .बहरहाल संघ संस्थापक की दूरगामी परिकल्पना को किसी ने समझा तो वह थे कांशीराम.

कांशीराम ने जब सार्वजानिक जीवन में प्रवेश कर भारत के अतीत ,वर्तमान और भविष्य का अध्ययन किया तो उन्हें विशाल ‘हिन्दू समाज’ के विपरीत ‘बहुजन समाज’ बनाने से भिन्न कोई उपाय नजर नहीं आया.उन्होंने डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से यह जान लिया कि अगर हिन्दू धर्म-संकृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत के जरिये वंचित जातियों को हिन्दू के नाम पर गोलबंद कर नेतृत्व यदि ब्राह्मण व सवर्णों के हाथ में थमाया जा सकता है तो हिन्दू –धर्म –संस्कृति के अंधकार पक्ष अर्थात वर्ण व्यवस्था की वंचना और व्यवस्था के लाभान्वित वर्ग के खिलाफ वंचितों को आक्रोशित कर विशाल बहुजन समाज बनाया जा सकता है. ऐसा होने पर सत्ता की बागडोर अवश्य ही दलित-आदिवासी –पिछडों या इनसे धर्मान्तरित लोगों के हाथ में थमाई जा सकती है.हालांकि कांशीराम ने यह कभी कबूल नहीं किया कि उन्होंने हेडगेवार का अनुसरण किया है,लेकिन उनकी कार्य प्रणाली में उसकी झलक मिलती है.चूंकि कार्य प्रणाली एक होने के बावजूद ‘विशाल हिन्दू-समाज ‘और ‘बहुजन समाज ‘दो विपरीत ध्रुव हैं,इसलिए उनका उल्टा फार्मूला ही एक दूसरे के खिलाफ रास आता है.यही कारण है कि भारतीय समाज का लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद जब कांशीराम ने 6 दिसंबर 1978 को बामसेफ (आल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनरिटीज इम्प्लायज फेडरेशन) नामक अपंजीकृत,गैर-धार्मिक,गैर-आन्दोलानात्मक और गैर-राजनीतिक संगठन बनाया तो हेडगेवार जिस आर्य-अनार्य सिद्धांत से अपने समाज को बचाना चाहते थे, उसको प्रधानता देने से वे खुद को रोक नहीं पाए .हाँ!डॉ.हेडगेवार और कांशीराम ने अपने-अपने सपनों के भारत निर्माण के जो वैचारिक संगठन तैयार किया उनमें एक ही साम्यता रही कि दोनों ही घोषित तौर पर अराजनैतिक संगठन रहे,पर मूल मकसद राजनीतिक रहा. इस मकसद को हासिल करने के लिए संघ जहां वंचितों की धार्मिक चेतना के राजनीतीकरण पर सक्रिय रहा,वहीँ बामसेफ वर्ण-व्यवस्था के वंचितों की जाति चेतना पर. संघ जहां अल्पसंख्यकों,विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ नफरत को हथियार बनाया,वहीँ बामसेफ शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक –धार्मिक-शैक्षिक )पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाये सवर्णों,विशेषकर ब्राह्मणों के खिलाफ बहुजनों को संगठित करने का हर मुमकिन प्रयास किया.हां ,बामसेफ ने भी संघ की तर्ज पर जागृति जत्था,बामसेफ सहकारिता,समाचार पत्र एवं प्रकाशन,संसदीय संपर्क शाखा,विधिक सहयोग एवं सलाह,विद्यार्थी,युवक,महिलाएं,औद्योगिक श्रमिक ,खेतिहर श्रमिक इत्यादि जैसे कई विंग स्थापित किये .इनके जरिये ही कांशीराम ने योजनाबद्ध तरीके से पहले दलितों की जाति चेतना का राजनीतिकरण किया जो धीरे-धीरे पिछड़ों और अल्पसंख्यकों तक में प्रसारित हो गयी. इसके फलस्वरूप मंडल उत्तर काल में सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील होने के लिए बाध्य हुए.यह कांशीराम की जाति चेतना की रणनीति का ही कमाल था कि तमाम राजनीतिक दल,जिनमें संघ का राजनीतिक संगठन भाजपा भी है,नेतृत्व गैर-ब्राह्मणों,विशेषकर पिछड़ों के हाथ में देने के लिए बाध्य हुए.

  बहरहाल सवर्णवादी दलों की लाचारी दीर्घ स्थाई न हो सकी.कारण, जाति चेतना के चलते क्षत्रप बने बहुजन समाज के नेता 2009 आते-आते अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सवर्णपरस्ती की राह पकड़ लिए.अब उनमें सवर्णों के खिलाफ बहुजनों को ध्रुवीकृत करने का जज्बा ही नहीं रहा.इस कारण बहुजन नेतृत्व ‘भूरा बाल..’तिलक तराजू..इत्यादि जैसे उन नारों से तौबा कर लिया,जो बहुजनों की जाति चेतना के राजनीतिकरण में प्रभावी रोल अदा किया करते थे. किन्तु घोषित तौर पर विकास की बात करनेवाले संघवादी डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से कभी डिगे नहीं.इसलिए उनका धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण से कभी विचलन नहीं हुआ.यही कारण है 2014 से हेडगेवारपंथी हिंदी पट्टी की राजनीति में नए सिरे से छाते चले गए.बहुजनों के सौभाग्य से अरसे बाद लालू प्रसाद यादव ने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में जाति चेतना के राजनीतिकरण का रिस्क लिया और रास्ता दिखाया कि जाति चेतना के जरिये साधू-संतों और लेखकों तथा मीडिया और धनपतियों के प्रबल समर्थन से पुष्ट करिश्माई मोदी को शिकस्त दी जा सकती है.

 लालू यादव ने जिस तरह अपने प्रबल प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार से गंठजोड़ कर मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान को पकड़कर जाति चेतना की राजनीति को तुंग पर पहुँचाया,वैसे हालात यूपी में बने थे .किन्तु बहुजन हित की बजाय अपने मान-अभिमान को प्राथमिकता देने वाले मायावती और अखिलेश यादव ने शक्तिशाली भाजपा के खिलाफ गंठबंधन से तौबा किया ही,मोहन भागवत की भांति ही संघ के मनमोहन वैद्य ने आरक्षण पर बयान देकर जो अवसर स्वर्णिम अवसर सुलभ कराया, उसका सद्व्यहार करने कोई रूचि नहीं लिया.खासतौर से संघ के मनमोहन वैद्य के बाद सपा की अपर्णा यादव के आरक्षण विरोधी बयान ने मायावती के समक्ष तो दोहरा अवसर सुलभ करा दिया था.किन्तु वह इसका सद्व्यहार करने आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ी,जिसका परिणाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया.बहरहाल यूपी में भाजपा की हैरतंगेज विजय के बाद लगता है कि हेडगेवारवाद ने कांशीरामवाद पर निर्णायक विजय हासिल कर ली है. लेकिन ऐसा नहीं है.यदि सामाजिक न्यायवादी दल संगठित होकर इमानदारी से दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मातरित तबकों के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों सहित सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-मीडिया, ज्ञान-उद्योग और पौरोहित्य इत्यादि तमाम क्षेत्रों में संख्यानुपात में भागीदारी की मांग उठायें तो इससे जाति चेतना का वह सैलाब उठेगा जिसके सामने धार्मिक चेतना पर निर्भर राजनीति तिनके की भांति बह जाएगी.पर लाख टके का सवाल है कि बहुजन नेतृत्त्व क्या कांशीरामवाद को नए सिरे से धार देने की दिशा में आगे बढ़ेगा !








