शनिवार, 23 मई 2020

बहुजन विमर्श

बहुजन विमर्श
इसमें वह समूह शामिल है जो बहुजन समूह के सर्वागिण विकास के लिये पहल कर रहा है। जिसकी पहली बैठक १८ मई को हुई दूसरी १९ मई २०२० को सॉयं ४ बजे से तीसरी बैठक २३०५२०२० को सॉयं ७ बजे से जिसकी रिपोर्ट यहॉ संलग्न की जा रही है।
नमस्कार।
बहुजन विमर्श के दूसरे आयोजन 23052020 शनिवार में शामिल होने के लिए सभी साथियों को बहुत-बहुत धन्यवाद।
आज के दिन इंटरनेट कि बेहतर स्थिति ना होने की वजह से काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
परंतु बातचीत हुई और काफी गर्मजोशी से अपने अपने अनुभव और विचार सभी साथियों ने रखे।
मेरे ख्याल से हम लोग मूल उद्देश को हासिल करने हेतु जिस बहस की जरूरत है बात अभी वहां पर नहीं आ पा रही है।
डॉ शास्त्री ने बहुत विस्तार से इस तरह की संगठनों के बारे में उल्लेख किया है जो अपने काल और परिस्थिति में किस तरह से उभरे और कमजोर होते गए। उन्होंने अपनी बातचीत में यह भी चिंता जाहिर की कि हमें राजनीतिक विमर्श की बजाए सांस्कृतिक और सामाजिक विमर्श को केंद्र में रखना है और बगैर सांस्कृतिक और सामाजिक सुधार के राजनीतिक सुधार की कोई उम्मीद नहीं है।
श्री अजय सिन्हा ने बहुत ही सलीके से विमर्श की मूलभूत आवश्यकता पर बल देते हुए तथ्यपरक बातें रखी साथ ही उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से सभी साथियों को अभिभूत कराते हुए विमर्श की रूपरेखा तैयार करने पर बल दिया।
श्री विप्लावी जी इस तरह की संगोष्ठी की उपयोगिता और डॉ शास्त्री के सुझाव को समेटे हुए अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस आंदोलन को किस तरह से एक संगठन के रूप में तैयार किया जाए और उससे किस किस तरह के काम लिए जाएं पर विशेष बल दिया।
श्री सुनील सरदार ने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभव को शेयर करते हुए अब तक के अपने प्रयोगों को बताया और अपनी पूर्व वक्ताओं की बात को एक शेप देते हुए यह कहा कि किस तरह से यह विमर्श एक महत्वपूर्ण घटना है।
श्री बैजनाथ यादव जी ने सघ और हमारे उन संगठनों की सफलता और विफलता का जिक्र बहुत ही सुंदर तरीके से किया और यह बताया कि व्यापार के क्षेत्र में किस तरह के भेदभाव से बहुजन समाज के लोगों को रूबरू होना पड़ता है।
डॉ नत्थू सिंह जी ने सभी वक्ताओं की बातों का समर्थन करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया कि बहुजन समाज में सह अस्तित्व की कमी महसूस की जाती है उसका विस्तार कैसे किया जाए विमर्श में इसको भी शामिल किया जाए।
युवा साथी श्री प्रभात रंजन ने बातचीत के बीच बीच में उत्साहित होकर के सांस्कृतिक बदलाव को जन जन के मध्य कैसे ले जाया जाए इस पर सभी वक्ताओं से जानने का प्रयास करते रहे।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए मैंने शास्त्री जी से निवेदन किया था कि वह आज के कार्यक्रम को एक विषय पर केंद्रित करने का मेरा आग्रह स्वीकार करें और अपनी बात रखें जिस पर उन्होंने विस्तार से चर्चा की।
कार्यक्रम का समापन श्री विप्लवी जी ने आज के कार्यक्रम की तकनीकी बाधाओं का जिक्र करते हुए इसे आगे ले जाने के लिए हमें किन मुख्य बिंदुओं को आगे करना है उस पर जोर दिया और इसी के साथ लगभग डेढ़ घंटे चले इस कार्यक्रम को समाप्त करने की घोषणा की।
-संयोजक

श्री बी आर विप्लवी जी का मत :
यह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है । इसको समेटने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना पड़ेगा----
 1. पहली बात तो यह है कि कुछ आखिर इस तरह के बहुजन विमर्श की आवश्यकता क्या है जिसमें कुछ गिने चुने लोगों द्वारा अपने ज्ञान और अनुभव को आपस में ही साझा कर लिया जाता है,?
2. इस तरह के हमारे बौद्धिक विमर्श से आमजन को क्या मिल रहा है या क्या मिलने वाला है?
3. हम किन समस्याओं को चिन्हित किए हुए हैं जिसके लिए हम यह विमर्श कर रहे हैं,,?
4. इस तरह का विमर्श किस प्रकार से निचले स्तर तक जा पाएगा? इसकी क्या व्यवस्था  होनी चाहिए?
