बुधवार, 13 मई 2015

गाहे बगाहे

दिलीप मंडल की पोस्ट के लिये:
भाई दिलीप जी! आपकी गालियाँ किनके लिये हैं, उनके लिये जिनके मन आपके लिये नफ़रत से भरे रहते हैं । अफ़सोस ये नहीं कि जातियाँ जिसने भी बनाई अपने काम के लिये बनाईं । पर जबतक आप उनके बनाये पर खड़े रहोगे तब तक वो चलती रहेंगी, आप किसका हित कर रहे हो जाति बनाने वालों का या उन जातियों का जिन्हें आप पिडित समझते हैं। मेरे ख़्याल से छल छल ही होता है, जातियों के हिसाब से छल जारी है, अपनी या अपनी जाति के प्रति मोह आकर्षण आदि ही मूल कारण है। आप कभी भी इस भेदभाव को समाप्त नहीं कर पायेंगे क्योंकि जब आप सॉस्थानिक होते हैं ईमानदारी का रोग लग जाता है और न्यायप्रिय दिखना चाहते हैं। यही गुण उनमें नहीं होता उनका दुर्गुण ही उनका सम्बल है। आपको,हमको, उन सबको अलग न्यायालय,संसद,विश्वविद्यालय आदि बनाना होगा जिसमें बहुजन के लिये नियम क़ानून और आन्तरिक दुश्मन से लड़ने के लिये फ़ौज तक खड़ी करनी होगी।.............
इसलिये भी कि जिन्हें हम अपने हक़ की लड़ाई के लिये चुनते हैं वे उनकी गोंद में बैठकर बहुजन की बात कभी कभार करते हों जो बहुजनों के जन्मना दुश्मन हैं, अज्ञान ही नहीं आर्थिक ग़ैर बराबरी मूलतह उसकी जड़ में है। जिसे भरने के उपक्रम के तरीके वही बताते हैं, मुझे लगता है उन्हीं तरीक़ों के चलते वे फँस जाते हैं, जिसमें वो कम और उनके सलाहकार ज़्यादा दोषी होते हैं।
हमारी लड़ाई पीछे रह जाती है। नई लड़ाई लड़ने के लिये सजग सिपाहसालारों की जगह उनका परिवार आगे आता है जो रेड का पेड़ साबित होता है।
भाई दिलीप जी अनेकों तर्कों से बताते रहते हैं कि योगेन्द्र यादव का सामाजिक न्याय और जातिय लड़ाई के लिये कोई योगदान नहीं है, मेरे और पत्रकार मित्रों की राय इसी से मेल खाती है, पर मुझे लगता है यदि योगेन्द्र यादव को इसके लिये तैयार किया जाता तो इसे दूर तक ले जाया जा सकता जहाँ से रास्ते निकलते, पर जब सारे रास्ते अवरूद्ध हो गये हों दिलीप भाई उनके जिनके न तो बड़े बड़े नीजी कालेज हों और न ही उद्योग धंधे वह जमात अच्छी से अच्छी शिक्षा लेकर जायेगी कहाँ ?
क्या योगेन्द्र यादव आप से इसीलिये तो नहीं निकाले गये ?
...................
एक बात और दिलीप भाई शरद यादव जैसे भी है क्या उनका दर्द आपसे छुपा है, गालियाँ दीजिये ! जी भरके पर पहले कोई रास्ता तो बनवाईये, नहीं तो ये बड़ा उल्टा लगता है आप जिस तरफ़ चलते हो उसके उस तरफ़ के लोग लाभान्वित होने लगते हैं।
कि कहीं मंडल और मोदी का गोत्र एक ही तो नहीं?

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

बिहार के बहाने ;

बिहार के बहाने 
"जीतन राम मांझी प्रकरण ने बिहार में दलितों और पिछडों की राजनैतिक एकता पर करारा वार किया है। अगर आप जरा भी संवेदनशील हैं तो आप इस समय बिहार के दलितों के दिल में उठने वाले दर्द और हूक का अंदाजा लगा सकते हैं।
(-प्रमोद रंजन )
के हवाले से कहना चाहता हूँ प्रमोद भाई उर्मिलेश जी ने एक बहस चलाई है जिसमें देश की राजनीती के लिए विकल्प पर चरचा हो रही है, इसी समय बिहार एक अलग तरह के राजनितिक चरित्र के साथ उठ खड़ा हुआ इसमें भी नए विकल्प का सवाल मरता हुआ नज़र आ रहा है उर्मिलेश जी का बी बी सी वाला आलेख भी आगे दे रहा हूँ और प्रमोद और राहुल के फेब के बयां भी पर मुझे इन सारे मसलों पर लगता है की दलित और पिछड़ा एजेंडा सवर्णों ने उन्ही से खत्म करा दिया ! भाई उर्मिलेश, प्रमोद रंजन और राहुल कुमार कैसे देखते हैं वह अलग विषय है पर सामाजिक सरोकारों पर बड़े बड़े इधर उधर होते नज़र आते हैं। नितीश कोई सामाजिक सरोकारों को समझने वाले नेता नहीं हैं उन्होंने जितने राजनैतिक करवट बदले हैं उससे कौन वाकिफ नहीं है। ऐसे राजनैतिक चरित्रहीन व्यक्ति को    
ये तमाशे चल रहे हैं मोदी जी के ! "हरकारा" आपने देखा होगा उनसे मेल खता हुआ व्यक्तित्व ! दूसरी और आनन्द कुमार जी ! ये सब कितने खास हैं किसके लिए नीति बनाएंगे ये ! ये विदेशी फंडों से जीवन यापन वाले हैं इन्हे तो इस देश की शिक्षा को ठीक करने का मौक़ा मिला क्या किया इन्होने हजारों काबिल और ईमानदार दलित पिछड़े जिन्होंने कर्ज लेकर पढाई की मेहनत की 'ईमानदार' है उन्हें आज भी सड़क ही नापनी है, क्योंकि उनके आका नहीं हैं, उनके आका नहीं कालेजों संस्थानों और विश्वविद्यालयों में इसलिए वो नाकाबिल हैं. 
भाई उर्मिलेश जी ! आप को मैंने कल नितीश को राजनितिक और संत बताते हुए मैंने सुना आश्चर्य हुआ "ऐसे अवसरवादी" नेता को सपोर्ट करना पुरे सोच के लिए नुकसानदेह है जिसका खामियाजा "आम जान जीवन" के संघर्षों ने खड़ा किया था जिसे इन्होने डुबो दिया है।  आप क्या समझते हैं ये बिहार के कोई खानदानी राजा थे जो इन्हे ही सत्ता में बने रहना चाहिए था ! मांझी क्यों ईमानदार इनके प्रति रहे ये तो उस अवाम के प्रति ईमानदार नहीं रहे जिसने उन्हें अपना नेता बनाया था ! कमोवेश यही हाल सभी पिछड़े नेताओं का है !
 * 
"जीतन राम मांझी प्रकरण ने बिहार में दलितों और पिछडों की राजनैतिक एकता पर करारा वार किया है। अगर आप जरा भी संवेदनशील हैं तो आप इस समय बिहार के दलितों के दिल में उठने वाले दर्द और हूक का अंदाजा लगा सकते हैं।
एक सच और साफ बोलने वाले मुख्‍यमंत्री के प्रति शरद यादव कैसी भाषा का इस्‍तेमाल कर रहे थे? दलितों ने जो जनता दल (यू) के प्रदेश कार्यालय में और पटना के एक होटल में घुस कर नीतीश-शरद समर्थकों की जो मार-कुटाई की, वह शरद यादव की बदतमीज भाषा का ही परिणाम थी। वास्‍तव में मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि समाज के सबसे कुचले हुए तबके लोगों ने इन सत्‍ता संस्‍थानों पर हमला करने का साहस किया। कहते हैं, जो होता है, सो अच्‍छा होता है। शायद इन्‍ही कारणों से बिहार में स्‍वतंत्र दलित राजनीति का भी आगाज हो।
लेकिन नीतीश-शरद, आपने जो काम किया है, वह माफ करने लायक नहीं है।" 
(प्रमोद रंजन - फारवर्ड प्रेस में वरिष्ठ संपादक हैं )
*
इतने हल्ला के बाद मुझे भी लगने लगा था की मोदी और बीजेपी डेवलपमेंट करेंगे । इसलिए मैंने उनके खिलाफ लिखना बंद कर दिया था । मुझे लगने लगे था चाहे ये अंधविश्वास या अवैज्ञानिक बातो को क्यों न बढ़ावा देते हो लेकिन जब ये विकाश करेंगे , लोग शिक्षित होंगे , तब अपने आप अंधविश्वास कम होगा । मैंने सोचा था विकाश और अंधविश्वास एक साथ नहीं चल सकते । मैंने बिलकुल सही सोचा था । लेकिन हुआ उल्टा ये लोग विकाश करने के बजाय भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर ध्यान दे रहे है , संस्कृत को लागु , रामजादे-हरामजादे को बढ़वा दे रहे है । लड़के-लड़कियों को ऐसे पिट रहे है जैसे इनके बाप का देश हो । ये भूल रहे है इन्हे नौजवान युवा और युवतियों ने इन्हे सत्ता दिलाई और उसके पास इसे छीनने की भी ताकत है । ये भूल रहे है ये भगत सिंह और आंबेडकर का देश है , यह देश किसी एक धर्म, जाति और समुदाय का नहीं हो सकता ।
जो बोला था उसे पूरा करो मोदी बाबू , नए वादे और बात बाद में कर लेंगे । अगर ऐसे ही चलता रहा कांग्रेस का हश्र तो आप के सामने ही है । कही सत्ता की लालच में आप भी भरोसा न खो दे । याद रखे ये भरोसा ही आपकी सत्ता और ताकत है । इसे मत गँवाइये लोकतंत्र में इसकी बड़ी कीमत है । एक चाय वाले को यह अगर प्रधानमंत्री बना सकती है तो एक प्रधानमंत्री को … ।
राहुल कुमार 
डबलिन , आयरलैंड
*
बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने इस्तीफ़ा देने से मना करते हुए कहा कि वो विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे.
इससे पहले जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने पत्र लिखकर मांझी को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा था.
जीतन राम मांझी ने दिल्ली में पत्रकारों से कहा कि वो 20 फ़रवरी को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे.
मांझी ने पत्रकारों से कहा, "बिहार विधानसभा में जो भी साथ देगा उसका स्वागत है."
मांझी ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए से कहा, "लोग समझने लगे हैं कि नीतीश कुमार ने सामाजिक परिक्षेत्र में जो काम नहीं किया था, जीतन राम मांझी उनसे बढ़कर काम करने लगे हैं. इसलिए दो-चार-पाँच लोग बार-बार नीतीश कुमार को बरगला रहे हैं."

