बुधवार, 23 मई 2012

मुलायम  सिंह  यादव  समय  की  गति को मापने में कहीं न  कहीं चुक  कर रहे हैं -

कांग्रेस-सपा की नजदीकियों के मायने..

 बुधवार, 23 मई, 2012 को 13:52 IST तक के समाचार
समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव दिल्ली में कांग्रेस की गठबंधन सरकार के तीन साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री के रात्रि भोज में शामिल हुए और कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें पूरा सम्मान दिया.
यह दोनों दलों के बीच बनी नई समझदारी का प्रतीक है. लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता इन अटकलों को गलत बता रहें हैं कि समाजवादी पार्टी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल हो सकती है अथवा वह विवादास्पद आर्थिक कार्यक्रम को संसद में समर्थन दे सकती है.
कांग्रेस पार्टी की तात्कालिक चिंता अगले राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार को जिताना है. इसके लिए कांग्रेस को यूपीए के घटक दलों के बाहर से भी समर्थन चाहिए.
इसलिए कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों से बातचीत कर रही है , भले ही दोनों परस्पर विरोधी हों.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहन सिंह का कहना है कि समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को भरोसा दिलाया है कि वह उसके उम्मीदवार का समर्थन करेगी. सपा ने कांग्रेस नेताओं को केवल यह बताया है कि राष्ट्रपति पद पर वह एक राजनीतिक उम्मीदवार चाहती है, न कि कोई नौकरशाह.
मोहन सिंह के मुताबिक़ कांग्रेस ने अभी यह नहीं बताया है कि उसका उम्मीदवार कौन है.
माना जा सकता है कि सपा को हामिद अंसारी और मीरा कुमार पसंद नही हैं.
राजनीतिक कीमत
राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार को समर्थन देना सपा की मजबूरी भी है, क्योंकि सपा भारतीय जनता पार्टी के साथ नहीं खड़ी हो सकती.
तीसरा मोर्चा न तो अस्तित्व में है न अभी कोई संभावना है.
फिर सवाल उठता है कि मुलायम सिंह यादव राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन देने की क्या कीमत वसूलना चाहेंगे?
और कुछ नहीं तो मुलायम चाहेंगे कि केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश में उनके बेटे की सरकार में कोई अड़ंगे न डाले. जितना हो सके वित्तीय सहयोग दे, जिससे सपा लोक सभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत कर ले.
वे यह भी चाह सकते हैं कि केन्द्र सरकार सपा को वित्तीय मदद देने वाले औद्योगिक घरानों को परेशान न करे और हो सके तो कुछ राहत दे दे. कुछ राजनीतिक नियुक्तियों में हिस्सेदारी भी मांग सकते हैं.
यहाँ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी तरफ से कदम बढाते हुए अफसरों को अमेठी और रायबरेली संसदीय क्षेत्रों में विकास कार्यों में मदद करने का संकेत दिया है.
हाल के विधान सभा चुनाव में सपा को इन दोनों जिलों में बड़ी कामयाबी मिली है.
इस कामयाबी से उत्साहित अमेठी और रायबरेली के सपा नेता अगले लोक सभा चुनाव में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के खिलाफ मजबूत उम्मदीवार उतारने की तैयारी कर रहें हैं. ये दोनों हार जाएँ तो उन्हें बहुत खुशी होगी.
जाहिर है कि समाजवादी पार्टी का मूल चरित्र कांग्रेस विरोधी है और मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाना उसका घोषित अगला लक्ष्य है.
इसलिए लोक सभा चुनाव में कांग्रेस और सपा का टकराव तो होना ही है. मगर इसका मतलब यह नहीं कि उसके बाद दोनों दलों में फिर कोई समझदारी नहीं बन सकती. मुलायम सिंह को दोस्ती और दुश्मनी दोनों अच्छी तरह से निभाना आता है.

(राम दत्त जी के विचार हो सकता है सही हों पर राजनितिक जानकर इसको ठीक नहीं कहेंगे, क्योंकि कांग्रेस पार्टी अब भारतीय पार्टी नहीं है यह अंतर्राष्ट्रीय पार्टी हो गयी है अतः अब कांग्रेस से कोई भारतीय कोई उम्मीद करे तो बेमानी ही है - भ्रष्टाचार के मामले पर, महगाई के मामले पर कोई कंट्रोल यह पार्टी या उसकी सरकार लगाने जा रही है तो यह सोचना भी बेवकूफी ही होगी, क्योंकि इसमें लूटेरों ने अच्छे लोगों को किनारे लगा दिया है और इस कांग्रेस की नयी मालकिन की यही इक्षा भी होगी, इसीलिए मेरा मानना है की नेता जी ने कांग्रेस के साथ नजदीकी दिखाकर दूरगामी परिणाम वाला काम  नहीं किये हैं.-डॉ.लाल रत्नाकर)


