रविवार, 15 मई 2011

बिहार पर रणवीर सेना की सामाजिक शक्तियों का कब्‍जा है.................


सत्ता का सामंजस्य 
(प्रेम कुमार मणि  जी को मैं सुना था पढ़ा आज हूँ, इन्होने श्री नितीश जी के 'सोच विन्यास में दलित और पिछड़ों की जगह का खुलासा किया है. जो सार आपके लेख में (नितीश के नाम पत्र) में है कमोबेश सभी दलित और पिछड़े शासकों में है. उत्तर प्रदेश हो गुजरात हो बिहार हो राजस्थान हो या देश का कोई राज्य जहाँ ये पिछड़ी जाति के लोग शासन कर रहे हों लगभग एसा ही है, शायद हम इनकी मज़बूरियों से नावाकिफ हैं ये जान गए हैं कि ये पिछड़ों दलितों के दम पर राज्य नहीं कर सकते  - डॉ.लाल रत्नाकर )
(सौजन्य - मोहल्ला लाइव से-)
हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और जदयू से बिहार विधान परिषद के सदस्य प्रेमकुमार मणि के पटना स्थित आवास पर 5 मई, 2011 की सुबह तीन बजे जानलेवा हमला किया गया। सत्ता द्वारा पोषित गुंडे प्रेमकुमार मणि के घर में खिड़की उखाड़ कर घुस गये। संयोग से मणि उस सुबह उस कमरे में नहीं सोये थे, जिसमें रोजाना सोते थे। गौरतलब है कि प्रेमकुमार मणि ने पिछले दिनों सवर्ण आयोग के मुद्दे पर नीतीश कुमार का विरोध किया था। मणि कई बार सार्वजनिक मंचों से अपनी हत्या की आशंका जता चुके हैं। मजदूर दिवस पर 1 मई को जेएनयू (माही), नयी दिल्ली में आयोजित जनसभा में भी उन्होंने कहा था कि उनके विचारों के कारण उनकी हत्या की जा सकती है लेकिन वे झुकेंगे नहीं। ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम और यूनाइटेड दलित स्टूडेंट्स फोरम दलित-पिछड़ों के प्रमुख चिंतक प्रेमकुमार मणि पर हमले की निंदा करता है। हम यहां मणि द्वारा 25 अप्रैल, 2009 को बिहार के मुख्यमंत्री को लिखा गया पत्र जारी कर रहे हैं। यह पत्र अब तक अप्रकाशित है : 
प्रमोद रंजन

सेवा में,

श्री नीतीश कुमार

माननीय मुख्यमंत्री, बिहार

पटना, 25 अप्रैल, 2009
आदरणीय भाई,

हुत दु:ख के साथ और तकरीबन तीन महीने की ऊहापोह के बाद यह पत्र लिख रहा हूं। जब आदमी सत्ता में होता है, तब उसका चाल-चरित्र सब बदल जाता है। आपके व्यवहार से मुझे कोई हैरानी नहीं हुई।

