रविवार, 8 मई 2011

वाह शशांक शेखर जी - अंग्रेजों के पास भी आप जैसे ही नौकरशाह रहे होंगे |

वो क्या करते हैं अहले सियासत जाने 
अपना पैगाम तो मोहब्बत है जहाँ तक पहुंचे 
बड़े मर्हुलियत आगेज़ होते हैं सियासत के कदम 
तू न समझेगा सियासत तू इन्सान है अभी 
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जागरण की यह खबर यही कहती है. 

भूमि अधिग्रहण हिंसा का कारण नहीं: शशांक

May 09, 01:30 am
लखनऊ। राज्य सरकार ने रविवार को फिर दोहराया कि नोएडा के भट्ठा गांव में शनिवार को हुई हिंसा का कारण भूमि अधिग्रहण नहीं है। किसानों को भूमि अधिग्रहण से कोई शिकायत नहीं है। इस बीच प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने घटना को लेकर विरोधी दलों की बयानबाजी को राजनीति से प्रेरित और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
मुख्यमंत्री की ओर से कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने रविवार को उनके वक्तव्य की जानकारी दी। मुख्यमंत्री ने कहा है कि राज्य में सभी को शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात रखने का अधिकार है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कानून हाथ में लेकर लोक संपत्तिको क्षति पहुंचाई जाए। उन्होंने कांग्रेस पर तीखे आरोप लगाते हुए कहा बयान देने से पहले रीता जोशी को तथ्यों की पूरी जानकारी लेनी चाहिए थी। इसी तरह अजित सिंह को भी सोच-विचार कर बयान देना चाहिए। कैबिनेट सचिव ने साफ किया कि भट्टा गांव में जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई भूमि करार नियमावली के तहत काफी पहले की जा चुकी थी। किसी भी परियोजना के लिए गांव में भूमि अधिग्रहण करने संबंधी कोई कार्रवाई नहीं हो रही थी। गांव में विकास कार्य कराने की मांग को लेकर वहां किसान धरना दे रहे थे, जिन्हें बुलंदशहर के मनवीर तेवतिया ने निजी स्वार्थ के लिए भड़काया और रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। उन्हें छुड़ाने के दौरान ग्रामीणों व पुलिस के बीच संघर्ष में चार लोगों की मृत्यु हुई। भट्ठा गांव में मार्च 2009 से अगस्त 2009 के बीच 178 हेक्टेयर भूमि अधिगृहीत की गई थी जिसका 170 करोड़ रुपये मुआवजा किसानों के बीच वितरित किया जा चुका है। इसी प्रकार परसौल गांव में 260 हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत की गई जिसका 180 करोड़ मुआवजा वितरित किया जा चुका है। राज्य सरकार ने जो मुआवजा नीति घोषित की है, वह अन्य राज्यों से अधिक है।
कैबिनेट सचिव ने कहा कि भट्टा गांव में अब पूरी तरह से स्थिति नियंत्रण में है और कही पर भी कोई समस्या नहीं है। आगरा, अलीगढ़ और मथुरा में भी स्थिति सामान्य है।
तेवतिया सहित छह लोगों की गिरफ्तारी पर ईनाम
लखनऊ। भट्टा गांव में पुलिस व ग्रामीणों के बीच हुए हिंसक संघर्ष के लिए मनवीर सिंह तेवतिया सहित 22 व्यक्तियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी गयी है। इनमें तेवतिया व अन्य पांच लोगों की गिरफ्तारी के लिए ईनाम भी घोषित किया गया है।

कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के अनुसार मनवीर सिंह तेवतिया पर 50 हजार रुपये का ईनाम घोषित किया गया है। परसौल गांव के प्रेमवीर एवं नीरज मलिक पर 15-15 हजार रुपये तथा भट्टा गांव के गजे सिंह एवं किरनपाल और अच्छेपुर गांव के रहने वाले मनोज पर दस-दस हजार रुपये का ईनाम घोषित है। सभी पर आरोप है कि इन लोगों ने रोडवेज कर्मियों को बंधक बनाने के साथ ही पुलिसकर्मियों पर ग्रामीणों को भड़काकर फायर भी किये। कैबिनेट सचिव ने कहा तेवतिया ने टप्पल में भी किसानों को भड़काया था। एक राजनीतिक दल तेवतिया का समर्थन कर रहा है।
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क्या हो गया है सत्ता में बैठे 'मदांध' सत्तानसिनों को- 
क्या ये डकैत हो गए हैं जिन पर इनाम घोषित हो रहा है "जब कि डकैत तो सरकार में बैठे हैं" जो किसानों को लूट रहे हैं उनको कौन सजा देगा लगता है प्रदेश लूटेरों के हाथ में आ गया है.
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हिंसा सोची समझी साजिश : मायावती
लखनऊ।
Story Update : Monday, May 09, 2011    12:45 AM
राज्य सरकार ने कहा है कि भट्टा पारसोल में हुई हिंसा जमीन अधिग्रहण से संबंधित नहीं है। इसे लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं और कुछ राजनीतिक पार्टियां भड़काऊ बयान दे रही हैं। हिंसा फैलाने के आरोप में किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया के अलावा पांच और लोगों की गिरफ्तारी पर इनाम घोषित किया गया है।