रविवार, 20 मई 2012

May-19,2012,
11:31 pm

सपा शासन में गुंडा राज कायम

- स्वामी प्रसाद

जौनपुर: बसपा के प्रदेश अध्यक्ष एवं नेता विधान मण्डल दल स्वामी प्रसाद मौर्य ने प्रदेश की अखिलेश सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सपा शासन में पूरी तौर पर गुंडा राज कायम हो चुका है।
वे शनिवार को स्थानीय डाक बंगले में पत्रकारों से वार्ता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आज समस्याओं के मारे लोग दर-बदर भटक रहे हैं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। प्रदेश का नौजवान जो बेरोजगारी भत्ता, टेबलेट व लैपटाप के नाम पर सरकार बनवाकर अब अपने को ठगा महसूस कर रहा है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने मुख्यमंत्री द्वारा बसपा शासन में चालीस हजार करोड़ रुपए घोटाले की बात को निराधार व तथ्यहीन बताया।
मछलीशहर प्रतिनिधि के अनुसार स्थानीय नगर में आयोजित पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन को संबोधित करते हुए पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि बसपा शासन में गुण्डे-माफिया जेल में थे और बहन-बेटियां निर्भीक होकर घूमती थी जबकि सपा के शासन में ठीक इसका उलटा हो रहा है। सम्मेलन में केराकत, पिण्डरा, मछलीशहर व जफराबाद विधानसभा क्षेत्र के कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। सम्मेलन में संगठनात्मक ढांचे में सभी वर्गो की हिस्सेदारी सुनिश्चित करके संगठन की मजबूती पर चर्चा हुई।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि जोनल कोआर्डिनेटर छट्ठू राम एवं धनपति राम व्रिदोही ने भी पार्टी की नीतियों के तहत चुनावी तैयारी में लग जाने की बात कही। कार्यक्रम संयोजक मछलीशहर लोकसभा प्रभारी बीपी सरोज रहे। इस मौके पर रामचन्द्र गौतम, मेवालाल गौतम, रईस अहमद खां, शिवाजी सिंह, रामफेर गौतम आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
नौपेड़वा प्रतिनिधि के अनुसार बक्शा विकास खण्ड के सुजियामऊ गांव में बसपा नेता तपेश विक्रम मौर्या के आवास पर शनिवार को पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए बसपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि प्रदेश की सपा सरकार हर मोर्चे पर विफल साबित हुई है। आगामी लोकसभा चुनाव में बसपा ही प्रदेश में एक मात्र विकल्प होगी। इस दौरान जौनपुर लोकसभा प्रभारी एमएलसी प्रभावती पाल, जोनल कोआर्डिनेटर छट्ठू राम, पाणिनी सिंह, डा भोलानाथ मौर्य, अमरजीत गौतम आदि मौजूद रहे। संचालन जिलाध्यक्ष ज्ञान सागर अम्बेडकर ने किया।
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स्वामी प्रसाद मौर्य  ब्रह्मण  राज्य के हिमायती हैं। इन्होने जौनपुर को अपनी जागीर बना रखा है और तमाम पिछड़ों की भावनाओं  के  साथ  मजाक  किया जा रहा है .
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शुक्रवार, 18 मई 2012



पिछड़ा वर्ग आन्दोलन एवं उ0प्र0 सरकार
कौशलेन्द्र प्रताप यादव

प्रत्येक सरकार की कसौटी के पैमाने भी अलग-अलग होते हंै। दल का घोषणा पत्र जिस लोक लुभावन वादों के साथ और जिस वर्ग के वोट से सत्ता में आता है उन्हीं वादों पर सरकार को फेल-पास किया जाता है। मसलन बसपा की सरकार दलितों के लिए क्या कर रही है, इस पर सबकी नजर रहती थी। उसी प्रकार सपा सरकार पिछड़े वर्ग से संबंधित मुददों पर क्या रूख अख्तियार करती है और अपने कार्यकाल में क्या कुछ दे जाती है, इसी कसौटी पर उसको कसा भी जायेगा और यही रूख उसका भविष्य भी तय करेगा।

प्रमोशन  में दलितों को आरक्षण का मुददा सब जगह छाया रहा। लेकिन यह तथ्य कहीं भी प्रकाश में लाने की कोशिश नहीं गई कि 1978 में जिस शासनादेश के तहत दलितों को प्रमोशन में आरक्षण की बात कही गई थी, उसी शासनादेश में अनुसूचित जातियों, जनजातियों के साथ अन्य पिछड़े वर्गों को भी प्रमोशन में आरक्षण की बात कही गई थी। इस शासनादेश के तहत अन्य पिछड़े वर्ग के तीन तेज तर्रार अधिकारियेां को प्रमोशन में आरक्षण भी मिला। लेकिन 30.9.1980 के शासनादेश संख्या 5119/40-1-1-15 (28) 80 के तहत अन्य पिछड़े वर्गों को मिलने वाला प्रमोशन में यह आरक्षण कांग्रेस की सरकार ने समाप्त कर दिया। फिलहाल यह संभव तो नहीं है कि उ0प्र0 सरकार दलितों का आरक्षण खत्म करे और ओ0बी0सी0 को प्रमोशन में आरक्षण दे, लेकिन अब इस मुददे पर ओबीसी संगठन बौखला गए हंै। 27 मई को लखनऊ में आल इंडिया बैकवर्ड इंपलाइज फेडरेशन (आइबेफ) इस मुददे पर एक अधिवेशन करने जा रहा है।

समाजवाद के जनक लोहिया जब ‘‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ पिछड़े पावैं सौ में साठ’’ नारा देते थे तब वो निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण की वकालत करते थे। दूरदर्शी लोहिया जानते थे कि वक्त बीतने के साथ नौकरियां केवल सरकार के भरोसे नहीं रहेगी। यह भी कम मजे की बात नहीं कि जिस कांग्रेस को मजबूरी में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करनी पड़ी उसी ने देश में उदारीकरण की शुरूआत की। उदारीकरण के फलस्वरूप बहुत कम नौकरियां सरकार के पास बची और निजी क्षेत्र में आरक्षण देना कांग्रेस की कोई मजबूरी नहीं थी। बसपा सरकार ठेकों में भी दलितों को आरक्षण देती थी। सपा सरकार आसानी से यह व्यवस्था पिछड़े वर्ग के लिए कर सकती है।

अखिलेश जी ने बयान दिया है कि उनकी सरकार में न तो कोई स्मारक बनेगा और न ही कोई मूर्ति लगेगी। लेकिन प्रदेश में एक भी पिछड़ा वर्ग शोध केन्द्र नहीं है। जहां पर पिछड़े वर्ग की योजनाओं, जनसंख्या, कर्मचारियों का प्रतिशत, आरक्षण की प्रगति, दूसरे प्रदेशों में चल रही पिछड़े वर्ग की योजनायें, संसद और अन्य राज्यों में पिछड़े वर्ग के सांसदों और विधायकों की स्थिति की नवीनतम जानकारी रखी जा सकी।

उ0प्र0 में गैर सरकारी स्तर पर पिछड़ा वर्ग आंदोलन मृत प्राय है। कभी यहां अर्जक संघ का जीवंत आंदोलन था। रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव और महाराज सिंह भारती इसके प्रेरणापुंज थे। लेकिन अर्जक आंदोलन उ0प्र0 में उसी तरह मर गया जैसे बिहार में त्रिवेणी संघ। मा0 कांशीराम गैर राजनैतिक आंदोलन की महत्ता बखूबी समझते थे। वो कहते थे कि ‘‘कोई समाज राजनीति में कितना आगे जायेगा, यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी गैर राजनैतिक अर्थात सामाजिक जड़े कितनी मजबूत है?’’ देखना होगा कि उ0प्र0 सरकार ऐसे गैर राजनैतिक आंदोलनों को अपने लिए सहायक मानती है कि खतरा ?

