बुधवार, 13 नवंबर 2019

समानांतर संस्कृति

मानांतर संस्कृति
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ आंदोलन।

डॉ.लाल रत्नाकर
artistratnakar@gmail.com     Mob:9810566808

दिशानिर्देशन मंडल : डॉ.मनराज शास्त्री, डॉ.मोतीलाल वर्मा, श्री सातवजी माचनवार, श्री अजय सिन्हा एवं श्री चन्द्र शेखर कुमार।

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद क्या है ? 
सबसे पहले तो हमें देखना होगा कि सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का मतलब क्या है ? सीधे-सीधे कहा जाए तो यह पाखंड और ब्राह्मणवाद है। जिसने भारतीय संस्कृति को पूरी तरह से हथिया लिया है और अपने को श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति जाति धर्म आदि के रूप में स्थापित करके भारत के मानवों के मध्य कथित रूप से पुजारी, साधु और सन्त के रूप में / अज्ञात ईश्वर का प्रतिनिधि बन बैठा है। जिसने हज़ारों देवी देवताओं को बनाकर एक पाखंडी साम्राज्य खड़ा किया और सदियों से उसका मुखिया बन बैठा। इसने हज़ारों ग्रंथों की रचना की जिसकी चाभी के रूप में मनुस्मृति की रचना करके पूरे मानव समाज को ऊंच नीच और छुआ-छूत के अमानवीय कर्मकांडीय व्यवस्था में फसाकर सर्वश्रेष्ठ बन बैठा है ।  मूलतः जो हर तरह से धर्म की दुहाई देकर जन्म से मृत्यु पर्यन्त बहुजन समाज पर अपना शिकंजा फैलाए हुए है उसे ही सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कहते हैं।

हमारे बीच से ही हमें चुनौती :
सबसे दुःखद है हमारे बहुजन समाज में पसरा हुआ पाखण्ड और ब्राह्मणवाद अब जैसे ही हम पाखंड की बात करते हैं तो एक बहुजन सांस्कृतिक तंत्र हमारे सामने उठकर खड़ा हो जाता है. वही सबसे ज्यादा बहस करके इसके केंद्र में केंद्रित हो जाता  हैं कि यह पाखंड कैसे है यह तो हमारा धर्म है परम्परा से हम इसे मानते आये हैं। यह गलत कैसे हो सकता है ?

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की पृष्ठभूमि और समानांतर संस्कृति का दर्शनः
अलौकिक और लौकिक अवधारणाओं में वह फसा रहता है जिससे आगे बढ़कर सोचने का साहस ही नहीं कर पाता है। देखिए यह आसान काम नहीं है कि इतना साहित्य लिखा जाए और निरंतर उसमें गैर बराबरी और असमानता को स्थान दिया जाता रहे और यही किया गया है हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने में यद्यपि जिसको तोड़ना आसान नहीं है। क्योंकि यह प्रक्रिया इतनी लंबी चली है जिसका समय समय पर बदलाव केवल दिखावे में अगर कहीं कमजोर पडा तो कालान्तर में बहुत कुषलता से उसे बहुजन समाज के मस्तिष्क में डाल दिया गया है जिससे़ उसके रक्त में, मस्तिष्क में और अंतर्मन में गहरे तक वह जड़ जमाए बैठी है और यही कारण है कि पिछले दिनों देश में जाति और संप्रदाय के नाम पर हजारों हजार लोगों को मार दिया गया और उनको कहीं नोटिस तक में नहीं लिया गया। आश्चर्य है क्रांति क्यों नहीं हुयी ? इसके विस्तार का अन्तहीन सिलसिला है जिसे यहॉं दुहराने की बजाय हम आते हैं अपने उद्देश्य पर।

जिस पर मा. रामासामी पेरियार के विचारों को भी देख लेते हैं :-

1. ब्राहमण आपको भगवान के नाम पर मुर्ख बनाकर अंधविश्वास में निष्ठा रखने के लिए तैयार करता है । ओर स्वयं आरामदायक जीवन जी रहा है, तथा तुम्हे अछूत कहकर निंदा करता है । देवता की प्रार्थना करने के लिए दलाली करता है । मै इस दलाली की निदा करता हू । ओर आपको भी सावधान करता हू की ऐसे ब्राहमणों का विस्वास मत करो ।

2. उन देवताओ को नष्ट कर दो जो तुम्हे शुद्र कहे , उन पुराणों ओर इतिहास को ध्वस्त कर दो , जो देवता को शक्ति प्रदान करते है । उस देवता कि पूजा करो जो वास्तव में दयालु भला ओर बौद्धगम्य है ।

