शनिवार, 13 नवंबर 2010

जैसे रूस-अमेरिका मिले वैसे सपा-बसपा भी मिलेंगे!


कौशलेंद्र प्रताप यादव

मुल्क की मौजूदा सियासी जमीन पर दलित पिछड़ा गठबंधन की बात करना उतना ही अजूबा है ,जितना अलास्का में शेर देखना।कारण यह कि जिस उत्तर प्रदेश में इसकी संभावनाओं ने जोर पकड़ा ,इसकी वहीं भ्रूण हत्या कर दी गई।इसकी संभावनाओं पर आंतरिक खतरे भी उतने ही ज्यादा थे जितने बाह्या आक्रमण। राजनीति की बिसात पर गठबंधनों का बनना- बिगड़ना कोई नई बात नहीं, लेकिन यह जोड़ कुछ ऐसे टूटा कि इसने अपने पीछे तमाम संभावनाओं पर तुषारापात कर दिया।

1993 में माननीय कांशीराम के प्रयासों से राज्य में सपा-बसपा का सियासी गठजोड़ उनकी कीमियागिरी का नतीजा था,साथ ही उनकी मजबूरी भी।कांशीराम ने अपनी जन्मभूमि पंजाब और कर्मभूमि महाराष्ट्र को छोड़कर उत्तरप्रदेश को ही अपनी युद्धभूमि चुना था।उनके शब्दों में, उत्तर प्रदेश ही वह जगह है ,जहां से देश की शासक जातियां ऑक्सीजन प्राप्त करती हैं।हम यह गला दबाने में कामयाब हो जाएंगे तो देश से मनुवाद अपने आप समाप्त हो जाएगा।कांशीराम ने देर- सबेर प्राय सभी दलों से गठबंधन किया,लेकिन सवर्ण वर्चस्व की पार्टियों से गठबंधन पर उनको सकारात्मक नतीजे नहीं मिल रहे थे।कारण कि बसपा का समर्थक तो गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट देता था,लेकिन सवर्ण वोटर बसपा के दलित उम्मीदवारों को कभी वोट नहीं करते थे।इसलिए कांशीराम एक भरोसेमंद साथी की तलाश में थे और मुलायम सिंह भी बसापा से गठजोड़ करने को उतावले थे। कांग्रेस से उनका गठबंधन टूट चुका था। भाजपा के साथ जा नहीं सकते थे। उनका पैतृक संगठन जनता दल भी उस समय उन पर भारी पड़ रहा था।
1991 के चुनाव में मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मुलायम सिंह की सीटें जनता दल से कम आई थीं। इस प्रकार दोनों की जरूरतों ने सपा- बसपा गठजोड़ को मूर्तरूप दिया ।
जैसे ही यह गठबंधन हुआ,दलितों –पिछड़ों ने इसे हाथों – हाथ लिया। इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में राम लहर को जमींदोज करने का काम किया और गली-कूचों में यह नारा बुलंद हुआ,मिले मुलायम-कांशीराम,हवा में उड़ गए जयश्रीराम।यह भारतीय राजनीति का पहला ऐसा गठबंधन था,जिसे स्वीकार करने में इसके वोटरों को कोई समस्या नहीं आई। लेकिन इस गठजोड़ की संभावनाओं को देखकर भगवा खेमें ने इस पर साजिशों का ग्रहण लगाना शुरू कर दिया।उसने सपा-बसपा के नेताओं को चुग्गा डालना शुरू किया जिसे तत्कालीन परिवेश में न मुलायम समझ पाए और न ही मायावती।लेकिन इसे तत्कालीन भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राजनाथ सिंह के एक बयान से जरूर समझा जा सकता है।जब यह गठबंधन टूटा और भाजपा के समर्थन से बसपा सत्ता में आई , तो राजनाथ सिंह से मीडिया ने पूछा कि यह सरकार कितने दिन चलेगी। उनका जवाब था, यह सरकार चले या न चले,हमारा मकसद पूरा हुआ।
दोनों के अलगाव के बाद लोग इस चिंगारी को अपने फायदे –घाटे के अनुसार हवा देते रहे।कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी से सपा-बसपा से अलगाव को ऑक्सीजन दिया।आज की तारीख में सपा-बसपा का नेतृत्व अपनी अक्ल से कम ,कांग्रेस और भाजपा के एजेंट के रूप में एक –दूसरे के खिलाफ ज्यादा काम करता है। अब यह संभावना दो व्यक्तियों के अहं का शिकार हो चुक है।इसलिए दलित-पिछड़ा गठबंधन का दोबारा आरंभ इस बार सतर्कता से करना होगा।1993 में जो गठबंधन हुआ था, उसे सड़कों पर संघर्ष करने का मौका नहीं मिला। कोई वृहद सामाजिक- आर्थिक कार्यक्रम नहीं बन पाया। इसीलिए यह चारों खाने चित हो गया ।
अब इसे सामाजिक –आर्थिक कार्यक्रमों के आधार पर लागू किया जाना चाहिए।आवश्यक नहीं कि इसकी शुरूआत उत्तर प्रदेश से ही हो।अन्य राज्यों से भी इसका मंगलाचरण किया जा सकता है।वहां भी उतनी ही उर्वर परिस्थितियां मौजूद हैं।जब तक सपा-बसपा एक दूसरे के नजदीक नहीं आते, तब तक वे अपने दल के भीतर ही दलित पिछड़ा गठबंधन का फार्मूला लागू कर सकते हैं। इसके तहत आधी-आधी सीटें दलितों-पिछड़ों के बीच बांटी जा सकती है औऱ मंत्रीपरिषद में भी इसी अनुपात में भागीदारी दी जा सकती है।
दरअसल, दलित और पिछड़ा वर्ग के लोग एक दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी हैं।दोनों की सामाजिक –आर्थिक परिस्थितियां एक हैं। उनके अन्य कोई गठबंधन गले नहीं उतरता। आज की तारीख में दलित-पिछड़ा एक गठबंधन मुंगेरीलाल का हसीन सपना जरूर लगता है, लेकिन देर –सबेर दोनों घटक दूसरी जगहों से लुट –पिटकर एक दूसरे के पास ही लौ़टेंगे। शीत युद्ध में किसी ने रूस- अमेरिका दोस्ती की कल्पना नहीं की थी,जर्मनी के एकीकरण की बात कौन सोच सकता था ।लेकिन ये सब हुए। किसी दौर में बसपा के ब्राह्मण प्रेंम और सपा के क्षत्रिय प्रेम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन राजनीति जो कराए कम है ।
भास्कर से साभार

