बुधवार, 27 अप्रैल 2011

पंगत में बैठे तो याद आ गई जात Written by Dalitmat





Wednesday, 27 April 2011 08:58
दलितों को यकीन था कि गांव में यज्ञ होने के बाद यहां सामाजिक समरसता बढ़ेगी. सो उन्होंने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. दलित महिलाओं ने यज्ञ के भंडारे के लिए सब्जी काटने से लेकर आटा गूथने और रोटी बेलने तक में पूरी मदद की. सब खुश थे कि गांव एक होने को है. लेकिन तभी एक दलित भंडारे में खाना परोसने लगा. फिर बवाल हो गया और 35 लोगों की पंगत में से 20 सवर्ण यह कहते हुए थाली छोड़ कर खड़े हो गए कि इससे पुण्य नष्ट हो जाएगा.
घटना उत्तर प्रदेश के महाराजगंज के तहत आने वाले मिठौरा ब्लॉक के खोस्टा गांव की है, जहां 23 अप्रैल को यह घटना घटी. गांव की आबादी 2200 है, जिसमें 1400 दलित हैं. सात साल बाद गांव में शतचंडी यज्ञ का आयोजन किया गया था. परंपरा के मुताबिक नाऊ ने गांव में हर किसी के घर जाकर इसमें शामिल होने का न्यौता दिया. सभी दलितों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. लेकिन पंगत से सवर्णों के उठ खड़े होने से अपमानित दलितों ने आपमान का घूंट पी लिया. इसके बाद किसी भी दलित ने यहां भोजन नहीं किया और कार्यक्रम का बहिष्कार कर सभी यज्ञ स्थल से चले गए. उन्होंने भविष्य में सवर्णों के ऐसे किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं होने का फैसला किया है. दलितों में इस बात को लेकर बेहद गुस्सा है कि शुरू से उन्होंने पूरे यज्ञ में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. मेहनत वाले सारे काम किए, यज्ञ के लिए पैसा और चावल दिया, तब किसी ने कोई छुआछूत नहीं दिखाई लेकिन खाने के समय सवर्णों को अचानक अपनी जात याद आ गई. दूसरी ओर गांव के सवर्णों का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया.
पूरे घटनाक्रम में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि गांव में तकरीबन दो दर्जन दलित राजमिस्त्री का काम करते हैं. जिस मंदिर पर यज्ञ हो रहा था, इसे इन्होंने ही बनाया था. साथ ही आस्था के कारण उन्होंने मंदिर का पूरा निर्माण कार्य मुफ्त में किया. अब वो खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. तो वहीं जिस युवक द्वारा पंगत में खाना परोसने पर 'ढ़कोसलों के रचयिता' लोग पंगत से उठ गए थे, उस युवक का नाम छोटेलाल है और वह मेरठ से बीएड कर रहा है.

पहले गोली मारी, फिर साइकिल पर लादकर गांव भर घुमाया Written by Dalitmat






Wednesday, 27 April 2011 09:19
इसे शायद ‘मैनुफैक्चरर डिफेक्ट’ कहना ज्यादा सही होगा. क्योंकि इस तरह की घटना उस घटियापने को दर्शाता है जो वर्षों से कुछ खास लोगों के खून में घुली हुई है. मुजफ्फरनगर के निरगाजनी गांव में ऐसी ही एक घटना घटी, जिसमें गेंहू काटने से इंकार करने पर एक सवर्ण ने एक दलित की गोली मारकर हत्या कर दी. फिर उसे साइकिल पर रखकर गांव भर में घुमाया. यही नहीं उस हरामी ने पिता की मौत के बाद सदमे में पड़े उसके बेटे को भी जमकर पीटा. मरने वाले का नाम करमचंद है. घटना तब घटी जब करमचंद अपने बेटे के साथ अपने खेतों में सिंचाई कर रहा था. उसी समय दंभी दबंग अपने परिवार के साथ वहां पहुंच गया. आते ही इनलोगों ने बाप-बेटे को पीटना शुरू कर दिया. पूरे परिवार से घिरा करमचंद जान बचाने के लिए पास स्थित मंदिर की छत पर चढ़ गया. हमलावरों ने मंदिर की छत पर ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी. हत्या के बाद शव को गंगनहर में फेंक कर फरार हो गए. गौरतलब है कि कुछ दिन पहले करमचंद ने इनलोगों के खेत में गेहूं काटने से मना कर दिया था, जिसके कारण वह गुस्से में थे.

दलित चेतना और जूतम पैजार

संपादन-डॉ.लाल रत्नाकर 

दलित महिला विरोधी डॉ. धर्मवीर?