यह पत्र कोई व्यक्तिगत आकांक्षा से प्रेरित हो, यह बात नहीं। मैं बस आपको याद दिलाना चाहता हूं कि जब आप मुख्यमंत्री हुए थे और पहली दफा सचिवालय वाले आपके दफ्तर में बैठा था, और केवल हम दोनों थे, तब मैंने आत्मीयता से कहा था कि आप सबॉल्टर्न नेहरू बनने की कोशिश करें। मेरी दूसरी बात थी कि बिहार को प्रयोगशाला बनाना है और राष्‍ट्रीय राजनीति पर नजर रखनी है।
आज जब देखता हूं, तब उदास होकर रह जाता हूं। ऐसे वक्त में जब चारों ओर आपकी वाहवाही हो रही है और विकास-पुरुष का विरुद्ध अपने गले में डाल कर आप चहक रहे हैं – मेरे आलोचनात्मक स्वर आपको परेशान कर सकते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि बिहार की राजनीति को आपने सवर्णों-सामंतों की गोद में डाल दिया है।
दरअसल बिहार में रणवीर सेना-भूमि सेना की सामाजिक शक्तियां राज कर रही हैं। इनके हवाले ही बिहार में इनफ्रास्‍ट्रक्चर का विकास है। एक प्रच्छन्न तानाशाही और गुंडाराज अशराफ अफसरों के नेतृत्व में चल रहा है और आप उसके मुखिया बने हैं।
कभी आप कर्पूरी ठाकुर की परंपरा की बात करते थे। आज आत्मसमीक्षा करके देखिए कि आप किस परंपरा में हैं। बिहार के गैर-कांग्रेसी राजनीति में दो परंपराएं हैं। एक परंपरा कर्पूरी जी की है, दूसरी भोला पासवान और रामसुंदरदास की। व्याख्या की जरूरत मैं नहीं समझता। आपने रामसुंदर दास की परंपरा अपनायी, कर्पूरी परंपरा को लात मार दी। ऊंची जातियों को आपका यही रूप प्रिय लगता है। वे आपके कसीदे गढ़ रहे हैं। मेरे जैसे लोग अभी इंतजार कर रहे हैं, आपको दुरुस्त होने का अवसर देना चाहते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से में फिलहाल आपका कुछ चल जा रहा है। इन तबकों के लोग जब हकीकत जानेंगे, तब आप कहां होंगे, आप सोचें।
तीन साल की राजनीतिक उपलब्धि आपकी क्या रही? गांधी ने नेहरू जैसा काबिल उत्तराधिकारी चुना। कर्पूरी जी ने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार खिले। लेकिन आपने जो राजनीतिक जमीन तैयार की, उसमें कौन खिला? और आप कहते हैं कि बिहार विकास के रास्ते पर जा रहा है। हमने जर्मनी का इतिहास पढ़ा है। हिटलर ने भी विकास किया था। जैसे आपको बिहार की अस्मिता की चिंता है, वैसे ही हिटलर को भी जर्मनी के अस्मिता की चिंता थी। लेकिन हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी आखिर कहां गया?
इसलिए मेरे जैसे लोग आपकी सड़कों को देखकर अभिभूत नहीं होते। इसकी ठीकेदारी किनके पास है? इसमें कितने पिछड़े-अतिपिछड़े, दलित-महादलित लगे हैं। आप बताएंगे? लेकिन आप बिहार के विकास में लगी राशि का ब्योरा दीजिए। मैं दो मिनट में बता दूंगा कि इसकी कितनी राशि रणवीर सेना-भूमि सेना के पेट में गयी है। तो आप जान लीजिए, आप कहां पहुंच गये हैं? किस जमीन पर खड़े हैं?
आपके निर्माण में मेरी भी थोड़ी भूमिका रही है। जैसे कुम्हार मूर्ति गढ़ता है, ठीक उसी तरह हमारे जैसे लोगों ने आपको गढ़ा है। नया बिहार नीतीश कुमार का नारा था। हर किसी ने कुछ न कुछ अर्घ्‍य दिया था। हृदय पर हाथ रख कर कहिए अति पिछड़ों, महादलितों और अकलियतों के कार्यक्रमों को किसने डिजाइन किया था? मैंने इन सवालों की ओर आपका ध्यान खींचा और आपका शुक्रिया कि आपने इन्हें राजनीतिक आस्था का हिस्सा बनाया।
लेकिन दु:खद है ऊंची जातियों के दबाव में इन कार्यक्रमों का बधियाकरण कर दिया गया। सरकारी दुष्‍प्रचार से इन तबकों में थोड़ा उत्साह जरूर है लेकिन जब ये हकीकत जानते हैं, तो उदास हो जाते हैं। क्या आप केवल एक सवाल का जवाब दे सकते हैं कि किन परिस्थितियों में एकलव्य पुरस्कार को बदलकर दीनदयाल उपाध्याय पुरस्कार कर दिया गया? दीनदयाल जी का खेलों से भला क्या वास्ता था?
मनुष्‍य रोटी और इज्जत की लड़ाई साथ-साथ लड़ते हैं। रोटी और इज्जत में चुनना होता है, तो मनुष्‍य इज्जत का चुनाव करते हैं। रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, इज्जत के लिए खून। और आपने दलितों-पिछड़ों की इज्जत, उनकी पहचान को ही खाक में मिला दिया।
आज आपकी सरकार को किसकी सरकार कहा जाता है? आप ही बताइए न! सामंतों के दबाव में आकर भूमि सुधार आयोग और समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग की सिफारिशों को आपने गतालखाने में डाल दिया जिसे, डी मुखोपाध्याय और मुचकुंद दुबे ने बहुत मिहनत से तैयार किया था और जिसके लागू होने से गरीबों-भूमिहीनों की किस्मत बदलने वाली थी। आपने यह नहीं होने दिया।
तो आदरणीय भाई नीतीश जी, बहुत प्यार से, बहुत आदर से आपसे गुजारिश है कि आप बदलिए। अपने चारों ओर ऊंची जाति के लंपट नेताओं और स्वार्थी मीडियाकर्मियों का आपने जो वलय बना रखा है उसमें आप जितने खूबसूरत दिखें, पिछड़े-दलितों के लिए खलनायक बन गये हैं।
कर्पूरी जी मुख्यमंत्री से हटाये गये, तो जननायक बने थे। समाजवादी नेता से उनका रूपांतरण पिछड़ावादी नेता में हुआ था। लेकिन आपका रूपांतरण कैसे नेता में हुआ है? आप नरेंद्र मोदी की तरह ‘लोकप्रिय` और रामसुंदर दास की तरह ‘भद्र` दिख रहे हैं। बहुत संभव है, आप नरेंद्र मोदी की तरह चुनाव जीत जाएं। लेकिन इतिहास में – पिछड़ों के सामाजिक इतिहास में – आप एक खलनायक की तरह ही चस्पां हो गये हैं। चुनाव जीतने से कोई नेता नहीं होता। जगजीवन राम और बाबा साहेब आंबेडकर के उदाहरण सामने हैं। आंबेडकर एक भी चुनाव जीते नहीं और जगजीवन राम एक भी चुनाव हारे नहीं। लेकिन इतिहास आंबेडकरों ने बनाया है, जगजीवन रामों ने नहीं।
और अब आपके सुशासन पर; सवर्ण समाज रामराज की बहुत चर्चा करता है…
दैहिक दैविक भौतिक तापा