'विकास पर बात'


मांझी ने पशोपेश में डाल रखा है अपनी ही पार्टी को

जीतन राम मांझी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करने के बाद पत्रकारों से बात कर रहे थे. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि प्रधानमंत्री से उनकी केवल विकास के मुद्दे पर बात हुई.
पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने मांझी को एक चिट्ठी लिखकर कहा था कि विधानमंडल की बैठक में नीतीश कुमार को नया नेता चुन लिया गया है.
मांझी ने इस पर कहा, "बिहार विधानमंडल दल की बैठक ग़ैर-कानूनी है, इसलिए किसी को नेता चुनने या उस नेता को मंजूरी देने की बात भी ग़लत है."
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/02/150203_urmilesh_bihar_va?SThisFB&fb_ref=Default


बिहार: मझधार में मांझी और नीतीश के विकल्प




बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी चाहते तो बिहार की दलित-उत्पीड़ित जनता के पक्षधर और सेक्युलर-लोकतांत्रिक सियासत के तरफ़दार नेता बनकर एक नया इतिहास रच सकते थे.
लेकिन बीते कुछ महीनों के दौरान उनके काम, बयान और गतिविधियों पर नज़र डालें तो निराशा होती है. उन्होंने दलितों के बीच चुनावी-जनाधार पैदा करने की कोशिश ज़रूर की, पर दलित-उत्पीड़ितों के मुद्दों और सरोकारों के लिए कुछ खास नहीं किया.
ले-देकर वह बिहार के कुछ सवर्ण-सामंती पृष्ठभूमि के दबंग नेताओं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संरक्षण-समर्थन में उभरते ‘दूसरे रामसुदंर दास’ नज़र आए.
अगर उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के रास्ते पर चलने की कोशिश की होती, तो नीतीश कुमार या शरद यादव उनके खिलाफ़ मुहिम छेड़ने का साहस नहीं कर पाते.
लेकिन कुर्सी पर बने रहने और जिस नीतीश ने उन्हें मुख्यमंत्री नामांकित किया, को चिढ़ाने और नीचा दिखाने के लिए वह भाजपा के शीर्ष पुरूष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, राज्य के छोटे-मोटे भाजपा नेताओं का भी अभिनंदन करने लगे.
'भाजपा भी मांझी से खुश'


जदयू-राजद समर्थन की सरकार चला रहे मुख्यमंत्री ने भाजपा में किसकी-किसकी तारीफ नहीं की? वह भी अगले विधानसभा चुनाव से महज़ सात-आठ महीने पहले.
इस सहनशीलता के लिए नीतीश-शरद के धैर्य की तारीफ़ करनी होगी. शायद, उनमें डर भी था कि मांझी को छेड़ने से जद(यू)-राजद के दलित-समर्थन में दरार न पैदा हो!
उनके दिमाग में सवाल रहा होगा कि भाजपा को ऐसा मौका क्यों दें?
मांझी के बयान और प्रशासनिक गतिविधियों पर नजर डालें तो उनके व्यक्तित्व की एक जटिल तस्वीर उभरती है. कभी वह बहुत हल्की किस्म की बातें कहते नजर आते हैं तो कभी नए राजनीतिक हस्तक्षेप का संकेत दे रहे होते हैं.
कभी वह सेक्युलर-सामाजिक न्याय की बात करते रहे हैं तो कभी ‘दस या बीस मिनट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा से दोस्ती कर लेने’ की अपनी पार्टी नेताओं को धमकी भी देते रहे हैं.
कभी उनमें वैचारिक प्रौढ़ता के अभाव के साथ एक तरह की सरलता दिखती तो कभी उनमें ज्यादा चतुराई, अति महत्वाकांक्षा और परले दरजे का अवसरवाद नजर आता रहा. उनके बारे में यह भी कयास लगाया जाने लगा कि अगले विधानसभा चुनाव आते-आते वह कहीं भाजपा के मददगार न बन जायें!
यह महज़ संयोग नहीं कि पिछले कुछ समय से भाजपा-एनडीए के बड़े नेता भी मांझी से खुश नज़र आते रहे. कभी प्रधानमंत्री मोदी तो कभी उमा भारती तो कभी पासवान ने उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े.
यह भी संयोग नहीं कि उनकी अपनी पार्टी में सवर्ण-सामंती छवि के नेताओं ने उनके पक्ष में मोर्चा संभाले रखा. इनमें महाचंद्र सिंह, ज्ञानेंद्र सिंह, रवीन्द्र राय जैसे लोग सबसे आगे हैं.
दलितों पर रवैया


एक सवाल उठना लाज़मी है, अगर मांझी सचमुच दलित-उत्पीड़ित अवाम के हमदर्द रहे हैं, तो बिहार में ऐसे समुदायों के लिए चले कार्यक्रमों के प्रति उनका रवैया क्या था?
शायद ही इस बात पर किसी तरह का विवाद हो कि बिहार जैसे राज्य में भूमि-सुधार दलित-उत्पीड़ित समुदायों के पक्ष का सबसे प्रमुख एजेंडा है. आजादी के तुरंत बाद ही बिहार में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करने की कोशिश की गई.
लेकिन ताकतवर नेताओं की एक लाबी ने इसे नहीं होने दिया. क्या जीतनराम मांझी के ‘दलित-एजेंडे’ में भूमि सुधार जैसा अहम मुद्दा शामिल है? क्या अब तक के अपने कार्यकाल में मांझी ने भूमि सुधार की बंदोपाध्याय रिपोर्ट को पटना सचिवालय की धूलभरी आलमारियों से बाहर निकालने की एक बार भी कोशिश की?
अगर नहीं, तो कहां है उनका दलित-एजेंडा? दलित-एजेंडा सिर्फ भाषणबाजी नहीं हो सकता! ऐसी भाषणबाजी तो दलित समुदाय से आने वाले पहले के नेता भी करते रहे हैं. क्या अमीरदास आयोग को फिर से बहाल करने के बारे में कभी विचार किया?
इसका गठन कुख्यात रणवीर सेना के राजनीतिक रिश्तों की जांच के लिए हुआ था लेकिन भूस्वामी लाबी के दबाव में पूर्ववर्ती सरकार ने उस आयोग को ही खत्म कर दिया.
राज्य के मुख्यमंत्री और दलित नेता के तौर पर मांझी की बड़ी परीक्षा शंकरबिघा हत्याकांड के सारे अभियुक्तों के स्थानीय अदालत द्वारा छोड़े जाने के फैसले पर भी होनी थी.

क्यों ख़ामोश रहे मांझी?

