रविवार, 5 फ़रवरी 2012

पांच साल का हिसाब

पांच साल की 'माया'नगरी
 शनिवार, 4 फ़रवरी, 2012 को 18:26 IST तक के समाचार
मायावती ने देश की राजनीति को एक नई दिशा दी
वर्षों पहले नरसिंह राव के इस बयान में न सिर्फ़ महिला सशक्तिकरण की बात थी, बल्कि दलित वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने को लेकर चल रहे बदलाव की ओर भी इशारा था.
एक दलित परिवार में पैदा हुईं मायावती का राजनीतिक सफ़र उतार चढ़ाव भरा रहा है. एक समय दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाली मायावती देश के सबसे बड़े राज्य की सबसे युवा महिला मुख्यमंत्री बनीं.
मायावती की जीवनी लिखने वाले अजय बोस बताते हैं कि वर्ष 1977 में कांशीराम मायावती से मिलने पहुँचे, उस समय मायावती सिविल सेवा की तैयारी कर रही थी.
उन्होंने मायावती से कहा था- मैं एक दिन तुम्हे इतना बड़ा नेता बना दूँगा कि एक आईएएस अधिकारी नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में आईएएस अधिकारी तुम्हारे आदेश के लिए खड़े रहेंगे.
और ये बात सच भी हुई जब 1995 में 39 साल की उम्र में मायावती ने देश के सबसे बड़े राज्य की सबसे युवा मुख्यमंत्री बनीं.

वापसी के लिए संघर्ष

दलितों की मसीहा और प्रभावशाली नेता के रूप में उभरीं मायावती आज अपने राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए संघर्ष कर रही हैं.
पिछले पाँच वर्षों के दौरान उन पर आरोपों की झड़ी लगी और भ्रष्टाचार के आरोपों में उन्हें 21 मंत्रियों को हटाना पड़ा. पार्कों में अपनी मूर्तियाँ लगवाने को लेकर सवाल उठे, तो सरकारी धन के दुरुपयोग पर भी विपक्ष ने उनको घेरा.
लेकिन इन सब आरोपों के बीच उत्तर प्रदेश चुनाव में मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी को ख़ारिज करना इतना आसान नहीं. दलितों के बीच पार्टी की ज़बरदस्त पैठ है और इन पाँच वर्षों में गिनाने के लिए कई उपलब्धियाँ भी.
लेकिन, क्या इन पाँच वर्षों में एक राजनेता के रूप में मायावती परिपक्व हुई हैं.
"मायावती परिपक्व ज़रूर हुई हैं, लेकिन उन्होंने अपने वोटरों और क़रीबी लोगों से दूरी बना ली है. हालांकि ये दूरी नौकरशाही ने बनाई हुई है."
उदय सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार उदय सिन्हा कहते हैं, "मायावती परिपक्व ज़रूर हुई हैं, लेकिन उन्होंने अपने वोटरों और क़रीबी लोगों से दूरी बना ली है. हालांकि ये दूरी नौकरशाही ने बनाई हुई है."
शायद मायावती को इस दूरी का सबसे बड़ी ख़ामियाज़ा वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा था. मायावती को इस चुनाव में तगड़ा झटका लगा था.
मायावती की जीवनी लिखने वाले पत्रकार अजय बोस का मानना है कि मायावती ने 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद अपने वोटरों को जोड़ने की भरपूर कोशिश की और काफ़ी हद तक सफल रहीं.
अजय बोस कहते हैं, "मायावती ने एक बड़ा काम ज़रूर किया, जो दलित वोट उनसे बिछड़ने वाला था, उन्होंने उसे वापस जोड़ा. इसलिए इस चुनाव में भी मायावती की अनदेखी नहीं की जा सकती है. सर्वजन समाज को लेकर चलने के मुद्दे पर भी उनका संतुलन क़ायम है."
"मायावती ने एक बड़ा काम ज़रूर किया, जो दलित वोट उनसे बिछड़ने वाला था, उन्होंने उसे वापस जोड़ा. इसलिए इस चुनाव में भी मायावती की अनदेखी नहीं की जा सकती है."
अजय बोस, मायावती के जीवनीकार
अजय बोस की बात से पत्रकार उदय सिन्हा सहमत नहीं हैं. उदय सिन्हा का कहना है कि मायावती ने वोटरों से दूरी के मुद्दे पर कुछ ख़ास नहीं किया और सर्वजन समाज के लोगों का भी कोई ख़ास कल्याण नहीं हुआ.
उदय सिन्हा ने कहा, "मायावती ने अपने आप को लोगों से काट दिया. वो पहले फ़ीडबैक लेती थी, उससे भी वे अलग हो गईं. ये राजनीतिक दृष्टि से उनका बहुत ख़राब फ़ैसला रहा है और इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ा. उन्होंने सर्वजन समाज की एक जाति को छोड़कर बाक़ियों का कुछ ख़ास ख़्याल नहीं रखा."