राम राज कहुहि नहीं व्यापा

तुलसीदास ने ऐसा कहकर उसे रेखांकित किया है। लेकिन राम राज अपने मूल में कितना प्रतिगामी था, आप भी जानते होंगे। वहां शंबूकों की हत्या होती थी और सीता को घर से निकाला दिया जाता था। आपके राम राज का चारण कौन है, आप जानें-विचारें। मैं तो बस दलितों-पिछड़ों और सीताओं के नजरिये से इसे देखना चाहूंगा। मैं बार-बार कहता रहा हूं, हर राम राज (आधुनिक युग के सुशासन) में दलितों-पिछड़ों के लिए दो विकल्प होते हैं। एक यह कि चुप रहो, पूंछ डुलाओ, चरणों में बैठो – हनुमान की तरह। चौराहे पर मूर्ति और लड्डू का इंतजाम पुख्ता रहेगा।
दूसरा है शंबूक का विकल्प। यदि जो अपने सम्मान और समानाधिकार की बात की तो सिर कलम कर दिया जाएगा। मूर्तियों और लड्डुओं का विकल्प मैं ठुकराता हूं। मैं शंबूक बनना पसंद करूंगा। मुझे अपना सिर कलम करवाने का शौक है।
आपकी पुलिस या आपके गुंडे मुझे गोली मार दें। मैं इंकलाब बोलने के लिए अभिशप्त हूं।
आपका,