भट्टा-पारसोल मामले में प्रदेश सरकार का पक्ष रखते हुए कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने कहा कि दोनों गांव नोएडा व ग्रेटर नोएडा की सीमा में आते हैं और वहां विकास कार्य के लिए जमीन अधिग्रहण की कार्यवाही आपसी समझौते के आधार पर पिछले वर्ष ही पूरी की जा चुकी है। कैबिनेट सचिव ने कहा कि मुख्यमंत्री मायावती ने कहा है कि भोलेभाले किसानों को आंदोलित करने के लिए विपक्षी दल निजी स्वार्थों के लिए उकसा रहे हैं और सरकार के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। उन्हें चाहिए कि भड़काऊ बयान देने से पहले वे तथ्यों से सही तौर पर अवगत हो लें। इस मुद्दे पर रविवार शाम कैबिनेट सचिव ने कहा कि यह किसी भी जमीन के अधिग्रहण से संबंधित मामला नहीं है।

दोनों गांवों में विकास के लिए जमीन अधिग्रहण का काम आपसी समझौते की नीति के आधार पर किया गया और मार्च 2009 से प्रक्रिया शुरू की गई थी। अगस्त 2009 में नोटिफिकेशन हुआ था। भट्टा गांव की 178 हेक्टेयर जमीन ली गई थी जिसका 120 करोड़ रुपये किसानों को मुआवजा दिया गया था। समझौते के साधार पर हुई कार्रवाई की वजह से किसानों ने मुआवजा उठाया था। ऐसे ही पारसोल गांव की 260 हेक्टेयर जमीन के लिए 180 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया गया।

कैबिनेट सचिव ने सफाई दी कि यह हिंसा कुछ असामाजिक तत्वों ने की। कैबिनेट सचिव ने कहा कि इस मामले में 22 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। वहां स्थिति सामान्य है और कानून-व्यवस्था की कोई समस्या नहीं है। कैबिनेट सचिव ने कहा कि आगरा में हुआ संघर्ष भी जमीन अधिग्रहण का मामला नहीं है। उन्होंने कहा कि एतमादपुर गांव में मंदिर के छज्जे को लेकर विवाद हुआ था, जिसे लेकर भ्रांति फैलाई गई। कैबिनेट सचिव ने कहा कि जिस जगह संघर्ष हुआ उसे लोग टप्पल से जोड़ा जा रहा है जबकि टप्पल वहां से तीस किलोमीटर दूर है।

इन पर हुआ इनाम
पारसोल गांव के नीरज मलिक व प्रेमवीर - 15-15 हजार रुपये
भट्टा गांव के गजय सिंह और किरम पाल - 10-10 हजार रुपये
आछेपुर गांव के मनोज पर - 10 हजार रुपये का इनाम घोषित किया गया है।
(मनवीर तेवतिया की गिरफ्तारी पर शनिवार को ही 50 हजार का इनाम घोषित करा गया था )

अमर उजाला ब्यूरो

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शुक्रवार, 6 मई 2011

Lalit Kala Akademi chairman rejects Maya’s award


Criticising the approach of the Mayawati government towards literature, noted poet and chairperson of Lalit Kala Akademi Ashok Vajpeyi has rejected the highest literary honour of Uttar Pradesh Hindi Sansthan, the Bharat Bharati Samman.
In a snub to Mayawati, he has questioned why instead of the Chief Minister or the Governor, a minister has been invited to distribute the awards when the CM is the president of the Sansthan. “Accepting any award from such an institute I consider my insult and of the entire writer community,” wrote Vajpeyi in a May 2 letter to Ashok Ghosh, the Principal Secretary, Language, UP.
Earlier this year, the Sansthan announced over 100 awards to writers following recommendations by a duly-constituted jury. But the UP government, without assigning any reason, scrapped all awards except the top three — Bharat Bharati, Hindi Gaurav and Mahatma Gandhi Sahitya Samman.
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“It is not proper to scrap the awards from retrospective effect... I request that the Sansthan gives the awards to all winners,” Vajpeyi wrote in an earlier letter to the UP government.
The Sahitya Akademi winner questioned the government’s seriousness regarding the honour. “It is clear that the CM or the Governor do not have time to distribute the highest and now purposelessly remaining three awards of UP...I politely suggest not to hold the award ceremony.”
When Vajpeyi did not get any reply from the government, he rejected the award. The ceremony is scheduled on May 19 with UP Urban Development Minister Nakul Dubey as the chief guest.