भाजपा में फिर साधू संतों की भर्ती .

डॉ.लाल रत्नाकर
उमा भारती भाजपा के असली चहरे को उजागर करने वाली कोई पहली महिला नहीं रही है बल्कि इन्होने भाजपा के सांगठनिक व्यवस्थाओं को जिस तरह समाज के सामने ला चुकी है,उसके बाद भाजपा में उनकी वापसी न तो उनके लिए शोभनीय है और न ही भाजपा के लिए -(अमर उजाला से साभार)

उमा ने वापसी पर वक्त मांगा
नई दिल्ली।
Story Update : Sunday, November 14, 2010    12:31 AM
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने शनिवार को कहा कि वह निष्कासित नेता उमा भारती को पार्टी में वापस लाना चाहते हैं, लेकिन इस मुद्दे को अभी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है क्योंकि साध्वी ने चिंतन एवं स्वास्थ्य लाभ के लिए कुछ और वक्त मांगा है।
गडकरी ने बताया ‘भारती से मुलाकात के दौरान इस मुद्दे पर चर्चा हुई, लेकिन पूर्व भाजपा नेत्री ने कहा कि उनकी सेहत ठीक नहीं है। उन्होंने चिंतन एवं शांति के लिए कुछ वक्त की मांग की। वह फिर मुझसे मिलेंगी।’ इस साल जून महीने में नौ महीने निष्कासित रहने के बाद जब जसवंत सिंह को पार्टी में वापस लिया गया था, उसी समय से पार्टी में भारती की वापसी की अटकलें लगाई जा रही हैं। बहरहाल, भाजपा के कई नेता उमा की वापसी को लेकर सशंकित हैं क्योंकि इन नेताओं को डर है कि इससे पार्टी में उनकी स्थिति कमजोर होगी।

गडकरी ने कहा ‘जब मैं भाजपा का अध्यक्ष बना तभी मैंने कहा था कि मैं उन सभी को पार्टी में लाना चाहूंगा जो पार्टी छोड़ गए हैं। इसके तुरंत बाद मैंने भारती से मुलाकात की। भाजपा में उनकी वापसी के मुद्दे पर पार्टी के अन्य नेताओं के साथ भी विचार-विमर्श जारी है।’ यह पूछे जाने पर कि पार्टी में उमा को वापसी के बाद उन्हें क्या जिम्मेदारी दी जाएगी, गडकरी ने कहा कि यह सवाल प्रासंगिक नहीं है क्योंकि साध्वी ने खुद ही पार्टी में शामिल होने के लिए कुछ वक्त मांगा है। इस बीच, भविष्य की योजनाओं के बाबत पूछे जाने पर उमा भारती ने बताया ‘‘कुछ समय के लिए मैं इस अध्याय को बंद रखना चाहती हूं.।’ यह पूछने पर कि क्या उन्हें पता है कि कुछ नेता पार्टी में उनकी वापसी के खिलाफ हैं, उमा ने कहा कि इस मुद्दे पर टिप्पणी के लिए मैं उपयुक्त व्यक्ति नहीं हूं।

वोट बैंक की राजनीति बड़ी बाधाः आडवाणी
पूर्व उपप्रधानमंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि देश की आंतरिक सुरक्षा से निपटने में सबसे बड़ी बाधा वोट बैंक की राजनीति है। आडवाणी ने शुक्रवार रात यहां पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रो. बृजमोहन मिश्र की स्मृति में ‘देश की सुरक्षा के लिए चुनौतियां’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में आतंकी हमले की जड़ में कश्मीर के मुद्दे को अहम बताया। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर कई भूलें भारत ने की हैं। आजादी के समय देश की 354 रियासतों के विलय के दौरान यदि जम्मू-कश्मीर को अलग नही छोड़ा जाता तो यह संकट बनकर कभी सामने नहीं होता। यह जरूरी है कि कश्मीर समस्या को लेकर ढुलमुल बयान देने की बजाय संकल्पित होकर सख्त रवैया रखा जाए। उन्होंने आतंकवाद, नक्सलवाद और बांग्लादेश की घुसपैठ की समस्या को देश की सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती माना। आडवाणी ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के इस बयान को सिरे से खारिज किया कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है।