3. ब्राहमणों के पैरों में क्यों गिरना ? क्या ये मंदिर है ? क्या ये त्यौहार है ? नही , ये सब कुछ भी नही है द्य। हमें बुद्धिमान व्यक्ति कि तरह व्यवहार करना चाहिए यही प्रार्थना का सार है ।

4. अगर देवता ही हमें निम्न जाति बनाने का मूल कारन है तों ऐसे देवता को नष्ट कर दो , अगर धर्म है तों इसे मत मानो , अगर मनुस्मृति , गीता, या अन्य कोई पुराण आदि है तों इसको जलाकर राख कर दो । अगर ये मंदिर , तालाब, या त्यौहार है तों इनका बहिस्कार कर दो । अंत में हमारी राजनीती ऐसी करती है तों इसका खुले रूप में पर्दाफास करो ।

5. संसार का अवलोकन करने पर पता चलता है की भारत जितने धर्म ओर मत मतान्तर कही भी नही है । ओर यही नही , बल्कि इतने धर्मांतरण (धर्म परिवर्तन ) दूसरी जगह कही भी नही हुए है ? इसका मूल कारण भारतीयों का निरक्षर ओर गुलामी प्रवृति के कारन उनका धार्मिक शोसन करना आसान है ।

6. आर्यो ने हमारे ऊपर अपना धर्म थोपकर , असंगत,निर्थक ओर अविश्नीय बातों में हमें फांसा । अब हमें इन्हें छोड़कर ऐसा धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए जो मानवता की भलाई में सहायक सिद्ध हो ।

7. ब्राहमणों ने हमें शास्त्रों ओर पुराणों की सहायता से गुलाम बनाया है । ओर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मंदिर , ईश्वर,ओर देवि - देवताओं की रचना की ।

8. सभी मनुष्य समान रूप से पैदा हुए है , तों फिर अकेले ब्रहमान उंच व् अन्यों को नीच कैसे ठहराया जा सकता है ।

9. संसार के सभी धर्म अच्छे समाज की रचना के लिए बताए जाते है , परन्तु हिंदू -आर्य , वैदिक धर्म में हम यह अंतर पाते है कि यह धर्म एकता ओर मैत्री के लिए नही है ।

10. आप ब्राह्मणों के जल में फसे हो. ब्राह्मण आपको मंदिरों में खुसने नदी देते ! ओर आप इन मंदिरों में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लूटाते हो ! क्या कभी ब्राहमणों ने इन मंदिरों, तालाबो या अन्य परोपकारी संस्थाओं के लिए एक रुपया भी दान दिया ????

11.ब्राहमणों ने अपना पेट भरने हेतु अस्तित्व , गुण ,कार्य, ज्ञान,ओर शक्ति के बिना ही देवताओं की रचना करके ओर स्वयभू ’भुदेवता ’ बनकर हंसी मजाक का विषय बना दिया है ।

12. सभी मानव एक है हमें भेदभाव रहित समाज चाहिए , हम किसी को प्रचलित सामाजिक भेदभाव के कारन अलग नही कर सकते ।

13. हमारे देश को आजादी तभी मिल गई समझाना चाहिए जब ग्रामीण लोग, देवता ,अधर्म , जाति ओर अंधविस्वास से छुटकारा पा जायेंगे।

14. आज विदेशी लोग दूसरे ग्रहों पर सन्देश ओर अंतरिक्ष यान भेज रहे है ओर हम ब्राहमणों के द्वारा श्राद्धो में परलोक में बसे अपने पूर्वजो को चावल ओर खीर भेज रहे है । क्या ये बुद्धिमानी है ???

15. ब्राहमणों से मेरी यह विनती है कि अगर आप हमारे साथ मिलकर नही रहना चाहते तों आप भले ही जहन्नुम में जाएद्य कम से कम हमारी एकता के रास्ते में मुसीबते खड़ी करने से तों दूर जाओ। ब्राहमण सदैव ही उच्च एवं श्रेष्ट बने रहने का दावा कैसे कर सकता है ?? समय बदल गया है उन्हें नीचे आना होगा, तभी वे आदर से रह पायेंगे नही तों एक दिन उन्हें बलपूर्वक ओर देशाचार के अनुसार ठीक होना होगा।