-एच एल दुसाध 
March 25, 2017



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कांशीराम जहाँ छोड़ गए,मायावती वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाईं !
मित्रों,एक लेख लिखने के लिए अभी-अभी 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ,’सामाजिक न्याय की राजनीति की हार’ के पन्ने उलट रहा था.अचानक इसके पृष्ठ 161 पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ,जिस पर 16 जून ,2009 को जनसता में प्रकाशित अरुण कुमार पानीबाबा का ‘मायावती का चरित्र और व्यक्तित्व शीर्षक से लेख संकलित है.पानीबाबा ने लिखा है-:
‘मायावती का व्यक्तित्व और चरित्र मूलतः अराजनीतिक है.बरसों-बरस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मायावती को राजनीतिज्ञ स्तर के व्यक्ति को झेलने का अभ्यास नहीं है,और यह सीख पाना संभव नहीं है.इसलिए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मायावती को कांशीराम जहां पहुंचा कर गए थे.उससे एक इंच भी आगे वे नहीं बढ़ सकतीं.’
इसका मतलब यह हुआ कि 2009 में ही राजनीतिक विश्लेषकों ने बहन जी को उनकी सीमाबद्धता का अहसास करा दिया था,किन्तु उन्होंने उससे कोई सबक नहीं लिया और चुनाव दर चुनाव उस ‘बसपा’ के पतन की स्क्रिप्ट लिखती गयीं,जिस बसपा को दुनिया भर के समाज परिवर्तनकामी बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे.

शनिवार, 11 मार्च 2017

दलित राजनीति उलटी दिशा में बढ़ चली है

-- प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू


 प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू


(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर रहे तुलसीराम का इसी साल फरवरी में निधन हो गया. जीवन के अंतिम छह-सात साल उन्होंने असाध्य पीड़ा में गुजारे. हर हफ्ते उनका दो बार डायलिसिस होता था. पीड़ा के इस दौर में ही उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ लिखी. जीवन के आखिरी दिनों में स्वतंत्र मिश्र ने उनसे आंबेडकर की राजनीति और दर्शन के आईने में दलित राजनीति पर बातचीत की)