बुधवार, 10 नवंबर 2010

जाति व् वर्ण व्यवस्था उपनिवेशवादी


(सिन्धु घाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र एवं बणिक-नवल वियोगी)
उक्त पुस्तक में बहुत ही विस्तार से चर्चा सिन्धुघाटी सभ्यता के विषय में की गयी है जिसके पूरे विस्तार को देखने से जो निष्कर्ष निकला है उसे इसी पुस्तक के उपसंहार से यहाँ उद्धरित किया जा रहा है - 
(डॉ.लाल रत्नाकर)
''पूर्व लिखित अध्यायों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सिन्धुघाटी सभ्यता मैसोपोटामिया तथा मिस्र कि सभ्यताओं से भी उच्च थी. क्योंकि यहाँ का साधारणजन सुखी व् संपन्न था उसे आधुनिक काल के जैसी जीवन कि सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं  जैसे नगर योजनाओ के अधीन बने पक्के मकान, भूमिगत जल निकास व्यवस्था, स्नानागार, इंग्लिश प्रकार कि सीट वाले शौचालय आदि . यानि उनका जीवन स्तर बहुत उच्च था, निश्चिन्त था वहां का वातावरण शांतिमय था, वहां न आज कि तरह जाति व्यवस्था थीं न गुलामी का चलन. जबकि अन्य दोनों सभ्यताओं में गुलामों का पशुवत प्रयोग किया जाता था, शिल्पी लोग साधारण कोठरियों में निवास करते थे गुलामों को बैरकों में रखा जाता था.

यह भी सिद्ध किया जा चुका है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के जनक द्रविण थे जिन पर आर्यों ने १७०० ई.पू.के बाद आक्रमण किया और उनकी सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था.आर्य उस समय बर्बर एवं अर्धसभ्य अवस्था में थे न उन्हें शहरी सभ्यता का ज्ञान था न उसके मूल्य का. सिन्धु घाटी सभ्यता का औसत जीवन काल  २७०० ई.पू. व् १७०० ई.पू. के मध्य माना जाता है .

उक्त आक्रमण के बाद समाज में दो वर्ग बने थे विजयी लम्बे-तड़ंगे गोरे रंग के सुन्दर आर्य और काले रंग व् छोटे कद के पराजित अनार्य. पराजित अनार्य हिन् भावना से ग्रस्त थे और विजयी आर्य गर्व से युक्त. यही पराजित व् विजयी होने कि भावना  वर्ण व् जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का मूल कारण बना. जिस प्रकार आर्यों के दूसरे उपनिवेश फारस में आरुओं में तीन वर्ग थे पुरोहित ,रथकार तथा शिल्पी व् किसान उसी प्रकार भारत में भी उनके तीन वर्ग थे ब्राह्मण क्षत्रिय व् वैश्य . इस प्रकार अब वहां चार वर्ग थे तीन आर्यों के चौथा अनार्य दस्यु तथा दासों का जो बाद में शूद्र कहलाया.

   
      

सोमवार, 8 नवंबर 2010

दो आँखें, दो छवियाँ


दलित महिलाएं (फ़ाईल फ़ोटो)
हाल ही में दिल्ली में एक दलित सम्मेलन का आयोजित किया गया.
खचाखच भरे मावलंकर हॉल में मंच पर एक बच्ची खेल रही थी. पहले ही मंच की चकाचौंध में कुर्सी पर बैठने से अकबकाई उसकी माँ बेटी को फुसलाने की कोशिश कर रही थी.
लेकिन बेटी माँ की गोद में बैठने की बजाय रोशनी के स्रोत की तरफ़ भाग रही थी. कंप्यूटर के प्रोजेक्टर के सामने खड़े होने से उसकी परछाईं मंच के पीछे बड़ी स्क्रीन पर फैल रही थी.
पता नहीं क्यों, उस दो-ढाई साल की बच्ची की बेलौस अदाओं में मुझे सामाजिक न्याय आंदोलन के भविष्य की तस्वीर दिखाई दी. मानो इस आंदोलन को अब सत्ता की गोद में उपेक्षित बच्चे की तरह बैठना क़बूल नहीं है.
मानो सदियों से मैला उठाने वाला समाज अब टोकरी नहीं, आवाज़ उठाना चाहता है, हाथ में झाड़ू नहीं किताब लेना चाहता हैं, सीवर में नहीं इस देश के अंतर्मन में उतर कर इसकी आत्मा पर जमी मैल को धो देना चाहता है.
सुदूर तमिलनाडु में पुदुकोट्टई से इस लड़की का दिल्ली तक आना एक छोटी बात नहीं है. सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन द्वारा देश की राजधानी में आयोजित यह सम्मलेन अपने आप में एक ऐतिहासिक घड़ी थी.
आज़ाद भारत में शायद पहली बार देश भर के सफ़ाई कर्मचारी समाज के प्रतिनिधि देश के पाँच कोनों -- कन्याकुमारी, श्रीनगर, देहरादून, डिब्रूगढ़ और खुर्दा -- से यात्राएँ निकालते हुए दिल्ली दरबार में दस्तक देने आए थे.

