बुधवार, 7 मार्च 2012

दलित राजनीति की दुश्मन

दलित राजनीति की दुश्मन
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बीबीसी से साभार ;

माया से मोह टूटा?

 बुधवार, 7 मार्च, 2012 को 15:19 IST तक के समाचार

इस हार में दलित वोटों का बचा रहना मायावती के लिए सुखद आभास होगा लेकिन आगे चुनौती बड़ी होगी.
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम दलित राजनीति के लिए महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं जो दलितों, मायावती और अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी कई संदेश देते हैं.
मायावती पहली दलित महिला नेता है जो दलितों के वोटों के कारण सत्ता में पहुंची लेकिन परिणामों से साफ है कि वो दलितों और आम लोगों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाईं.
वैसे भारत में दलित राजनीति का इतिहास महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में रहा ज़रुर है लेकिन दलितों को सत्ता पहली बार यूपी में ही मिली.
चर्चित पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ दलित रिपब्लिक’ के लेखक और राजनीतिक विश्लेषक बदरी नारायण कहते हैं कि ये एक मौका है मायावती के लिए और दलितों के लिए अपनी राजनीति को पुनर्परिभाषित करने का.

बदरी नारायण

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मायावती को जो मौका मिला उसका सही उपयोग नहीं किया गया. लेकिन सत्ता रहे न रहे दलितों में एक सामाजिक चेतना ज़रुर आई है और इसी चेतना का परिणाम था कि मायावती सत्ता में आई और यही चेतना दलितों को नई राजनीति के लिए प्रेरित भी करेगी"
वो कहते हैं, ‘‘ मायावती को जो मौका मिला उसका सही उपयोग नहीं किया गया. लेकिन सत्ता रहे न रहे दलितों में एक सामाजिक चेतना ज़रुर आई है और इसी चेतना का परिणाम था कि मायावती सत्ता में आई और यही चेतना दलितों को नई राजनीति के लिए प्रेरित भी करेगी.’’
बहुजन-सर्वजन मॉडल
बदरी कहते हैं कि पूरे भारत में बहुजन मॉडल की राजनीति से लोग प्रेरित हो रहे थे और इस मॉडल को अपनाने की कोशिश हो रही थी जिसे यूपी के परिणामों ने झटका दिया है.
लेकिन इसकी क्या वजह रही, दलित नेता उदित राज कहते हैं, ‘‘ तानाशाही का रवैय्या तो रहा है मायावती जी का. हां उनके समय में दलितों का थोड़ा विकास तो हुआ है. इस जीत हार को दलित राजनीति से जोड़ने की बजाय जाति की राजनीति से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. वैसे भी सपा और बसपा के वोट प्रतिशत में बहुत अंतर नहीं है.’’
उदित राज कहते हैं कि मायावती से अति पिछड़ा और सवर्ण गुट अलग हो गए.
मायावती पर पुस्तक लिख चुके अजय बोस कहते हैं कि मायावती को खारिज़ करना ही ग़लत होगा.
वो कहते हैं, ‘‘ ये झटका तो है मायावती के लिए इसमें शक नहीं लेकिन आप ये देखिए कि मायावती का दलित वोट बैंक बचा हुआ है. अगर दलित वोट नहीं देते तो मायावती की सीटें 30-35 तक चली जातीं. गवर्नेंस खराब था. सत्ता विरोधी लहर भी थी लेकिन कम से कम यूपी में सपा-बसपा की लड़ाई तो रही. मायावती पहले भी तानाशाह थी. अब उनको सोचना पड़ेगा आगे क्या करना है.’’
मायावती को इन चुनावों में करीब 80 सीटें मिली हैं और जाहिर है कि उनका सर्वजन कार्ड चल नहीं पाया है लेकिन इसके बावजूद विश्लेषक मानते हैं कि मायावती को खारिज कर देना सही नहीं होगा.

यूपी के दलितों में एक नई सामाजिक चेतना ज़रुर आई है
ऐसा इसलिए भी क्योंकि मायावती के दलित वोट में सेंध नहीं लगी है.
दलित वोट बरकरार
अजय बोस कहते हैं कि कहीं न कहीं मायावती का राजनीतिक प्लान फेल हो गया है, ‘‘ मायावती का सर्वजन कार्ड फेल हो गया. 2007 में ये सफल रहा लेकिन इस बार उनकी योजना फेल हो गई. उनकी तानाशाही, एक ही नेता होना ये सब तो पहले भी था.’’
वो कहते हैं कि समस्या राजनीतिक योजना की है मायावती की निजी नहीं. अजय के अनुसार दलितों को नुकसान हुआ है लेकिन ये फायदे की बात है कि वो राजनीति में स्टेकहोल्डर हो गया है वो सिर्फ वोट देने वाला नहीं बल्कि बसपा का स्टेकहोल्डर हो गया है.
बदरी कहते हैं कि ये एक कठिन समय है मायावती के लिए लेकिन उनके साथ एक अच्छी बात है.