देश में दलितों की स्थिति में क्या कोई सुधार आया है?
दलितों से छुआछूत का मामला हो या मंदिर में प्रवेश को लेकर टकराहट या उनसे व्यभिचार की घटनाएं- लगभग हर रोज देश के किसी न किसी कोने से देखने-सुनने को मिल जाती हैं. मंदिर में प्रवेश के मसले पर दलितों की हत्या तक कर दी जाती है. थोड़ी पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार के आने के बाद बरेली के पास ही एक गांव में मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया था. अखबार और टेलीविजन चैनलों ने इस घटना को छापा-दिखाया. पुजारी मंदिर में ताला लगाकर गांव छोड़कर भाग गया लेकिन पुलिस प्रशासन और सरकारी तंत्र में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी.
देश में इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए बहुत सख्त कानून मौजूद हैं. ‘दलित एक्ट’ के तहत सजा के कठोर प्रावधान किए गए हैं. दलित उत्पीड़न के संदर्भ में उन्हें उचित ढंग से लागू किया जाए तो उसके भय से ही बहुत हद तक ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा. दलित, सवर्णों के रास्ते से गुजर कर न जाएं इसलिए महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कई जगहों पर बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गईं. अफ्रीका में ‘रंगभेद’ की बातें जब थीं तब वहां काले लोगों के लिए चलने के लिए सड़कों पर अलग लेन होती थीं. उनके लिए दुकानें अलग होती थीं. वे गोरों की दुकानों से अपनी जरूरत का समान नहीं खरीद सकते थे. वे रेलगाडि़यों के सामान्य डिब्बों में यात्रा नहीं कर सकते थे. उनके लिए ट्रेनों में अलग डिब्बे होते थे. पर भारत में यह सब तो आज भी घट रहा है. ‘रंगभेद’ व्यवस्था के खिलाफ पूरी दुनिया एक हो गई थी. भारत भी ‘रंगभेद’ के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था. उस जमाने में अफ्रीका के लिए ‘वीजा’ नहीं मिलता था. मुझे याद है कि उन दिनों मुझे भारत सरकार ने 1980 के आसपास किसी साल में पासपोर्ट जारी किया तो उसपर साफ-साफ लिखा था कि आप दो देशों (अफ्रीका और इजरायल) की यात्रा नहीं कर सकते थे. लेकिन यह सोचकर भी शर्म आती है कि आज 21वीं सदी के भारत में भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं! ‘रंगभेद’ के खिलाफ जो माहौल पूरी दुनिया में बना वैसा भारत में ‘जाति-व्यवस्था’ के खिलाफ कभी बन नहीं पाया. ‘रंगभेद’ की जो विशेषताएं थीं, वे सब इस जाति व्यवस्था में पाई जाती हैं. यहां जाति-व्यवस्था के बने रहने की मूल वजह ‘हिन्दू धर्म’ है. धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
मतलब आप यह कहना चाह रहे हैं कि जाति-व्यवस्था या दलित उत्पीड़न को खत्म करने के प्रयास अपने देश में ईमानदारी से नहीं हुए?
मैं आपको थोड़ा पीछे स्वतंत्रता संग्राम में ले जाना चाहूंगा. 1929-30 के आसपास गांधी जी की बाबा साहब अांबेडकर की पहली मुलाकात हुई थी तब उन्होंने आंबेडकर से कहा कि मैंने देश की आजादी का आंदोलन छेड़ रखा है. अांबेडकर ने बहुत दिलचस्प जवाब दिया, ‘मैं सारे देश की आजादी की लड़ाई के साथ उन एक चौथाई जनता के लिए भी लड़ना चाहता हूं जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. आजादी की लड़ाई में सारा देश एक है और मैं जो लड़ाई लड़ रहा हूं, वह सारे देश के खिलाफ है. मेरी लड़ाई बहुत कठिन है.’ औपनिवेशिक सत्ता (अंग्रेजों) के खिलाफ तो सारा देश खड़ा था इसलिए उनका जाना तय था लेकिन देश के लोग अपने ही लोगों के साथ जो भेदभाव बरत रहे हैं तो मेरी लड़ाई तो उनसे भी है. दलितों, पिछड़ों को न तो जमीन रखने का अधिकार था, न ही उन्हें शिक्षा पाने का अधिकार था. वे सदियों से जमींदारों और सामंतों के खेतों और कारखानों में मजदूरी करते चले आ रहे थे. हिंदू धर्म, वर्ण व्यवस्था और जातिगत व्यवस्था की खुलकर वकालत करते हैं. डॉ. अांबेडकर ने सोचा कि यहां जातिगत व्यवस्था का मूल आधार धार्मिक व्यवस्था से ही लड़ना पड़ेगा. संकेत के तौर पर 1927 में डॉ. अांबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को जलाया. यह यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस हिंदू धर्म-ग्रंथ में शूद्रों के बारे में क्या-क्या लिखा गया है. मनुस्मृति के जलाए जाने से हिंदू घबरा उठे.
धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
एक उदाहरण और देना चाहूंगा. अपने देश में दलितों को कुएं और तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता था. महाराष्ट्र में इस भेदभाव से लड़ने के लिए बाबा साहब ने ‘महाड़’ आंदोलन चलाया. जलगांव में एक तालाब के किनारे लाखों की संख्या में दलित जुटे और उन्होंने प्रकृति के पानी पर अपना हक जताया था. बाद में कोंकणी ब्राह्मणों ने उस तालाब के शुद्धिकरण के लिए मंत्रोच्चारण और पूजा-पाठ आयोजित करवाया. इसके विरोध में अांबेडकर ने 12 दलितों का चयन किया और कहा कि तुम इस्लाम स्वीकार कर लो. देश में सनसनी फैल गई. तत्काल ब्राह्मणों ने दलितों के लिए गांव के दो कुएं पानी लेने के लिए खोल दिए. ब्राह्मणों ने इस दबाव में कुएं का पानी लेने की आजादी दलितों को दे दी क्योंकि उन्हें लगा कि उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा. अांबेडकर ने पूना-पैक्ट के समय यह बयान दिया कि वे बौद्ध धर्म अपना लेंगे तो तुरंत पैक्ट पर समझौता हो गया. पूना पैक्ट की वजह से दलितों का बहुत लाभ हुआ. उनका सबलीकरण इस पैक्ट की वजह से ही संभव हो पाया. इसी पैक्ट की वजह से दलितों को आरक्षण आधा-अधूरा ही सही मिल पाया. इसी पैक्ट के नतीजे के चलते दलित समुदाय के लोग मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बन पाए. इसी पैक्ट की वजह से लाखों की संख्या में दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले. इस बारे में प्रसिद्ध कहानीकार चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का एक लेख है ‘कछुआ धर्म’. वे पंडित थे. हर रोज पूजा-अर्चना करते थे. टीका लगाते थे. उन्होंने अपने लेख में  हिंदू धर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की थी. उन्होंने लिखा है, ‘हिंदू धर्म को जब अपने ऊपर खतरा नजर आता है तब वह कछुए की तरह अपनी गर्दन और मुंह अंदर समेट कर मृत के समान निष्क्रिय होने का प्रदर्शन करता है लेकिन जब कोई संकट नहीं दिखता है तब वह गर्दन उठाकर आक्रामक मुद्रा में ऐसे चलता है मानो पूरी दुनिया जीतने निकला हो.’
प्राचीन काल से एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा. गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षा और उपदेशों के बल पर जाति-व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा लिया और धर्म-परिवर्तन किया.  बड़ी संख्या में ब्राह्मण ही बौद्धभिक्षु बने. कई राजाओं ने भिक्षुओं के खिलाफ अभियान चलाया. पुष्यमित्र आदि राजाओं ने छोटे-मोटे अभियान चलाए. सबसे जोरदार अभियान बौद्ध-धर्म के खिलाफ 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य के समर्थकों ने चलाए. शंकराचार्य और उसके समर्थकों को हिंदू राजाओं का समर्थन था, उन्हें किसी का डर नहीं था तो वे बौद्ध मठों को तोड़ने और भिक्षुओं पर हमले करने लगे. दरअसल, बुद्ध वर्ण व्यवस्था पर चोट कर रहे थे. वे मानव-मानव के बीच वर्ण के आधार पर भेद करने की बात को झुठला रहे थे. वर्ण व्यवस्था की रक्षा और शंकराचार्य का समर्थन पाकर तीसरी सदी में व्यापक स्तर पर हिंदू धर्म-ग्रंथ रचे गए. उससे पूर्व सिर्फ वेदों की रचनाएं ही हुई थीं, जिनका जिक्र बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है. बौद्ध-ग्रंथों में रामायण और महाभारत की चर्चा नहीं मिलती है. बुद्ध के आसपास ही चार्वाक भी हुए जिन्होंने तीन वेद होने की ही बात की है. मतलब साफ है कि सिर्फ तीन वेद ही बुद्ध-चार्वाक के समय तक रचे गए थे. आप गौर करें तो पाएंगे, शंकराचार्य के बाद जिस भी धर्म ग्रंथ की रचना की गई, उनमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया है.
आप पूना पैक्ट के जरिए दलितों के जीवन में बदलाव आने की बात कर रहे हैं, लेकिन अक्सर यह सुनने को मिलता है किसी भी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में आपका जबाव चाहूंगा?
हां, सरकारों द्वारा दलितों के विकास के लिए उठाए गए कदम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते हैं लेकिन यह कहना कि दलितों के लिए किसी भी सरकार ने कुछ नहीं किया है, एक उग्रवादी किस्म की सोच है. उत्तर प्रदेश हिंदुत्ववादियों का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बहुत सारी धार्मिक नदियां उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं इसलिए इस प्रदेश का सबसे ज्यादा सांप्रदायीकरण हुआ है. गंगा का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में है. कुंभ का आयोजन इलाहाबाद में होता है. ज्योतिर्लिंग बनारस में है. मेरे कहने का मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदुत्व को उर्वर भूमि प्रदान करने का काम करती रही है. यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी घटित होता है तो उसका असर दूसरे राज्यों पर जरूर पड़ता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में जाति-व्यवस्था को कमजोर कर दिया जाए तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.