नाम की महिमा

जिसका नाम नहीं हो, दिल्ली दरबार उसकी पहचान नहीं करता. इस ऐतिहासिक सम्मलेन में दलित समाज के नाम पर दुकान चलाने वाले ज़्यादातर नेता अफ़सर और मंत्री नदारद थे.
इसी लेख से
बच्ची का नाम था सत्या, पता नहीं बड़ी होकर नाम के आगे क्या लिखेगी. शायद इस पूरे समाज की तरह गुमनाम रहना पसंद करेगी.
अपने किसी राष्ट्रव्यापी नाम के अभाव में यह समाज दूसरों के दिए मैले नामों से पहचाना जाता है -- मेहतर, भंगी, चूड़ा, लालबेगी, मादिगा, रेल्ली, मादिगारू, थोत्ति, अरुन्धतियार.
गांधीजी के ज़रिए दिया नाम 'हरिजन' ख़ारिज हो चुका है.
यह समाज 'दलित' है, लेकिन सिर्फ़ दलित नहीं. 'महादलित' अभी प्रचलित नहीं है. 'वाल्मीकि' या 'स्वच्छकार' नामकरण की कोशिशें जारी हैं.
जिसका नाम नहीं हो, दिल्ली दरबार उसकी पहचान नहीं करता.
इस ऐतिहासिक सम्मलेन में दलित समाज के नाम पर दुकान चलाने वाले ज़्यादातर नेता अफ़सर और मंत्री नदारद थे. न समाज कल्याण मंत्री, न अनुसूचित जनजाति आयोग के कर्ताधर्ता, न ही सफ़ाई कर्मचारी आयोग वाले वहाँ थे.
उससे फ़र्क़ भी नहीं पड़ने वाला था क्योंकि भारत सरकार में इन विभागों की वही हैसियत है जो गाँव में दलित की होती है. बस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हर्षमंदर, अरुणा रॉय और ज्यां द्रेज़, राज्य सभा के सदस्य प्रोफ़ेसर मुन्गेकर और डी राजा, कुछेक सहृदय बुद्धिजीवी और पत्रकार ही मौजूद थे इस ऐतेहासिक घड़ी को देखने के लिए.
शायद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद अगर इस सवाल को क़ायदे से उठाए तो सच्चर कमेटी की तर्ज़ पर स्वच्छकार समाज की हालत पर ग़ौर करने के लिए प्रधानमंत्री की एक विशेष समिति बन जाए.

परिवर्तन

शुष्क शौचालय कि प्रथा को ग़ैरकानूनी बनाने वाला क़ानून पास हुए सत्रह साल बीत चुके हैं. लेकिन आज भी कई लाख लोग आज भी अपने सर पर मैला उठाने को अभिशप्त हैं.
इसी लेख से
बच्ची की माँ मंच पर इसीलिए थी कि उसने टोकरी छोड़ दी थी. ज़ाहिर है इस घड़ी में सबका ध्यान सर पर मैला उठाने की घिनौनी प्रथा पर रहा.
'सामाजिक परिवर्तन यात्रा' का मुख्य उद्देश्य देश से मैलाप्रथा का उन्मूलन था.
शुष्क शौचालय की प्रथा को ग़ैरकानूनी बनाने वाला क़ानून पास हुए सत्रह साल बीत चुके हैं. लेकिन कई लाख लोग आज भी अपने सर पर मैला उठाने को अभिशप्त हैं. सर्वोच्च न्यायालय पूछ रहा है कि ऐसा क्यों तो राज्य सरकारें बेशर्मी से झूठे हलफ़नामे दायर कर रही हैं.
राष्ट्रमंडल खेलों को देश की इज़्ज़त का सवाल मानकर उसमें हज़ारों करोड़ रुपये फूंकने वाली सरकार के लिए ये इज़्ज़त का सवाल नहीं है. उसकी जेब में पैसे नहीं है. इस संदर्भ में यह यात्रा आगे का रास्ता दिखाती हैं.
सरकार के झूठे वादों पर उम्मीद बांधने के बजाय अब इस समाज ने ख़ुद मैलाप्रथा को ख़त्म करने की ठान ली है, इस साल की 31 दिसंबर की समय सीमा तय कर ली है.
माँ ने तो टोकरी छोड़ दी लेकिन बड़ी होकर सत्या क्या करेगी? स्वच्छकार समाज की चुनौती सिर्फ़ टोकरी छोड़ने तक सीमित नहीं है. इस नए पड़ाव पर अब वे शिक्षा और रोज़गार का सवाल उठा रहे हैं.
क़ानून में शिक्षा का अधिकार भले ही मिल गया हो, वास्तव में इस समुदाय में कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या नगण्य प्राय है.