प्रेमकुमार मणि

2, सूर्य विहार, आशियाना नगर, पटना


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Rajeev Ranjan said:
नीतीश कुमार की कारस्तानियों के बारे में जबरदस्त रिपोर्ट २००८ में छपी थी. यहाँ कापी पेस्ट कर रहा हूँ. इसे पढ़िए तब बात करेंगे. rejeev
प्रतिक्रांति के तीन साल
- विनोद कुंतल
अगर आपके विरोधी आपकी तारीफ करते हैं तो समझिए कि आप गलत रास्ते पर हैं-लेनिन
चारों ओर से वाह, वाह का शोर है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाहवाही के समंदर में उब-डूब कर रहे हैं. कोई विकास पुरुष कह रहा है, कोई सर्वश्रेष्‍ठ मुख्यमंत्री तो कोई भावी प्रधानमंत्री. इन प्रशंसकों ने उनके आसपास भव्य और गुरुगंभीर महौल सृजित करने की भी भरपूर कोशिश की है. कोसी की बाढ़ ने रंग में भंग जरूर डाला है लेकिन राग मल्हार अब भी जारी है.
कौन हैं ये प्रशंसक? क्या ये समाजवाद के समर्थक हैं? सामाजिक न्याय के हिमायती हैं? अगर नहीं, तो ये समाजवादी नेता नीतीश कुमार की प्रशंसा में कसीदे क्यों काढ़ रहे हैं? जाहिर है, नीतीश के आसपास आरक्षण विरोधियों का जमावड़ा अनायास तो नहीं ही है.
इसे समझने के लिए राजग के वोट समीकरण व नीतीशकुमार की मानसिक बुनावट को समझना होगा. राजग ‘नया बिहार-नीतीश कुमार’ के नारे के साथ सत्ता में आया है. अगर नीतीश कुमार का नाम न होता तो राजग को अति पिछड़ी जातियों, पसमांदा मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलता. मार्च, २००५ में हुए विधान सभा चुनाव में भी माना जा रहा था कि राजग सत्ता में आया तो नीतीश मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन गठबंधन के स्तर पर इसकी साफ तौर पर घोषणा नहीं की गयी थी. उस चुनाव में अपेक्षा से कम वोट मिलने के बाद राजग (भाजपा) को महसूस हुआ कि किसी पिछड़े नेता के नाम के बिना उसकी नैया पार नहीं हो सकती. इसलिए राष्‍ट्रपि‍त शासन के बाद फिर चुनाव हुआ तो भाजपा ने नीतीश को बतौर मुख्यमंत्री घोषित करते हुए- ‘नया बिहार-नीतीश कुमार’ का स्लोगन बनाया. इस स्लोगन के अपेक्षित परिणाम आये. नीतीश कुमार को फेन्स पर खड़े पिछड़े तबके ने दिल खोलकर वोट दिया. दरअसल, वे लालू को किसी अपर कास्ट नेता से पदच्यूत कराना नहीं चाहते थे. इस तरह नीतीश कुमार ने बाजी जीती. लेकिन नीतीश कुमार को हमेशा यही विश्‍वास रहा कि उनकी जीत उंची जातियों के सहयोग के कारण हुई है. पिछड़ी जातियों के सहयोग को उन्होंने नजरअंदाज किया.
दरअसल नीतीश को दो तरह के वोट मिले थे. एक तो सामंतों का वोट था दूसरा पिछड़ों का. सामंतों का वोट बहुप्रचारित ‘पिछड़ा राज’ हटाने के लिए था. पिछड़ों का वोट विकास के लिए था.लेकिन सत्ता में आने के साथ ही सामंती ताकतों ने उन्हें अपने घेरे में लेना शुरू कर दिया. सत्ता के शुरूआती दिनों में नीतीश ने इसका प्रतिरोध किया लेकिन पांच-छह महीने में ही वह इन्हीं ताकतों की गोद में जा बैठे. उनके इस आत्मसमर्पण के साथ ही बिहार में के प्रतिक्रांति दौर की शुरूआत हो गयी. लंबे संघर्ष से बिहार के पिछड़े तबकों को जो आत्मसम्मान हासिल हुआ था, उसे अचानक ध्वस्त किया जाने लगा. पंचायत से लेकर विधानमंडल तक के जनप्रतिनिधियों पर द्विज नौकरशाही का शिकंजा कस दिया गया. रणवीर सेना जैसे संगठन का तो जैसे राज्य-सत्ता में विलय ही हो गया. दूसरी ओर माओवाद को खत्म करने के नाम बड़े पैमाने पर पिछड़े तबके के युवकों को मरवाया गया तथा नक्सल संगठनों के लगभग सभी नेताओं को चौतरफा घेराबंदी कर जेलों में ठूंस दिया गया है. इन संगठनों से वैचारिक असहमति रखने के बावजूद, शायद ही कोई इससे असहमत होगा कि दूर-दराज के गांवों में शक्ति-संतुलन कायम रखने में इन्होंने बड़ी भूमिका निभायी है. इनकी गैरमौजूदगी ने कई ईलाकों में सामंती ताकतों का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है. रही-सही कसर द्विज नौकरशाही पूरी कर रही है. गांव-गांव में ‘बाभन राज’ वापस आ जाने की घोषणाएं की जा रही हैं. पिछड़े-दलित तबकों के सामने अपमान और विश्‍वासघात के इन घूंटों को पीने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है.