मायावती या कोई दलित हजार बार भी मुख्यमंत्री बन जाए, उससे दलितों के जीवन में परिवर्तन नहीं आनेवाला. परिवर्तन सामाजिक आंदोलन के दबाव के फलस्वरूप ही आ पाएगा
कांशीराम -मायावती का आंदोलन और खासकर मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता में आसीन होने का असर दलितों की जिंदगी बदलने में कितना हो पाया है?
जाति-व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाए गए थे. वह बुद्ध, ज्योतिबा फुले से लेकर आंबेडकर तक चलता चला आ रहा है. आंबेडकर के बाद जो भी दलित आंदोलन हुए उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि सभी दलित नेतृत्व अपनी-अपनी अलग-अलग डफली पीटते चले गए. खुद आंबेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिकन पार्टी भी बाद के दिनों में चार भागों में बंट गई. उसका एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना और बाद में भाजपा में शामिल हो चुका है. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए. एक भाग में योगेंद्र कबाड़े थे, वे अब भाजपा में हैं. रिपब्लिकन पार्टी के एक भाग के नेता आरएस गंवई थे जो कांग्रेस में शामिल हो गए. कुछ दिनों तक वे केरल के राज्यपाल भी रहे. आंबेडकर के बाद उनकी पार्टी विखंडित हुई और उसका अधिकांश हिस्सा दक्षिणपंथी पार्टियों में शामिल होता चला गया. निश्चित तौर पर इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर हुई. दलित राजनीति में निर्वात-सा बन गया. उसका फायदा निश्चित तौर पर कांशीराम को मिला.
कांशीराम ने शुरू में यह तय किया कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक तौर पर चेतना संपन्न किया जाए. 1960-80 तक उन्होंने चुनाव लड़ने की बात नहीं की थी. इस दलित राजनीति का मूलाधार बामसेफ पार्टी रही. कांशीराम ने सामाजिक जागृति के लिए बहुत मेहनत की. वे गली-गली साइकिल पर घूमते थे. उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का असर बहुत पड़ा. उन्होंने दलितों को अपने आंदोलन से बड़ी संख्या में जोड़ा. दलितों को संगठित करने के बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की बात की जिसके चलते बामसेफ भी कई भागों में बंट गया. कांशीराम से अलग हुए दूसरे दल सामाजिक जागृति फलाने की बात पर जोर देने की बात कर रहे थे. आंबेडकर ने सामाजिक बदलाव कोई मंत्री पद पर रहते हुए नहीं किया था. सामाजिक आंदोलनों के जरिए जो परिवर्तन समाज में आता है, वह स्थायी भाववाला होता है.
मतलब आप यह कह रहे हैं कि सामाजिक परिवर्तन की बात मायावती तक आते-आते पीछे छूट गई?
सामाजिक परिवर्तन पीछे ही नहीं छूटा बल्कि उलटी दिशा में चल पड़ा. कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी और राजनीति में पूरी तरह उतर गए. सामाजिक आंदोलन से जो दबाव समाज में बनता था, वह दबाव बनना खत्म हो गया और जिसके चलते दलित उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ, इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने  साफ-साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए. राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं.
क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि कांशीराम और मायावती द्वारा सामाजिक आंदोलन को अचानक बंद करके राजनीति शुरू कर देने से समाज में बदलाव की दिशा में निर्वात की स्थिति बन गई?
जी हां, बहुत बड़ा निर्वात बन गया और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आज दलितों की स्थिति कई गुणा ज्यादा बेहतर होती. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि दलितों को राजनीति में नहीं आना चाहिए. मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सामाजिक आंदोलन से मानस में बदलाव आता है और इसका असर दलित ही नहीं बल्कि गैर-दलितों पर भी देखा जा सकता है. कांशीराम के राजनीति में आने के फैसले से दलितों की सामाजिक स्थिति में जो सुधार दर्ज किया जा रहा था,  वह उलटी दिशा में चल पड़ा.
क्या इस परिस्थिति से जो सामाजिक दबाव बनने लगा था वह अब नहीं बन पा रहा है. क्या इसकी वजह से भी दलितों के उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है?
देखिए, कांशीराम-मायावती ने जब तक सामाजिक आंदोलन छेड़े रखा था तब तक हर राजनीतिक पार्टी इस दबाव में काम करती थी कि बिना दलित को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. लेकिन मायावती के राजनीति में आते ही ब्राह्मण सत्ता के केंद्र में आ गए. ब्राह्मणों के बारे में यह गुणगान होने लगा कि वे हाशिये पर चले गए हैं. उनकी स्थिति खराब हो गई है. मैं यहां किसी खास व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. ब्राह्मण का मतलब व्यवस्था से मानता हूं. कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे. ब्रह्मा, विष्णु और महेश के खिलाफ अांबेडकर पूरा जीवन लड़ते रहे. कांशीराम और मायावती ने इसे उलट दिया.
कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद एक और खतरनाक कदम उठाया था. उन्होंने कहा कि अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो और इसी से कल्याण होगा. इसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे. लेकिन कांशीराम और मायावती भूल गए कि जातियों के मजबूत होने से जाति-व्यवस्था कैसे टूटेगी? इससे हरेक जाति का गौरव भड़क उठा और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जोरदार झटका लगा. राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा. जातियों के नाम पर अलग-अलग जाति के गुंडे ध्रुवीकरण की वजह से जीतकर नगरपालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में पहुंचने लगे. आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है. इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल-फूल रही हैं. अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं. कांशीराम-मायावती ने सभी जातियों के लोगों से मंत्री पद देने का वायदा किया. सत्ता में आने के बाद मायावती ने ऐसा किया भी लेकिन सभी सुख-सुविधा पाने के बाद भी उन जातियों के लोगों ने पांच साल के भीतर ही इन्हें लात मारकर किनारा कर लिया. मतलब यह है कि आप जाति-व्यवस्था खत्म करने की लड़ाई को मजबूत नहीं करेंगे और जातियों को मजबूत करने की बात करेंगे तो इससे दलित विरोधी शक्तियां ही मजबूत होंगी. बसपा के शासनकाल में तमाम जातियां दलित विरोधी शक्तियों के रूप में खड़ी हो गईं.
कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश है’ के नारे लगाने लगे.
यह अक्सर आरोप लगाया जाता है कि दलित चिंतक, दलित नेतृत्व ही दलित महिलाओं की उपेक्षा करते हैं.वे ही उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते हैं.
जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बाबा साहेब ने अपने आंदोलन के जरिए यह कोशिश की थी कि दलित महिलाएं आगे आएं. वे दलित महिलाओं के साथ हिंदू महिलाओं को भी आगे लाने की बात कर रहे थे. इसलिए 1951 में वह हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू कोड बिल, सवर्ण महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने और दहेज प्रथा आदि जैसी कुरीतियों के खिलाफ लाया गया. लेकिन उस समय बनारस, इलाहाबाद और देश के दूसरे हिस्सों के साधू-संन्यासी गोलबंद होकर बिल के विरोध में उठ खड़े हो गए. बिल को स्वीकृति नहीं मिल पाई. दलित पुरुष नेता तो कई उभरे लेकिन महिला नेतृत्व नहीं उभर पाया. बाबा साहब की मृत्यु आजादी के चंद वर्षों बाद ही हो गई. उसके बाद जगजीवन राम आए तो उन्होंने भी दलित महिलाओं को नेतृत्व दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार राजनीति में आईं जरूर लेकिन उन्हें यह विरासत में मिली. उन्हें राजनीति संघर्ष के रास्ते से नहीं मिली है. रिपब्लिकन पार्टी के चारों धड़े जिसका मैंने पहले जिक्र किया उसमें से कोई महिला नेतृत्व सामने नहीं आया. मायावती ने तो हद ही कर दी. उसके नेतृत्व में कोई दलित पुरुष तो छोडि़ए, कोई दलित महिला भी आगे नहीं आ पाई. दलित राजनीति में मायावती को छोड़कर कोई दूसरी महिला नजर नहीं आती हैं. मायावती खुद चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन किसी दूसरी दलित महिला को उन्होंने आगे नहीं आने दिया. मायावती की सामंती सोच देखिए कि उन्होंने पांच-छह वर्ष पहले अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की बात की थी. उन्होंने यह भी कहा था, ‘मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम एक लिफाफे में बंद करके जाऊंगी. मेरे मरने के बाद लिफाफा खोला जाएगा.’ मैं इस बात का जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि आनेवाली पीढ़ी दलित राजनीति में महिलाओं की स्थिति को समझ सके और उसे दुरुस्त करने की कवायद में लगे. दलित राजनीति में सफल पुरुष ने अपनी पत्नी को गृहणी बनाकर रखना पसंद किया. यह स्त्रीविरोधी मानसिकता है और यह भी उसी धर्म व्यवस्था की देन है. इसकी शिकार दूसरी पार्टियां भी रही हैं. महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का मामला दसियों साल से लटका पड़ा है. स्त्री विरोधी मानसिकता को मीडिया और सिनेमा भी बढ़ावा दे रहे हैं. पतियों की पूजा कीजिए और यह इच्छा कीजिए कि वह आपको बराबरी का दर्जा देगा, परस्पर विरोधी बातें हैं. कर्मकांडी व्यवस्था को खत्म किए बगैर स्त्रियों का कभी भी भला नहीं हो सकता है.
साभार: तहलका हिंदी