अजय बोस

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मायावती के पास एक वोट बैंक है जाटवों का. ये वोट रहेगा. सपा को देखा जाए जीतते ही गोलियां चलीं हैं. उस पार्टी में असामाजिक तत्व हैं. जिसका फायदा मायावती को होना चाहिए"
वो कहते हैं, ‘‘मायावती के पास एक वोट बैंक है जाटवों का. ये वोट रहेगा. सपा को देखा जाए जीतते ही गोलियां चलीं हैं. उस पार्टी में असामाजिक तत्व हैं. जिसका फायदा मायावती को होना चाहिए.’’
लेकिन क्या दलितों के लिए मायावती के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
उदित राज कहते हैं, ‘‘ समस्या कई स्तर पर है. मैंने काम करना शुरु किया लेकिन पैसे नहीं थे हमारे पास पार्टी खड़ा करने के लिए. ऐसे में दलितों के लिए नेता उभरना मुश्किल है. लेकिन हां नया नेतृत्व उभरने की संभावना ज़रुर है. दलित चेतना के उभार का यह लाभ ज़रुर होगा. लेकिन अभी समय ज़रुर लगेगा.’’
बदरी नारायण की राय थोड़ी अलग है वो कहते हैं कि मायावती से जो अति पिछड़ा तबका दूर हुआ है वहां न केवल नए नेताओं की बल्कि राजनीतिक दलों के लिए गुंजाइश बनती है.
वो कहते हैं, ‘‘ अगर आप देखेंगे ध्यान से तो पाएंगे कि मायावती हमेशा कांग्रेस पर वार करती रही हैं क्योंकि उन्हें पता है दलित दूर होगा बसपा से तो कांग्रेस के पास जाएगा. ऐसे में कांग्रेस को और काम करना होगा अपना आधार मज़बूत करने के लिए.’’
यानी कि यूपी में सपा-बसपा के अलावा और दलों के लिए राजनीतिक ज़मीन बची हुई है देखने वाली बात ये होगी आने वाले समय में राजनीतिक दल, दलित और मायावती इस मौके का क्या फायदा उठाती है.
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हिंदुस्तान से साभार ;
तिलक, तराजू और तलवार, पलट गई बसपा सरकार
लखनऊ, एजेंसी
First Published:07-03-12 12:55 PM
Last Updated:07-03-12 01:04 PM
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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के नारे से अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। लेकिन दलितों को आकर्षित करने के लिए दिए गए इस नारे के कारण जब सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई, तो मायावती ने इसे बदल दिया और 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती के इस सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकाल गई।
बदलते समय के साथ मायावती का यह नारा भी बदल गया। सतीश चंद्र मिश्रा के पार्टी से जुड़ने के बाद इस नारे को 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं' में तब्दील कर इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया।
बसपा को इस सोशल इंजीनियरिंग का फायदा भी मिला और वर्ष 2007 में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, लेकिन जनता के साथ सीधे संवाद स्थापित करने की कमी और 'ब्रह्मा विष्णु महेश' की कथित उपेक्षा ने ही इस बार मायावती की लुटिया डुबो दी।
वर्ष 2007 में बसपा को जो कामयाबी मिली थी उससे बड़ी सफलता समाजवादी पार्टी (सपा) को इस बार के विधानसभा चुनाव में हासिल हुई है। सपा ने बसपा को दस साल पहले वाली स्थिति में धकेल दिया है। मायावती इस बात को समय रहते समझ ही नहीं पाईं कि जिस गुंडाराज के खिलाफ वह वर्ष 2007 में चुनाव जीतीं थीं, उसे उछालने से कोई फायदा नहीं होने वाला था।
बसपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में 20 सीटें जीतीं थीं और इस आधार पर उसे लगभग 100 विधानसभा क्षेत्रों पर बढ़त हासिल हुई थी और यही पार्टी के लिए खतरे की घंटी थी और मायावती समय रहते इस सत्ता विरोधी लहर को पहचान नहीं पाईं। चुनाव बाद जब नतीजे आए, तो उनकी सीटें 206 से घटकर महज 80 हो गई।
जहां तक बसपा की सोशल इंजीनियरिंग के चेहरे बन कर उभरे बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्र के असर का सवाल है तो यह फंडा इस बार काम नहीं आया। मायावती को इस बात का भरोसा था की मिश्र की वजह से इस बार भी पार्टी सवर्णो का वोट पाने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मिश्र के सबसे करीबी मंत्री नकुल दुबे भी चुनाव हार गए।
इसके बाद बात बसपा की छवि की करें, तो एनआरएचएम घोटाला हो या इससे सम्बंधित स्वास्थ्य अधिकारियों की हत्या का मामला या फिर अन्य घोटाले, बसपा की सोच हमेशा इन घोटालों को दबाने की रही और जब ज्यादा तूफान मचा तो कुछ मामलों में कार्रवाई भी की गई। लोकायुक्त की जांच पर उसने दर्जन भर मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया, लेकिन यह प्रयास भी उसे दोबारा सत्ता में नहीं पहुंचा सका।
मायावती ने अपने ऑपरेशन क्लीन के तहत 21 मंत्रियों को विभिन्न आरोपों के चलते बाहर का रास्ता दिखाया और चुनाव तक मंत्रियों की तादाद घटकर 32 रह गई। मायावती ने काफी सोच समझकर इसमें से 23 मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन सरकार विरोधी लहर के चलते 14 दिग्गज मंत्री चुनाव हार गए।
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अभयानंद शुक्ल कहते हैं कि मायावती सत्ता विरोधी लहर को भांपने में नाकाम साबित हुईं। मायावती पूरे चुनाव में गुंडाराज के खिलाफ लोगों को जागरुक कर रहीं थीं। लेकिन पांच साल तक उन्होंने जनता के साथ सीधे संवाद स्थापित नहीं किया। शुक्ल कहते हैं कि चाहे शीलू निषाद का मामला हो या एनआरएचएम घोटाले का, उन्होंने कभी वास्तविकता जानने की कोशिश ही नहीं की।
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दे ही दो युवराज को ताज!