पिछड़े वर्ग के पास पत्रिका आंदोलन का भी अभाव है। दरअसल पिछड़ा वर्ग जिन मार्शल जातियों से मिलकर बनता है, वहां चिंतन की गुंजाइश बहुत कम होती है। इसलिए पिछड़े वर्ग के नेतृत्व में जहां-जहां सरकारें बनती है, वो अपने दड़बे से बाहर नहीं निकल पाती और असमय काल-कवलित हो जाती हंै। दलित आंदोलन लघु पत्रिका आंदोलन की उपज था। 2 रुपये से लेकर 20 रुपये तक की दलित पत्रिकायें निकालना दलितों के बीच एक फैशन बन गया था। भले ही ये दस पेज की रही हांे या इनकी प्रसार संख्या पांच सौ से भी कम रही हो, लेकिन अपने प्रभाव क्षेत्र में इन्होंने दलितों में जबरदस्त जनजागरण पैदा किया। इस समय उ0प्र0 में पिछड़े वर्ग की एक मात्र पत्रिका है सोशल ब्रेनवाश। देखना है उ0प्र0 सरकार इसे कैसे प्रोत्साहित करती है।

सपा के सत्ता में आने के बाद अति पिछड़े वर्ग के लोग उफान पर है। ये अपने लिए अलग कोटा और एक अलग आयोग की मांग कर रहे है। दरअसल अति पिछड़े वर्ग का आक्रोश समझने में गैर सपा राजनैतिक दल ज्यादा सफल रहे हंै। राजनाथ सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में आरक्षण को पिछड़ा/अति पिछड़ा में बांटा तो बसपा सरकार अतिपिछड़े वर्ग की कुछ जातियों को थोक के भाव अपने साथ ले गई। इसी प्रकार पिछड़े वर्ग के मुसलमानों यानी पसमांदा मुसलमानों पर सपा अपना स्टैंड क्लीयर नहीं कर पा रही है। उसने समस्त मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग की है। जिसका पसमांदा मुसलमानों की कई तंजीमों ने विरोध किया है। यदि अति पिछड़े वर्ग के साथ पसमांदा मुसलमानों को सपा अपने पाले में खींच ले गई तो यह उसका सबसे बड़ा बेस वोट बैंक होगा।

क्रीमीलेयर को लेकर पिछड़े वर्ग के चिंतक अपना विरोध जताते रहे हंै। अभी सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में दलितों का आरक्षण समाप्त किया तो इस निर्णय को निष्प्रभावी करनेके लिए संसद में विशेष प्रस्ताव पारित करने की तैयारी चल रही है। पिछड़े वर्ग को आरक्षण में क्रीमीलेयर भी सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है। किन्तु उसे हटाने की कोई मुहिम अभी तक नहीं की गई। उ0प्र0 के सपा सांसद क्रीमीलेयर को हटाने के लिए विधान सभा से एक प्रस्ताव पारित करा सकते है या ससंद के किसी भी सदन में इस आशय का एक प्रस्ताव रख सकते है।
अभी उ0प्र0 का जो मंत्रिमंडल है उसमें पिछड़े वर्ग का चेहरा नहीं झलक रहा है। सपा के पितृ-पुरूष चैधरी चरण सिंह का अजगर (अजीर-जाट-गूजर-राजपूत) फार्मूला भी इसमें गायब है। मंडल आयोग लागू होने के बावजूद केन्द्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्ग की भागीदारी केवल 6 प्रतिशत है। उ0प्र0 में भी पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला है, लेकिन यहां भी उसे 10 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व प्राप्त है। आरक्षण मिलने के बवजूद पिछड़े वर्ग के साथ केन्द्र और राज्य स्तर पर यह अन्याय क्यों है रहा है, इस पर सपा सरकार को जमकर स्टैंड लेना होगा। ओबीसी के जो पद रिक्त पड़े हैं, उसे लेकर सपा को जबरदस्त भर्ती अभियान चलाना पड़ेगा तभी पिछड़े वर्ग को आरक्षण के अनुपात में नौकरियां मिल सकेगी।
उ0प्र0 में ओबीसी के छा़त्रों के लिए छात्रावास की अलग से कोई व्यवस्था नहीं है। जिले में यदि 200 छात्रों के लिए भी एक छात्रावास बना दिया जाये तोा ये पिछड़ा वर्ग आंदोलन के एक चेतना केन्द्र हो सकते हैं और साथ ही पिछड़ा वर्ग का एक कैडर तैयार हो सकेगा। दलित छात्रों के लिए शोध हेतु केन्द्र सरकार राजीव गांधी फेलोशिप देती है। उ0प्र0सरकार को ऐसी ही एक योजना ओबीसी छात्रों के लिए शुरू करनी चाहिये।

चूंकि उ0प्र0 सरकार पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, अतः दलित स्मारकों को लेकर उसका स्टैंड प्रदेश में दलितों-पिछड़ों के रिश्ते तय करेगा। यह गौरतलब है कि इस बार सपा ने अनुसूचित जाति के सुरक्षित 89 सीटों में 54 सीटे जीती है। यह सपा पर दलितों का नया एतबार है। सपा के आदर्श लोहिया खुद अंबेडकर के बहुत बड़े प्रशंसक थे। जब उन्होंने बिहार के रामलखन चंदापुरी के साथ मिलकर पिछड़े वर्ग को गोलबंद किया तो पिछड़े वर्ग के साथ दलितों के गठबंधन का सपना देखा। यह सपना लिये लोहिया अंबेडकर के पास पहुंचे और एक सार्वजनिक बयान दिया कि ‘‘गांधी के निधन के बाद यदि कोई महान है तो अंबेडकर है और जाति विनाश अभियान की आशा के केन्द्र है।’’ इसके बाद लोहिया और अंबेडकर की मुलाकातें बढ़ चलीं लेकिन बाबा साहब अंबेडकर का इसी समय असमय निधन हो गया और लोहिया का दलित-पिछड़ा गठबंधन का स्वप्न अधूरा रह गया।