5. बहुजन विमर्श के लिए भारत के उन तमाम बहुजन लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम ज़रूरी है जिसमें कि आज हज़ारों-हज़ार जातियां हैं। हर जाति का अलग रीति रिवाज खानपान मान्यता तथा हिंदू वर्ण व्यवस्था में उसके पायदान की अलग सीढ़ी तय है जिसके कारण जिन लोगों को हम बहुजन समझते हैं उनके भीतर ही ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, श्रेष्ठ-हीन का भाव बना हुआ है।इस समस्या का निदान क्या होना चाहिए?
6.बहुजनों में आपसी भेद-भाव सामाजिक कारणों से अधिक किन्तु इससे आगे बढ़कर कुछ आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक कारण भी हैं जिसके कारण ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब तथा श्रेष्ठ-हीन का भाव स्थायित्व पाये हुए है, इसे दूर करने के लिए हमारे पास क्या ठोस कार्यक्रम हैं ?
    यह सत्य है कि समाज में एका तभी हो सकता है जब इसके तमाम लोग एक साझा (कामन) धरातल या प्लेटफार्म पर आएं । यह प्लेटफार्म आपस में बराबरी के व्यहार की मांग करता है। यह बराबरी-- सामाजिक बराबरी, आर्थिक बराबरी, राजनैतिक बराबरी तथा धार्मिक बराबरी के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जो ग़ैर बराबरी अभी तक क़ायम है इसे मिटाकर समानता क़ायम करने के लिए भी बहुजन विमर्श की आवश्यकता है ताकि आम लोगों के बीच जाकर के--- चाहे वह भाषणों के माध्यम से, चाहे वह साहित्य के माध्यम से, चाहे वह अन्य किसी भी माध्यम से हो --लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात डालनी पड़ेगी कि--- *)बहुजन में जितनी भी जातियां हैं उन सब में प्राकृतिक रूप से एक ही पुरखों की वंशावली है।
**) दूसरी बात यह है कि अल्पसंख्यक दलित बहुजन सभी लोग एक ही दुश्मन ब्राह्मणवाद के सताए हुए हैं जिसने उनकी मान,मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत सब कुछ छीन कर उन्हें पशु के समान जीने के लिए मजबूर कर दिया है।
    भारत में जात की सच्चाई है और इस सच्चाई को नजरअंदाज करके हम कोई भी पॉलिसी नियम या रणनीति बनाएंगे तो उसके सफल होने की न्यूनतम संभावना है। यह सच है कि बहुजन जातियों में भी मुख्य तक चार वर्ग शामिल हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा अन्य पिछड़ा वर्ग। 
#अनुसूचित जातियों में मुख्यतः वे जातियां शामिल की गई हैं जो सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक एवं राजनैतिक रूप से अछूत(inseeable, unapproachable, untouchable) तथा बहिष्कृत हैं।
 #अनुसूचित जनजातियों में वे जातियां शामिल की गई हैं जो जंगलों में निवास करती रही है तथा जो सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से मुख्य धारा से बाहर रही हैं। वे मूल रूप से किसी धर्म में आवाज नहीं है तथा प्रकृति पूजा के रूप में उनकी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक परंपराएं हैं। उनका समाज के साथ कोई सीधा संपर्क या वार्तालाप नहीं रहा है इसलिए उनके प्रति कोई ऐतिहासिक अछूत पंखा इतिहास नहीं है किंतु फिर भी उन्हें मुख्य समाज अपने साथ संपर्क में लाने के लिए प्रायः तैयार नहीं होता तथा वे भी किंचित भेदभाव के शिकार हैं। 
# धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग जिसमें मुख्यतः मुसलमान, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्ध शामिल हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक भेदभाव होता रहा है तथा यह वर्ग भी प्रधानतया  दलित पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के फुल शुरू फलस्वरूप निर्मित हुआ है अतः इनमें भी शिक्षा रोजगार आदि की कमी रही है। मुख्यतः इस्लाम धर्म के अनुयायियों में शैक्षणिक आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन लगभग उसी प्रकार से हावी है किस प्रकार से यह अनुसूचित जातियों में है, अंतर केवल इतना ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव न होकर धार्मिक भेदभाव होता है। 
#चौथा वर्ग- अन्य पिछड़ा वर्ग का है जिसमें बहुत सारी जातियां हैं तथा उनमें भी श्रेणीगत विभाजन के कारण श्रेष्ठता का सीढ़ीदार विभाजन है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन चार वर्गों का आपस में किस प्रकार संलयन किया जाए जिससे एक ऐसी शक्ति पैदा की जा सके जो पैदाइशी रूप से शासक कही जाने वाली जातियों के उन अधिकारों को चुनौती दे सके जिसके चलते हुए हमेशा शासक बने रहने का दावा करते हैं तथा वे बहुधा इसमें अभी तक सफल भी हैं।