आरक्षण

जम्मू और कशमीर में आज भी पंजाब से आए वाल्मीकि समाज के सफ़ाई कर्मचारियों के स्नातक बच्चों के लिए सफ़ाई कर्मचारी के सिवा और किसी सरकारी नौकरी में पाबंदी है. बाक़ी जगह यह बंदिश क़ानून तो नहीं समाज बंधता है.
इसी लेख से
जम्मू और कशमीर में आज भी पंजाब से आए वाल्मीकि समाज के सफ़ाई कर्मचारियों के स्नातक बच्चों के लिए सफ़ाई कर्मचारी के सिवा और किसी सरकारी नौकरी में पाबंदी है. बाक़ी जगह यह बंदिश क़ानून तो नहीं समाज बांधता है. सफ़ाई के काम में तो शत प्रतिशत आरक्षण है, लेकिन बाक़ी नौकरियों में न के बराबर.
अब तो निजीकरण के चलते नगरपालिका की नौकरी पर भी ठेकेदार की तलवार लटक रही है. सीवर साफ़ करने वाला काम आज भी इस अमानवीय दशा में होता है कि जान का ख़तरा हमेशा बना रहता है.
कहने को अन्य सरकारी नौकरियों में आरक्षण है, लेकिन शिक्षा के अभाव में इस समुदाय को आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है.
फ़िलहाल सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन ने अपने मांगपत्र में इस पेचीदा सवाल को नहीं रखा है, लेकिन देर सवेर आरक्षण के भीतर महादलित समुदायों के कोटा का सवाल उठेगा ही. पंजाब में आदि धर्मं समाज इस सवाल को पहले से उठा रहा है.
जो हाल सरकारी नौकरी में है, उससे बुरा हाल राजनीति में है. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर इस समाज के प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं देते.
आज़ादी के बाद से कांग्रेस से बंधे इस समाज को अगर किसी एक पार्टी ने सबसे अधिक नज़रंदाज़ किया है तो स्वयं कांग्रेस है.
न जाने क्यों कंप्यूटर प्रोजेक्टर की रौशनी में चमकती सत्या की दो आँखों में मुझे सत्याग्रह की दो छवियाँ दिखाई दीं. एक आँख में बाबा साहब अंबेडकर का आक्रोश, दूसरी में महात्मा गाँधी की करुणा
कांग्रेस हो या भाजपा, हर पार्टी के दलित सेल पर चंद सक्षम दलित जातियों का कब्ज़ा है. बसपा भी इसका अपवाद नहीं है. इसलिए अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि दलितों में दलित की आवाज़ उठाने के बजाय अपनी जाति यानि दलितों में अगड़े समुदाय के स्वार्थ के प्रतिनिधि बन जाते हैं.
कभी कभार इस समुदाय से बूटा सिंह जैसा नेता राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचता भी है तो खलनायक के रोल में. लेकिन मुख्यधारा की राजनीति के बाहर आज इस समाज के पास बेज़्वाडा विल्सन और दर्शन रत्न रावण जैसे नेता हैं.
टोकरी और नौकरी से भी बड़ा सवाल है इज्ज़त का. जिस मंच पर सत्या खेल रही थी उसपर बड़े अक्षरों में लिखा था 'चुप्पी तोड़ो'. भगवान दास, ओम प्रकाश वाल्मीकि और सुशीला तान्क्बोरे की परंपरा में नए लेखक भी तैयार हो रहे हैं.
पंजाब से आई युवा कवियित्री नीलम दिसावर अपने समाज की महिलाओं के दर्द को जुबान दे रहीं थीं -- 'जिस देश में गंगा बहती है, उस देश में औरत सहती है.'
हॉल में बैठे लोग सर उठाने के अंजाम से अनजान नहीं थे. हरियाणा में गोहाना और फिर मिर्चपुर के अग्निकांड की घटनाएँ बहुत पुरानी नहीं हुई हैं.
इन दोनों घटनाओं में सरकार आज भी दबंग जाति के अपराधियों को बचाने पर तुली हुई है. लेकिन आत्मसम्मान का जज़्बा किसी भी त्रासदी की याद से ज़्यादा मज़बूत था.
सम्मलेन स्थल में चारों ओर डा. अंबेडकर की तस्वीरें थीं, हर होंठ पर 'जय भीम' का नारा था. न जाने क्यों कंप्यूटर प्रोजेक्टर की रौशनी में चमकती सत्या की दो आँखों में मुझे सत्याग्रह की दो छवियाँ दिखाई दीं. एक आँख में बाबा साहब अंबेडकर का आक्रोश, दूसरी में महात्मा गाँधी की करुणा.
(बी.बी.सी.हिंदी से साभार )

शनिवार, 6 नवंबर 2010

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और दीपावली

Uttar Pradesh CM Mayawati greets
Lucknow:  The Hon’ble Chief Minister of Uttar Pradesh, Ms. Mayawati ji has extended her heartiest greetings to the people of the State on the occasion of Deepawali, the festival of lights and wished for their happiness and prosperity.
In a greetings message, Hon’ble Chief Minister Ms. Mayawati ji said that Deepawali festival symbolised our ancient culture and glorious heritage of the country. This festival gives the message of moving from darkness to light, from ignorance to knowledge. It also strengthens mutual brotherhood, integrity and harmony, she added.
The Hon’ble Chief Minister appealed to the people to celebrate the festival with full fervour and gaiety in an atmosphere of peace and harmony. She also emphasised the need for mass awakening about environmental protection on the occasion of Deepawali.
समता की एक मिशाल-