शंकरबिघा गांव में सन 1999 के दौरान रणवीर सेना सेना की अगुवाई में 24 दलितों की हत्या की गई थी. कुछ समय पहले लक्ष्मणपुर बाथे कांड में भी ऐसा ही हुआ था. उस कांड में 58 दलित मारे गये थे. पर अदालत ने सबको बरी कर दिया.
शंकरबिघा और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे हत्याकांडों को लेकर वह क्यों खामोश रहे? पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियों के स्तर पर इस तरह के मुकद्दमों से जुड़ी पड़ताल आदि में कितनी लापरवाही की गई होगी, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं.
बहुत संभव है, यह ‘लापरवाही’ योजना के तहत की गई हो. मांझी सरकार अमीर दास आयोग की बहाली या इस तरह की कोई और पहल कर सकती थी. पर अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ.
मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों सरकारी सम्मेलन कक्ष में राज्य के दलित-आदिवासी अफसरों की एक ‘गोपनीय बैठक’ को संबोधित किया.

फ़ायदा या नुकसान



सवाल है, संवैधानिक ढंग से निर्वाचित एक मुख्यमंत्री कुछ समुदाय विशेष से जुड़े अफसरों की ‘गोपनीय बैठक’ क्यों संबोधित करता है?
ऐसे में, आज जब विधानसभा चुनाव को महज कुछ महीने रह गये हों, मांझी को बनाये रखना जद(यू)-राजद के नज़रिये से न केवल आत्मघाती होगा बल्कि भाजपा को मुंहमांगा मौका देने जैसा होगा.
जिस सियासी-समूह का कप्तान स्वयं अपने प्रतिद्वन्दी समूह के प्रति उदार और सहानुभूति वाला दिखे, वह भला चुनावी-रणक्षेत्र में कैसा प्रदर्शन कर सकता है!
ऐसे में नीतीश-शरद वही करना चाहते हैं जो उन्हें करना चाहिए. लेकिन एक पेंच है. राजभवन का, जहां भाजपा के एक पूर्व नेता विराजमान हैं.
अगर मांझी ने स्वेच्छा से इस्तीफा देकर नीतीश के शपथग्रहण का रास्ता तैयार नहीं किया तो कुछ मुश्किलें जरूर पैदा हो सकती हैं. पर संविधान इस बारे में साफ है, विधायक दल में बहुमत वाले नेता की बात ही निर्णायक होती है.
बहुमत का फैसला शनिवार को होना है. और बहुमत नीतीश के साथ नज़र आता है.

सोमवार, 5 जनवरी 2015

जिस मिशन के तहत ये नेता पैदा हुए थे

अभी एक खबर आयी है की ; (निचे के लिंक पर देख सकते हैं)
http://www.bhaskar.com/news-htup/UP-LUCK-rebellion-bahujan-samaj-party-imposed-mayawati-take-money-party-denies-4862866-PHO.html
"बगावत: सांसद के बाद विधायक ने भी माया पर लगाया पैसे लेने का आरोप, बसपा ने किया खारिज"
 जिस मिशन के तहत ये नेता पैदा हुए थे
अब सवाल इस बात का नहीं है बल्कि इस बात का है कि जिस मिशन के तहत ये नेता पैदा हुए थे उनमें क्या  इस तरह के प्रतिनिधियों की कोई जगह थी, लेकिन किसी न किसी कारण ये लोग आये, जब ये आये थे तो क्या उसी मिशन के लिए आये थे, जिसको लेकर बाबा साहब, राम मनोहर लोहिया, फुले या मान्यवर कांशी राम राजनैतिक चेतना की कड़ी खड़ी की थी या जोड़ी थी ! हम अभी भूले नहीं है ! बल्कि हमें याद  रखना  भी चाहिए हम उसी पीढ़ी के हैं जिस पीढ़ी ने मान्यवर कांशी राम को देखा है, और उनका अंत देखा है, अब उनकी सोच और मान्यताओं के विनाश की लीला देख, पढ़ और सुन रहे हैं। यह तथ्य सही हैं की दलित और पिछड़े एक साथ आते और उनके प्रबुद्ध लोग राज्य की नीति तय करते तो सदियों के लड़े आंदोलन को नई दिशा मिलती लेकिन हुआ इसके उलट. जिनको जनता ने दूर किया था उनको इन्होने सत्ता मद में गले लगाया। ये ! ये भूल गए की इनका आरोहण किस कार्य के  लिए हुआ है। 
दलितों और पिछड़ों का दुर्भाग्य यही है जितना उन्हें औरों ने बर्बाद किया था उससे ज्यादा कहीं न कहीं उनके अपनों ने नाश किया है। चिंतकों विचारकों और बुद्धजीवियों की तो इन्होने इस कदर अनदेखी की है कि वे कभी सर न उठा सकें। घटिया से घटिया इनका "सर्वजन" इनके सामजिक व् राजनैतिक हितों का समायोजन इनके विनाश का कारण बना है और अभी भी इनका मोह नहीं छूट रहा है। 
(आपको याद होगा मैंने मायावती जी की उत्तर प्रदेश में स्थापत्य कला के उत्थान के लिए प्रशंसा की थी लेकिन ये आशंका भी की कहीं यह इनके विनाश का कारण न बन जाय और नव पाखंडवाद इन्हे अपनी देवी बना ले "दौलत की देवी") सामाजिक सरोकारों में संघ ने मोदी को उतार कर सारे सामाजिक ढांचे के आंदोलन को ध्वस्त कर दिया है, जिसके प्रतिरोध के लिए जो गठजोड़ बन रहा है (मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नितीश कुमार एवं देवे गौड़ा व् अन्य कौन है ये आप इन्हे जानते हैं पहले ये सारे ताने बाने को तोड़ने वाले और सॅकट में एक साथ होने के लिए अभिशप्त) जो मोदी की आंधी को रोकने में कितना कामयाब होगा उसका परिणाम तो जनता को भी पता है ? मुझे तो यह भी लगता है की उक्त गठवन्धन कहीं मोदी के उत्थान के लिए सहायक न हो जाय ! 
यदि ऐसे ही सब कुछ बढ़ता रहा तो कल मायावती को भी इनके साथ आना होगा जिससे इनके "सामजिक शकल" की चुटकी लेते हुए " मोदी जी " घूम घूम कर यही कहेंगे कि  जब हम पिछडो दलितों के उत्थान के लिए काम करने की योजनाएं तैयार कर रहे हैं तो ये सब उसे रोकने के लिए "एकजुट" हो रहे है. इसपर दलित पिछड़े सब हिन्दू होते नज़र आएंगे और 'गठबंधन' के 'सर्वजन' घुन की तरह इन्हे और खोखला बना रहे होंगे ?    
-डॉ लाल रत्नाकर 
चिंतक, प्राध्यापक, चित्रकार, मूर्तिकार, कवि, राजनीतविद  और सामजिक कार्यकर्ता।
......................................

अब देखिये न क्या कर रहे हैं लोग ;
http://www.lucknow.amarujala.com/feature/politics-lkw/ex-dgp-brijlal-joins-bjp-shocks-mayawati-hindi-news/

निर्मल जी की चिंता बृजलाल जी के बीजेपी में जाने पर ।
डा.लाल रत्नाकर 
..............................
भाई निर्मल जी कौन कहां जा रहा है यह देखने की वजाय यह देखिये क्यों जा रहा है ।
क्या वास्तव में आप जहां भी हैं सन्तुष्ट हैं ।
यदि नहीं तो कारण नहीं पूछूंगा ?
वास्तव मे हम जिसके लिये संघर्ष कर रहे है वह कितना तैयार हो रहा है।
यही चिन्ता हमें दलित्व और नपुंसकत्व पिछडेंपन और पीछे रहने को बाध्य करती है।
फिर आपकी व्यथा वाजिब नहीं लगती ।
आज तक हमने जितनों को खडा किया सब विरोध में खडे हैं। उनका स्वार्थ जो है ।
अत: राजनेतावों को तो आप देखते तो है कि बीजेपी,कांगेर्सी, कम्युनिस्ट कैसे घेर लेते हैं तब भी मुखर होकर कहते नहीं हम क्योंकि भय लगता है ।
यही कारण है हम डरते हैं और वे नहीं ।
आपको कभी वे स्वीकृति नहीं देते आप धन्य हो जाते हो उनके आने से ।
हम नित्य भोगते हैं सद्दकर्म के विचार से वे हमें अविश्वसनीय बनाते हैं अपनों से ।
शायद इसी भोग के लिये गये हों।
  

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

आदरणीय नेता जी

आदरणीय नेता जी

आपके जन्मदिन की  शुभ  कामनाओं के रिटर्न गिफ्ट के रूप में आपसे आग्रहितः श्री चन्द्रभूषण सिंह यादव जी के पत्र के समर्थन में:-जहाँ तक मैं आपको जानता हूँ आप हमेशा इस बात का ध्यान रखते रहे हैं पर जब पिछड़ों के आपके समर्थक लूट में मशगूल होंगे तो आपसे नीति के बात नहीं करेंगे ऐसा मुझे एहसास है पर मैं जानता हूँ यदि आपसे समाज के सुधि लोग मिलें और निचे लिखी बातों को तथ्यात्मक तरीके से रखें तो आप उन्हें अक्षरसः उसका अनुपालन कराएंगे, ऐसा मेरा विश्वास है.
इसी विश्वास को पुख्ता करने के लिए आपसे आग्रह है की आप इनका  अनपालन  अवश्य कराएंगे। 
सादर 
आपका 
डा. लाल रत्नाकर