  तात्कालिक रूप से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अनुसूचित जनजातियों के समाज से दूर वनांचल में बसे होने के कारण उनके साथ अनुसूचित जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों का भी सीधा सामाजिक संबंध नहीं के बराबर रहा है अतः उनके साथ कई मामलों में सामाजिक संलयन की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भी सामाजिक संलयन की प्रक्रिया का अभी कुछ कारगर उपाय तय किया जाना बाकी है।
        अत: फौरी तौर पर अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग जो अलग-अलग; कुछ दूरी बनाकर, रहते हुए भी समाज में कहीं न कहीं एक साथ उपस्थित होते रहे हैं तथा उनका आपस में संवाद भी होता रहा है क्योंकि इन दोनों वर्गों को हिंदू बाड़े में रखा गया है इसलिए उसके बहाने भी लंबे समय से इनके अंदर हिंदुत्व की एकता का मोह पैदा किया गया है जिसके कारण भी इनमें दूरियां कम हुई हैं। अतः यह दोनों वर्ग सामाजिक,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से एक साथ घुलने-मिलने के लिए ज़्यादा अनुकूल एवं मुफ़ीद प्रतीत होते हैं।
हां यह एक कठोर सच्चाई है की अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदू वर्ण व्यवस्था की चौथे वर्ण के रूप में अर्थात शुद्र वर्ण के रूप में पहचाना गया है किंतु अनुसूचित जाति समूह हिंदू वर्ण व्यवस्था के किसी पायदान  पर नहीं है अर्थात वह वर्ण व्यवस्था के बाहर है जिसे हम पारंपरिक रूप से ग़ैर हिंदू भी कह सकते हैं। यह वह वर्ग है जिसने ब्राह्मण धर्म के बदले हुए नाम हिंदू धर्म के साथ भी नहीं जुड़ सका जिसके कारण उसे बहिष्कृत ही रखा गया ।         जानने योग्य है कि ईशा के लगभग 600 साल पहले बौद्ध जीवन मार्ग के लोकप्रिय होने के बाद अनुसूचित जाति के  ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने हुए बौद्ध के जीवन मार्ग को ही अपनाया तथा उन्होंने हिंदू जैसे छद्म धर्म को अस्वीकार किया जिसके कारण ब्राह्मण धर्म ने बहिष्कृत तथा अछूत क़रार कर दिया । इसका ख़मियाज़ा वे आज तक भुगत रहे हैं। सनातन हड़प्पा संस्कृति को अपने गले से लगाए हुए इस वर्ग ने दुनिया भी धर्म को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह हिंदू धर्म के नए संस्करण के बाद भी वह प्राय: इससे अलग-थलग ही रहा। 
   अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है तथा जो जनसंख्या में भारत की कुल जनसंख्या का 50% से अधिक है। यह दूसरा वर्ग जो कि हिंदू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा गया है तथा जिसे सेवा करने के लिए ही मनु के क़ानून द्वारा विहित किया गया है, वह क्योंकि सवर्णों के साथ लगातार उनके कार्यकलापों में सहयोगी है इसलिए वह उन्हें(उच्च वर्णीयों को) छू सकता है- उसके छूने से किसी तरह का पाप या दोष नहीं लगता बताया गया है इसलिए वह सछूत  है। 
     इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच जो बड़ी सामाजिक खाई है वह यही है की अन्य पिछड़ा वर्ग सछूत है तथा अनुसूचित जाति अछूत। इस कारण भी लंबे समय तक अन्य पिछड़ा वर्ग अपने को हिंदू वर्ण व्यवस्था का अंग होने के कारण अनुसूचित जाति के लोगों से अपने को श्रेष्ठ कहकर उन्हें अछूतपन का शिकार बनाने के लिए ख़ुद को वैध मानता रहा है। इस प्रकार इन उत्पीड़क कार्यों के लिए उसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के अन्य तीन वर्णों का भीअनुमोदन एवं समर्थन प्राप्त होता रहा है । यही कारण है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को हथियार बनाकर हिंदू ब्राह्मणी सवर्ण व्यवस्था ने लगातार बहिष्कृत अंत्यज अनुसूचित जातियों पर तरह तरह के ज़ुल्म ढाए हैं । इस प्रकार अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच लंबे समय से आपसी रंजिश तथा दुश्मनी का वातावरण भी इसी ब्राह्मणी व्यवस्था ने तैयार कराया है। अतः इस खाई को पाटने के कारगर उपाय भी सोचे जाने चाहिए।