शुरू के पांच-छह महीने में नीतीश सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पर अमल करते हुए सामाजिक न्याय की अवधारणा को मजबूत करने वाले अनेक फैसले किये थे. इनमें अत्यंत पिछड़ों के लिए पंचायत चुनाव में २० फीसदी तथा महिलाओं के लिए ५० फीसदी आरक्षण सबसे महत्वपूर्ण था. महिलाओं के लिए ५० फीसदी आरक्षण का फैसला बाद में हुई शिक्षक नियुक्ति में भी बरकरार रखा गया. यह ऐसे फैसले थे जो बिहारी समाज को आतंरिक रूप से बदलने की क्षमता रखते थे. शुरूआती महीनों में सत्ता में पिछड़ी जातियों के नेताओं की सशक्‍त हिस्सेदारी के भी संकेत दिखते रहे. लेकिन जल्दी ही सब कुछ बदलने लगा. पंचायत चुनाव में मिला आरक्षण अत्यंत पिछड़ों के लिए ‘काल’ बन गया. इस आरक्षण के कारण जो द्विज तथा गैर द्विज दबंग जातियां पंचायत चुनाव न लड़ सकीं थीं उन्होंने नौकरशाही के साथ गठबंधन कर, चुनाव जीत कर आए पंचायत प्रतिनिधियों को घेरना शुरू किया. अतिपिछड़ी जातियों के सैकड़ों मुखिया व अन्य पंचायत प्रतिनिधियों पर विभिन्न आरोपों में मुकदमे दर्ज किये गये. इनमें कइयों को गैर जमानतीय धाराओं में जेलों में डाला गया.
इन सबके साथ-साथ जनता दल (यू) के शीर्ष पर भी यह परिवर्तन साफ दिखने लगा. सामंत-द्विज तबके के लोग पार्टी तथा राज्य सरकार में हावी होने लगे. चुनाव के दरम्यान विजेंद्र प्रसाद यादव पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे. उपेंद्र कुशवाहा की बड़ी हैसियत थी. विजेंद्र-उपेंद्र की जोड़ी का जिक्र खुद नीतीश कुमार शान से करते थे. प्रेमकुमार मणि जैसे चिंतक-लेखक तब नीतीश कुमार के खासम-खास थे, जिनसे हर बात में सलाह ली जाती थी. लेकिन राज पाट आते ही प्राथमिकताएं बदल गयीं. पिछड़े वर्गों से आने वाले नेता धकिया दिये गये. ‘विजेंद्र-उपेंद्र की जोड़ी की जगह ‘ललन-प्रभुनाथ’ की जोड़ी हावी हो गयी. प्रेमकुमार मणि की जगह शिवानंद तिवारी लाये गये. नीतीश कुमार ने प्रयास करके पिछड़ा राज वाली छवि को खत्म किया. सामंती ताकतों को विश्‍वास में लेने के लिए शीर्षासन करने से भी नहीं चूके. जिन श्‍ाक्तियों ने बिहार में सामाजिक न्याय का आंदोलन पुख्ता किया था, उन सबको नीतीश कुमार ने एक-एक कर अपमानित किया. कोशशि की गयी कि अतिपिछड़ों और मुसलमानों को रणवीर सेना-भूमि सेना का पिछलग्गू बनाया जाए. अतिपिछड़ों की राजनीतिक शक्ति को सामाजिक परिवर्तन के बजाए द्विजवाद के विस्तार में लगाया गया. भागलपुर में एक अशराफ मुसलमान और विमगंज में एक अशराफ महिला को इसी ताकत पर लोकसभा भेजा गया.
सत्ता में आने के बाद जदयू में पार्टी स्तर पर नीतीश कुमार की तानाशाही भी बढ़ती गयी है. जार्ज फर्नांडिस को हाशिये पर धकेलने के बाद अब उनके निशाने पर शरद यादव हैं. शरद को किनारे करने के लिए भी ‘उपेक्षा’ की वही तकनीक लागू की जा रही है जो जार्ज के लिए की गयी थी. कुल मिलाकर यह कि पिछले तीन सालों में बिहार की सत्ताधारी पार्टी रणवीर सेना-भूमिसेना के साझा संगठन में तब्दील होती गयी है. इसे सत्ता में लाने वाली जातियों को हाशिये पर धकेल दिया गया है.
नीतीश कुमार की जकड़बंदी करने वाली सामंती ताकतें यही चाहती थीं. प्रशंसा की जो दुदुभियां बजायी जा रही हैं, उनका राज भी यही है. इस ‘रास्ते’ पर आगे बढ़ रहे नीतीश को उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे पिछड़े नेताओं का हश्र जरूर याद रखना चाहिए.