मंगलवार, 3 मई 2011

एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर

एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफरPDFPrintE-mail
दलित मत से साभार 
Written by अशोक 
  
Sunday, 01 May 2011 19:२५
Written by अशोक 
जब आप एस.आर लाखा के बारे में बात करेंगे तो लगेगा जैसे कोई फिल्म देख रहे हैं. एक अद्भुत फिल्म. जो हर किसी के लिए प्रेरणा हो सकती है. सफलता को पाने की ललक, जिद और जूनून उनके पूरे जीवन में साफ दिखता है. बचपन में अपने मां-बाप के साथ उन्होंने ईंट-भट्ठे पर काम किया लेकिन हार नहीं मानी. पढ़ाई के दौरान कई बार घर से स्कूल की दूरी बढ़ने के बावजूद वह हर बार उसका पीछा करते रहे.
चप्पल पहनने से कितनी राहत मिलती है यह वो आठवीं कक्षा के बाद जान पाएं. इन तमाम मुश्किलों के बावजूद लाखा सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर कलेक्टर बने. इसके बावजूद वो अपने गर्दिश के दिनों को कभी नहीं भूले और 30 साल के करियर में हर वक्त समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे. चाहे तमाम जिलों में कलेक्टर का पद हो, या सोशल सेक्टर में रहे हों या फिर यूपी के 570 आईएएस में से सबसे भ्रष्ट तीन नौकरशाह चुनने की बात हो, हर नई जिम्मेदारी के साथ उन्होंने साबित किया कि उनसे बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता था.
रिटायर होने के बाद एस.आर लाखा इन दिनों एक नई जिम्मेदारी के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके है. हाल ही में उन्हें ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ के कुलपति पद की जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके 'विजन' के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है-----
अपका जन्म कहां हुआ, बचपन कहां गुजरा?
-  जन्म 12 मार्च 1949 को पंजाब में एक गांव है भंगरनाना. नवाशहर जिले में है, वहीं हुआ था. एक छोटे से घर में हुआ था. मां-बाप खेती करते थे. चौथी तक की पढ़ाई यहीं हुई. मिडिल क्लास में पढ़ने के लिए घर से पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में गया. हाई स्कूल के लिए गांव से आठ किलोमीटर गया. डिग्री तक की शिक्षा सिख नेशनल कॉलेज से की. एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से किया. इस दौरान मां-बाप के साथ खेती-बारी में सहयोग भी करता था. फिर 76 में दिल्ली आ गया. पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद 77 फरवरी में सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी मिली थी. सेक्सन आफिसर की नौकरी थी. इसमें रहा. साथ-साथ आईएएस की तैयारी भी करता रहा. 78 का जो आईएएस का रिजल्ट आया, उसमें सेलेक्ट हो गया. 79 में मंसूरी में ट्रेनिंग हुई, फिर मैं यूपी कैडर में आ गया.
परिवार में कौन-कौन था. सामाजिक परिवेश और घर की आर्थिक स्थिति कैसी थी?
-  जब मैं पैदा हुआ था तब घर की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी. जब बारिश होने लगती थी तो पूरा परिवार चिंतित हो जाता था कि अगर बारिश नहीं रुकी तो रोटी कैसे खाएंगे. तब मां कहती की जाओ काम कर के कुछ खाने को ले आओ. तो ऐसी स्थिति थी. चप्पल मुझे आठवी क्लास के बाद पहनने को मिली. उससे पहले गर्मी के दिनों में हम यूं ही नंगे पांव स्कूल में जाते थे. तो आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी. मां-बाप मजदूरी करने जाते थे. हम भी उनके साथ चले जाया करते थे. पहले सुबह स्कूल में पढ़ने जाते, फिर शाम को मां-बाप के साथ काम करने जाते थे. वो भट्ठे पर ईंट बनाने का ठेका लेते थे, फिर बटाई पर खेती करते और जानवर रखते तो हम भी उनकी मदद करते. जानवर होते थे तो उनको चारा डालने का काम करते थे. दूध निकालते थे. हम चार भाई थे, एक बहन थी. मैं चौथे नंबर का भाई था. मुझसे छोटी एक बहन थी. बड़ा भाई इंग्लैंड चला गया तो पैसे भेजने लगा. फिर मेरे पिताजी ने देखा कि मैं पढ़ने में ठीक हूं तो मुझे पढ़ाने लगे.
बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए?
- हां, आर्थिक स्थिति खराब थी तो मां-बाप भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करते थे. एक हजार ईंट बनाने के तब दो रुपये मिलते थे. तो हम भी मां-बाप के साथ रात को काम करते थे. सन् 1966 की बात है.
इतनी मुश्किलों और गरीबी से गुजरने के बाद आप कलेक्टर बने थे. इस दौरान आपका सामना तमाम गरीब परिवारों से होता होगा. उन्हें देखकर उस वक्त आपके जहन में क्या चलता था. क्या आपको अपनी मुफलिसी के दिन याद आते थे?