(आज माननीय श्री मुलायम सिंह यादव जी का 76 वाँ ज दिन है। नेताजी को जन्म दिन की बधाई एवं चिरायु,शतायु और स्वस्थ जीवन की कामना।

आज नेताजी अपना जन्मदिन मना रहे हैं और ऐसी परम्परा है कि जन्म दिन पर उपहार या दान बांटा जाता है। मै एक पिछड़े वर्ग का नागरिक होने के कारण नेताजी से पिछड़ों के लिए उनके जन्मदिन पर एक याचक बनकर कुछ मांगना चाहता हूँ-)

आदरणीय नेताजी।
सादर अभिवादन।

आपके स्वस्थ दीर्घ जीवन की कामना के साथ अनुरोध है कि हमारी शरीर अजर-अमर नही है अपितु हमारे विचार और कार्य अजर-अमर हैं।सत्ता चिरस्थायी न होती है और न हमारे यश-कीर्ति को चिर स्थायी बनाती है। हम चिर स्थायी अपने कार्यो और बिचारो से बनते हैं। 

नेताजी!
सत्ता रहने पर बहुत सारे स्वार्थी लोग जय-जयकार करते दीखते हैं पर सत्ता खत्म होते ही वे पुनः नई सत्ता प्रमुख का जय-जयकार करते दीखते हैं। हम इन क्षणभंगुर समर्थको के मोहपाश में बंधकर अगर अपने वर्गीय हित को चोट पहुंचाते हैं तो निश्चय ही हमे आने वाली पीढियां माफ़ नही करेंगी तथा हमारा इतिहास नही बनेगा। 

नेताजी! 
गाँधी,अम्बेडकर,लोहिया,हेडगेवार,सावरकर,दीनदयाल उपाध्याय,फुले,पेरियार,गाडगे,शाहूजी महाराज,कबीर,नानक आदि अन्यान्य लोग कभी सत्ता में नही रहे पर अपने निश्चित विचारो के कारण अमर हैं। वी पी सिंह,कर्पूरी ठाकुर,रामनरेश यादव एवं मंडल साहब को पिछड़ा तब तक याद रखेगा जबतक आरक्षण रहेगा और वह उसका लाभ पाता रहेगा जबकि इन लोगों को बहुत गलियां खानी पड़ी हैं।

आदरणीय नेताजी! 
आज उत्तर प्रदेश की सत्ता आपके हाथों में है। यदि आप चाहे तो अमर भी हो सकते हैं और पिछड़े-वंचित लोगो का कल्याण भी कर सकते हैं। आज इतिहास पुरुष बनने का अवसर आपके दरवाजे खड़ा है, बस उसे दिशा देने की जरूरत है।

नेताजी!
देश का पिछड़ा नेतृत्व विहीन है। यदि आपने मंडल साहब की सिफ़ारिशो के मुताबिक पिछड़ों के लिए सम्पूर्ण शिक्षा मुफ्त कर उनके छात्रावास,भोजन,वस्त्र,किताब,वजीफा और कोचिंग का इंतजाम कर दिया तो तय मानिये मोदी का हिंदुत्व एजेंडा चकनाचूर हो जायेगा और सम्पूर्ण (हिन्दू-मुस्लिम) पिछड़ा अगले पांच वर्ष में सडकों पर डाक्टर,इंजीनियर,प्रोफेसर,कलक्टर,कप्तान आदि के रूप में नजर आएगा। 

नेताजी 
मंडल साहब ने अपनी सिफारिशों में यह भी कहा है कि प्रोन्नति में आरक्षण ग्राह्य बनाया जाय तथा प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण दिया जाय। 

नेताजी!
यदि यह अनुशंसा लागू हो गयी तो हमारा भूल सुधार भी हो जायेगा और पिछड़ों का उद्धार भी।

नेताजी!
सभी ठेकों में पिछड़े-दलितों को आरक्षण देने के साथ जातिवार जन गड़ना व महिला आरक्षण में पिछड़े-दलित महिलाओं को आरक्षण की मांग को इशू बनाके सपा प्रदेश में अभियान छेड़ दे तो देखिएगा मोदी साहब का हिंदुत्व केवल अभिजात्य वर्गों में सिमट के रह जायेगा। 

नेताजी! 
कहावत है कि"आधी छोड़ पूरी पर धावे,आधी मिले न पूरी पावे",हमारा आधार पिछड़ा है,सोशलिस्टों का प्राण पिछड़ा है और पिछडो की अपेक्षा आप और समाजवाद से है इसलिए मृग मरीचिका में जीने की बजाय यथार्थ समझना चाहिए और पिछले लोकसभा और नगर पालिका,नगर निगम आदि के चुनाव परिणामो को देखकर समझना चाहिए कि अभिजात्य वर्ग कभी भी हमे स्वीकार नही करता है इसलिए हमे भ्रम में पड़े बिना सम्पूर्ण पिछड़े समाज के हित में कार्य करने का संकल्प लेना चाहिए।

नेताजी!
यदि आज जन्म दिन पर ऐसा कोई संकल्प पिछडो के हित में आपने ले लिया तो निश्चय मानिये कि आप इतिहास में अमर भी हो जायेंगे और आगे सत्ता की राह भी आसान हो जाएगी तथा पिछड़े कुछ पा भी जायेंगे लेकिन तय मानिये यदि वर्तमान स्थिति में अपेक्षित सुधार नही हुआ तो पिछड़े दुर्दशाग्रस्त तो रहेंगे ही,इतिहास आपको भी माफ़ नही करेगा और जब भविष्य में पिछडो के प्रति आपकी भूमिका की समीक्षा होगी तो समीक्षक आपके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखेंगे इसलिए अपना इतिहास बनाइए और इतिहास हो चुके पिछड़ों का भविष्य।

नेताजी!
उम्मीद है मेरी बात आप तक पहुंचेगी और और आप इस दिशा में सोचेंगे। यदि मेरी राय गलत लगे तो क्षमा करेंगे।
एक बार फिर जन्म दिन की बधाई और आपके शतायु होने की कामना।

सादर।

आपका शुभचिंतक-
चन्द्रभूषण सिंह यादव

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

मंथन ;