उपलब्धियां

लेकिन मायावती ने क्या इन पाँच वर्षों में कुछ किया ही नहीं. अंबेडकर ग्राम में अभूतपूर्व विकास को बहुजन समाज पार्टी बड़ी उपलब्धि मान रही है. और तो और पार्कों के निर्माण को भी कहीं न कहीं दलित अपने सम्मान से जोड़कर देखता है.
अजय बोस कहते हैं, "पार्क और मूर्तियाँ मायावती का पागलपन नहीं, इसके पीछे उनकी एक राजनीतिक सोच है और दलित इसे अच्छा काम मानता है."
जानकारों की मानें, तो लब्बोलुआब ये है कि मायावती ने अपने मौजूदा कार्यकाल की शुरुआत से ही उन लोगों से किनारा करना शुरू कर दिया, जो उनके क़रीबी रहे थे और जो उनके समर्पित मतदाता थे.
लेकिन बाद में ही सही मायावती को ये सच समझ में आ गया और दलितों के पास भी मायावती के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं. सवाल ये भी है कि मायावती पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद क्या उनका दलित वोटबैंक खिसकेगा.
उदय सिन्हा इसे पूरी तरह ख़ारिज करते हैं. कहते हैं, "ड्राइंग रूप में चलने वाले विचार-विमर्श में तो इसका असर पड़ सकता है, लेकिन मतदान केंद्रों पर इसका असर नहीं पड़ेगा. उत्तर प्रदेश में मायावती के समर्पित वोटर 11 प्रतिशत हैं. ये 11 प्रतिशत वोट मायावती के अलावा कहीं और नहीं जाएगा. मायावती के समर्पित वोटरों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है."
"राजनीति करने वाले राजनीति तो करेगा ही. वैश्य वोटबैंक भाजपा का है, जाट वोटबैंक अजित सिंह का है, दलित वोटबैंक मूल रूप से मायावती का है, तो पिछड़ा वर्ग और यादव मुलायम सिंह का वोटबैंक है"
उदितराज, दलित नेता
जब मैंने यही सवाल उदित राज के सामने रखा, तो उन्होंने कहा कि वोट बैंक के रूप में तो सभी इस्तेमाल होते हैं. दलितों के मायावती से जुड़े रहने के बारे में वे कहते हैं कि दलितों के पास विकल्प नहीं है. मायावती ने उनके लिए अगर कुछ ख़ास नहीं किया, तो अन्य लोगों ने क्या कर दिया....
उदित राज कहते हैं, "वोट बैंक तो सभी है. इस शब्द का इस्तेमाल मुझे समझ नहीं आता है. राजनीति करने वाले राजनीति तो करेगा ही. वैश्य वोटबैंक भाजपा का है, जाट वोटबैंक अजित सिंह का है, दलित वोटबैंक मूल रूप से मायावती का है, तो पिछड़ा वर्ग और यादव मुलायम सिंह का वोटबैंक है."
अपने पाँच साल के कार्यकाल में मायावती ने भले ही कई ग़लतियाँ की हों, लेकिन एक परिपक्व राजनेता के तौर पर उन्होंने कम से कम अपने समर्पित मतदाताओं को फिर से अपने ख़ेमे में वापस लेने की कोशिश की है.
लेकिन जब तक उत्तर प्रदेश का मतदाता एक बेहतर प्रशासक के रूप में मायावती को सबसे बेहतर विकल्प नहीं मानेगा, मायावती को मुश्किल पेश आ सकती है. लेकिन ये कहना कि मायावती सत्ता के संघर्ष में काफ़ी पिछड़ गई है, फ़िलहाल उचित नहीं होगा

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