लाल बत्ती के लिए दस करोड़ की बोली

Nov 02, 02:03 am
मेरठ। बसपा की बैठक में 'लाल बत्ती' के लिए दस करोड़ की बोली लगी है। जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए प्रत्याशी चयन को बसपा द्वारा बुलाई गयी बैठक में कुछ ऐसे ही मुद्दों पर चर्चा हुई। अध्यक्ष पद को यहां तीन दावेदार हैं। नेताओं के पूछने पर कि कितना खर्च करोगे, दावेदारों ने उसका भी हिसाब-किताब दे दिया। मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बागपत व बुलंदशहर में जरूर समर्थन जुटाने को नेताओं को पसीना आया पर गाजियाबाद में मेरठ जैसी तस्वीर नजर आयी। वहां जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए चार दावेदार 12 करोड़ तक खर्च करने के लिए तैयार हैं।
सोमवार को फूलबाग कालोनी स्थित बसपा कार्यालय पर मेरठ व सहारनपुर मंडल में नवनिर्वाचित जिला पंचायत सदस्यों का परिचय हुआ। लगे हाथ बसपा के वेस्ट यूपी प्रभारी व सांसद मुनकाद अली, मंडल प्रभारी गोरे लाल जाटव ऋषिपाल गौतम ने बंद कमरे में एक-एक जिले से दावेदारों को बुलाकर उनके साथ बैठक की। मेरठ की बारी आयी तो दावेदार संजय गुर्जर, संतरेश व जबर सिंह ने कहा कि वह इस चुनाव में कुछ भी खर्च करने को तैयार है। एक ने दस करोड़, दूसरे ने सात करोड़ व तीसरे ने पांच करोड़ का प्रस्ताव दिया। अन्य दावेदार रूप में रणपाल का नाम भी आया। गाजियाबाद में चार दावेदार सामने आये। इन दावेदारों ने 12 करोड़ तक खर्च करने का प्रस्ताव दिया। मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बागपत व बुलंदशहर में ऐसे जनपद रहे, जहां दावेदारों के नाम तो आये पर जीत को पर्याप्त प्रत्याशियों का समर्थन मिलेगा या नहीं, इसको लेकर दावेदार चिंतित नजर आये। मेरठ कुल 30 सदस्यों में से 16, सहारनपुर में 42 में से 22, मुजफ्फरनगर में 53 में से 27 सदस्यों के वोट जीत के लिए दावेदार को चाहिए पर इन जिलों में क्रमश: 11, 15, 15 सदस्य अपनी पार्टी के निर्वाचित होने का दावा बसपा दावेदार कर रहे हैं। अध्यक्ष पद को दावेदारों के नाम लेकर मुनकाद ने कहा कि वह पार्टी हाईकमान से उनके नामों के बारे में चर्चा करेंगे।
पंचायत चुनाव में बसपा का प्रदर्शन बेहतरीन नहीं
बसपा की बैठक में वेस्ट यूपी प्रभारी व सांसद मुनकाद अली ने कहा कि पंचायत चुनाव सिम्बल पर नहीं लड़े गये पर जिला पंचायत सदस्य पर जिन लोगों को उन्होंने समर्थन दिया। उनमें से अधिकांश चुनाव हार गये। इसका मतलब यह हुआ कि प्रत्याशी का चयन अच्छा नहीं था। उन्होंने कहा कि कई सीटों पर अपनी ही पार्टी के जनप्रतिनिधि से अपनी ही पार्टी के समर्पित प्रत्याशी का विरोध किया। परिणाम हुआ कि कुछ सीटों पर समर्थित प्रत्याशी चुनाव हार गये और दूसरे दल का उसका लाभ मिला। उन्होंने कहा कि पार्टी हाईकमान भी इस मामले को लेकर गंभीर है। संकेत मिले है कि शीघ्र संगठनात्मक फेरबदल भी होगा।

ऑनर किलिंगः मारकर खेत में गाड़ दी तीन छात्राएं

Source: Danikbhaskar.com   |   Last Updated 12:57(06/11/10)

भटनी. उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में लापता हुई तीन छात्राओं के शव पड़ोस के एक गांव के खेत से बरामद हुए। तीनों छात्राएं घर से कॉलेज जाने के बाद से गायब हो गई थीं।

गुरुवार शाम को तीनों के शव एक खेत से बरामद किए गए। प्राप्त जानकारी के मुताबिक देवरिया के भटनी थानाक्षेत्र के सिंघई डीह गांव की तीन छात्राएं अनिता (17), नीता (22) और सरिता (18) 31 अक्टूबर को घर से शंकर इंटर कॉलेज में पढ़ने के लिए गी थीं। इसके बाद से ही छात्राएं नहीं लौटी थी।

गुरुवार शाम को छात्राओं के शव पड़ोस के ही लोगान गांव के निकट एक खेत से मिले। छात्राओं के शवों को गड्ढे में गाड़ा गया था। एक छात्रा का सिर गायब था।

पुलिस ने शव कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम कराया है। फिलहाल पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया है। अभी तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकी है। भास्कर से बात करते हुए थानाध्यक्ष भटनी ने बताया कि गुरुवार शाम को लड़कियों के शव बरामद किए गए। अभी तक मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हो सकी है। अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया है। पुलिस अभी इसे हत्या का मामला मानकर ही जांच कर रही है। मृतक लड़कियों के परीजन इस मामले में अभी खामोश हैं।

पुलिस को नहीं मिली कोई तहरीर
31 अक्टूबर को घर से गायब हुई तीनों छात्राओं के बारे में कोई तहरीर पुलिस को नहीं मिली थी। एक ही गांव की तीनों लड़कियां अलग-अलग परिवार की हैं। लड़कियों के लापता होने के बाद से ही परिजनों ने कोई शिकायद पुलिस में दर्ज नहीं कराई थी।
पुलिस मान रही है ऑनर किलिंग
भास्कर से फोन पर बात करते हुए भटपररानी के डीएसपी ने बताया कि पुलिस को लड़कियों के शव मिलने की जानकारी खेत मालिक ने दी थी। लड़कियों के परिवार वाले अभी तक खामोश हैं और कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई है। पुलिस फिलहाल इसे ऑनर किलिंग का मामला मानकर जांच कर रही है। पुलिस पूछताछ में कुछ लोगों ने ऑनर किलिंग के संकेत भी दिए हैं।
अभी तक नहीं हुई कोई गिरफ्तारी
पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया है लेकिन किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सका है।