हाँ!मंडल से हो सकती है कमंडल की काट 

एच एल दुसाध 

सोलहवीं लोकसभा चुनाव बाद जिस तरह मोदी की सुनामी में सामाजिक न्याय की राजनीति जमींदोज हुई है उससे बहुजन समाज के जागरूक लोग उद्भ्रांत हैं.उन्हें समझ में नहीं आ रहा है यह पटरी पर आएगी तो कैसे!.ऐसी निराशाजनक स्थिति में बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और जद(यू) के नीतीश कुमार के बीच जो राजनीतिक खिचड़ी पक रही है,उससे सम्पूर्ण भारत में सामाजिक न्याय के समर्थकों में नए सिरे से उत्साह का संचार हुआ है.इसमें मुख्य भमिका में हैं लालू प्रसाद यादव,जो नीतीश के संकटमोचक बनकर सामाजिक न्याय की राजनीति की सम्भावना के नए द्वार खोल दिए हैं.
14 जून को बीजेपी से त्रस्त नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी की दाव पर लगी साख को बचाने तथा अपने राजनीतिक कैरियर पर आये संकट से उबरने के लिए खुलेआम अपील की कि ,‘लालू प्रसाद जी राज्य सभा में जद(यू)उम्मीदवारों का समर्थन करें ताकि जीतन माझी सरकार को अस्थिर करने की बीजेपी की साजिश नाकाम हो जाय’.जिस नीतीश ने 20 साल पहले लालू की खिलाफत करते हुए अपने राजनीतिक कैरियर को बुलंदी पर पहुँचाया,सोलहवीं लोकसभा चुनाव बाद बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में उन्हें उन्ही के समक्ष झुकने के लिए बाध्य कर दिया.मौका माहौल देखते हुए लालू ने भी उन्हें निराश नहीं किया और 18 जून को उनकी पार्टी के 21 विधायकों ने जद (यू) के दो उम्मीदवारों को अपना समर्थन दे दिया जिससे जीतन सरकार पर आया संकट टल गया.लालू की संकटमोचक भूमिका के आभार तले दबी माझी सरकार ने प्रतिदान स्वरूप 19 जून से 1 जुलाई के बीच भारी प्रशासनिक फेरबदल करने के साथ ही सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को 6 निजी सहायक रखने की स्वीकृति दे दी.इससे सर्वाधिक लाभ लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी को मिला.
दरअसल 18 वीं लोकसभा चुनाव में जिस तरह लालू –नीतीश की पार्टी मोदी की सुनामी में उड़ी है,उससे एक दूसरे के निकट आना दोनों की मज़बूरी बन गयी है.दोनों को इस बात का इल्म है कि गत लोकसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्ववाली राजग ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए कुल 39 प्रतिशत अर्थात 1.3 करोड़ वोट ही हासिल किये.वहीँ राजग के मुकाबले राजद-कांग्रेस को 1.2 करोड़ और जद यू को 61 लख वोट मिले,जो कुल वोट का 47 प्रतिशत था.अगर राजद-जद (यू) और कांग्रेस-एनसीपी साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो गैर-राजग की सीटें 9 के बजाय 28 होतीं.इस चुनावी गणित को ध्यान में रखकर ही लालू-नीतीश चुनावी तालमेल की ओर बढ़ रहे हैं.उनका यह तालमेल दम तोड़ती सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए कितनी प्रभावी होता है इसका परीक्षण बिहार में निकट भविष्य में अनुष्ठित होने जा रहे 10 विधानसभा उप-चुनाव में हो जाएगा.
लालू-नीतीश की निकटता को लेकर बहुजन समाज के जागरूक लोग अभी से दूरगामी परिणाम का सपना देखने लगे हैं.उनका ख्याल है कि दोनों की बढती एकता यदि सामाजिक न्याय की राजनीति में नई जान फूंकती है तो उसका असर यूपी पर पड़ेगा जिससे सामाजिक न्याय की राजनीति के दिन बहुरने में देर नहीं लगेंगे.सामाजिक न्याय की राजनीति की नई संभावना का द्वारोन्मोचन करने वाले उसी लालू प्रसाद यादव ने एक नई बात कहकर उसकी सम्भावना को और उज्ज्वलतर कर दिया है.
उन्होंने कुछ दिन पूर्व यह कहकर सनसनी फैला दी कि कमंडल की काट मंडल से ही हो सकता है.उन्होंने मंडलवादी राजनीति को हवा देने के लिए यह मांग भी उठा दिया कि सरकार सरकारी ठेकों और निजी क्षेत्र सहित तमाम विकास योजनाओं में दलित,आदिवासी,पिछड़े,अतिपिछड़ों और अकलियतों को 60 प्रतिशत आरक्षण दे.साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकार संसाधन और तकनीकि जानकारी सुलभ कराये.इसके लिए उन्होंने अपने समर्थकों के समक्ष सड़कों पर उतरने का भी आह्वान कर डाला.उनकी घोषणा जहां राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता पाई वहीँ सोशल मीडिया पर भारी स्वागत हुआ.काबिले गौर है कि लोकसभा चुनाव-2009 में हार के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इसी तरह 25 जून,2009 को यूपी के हर प्रकार के सरकारी ठेकों में 23 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की घोषणा किया था.किन्तु उनसे गलती यह हुई कि उन्होंने वह आरक्षण सिर्फ एससी/एसटी के लिए घोषित किया था.शुक्र है कि लालू प्रसाद यादव ने मायावती वाली गलती नहीं दोहराया.खैर!बिहार में लालू प्रसाद यादव ने जो पहलकदमी की है उसे राजनीतिक विश्लेषक जातिवादी राजनीति के नए सिरे से उभार के रूप में देख रहे हैं.बहरहाल हिंदी पट्टी के यूपी-बिहार में लालू प्रसाद यादव की यह पहलकदमी क्या रंग लाती है,यह तो भविष्य के गर्भ में है.किन्तु इसमें कोई शक नहीं कि शर्तियातौर पर कमंडलवादी राजनीति की काट मंडलवादी राजनीति ही हो सकती है. 
मंडल की राजनीति की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि इस दौर में वर्ण-व्यवस्था के वंचितों की जाति चेतना के चलते जहाँ जन्मजात सुविधासंपन्न वर्ग के लोग राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हुए,वहीँ साधारण पृष्ठभूमि से उभरे माया-मुलायम,लालू-पासवान-नीतीश इत्यादि राजनीति में सुपर स्टार की हैसियत का उपभोग करने लगे.मंडल उत्तरकाल में शक्ति के स्रोतों से सदियों से वंचित किये गए लोगों की बेहतरी के लिए कुछ कहना/करना मीडिया द्वारा ‘जातिवाद’के रूप में निन्दित रहा.15 वीं लोकसभा चुनाव के आते-आते जाति चेतना के चलते महाबली बने लोग पीएम बनने के लोभ में ‘जाति-मुक्त’ कहलाने की कसरत करने लगे.इसके तहत वे जहाँ ‘तिलक तराजू...’और ‘भूराबाल ...’जैसे नारों से पल्ला झाड़ने लगे, वहीँ प्रभुजातियों के गरीबों को आरक्षण दिलाने के लिए एक दूसरे से प्रतियोगिता भी करने लगे.उनके इस भावांतरण से खिन्न वंचित जातियों ने 15वीं लोकसभा चुनाव में उनसे मुंह मोड़ लिया.अगर माया-मुलायम-लालू इत्यादि ने उस हार से सबक लेकर सोलहवीं लोकसभा चुनाव में दलित,पिछड़े,अल्पसंख्यकों इत्यादि के लिए ठेकों के साथ निजी क्षेत्र की नौकरियों,सप्लाई,डीलरशिप इत्यादि समस्त आर्थिक गतिविधियों में ही वाजिब हिस्सेदारी की मांग उठाया होता,केंद्र के सत्ता की बागडोर निश्चय ही कमंडलवादियों के हाथ में नहीं जाती.ऐसे में बहुजन नायक/नायिका यदि नए सिरे से जातिवादी अर्थात मंडलवादी राजनीति को हवा देते हैं,कमंडलवादी राजनीति को जमींदोज होते देर नहीं लगेगी.
स्मरण रहे मंडल आयोग की रपट घोषित होते ही बहुजनो में जो ‘जाति चेतना’ का लम्बवत विकास हुआ,’धार्मिक चेतना’ द्वारा उसकी काट के लिए ही संघ परिवार व उसके राजनीतिक संगठन भाजपा ने राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन की शुरुआत की .इस आन्दोलन को महान भाजपाई अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वाधीनोत्तर सबसे बड़ा आन्दोलन कहकर प्रशंसा की थी.राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के जरिये देश की हजारो करोड़ की सम्पदा और असंख्य लोगों की प्राण-हानि करा कर ही संघ का राजनीतिक एकाधिक बार केंद्र की सत्ता पर कब्ज़ा जमाया.किन्तु जाति चेतना के राजनीतिकरण की काट के लिये जिस भाजपा ने धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण का अभियान चलाया,वह भाजपा धार्मिक चेतना के अभियान को कभी मंद नहीं पड़ने दी.पर,बहुजन नायक/नायिका पीएम बनने की लालच में जाति चेतना के अभियान से दूर हटते गए.अगर संघ के धार्मिक-चेतना अभियान से सबक लेते हुए जाति –चेतना के राजनीतिकरण को बलिष्ठतर करने का निरंतर प्रयास किया होता,आज सत्ता की बागडोर किसी आंबेडकरवादी या लोहियावादी के हाथ में होती.किन्तु देर आये,दुरुस्त आये की नीति अनुसरण करते हुए यदि अब से भी लालू-नीतीश,माया-मुलायम जाति चेतना के राजनीतिकरण में सर्वशक्ति लगाते हैं सदियों के विशेषाधिकारयुक्त और सुविधाभोगी कमंडलवादियों के लिए राज-सत्ता दूर मृग-मरीचका बनकर रह जाएगी.
दिनांक:18 जुलाई,2014..(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.) 