- मेरी पूरी ब्यूरोक्रेसी लाइफ के कुल 30 सालों में से छह साल तक मैं सोशल सेक्टर में रहा. यहां मुझे वंचित समाज के लिए काम करने का मौका मिला. एससी/एसटी समाज के लोगों का प्रोजेक्ट मंजूर करना, उनकी दिक्कतें दूर करने का काम था. यहां मुझे बहुत मजा आता था. एक आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. मैं यह भी ध्यान रखता था कि कोई स्टॉफ उनसे कमिशन ना ले. ऐसा करने पर मैं बड़ी कार्रवाई करता था. तो अपने समाज के गरीब लोगों के लिए काम करने का अपना आनंद है. मुझे याद है कि जब मैं फैजाबाद में कलेक्टर था. मैं कहीं जा रहा था तो एक ईंट-भट्ठा दिखा. मै अपनी गाड़ी रुकवा कर वहां काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया. मैने उनसे पूछा कि आजकल ईंट बनाने का दाम कैसा चल रहा है. तो उन्होंने बताया कि अब एक हजार बनाने के दस रुपये मिलते हैं. वहां से चले तो मेरे ड्राइवर ने पूछा कि साहब आप इतनी गर्मी में इतनी दूर क्यों गए थे? हालांकि मैने तब ड्राइवर को नहीं बताया कि मैं इसलिए गया था क्योंकि आज जिस झोपड़ी में वो मजदूर रहते थे. मैं भी उसी झोपड़ी से निकला था और वहां से उठकर अब कलेक्टर की गाड़ी में यहां आया हूं. यह जो सफर मैने तय किया है. वह मुझे याद आता था. तो ब्यूरोक्रेसी में रहने के दौरान भी मेरे पूरे करियर में यह अहसास, यह दर्द मेरे अंदर रहा. जब मैं पब्लिक सर्विस कमिशन का चेयरमैन बना. तब उस समय एससी/एसटी/ओबीसी और गरीबों का जो भी बैकलॉग था. मैने उसे भरने की पूरी कोशिश की और भरा भी. इससे मुझे आज भी बहुत संतुष्टि मिलती है.
आज भी मैं किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई वगैरह में कोई कठिनाई होते देखता हूं तो खुद को रोक नहीं पाता. जैसे हमारे यहां एक इंटर कॉलेज खुला है. कुछ दिन पहले वाल्मीकी परिवार के कुछ लोग हमारे पास आएं कि साहब फीस बहुत ज्यादा है और हम इतनी फीस नहीं दे पाएंगे. मैनें उनसे कहा कि वो बच्चों की पढ़ाई जारी रखें उनकी फीस मैं भर दूंगा. वाल्मीकी समाज में आज शिक्षा का बड़ा अभाव है. जब भी किसी गरीब आदमी को देखता हूं तो तुरंत मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ जाते हैं. जैसे हमारे मां-बाप काम करते थे. हम भी उनके साथ काम करते थे. फिर गांव से दलिया बनाकर भट्ठे पर ले जाते थे. दूध बेचते थे. जानवर चराते थे. तो हमेशा गरीबों के लिए दर्द रहता है.
सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने के बाद जब आप ट्रेनिंग के लिए मसूरी पहुंचे, वो आपके लिए कितने गौरव का पल था?
- 11 जुलाई को मैं मसूरी पहुंचा था, सन् 79 को. तब मसूरी में बहुत बारिश हो रही थी. इससे पहले मैने कभी पहाड़ देखे नहीं थे. जब हम टैक्सी में देहरादून से मसूरी जा रहे थे तो हमारी गाड़ी बादल और पहाड़ों के बीच में चल रही थी. तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं. यह एक सपने के जैसा था. फिर हम अकादमी में पहुंचे. वहां हमें कमरा अलॉट किया गया. ट्रेनिंग सोमवार से शुरू होनी थी और मैं शनिवार को ही पहुंच गया था. मैं खाना खाकर अपने कमरे में सो गया. दो दिन-दो रात तक बारिश होती रही. मैं दो दिन-दो रात तक लगातार सोता रहा. मैं खाना खाने के बाद जैसे बेहोश हो जाता था. वहां के स्टॉफ ने पूछा कि आप दो दिन से लगातार सो रहे हो. तो मैने कहा कि यार मैने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है (चेहरे पर वह दर्द फिर उभर आया). अब जरा अच्छी जगह आया हूं मुझे चैन से सो लेने दो. इसके बाद फिर शुरू करना है काम.
अपने करियर में आपने किन-किन शहरों में किन-किन पदों पर काम किया?
-सबसे पहली पोस्टिंग जहां बैठे हैं (यूनिवर्सिटी कैंपस  की ओर इशारा करते हुए), और जिसे आज ग्रेटर नोएडा कहते हैं, इसी इलाके में हुई. तब यह सारा एक था. मैं एसडीएम सिकंदराबाद के पद पर आया था. फिर तीन साल बाद यहीं कलेक्टर बन गया. बुलंदरशहर जिले में. फिर फैजाबाद में और देवरिया में कलेक्टर रहा. ज्यादा काम मैने सोशल सेक्टर में किया. डायरेक्टर सोशल वेलफेयर साढ़े तीन साल रहा, तीन साल शिड्यूल कास्ट कॉरपोरेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर रहा. इसमें जो भारत सरकार की योजनाएं थी, स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के अंतर्गत इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जो आर्थिक योजना थी, वो उन्हें दिया. साथ ही उनके लिए स्पेशल ट्रेनिंग का कार्यक्रम भी आयोजित किया. इसके बाद भी कई विभागों में काम किया. सूडा का चेयरमैन रहा.
बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
- खुद के और अपने मां-बाप के जिस सपने और अरमान के साथ मैं आईएएस बना, उसका मैने हमेशा ख्याल रखा. जो हमारे बड़े थे, वो मुझसे अक्सर कहा करते थे कि आईएएस बनने के बाद तुम अपने समाज के लोगों का ख्याल रखना. उनकी जितनी मदद हो सके जरूर करना. तो इसे मैं अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं कि मैं पूरी जिंदगी अपने बड़ों की उम्मीद और अपने इस कमिटमेंट को नहीं भूला, चाहे मुझे कितनी भी दिक्कते आईं. मैं कभी नहीं भूला.
जब आप बुलंदशहर में थे तो 26 जनवरी के दिन दलित बस्ती में झंडा फहराने को लेकर आप काफी चर्चा में रहे थे. दलित समाज से तमाम आईएएस होते हैं. आम तौर पर ऐसा सुनने को नहीं मिलता. लेकिन वो कौन सी बात थी जिसने आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया?
- इसकी एक कहानी है. हुआ यह था कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो नवाशहर में हमारे एसडीएम बैठते थे. वहां डीएसपी का भी आफिस था. एक दिन मैं उसके आगे से निकलने लगा तो लोग कहने लगे कि यहां से मत जाओ, यहां एसडीएम का बंगला है, डीएसपी का बंगला है. तो मुझे उस वक्त बड़ा अजीब लगा कि हम उनके बंगले के आगे से भी नहीं निकल सकते? तो जब मैं खुद डीएम बना तो मुझे एक  बात याद आई कि बाबा साहेब आगरा में आए थे. यहां उन्होंने काफी काम किया और स्कूल भी खोला था. जब मैं सिकंदराबाद का एसडीएम था तो मैने वहां म्यूनिसिपल कारपोरेश बोर्ड में बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई. लेकिन कुछ लोगों ने अपने वाल्मीकी समाज के लोगों को भड़का दिया और मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया. वो मुकदमा चलता रहा. जब मैं कलेक्टर बनकर बुलंदशहर आया तो मैने इसे ठीक करवाया. यानि लोग चाहते नहीं थे कि मैं बाबा साहब की प्रतिमा लगवाऊं. उसके बाद कासगंज गया तो वहां भी एक चौराहे पर बाबा साहेब का बुत लगवाया.
तो जो आपने पूछा कि मैं दलित बस्ती में क्यों गया था तो मैं वहां इसलिए गया था ताकि उनलोगों का हौंसला बढ़े कि हमारे समाज का कलेक्टर आया है और हमारे बीच में आया है. आमतौर पर वो लोग कलेक्टर की गाड़ी को बाहर से देखते थे. मैने सोचा उनके बीच जाकर उन्हें कांफिडेंस दिया जाए. ताकि उन्हें लगे कि अपना आदमी है तो इसके दिल में अपनों के लिए दर्द भी है.
आप बतौर ब्यूरोक्रेट्स रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. इस जिम्मेदारी को आप कितना बड़ा मानते हैं?
- मैं आईएएस के पद से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से रिटायर नहीं हुआ. मेरी जिंदगी में जो अरमान हैं, मेरे अंदर समाज के लिए काम करने की जो ख्वाहिश है, वह अभी भी है. और मेरी ख्वाहिश है कि मैं जब तक जिंदा रहूं इस समाज के लिए काम करुं. गुरु रविदास जी ने कहा था कि ‘जे जन्म तुम्हारे लिखे’ बल्कि अब मुझे काम करते हुए ज्यादा खुशी हो रही है. क्योंकि आईएएस रहते हुए ऑल इंडिया सर्विस रुल का ख्याल रखना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस के बाहर रहने के बाद आदमी खुलकर काम कर सकता है. मगर काम समाज के लिए करना है, अपने लिए काम नहीं करना है. समाज के लिए ‘पे-बैक’ करना है. समाज ने जो हमें दिया है, अब मुझे उसे समाज को लौटाना है.
जहां तक कुलपति की जिम्मेदारी का सवाल है तो जब मैं कमिशन में गया था. तो मैने उस जिम्मेदारी को भी बहुत बड़ा माना था और बहुत अच्छा काम किया. अब इस जिम्मेदारी को भी मैं बहुत बड़ा चैलेंज मानता हूं. यह एक ड्रीम प्रोजेक्ट है. और मैं चाहता हूं कि इसकी ख्याति दुनिया भर में फैले और यह संस्थान सामाजिक परिवर्तन का सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बने.
देश में पहले से ही कई विश्वविद्यालय (University) है. ऐसे में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय औरों से किस मायने में अलग है. आप इसको किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं?