नास्तिकता मनुष्य के लिए कोई सरल स्तिथि नहीं है, कोई भी मुर्ख अपने आप को आस्तिक कह सकता है, ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास की जरुरत पड़ती है, यह स्थिति उन्ही लोगो के लिए संभव है जिनके पास तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो ।
-रामास्वामी नायकर (पेरियार)

अगर देवता ही हमें निम्न जाति बनाने का मूल कारन है तों ऐसे देवता को नष्ट कर दो , अगर धर्म है तों इसे मत मानो , अगर मनुस्मृति , गीता, या अन्य कोई पुराण आदि है तों इसको जलाकर राख कर दो । अगर ये मंदिर , तालाब, या त्यौहार है तों इनका बहिस्कार कर दो । अंत में हमारी राजनीती ऐसी करती है तों इसका खुले रूप में पर्दाफास करो ।” 
-रामास्वामी पेरियार

समानांतर संस्कृति :
साथियों हम निरन्तर इस बात से दुखी हैं कि हमारा समाज, हमारा परिवार पाखण्ड और ब्राह्मणवाद से मुक्त नहीं हो पा रहा है, मेरा सवाल है हमने किया क्या है उसके लिए ? अब सवाल यह है कि हमें करना क्या है ?

मेरे मन में जो निजी सूझ-बूझ से बात समझ में आती है उसके हिसाब से मैं कह सकता हूं कि जितने भी सांस्कृतिक सरोकार हैं वह हमारे भी परंपरागत सांस्कृतिक पर्व हो सकते है परन्तु जब हम सब उसे वैज्ञानिक तरीकों से उनका मूल्याङ्कन करें। या बहुजन समाज के कुछ प्रबुद्धजनों द्वारा इसपर विचार किया जाय। केवल गाली देने से बात नहीं बनेगी ? यदि वह सब वैज्ञानिक तरीके से हमें  प्रभावित नहीं करते हैं तो हमें उसमें फसे नहीं रहना है। क्योंकि हमें उसमें फंसाया गया है। क्या क्या किया गया है इन सब के पीछे ब्राह्मणवादियों का बहुत शातिर दिमाग काम करता है। जिससे हमें जन्म से मृत्यु तक वह ऐसे ऐसे हज़ारों संस्कारों से बाँध देते हैं कि पूरा बहुजन समाज उसके पीछे पागलों की तरह दीवाना रहता है। 

हालांकि एसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है कि इसपर हमलोग बात कर रहे हों । इसपर निरन्तर चिंता बनी रही है और इतिहास में जाये ंतो इसपर कबीर, फुले अम्बेडकर, थिरुवल्लुर, इयोथीथास, चोखामेला, तुकाराम, आयंकलि, बसवा, नारायण गुरु और पेरियार का बहुत बड़ा प्रहार रहा है। मा.जगदेव कुशवाहा, मा.ललई सिंह और मा.राम स्वरूप वर्मा हमारे पूर्व युग के बहुत करीब तक इस पर आघात ही नहीं करते रहे हैं उन्होंने उसे छोड़ा ही नहीं उसका विकल्प भी दिया है जिसपर हम आगे बात करेंगे। लेकिन उसे हमने इस आन्दोलन की शकल में हमने नहीं लिया और वह धारा लगभग सूख गयी है। यहां पर हम उन संस्कारों की बात न करके हम उन मुद्यों पर विचार करेंगे जो हमें छोड़ना ही नहीं है बल्कि ऐसे विधान बनाने हैं जो बहुजन समाज स्वीकार करे और एक बहुजन संस्कृति का सांस्कृतिक आन्दोलन चलाया जाय जिसे हमें राष्ट््रीय स्तर पर बहुजन समाज के लिए तय करना है।

मा.राम स्वरूप वर्मा ने अपनी पुस्तक अर्जक संघ : 

‘‘सिद्धान्त वक्तव्य-विधान कार्यक्रम’’ में विस्तार से इन बातों का जिक्र किया हैं। यहां हम उनकी प्रस्तावना से कुछ हिस्से का यहां जिक्र करना चाहेंगे :’

हमें जितना समय मिला और जितना विमर्श सम्भव था किया है, परिवर्तन और परिवर्धन की प्रक्रिया इसमें जारी रहेगी इसे व्यवहार योग्य बनाया जाय इसमें आपके सुझाव सर्वदा आमन्त्रित हैं।  
           