आज का जो सामाजिक परिदृश्य है और देश जिस प्रकार जाति मुक्त भारत की ओर बढ़ रहा है, उसमें जातीय और वर्गीय आंदालनों की गुंजाइश बहुत कम रह गई हंै। इसीलिए मंडल के प्रोडक्ट नीतीश कुमार को मंडल की राजनीति छोड़कर विकास और सुशासन का लबादा ओढ़ना पड़ता है, उ0प्र0 में बहन जी को बहुजन से सर्वजन की यात्रा करनी पड़ती है, गुजरात में महानतम संघी नरेन्द्र मोदी को सदभावना यात्रा करनी पड़ती है। लेकिन चतुर राजनेता वही है जो सब कुछ करते हुए, सबको खुश रखते हुए अपना बेस वोट बैंक मजबूत रख सके। इसी बिंदु पर अखिलेश जी की भी कड़ी अग्नि परीक्षा होगी। 
अंत में एक बात और। हो सकता है कि अखिलेश जी अपने को पिछड़े वर्ग का नेता न मानते हों, लेकिन पिछड़ा वर्ग उनसे उम्मीद जरूर करता है।

परिचयः 
लेखक आॅल इंडिया बैकवर्ड इंपलाइज फेडरेशन के राष्ट््रीय अध्यक्ष हैं। 
पता हैः टी-6,महादेवपुरम,मंडावर रोड,बिजनौर,उ0प्र0

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

बाबा साहेब के सपनों को भूल गए हम


बाबा साहेब के सपनों को भूल गए हम
प्रकाश अंबेडकर, दलित नेता और बाबा साहेब के पौत्र
First Published:13-04-12 09:40 PM
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सामाजिक शोषण का कोई भी मसला जब हमारे सामने आता है, तो हमें बरबस ही बाबा साहेब अंबेडकर की याद आ जाती है। इस समय नक्सलवाद की समस्या को लेकर देश भर में चर्चा हो रही है। सरकार नक्सलवाद को देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक मानती है। देश में प्रजातंत्र है और इसके माध्यम से हर जगह, हर स्तर पर बदलाव आना चाहिए, खासकर आदिवासी इलाके में और उनके सामाजिक क्षेत्र में, जबकि हकीकत यह है कि बदलाव हमें नहीं दिखते हैं। बदलाव के नाम पर भी आदिवासियों का शोषण हो रहा है। इसी के चलते आदिवासी नक्सली विचारधारा को लेकर हमारी राजनीतिक व्यवस्था से भिड़े हुए हैं। यह टकराव सामाजिक-आर्थिक भेदभाव की वजह से है। हालात यहां तक पहुंचेंगे, इसे बाबा साहेब अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्होंने संविधान में शिडय़ूल एरिया का उल्लेख किया है, जिसके तहत यह प्रावधान बना कि आदिवासी अपने क्षेत्र के मालिक खुद होंगे। इससे उनका आर्थिक-सामाजिक शोषण नहीं हो पाता। मगर सरकार ने संविधान की उस बात को लागू नहीं किया। झारखंड और छत्तीसगढ़ को आदिवासी राज्य बना दिया गया। लेकिन वहां अच्छे प्रशासन की व्यवस्था नहीं है। समाज को विकसित नहीं किया जा रहा है। एक वर्ग ऐसा है, जो हमारी संसदीय प्रणाली को विकसित करने नहीं दे रहा है। बाबा साहेब ने जो बातें कही थीं, उन पर ध्यान दिया ही नहीं गया।
वैसे कहने को आज सभी राजनीतिक दल बाबा साहेब अंबेडकर की बात करते हैं। उनके विचारों को मानने की बात करते हैं। उनकी मूर्तियां लगवाते हैं। लेकिन दरअसल वे खुद को आगे बढ़ाते हैं। बाबा साहेब के नाम पर उन्होंने अपनी छवि ही बनाई है। वरना क्या बात है कि आज भी देश में गरीबों की संख्या बढ़ रही है। उनका विकास नहीं हो रहा है। गरीबी दूर नहीं हुई है। गरीबों को रोटी नहीं मिल रही है। साथ ही दलित या ओबीसी समाज पूछता है, हमारे उत्थान के लिए क्या किया? सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की हो। उसे अपनी चिंता होती है। समस्या यह भी है कि पूरे देश में कोई भी ऐसा नेता नहीं है, जिस पर जनता विश्वास कर सके। लोगों को लगे कि वह जनहित में काम कर रहा है।
बाबा साहेब ने कहा था कि धर्म की राजनीति करोगे, तो उससे राष्ट्रीय क्षति होगी। आज चारों तरफ देखि, तो लगता है कि सिर्फ धर्म की ही राजनीति हो रही है। जो धर्म की राजनीति नहीं करते, वे जाति की बात कर रहे हैं। हम बीजेपी की तरफ देखते हैं, तो वह सवर्णो की पार्टी दिखती है। मायावती की पार्टी को दलित पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं माना जाता। कांग्रेस का भी सवर्ण चेहरा दिखता है। जो मुसलमानों को आरक्षण देने की बात न करे, उसे कभी धर्मनिरपेक्ष माना ही नहीं जाएगा। हर पार्टी जाति और धर्म को मिलाकर राजनीति कर रही है। सबसे बड़ी बात है कि राजनीति करने वाले लोग विचार से कट रहे हैं। इसके बिना तो धर्म और जाति की राजनीति हमें खोखला ही बनाएगी। यह राजनीति हमें कहीं ले नहीं जा रही, या शायद सिर्फ पीछे ही ले जा रही है।
बाबा साहेब ने कहा था कि हम जो भी राह अपनाएं, वह संसदीय प्रणाली के भीतर से ही निकलती हो। देश के सारे बड़े फैसले भी संसदीय प्रणाली में ही होने चाहिए। संसदीय प्रणाली के भीतर से जो नेतृत्व सामने आता है, उसे ही हम मानें। लेकिन हर समय ऐसा होता नहीं है। सरकार की कोशिश इसे दरकिनार करने की ही होती है। आजकल जब आम आदमी के उत्थान की बात आती है, तो लोग हमेशा नफा-नुकसान की तरफ देखते हैं। यह अपने आप में बहुत अमानवीय है। मानवीय सोच रखने वाली कोई भी सरकार ऐसा नहीं कर सकती। बाबा साहेब ने यह भी कहा था कि जो व्यक्ति राजनीति करना चाहे, उसकी समाज में मान्यता या इज्जत होनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक व्यक्ति धर्म, जाति से ऊपर उठे। अक्सर हम इस बात पर गर्व करते हैं कि हमने राजनीतिक एकता कायम कर ली है। लेकिन यह बड़ा सवाल यह है कि क्या हम सामाजिक रूप से एक हुए हैं? हमारे भीतर सामाजिक एकता अब भी कायम नहीं हुई है। सदियों पहले जो सामाजिक विभेद थे, मतभेद थे, वे आज भी कायम हैं। इन्हें पूरी तरह खत्म करने में किसी भी राजनीतिक दल की दिलचस्पी नहीं है।
जहां समाधान काफी आसान हैं, वहां भी बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता। कई समस्याएं ऐसी हैं, जिनके समाधान के लिए इतना ही जरूरी है कि छोटे-छोटे राज्य बनाओ। बड़े राज्यों की समस्याएं भी बड़ी होती हैं। ऐसे राज्यों में सामाजिक समस्या और सामाजिक सांमजस्य की समस्या नहीं सुलझती। छोटे राज्य होंगे, तो एक-दूसरे से समझने की बात होगी। बड़े राज्यों में यह नहीं हो सकता। अपनेपन की बात नहीं हो सकती। हमें छोटे राज्यों के बारे में सोच साफ रखनी चाहिए थी। मायावती ने छोटे राज्यों के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया जरूर, लेकिन बड़ा मुद्दा नहीं बनाया। अगर मायावती इसे बड़ा मुद्दा बनातीं, तो केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ता। लेकिन यह नहीं हुआ।
बाबा साहेब ने नेशनल कैरेक्टर यानी राष्ट्रीय चरित्र की बात की थी। आज हम अपने आपसे भी ईमानदार नहीं है। व्यक्तिगत निष्ठा सबसे बड़ी चीज होती है। लेकिन इसकी चिंता अब किसे है? हम भ्रष्टाचार, घूसखोरी जैसी तमाम बातों को देखते हैं, लेकिन कोई राष्ट्रीय चरित्र को बदलने की बात नहीं करता। राष्ट्रीय चरित्र बनाने की बात नहीं करता। बाबा साहेब ने इसके लिए बहुत बड़ी कोशिश की थी और इसी कोशिश में वह बौद्ध धर्म तक पहुंचे। वह मानते थे कि महात्मा बुद्ध की विचारधारा से राष्ट्रीय चरित्र बन सकता है। इसी से सामाजिक जागरूकता पैदा हो सकती है। एक-दूसरे के प्रति अच्छे विचार, प्रेम आदि सभी चीजें बुद्ध के विचार से हो सकती हैं। लेकिन देश के नेताओं ने जैसे बाबा साहेब के दूसरे विचारों को नहीं अपनाया, वैसे ही इसे भी नहीं अपनाया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