      इन दोनों वर्गों में जो एकता के मजबूत बंधन हो सकते हैं वह यही कि यह दोनों वर्ग ही ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा सताए गए वर्ग हैं । यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि मनु का सारा निषेधक कानून इन्हीं शूद्रों,स्त्रियों तथा अन्त्यज जनों के लिए है ।अतः इस दृष्टिकोण से देखने से यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों ही वर्गों को ब्राह्मणी व्यवस्था की नज़र में एक ही तरह का ट्रीटमेंट तथा व्यवहार दिया गया है केवल अपनी सुविधा के लिए एक को छूने योग्य बना दिया है तथा दूसरे को जो अधिक विद्रोही तथा नकारा है उसे अछूत बनाकर उसके साथ सारे कार्य व्यापार बंद कर दिया है। 
    यही दोनों के बीच एक साझा या कामन प्लेटफार्म बनाने वाली चीजें हैं। इसी प्लेटफार्म पर होकर इसका साझा शत्रु से लड़ाई के लिए एकता को मज़बूत किया जा सकता। यही नहीं बल्कि रोज़ी-रोटी, जीविकोपार्जन एवं मान-सम्मान के लिए भी दोनों के साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद को पराजित करना ज़रूरी है । अतः इसमें दोनों ही लोगों के स्वार्थ जुड़े हुएहैं। जब किन्हीं रूपों में भी  लोगों के स्वार्थ आपस में जुड़े हुए होते हैं तब ही आपस में एकता स्थापित होती है। इसीलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के शूद्र तथा हिंदू व्यवस्था के बाहर की अनुसूचित जातियों  के बीच प्राकृतिक रूप से एकता स्थापित होने के कुछ कुदरती उपादान पहले से ही उपलब्ध हैं, बस हमें उनका इस्तेमाल करना है। यह सच है कि शूद्र जातियां भी ब्राह्मणवाद के इशारे पर आपस में ही नहीं लड़ती रही हैं बल्कि वे एक दूसरे को भी उसी नज़र से देखती रही हैं जिस नज़र से देखना ब्राह्मणवाद ने उन्हें सिखाया है ।इसलिए उनके बीच में आपस में हज़ारों साल की वैमनस्यता भी है किंतु सबसे सुखद बात यह है कि इस तरह की वैमनष्यता ज़्यादा तर आर्थिक कारणों से ही रही है सामाजिक कारण इसमें बहुत ही कम रहे हैं। गांव में प्राय: देखा गया है कि दोनों लोगों का आपस में उठना-बैठना,प्रेम-व्यवहार तो बहुत दिनों से चलता आ रहा है ,एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी भी चलती आ रही है। लेकिन खानपान शादी-ब्या के मामले में अभी भी लोग अलग-अलग ही हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शूद्रों द्वारा पुराने कुटुम्ब भाइयों (अनुसूचित जातियों) के साथ छुआछूत का व्यवहार केवल इसलिए बरता जाता रहा है कि इससे उनके मालिक सवर्ण संतुष्ट रहें अन्यथा वे इस जुर्म में;कि वे बहिष्कृतों को छूते हैं, उन्हें भी अछूत बना सकते हैं। 
     आज ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के बीच आपसी समझ तथा ताल-मेल कायम हो, साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि इनके अंदर विद्यमान उप जातियों के बीच भी सौहार्द तथा एकता पैदा की जाए।यही नहीं इनके अंदर विद्यमान बहुत सी जातियां हैं जिनका आपस में भी खान शादी ब्याह नहीं होता है इसी प्रकार से सछूत शूद्रों में भी कई जातियां हैं जिनका आपस में शादी विवाह नहीं होता है, इस प्रकार हमें पूरे बहुजन को एक साथ लाने के लिए कम से कम एक कामन प्लेटफार्म एक कामन उद्देश्य  के लिए कुछ सांस्कृतिक परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी ।