Increase fees 5-fold, make IITs independent, says govt panel

Increase fees 5-fold, make IITs independent, says govt panel


A panel of experts appointed by the government has recommended that the Indian Institutes of Technology (IITs) be allowed to raise fees five-fold, so they are not dependent on state funds and, therefore, have greater autonomy.
“IITs (should) be made independent of non-plan (operational) support from the government for their operational expenditure while at the same time seeking greater plan (capital) support to enhance research in a comprehensive manner,” the committee, headed by nuclear scientist Anil Kakodkar, said in its 278-page report to the HRD ministry.
Tuition fees should be raised from the current Rs 50,000 per year to about Rs 2 lakh-2.5 lakh annually, so the full operational cost of education — roughly 30 per cent of the total — is covered, the committee has said.
“This would be reasonable considering the high demand for IIT graduates and the salary that an IIT B.Tech is expected to get,” says the report. A “hassle-free bank loan scheme” without collateral should be devised for IIT students.

The ministry should pay fully for fees and living expenses of both undergraduate and research (PG) students from society’s weaker sections, says the report. Every student whose parents’s annual income is less than Rs 4.5 lakh should be offered a scholarship to cover fees, plus a monthly stipend. The parental income limit should be revised periodically.
“Most US universities charge overheads to the tune of 50 per cent¿” the panel has argued, adding that industrial consultancy and royalty, alumni and industrial grants/donations and continuing education programmes, including executive M.Tech programmes, could boost IITs’ finances.
... contd.

किसान नेता टिकैत का निधन

बी.बी. सी. से साभार -


फाइल फोटो
पिछले दिनो नोएडा के पास के गांवो में किसान आंदोलन को भी टिकैत ने समर्थन दिया था.
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत का रविवार सुबह मुज़फ्फरनगर में निधन हो गया.
वो 76 वर्ष के थे और पिछले कई महीनों से आंत के कैंसर से पीड़ित थे.
टिकैत के परिवार वालों ने बीबीसी को बताया कि उनका अंतिम संस्कार सोमवार सुबह 11 बजे उनके पैतृक गांव सिसौली में होगा.
टिकैत अपने पीछे चार बेटे और दो बेटियां छोड़ गए हैं. उनके पुत्र राकेश टिकैत उनके साथ किसान यूनियन का काम देखा करते थे.

अभियान

टिकैत पिछले क़रीब 25 सालों से किसानों की समस्याओं के लिए संघर्षरत थे और विशेष कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट किसानों में उनकी साख थी.
टिकैत ने दिसंबर 1986 में ट्यूबवेल की बिजली दरों को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ मुज़फ्फरनगर के शामली से एक बड़ा आंदोलन शुरु किया था.
इसी आंदोलन के दौरान एक मार्च 1987 को किसानों के एक विशाल प्रदर्शन के दौरान पुलिस गोलीबारी में दो किसान और पीएसी का एक जवान मारा गया था.
इस घटना के बाद टिकैत राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने टिकैत की ताकत को पहचाना और खुद सिसौली गांव जाकर किसानों की पंचायत को संबोधित किया और राहत दी.
इसके बाद से ही टिकैत पूरे देश में घूम घूमकर किसानों के लिए काम किया. उन्होंने अपने आंदोलन को राजनीति से बिल्कुल अलग रखा और कई बार राजधानी दिल्ली में आकर भी धरने प्रदर्शन किए.