बुधवार, 7 मार्च 2012

दलित राजनीति की दुश्मन

दलित राजनीति की दुश्मन
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बीबीसी से साभार ;

माया से मोह टूटा?

 बुधवार, 7 मार्च, 2012 को 15:19 IST तक के समाचार

इस हार में दलित वोटों का बचा रहना मायावती के लिए सुखद आभास होगा लेकिन आगे चुनौती बड़ी होगी.
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम दलित राजनीति के लिए महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं जो दलितों, मायावती और अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी कई संदेश देते हैं.
मायावती पहली दलित महिला नेता है जो दलितों के वोटों के कारण सत्ता में पहुंची लेकिन परिणामों से साफ है कि वो दलितों और आम लोगों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाईं.
वैसे भारत में दलित राजनीति का इतिहास महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में रहा ज़रुर है लेकिन दलितों को सत्ता पहली बार यूपी में ही मिली.
चर्चित पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ दलित रिपब्लिक’ के लेखक और राजनीतिक विश्लेषक बदरी नारायण कहते हैं कि ये एक मौका है मायावती के लिए और दलितों के लिए अपनी राजनीति को पुनर्परिभाषित करने का.

बदरी नारायण

"
मायावती को जो मौका मिला उसका सही उपयोग नहीं किया गया. लेकिन सत्ता रहे न रहे दलितों में एक सामाजिक चेतना ज़रुर आई है और इसी चेतना का परिणाम था कि मायावती सत्ता में आई और यही चेतना दलितों को नई राजनीति के लिए प्रेरित भी करेगी"
वो कहते हैं, ‘‘ मायावती को जो मौका मिला उसका सही उपयोग नहीं किया गया. लेकिन सत्ता रहे न रहे दलितों में एक सामाजिक चेतना ज़रुर आई है और इसी चेतना का परिणाम था कि मायावती सत्ता में आई और यही चेतना दलितों को नई राजनीति के लिए प्रेरित भी करेगी.’’
बहुजन-सर्वजन मॉडल
बदरी कहते हैं कि पूरे भारत में बहुजन मॉडल की राजनीति से लोग प्रेरित हो रहे थे और इस मॉडल को अपनाने की कोशिश हो रही थी जिसे यूपी के परिणामों ने झटका दिया है.
लेकिन इसकी क्या वजह रही, दलित नेता उदित राज कहते हैं, ‘‘ तानाशाही का रवैय्या तो रहा है मायावती जी का. हां उनके समय में दलितों का थोड़ा विकास तो हुआ है. इस जीत हार को दलित राजनीति से जोड़ने की बजाय जाति की राजनीति से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. वैसे भी सपा और बसपा के वोट प्रतिशत में बहुत अंतर नहीं है.’’
उदित राज कहते हैं कि मायावती से अति पिछड़ा और सवर्ण गुट अलग हो गए.
मायावती पर पुस्तक लिख चुके अजय बोस कहते हैं कि मायावती को खारिज़ करना ही ग़लत होगा.
वो कहते हैं, ‘‘ ये झटका तो है मायावती के लिए इसमें शक नहीं लेकिन आप ये देखिए कि मायावती का दलित वोट बैंक बचा हुआ है. अगर दलित वोट नहीं देते तो मायावती की सीटें 30-35 तक चली जातीं. गवर्नेंस खराब था. सत्ता विरोधी लहर भी थी लेकिन कम से कम यूपी में सपा-बसपा की लड़ाई तो रही. मायावती पहले भी तानाशाह थी. अब उनको सोचना पड़ेगा आगे क्या करना है.’’
मायावती को इन चुनावों में करीब 80 सीटें मिली हैं और जाहिर है कि उनका सर्वजन कार्ड चल नहीं पाया है लेकिन इसके बावजूद विश्लेषक मानते हैं कि मायावती को खारिज कर देना सही नहीं होगा.