    सबसे पहली समस्या तो यह कि जिस ब्राह्मणवाद से हम लड़ने चल रहे हैं उस ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा हथियार है वह है- वर्ण धर्म-- जिसके कारण उसने भारतीय समाज को जातियों में तोड़ा है तथा उनको अपने स्वार्थ, अपने फ़ायदे के लिए किसी टूल की तरह से इस्तेमाल करता रहा है। हमें लड़ना ज़रूरी है । इस लड़ाई में हमारी एकता भी साबित होगी और हमारा जो सांस्कृतिक परिवर्तन है वह भी नज़र आए यह ज़रूरी है। लड़ाई के अपने रणनीति बनाकर बनाकर चलें । इस रणनीति में जब तक हिंदूवर्ण व्यवस्था को समाप्त करने पर या हिंदू वर्ण व्यवस्था से अलग होने पर हम ठोस कार्यवाही नहीं करेंगे तब तक हमारी किसी भी तरह की विजय संदेहास्पद है। वर्णाश्रम का अर्थ है हिंदू धर्म अर्थात हमें सीधे टक्कर हिंदू धर्म से लेनी पड़ेगी। वास्तव में यह हिंदू धर्म कुछ भी नहीं है, यह ब्राह्मण धर्म ही है जो हिंदू नाम देकर ग़ैर ब्राह्मणों को ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनाने का एक महामंत्र बनाया गया है। इसलिए हमें इस ब्राह्मण धर्म के ख़िलाफ़ तुरंत लाम बंद होने की ज़रूरत है तथा ब्राह्मण धर्म द्वारा बताए-सुझाए गए धार्मिक कृत्यों जिसमें दान, पूजा,यज्ञ, हवन,तीर्थ,व्रत कथा वार्ता,भागवत-रामायण आदि शामिल हैं- इन को चुनौती देनी होगी। लोगों को संदेह है कि आख़िर हम यह सब एकाएक कैसे छोड़ सकते हैं? इसके लिए मेरा यही कहना है कि इसके बीच का कोई रास्ता नहीं है। या तो हम इसे छोड़ें या इसे गले से लगाए रहें। हिंदू धर्म में सुधार करने की प्रयास लगभग 1000 वर्षों में बार-बार हुए हैं तथा हज़ारों-लाखों लोगों ने इसे सुधारने-संवारने का प्रयास किया है किंतु सब कुछ व्यर्थ गया। इसलिए यह उम्मीद करना कि हम हिंदू धर्म को सुधार कर अपने लायक बना लेंगे, यह एक दिवास्वप्न है। बीच का रास्ता जो मुझे समझ आता है वह यही है की किसी भी तरह के कर्मकांड किसी भी तरह हिन्दू ब्राह्मणी रीति से शादी- व्याह आदि ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ेगी तथा इनका परित्याग करना पड़ेगा। तो फिर इसका हमें विकल्प भी देना पड़ेगा। इस विकल्प के रूप में हमें तीज त्यौहारों तथा शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों पर भी विचार करना पड़ेगा क्योंकि भारत की ग्रामीण परंपरावादी जनता बिना धर्म के नहीं रह सकती है। इसलिए उन्हें एक धर्म देने की भी ज़रुरत होगी। लेकिन कोई नया धर्म स्वीकार करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हम पुराने ओ वैज्ञानिक अंधविश्वासी विचारों तथा परंपराओं को त्याग दें तथा अपने हड़प्पाई सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीने का रास्ता बनाएं।
ह बहुत ही अच्छी बात है कि संयोजक डाक्टर लाल रत्नाकर जी ने विमर्श में शामिल चर्चा का सार संक्षेप कलम बंद कर दिया है। मेरे विचार से बहुजन विमर्श की विषय वस्तु तथा इसका दायरा बहुत ही विशाल है । इसको समेटने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना पड़ेगा----
 1. पहली बात तो यह है कि कुछ आखिर इस तरह के बहुजन विमर्श की आवश्यकता क्या है जिसमें कुछ गिने चुने लोगों द्वारा अपने ज्ञान और अनुभव को आपस में ही साझा कर लिया जाता है,?
2. इस तरह के हमारे बौद्धिक विमर्श से आमजन को क्या मिल रहा है या क्या मिलने वाला है?
3. हम किन समस्याओं को चिन्हित किए हुए हैं जिसके लिए हम यह विमर्श कर रहे हैं,,?
4. इस तरह का विमर्श किस प्रकार से निचले स्तर तक जा पाएगा? इसकी क्या व्यवस्था  होनी चाहिए?
5. बहुजन विमर्श के लिए भारत के उन तमाम बहुजन लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम ज़रूरी है जिसमें कि आज हज़ारों-हज़ार जातियां हैं। हर जाति का अलग रीति रिवाज खानपान मान्यता तथा हिंदू वर्ण व्यवस्था में उसके पायदान की अलग सीढ़ी तय है जिसके कारण जिन लोगों को हम बहुजन समझते हैं उनके भीतर ही ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, श्रेष्ठ-हीन का भाव बना हुआ है।इस समस्या का निदान क्या होना चाहिए?
6.बहुजनों में आपसी भेद-भाव सामाजिक कारणों से अधिक किन्तु इससे आगे बढ़कर कुछ आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक कारण भी हैं जिसके कारण ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब तथा श्रेष्ठ-हीन का भाव स्थायित्व पाये हुए है, इसे दूर करने के लिए हमारे पास क्या ठोस कार्यक्रम हैं ?