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय परंपरागत विश्वविद्यालयों से थोड़ा अलग है. इसकी जो सबसे खास बात है, वह यह कि इसको तीन हिस्सों में बांटा गया है. एक मैनेजमेंट का है, दूसरा इंजीनियरिंग का है जबकि तीसरा ह्यूमिनिटिज (Huminities) का है.  यूनिवर्सिटी का मकसद होता है एजूकेशन ऑफ यूनिवर्सिलाइजेशन. तो जो बुद्धिस्ट दर्शन है, बुद्धिस्ट कल्चर है, सिविलाइजेशन है, इसमे हजारों सालों से जो काम नहीं हुआ है, लोगों को उसकी जानकारी देना और जागरूक करना है. खासकर के शिड्यूल कॉस्ट के बच्चे हैं हम उनकों स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के तहत बाहर के देशों में भी पढ़ने के लिए भेजते हैं. ताकि विद्यार्थियों का एक्सपोजर विदेशों में भी हो. किसी और विश्वविद्यालय में यह सुविधा नहीं है. यह सिर्फ हमारे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में है. अगर अनुसूचित जाति के वैसे बच्चे जिनके पास पैसे नहीं है लेकिन वो बाहर पढ़ने जाना चाहते हैं, तो हम उन्हें भेजते हैं. इस साल भी हमने इसके लिए तीन करोड़ रुपये की व्यवस्था की है और 30 बच्चे बाहर भेजना है. पिछले साल 12 बच्चे गए थे. बाहर की कुछ यूनिवर्सिटी के साथ हमारा एग्रीमेंट है, उससे टाइअप करके बच्चों को भेजा जाता है.
दूसरा जो बुद्धिस्ट दर्शन है, उस पर सर्च करना, सिविलाइजेशन पर सर्च करना और उसकी पब्लिसिटी करना ये बहुत महत्वपूर्ण है.
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है?
- इसका पूरा कैंपस 511 एकड़ में फैला हुआ है. ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी इसको फाइनेंनसियली सपोर्ट करती है. पहले 2002 में इसकी नींव पड़ी लेकिन फिर कुछ राजनीतिक परिवर्तन होने के कारण 2008 से ठीक से काम शुरू हुआ. अभी यहां 60 फीसदी से ज्यादा का निर्माण हो गया है. कुल चार स्कूल (फैकल्टी) बाकी हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाएंगें. इसके साथ ही सभी आठो स्कूल (फैकल्टी) काम करना शुरू कर देंगे. अभी एक हजार बच्चे हैं और जुलाई से 2100 और बच्चे हो जाएंगे. हमारे हॉस्टल (लड़के-लड़कियां) की कैपेसिटी तीन हजार से ज्यादा हैं. यहां कांशीराम जी के नाम पर एक बहुत बड़ा आडिटोरियम बनने जा रहा है. 40 एकड़ में हमारा स्पोर्ट्स स्टेडियम बन रहा है. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का मैदान औऱ स्वीमिंग पूल बनेगा. यह शुरू हो चुका है. इसी तरीके से बुद्धिस्ट सेंटर, मेडिटेशन सेंटर और लाइब्रेरी सब आधुनिक हैं. एक साल में यह सारे काम खत्म हो जाएंगे.
सन् 2008 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी, जल्दी ही इसके तीन साल होने वाले हैं. इन तीन सालों में विश्वविद्यालय ने कितना सफर तय किया है?
- यह तीसरा सत्र है. अभी तक यहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में ज्यादा बच्चे रहे हैं. जबकि ह्यूमिनिटिज में अब तक अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाया है. अब हमारा फोकस बच्चों को ह्यूमिनिटिज में दाखिला देना है. एससी/एसटी वर्ग के गरीब बच्चों के लिए यहां मुफ्त शिक्षा है लेकिन हम इस कोशिश में भी हैं कि समाज के अन्य बच्चों को भी जो पढ़ने में ठीक हैं, उन्हें लिए फीस स्ट्रक्चर में थोड़ी रियायत दी जाए ताकि वो भी आगे बढ़ें.
अभी तक कितने पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं. कितने बाकी है?
- चार पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं और चार बाकी है. जैसे वोकेशनल एजूकेशन का बाकी था. लॉ एंड जस्टिस का बाकी था. स्कूल ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन ये अभी नहीं चल पाया है. स्कूल ऑफ मैनेजमेंट चल रहा है, स्कूल ऑफ इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी चल रहा है, स्कूल ऑफ लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस शुरू होना है. स्कूल ऑफ वोकेशन स्टडीज भी शुरू होना है, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलाजी और इंजीनियरिंग चल रहा है.
इस विश्वविद्यालय के तमाम पाठ्यक्रम में बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन एक महत्वकांक्षी पाठ्यक्रम था. यह शुरू नहीं हो पाया है, इसके पीछे क्या वजह थी. इसको आप कैसे शुरू करेंगे?