अमर उजाला से साभार-


किसानों का सच्चा हमदर्द दुनिया से विदा
मुजफ्फरनगर।
Story Update : Monday, May 16, 2011    1:38 AM
मृत्यु शैया पर भी युद्ध सी ललकार वाली आवाज खामोश हो गई है। सिसौली सूनी हो गई। किसानों का सच्चा हमदर्द दुनिया से विदा हो गया। भाकियू मुखिया और बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत नहीं रहे। जानलेवा बीमारी कैंसर से लड़ते हुए रविवार तड़के उन्होंने अंतिम सांस ली।

लंबी बीमारी के बाद मुजफ्फरनगर में निधन
देश के शीर्ष किसान नेता एवं भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का 76 वर्ष की आयु में रविवार को लंबी बीमारी के बाद मुजफ्फरनगर में निधन हो गया। वह हड्डी के कैंसर से पीड़ित थे। अपने महानायक के निधन से किसान स्तब्ध हैं। बाबा टिकैत इससे पहले भी दो बार गंभीर रूप से बीमार पड़े पर अपनी हठ से हर बात मनवाने वाले टिकैत ने बीमारी को दोनों दफा हरा दिया। लेकिन अबकी किसान नेता ने लगता है हामी भर दी।

किसान भवन में होगा अंतिम संस्कार
भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता और उनके पुत्र राकेश टिकैत ने बताया कि स्व टिकैत की अंत्येष्टि सोमवार को उनके पैतृक गांव सिसौली में किसान भवन में शाम चार बजे होगी। उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए किसानों, राजनीतिज्ञों और किसान संगठनों के पदाधिकारियों का तांता लगा है। उनके निधन का समाचार फैलते ही शोक की लहर दौड़ गई और लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ने लगे।

दो साल से बोन कैंसर से जूझ रहे थे
पिछले 25 सालों से देश में किसान संघर्ष का प्रतीक बन गए चौधरी टिकैत ने मुजफ्फरनगर में सरकुलर रोड स्थित ऋषभ विहार में अपने आवास पर सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर अंतिम सांस ली। टिकैत दो साल से बोन कैंसर से जूझ रहे थे। शनिवार को तबीयत अधिक खराब हो गई। पौत्र गौरव टिकैत के मुताबिक बाबा ने सुबह उनके साथ बातचीत की तो लगा कि सेहत में सुधार है। लेकिन कुछ पल बाद ही वह अनंत में लीन हो गए। वह बालियान खाप के मुखिया भी थे। अब मुखिया की पगड़ी उनके पुत्र नरेश टिकैत को पहनाई जाएगी।

टिकैत कभी राजनीति के मोह में नहीं पड़े। उनके साहस, लक्ष्य को पूरा करने की लगन और सादगी ने उन्हें ऐसा किसान नेता बना दिया जिनकी कमी आने वाले दिनों में महसूस होगी।
मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री

टिकैट ने जिंदगी भर किसानों के हित के लिए काम किया। इस काम के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा
मायावती

राजनाथ सिंह ने कहा कि टिकैत ने भ्रष्टाचार से दूर रह कर सादगी में अपनी जिंदगी बिता दी। देश ने किसानों का सच्चा साथी खो दिया है।

वह हड्डी के कैंसर से पीड़ित थे
टिकैट बालियान खाप के मुखिया थे। अब मुखिया की पगड़ी उनके पुत्र नरेश टिकैत को पहनाई जाएगी
केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में टिकैत के अंतिम संस्कार में शामिल होंगे.