क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है?

क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है ?

-एस. आर. दारापुरी, 
राष्ट्रीय प्रवक्ता, 
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

पिछले लोक सभा चुनाव के परिणामों पर मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था  कि उन की हार के पीछे मुख्य कारण गुमराह हुए ब्राह्मण, पिछड़े और मुसलमान समाज द्वारा वोट न देना है जिस के लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. इस प्रकार मायावती ने स्पष्ट तौर पर मान लिया था कि उस का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया है. मायावती ने यह भी कहा था कि उस की हार के लिए उसका यूपीए को समर्थन देना भी था. उस ने आगे यह भी कहा था कि कांग्रेस और सपा ने उस के मुस्लिम और पिछड़े वोटरों को यह कह कर गुमराह कर दिया था कि दलित वोट भाजपा की तरफ जा रहा है. परन्तु इस के साथ ही उस ने यह दावा किया था कि उत्तर प्रदेश में उसकी पार्टी को कोई भी सीट न मिलने के बावजूद उस का दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं गिरा है. इसके विपरीत उसने अपने वोट बैंक में इजाफा होने का दावा भी किया था.
आइये उस के इस दावे की सत्यता की जांच उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर करें:-
यदि बसपा के 2007 से लेकर अब तक चुनाव परिणामों को देखा जाये तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि जब से मायावती ने बहुजन की राजनीति के स्थान पर सर्वजन की राजनीति शुरू की है तब से बसपा का दलित जनाधार बराबर घट रहा है. 2007 के असेंबली चुनाव में बसपा को 30.46%, 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.42% (-3.02%), 2012 के असेंबली चुनाव में 25.90% (-1.52%) तथा 2014 के लोक सभा चुनाव में 19.60% (-6.3%) वोट मिला था. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के स्थिर रहने का दावा उपलब्ध आंकड़ों पर सही नहीं उतरता है.
मायावती का यह दावा कि उस का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक 2009 में 1.51 करोड़ से बढ़ कर 2014 में 1.60 करोड़ हो गया है भी सही नहीं है क्योंकि इस चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में बढ़े 1.61 करोड़ नए मतदाताओं में से बसपा के हिस्से में केवल 9 लाख मतदाता ही आये थे. राष्ट्रीय चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भी बसपा का वोट बैंक 2009 के 6.17 % से 2% से अधिक गिरावट के कारण घट कर 4.1% रह गया था. सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के निदेशक संजय कुमार ने भी बसपा के कोर दलित वोट बैंक में सेंध लगने की बात कही थी.
मायावती का कुछ दलितों द्वारा गुमराह हो कर भाजपा तथा अन्य पार्टियों को वोट देने का आरोप भी बेबुनियाद है. मायावती यह अच्छी तरह से जानती हैं कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा चमारों सहित 2012 के असेंबली चुनाव में ही उस से अलग हो गया था. इसका मुख्य कारण शायद यह था कि मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुण्डों. माफियों और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जो कि उनके वर्ग शत्रु हैं. इस से नाराज़ हो कर चमारों/जाटवों का एक हिस्सा और अन्य दलित उपजातियां बसपा से अलग हो गयी हैं.. मायावती का बोली लगा कर टिकट बेचना और दलित वोटों को भेड़ बकरियों की मानिंद किसी के भी हाथों बेच देना और इस वोट बैंक को किसी को भी हस्तांतरित कर देने का दावा करना दलितों को एक समय के बाद रास नहीं आया. इसी लिए पिछले असेंबली चुनाव और  लोक सभा चुनाव में दलितों ने उसे उसकी हैसियत बता दी थी.
किसी भी दलित विकास के एजंडे के अभाव में दलितों को मायावती की केवल कुर्सी की राजनीति भी पसंद नहीं आई है क्योंकि इस से मायावती के चार बार मुख्य मंत्री बनने के बावजूद भी दलितों की माली हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित बिहार. उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलितों को छोड़ कर विकास के सभी मापदंडों जैसे: पुरुष/महिला शिक्षा दर, पुरुष/महिला तथा 0-6 वर्ष के बच्चों के लैंगिक अनुपात और नियमित नौकरी पेशे आदि में हिस्सेदारी में सब से पिछड़े हैं. मायावती के व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण दलितों को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल सका. दूसरी तरफ बसपा पार्टी के पदाधिकारियों की दिन दुगनी और रात चौगनी खुशहाली से भी दलित नाराज़ हुए हैं जिस का इज़हार उन्होंने लोकसभा चुनाव में खुल कर किया था. यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की 40 सीटें ऐसी हैं जहाँ दलितों की आबादी 25% से भी अधिक है. 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा 17 सुरक्षित सीटों पर नंबर दो पर थी जो कि 2014 में  कम हो कर 11 रह गयी थी. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के बरकरार रहने का दावा तथ्यों के विपरीत है.
मायावती ने 2012 के असेंबली चुनाव में भी मुसलामानों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उसे वोट नहीं दिया. पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने इस आरोप को न केवल दोहराया था बल्कि बाद में उनके पछताने की बात भी कही थी. मायावती यह भूल जाती हैं कि मुसलामानों को दूर करने के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार हैं. 1993 के चुनाव में मुसलामानों ने जिस उम्मीद के साथ उसे वोट दिया था मायावती ने उस के विपरीत मुख्य मंत्री बनने की लालसा में 1995 में मुसलामानों की धुर विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला लिया था. इस के बाद भी उसने कुर्सी पाने के लिए दो बार भाजपा से सहारा लिया था. इतना ही नहीं 2003 में उस ने गुजरात में मुसलमानों के कत्ले आम के जिम्मेवार मोदी को कलीन चिट दी थी तथा उस के पक्ष में गुजरात जा कर चुनाव प्रचार भी किया था. आगे भी मायावती भाजपा से हाथ नहीं मिलाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी मौकापरस्ती के बरक्स मायावती यह कैसे उम्मीद करती है कि मुसलमान उसे आँख बंद कर के वोट देते रहेंगे. मुज़फ्फरनगर के दंगे में  मायावती द्वारा कोई भी प्रतिक्रिया न दिया जाना भी मुसलामानों को काफी नागुबार गुज़रा था.
मायावती द्वारा पिछली तथा 2014 की हार के लिए अपनी कोई भी गलती न मानना भी दलितों और मुसलामानों के लिए असहनीय रहा है. 2012 में उसने इस का दोष मुसलामानों को दिया था. 2014 में उसने इसे कांग्रेस सरकार को समर्थन देना बताया था . अगर यह सही है तो मायावती के पास इस का क्या जवाब है कि उस ने कांग्रेस सरकार को समर्थन क्यों दिया? केवल कट्टरपंथी ताकतों को रोकने की कोशिश वाली बात भी जचती नहीं. दरअसल असली बात तो सीबीआई के शिकंजे से बचने की मजबूरी थी जो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में अभी भी बनी हुयी है. भाजपा भी मायावती की इसी मजबूरी का फायदा उठाती रही है और आगे भी उठाएगी.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों ने पिछली बार मायावती के सर्वजन वाले फार्मूले को बुरी तरह से नकार दिया था. मुसलामानों ने भी उस से किनारा कर लिया था. इस चुनाव में भी इस स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन आने की सम्भावना दिखाई नहीं देती है.  वर्तमान में दलितों, मुसलामानों, मजदूरों, किसानों और छोटे कारखानेदारों और दुकानदारों के लिए मोदी की कार्पोरेटप्रस्त हिंदुत्व फासीवादी राजनीति सब से बड़ा खतरा है जिस का मुकाबला मायावती और मुलायम सिंह आदि की सौदेबाज, अवसरवादी  और कार्पोरेटप्रस्त राजनीति द्वारा नहीं किया जा सकता है. इस के लिए सभी वामपंथी, प्रगतिशील और अम्बेडकरवादी ताकतों को एकजुट हो कर कार्पोरेट और फासीवाद विरोध की जनवादी राजनीति को अपनाना होगा.
(साभार ; दलित मुक्ति से)

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय

सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय :

हज़ारों वर्षों से भारत जिनसे मुक्त नहीं हो पा रहा है ?

(मनु स्मृति अगर आपको लग रहा है की संसद में जो नाटकीय रोल आप अदा कर रही हो, वह किसी देश की शिक्षामंत्री का नहीं, निहायत वेवकूफ घमंडी "बहु" का तो हो सकता है वास्तव में आप हो तो नाटक या सीरियल वाली ही न ! जिस तरह से महिषसुर प्रकरण पर आप आप अपना बयांन दे रही हो, संयोग से आपको जबाब नहीं दिया जा सका तो इसका यह मतलब नहीं की आप स्वयं "दुर्गा" हो गयीं ! सेक्स वोर्केर(वेश्याएं) हिंदुस्तान की सच्चाई है, पौराणिक काल की और झाँकेंकेंगी तो स्त्रियों की और बुरी हालत इन मनुवादियों ने प्रस्तुत की है विष कन्याएं (विष पुरुष) का संदर्भ कहीं नहीं आता है ! महिषासुर आपको समझ नहीं आएगा क्योंकि आपको दलित,पिछड़ा पुरुष पुरुष नहीं दीखता, स्मृति जी आप उसी दलित, पिछड़े, कुरूप चायवाले प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मंत्री हैं जिसके खिलाफ आप पहले भी बोल चुकी हैं, आप आइये अमेठी आपको पता चल जाएगा की महिषासुर असुर है या सुर या किसान का बहादुर नेता, उसके राज्य में भी मनुवादी आहत थे तब जिस वेश्या ने उसके साथ विश्वासघात किया हो (था थीं) उसे आप "दुर्गा" कहकर पूज्यनीय बनाती हैं, वह इन्हे कैसे पूज्य बना सकती या सकता हैं जिसके कुल का वह राजा रहा हो ! 

परम्पराओं के पाखण्ड ने हज़ारों सूरमाओं को नस्नाबूत किया है आप जैसी अपढ़ मंत्री जो उस मास्टरनी सी भी नहीं दिखती जो आजकल स्कूलों में केवल स्वेटर बनाने जाती है, आप जवाहर लाल विश्वविद्यालय को सचमुच "सास कभी बहु थी" से आगे ले जाने की नहीं सोच सकती हो !)


ताकि सनद रहे !
इस बात को तो गारंटी से कह सकता हूँ की अखिलेश जी को "ब्राह्मणवाद" चट गया है ? मुसलमान का वोट बचाने के चक्कर में गठबंधन की मलाई कांग्रेस ले गई और इनके लोग रह गए खाली समाजवादी ?
यह बात तो सही होने जा रही है जिसने भी लिखा है कि "मंडल साहब चिंता इस बात की है जब मालूम था कि भाजपा ध्रुवीकरण पर ही उतरेगा तो उससे निपटने की तैयारी क्यों नही की गयी। अब तो "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" दोनो की टीम करोड़ों लेकर काम कर रही है। 
क्या काम किया इनने। 
गैर यादव ओबीसी बुरी तरह से सांप्रदायिक कर दिया गया है। 
बसपा की बुरी हालात हो रही है।" 
और लगभग गैर जाटव / चमार भी सांप्रदायिक हो गया है।
आपको याद् है कभी मुलायम सिंह यादव या कांशीराम ने इस तरह की एजेंसियों का सहयोग चुनाव के लिए लिए थे ?