    यह सत्य है कि समाज में एका तभी हो सकता है जब इसके तमाम लोग एक साझा (कामन) धरातल या प्लेटफार्म पर आएं । यह प्लेटफार्म आपस में बराबरी के व्यहार की मांग करता है। यह बराबरी-- सामाजिक बराबरी, आर्थिक बराबरी, राजनैतिक बराबरी तथा धार्मिक बराबरी के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जो ग़ैर बराबरी अभी तक क़ायम है इसे मिटाकर समानता क़ायम करने के लिए भी बहुजन विमर्श की आवश्यकता है ताकि आम लोगों के बीच जाकर के--- चाहे वह भाषणों के माध्यम से, चाहे वह साहित्य के माध्यम से, चाहे वह अन्य किसी भी माध्यम से हो --लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात डालनी पड़ेगी कि--- *)बहुजन में जितनी भी जातियां हैं उन सब में प्राकृतिक रूप से एक ही पुरखों की वंशावली है।
**) दूसरी बात यह है कि अल्पसंख्यक दलित बहुजन सभी लोग एक ही दुश्मन ब्राह्मणवाद के सताए हुए हैं जिसने उनकी मान,मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत सब कुछ छीन कर उन्हें पशु के समान जीने के लिए मजबूर कर दिया है।
    भारत में जात की सच्चाई है और इस सच्चाई को नजरअंदाज करके हम कोई भी पॉलिसी नियम या रणनीति बनाएंगे तो उसके सफल होने की न्यूनतम संभावना है। यह सच है कि बहुजन जातियों में भी मुख्य तक चार वर्ग शामिल हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा अन्य पिछड़ा वर्ग। 
#अनुसूचित जातियों में मुख्यतः वे जातियां शामिल की गई हैं जो सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक एवं राजनैतिक रूप से अछूत(inseeable, unapproachable, untouchable) तथा बहिष्कृत हैं।
 #अनुसूचित जनजातियों में वे जातियां शामिल की गई हैं जो जंगलों में निवास करती रही है तथा जो सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से मुख्य धारा से बाहर रही हैं। वे मूल रूप से किसी धर्म में आवाज नहीं है तथा प्रकृति पूजा के रूप में उनकी अपनी धार्मिक सांस्कृतिक परंपराएं हैं। उनका समाज के साथ कोई सीधा संपर्क या वार्तालाप नहीं रहा है इसलिए उनके प्रति कोई ऐतिहासिक अछूत पंखा इतिहास नहीं है किंतु फिर भी उन्हें मुख्य समाज अपने साथ संपर्क में लाने के लिए प्रायः तैयार नहीं होता तथा वे भी किंचित भेदभाव के शिकार हैं। 
# धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग जिसमें मुख्यतः मुसलमान, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्ध शामिल हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक भेदभाव होता रहा है तथा यह वर्ग भी प्रधानतया  दलित पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के फुल शुरू फलस्वरूप निर्मित हुआ है अतः इनमें भी शिक्षा रोजगार आदि की कमी रही है। मुख्यतः इस्लाम धर्म के अनुयायियों में शैक्षणिक आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन लगभग उसी प्रकार से हावी है किस प्रकार से यह अनुसूचित जातियों में है, अंतर केवल इतना ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव न होकर धार्मिक भेदभाव होता है। 
#चौथा वर्ग- अन्य पिछड़ा वर्ग का है जिसमें बहुत सारी जातियां हैं तथा उनमें भी श्रेणीगत विभाजन के कारण श्रेष्ठता का सीढ़ीदार विभाजन है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन चार वर्गों का आपस में किस प्रकार संलयन किया जाए जिससे एक ऐसी शक्ति पैदा की जा सके जो पैदाइशी रूप से शासक कही जाने वाली जातियों के उन अधिकारों को चुनौती दे सके जिसके चलते हुए हमेशा शासक बने रहने का दावा करते हैं तथा वे बहुधा इसमें अभी तक सफल भी हैं।
  तात्कालिक रूप से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अनुसूचित जनजातियों के समाज से दूर वनांचल में बसे होने के कारण उनके साथ अनुसूचित जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों का भी सीधा सामाजिक संबंध नहीं के बराबर रहा है अतः उनके साथ कई मामलों में सामाजिक संलयन की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भी सामाजिक संलयन की प्रक्रिया का अभी कुछ कारगर उपाय तय किया जाना बाकी है।
        अत: फौरी तौर पर अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग जो अलग-अलग; कुछ दूरी बनाकर, रहते हुए भी समाज में कहीं न कहीं एक साथ उपस्थित होते रहे हैं तथा उनका आपस में संवाद भी होता रहा है क्योंकि इन दोनों वर्गों को हिंदू बाड़े में रखा गया है इसलिए उसके बहाने भी लंबे समय से इनके अंदर हिंदुत्व की एकता का मोह पैदा किया गया है जिसके कारण भी इनमें दूरियां कम हुई हैं। अतः यह दोनों वर्ग सामाजिक,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूप से एक साथ घुलने-मिलने के लिए ज़्यादा अनुकूल एवं मुफ़ीद प्रतीत होते हैं।