दैनिक जागरण से साभार-

टिकैत की ताकत के आगे झुकती रही सरकारें

May 16, 01:20 am
लखनऊ [अवनीश त्यागी]। किसानों के नाम पर सियासत चमकाने का काम तो बहुतों ने किया, लेकिन किसानों का स्वाभिमान जगाने का काम भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक महेन्द्र सिंह टिकैत ने ही किया। किसानों को लेकर हरे रंग का झण्डा और लाल टोपी के बल पर उन्होंने ऐसी ताकत बनाई, जिसके आगे दिल्ली और लखनऊ की सरकारों को घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा।
लगभग ढाई दशक में टिकैत किसान आंदोलन के प्रतीक बन गये। जब भी किसानों के हितों पर आंच आयी, वे सरकार से दो-दो हाथ करने में पीछे नहीं हटे। उनकी लोकप्रियता, दृढ़ इच्छाशक्ति और लड़ाकू तेवर का ही कमाल था कि जनवरी 1987 में जब बिजली दरों में प्रति हार्स पावर बीस रुपये की बढ़ोत्तरी की गई, तब उन्होंने भारी संख्या में किसानों को साथ लेकर मुजफ्फरनगर के करमूखेड़ा बिजलीघर को घेर लिए। आठ दिनों तक उनकी घेरेबंदी चलती रही और घेरा तब टूटा जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने फैसला वापस लेने का ऐलान कर दिया। सरकार उनके आगे झुकी और फिर यह सिलसिला कभी थमा नहीं।
ठीक एक साल बाद 1988 में उन्होंने मेरठ कमिश्नरी में कई दिनों तक प्रदर्शन किया। इसके समानांतर मुरादाबाद के रजबपुर में भी 110 दिनों तक किसानों का घेरा उनके अडिग रहने का दस्तावेज बन गया। दो आंदोलनों को एक साथ चलाने की उनकी सियासी सूझबूझ भी उसी दौरान उजागर हुई। उन्होंने अपने इन आंदोलनों के मंचों पर सियासी लोगों को चढ़ने से मना कर दिया और खास बात यह कि पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह सरीखे लोग भी उनके मंच से मायूस होकर लौटे।
उनके अनुयायी विनोद कलंजरी कहते हैं कि 'बाबा के प्रति किसानों के मन में इतना भरोसा था कि उनकी एक आवाज पर लोग सभी काम धंधा छोड़कर धरने में शामिल हो जाते थे। उन्होंने किसानों को नई ताकत दी। ' इस भरोसे की बुनियाद पर ही टिकैत ने दिल्ली में भी अपनी ताकत दिखाई। 25 अक्टूबर 1988 से वोट क्लब पर लाखों की संख्या में सात दिन तक जमे रहे किसानों ने केन्द्र सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया।
भोपा मुजफ्फरनगर के नईमा अपहरण काण्ड से टिकैत के किसान आंदोलन को नई ऊंचाइयां मिलीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी को किसानों को मनाने में नाको चने चबाने पड़े। जून 1990 में टिकैत का आंदोलन लखनऊ की ओर मुड़ा, लेकिन सरकार ने उन्हें फैजाबाद में गिरफ्तार कराकर आंदोलन दबाने की कोशिश की। किसान भड़क गये और प्रदेश में सात दिनों तक किसानों के जेल भरने का सिलसिला चला, तो एक बार फिर सरकार को झुकना पड़ा। जुलाई 1992 में गन्ना मूल्य भुगतान, बिजली कर्ज माफी आदि मांगों को लेकर जब दोबारा उन्होंने लखनऊ कूच किया तो घबराई सरकार ने उन्हें मेरठ में ही गिरफ्तार करा लिया।
विनोद कलंजरी कहते हैं कि 'बाबा हमेशा केन्द्र पर ज्यादा दबाव बनाते थे, क्योंकि नीति तो वहीं बनती है।' तारीख गवाह है कि मार्च 2001 को किसान घाट, जुलाई 2001 को जंतर-मंतर और 2007 में वोट क्लब पर टिकैत के जमावड़े से दिल्ली और लखनऊ दोनों ही सरकारें हिल गयीं। यह उनके दबाव और करिश्माई व्यक्तित्व का नतीजा रहा कि प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह समेत कई बड़े लोग उनको मनाने उनके मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव तक चलकर आये। मौजूदा प्रदेश सरकार से उनका सीधा टकराव भले ही न रहा हो, पर बिजनौर प्रकरण पर टिकैत की घेराबंदी कर पाने में सत्ताधारी नाकामयाब रहे.
हिंदुस्तान से साभार-



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