बुजुर्गों का कहना है "ये लौंडे हैं दो के दोनों " इन्हें हर बात में विज्ञापन नज़र आता है, इन्हें कौन बताये यह हिंदुस्तान है। कांग्रेस की बात अलग है वह तो हमेशा इस तरह के प्रयोग करती रही है राजीव गांधी को बड़ी-बड़ी एजेंसीयों चुनाव प्रचार में सहयोग करती थी और जिनके चलते कांग्रेस जमीन से ही उखड़ गई है यह बात अखिलेश जी को किसी ने नहीं बताया ऐसा मुझे प्रतीत होता है क्योंकि ब्राह्मण विरोध की राजनीति प्रचार एजेंसीयों से नहीं हुआ करती क्योंकि दुनिया भर की प्रचार एजेंसीयों ब्राह्मणवाद की संवाहक हैं और यह ब्राह्मणों के लिए ही ज्यादा मुफीद होती हैं।
यहाँ यह कहना उचित होगा कि अभी उत्तर प्रदेश और बिहार में मामूली अंतर नहीं है "पीकेयूआ" नितीश को तो उल्लूएय बना देता लालू जी का भला हो बचा लिए और ससुरा बड़का इन्तज़ामकर होईगवा है, और ई यूपी में बेचारा फस गया है ? अब यहाँ कौनो न तो लालू है और न नितीश ?
भाई शिवपाल जी के बारे में कहा जा रहा की उन्हें हटाने में ऊपर वाली एजेंसीयों का बड़ा हाथ है काहे को कि उनके रहते हैं शायद इतना खेला ना हो पाता इसीलिए पहले उनको ही हटवाया अब ऐसी स्थिति में उनको भी बहन जी में ज्यादा विश्वास नज़र आ रहा है, क्योंकि जिस पी आर कंपनी ने उन्हें खाली करवा दिया उसका श्रेय है "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" को ?
तो वह अब कुछ न कुछ तो करेंगे ही ? क्योंकि वे देशी तरीके के नेता हैं और नेता जी का बरदहस्त भी है उन पर ? वैसे न जाने कैसे ये बन जाते हैं सामन्त और इन्हें लगता है देश ही इनका है ? जब अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया हो तो यह महत्वाकांक्षा और बलवती हो जाती है कि असली सामन्त यही हैं
जहां तक कांग्रेस के साथ जाने का सवाल है आज तक तो उनसे कोई 'उबरा' नहीं है ? वास्तव में इनका गठजोड़ क्या डूबते को तिनके का सहारा वाली कहावत चरितार्थ तो नहीं करेगा ? क्योंकि डर लग रहा है इससे की जो ये कंपनियां हैं "स्टीव जार्डिंग" और "पीके" क्या पता बीजेपी के लिए भी काम न कर रही हों ? और इन्हें उल्लू बना रही हों ?
भाई सत्या सिंह के बहाने : आजकल बहुत सारे लोग अखिलेश जी के वफादार हो गए हैं और सरकारी एजेंसीयों के बजाए वही लोग मुख्यमंत्री और सरकार के बहुत सारे कामों का प्रचार कर रहे हैं ऐसे ही भाई सत्या सिंह हैं अभी हर जगह उनका लेखन पढ़ने को मिल जाता है और वह केवल सरकार के पाजिटिव पहलू पर ही नजर डालते हैं उसके नेगेटिव पहल उन्हें दिखाई नहीं देते मुझे लगा कि इन के बहाने सरकार के नेगेटिव पहलुओं को इन्हें बताया जाए।
भाई सत्या सिंह आप क्यों नहीं समझते हैं कि भारत जातियों का देश है और यहां जातीय आधार पर ही तमाम तरह की व्यवस्थाएं लागू हैं। जिनमें राजनीति एक अहम हिस्सा होकर जरूरी अंग है।
जब हम जात की बात कर रहे होते हैं तो अखिलेश उससे अछूते नहीं हैं किसने कहा अखिलेश यादव को कि वह जाति की बात ना करें ? जब कि जो लोग उनसे जितने लाभांवित हो रहे हैं उतना ही ज्यादा उन्हें यादव यादव कह कर प्रचारित करते हैं और यही कारण है कि आज उनके साथ अकेले यादव जाति ही खड़ी है और बाकी सारी उनकी जातियां अपना अपना काम करके (लूटपाट करके) चल बनी ? उनको भी यह पता था कि उनके लोग इन्हें वोट नहीं करेंगे इसीलिए जिसको जहां जाना था वहां चला गया है।
और आप अब छाती पीटते रहिये की अखिलेश जी ने जाती के आधार पर कुछ नहीं किया बल्कि सर्वजातीय बने रहे उनके इस प्रयास से कितना बदलाव हुआ है क्या कोई आंकड़ा है आपके पास ? इससे ना तो जातिवाद रुकने वाला है और न जातीय पहचान घटने वाली है ? क्या उन का प्रयास निरर्थक नहीं हुआ।
आश्चर्य होता है कि समाजवादी पार्टी ने जहाँ सारे मानदंडों को तोड़ते हुए पारिवारिक राजनीति में कदम रखा ? पिता ने अपने राजनीति के अनुभवहीन (समाजवादी राजनीती और सामजिक न्याय की अवधाराणा के सम्बन्ध में) पुत्र को प्रदेश की राजनीति का मुखिया बनाया ? जिसकी बार-बार प्रामाणिकता उन्होंने 5 वर्षों के शासन में वह स्वयं बीच-बीच में करते रहे हैं ! जिसको आप किसी भी तरह से भले देखें ? लेकिन नेता जी को इस बात का भान था कि उनका पुत्र उनकी बनाई हुई राजनीति को कहां ले जा रहा है इसको हम जिस रूप में भी देखें लेकिन नेताजी ने कई रूपों में देखा है। आपको याद होगा कि हमारे मुख्यमंत्री जी बिना असली चाचा के सरकार के आरंभिक दिनों में परेशान रहते थे और नाना प्रकार से अमर सिंह की याद उन्हें सताती रहती थी।
जब उनको अमर सिंह की असलियत पता चली तो फिर वह उनसे दूर होने का उपक्रम किए लेकिन इसका नुकसान यह हुआ कि उनका पूरा परिवार अमर सिंह के साथ चला गया और अपने अकेले बच गए ऐसा लगता है कि अमर का होना और ना होना कितना प्रभावी रहा यह हिसाब अलग से लगाना होगा क्योंकि अमर सिंह को यह अभिमान था कि उनके बगैर समाजवाद का कोई मायने नहीं होता और उन्होंने जो आदतें समाजवादियों में डाली वह इतिहास बन गई।
इस बात का तो हमलोगों को भी दिल ही दिल में बहुत खराब लगती थी की अमर सिंह जैसे व्यक्ति ने जमीन से जुड़े हुए लीडर को फाइव स्टार का शौकीन बना दिया था और पिछले पर में ही आम आदमी से उनका मिलना दूभर हो गया था और इस बात का बहुत दर्द पूरी अवाम को है !
एक ऐसा युवा जिसके सिंहासनारोहण के लिए उस समय फेसबुक पर हम भी लिख रहे थे और पूरी अपेक्षा थी कि पूरा समाज इसको बहुत ही बौद्धिक और वैचारिक तथा पौष्टिक तरीके से लेगा ? लेकिन हुआ क्या यह युवा 5 वर्षों तक सवर्णों के पीछे लगा रहा जैसे सत्ता उन्होंने ही इन्हें दी हो। जब की सच्चाई यह थी कि हाथी की मालकिन उसे अवाम नाराज थी उसे हटाना था इसलिए नेताजी को बहुमत मिला था और उन्होंने यह दायित्व अपने पुत्र को देकर पृष्ठभूमि में चले गए थे।
दूसरी और यह भी देखना है कि माननीय नेता जी स्वास्थ्य की दृष्टि से कितने भी उम्र के लिहाज से कमजोर या विक्षिप्त हो गए हैं। लेकिन पिता तो इन्हीं के हैं, चाचा तो इन्हीं के हैं, प्रोफेसर रामगोपाल यादव जी इन्हीं के हैं, पूरा परिवार इन्हीं का है, किस से अलग होकर यह जनता को संदेश दे रहे हैं ?
क्या यह सब उन विदेशी कंपनियों के कहने पर किया जा रहा है जो इनके भी लिए काम करती हैं, और इनके दुश्मनों के लिए भी काम करती हैं। स्वाभाविक है उनको जहां से ज्यादा पैसा मिलेगा उसके लिए ज्यादा काम करेंगे और उनके लू पोल अलग से बता भी देंगे ? दुनिया में सारी व्यापारी कंपनियां इसी तरह की होती हैं इनका कोई ईमान नहीं होता केवल और केवल उनका धर्म ही लाभ का होता है जिसके लिए वह काम करती हैं।
भारतीय लोग किसी एजेंसी के इशारे पर काम ना कर के अपने मन के मुताबिक काम करते हैं और समाज ऐसा है जो इमोशन पर भी काम करता है, और इन्होंने पुरे पिछड़ों का इमोशन, दलितों का इमोशन, केवल और केवल सवर्णों की खुशी के लिए कुर्बान कर दिया है।
इन्होंने सारे पुरस्कार केवल और केवल उन्ही लोगों को दिए हैं जो उसके पात्र ही नहीं थे। आज वोट का दौर है वह एक भी आदमी इन को वोट नहीं कर रहा है, जिसको इन्होंने लाभान्वित किया है और यह सम्मान पाने की न ही उसकी हैसियत थी। इन्होंने सब कुछ बांट दिया उनको जो इनके कभी नहीं हो सकते यही नहीं तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपति प्राध्यापक केवल और केवल एक जाती जो हमेशा से धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार में लिप्त रही है जिसे ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है को दिया है आज वही इनकी सबसे ज्यादा विरोधी हैं और इन्हें भ्रम और वहकाने में कामयाब हुए हैं।
वे क्यों किसी का और प्रभावित करें मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने उनके शासन में जमकर के सत्ता का लाभ लिया है ? और मंत्री तक के पद तक संभाला है । कैईयों को तो इन्होंने इसी बीच निकाला है और कईयों को निकालने का मन बनाए होंगे पर आगे क्या करेंगे इसका कोई अंदाजा नहीं है। इन के बहुत सारे सलाहकार इन के हित के लिए नहीं अपने हित के लिए आगे पीछे लगे रहे जिससे सत्ता का लाभ तो लिया है। लेकिन सामाजिक रुप से राजनीतिक रुप से और भविष्य की राजनीति के लिए इन को कमजोर कर दिया गलत दिशा में डाल दिया इन्हीं सारी चीजों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में किस तरह की राजनीति आगे आएगी उसकी पूर्व पीठिका इस बार का चुनाव तय करने जा रहा है।
यही तो पूंजीवादी सिस्टम चाहता था और इन्होंने यही किया है मुझे पूरा याद है कि कभी भी नेता जी ने किसी भी एजेंसी का सहारा ले कर के अपना चुनाव नहीं लड़ा था बल्कि जनता का विश्वास किया था और जनता ने उनका साथ दिया था जनता जानती थी कि उनका प्रतिनिधि कम से कम ईमानदार तो है ।
आज जिस विकास की बात करते आप थक नहीं रहे हो उस विकास से वर्तमान राजनीति का कोई लेना देना नहीं है मैंने पहले भी लिखा है यह विकास पर ही राजनीति होती तो शीला दीक्षित ने जितना विकास दिल्ली भी किया था उसके बाद जो चुनाव हुए थे उसमें वह स्वयं हार गई थी इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा क्योंकि विकास के लिए दिल्ली जैसा पढ़ा लिखा और वह दिल्ली जिस पर केवल और केवल पढ़ी-लिखी आवाम रहती हो उसमें शीला के साथ ऐसा व्यवहार किया हो मेरे मित्र मुझे यह जानकर सुनकर और जांच कर पता चल रहा है कि बहुजन राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान इस समय होने जा रहा है ।
देश में इसका बड़ा नुकसान हो चुका है देश के सारे बहुजन नायक उस महान पार्टी के अंग हो चुके हैं जो केंद्र की सत्ता में विराजमान है जिसका उद्देश्य ही बहुजन समाज का शोषण और विनाश करना है आप अगर इससे कहीं से असहमत हो तो हमें जरूर बताएं हम आपका जवाब देने के लिए तत्पर होंगे। 
डा.लाल रत्नाकर