यद्यपि जब हम समानान्तर संस्कृति की जब बात करते हैं तो मा.राम स्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ में जिन सिद्धान्तों को अपनाया है वही मूलतः हमारी समानान्तर संस्कृति की रीढ़ है। उन्होंने अपने प्रस्ताव में माना है कि जिससे मानव समाज कायम रहे और तरक्की करे; उसे ही धर्म मानते है इसलिए मानव के संहार का समर्थन करने वाला कोई सिद्धांत धर्म नहीं हो सकता। और जो मानव मानव की बराबरी के सिद्धांत को स्वीकार ना करें वह भी धर्म नहीं हो सकता। एक प्रकार से उपर्युक्त दोनों सिद्धांत धर्म के दोनों छोर हैं इनके अंदर रहकर सारे सिद्धांत धर्म की संज्ञा पाते हैं । 

साथ ही मानव समाज को कायम रखने व उसकी तरक्की के लिए रास्ता बताते हैं । विश्व के महापुरुषों ने अपने अपने विचार के अनुसार ऐसे रास्तों का निरूपण किया है जिन्हें विभिन्न धर्मों की संज्ञा दी जाती है। देश व काल का भी प्रभाव इन महापुरुषों पर ऐसे रास्तों के निरूपण पर पड़ा है। यही कारण है कि ऐसे महापुरुषों ने अपने विचार के अनुसार रास्ता बताते हुए यह अवश्य स्वीकार किया है कि जो बात तर्क और तथ्य की कसौटी पर सत्य न प्रतीत हो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसका तात्पर्य हुआ कि उन महापुरुषों ने मानव की विवेक शीलता को सदैव जागृत रखना ही धर्म के लिए हितकर समझा।
अतः यह तथ्य स्वीकार करते हुए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति को धर्म चुनने की आजादी रहे जिसे वह सोच समझकर चुने। क्योंकि सोचने समझने की बुद्धि का विकास 18 वर्ष की उम्र तक हो जाता है। इसलिए प्रत्येक 18 वर्ष की अवस्था प्राप्त व्यक्ति को यह घोषणा करने का अधिकार रहे कि उसने कौन सा धर्म स्वीकार किया। बाप या मां के धर्म के साथ जुड़ने की अनिवार्यता विवेक बुद्धि की मारक है इससे असहिष्णुता और धर्मांधता को बढ़ावा मिलता है।

और उन्होंने इस सिलसिले में केंद्र सरकार से यह मांग भी की थी कि अभिलंब धर्म ग्रहण विधेयक लाकर उसे कानून का रूप दे दे जिससे 18 वर्ष के पूर्व के किसी व्यक्ति का कोई धर्म न माना जाए और इसके बाद वह जिस धर्म को ग्रहण करने की घोषणा करें उसका वह धर्म माना जाए यदि वह किसी धर्म की ग्रहण की घोषणा ना करना चाहे तो उसे ऐसा करने की पूरी आजादी रहे और तब उसे मानव धर्म का माना जाए यही कारण है कि इसमें मानव मानव की बराबरी व धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धांत पंखिड़ा और मनुष्य की विवेकशीलता अधिक विकसित होगी। इसलिए उसका उल्लेख करना यहां जरूरी और प्रासांगिक भी हैः- 





इसलिए हमें एक साथ निम्न परम्पराओं को : 
समूल सामूहिक त्याग करना होगा :
1. मूर्ति पूजा पूर्ण रूप से बन्द।
2. शादी ब्याह में ब्राह्मणी व्यवस्था एवं ब्राह्मणों का पूर्ण बहिष्कार।
3. मृत्यु भोज पूर्ण रूप से बन्द।
4. तीर्थयात्रा/देवस्थान पर जाना पूर्ण रूप से बन्द।
5. त्योहारों के रूप में प्रचलित सभी त्योहार बन्द

और इन परम्पराओं को अंगीकृत करना होगाः
1. बहुजन महापुरुषों के जन्मदिन को पर्व/उत्सव आयोजित किया जाना।
2. प्राकृतिक परिवर्तन यथा फसल फल वर्षा से जुड़े उत्सव स्थानीय स्तर पर आयोजित किया जाना।
3. बच्चों के जन्मदिन को समान रूप से उल्लास के साथ मनाया जाना।
4. नामकरण बहुजन विद्वानों और उन्नति सूचक शब्दों से किया जाना।
5. विवाह अर्जक पद्धति से किया जाना।
6. स्थानीय स्तर पर बाजार और मेले का आयोजन : बहुजन समाज के लोगों का जो उत्पाद है उसके लिए। 