हां यह एक कठोर सच्चाई है की अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदू वर्ण व्यवस्था की चौथे वर्ण के रूप में अर्थात शुद्र वर्ण के रूप में पहचाना गया है किंतु अनुसूचित जाति समूह हिंदू वर्ण व्यवस्था के किसी पायदान  पर नहीं है अर्थात वह वर्ण व्यवस्था के बाहर है जिसे हम पारंपरिक रूप से ग़ैर हिंदू भी कह सकते हैं। यह वह वर्ग है जिसने ब्राह्मण धर्म के बदले हुए नाम हिंदू धर्म के साथ भी नहीं जुड़ सका जिसके कारण उसे बहिष्कृत ही रखा गया ।         जानने योग्य है कि ईशा के लगभग 600 साल पहले बौद्ध जीवन मार्ग के लोकप्रिय होने के बाद अनुसूचित जाति के  ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने हुए बौद्ध के जीवन मार्ग को ही अपनाया तथा उन्होंने हिंदू जैसे छद्म धर्म को अस्वीकार किया जिसके कारण ब्राह्मण धर्म ने बहिष्कृत तथा अछूत क़रार कर दिया । इसका ख़मियाज़ा वे आज तक भुगत रहे हैं। सनातन हड़प्पा संस्कृति को अपने गले से लगाए हुए इस वर्ग ने दुनिया भी धर्म को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह हिंदू धर्म के नए संस्करण के बाद भी वह प्राय: इससे अलग-थलग ही रहा। 
   अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है तथा जो जनसंख्या में भारत की कुल जनसंख्या का 50% से अधिक है। यह दूसरा वर्ग जो कि हिंदू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा गया है तथा जिसे सेवा करने के लिए ही मनु के क़ानून द्वारा विहित किया गया है, वह क्योंकि सवर्णों के साथ लगातार उनके कार्यकलापों में सहयोगी है इसलिए वह उन्हें(उच्च वर्णीयों को) छू सकता है- उसके छूने से किसी तरह का पाप या दोष नहीं लगता बताया गया है इसलिए वह सछूत  है। 
     इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच जो बड़ी सामाजिक खाई है वह यही है की अन्य पिछड़ा वर्ग सछूत है तथा अनुसूचित जाति अछूत। इस कारण भी लंबे समय तक अन्य पिछड़ा वर्ग अपने को हिंदू वर्ण व्यवस्था का अंग होने के कारण अनुसूचित जाति के लोगों से अपने को श्रेष्ठ कहकर उन्हें अछूतपन का शिकार बनाने के लिए ख़ुद को वैध मानता रहा है। इस प्रकार इन उत्पीड़क कार्यों के लिए उसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के अन्य तीन वर्णों का भीअनुमोदन एवं समर्थन प्राप्त होता रहा है । यही कारण है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को हथियार बनाकर हिंदू ब्राह्मणी सवर्ण व्यवस्था ने लगातार बहिष्कृत अंत्यज अनुसूचित जातियों पर तरह तरह के ज़ुल्म ढाए हैं । इस प्रकार अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच लंबे समय से आपसी रंजिश तथा दुश्मनी का वातावरण भी इसी ब्राह्मणी व्यवस्था ने तैयार कराया है। अतः इस खाई को पाटने के कारगर उपाय भी सोचे जाने चाहिए।
      इन दोनों वर्गों में जो एकता के मजबूत बंधन हो सकते हैं वह यही कि यह दोनों वर्ग ही ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा सताए गए वर्ग हैं । यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि मनु का सारा निषेधक कानून इन्हीं शूद्रों,स्त्रियों तथा अन्त्यज जनों के लिए है ।अतः इस दृष्टिकोण से देखने से यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों ही वर्गों को ब्राह्मणी व्यवस्था की नज़र में एक ही तरह का ट्रीटमेंट तथा व्यवहार दिया गया है केवल अपनी सुविधा के लिए एक को छूने योग्य बना दिया है तथा दूसरे को जो अधिक विद्रोही तथा नकारा है उसे अछूत बनाकर उसके साथ सारे कार्य व्यापार बंद कर दिया है। 
    यही दोनों के बीच एक साझा या कामन प्लेटफार्म बनाने वाली चीजें हैं। इसी प्लेटफार्म पर होकर इसका साझा शत्रु से लड़ाई के लिए एकता को मज़बूत किया जा सकता। यही नहीं बल्कि रोज़ी-रोटी, जीविकोपार्जन एवं मान-सम्मान के लिए भी दोनों के साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद को पराजित करना ज़रूरी है । अतः इसमें दोनों ही लोगों के स्वार्थ जुड़े हुएहैं। जब किन्हीं रूपों में भी  लोगों के स्वार्थ आपस में जुड़े हुए होते हैं तब ही आपस में एकता स्थापित होती है। इसीलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के शूद्र तथा हिंदू व्यवस्था के बाहर की अनुसूचित जातियों  के बीच प्राकृतिक रूप से एकता स्थापित होने के कुछ कुदरती उपादान पहले से ही उपलब्ध हैं, बस हमें उनका इस्तेमाल करना है। यह सच है कि शूद्र जातियां भी ब्राह्मणवाद के इशारे पर आपस में ही नहीं लड़ती रही हैं बल्कि वे एक दूसरे को भी उसी नज़र से देखती रही हैं जिस नज़र से देखना ब्राह्मणवाद ने उन्हें सिखाया है ।