सोमवार, 14 जुलाई 2014

मंथन

भारतीय जनता पार्टी और डॉ. उदित राज

-ईश्वरी प्रसाद

उदित राज ने एलान किया है कि दलित समुदायों के लिए समय आ गया है कि वे भारतीय जनता पार्टी में शरीक होकर अपनी मौलिक स्थिति और मानवीय गरिमा को हासिल करें। यह एक सनसनी खेज घोषणा है। प्रचलित धारणा है कि भाजपा का संवैधानिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसका लक्ष्य भारत में रूढ़िवादी-ब्राह्मणवादी प्रतिक्रियावादी राष्ट्रीय व्यवस्था को स्थापित करना है। यह दलित राजनीति के लक्ष्यों के विपरीत है जो श्रम की श्रेष्ठता को स्थापित कर देश के सारी आजादी को सम्मान नागरिकता का दर्जा दिलाना चाहता हैं। इसलिए उदित राज के बयान को देश के ऐतिहासिक अनुभव की पृष्ठिभूमि में मूल्याँकन किया जाना चाहिए। दलितों के संदर्भ में देश को बहुत सारे कड़वे अनुभव हैं पहला, इस देश में दलितों को हजारों वर्षों से उपेक्षित और वंचित रखा गया है।

लेकिन जातिप्रथा आधारित जो घोषणा व्यवस्था कायम की गयी, वह अद्वितीय, स्थायी और कठोरतम है। आज तक इस व्यवस्था को तोड़ने की कोई निर्णायक क्रांति नहीं हुई। इसके खिलाफ होने वाले विद्रोहों को अपने में पचा लेने की भारत की जाति प्रथा में असीम क्षमता हैं। दूसरा, महात्मा ज्योतिबा फूले से चलता आ रहा दलित संघर्ष बाबासाहेब अम्बेदकर और कांशीराम से होता हुआ मायावती तक पहुँचा है। अम्बेदकर का दलित विद्रोह और कांशीराम का बहुजन आज ब्राह्मणवादियों के भरोसे मायावती का दलित हुजूम आगे बढ़ रहा है। दलितों की स्वतंत्र ताकत को मायावती ने समाप्त कर दिया है। 
तीसरा, भाजपा की सरकार ने भी दलितों के लिए कुछ नहीं किया। वाजपेयी ने बैंकटैया कमीशन (2002) और भूरिया कमीशन (2004) में गठित किया था। लेकिन इसके सिफारिशों पर कभी अमल नहीं हुआ। भाजपा जब सŸाा में आती है तो शहरों का विकास और परम्परागत समाज पर जोर दिया जाता है। इस तथ्यों के बावजूद भी उदित राज ने बीजेपी में भरोसा जताया है, इसका मुख्य वजह ऐसा लगता है कि ब्राह्मणवादी कारण होना तथा नरेन्द्र मोदी में नये राष्ट्र के निर्माण की संभावना मालूम पड़ रही है। जरूरत है उनके इस घोषणा पर गहराई से विचार हो।
 उदित राज को शुरु से ही कुछ जाति समूहों के सामाजिक जीवन के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने की तमन्ना रही है। इसीलिए उन्होंने सरकारी नौकरी के ऊँचे ओहदे को छोड़कर 2003 में एक ‘इंडियन जस्टिस पार्टी’ की स्थापना की। उन्होंने महसूस किया कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त किए बिना देश गौरवशाली नहीं हो सकता। यहाँ के मनीषियों ने ऐसा समाजिक ढाँचा की स्थापना की जिसकी कई विशेषताएं हैं। शारीरिक श्रम की अवहेलना, समाज के क्रिश्चियन मानवीय समूहों को खास व्यवसाय से बाँधना और हर व्यक्ति के सामाजिक स्थान को उसके जन्म से निर्धारित करना। भारत के पारम्परिक जीवन में सड़ रही चीजें बदल सकती है लेकिन उसका ओहदा और व्यवसाय नहीं। दुनिया मे ंअन्याय के अनेक तरीकों का उदाहरण हैं लेकिन भारत के मनीषियों ने जिस सामाजिक व्यवस्था का अनुसंधान किया, वह चिर स्थायी और अ़िद्वतीय है। उदित राज का संकल्प है कि श्रम की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया जाय और यहाँ की पूरी आबादी को लोकतंत्र के तहत समान नागरिकता का दर्जा दिलाया जाय। उनके लक्ष्यों को किसी के भाषा में यों रख सकते हैं-
हम मेहनतकश जग वालों से अब अपना हिस्सा माँगेेगे!!
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेगे!!
ऐसे विचार वाले उदित राज के वर्तमान राजनीतिक विचार को इसी परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाना चाहिए। कहाँ तक उनका विचार-दलितों को बीजेपी में शामिल कराने में सफल होगा, इस पर चर्चा होनी चाहिए। उदितराज एक देशभक्त है। इनकी देशभक्ति सुधारवादी, मानवतावादी और मेहनतकशवादी है।
 लोकसभा के चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्रमोदी ने अपने राजनीतिक चरित्र का जो प्रदर्शन किया, उससे दलितों और पिछड़ों को एक नये भारत की उम्मीद बनी है। पिछले 70 वर्षों से चलता आ रहा भारत नीचली जातियों के लिए एक झूठा सपना के सिवा कुछ नहीं था। दबे लोगों को एक नया भारत के निर्माण की सम्भावना मोदी के भाषणों में महसूस हुआ है। भारत के विकास के मानचित्र में किसानों द्वारा आत्महत्या, भष्टाचार का अन्तहीन स्वरूप आर्थिक गैरबराबरी का बढ़ता दायरा और काले धन का 5 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 50 प्रतिशत होना गरीबों और नीचली जातियों के लिए शोषण का औजार बना हैं। मोदी के भाषणों ने दो स्तरों पर दलितों और पिछड़ों को अपनी और आकर्षित किया। पहला,, मोदी स्वयं ही मेहनतकश परिवार से आते हैं। चाय बेचकर जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति दलितों के जीवन से एकाकार हो सकता है। काँग्रेस वालों ने चाय बेचने वाले की यह कहकर खिल्ली उड़ाई कि निचली जाति से आया व्यक्ति प्रधानमंत्री की गद्दी कैसे सम्भाल सकता है। कुछ नेताओं ने उसे नीच कहकर भी संबोधित किया।
 दूसरा, मोदी ने अपने भाषणों में कहा कि आने वाला दशक दलितों और पिछड़ों के लिए सम्भावनाओं से भरा बना होगा। यद्यपि भाजपा के घोषणा पत्र में इस आशय पर कोई जोर नहीं था। दलितों को लगा कि यदि यह प्रधानमंत्री हुआ तो यह भाजपा से हटकर उनके लिए काम करेगा। इसीलिए नारा बुलंद किया ‘अबकी बार, मोदी सरकार’। कुछ भाजपा के नेताओं ने मोदी की लहर को भाजपा लहर बताया, ये गलत था। लोगों में मोदी के प्रति आस्था बनी रही। नतीजतन 272 के लक्ष्य के जगह पार्टी को 282 का आँकड़ा हासिल हुआ। 
 भारत का संविधान निकम्मा साबित हुआ है। संविधान ने अछूतप्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। इसके पालन के लिए कानून भी बनाए गए हैं। लेकिन यह प्रथा 70 वर्ष के बाद आज भी चल रही है। हर्ष मान्दर ने एक लेख में लिखा है -‘दस राज्यों में ग्रामीण इलाके के ये अछूत प्रथा के अध्ययन के दौरान हमलोगों ने पाया कि आज भी तीन में से एक और कहीं-कहीं तो दो में से एक स्कूल में दलित बच्चों को क्लास में पीछे अलग बैठाने के लिए तथा दूसरी पंक्ति में अलग थाली में खाना खाने के लिए बाध्य किया जाता है। कुछ शिक्षक इन बच्चों से फर्श और शौचालय भी साफ कराते हैं जो ऊँची जाति के बच्चों से नहीं कराये जाता। ’अछूत प्रथा का प्रचलन का आलम यह है कि महाराष्ट्र के शारदा गाँव के 17 वर्ष के दलित बालक की हत्या इसीलिए हुई कि वह ऊँची जाति की एक लड़की से बात करने की हिम्मत की थी। यह संविधान की कमजोरी थी कि उसने अछूतपन को तो गैर कानूनी किया लेकिन जातिप्रथा को अक्षूण्ण रखा, उसे गैर कानूनी घोषित नहीं किया। यह एक धोखा था कि संविधान व्यक्ति और राष्ट्र से सीधा सम्बंध मानता है लेकिन इन दोनों के बीच के जाति प्रथा के चरित्र को छोड़ दिया। इसी के साथ न्याय व्यवस्था के खोखलापन का खुलासा पटना हाईकोर्ट के 16 अप्रैल 2012 के फैसला से होता है। बिहार के जहानाबाद के बयानी टोला मे ं23 दलितों की नृशंश हत्या हुई थी। यह सवर्ण जाति के रणवीर सेना द्वारा हुआ था। इसमें 11 महिलाएँ, 6 बच्चे और 4 जवान मारे गए थे। पटना हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को निर्दोष करार देकर रिहा कर दिया।