- मुझे लगता है कि इसमें माइंड सेट की दिक्कत थी. पहले ज्यादा ध्यान मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग पर दिया गया. ध्यान देना भी चाहिए. लेकिन यह यूनिवर्सिटी है. इसका जो मुख्य फोकस था वो वोकेशनल एजूकेशन फॉर बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर था. इसको थोड़ा सा पीछे कर दिया गया था. अब मैने 2008 में इस विश्वविद्यालय की चांसलर बहन जी ने जिस-जिस विषय की घोषणा की थी, मैने उसे फिर से बिल्कुल वैसा ही (रि स्टोर) कर दिया है. अब इसमें रिसर्च का काम होगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां बुद्धिस्ट के ऊपर काम हो रहा है, उनको बुलाया जाएगा. हम सोच रहे हैं कि अगस्त में बुद्धिज्म पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार विश्वविद्यालय में करवाई जाए. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन्हें बुलाया जाए. हमारी कोशिश है कि एक डिस्कशन हो और उससे एक थीम निकले कि बुद्धिस्ट स्टडीज का पाठ्यक्रम (syllabus)  कैसे बनाया जाए. जैसे जापान की एक यूनिवर्सिटी में बुद्धिज्म पर काफी काम हो गया है. कोलंबियन यूनिवर्सिटी में इस पर काफी काम हो रहा है. बाहर के देशों में बुद्धिज्म एंड सिविलाइजेशन पर कैसे काम हो रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए हम अपने कोर्स को एडप्ट करें और इसके पहले बुद्धिज्म पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कांफ्रेंस करवाएं. इसके बाद हम यह तय करेंगे कि बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर भविष्य में हमारा लाइन ऑफ एक्शन क्या होगा.
इसी प्रकार से लॉ, जस्टिस एंड गवर्नेंस है. यह बाबा साहेब का सब्जेक्ट है. वैसे बाबा साहेब को किसी विषय में बांधा नहीं जा सकता. तो हम सोच रहे हैं कि इसमें एक सब्जेक्ट ऐसा बनाया जाए, जिसमें शिड्यूल कॉस्ट के लिए संविधान में जो कानून बने हैं उस एक विषय अलग से रखा जाए. इस विषय पर एक पेपर रखा जाए ताकि लोगों को पता चल सके. साथ
ही विद्यार्थी अनुसूचित जाति को मिलने वाले कानूनी अधिकार को जान सके.
गौतम बुद्ध का जो दर्शन है, वह शांति, समानता और सौहार्द है. यह विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर है. ऐसे में दलित एवं वंचित समाज को आगे बढ़ाने के लिए यह विश्वविद्यालय कितना प्रतिबद्ध है?
- सौ फीसदी...। हमने पहले ही कह रखा है कि यहां एससी/एसटी समुदाय के बच्चे यहां तक बीपीएल परिवार के जनरल वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो हमने उनकी फीस माफ की हुई है. इसके अलावे अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ऐसे बच्चें जो पढ़ने में काफी अच्छे हैं और जिनके आगे बढ़ने की संभावना है उन्हें हम पढ़ने के लिए विदेशों में भेजते हैं. यह व्यवस्था किसी और विश्वविद्यालय में नहीं है. यहां बच्चों के लिए आवासीय व्यवस्था जरूरी है. इससे बच्चों को एक विशेष वातावरण मिलेगा. बच्चों के व्यक्तित्व का और बेहतर विकास हो पाएगा.
विश्वविद्यालय को लेकर भविष्य की योजना क्या है?
- फिलहाल तो सबसे प्रमुख योजना ‘बुद्धिस्ट स्टडीज और सिविलाइजेशन’ को टेक आफ कराना है. लॉ, जस्टिस को शुरू करना है. 40 एकड़ में जो हमारा स्पोर्ट्स कंप्लेक्स है उसको लांच करना है.
आने वाले पांच सालों में आप इस विश्वविद्यालय को कहां देखना चाहते हैं?
- आने वाले पांच सालों में न सिर्फ भारत बल्कि एशिया और विश्व स्तर पर इस विश्वविद्यालय की एक पहचान बने, ऐसा मैं चाहता हूं. इसके लिए हमने तीन चीजों को चिन्हित किया है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना
इकठ्ठा कर के यह पता लगाएं कि ऐसी कौन सी किताबें हैं जो हार्वर्ड में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में, या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है और हमारे पास नहीं है. इसी तरह हमारी जो इंजीनियरिंग लैब है. उसमें हम आईआईटी खड़गपुर, कानपुर और आईआईटी दिल्ली के स्तर के सारे इंस्ट्रूमेंट लाने के लिए प्रतिबद्ध है. हम देख रहे हैं कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है. तो जो गैप है, उसे पहचान करके दूर करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि बच्चों को उसका पूरा फायदा मिले. हम पाली भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश में लगे हैं.
कई ब्यूरोक्रेट्स रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आ जाते हैं. क्या आपने राजनीति में आने की सोची है?
- मेरा मकसद समाज की सेवा करना है ना कि राजनीति में आना. अभी तक मैने राजनीति से बाहर रह कर अच्छा काम किया है. मैं आज भी यह सोचता हूं कि मैं राजनीति से बाहर रह कर समाज के लिए ज्यादा बेहतर काम कर सकता हूं.