किस तरह के पर्व मनाये जायेंगे उनपर निम्न सुझाव : इसपर मा. राम स्वरूप वर्मा ने जो प्रस्तावित किया है उसका जिक्र किया जाना जरूरी है। यथा :-

जिसमें सभी बहुजन समाज के लोग सहयोग करेंगे और वहीं से अपने आवश्यकता की चीजें खरीदें और बाजार को हम यहां प्रवेश नहीं करने देंगे बिचौलियों से मुक्त करने का अभियान।


बहुजन सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना : 
हालांकि आवादी और बहुजन लोगों में भेदभाव जिस कदर बढ़ा है उसको देखते हुए इन केन्द्रों की बहुत उपयोगिता होगी इस पर अलग से विस्तार से एक प्रारूप संलग्न किया जा रहा है जिसमें विस्तार से इसकी उपयोगिता की बात की जायेगी।

बहुजन अर्थव्यवस्था और उसपर नियंत्रणः
देशभर में अर्जक संघ के सदस्यों के लिए उद्योग धंधों का विकास करने देश के एक भाग से दूसरे भाग को आवश्यकतानुसार माल भेजने की व्यवस्था करने। प्रत्येक उद्योग धंधे में लाभ का प्रतिशत निर्धारित करने। और अर्जक संघ के व्यापारियों में संगठन का दायित्व वहन करने। पूंजी निर्माण के लिए राष्ट्रीय आर्थिक समिति प्रदेश की आर्थिक समिति की सिफारिश पर अर्जक व्यापारी से लाभ का एक अंश लेने का निर्णय कर सकती है। इस प्रकार एकत्रित धन राष्ट्रीय समिति के द्वारा निर्धारित अनुपात में उद्योग धंधों के विकास हेतु सभी स्तरों पर लगाया जाएगा। इसमें हम विभिन्न प्रकार के कार्य जैसे जुलाहे लोहे पीतल बर्तन सिलाई चमड़े का उद्योग और लकड़ी के काम और नाना प्रकार के उत्पादन आरंभ करेंगे।

समानान्तर शिक्षा और साहित्य की रचना :
बहुजन समाज को जिस तरह की शिक्षा दी जा रही है उसमें ब्राह्मणवादी पाठ्यक्रम उन्हें पढ़ाया जा रहा है इसपर मा. राम स्वरूप वर्मा ने जो प्रस्तावित किया है उसका जिक्र किया जाना जरूरी है। यथा :-

इसलिए हम यह मान सकते हैं कि आज जब अवाम बदलाव का मन बना रही है तो उसके पास बराबरी का साहित्य कहां है। और अगर आपके पास साहित्य नहीं है तो थोड़े दिनों में आपको फिर से वहीं धकेल दिया जाएगा जहां से आप उठ कर के आए हैं। जो साहित्य उपलब्ध है उस में मुख्य रूप से अंबेडकर, रामास्वामी पेरियार और ज्योतिबा फुले जिनके मिशन को आगे ले जाने वाले लोगों में रामस्वरूप वर्मा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ललई सिंह यादव ने जिस सच्ची रामायण का हिंदी अनुवाद किया है उन्होंने भी बहुत कुछ सैद्धांतिक काम किया है लेकिन जिस तरह से उसको जनता में स्वीकार किया जाना चाहिए था वह स्वीकारोक्ति या मान्यता जनता में नहीं मिली। 

अब देखिए धीरे धीरे उन साहित्य की बात हो रही है जिनमें गैर बराबरी और भेदभाव कूट कूट कर के भरा हुआ है। जिस संविधान के चलते लोग चुनकर के आए हैं उसी संविधान को नहीं मान रहे हैं अगर इनसे कोई पूछे कि अगर संविधान ना होता तो क्या चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन जाता राजतंत्र में ऐसा कोई उदाहरण तो नहीं मिलता है और अगर फिर से राजतंत्र आ गया तो क्या कोई भी सामान्य व्यक्ति देश में उस सत्ता पर पहुंच सकता है। आश्चर्य तो इस बात से हो रहा है कि जिस संविधान के चलते जो चाय वाला प्रधानमंत्री हुआ है (यहां चायवाला कहने का मतलब है कि खुद प्रधान सेवक अपने को चाय बेचने वाला कहते हैं) और वही व्यक्ति उसी संविधान को तहस-नहस करने पर आमादा है। जो संवैधानिक जनता के अधिकार है उनको समाप्त किया जा रहा है और विशेष प्रकार का संविधान या उनके मूल संगठन जिसको संघ कहते हैं की मान्यताओं को थोपा जा रहा है जो ना उनके चुनाव मेनिफेस्टो में है और ना ही वह संवैधानिक है।