लेखपाल हत्याकांड में बसपा विधायक को क्लीनचिट

Nov 09, 03:38 am
-घटना में संलिप्तता के प्रमाण नहीं : बृजलाल
अब तक नौ अभियुक्त गिरफ्तार
लखनऊ, जाब्यू : फैजाबाद के बहुचर्चित लेखपाल हत्याकांड में पुलिस ने बसपा विधायक चंद्रभद्र सिंह उर्फ सोनू सिंह को क्लीन चिट दे दी है। अपर पुलिस महानिदेशक बृज लाल ने यहां बताया कि घटना में विधायक की संलिप्तता के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। उनकी नामजदगी गलत पाई गई है। इस मामले में विधायक के भाई यशभद्र सिंह उर्फ मोनू सिंह समेत अब तक नौ लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। घटना में समय रहते कार्रवाई न करने पर कूरेभार के थानाध्यक्ष व चौकी प्रभारी को पहले ही निलंबित किया जा चुका है।
गौरतलब है कि फैजाबाद में लेखपाल के पद पर कार्यरत रामकुमार यादव का 25 अक्टूबर को अपहरण कर हत्या कर दी गई थी। स्व. यादव सुल्तानपुर के मझवारा ग्राम के निवासी थे। अपर पुलिस महानिदेशक बृजलाल ने बताया मामले में विधायक सोनू सिंह, उनके भाई मोनू सिंह, हैंडिल सिंह, दिक्कत सिंह, सुनील मिश्र और अन्य लोगों के खिलाफ फैजाबाद के थाना बीकापुर में प्राथमिकी दर्ज हुई थी। उनका शव सुलतानपुर के सेमरौना के जंगल में बरामद किया गया। पुलिस ने बाद में तीन नामजद समेत पांच को गिरफ्तार कर लिया था। एक अन्य नामजद अभियुक्त कौशलेंद्र सिंह उर्फ दिक्कत सिंह को गत एक नवंबर को पकड़ा गया जबकि एक दिन पहले 7 नवंबर को यशभद्र सिंह उर्फ सोनू को भी बंदी बना लिया गया। नामजद अभियुक्त राठी की गिरफ्तारी अभी तक नहीं हो सकी है।
बृजलाल ने बताया कि लेखपाल रामकुमार यादव की हत्या चुनावी रंजिश के चलते की गई। उनकी पत्नी कमला यादव ग्राम मझवारा से प्रधान पद की प्रत्याशी थीं। उन्होंने 26 सितंबर को थाना कूरेभार में दिक्कत सिंह, हैंडिल सिंह, सुनील मिश्र व टिन्नू मिश्र के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। मामले में चारो आरोपियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई कर चार्जशीट दाखिल कर दी गई थी। इससे सभी आरोपी लेखपाल से रंजिश मानने लगे थे। उन्होंने यह भी बताया कि लेखपाल हत्याकांड में समय रहते कार्रवाई न किए जाने पर थानाध्यक्ष कूरेभार हरिहर नाथ मिश्र व चौकी प्रभारी धनपतगंज इंद्रजीत सिंह को 1 नवम्बर को एसपी सुल्तानपुर ने निलम्बित कर दिया था।