 आजाद भारत के कर्ताधर्ता ने भारत के नवनिर्माण की योजना बनायी। इस योजना का नाम समाजवादी रखा गया और लक्ष्य गरीबी दूर कर देश की सारी आबादी को नागरिक बनाना था। इसके लिए प्रचलित सेक्टर को विकास का अग्रदूत बनाया गया और उद्योगों की तरक्की के मारफत देश को पश्चिम के देशांे की तरह जातिविहीन और दरिद्रविहीन करने का सपना संजोया गया। उद्योगपतियों को सभी तरह की सुविधा मिली और कारखाने के मजदूरों को खाद्य पदार्थ की लगातार पूर्ति के लिए हरित क्रांति देश के एक हिस्से में किया गया। इस पार्टी की शासन व्यवस्था ने योजना आधारित विकास का तिरस्कार कर बाजार आधारित आर्थिक विकास को आगे बढाया। सब मिलाकर यह पूरा प्रयास पूँजीवाद को बढ़ाने वाला साबित हुआ है। साथ ही काँग्रेसी सरकार ने आर्थिक नवनिर्माण की सारी प्रक्रिया एक वर्गीय समाज के ढाँचें केा ध्यान में रख कर किया। यह सरासर गलत था। एक बड़ा अर्थशास्त्री प्रो. अशोक रूद्रा ने एक लम्बा लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि भारत का सामाजिक धरातल जाति व्यवस्था से बना है और इसकी समाप्ति के अभी कोई आसार नहीं हैं। उन्होंने लिखा है कि यदि यूरोप के इतिहास को जाति व्यवस्था के नजरिये से व्याख्या करें तो यह हास्यास्पद होगा। ठीक उसी तरह भारतीय व्यवस्था को वर्गीय फ्रेमवर्क में समझना गलत होगा। जाति प्रथा और सामन्तवादी प्रथा एक नहीं है। 
 पहला भारत में और दूसरा यूरोप में पाया जाता है। भारत के कर्णधारों ने इस देश के नवनिर्माण का रास्ता वर्गीय समाज के फ्रेम में पूँजीवादी व्यवस्था के मारफत ढूंढना चाहा जो गलत था। जातीय साम्राज्य के उपेक्षित समूहों को समान नागरिक बनाने के लिए निम्न प्रकार की संस्था और नीति की जरूरत होती है। सवर्ण जातियों की सŸाा पर एकाधिकार ने यह नहीं होने दिया। डॉ. अम्बेदकर जाति प्रथा को समाप्त करना चाहते थे, कांशी राम ने दलितों की पहचान और गरिमा के लिए जाति प्रथा की मजबूती पर जोर दिया था। विकास योजना का दलित विरोध होना लाजिमी है।
 दलितों द्वारा समान नागरिक का दर्जा हासिल करने के भारत की समसामयिक परिस्थिति में दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत हैं। पहला, दलितों का कोई ऐसा राजनीतिक संगठन जो इसके सदस्यों को एक सूत्र में बाँधकर अपनी खोयी हुई मानवीय गरिमा और नागरिक अधिकार के लिए निर्णायक संघर्ष के लिए एक जूट हो, ऐसा अभी सामने नहीं है। स्वार्थी दलित नेता यह नहीं कर सकते हैं। दूसरा, आज देश की पूरी राजनीति सिद्धांत विहीन है। इतिहास का अन्त तो नहीं हुआ है लेकिन भारत के तथाकथित प्रगतिशील लोग वर्गीय आंदोलन के मारफत दलितों के लिए समान नागरिकता का दर्जा नहीं दिला सकते हैं। इन परिस्थितियों में उदित राज का यह सूझाव कि दलितों को भाजपा में शामिल होना चाहिए, सकारात्मक सोच मालूम पड़ता है। पिछले 70 वर्षों के दौरान किसी पार्टी ने सामाजिक समता के लिए उपयुक्त योजना का पालन नहीं किया। शुरूआती दौर में काँग्रेस ने समाजवाद के नाम पर दलितों और पिछड़ों को धोखा दिया। बाद के दिनों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को गरीबों के खिलाफ किया है। समान नागरिक का स्तर दिलाने के लिए दलितों को न केवल बराबर का वोटिंग अधिकार चाहिए बल्कि आर्थिक और सामाजिक बराबरी भी चाहिए। काँग्रेस और भाजपा दो ही राष्ट्रीय पार्टियाँ है, इसीलिए भाजपा पर खास कर मोदी जैसे नेता के नेतृत्व में दलितों के पक्ष में भरोसा करना उपयुक्त है। उदितराज की यह राजनीतिक समसामयिक संदर्भ में ठीक है, अब निर्भर करता है कि मोदी किस हद तक अपने वादे को सफल बनाने में भाजपा को अपनी ओर राजी करते हैं। इस पर तुरत कोई प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं।
21 वीं शताब्दी दलितों के लिए अधिक नाजूक होने वाला है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, भारत की योजना है कि वह विश्व व्यवस्था में उŸारोŸार शरीक होता जाए। ऐसा करने से देश के विकास का ध्यान दलितों और गरीबों से हटकर बाहरी सम्पर्क में लगेगा। दूसरा, चारों ओर से जोर पड़ रहा है कि भारत जोरों से औद्योगिक विकास करे और दूसरे देशों की पूँजी का स्वागत करें। इसका मतलब है कि भारत पूँजीवादी व्यवस्था को सुदृढ करे। ऐसे में दलितों के पूर्णनिर्माण के लिए जिन संस्थाओं और नीतियों की जरूरत होगी, उसकी अनदेखी होगी। सामान्यतः यह माना जाता है कि आर्थिक विकास से लोकतंत्र मजबूत होता है। लेकिन अनुभव बतलाता है कि दोनों का सहयोग हर परिस्थिति में सामाजिक न्याय लाने में एकसाथ काम नहीं करता है। थोमस पीकेटी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘सौवीं शदीं में पूँजी’ में लिखा है कि ‘सही लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की अपनी-अपनी अलग संस्थाओं की जरूरत होती है। न तो बाजार व्यवस्था, न सिर्फ संसद और न ही दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाएं’ सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकती है। 
 अभी तक जितने सलाह नयी सरकार को मिल रहे हैं, वह पूँजी बढ़ाने और उत्पादन में इसे लगाने सम्बंधी है, मजदूरों, खासकर मेहनतकश जातियों का क्या होगा, इसकी कोई चिंता नहीं है। पिछली हजारों वर्षों का इतिहास है कि जाति प्रथा को नष्ट करने का कोई निर्णायक संघर्ष नहीं हुआ। आजाद भारत का अनुभव है कि दलित संगठन अकेले दलितों और पिछड़ों को समान नागरिकता का दर्जा नहीं दिला सकता है। क्योंकि इसके साथ आर्थिक गैर बराबरी को दूर करने का शर्त है। आगे आने वाले दिनों में आर्थिक गैर बराबरी बढ़ेगी और विकास का लाभ मेहनतकशों (मजदूरों) को न जाकर पूँजीधारकों को जाएगा। ऐसी परिस्थिति में यह उचित है कि दलित समूह मोदी जैसे भाजपा के नेता के साथ अपना सहयोग बढ़ाये।
 नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना भारत के इतिहास का एक नया मोड़ है। यह एक अप्रत्याशित घटना है। इसे नरेन्द्र मोदी ने अकेला सम्पन्न किया है। यद्यपि पार्टी की घोषणा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस चुनाव में मोदी ने अपने राजनीति के तहत एक लहर पैदा किया जिसको मोदी लहर कहते हैं। चुनाव का सर्वेक्षण करने वालों ने यह स्पष्ट एलान किया था कि कि लोगों का उत्साह मोदी के प्रधानमंत्री के सिवा दूसरा नहीं था। इसी परिप्रेक्ष्य में महात्मा गाँधी के पोता गोपाल कृष्ण गाँधी ने जो मोदी के विरोधी थे-मोदी को एक खुला पत्र में लिखा कि आपके लिए यह एक ऐतिहासिक विजय है जिसे देखकर दुनिया आश्चर्य चकित रह गई है। आपकी पार्टी के लोग भले न चाहे पर आपने जो प्रतिज्ञा लिया है, उसे अब पूरा करे। आपके मददगार आपके वादे को पूरा होते देखना चाहेंगे। आप संकल्प में महराणा प्रताप बने और शासन के कार्य में अकबर बने। यदि आपके लिए आवश्यक है तो आप अपने दिल में सावरकर रहे लेकिन दिमाग से अम्बेदकर रहे।’ देखना है कि मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ब्राह्मणवादी एजेंडा को आगे बढ़ाती है या दलितों, पिछड़ों और गरीबों को समान नागरिकता का हैसियत दिलाने के लिए कठोर और प्रभावी नीतियों को लागू करने में सफल होती है। अगर दलितों को समान नागरिक बनाने की दिशा मे ंउनका प्रयास रहा तो उदित राज का यह संकल्प कि दलितों को भाजपा में आना चाहिए, सही साबित होगा।