आपकी किन चीजों में रुचि है?
- मैं लिखने के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन पढ़ने का मुझे बहुत शौक है. मेरे घर पर और ऑफिस में दोनों जगह लाइब्रेरी है. आज भी बाबा साहेब को पढ़ता रहता हूं. लेकिन इतना कष्ट है कि मुझे समाज के लिए जितना करना चाहिए था लगता है कि मैं उतना कर नहीं पाया. यही जो टिस है वो मुझे और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करती है. जिंदगी निकलती जा रही है. मगर काम करने को लेकर मेरी भूख बनी हुई है.
क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है?
समाज के लोगों द्वारा मिली सराहना ही मेरे लिए पुरस्कार है. जब समाज के लोग आकर मिलते हैं और यह बताते हैं कि मैने विभिन्न पदों पर रहते हुए समाज के लिए, उनके लिए कुछ अच्छा किया. जब समाज के लोग इज्जत देते हैं तो अच्छा लगता है. यही मेरे लिए सच्चा पुरस्कार है.
एक ब्यूरोक्रेट्स का जीवन तमाम लोगों से घिरा हुआ होता है. आपके करियर की ऐसी कौन सी घटना है, जिसने आपको प्रभावित किया हो और जिसे आप याद रखना चाहते हैं?
- जब कानपुर में मैं स्लम एरिया का चेयरमैन था तो एक बस्ती में लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे. कोई बुनियादी व्यवस्था तक नहीं थी. मैने उनके लिए पीने के साफ पानी, सड़क एवं सफाई, उनके बच्चों के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था कराई. मैने उनके लिए सरकार द्वारा प्रायोजित रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से मदद किया. उन्हें बताया कि शराब पीना गलत है, इसे छोड़ दो. इस प्रकार जो बस्ती एक स्लम एरिया थी मैने उसे दो साल में आदर्श कालोनी बना दिया. तभी मुझमें यह विश्वास आया कि जब एक कालोनी आदर्श बन सकती है, तो पूरा समाज बन सकता है. बस उनके बीच काम करने की जरूरत है. लोग सुनते हैं और रेस्पांस देते हैं.
व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कौन सा वक्त आपके लिए मुश्किल औऱ चुनौती वाला रहा?
- जो मुझे याद आ रहा है तो 30 साल के नौकरीपेशा पीरियड में सबसे बड़ी चुनौती 96 में आई. तब सभी आईएएस ने एजीएम की बैठक में 530 आईएएस में से सर्वसम्मति से मुझे जनरल सेक्रेट्री सेलेक्ट कर लिया. यूपी या फिर पूरे देश की ब्यूरोक्रेसी में मैं पहला शिड्यूल कॉस्ट आईएएस था जिसे आईएएस की इतनी बड़ी बॉडी ने जनरल सेक्रेट्री नियुक्त किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा.
मेरे साथ एक दूसरी घटना बचपन में घटी. मुझे याद है कि 66-67 में मेरे मां-बाप ने एक एकड़ जमीन बटाई पर ली थी. जुलाई या फिर अगस्त का महीना था. बहुत गर्मी और उमस थी. मां ने कहा कि पास वाले कुंए से पानी लेकर आओ. मैंने पास के ही मंदिर के एक कुएं से पानी खींच लिया. तभी एक आदमी भागा-भागा आया. वह पुजारी था. उसने कहा कि तुम तो शिड्यूल कास्ट हो तो तुमने कैसे पानी निकाल लिया और उसने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैने पूछा कि मुझे क्यों मार रहे हो तो उसने कहा कि तुम छोटी जाति से हो और यहां से पानी नहीं निकाल सकते. जब वह मुझे मारता रहा तो मुझे भी गुस्सा आ गया फिर मैने भी पानी की बाल्टी उठाकर उसके सर पे मार दी. वह वहीं बेहोश हो गया. फिर गांव में पंचायत हुई और समझौता हुआ. उस वक्त मैने महसूस किया कि जाति की जो पीड़ा है, जो दुख है, वह कितना बड़ा है.
आपके सपने क्या हैं?
- मैं गुरुग्रंथ साहब के दर्शन पर बहुत ज्यादा विश्वास करता हूं. उसमें कहा गया है कि ‘नानक साचक आइए, सच होवे तो सच पाइये’. यानि कि अगर आप सच पर चलते रहिए तो जीत निश्चित ही आपकी ही होगी. मैं इस पर काफी विश्वास करता हूं. हमारे समाज को सच्चाई नहीं मिली. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है. वह यह है कि हमारा समाज जिस चीज का हकदार था उसे वह नहीं मिला. बावजूद इसके अगर हम सच पर चलेंगे तो एक दिन जीत हमारी होगी. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है और इसको कैसे ठीक किया जाए. यह मेरा एक्शन प्लान है.

इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप दलित मत.कॉम से 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. अगर आप कुलपति एस.आर लाखा तक कोई संदेश देना चाहते हैं तो हमें ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

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