बहुजन उद्योग और व्यापार : 
बहुजन समाज के लोग जब तक उद्योग और व्यापार में जब तक अपनी सहभागिता नहीं दर्ज करेगा तब तक उसके आर्थिक विकास का कोई भी रास्ता निकलता नहीं दिखेगा यही कारण है कि माननीय रामस्वरूप वर्मा जी ने अपने अर्जक संगठन के कार्यप्रणाली में इस पर विशेष जोर दिया है उनकी राष्ट्रीय उद्योग नीति है जिसमें हर स्तर पर यानी देश प्रदेश जिला एवं उसके नीचे स्तर पर भी उद्योग स्थापित करने के बहुत सारे उपाय सुझाए हैं इसलिए जरूरी है कि हम उनके सुझाए हुए रास्ते पर चलकर के बहुजन समाज का आर्थिक हित सुनिश्चित करें।
मेरे ख्याल से अर्जक संघ  के इस विकल्प को हमें स्वीकार करना चाहिए और इस पर एक कमेटी  बनाकर के और उपायों पर भी विचार करना चाहिए।

बहुजन कृषि और उसके उत्पाद :
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है अर्जक संघ के सिद्धान्तों में माननीय रामस्वरूप वर्मा जी मानते हैं कि बहुजन समाज का हर तरह से शोषण ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी शक्तियों द्वारा किया जाता है। इसलिए अनिवार्य है कि बहुजन समर्थित कृषि उत्पाद के व्यापार का नियंत्रण भी बहुजन समाज के हाथों में हो। जिससे उसमें बिचौलिए का रोल समाप्त हो। इसके लिए हमें नीतियां बनानी होंगी और बहुजन समाज के उन लोगों को जो कृषि कार्य में संलिप्त हैं पूरा लाभ मिले और उनके कृषि उत्पाद में हानि का अवसर ना उत्पन्न हो। जिससे आए दिन कृषि कार्य करने वाले बहुजनों की आत्महत्या कर लेने का प्रकरण आता रहता है। इन सब के पीछे ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी बिचौलियों का बहुत बड़ा हाथ होता है।

प्राकृतिक संसाधनों का पर समान अधिकार :
जैसा कि हम जानते हैं देश के प्राकृतिक संसाधनों पर असमान नियंत्रण के कारण बहुजन समाज के तमाम लोग उन संसाधनों का लाभ नहीं ले पाते हैं जैसे पानी की समस्या चरागाह की समस्या जंगलों पर अधिकार की समस्या से निरंतर बहुजन समाज जूझता रहता है और इन्हीं सब कारणों से वह संघर्ष में मारा जाता है या आपस में लड़ता रहता है इसलिए जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों जिसमें धरती वृक्ष जल पहाड़ पशु पक्षी इत्यादि पर बहुजन समाज का बराबरी का अधिकार हो और उसकी वजह से वह अपना जीवन यापन कर सके। इस पर भी हमें विस्तार से कार्यक्रम बनाने की जरूरत है जिसमें अर्जक संघ के सिद्धांतों से हम प्रेरणा दे सकते हैं।

अंत में यह कहते हुए मैं अपनी बात समाप्त करूंगा कि हमारे बहुजन चिंतकों ने हमारे लिए बहुत सारे रास्ते बनाए लेकिन कालांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने संविधान की अनदेखी करके उन तमाम रास्तों को अवरुद्ध कर दिया जिससे एक समानांतर संस्कृति विकसित हो पाती। और उससे एक बहुत बड़ी आबादी लाभान्वित होती। मौजूदा दौर में और भी संकट की घड़ी है जिसमें नए सिरे से मनुस्मृति को संविधान की जगह प्रतिस्थापित किया जा रहा है। यदि फिर से संविधान की जगह मनुस्मृति की व्यवस्था लागू हो गई तो हमारी सामाजिक न्याय की लंबी लड़ाई का एक चरण समाप्त हो जाएगा और नए सिरे से लड़ने के लिए हमें जिस तरह के संसाधनों की जरूरत है उस पर दुश्मन वर्ग में पूरी तरह से कब्जा कर लिया है।

फिर भी हमारी कोशिश होगी कि हम संविधान बचाने के लिए और नई संस्कृति के निर्माण के लिए संघर्ष करेंगे और जीतेंगे।

जय विज्ञान जय संविधान।

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