रविवार, 18 मई 2014

लोक सभा चुनाव: मायावती का दलित वोट बैंक खिसका


(के फेसबुक से साभार ) 
लोक सभा चुनाव: मायावती का दलित वोट बैंक खिसका
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं राष्ट्रिय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
हाल के लोक सभा चुनाव के परिणामों पर मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि उन की हार के पीछे मुख्य कारण गुमराह हुए ब्राह्मण,पिछड़े और मुसलमान समाज द्वारा वोट न देना है जिस के लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. इस प्रकार मायावती ने स्पष्ट तौर पर मान लिया है कि उस का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया है. मायावती ने यह भी कहा है कि उस की हार के लिए उसका यूपीए को समर्थन देना भी था. उस ने आगे यह भी कहा है कि कांग्रेस और सपा ने उस के मुस्लिम और पिछड़े वोटरों को यह कह कर गुमराह कर दिया था कि दलित वोट भाजपा की तरफ जा रहा है. परन्तु इस के साथ ही उस ने यह दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में उसकी पार्टी को कोई भी सीट न मिलने के बावजूद उस का दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं गिरा है. उस ने अपने वोट बैंक में इजाफा होने का दावा भी किया है. 
आईये उस के इस दावे की सत्यता की जांच उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर करें:- 
यदि बसपा के 2007 से लेकर अब तक चुनाव परिणामों को देखा जाये तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि पिछले 7 साल से जब से मायावती ने बहुजन की राजनीति के स्थान पर सर्वजन की राजनीति शुरू की है तब से बसपा का जनाधार बराबर घट रहा है. 2007 के असेंबली चुनाव में बसपा को 30.46%, 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.42% (-3.02%), 2012 असेंबली चुनाव में 25.90% (-1.52%) तथा 2014 के लोक सभा चुनाव में 19.60% (-6.3%)वोट मिला है. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के स्थिर रहने का दावा उपलब्ध आंकड़ों पर सही नहीं उतरता है.
मायावती का यह दावा कि उस का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक 2009 में 1.51 करोड़ से बढ़ कर 2014 में 1.60 करोड़ हो गया है भी सही नहीं है क्योंकि इस चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में बढ़े 1.61 करोड़ नए मतदाताओं में से बसपा के हिस्से में केवल 9 लाख मतदाता ही आये हैं . राष्ट्रीय चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भी बसपा का वोट बैंक 2009 के 6.17 % से 2% से अधिक गिरावट के कारण घट कर 4.1% रह गया है. सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के निदेशक संजय कुमार ने भी बसपा के कोर दलित वोट बैंक में सेंध लगने की बात कही है. 
मायावती का कुछ दलितों द्वारा गुमराह हो कर भाजपा तथा अन्य पार्टियों को वोट देने का आरोप भी बेबुनियाद है. मायावती यह अच्छी तरह से जानती हैं कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा चमारों सहित 2012 के असेंबली चुनाव में ही उस से अलग हो गया था. इस का मुख्य कारण शायद यह था कि मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुण्डों. माफियायों और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जो कि उनके वर्ग शत्रु हैं . इस से नाराज़ हो कर चमारों का एक हिस्सा और अन्य दलित उपजातियां बसपा से अलग हो गयीं. मायावती का बोली लगा कर टिकेट बेचना और दलित वोटों को भेड़ बकरियों की मानिंद किसी के भी हाथों बेच देना और इस वोट बैंक को किसी को भी हस्तांतरित कर देने की ताकत रखना दलितों को एक समय के बाद रास नहीं आया. इसी लिए पिछले असेंबली चुनाव और इस लोक सभा चुनाव में दलितों ने उसे उसकी औकात बता दी है.
किसी भी दलित विकास के एजंडे के अभाव में दलितों को मायावती की केवल कुर्सी की राजनीति भी पसंद नहीं आई है क्योंकि इस से मायावती के चार बार मुख्य मंत्री बनने के बावजूद भी दलितों की माली हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित बिहार. उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलितों को छोड़ कर विकास के सभी मापदंडों जैसे: पुरुष/महिला शिक्षा दर, पुरुष/महिला/0-6 वर्ष के बच्चों के लैंगिक अनुपात और नियमित नौकरी पेशे आदि में हिस्सेदारी सब से पिछड़े हैं. मायावती के व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण दलितों को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल सका. दूसरी तरफ बसपा पार्टी के पदाधिकारियों की दिन दुगनी और रात चौगनी खुशहाली से भी दलित नाराज़ हुए हैं जिस का इज़हार उन्होंने इस चुनाव में खुल कर किया है. यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की 40 सीटें ऐसी हैं जहाँ दलितों की आबादी 25% से भी अधिक है. 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा 17 सुरक्षित सीटों पर नंबर दो पर थी जो इस बार कम हो कर 11 रह गयी है. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के बरकरार रहने का दावा तथ्यों के विपरीत है. 
मायावती ने 2012 के असेंबली चुनाव में भी मुसलामानों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उसे वोट नहीं दिया. इस बार फिर मायावती ने इस आरोप को न केवल दोहराया है बल्कि बाद में उनके पछताने की बात भी कही है. मायावती यह भूल जाती हैं मुसलामानों को दूर करने के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार हैं. 1993 के चुनाव में मुसलामानों ने जिस उम्मीद के साथ उसे वोट दिया था मायावती ने उस के विपरीत मुख्य मंत्री बनने की चाह में 1995 में मुसलामानों की धुर विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला लिया था. इस के बाद भी उसने कुर्सी पाने के लिए दो बार भाजपा से सहारा लिया था. इतना ही नहीं 2003 में उस ने गुजरात में मुसलमानों के कत्ले आम के जिम्मेवार मोदी को कलीन चिट दी थी तथा उस के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था. इस बार भी मायवती भाजपा से हाथ नहीं मिलाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी मौकापरस्ती के बरक्स मायावती यह कैसे उम्मीद करती है कि मुसलमान उसे आँख बंद कर वोट देते रहते. मुज़फ्फर नगर के दंगे में मायावती द्वारा कोई प्रतिक्रिया न दिया जाना भी मुसलामानों को काफी नागुबार गुज़रा. 
मायावती द्वारा पिछली तथा इस बार की हार के लिए अपनी कोई भी गलती न मानना भी दलितों और मुसलामानों के लिए असहनीय है. पिछली बार उसने इस का दोष मुसलामानों को दिया था. इस बार वह इसे कांग्रेस सरकार को समर्थन देना बता रही है. अगर यह सही है तो मायावती के पास इस का क्या जवाब है कि उस ने कांग्रेस सरकार को समर्थन क्यों दिया? केवल कट्टरपंथी ताकतों को रोकने की कोशिश वाली बात भी जचती नहीं. दरअसल असली बात तो सीबीआई के शिकंजे से बचने की मजबूरी थी जो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में अभी भी बनी हुयी है. भाजपा भी मायावती की इसी मजबूरी का फायदा उठाती रही है और आगे भी उठाएगी. इस के लिए मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार जिम्मेवार है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों ने इस बार मायावती के सर्वजन वाले फार्मूले को बुरी तरह से नकार दिया है. मुसलामानों ने भी उस से किनारा कर लिया है. वर्तमान में दलितों, मुसलामानों, मजदूरों, किसानों और छोटे कारखानेदारों और दुकानदारों के लिए मोदी की कार्पोरेट प्रस्त हिंदुत्व फासीवादी राजनीति सब से बड़ा खतरा है जिस का मुकाबला मायावती और मुलायम सिंह आदि की सौदेबाज, अवसरवादी और कर्पोरेट प्रस्त राजनीति द्वारा नहीं किया जा सकता है. इस के लिए सभी वामपंथी, प्रगतिशील और अम्बेडकरवादी ताकतों को एकजुट हो कर कार्पोरेट और फासीवाद विरोध की जनवादी राजनीति को अपनाना होगा.
अन्तः में मैं चिंतक व भाषाविद नोम चोमस्की की भारत के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी को दोहराना चाहूँगा जिस में उसने 15 मई को बोस्टन में कहा था कि “भारत में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है| भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा| आर एस एस और भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में आने वाला है, ठीक इसी अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था| नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा लिया था| भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है| कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है| अब भारत के वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा|”( नोम चोमस्की उस दिन केम्ब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे| इसके पश्चात उन्होंने अलग से श्री. राम शरण जोशी से अनौपचारिक संक्षिप्त बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी).
  • Yugal Kishore Saran ShastriRam Murat और 36 और को यह पसंद है.
  • Anupam Parihar दारापुरीजी!! बिलकुल सही तथ्य हैं आपके। मायावतीजी केवल दलितोब का वोट हासिल कर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीती रहीं, उन्हें दलितों ने इस बार नकार दिया है।
  • Anupam Parihar आपकी पोस्ट शेयर कर रहा हूँ--
  • Haider Naqvi Sir one political buzz is Mayawati strategically moved her vote bank to BJP to buy some favours. Had she did openly it would have cost her the minorities, crucial for her in assembly polls.
  • S.r. Darapuri मायावती २००३ में गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार करने गयी थीं और उस ने मोदी को 2000 मुसलामानों के कत्ले आम के आरोप में क्लीन चिट दी थी.

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...