Story Update : Wednesday, March 07, 2012    9:17 PM
अगल-बगल बैठे बगलें झांक रहे सारे चचा, ताउओं को बाअदब सलाम ठोकते हुए विदूषक ने जनता बनकर सीधे नेताजी से अर्ज किया, हुजूर! यह बेटा अब हमें दे ही दो। जैसे राजा दशरथ ने ऋषियों की रक्षा के लिए अपने बेटे दे दिए थे। गुरु ज्ञान और धर्म पालन, दोनों साथ-साथ हो जाएगा। इन खटारा सड़कों और कीचड़ सनी पगडंडियों में साइकिल चलाने का हुनर इसी में है। इतने बड़े सूबे के लोगों ने यह बात बटन दबाकर कही है। अब धमाके से युवराज का राज्याभिषेक कर दिया जाए।

दरबार में सन्नाटा है। विदूषक फिर शुरू हुआ, हुजूर! अमर चचा की वक्री वाणी पर न जाइए, उन्हें भला भतीजे पर कैसे लाड़ आएगा! सम्मोहनी इत्र बांटकर मित्र बनाने वालों के नुसखों पर अमल कर अच्छा तजुर्बा हो चुका है। दिल पर हाथ रखकर कहिए, वे पहलवानी के दिन, वे साइकिल यात्राएं, बड़े नेताओं की वे तिरछी मुसकानें... संघर्ष के वे कई वर्ष, वे तजुर्बे...। बेटे ने सारा इतिहास सामने रख दिया कि नहीं! एक झटके में सारी खोई पूंजी सूद समेत कदमों में रख दी। जो आज्ञा पिताश्री का यह रामायणकालीन शिष्टाचार...। बताइए, आज के राजघरानों में ऐसे संस्कार बचे ही कहां हैं?

चचा-ताऊ इस अवांछित के प्रवेश से खिन्न नाखून कुतर रहे हैं। विदूषक ने फिर खुद ही खामोशी तोड़ी- मालिक! अपना यह प्रदेश थोड़ा उपचार और थोड़ी ताजा हवा मांग रहा है। साम-दाम-दंड-भेद की राजनीति में फंसी व्यवस्था थोड़ा-सा इजी होना चाहती है। बेटे ने बढ़िया गणित बनाया है। तीन-तिकड़म की भी कोई जरूरत नहीं। हर सवाल का जवाब इनके पास है, बिना लाग लपेट, बिना अटके ...। समझ है, शालीनता है, हौसला है।

नेता जी थोड़ा-सा मुसकराए। विदूषक फिर बोला, आप तो अब अश्वमेध यज्ञ का सामान जुटाएं और इस सूबे को युवराज को सौंप दे। सोनिया जी को बेटे को पीएम बनाने की जल्दी है। चचा फारूक का ही उदाहरण लीजिए। इन्हें कृष्ण का उपदेश सुनाइए। चचा, ताऊ, भाई, भतीजे, राजा-प्रजा आदि-आदि के बारे में जो भी कहा, बताइए और चाहे तो आप भी त्रिगुणरहित हो जाइए। विविधताओं से भरा इतना बड़ा प्रदेश बहुत कुछ सिखाने को तैयार बैठा है। बच्चों के मन से चचाओं का डर निकालिए।

एक दूसरे को ताक रहे चचाओं की भृकुटी तनी देख ऐलान होता है, तख्लिया! विदूषक धीरे से बाहर निकलते हुए बड़बड़ाता है-जेहि विधि राखे राम, सियासत से हम जैसे विदूषकों का भला क्या काम!
दिनेश जुयाल

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