साधुवाद

जय समाजवाद।






































*ब्राह्मण जज पर रोक*

द्यपि यह लिखते हुए नहीं इस पोस्ट पर लगाते हुए मुझे अपने मित्रों से बहुत अलग तरह की प्रतिक्रिया की अपेक्षा है पर यह प्रतीत होता है कि अंग्रेजों में भारत के लिए कितनी समझ रही होगी कि वह ऐसे कानून बनाए और बहुतेरे कानून आज तक उनके बनाए हुए विभिन्न महकमों में चल रहे हैं विशेष करके शिक्षा के क्षेत्र में तो भले ही पर्याप्त मात्रा में रोके गए हो पर जितने भी लोग शिक्षित हो पाए हैं कही न कही अंग्रेजी शिक्षा का ही योगदान है अन्यथा गुरुकुलों की जो दशा है एकलव्य जैसे महान पुरोधाओं को किस तरह से उन्होंने अपमानित किया और अंगूठा तक काट कर मांग लिया यह कहां का न्याय है इन सब को चलते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा अंग्रेजो ने इनके बारे में सही राय रखी होगी तभी तो:

*ब्राह्मण जज पर रोक*
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*कलकत्ता हाईकोर्ट में ब्रिटिश काल में प्रीवी काउन्सिल हुआ करती थी। अंग्रेजों ने नियम बनाया था कि कोई भी ब्राह्मण प्रीवी काउन्सिल का चेयरमैन नहीं बन सकता। क्यों नहीं हो सकता? अंग्रेजों ने लिखा है कि ब्राह्मणों के पास न्यायिक चरित्र नहीं होता है। न्यायिक चरित्र का मतलब है निष्पक्षता का भाव। अर्थात निष्पक्ष रहकर जब एक न्यायाधीश दोनों पक्षों की दलीलें सुनता है, सभी दस्तावेजों को देख कर कानून और न्याय के सिद्धान्त के अनुसार अपनी मनमानी न करते हुए जो सही है उसे न्याय दे, उसे न्यायिक चरित्र कहते है। ऐसा न्यायिक चरित्र ब्राह्मणों में नहीं है, यह अंग्रेजों का कहना था। आज की तारीख में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लगभग 600 न्यायाधीश हैं, उनमें 582 न्यायाधिशों की सीटें ब्राह्मण तथा ऊँची जाति के लोगों के कब्जे में हैं। जब तक न्यायपालिका को प्रतिनिधिक नहीं बनाया जाता, तब तक हमें न्याय मिलने वाला नहीं है। इसलिए न्यायपालिका को प्रतिनिधिक बनाने की आवश्यकता है।*

*भारत की न्यायपालिका पर हिन्दुओ का नहीं बल्कि ब्राह्मणों का कब्जा है, और ब्रिटिश लोग कहते थे कि, *"BRAHMINS DON'T HAVE A JUDICIAL CHARACTER"*. *यानी "ब्राह्मण का चरित्र न्यायिक नहीं होता, वो हर फैसला अपने जातिवादी हितों को ध्यान मे रखकर देता है।*
*सुप्रीम कोर्ट में बैठे ब्राह्मण जज हर फैसला OBC, SC, ST, मुसलमान, सिख, ईसाई और बौद्धों के खिलाफ ही देते है..*
*न्यायाधिशों की नियुक्ति में कोलिजियम का सिद्धान्त दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देशों में नहीं है, वह केवल मात्र भारत वर्ष में ही है। इसका कारण यह है कि अल्पमत वाले ब्राह्मण लोग बहुमत वाले बहुजन लोगों पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते हैं। जो बहुमत है वह अपने हक-अधिकारों के प्रति धीरे-धीरे जागृत हो रहा है, इससे ब्राह्मणों के लिए संकट खड़ा हो रहा है। इस संकट से बचने के लिए न्यायपालिका मे बेठे ब्राह्मण न्यायपालिका का इस्तेमाल एससी एसटी ओबीसी और अल्पसंख्यक के विरुद्ध कर रहे है।*
*भारतीय हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट मे 80% जज ब्राह्मण जाति से है, और ब्राह्मण कभी न्याय का पर्याय नहीं हो सकता क्योंकि ये उसके DNA मे ही नहीं.....*
निवेदक:-
*ओबीसी ललित कुमार*
*(राष्ट्रीय अध्यक्ष)*
*अभा.ओबीसी महासभा*
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शनिवार, 12 मार्च 2016