यूपी के दलितों में एक नई सामाजिक चेतना ज़रुर आई है
ऐसा इसलिए भी क्योंकि मायावती के दलित वोट में सेंध नहीं लगी है.
दलित वोट बरकरार
अजय बोस कहते हैं कि कहीं न कहीं मायावती का राजनीतिक प्लान फेल हो गया है, ‘‘ मायावती का सर्वजन कार्ड फेल हो गया. 2007 में ये सफल रहा लेकिन इस बार उनकी योजना फेल हो गई. उनकी तानाशाही, एक ही नेता होना ये सब तो पहले भी था.’’
वो कहते हैं कि समस्या राजनीतिक योजना की है मायावती की निजी नहीं. अजय के अनुसार दलितों को नुकसान हुआ है लेकिन ये फायदे की बात है कि वो राजनीति में स्टेकहोल्डर हो गया है वो सिर्फ वोट देने वाला नहीं बल्कि बसपा का स्टेकहोल्डर हो गया है.
बदरी कहते हैं कि ये एक कठिन समय है मायावती के लिए लेकिन उनके साथ एक अच्छी बात है.

अजय बोस

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मायावती के पास एक वोट बैंक है जाटवों का. ये वोट रहेगा. सपा को देखा जाए जीतते ही गोलियां चलीं हैं. उस पार्टी में असामाजिक तत्व हैं. जिसका फायदा मायावती को होना चाहिए"
वो कहते हैं, ‘‘मायावती के पास एक वोट बैंक है जाटवों का. ये वोट रहेगा. सपा को देखा जाए जीतते ही गोलियां चलीं हैं. उस पार्टी में असामाजिक तत्व हैं. जिसका फायदा मायावती को होना चाहिए.’’
लेकिन क्या दलितों के लिए मायावती के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
उदित राज कहते हैं, ‘‘ समस्या कई स्तर पर है. मैंने काम करना शुरु किया लेकिन पैसे नहीं थे हमारे पास पार्टी खड़ा करने के लिए. ऐसे में दलितों के लिए नेता उभरना मुश्किल है. लेकिन हां नया नेतृत्व उभरने की संभावना ज़रुर है. दलित चेतना के उभार का यह लाभ ज़रुर होगा. लेकिन अभी समय ज़रुर लगेगा.’’
बदरी नारायण की राय थोड़ी अलग है वो कहते हैं कि मायावती से जो अति पिछड़ा तबका दूर हुआ है वहां न केवल नए नेताओं की बल्कि राजनीतिक दलों के लिए गुंजाइश बनती है.
वो कहते हैं, ‘‘ अगर आप देखेंगे ध्यान से तो पाएंगे कि मायावती हमेशा कांग्रेस पर वार करती रही हैं क्योंकि उन्हें पता है दलित दूर होगा बसपा से तो कांग्रेस के पास जाएगा. ऐसे में कांग्रेस को और काम करना होगा अपना आधार मज़बूत करने के लिए.’’
यानी कि यूपी में सपा-बसपा के अलावा और दलों के लिए राजनीतिक ज़मीन बची हुई है देखने वाली बात ये होगी आने वाले समय में राजनीतिक दल, दलित और मायावती इस मौके का क्या फायदा उठाती है.
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हिंदुस्तान से साभार ;
तिलक, तराजू और तलवार, पलट गई बसपा सरकार
लखनऊ, एजेंसी
First Published:07-03-12 12:55 PM
Last Updated:07-03-12 01:04 PM
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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के नारे से अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। लेकिन दलितों को आकर्षित करने के लिए दिए गए इस नारे के कारण जब सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई, तो मायावती ने इसे बदल दिया और 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती के इस सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकाल गई।
बदलते समय के साथ मायावती का यह नारा भी बदल गया। सतीश चंद्र मिश्रा के पार्टी से जुड़ने के बाद इस नारे को 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं' में तब्दील कर इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया।
बसपा को इस सोशल इंजीनियरिंग का फायदा भी मिला और वर्ष 2007 में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, लेकिन जनता के साथ सीधे संवाद स्थापित करने की कमी और 'ब्रह्मा विष्णु महेश' की कथित उपेक्षा ने ही इस बार मायावती की लुटिया डुबो दी।
वर्ष 2007 में बसपा को जो कामयाबी मिली थी उससे बड़ी सफलता समाजवादी पार्टी (सपा) को इस बार के विधानसभा चुनाव में हासिल हुई है। सपा ने बसपा को दस साल पहले वाली स्थिति में धकेल दिया है। मायावती इस बात को समय रहते समझ ही नहीं पाईं कि जिस गुंडाराज के खिलाफ वह वर्ष 2007 में चुनाव जीतीं थीं, उसे उछालने से कोई फायदा नहीं होने वाला था।
बसपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में 20 सीटें जीतीं थीं और इस आधार पर उसे लगभग 100 विधानसभा क्षेत्रों पर बढ़त हासिल हुई थी और यही पार्टी के लिए खतरे की घंटी थी और मायावती समय रहते इस सत्ता विरोधी लहर को पहचान नहीं पाईं। चुनाव बाद जब नतीजे आए, तो उनकी सीटें 206 से घटकर महज 80 हो गई।
जहां तक बसपा की सोशल इंजीनियरिंग के चेहरे बन कर उभरे बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्र के असर का सवाल है तो यह फंडा इस बार काम नहीं आया। मायावती को इस बात का भरोसा था की मिश्र की वजह से इस बार भी पार्टी सवर्णो का वोट पाने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मिश्र के सबसे करीबी मंत्री नकुल दुबे भी चुनाव हार गए।
इसके बाद बात बसपा की छवि की करें, तो एनआरएचएम घोटाला हो या इससे सम्बंधित स्वास्थ्य अधिकारियों की हत्या का मामला या फिर अन्य घोटाले, बसपा की सोच हमेशा इन घोटालों को दबाने की रही और जब ज्यादा तूफान मचा तो कुछ मामलों में कार्रवाई भी की गई। लोकायुक्त की जांच पर उसने दर्जन भर मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया, लेकिन यह प्रयास भी उसे दोबारा सत्ता में नहीं पहुंचा सका।
मायावती ने अपने ऑपरेशन क्लीन के तहत 21 मंत्रियों को विभिन्न आरोपों के चलते बाहर का रास्ता दिखाया और चुनाव तक मंत्रियों की तादाद घटकर 32 रह गई। मायावती ने काफी सोच समझकर इसमें से 23 मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन सरकार विरोधी लहर के चलते 14 दिग्गज मंत्री चुनाव हार गए।
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अभयानंद शुक्ल कहते हैं कि मायावती सत्ता विरोधी लहर को भांपने में नाकाम साबित हुईं। मायावती पूरे चुनाव में गुंडाराज के खिलाफ लोगों को जागरुक कर रहीं थीं। लेकिन पांच साल तक उन्होंने जनता के साथ सीधे संवाद स्थापित नहीं किया। शुक्ल कहते हैं कि चाहे शीलू निषाद का मामला हो या एनआरएचएम घोटाले का, उन्होंने कभी वास्तविकता जानने की कोशिश ही नहीं की।
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दे ही दो युवराज को ताज!