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

बहुजन और दलित केवल और केवल

डॉ. लाल रत्नाकर   
बहुजन और दलित केवल और केवल जीवित रहने के लिए दलित बना रहना चाहता है, और रोज़ मरता है, हर पल मरता है, जब जीने की आस छोड़ देता है तब बहुतों को मारता है. यही मरने और मारने की दशा को उत्सव बना दिया गया, बनियों ने व्यापर के लिए उत्सव गढ़े, हम उस पर निछावर होते रहे , आतिशबाजियों से आनंदित होते रहे , मन के भीतर से उनके लिए श्रद्धालू होते रहे वे हमें या बहुजन को ललचाते रहे अपने त्योहारों से जब की -
उनकी   दीवारों की पुताई                                                                       
दरवाज़ों की सफाई 
फर्श की घिसाई 
गमलों की सफाई 
माटी के दीयों की गढ़ायी
कोल्हू  से तेल 
कपास की 
बुआयी, कटायी और सफाई 
सजावटी ढेरों सारे 
सामान नुमा मेरी रचनाएँ 
उनके घरों की शोभा 
इन्ही बहुजनों के 
कुशल हाथों के कमाल है 
पर बहुजन है की 
मान के लिए परेशान है
ठगी  करके 
इन्ही के अंगूठे 
कटाने वाले अपने गुमान 
को बढ़ाने के लिए 
उत्सव मनाने और मनवाने में  
बहुजन को 
दलित को 
बिरत कर 
बने हुए महान है .
क्रांति कभी 
आयातित नहीं होती 
और उसे करने के लिए 
केवल पुरुषार्थ ही 
आगे आता है 
दलित कभी दलित 
नहीं होता 
वह असल में असली 
इन्सान होता है 
'बेईमानों' की मंडली 
ने सदियों से 
उसको ठग कर 
फुसलाकर, उसके हक़ और हुकुक को 
हड़पकर,
उसे  दलित और 
पद दलित बनाये 
रखना चाहता है .
कानून 
कितने दिनों से 
किसके लिए काम कर रहा है ,
सदियाँ हुयी 
निरहू को न्याय के नाम पर 
कमर तोड़ मेहनत 
क़र्ज़ की उगाही 
वकीलों और 'न्यायलय'
का परिसर 
हड़प ही रहा है 
पर न्याय 
तो अन्याय को ही 
बढ़ा रहा है.
ठाकुर  की बेटी 
को निरहू ने नहीं भगाया था 
निरहू को वही भगाकर ले गयी थी
पर  कटघरे में 
निरहू खड़ा है 
न्याय करने वाले कहते है,
ठाकुर  की बेटी
तो निरपराध है 
निरहू का अपराध 
यही है की वह दलित है 
नहीं तो ठाकुरों 
के घर की बेटी 
और निरहू की हिम्मत कैसे हुयी 
झुनिया के संग 
रंगे हाथों तुद्दा सिंह 
जब पकड़ा गया 
तो झुनिया का मुहं काला कर 
सरे आम बाज़ार में, गली में 
ठाकुरों के चमचों ने 
बेशर्मी से घुमाया था 
शाम को ठाकुरों के 
घर दारुओं की सौगात में 
पूरा गाँव नहाया था.
क्योंकि 
निरहू और झुनिया 
दलित थे 
दलित का हक़ बिना 
पंडित 
के नहीं मिलता.
क्योंकि पंडित को ठाकुर 
और ठाकुर को पंडित 
मदद करता है ,
और दलित कभी 
पंडित की और कभी 
ठाकुर की ही तिमारदरी करता है.
इसीलिए 
जब कोई दलित 
होनहार निकल जाता है 
तो उसे पंडित 
या ठाकुर 
अपनी बेटियां सौपने में 
कोई कोताही नहीं करता 
उसे दलित / बहुजन नहीं 'साहब' 
कहता है.
बेटी,
बहन जी की वजह से 
बहुजन के अधिकार 
हड़प लेता है.

सोमवार, 1 नवंबर 2010

मगरमच्छों व शार्को का भ्रष्ट नापाक गठजोड़

 दैनिक भाष्कर से साभार 
जनता के मन में जो बात वर्षो से रह-रहकर उठती रही है, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी के जरिए रिकॉर्ड पर ला दिया है। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोपी एक सरकारी अधिकारी को निरपराध मानते हुए न्यायमूर्ति मरकडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने जो निर्णय दिया, उससे निश्चित रूप से एक अलग संदेश समाज में गया है।

आंध्रप्रदेश के सहकारिता विभाग के एक जूनियर इंस्पेक्टर के पास सिर्फ 2.63 लाख रुपए मूल्य की आय से अधिक संपत्ति निकली, जिस पर निचली अदालत ने 1996 में उसे सश्रम कारावास की सजा सुना दी थी। इस बीच पिछले करीब 14 वर्षो में न जाने कितनी तारीखें उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में लगी होंगी। वकीलों की फीस, यात्राओं, फोटो कॉपी, कोर्ट फी आदि में निश्चित ही 2.63 लाख से ज्यादा रुपए खर्च हुए होंगे। लेकिन मूल मुद्दा न्यायालय की उस मौजू टिप्पणी का है, जिससे सरकार को सीख लेनी चाहिए।

सरकार मगरमच्छों और शार्को को तो छोड़ देती है और छोटे अफसरों को प्रताड़ित करती है। यह कहा है सुप्रीम कोर्ट ने इस छोटे भ्रष्टाचार के मामले में। यह सर्वविदित है कि बड़े अफसर अक्सर नेताओं आदि से सांठगांठ कर हर तरफ से बच जाते हैं। भ्रष्ट नेता भी कम ही जेल जाते हैं या उनकी कुर्सी खिसकती है। एक बार यदि कुर्सी छिन जाती है तो कुछ दिनों के बाद जोड़-तोड़ और लेन-देन के जरिए फिर मिल जाती है। हमारे देश में सरकारी अफसर, राजनेता और अन्य प्रभावशील लोगों का दृश्य व अदृश्य गठबंधन काफी तगड़ा है। इसे तोड़ना मुश्किल भी है और शायद कोई चाहता भी नहीं कि यह टूटे। साधारण जनमानस इस गठजोड़ के खिलाफ है, पर उसकी सुनता कौन है। इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और सरकार को लगाई गई फटकार का महत्व है।

दुख इस बात का है कि यह फटकार टीवी और अखबारों में दो-चार दिनों तक ‘खबर’ के रूप में रहेगी, फिर स्मृति से ओझल हो जाएगी। सरकार की कार्यप्रणाली इससे बदलेगी और बड़े, प्रभावशाली व ताकतवर सरकारी अफसर (आईएएस, आईपीएस आदि) डरेंगे और सुधरेंगे, यह कम संभव दिखता है। मुश्किल यह भी है कि लोकपाल, लोकायुक्त, सीबीआई, भ्रष्टाचार निवारक अन्य संस्थाओं के बढ़ते अधिकारों के बावजूद देश में अनैतिक दौलत का लोभ व आकर्षण कम होता नहीं दिखता। कॉमनवेल्थ गेम्स इसका ताजा और शर्मनाक उदाहरण हैं।

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...