इसलिए उनके बीच में आपस में हज़ारों साल की वैमनस्यता भी है किंतु सबसे सुखद बात यह है कि इस तरह की वैमनष्यता ज़्यादा तर आर्थिक कारणों से ही रही है सामाजिक कारण इसमें बहुत ही कम रहे हैं। गांव में प्राय: देखा गया है कि दोनों लोगों का आपस में उठना-बैठना,प्रेम-व्यवहार तो बहुत दिनों से चलता आ रहा है ,एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी भी चलती आ रही है। लेकिन खानपान शादी-ब्या के मामले में अभी भी लोग अलग-अलग ही हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शूद्रों द्वारा पुराने कुटुम्ब भाइयों (अनुसूचित जातियों) के साथ छुआछूत का व्यवहार केवल इसलिए बरता जाता रहा है कि इससे उनके मालिक सवर्ण संतुष्ट रहें अन्यथा वे इस जुर्म में;कि वे बहिष्कृतों को छूते हैं, उन्हें भी अछूत बना सकते हैं। 
     आज ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के बीच आपसी समझ तथा ताल-मेल कायम हो, साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि इनके अंदर विद्यमान उप जातियों के बीच भी सौहार्द तथा एकता पैदा की जाए।यही नहीं इनके अंदर विद्यमान बहुत सी जातियां हैं जिनका आपस में भी खान शादी ब्याह नहीं होता है इसी प्रकार से सछूत शूद्रों में भी कई जातियां हैं जिनका आपस में शादी विवाह नहीं होता है, इस प्रकार हमें पूरे बहुजन को एक साथ लाने के लिए कम से कम एक कामन प्लेटफार्म एक कामन उद्देश्य  के लिए कुछ सांस्कृतिक परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी ।
    सबसे पहली समस्या तो यह कि जिस ब्राह्मणवाद से हम लड़ने चल रहे हैं उस ब्राह्मणवाद का जो सबसे बड़ा हथियार है वह है- वर्ण धर्म-- जिसके कारण उसने भारतीय समाज को जातियों में तोड़ा है तथा उनको अपने स्वार्थ, अपने फ़ायदे के लिए किसी टूल की तरह से इस्तेमाल करता रहा है। हमें लड़ना ज़रूरी है । इस लड़ाई में हमारी एकता भी साबित होगी और हमारा जो सांस्कृतिक परिवर्तन है वह भी नज़र आए यह ज़रूरी है। लड़ाई के अपने रणनीति बनाकर बनाकर चलें । इस रणनीति में जब तक हिंदूवर्ण व्यवस्था को समाप्त करने पर या हिंदू वर्ण व्यवस्था से अलग होने पर हम ठोस कार्यवाही नहीं करेंगे तब तक हमारी किसी भी तरह की विजय संदेहास्पद है। वर्णाश्रम का अर्थ है हिंदू धर्म अर्थात हमें सीधे टक्कर हिंदू धर्म से लेनी पड़ेगी। वास्तव में यह हिंदू धर्म कुछ भी नहीं है, यह ब्राह्मण धर्म ही है जो हिंदू नाम देकर ग़ैर ब्राह्मणों को ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनाने का एक महामंत्र बनाया गया है। इसलिए हमें इस ब्राह्मण धर्म के ख़िलाफ़ तुरंत लाम बंद होने की ज़रूरत है तथा ब्राह्मण धर्म द्वारा बताए-सुझाए गए धार्मिक कृत्यों जिसमें दान, पूजा,यज्ञ, हवन,तीर्थ,व्रत कथा वार्ता,भागवत-रामायण आदि शामिल हैं- इन को चुनौती देनी होगी। लोगों को संदेह है कि आख़िर हम यह सब एकाएक कैसे छोड़ सकते हैं? इसके लिए मेरा यही कहना है कि इसके बीच का कोई रास्ता नहीं है। या तो हम इसे छोड़ें या इसे गले से लगाए रहें। हिंदू धर्म में सुधार करने की प्रयास लगभग 1000 वर्षों में बार-बार हुए हैं तथा हज़ारों-लाखों लोगों ने इसे सुधारने-संवारने का प्रयास किया है किंतु सब कुछ व्यर्थ गया। इसलिए यह उम्मीद करना कि हम हिंदू धर्म को सुधार कर अपने लायक बना लेंगे, यह एक दिवास्वप्न है। बीच का रास्ता जो मुझे समझ आता है वह यही है की किसी भी तरह के कर्मकांड किसी भी तरह हिन्दू ब्राह्मणी रीति से शादी- व्याह आदि ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ेगी तथा इनका परित्याग करना पड़ेगा। तो फिर इसका हमें विकल्प भी देना पड़ेगा। इस विकल्प के रूप में हमें तीज त्यौहारों तथा शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों पर भी विचार करना पड़ेगा क्योंकि भारत की ग्रामीण परंपरावादी जनता बिना धर्म के नहीं रह सकती है। इसलिए उन्हें एक धर्म देने की भी ज़रुरत होगी। लेकिन कोई नया धर्म स्वीकार करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हम पुराने ओ वैज्ञानिक अंधविश्वासी विचारों तथा परंपराओं को त्याग दें तथा अपने हड़प्पाई सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीने का रास्ता बनाएं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...