Story Update : Wednesday, March 07, 2012    9:17 PM
अगल-बगल बैठे बगलें झांक रहे सारे चचा, ताउओं को बाअदब सलाम ठोकते हुए विदूषक ने जनता बनकर सीधे नेताजी से अर्ज किया, हुजूर! यह बेटा अब हमें दे ही दो। जैसे राजा दशरथ ने ऋषियों की रक्षा के लिए अपने बेटे दे दिए थे। गुरु ज्ञान और धर्म पालन, दोनों साथ-साथ हो जाएगा। इन खटारा सड़कों और कीचड़ सनी पगडंडियों में साइकिल चलाने का हुनर इसी में है। इतने बड़े सूबे के लोगों ने यह बात बटन दबाकर कही है। अब धमाके से युवराज का राज्याभिषेक कर दिया जाए।

दरबार में सन्नाटा है। विदूषक फिर शुरू हुआ, हुजूर! अमर चचा की वक्री वाणी पर न जाइए, उन्हें भला भतीजे पर कैसे लाड़ आएगा! सम्मोहनी इत्र बांटकर मित्र बनाने वालों के नुसखों पर अमल कर अच्छा तजुर्बा हो चुका है। दिल पर हाथ रखकर कहिए, वे पहलवानी के दिन, वे साइकिल यात्राएं, बड़े नेताओं की वे तिरछी मुसकानें... संघर्ष के वे कई वर्ष, वे तजुर्बे...। बेटे ने सारा इतिहास सामने रख दिया कि नहीं! एक झटके में सारी खोई पूंजी सूद समेत कदमों में रख दी। जो आज्ञा पिताश्री का यह रामायणकालीन शिष्टाचार...। बताइए, आज के राजघरानों में ऐसे संस्कार बचे ही कहां हैं?

चचा-ताऊ इस अवांछित के प्रवेश से खिन्न नाखून कुतर रहे हैं। विदूषक ने फिर खुद ही खामोशी तोड़ी- मालिक! अपना यह प्रदेश थोड़ा उपचार और थोड़ी ताजा हवा मांग रहा है। साम-दाम-दंड-भेद की राजनीति में फंसी व्यवस्था थोड़ा-सा इजी होना चाहती है। बेटे ने बढ़िया गणित बनाया है। तीन-तिकड़म की भी कोई जरूरत नहीं। हर सवाल का जवाब इनके पास है, बिना लाग लपेट, बिना अटके ...। समझ है, शालीनता है, हौसला है।

नेता जी थोड़ा-सा मुसकराए। विदूषक फिर बोला, आप तो अब अश्वमेध यज्ञ का सामान जुटाएं और इस सूबे को युवराज को सौंप दे। सोनिया जी को बेटे को पीएम बनाने की जल्दी है। चचा फारूक का ही उदाहरण लीजिए। इन्हें कृष्ण का उपदेश सुनाइए। चचा, ताऊ, भाई, भतीजे, राजा-प्रजा आदि-आदि के बारे में जो भी कहा, बताइए और चाहे तो आप भी त्रिगुणरहित हो जाइए। विविधताओं से भरा इतना बड़ा प्रदेश बहुत कुछ सिखाने को तैयार बैठा है। बच्चों के मन से चचाओं का डर निकालिए।

एक दूसरे को ताक रहे चचाओं की भृकुटी तनी देख ऐलान होता है, तख्लिया! विदूषक धीरे से बाहर निकलते हुए बड़बड़ाता है-जेहि विधि राखे राम, सियासत से हम जैसे विदूषकों का भला क्या काम!
दिनेश जुयाल

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

कहाँ हैं बहुजन समाज पार्टी के पुराने दिग्गज ?

रामदत्त त्रिपाठी
बीबीसी संवाददाता, लखनऊ
बुधवार, 15 फ़रवरी, 2012 को 04:55 IST तक के समाचार

राजबहादुर मायावती ही की तरह बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं

बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री मायावती इस समय विधान सभा चुनाव में एक कड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना कर रही हैं, क्योंकि ‘बहुजन से सर्वजन की राजनीति’ में उनके बहुत से साथी पीछे छूट गए हैं.

इनमे से कई ऐसे लोग हैं, जिन्होंने पार्टी की स्थापना और उसे आगे बढ़ाने में कांशी राम के साथ मिलकर काम किया था.

(इससे जुड़ी ख़बरें
हाथी की मूर्तियों को ढँकने के ख़िलाफ़ जनहित याचिका ख़ारिज
चुनाव आयोग का फ़ैसला ग़लत: बसपा
मायावती सरकार के दो मंत्री भाजपा में)

राज बहादुर उन चुनिंदा दलित नेताओं में से हैं, जो कांशी राम द्वारा स्थापित पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलित कर्मचारियों के संगठन बामसेफ में रहे और इसके बाद 1984 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस फोर से जुड़े. डीएस फोर ही ने बाद में बहुजन समाज पार्टी की शक्ल ले ली.

राज बहादुर उत्तर प्रदेश बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष भी बने. वर्ष 1994 में पहली बार बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की साझा सरकार बनी तो राज बहादुर कैबिनेट मंत्री बने.

'बसपा भटकी'
राज बहादुर का कहना है कि जब 1995 में मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के लिए भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया तो उन्होंने इसे बीएसपी सिद्धांतों के खिलाफ समझते हुए बगावत कर दी.