चुनौतियों से घिरे अखिलेश

अजय बोस

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अगले हफ्ते अपने कार्यकाल का चार वर्ष पूरा कर लेंगे। उन्होंने 2012 में तेज-तर्रार युवा नेता के रूप में अपनी पारी शुरू की थी, मगर आज वह अपनी ही छाया बनकर रह गए हैं। हाल ही में समाजवादी पार्टी के एक असंतुष्ट नेता ने उन्हें उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे अक्षम मुख्यमंत्री करार दिया! संभव है कि ऐसा उन्होंने निजी खुन्नस के चलते कहा हो। मगर इसमें संदेह नहीं कि समाजवादी पार्टी के साथ ही प्रदेश के लोगों का इस युवा नेता से मोहभंग हुआ है, जिसमें वे लोग कभी काफी संभावना देख रहे थे।

अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी उनकी अपनी पार्टी के भीतर ही उनका अधिकारसंपन्न नहीं होना है। चार वर्ष पहले जब उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला था, उसकी तुलना में आज पार्टी गुटों में विभाजित और दिशाहीन दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि उनके पिता और चाचाओं के साथ ही आजम खान जैसे सपा के दिग्गजों ने मुख्यमंत्री को स्वायत्तता के साथ काम करने ही नहीं दिया, ताकि वह सरकार को दूरदर्शिता के साथ चला सकें। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया कि जब-जब उन्होंने कोई नई पहल शुरू करने की कोशिश की, यादव खानदान के वरिष्ठजनों द्वारा बार-बार उन्हें नजरंदाज कर दिया गया या झिड़क दिया गया। कुछ महीने पहले हुआ यह वाकया उनकी स्थिति को बयां करने के लिए काफी है, जब अखिलेश के दो करीबियों-आनंद भदोरिया और सुनील सिंह को उनके चाचा ने पार्टी से निलंबित कर दिया था। इससे मुख्यमंत्री नाराज हो गए और उन्होंने यादव परिवार के गृहनगर सैफई में होने वाले वार्षिक महोत्सव में जाने से इन्कार कर दिया था, और वह तभी माने जब उनके पिता ने हस्तक्षेप कर उन दोनों का निलंबन वापस करवाया।

मुख्यमंत्री को यादव परिवार के सदस्यों के बोझ से उबरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। परिवार के कम से कम 19 सदस्य सत्ता के निर्वाचित पदों पर या राज्य के प्राधिकरणों में हैं या फिर केंद्रीय स्तर पर कोई न कोई पद संभाल रहे हैं। इस तरह देखा जाए, तो आज मुलायम सिंह यादव का परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक खानदान है। परिवार के भीतर की राजनीति और सपा के शासन के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में कुकुरमुत्तों की तरह उभर आए सत्ता केंद्रों ने सरकार चलाने के काम को कठिन बना दिया है। सूबे के सियासत पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक की टिप्पणी थी, 'युवा नेता ने शुरू में तो काफी कोशिश की, मगर वह जिस राजनीतिक वाहन पर सवार हैं, वह अब उनके नियंत्रण से बाहर हो गया है और उनसे इसकी स्टेयरिंग संभल नहीं रही है।'

स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी है, जिसके कारण उनकी पकड़ कमजोर हुई। सपा के उद्दंड कार्यकर्ताओं ने 2012 में विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली जीत के जश्न में ही निर्दोष लोगों को निशाना बनाया था! हाल ही में पार्टी के एक विधायक के भाई ने सड़क पर झगड़ा किया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। सूबे के ग्रामीण इलाकों में मोटरसाइकिलों और बड़ी गाड़ियों में दंबगों को देखा जा सकता है, जिनकी वजह से निचली जाति वाले, अल्पसंख्यक और महिलाएं शायद ही इतना असुरक्षित महसूस करती हैं। बची-खुची कसर हिंदू कट्टरपंथी गुटों के आक्रामक अभियानों ने कर दी, जिन्हें संघ परिवार के एक गुट का संरक्षण हासिल है। इससे उपजे सांप्रदायिक तनाव ने अखिलेश यादव के प्रशासन को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया। कहीं-कहीं ऐसी खबरें भी आई हैं कि सांप्रदायिक तनाव की इन घटनाओं को भड़काने में सपा के लोगों का भी हाथ रहा है। दुर्भाग्य से राज्य सरकार अल्पसंख्यक समुदाय में बढ़ती असुरक्षा से बेखबर दिखती है। बल्कि मुजफ्फरनगर के दंगों की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने तो सरकार को क्लीन चिट दे दी है।

कानून-व्यवस्था की बदहाली के अलावा अखिलेश यादव सरकार पर किसानों की हताशा बढ़ाने का भी आरोप है, क्योंकि सूखा प्रभावित जिलों में उसकी ओर से कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए। पारंपरिक रूप से पिछड़े बुंदलेखंड क्षेत्र की स्थिति और बदतर हो गई है, जिसकी वजह से वहां के किसानों की आत्महत्या की खबरें आई हैं। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसान भी परेशान हैं, जबकि पहले इस क्षेत्र को संपन्नता का प्रतीक माना जाता था। गन्ने के दाम पिछले कई वर्षों से नहीं बढ़ाए गए हैं, जिससे किसानों की नाराजगी बढ़ गई है। दिलचस्प यह है कि भारतीय किसान यूनियन और भारतीय किसान आंदोलन जैसे संगठन बसपा सुप्रीमो मायावती की पिछली सरकार को याद कर रहे हैं, जब हर वर्ष गन्ने के दाम में बढ़ोतरी की जा रही थी और चीनी मिलें व्यवस्थित ढंग से काम कर रही थीं।

अब जबकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनाव को सिर्फ एक वर्ष रह गए हैं, मुख्यमंत्री अखिलेश और उनकी पार्टी के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर मायावती के उभरने की चुनौती है, जो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली अपमानजनक पराजय का बदला लेना चाहती हैं, तो दूसरी ओर आक्रमक तरीके से भाजपा किसी भी तरह यह चुनाव जीतना चाहती है, क्योंकि इनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। एक-एक दिन बीतने के साथ ही यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सपा अखिलेश यादव के प्रशासनिक रिकॉर्ड पर बहुत निर्भर नहीं है। बल्कि इसके बजाय अटकलें तो यह हैं कि वह भाजपा के साथ किसी तरह का तालमेल कर सकती है, ताकि ध्रुवीकरण होने से दोनों को लाभ हो। मगर इसमें एक बड़ा खतरा यह है कि इससे मुख्यमंत्री की छवि को और नुकसान होगा।

वरिष्ठ पत्रकार एवं बहनजी-ए पॉलिटिकल बायोग्राफी के लेखक

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व-तर्ज ए अवाम !

इसके साथ उत्तर प्रदेश की अवाम भी कुछ सोचती है जनाब !
परिवार की पहचान और घमासान का जो परिदृश्य नेताजी ने पैदा कर दिया है वह वास्तव में समाजवादी राजनीती का नहीं पारिवारिक राजनीती का मुखौटा है, मौजूदा मुख्यमंत्री के चयन में जो स्थितियां परिस्थितियां थीं कमोवेश वही स्थितियां आज भी हैं, बल्कि ठीक से देखा जाय तो वह उस परिवार की सियासी जंग की तरह मौजूद ही नहीं हैं गहरी साजिशों के मकड़जाल से घिरी हुयी हैं, वर्चस्व की लड़ाई में प्रदेश कहीं और छूट रहा है जबकि आपसी खीच में कार्यकर्ताओं की बहुत ही दयनीय स्थिति हो गयी है, सत्ता के गलियारों में जहाँ इस परिवार के बहुतेरे सदस्यों का मूल्याङ्कन होता है उसमें अलग अलग मोहरे अलग अलग तरह से चिन्हित होते हैं या हो रहे हैं ? जबकि यह वह दौर है जब पार्टी को सशक्त, समृद्ध और मज़बूत नेतृत्व का आधार लेकर उभारना चाहिए था ? लेकिन हुआ इसके उलट है, इस बीच के विभिन्न चुनाओं में पार्टी की सफलता को लोकप्रियता से देखा जाना दिवा स्वप्न देखने जैसा है ! 








प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...