"वास्तव में जब बहुजन समाज पार्टी अपनी दिशा से बहक गयी तब हमने बसपा को छोड़ा है, क्योंकि जब दिशा गलत होती है तो दशा की और दुर्दशा होती है"
राज बहादुर
राज बहादुर कहते हैं, “वास्तव में जब बहुजन समाज पार्टी अपनी दिशा से बहक गई, तब हमने बसपा को छोड़ा है, क्योंकि जब दिशा ग़लत होती है तो दशा की और दुर्दशा होती है. जब बसपा ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन चुनाव लड़ने का या राजपाट बनाने काम शुरू किया तो उसी समय मैं तुरंत बसपा से अलग हो गया था और हमारे साथ कई विधायक भी अलग हुए थे.”

राज बहादुर अकेले नेता नहीं हैं, जिन्होंने बीएसपी छोड़ी या निकाले गए. उनके अलावा आरके चौधरी, डॉक्टर मसूद, शाकिर अली, राशिद अल्वी, जंग बहादुर पटेल, बरखू राम वर्मा, सोने लाल पटेल, राम लखन वर्मा, भगवत पाल, राजाराम पाल, राम खेलावन पासी, कालीचरण सोनकर आदि अनेकों ऐसे नेता हैं जिन्हें बीएसपी से बाहर का रास्ता दिखाया गया.

इनमें आरके चौधरी, काली चरण सोनकर अपनी पार्टी चला रहें हैं. सोने लाल पटेल ने भी अपनी पार्टी बनाई थी, जिसे उनकी मौत के बात उनकी पत्नी चला रही हैं.

लेकिन ज्यादा तादाद ऐसे लोगों की है जो कांग्रेस या समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए.

पूर्व मंत्री शाकिर अली इस समय समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ रहें हैं, जबकि डॉक्टर मसूद, बलिहारी बाबू, रामाधीन, मेवा लाल बागी और राम खेलावन पासी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहें हैं. कई पुराने बीएसपी नेता इस समय कांग्रेस से सांसद हैं.

'कांग्रेस बेहतर'

राज बहादुर का कहना है कि अम्बेडकरवादी कांग्रेस को अपना करीबी मानते हैं क्योंकि कांग्रेस ने डाक्टर अम्बेडकर को कानून मंत्री बनाया था और उनके विचारों का प्रचार प्रसार किया.

जानकारों का कहना है कि मायावती अपने को ऐसे नेताओं से असुरक्षित समझती थीं जो सीधे कांशी राम से बात करते थे. इसलिए उन्होंने उन सभी लोगों को बीएसपी से बाहर किया जो उनके नेतृत्व को चुनौती दे सकते थे.

पत्रकार राज बहादुर सिंह के अनुसार कांशी राम ने कभी कहा था कि वह किसी कुर्मी नेता को मुख्यमंत्री बनाएंगे, इसलिए कुर्मी नेता विशेषकर मायावती की महत्वाकांक्षा का शिकार हुए.

'मूल समीकरण टूटे'

भारतीय जनता पार्टी का साथ लेने के बाद मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना शुरू किया, क्योंकि उनसे उन्हें अपने नेतृत्व को खतरा नही लगता. सवर्ण समुदाय का साथ मिलने से 2007 में मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बन सकीं.

लेकिन इस प्रक्रिया में कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण टूट गया.

धीरे-धीरे करके पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की भागीदारी बहुजन समाज पार्टी में कम हो गयी. प्रेक्षकों का कहना है कि हाल ही में बाबू सिंह कुशवाहा का निष्कासन भी बहुजन समाज पार्टी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगा.

बहुजन समाज पार्टी में इस विषय पर बात करने के लिए कोई नेता उपलब्ध नही था, क्योंकि मायावती ने अपने नेताओं को मीडिया से बात करने से मना कर रखा है.

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बहन जी में सेवा भावना कि कोई नई प्रक्रिया का सूत्र ही नहीं है केवल और केवल सत्ता के शीर्ष पर आसीन होने के,मुलायम सिंह यादव इससे भिन्न रहे पर अमर सिंह के आगमन से 'कुछ' विकृतियाँ उनमे आयीं जिससे उनका 'समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष' स्वरुप प्रभावित हुआ, पर अमर सिंह के जाने के बाद 'नेता जी के पास से बहुत सारे शुक्र -शनि रुपी सारे लूटेरे लगभग अपनी दूकान समेट कर जा चुके हैं)
"बहन जी कि मजबूरी ये है कि वो सदियों कि सारी दौलत जिससे दलित महरूम रहा है, उसे वह इकठ्ठा कर लेना चाहती हैं, यही कारण है कि आँखें मूदकर दोनों हाथों दौलत लूटती रही हैं, निश्चित रूप से दलित पुरे देश के निर्माण में अपना श्रम दिया है, उसे उसका हक मिलना चाहिए पर उन सबका हक 'बहन' जी अपनी मूर्तियों में लगाएं यह कोई बदलाव का स्वरुप नहीं है''
बदलाव के लिए "दलित समाज शास्त्रियों का मत, दलित चिंतकों का मत, दलित साहित्यकारों, कलाकारों,स्त्रियों का मत, जो समय समय पर बहन जी के तमाम कामों से भिन्न हुआ है उस पर विचार न कर 'मायावती जी कि निरंकुशता' ने सारी बदलाव की संभावनाओं को धूमिल किया है, यह समय इसी तथ्य को मजबूती से साबित करने जा रहा है. 
नीतिगत बदलाव न करके 'द्विजात्मक' संसाधनों के तहत व्यक्ति पूजा को ही प्रधानता दी हैं.
सामाजिक न्याय की शक्तियाँ इनके इस दुस्साहस से दुखी हैं.
क्योंकि मूर्तियां और प्रेरणा स्थल महापुरूषों या महिषियों के बनाते हैं,माया वतियों के नहीं , "बहन मायावती ने सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकश्यप की कथा के अनुरूप है, जिसमें वह अपने पुत्र प्रहलाद को जलाने के लि‌ए बहन होलिका को बुलाता है। जब होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठती हैं तो वह जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित रह जाता है। तब से होली का यह त्योहार मनाया जाने लगा है। 
कल क्या होगा, कहीं कुछ कथा का स्वरुप ऐसा न हो जाए .

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...