अनीता भारती

12 सितम्बर 2005 को राजेन्द्र भवन में धर्मवीर  की पुस्तक ‘प्रेमचंद सामंत का मुंशी’ के लोकार्पण का दलित महिलाओं ने सशक्त विरोध किया। दलित महिलाओं ने धर्मवीर के दलित स्त्री विरोधी लेखन के खिलाफ न केवल नारे लगाए अपितु उन पर चप्पल भी फेंक कर मारी। सवाल उठता है कि आखिर दलित महिलाओं को धर्मवीर के खिलाफ इतने कडे़ विरोध में क्यो उतरना पडा।  हम थोडा अतीत में झांक कर देखें तो 22-23 जलाई 1995 को साउथ एवन्यू के एम.पी हॉल में आयोजित ‘हिन्दी दलित साहित्य सम्मेलन में’ धर्मवीर का ऐसा ही विरोध हुआ था। दलित महिलाओं ने उनके लेखन के खिलाफ नारे लगाते हुए उन्हे मंच से खींच लिया था। तथा उनके लेखन का बहिष्कार करने की पुरज़ोर अपील की थी। तब इन महाश्य ने दलित महिलाओं से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी थी और कसम खाई थी कि वे आईंदा दलित महिला विरोधी लेखन नहीं करेंगे।
सौजन्‍य : blog.insightyv.com

1995 से लेकर 2005: दोनों  बार अपनी सार्वजनिक बेइज्जती भूलकर लगातार निर्लज्जता से दलित/गैर दलित स्त्रियों के खिलाफ अश्लील व आपत्तिजनक सस्ता लेखन कर रहें हैं। ‘कथादेश’ में चली बहस इसकी गवाह है। पिछले सालों  से धर्मवीर का लेखन उत्तरोत्तर दलित/गैर  दलित स्त्री विरोधी होता जा रही है। कोई ताकत उनको अनर्गल लिखने से नहीं रोक पा रही है क्योंकि वे किसी भी तर्क, विचार, सिद्धान्त और दर्शन को मानने को तैयार  नहीं है। धर्मवीर और लेखन मानवतावाद की स्थापना के खिलाफ अमानवीयता के झण्डे गाड़ना चाहता है। वह दबी कुचली दलित/गैर दलित स्त्री की अस्मिता को स्वीकारने को तैयार नहीं है। वे उसको चरित्रहीन सिद्ध करने पर तुले हैं और हद तो इस बात की है कि जो स्त्री उनके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत रखती है उसकी तो वे सरे आम नाक, चोटी काटकर वेश्या घोषित कर पत्थर मारकर हत्या तक कर देने की हिमायत कर रहें है। वे अपनी कपोल कल्पित भौंडी कल्पना के सहारे प्रेमचन्द की ‘कफ़न’ कहानी की नायिका बुधिया का बलात्कार हुआ दिखाकर बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा बताकर उसके भ्रुण परीक्षण की बात कर रहे हैं।
डॉ. धर्मवीर दलित साहित्यकार होते हुए भी वर्ण व्यवस्था को बरकरार रखना चाहते हैं, इसलिए वो अन्तरजातीय विवाह का कट्टर विरोध करते हैं, जो कि अम्बेडकर के
डॉ. धर्मवीर की चिट्ठी अनीता भारती के नाम, सौजन्‍य: अनीता भारती
जाति उन्मूलन दर्शन का एक आधारभूत स्तम्भ है। वे कहते  हैं, ‘दलित नारी के साथ गै़र दलितों द्वारा जो विवाह-बाह्य मैथुन होता है  वह जारकर्म नहीं होता बल्कि बलात्कार और केवल बलात्कार होता है।’ विवाहित स्त्री के अन्य पुरुषों के साथ सम्बन्ध को धर्मवीर जी ‘जारकर्म’ कहते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि दलित स्त्रियाँ केवल अपने समाज के दलित पुरुषों से ही शादी करें, अन्य जाति के पुरूषों के साथ अपनी मर्जी से की गई शादी के बावजूद भी उनका बलात्कार होगा। भला धर्मवार ये कौम सा दर्शन दलित समाज को अम्बेडकरवादी विचारधारा के खिलाफ दे रहें हैं?
डॉ. धर्मवीर वर्णव्यवस्था को मजबूत कर लिंगीय समानता के खिलाफ लिख रहें है। डॉ. धर्मवीर किसी हिन्दू मनुस्मृतिकार की तरह दलित औरतों को पितृसत्तात्मक समाज में उनके सामने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के संरक्षक बन कर उन्हें मात्र घर की चार दीवारी में सिमटा देखना चाहते हैं। इसके अलावा अगर किसी औरत ने उनके इस सांमतवादी लेखन के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उनके खिलाफ फतवा जारी कर देगें। उनके विचार से ‘ऐसी सोच वाली स्त्री अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहती है तो लड़े। रखैल के रूप में अधिकार मांगे, वेश्या के रूप में अपने दाम बढ़वाए और देवदासी के रूप में पुजारी की सम्पति में हाथ मारे ” (प्रेमचन्द सामन्त का मुंशी).  असल बात यह है कि धर्मवीर दलित स्त्री पर सौ फीसदी कब्जा चाहते हैं। अगर वह काबू में आ जाती है तो ठीक है, नहीं तो उन्होंने उसके लिए वेश्या, रखैल, देवदासी आदि सम्बोधन तो रखे हैं ही।
डॉ. धर्मवीर ‘जारसत्ता’ को अपना मौलिक चिन्तन बताकर, उसे स्थापित कर अरस्तू की तरह दार्शनिक बनना चाहते हैं। पहले उनको उनके कुछ सहयोगी लेखकों ( प्रत्यक्ष रुप से श्योराज बैचेन, कैलाश दहिया, दिनेश राम,  अप्रत्यक्ष रुप से वो लेखक जो  चुप्पी मारे बैठे हैं या फिर अपनी पत्रिकाओं में धर्मवीर के लेख ,इन्टरव्यू छाप कर) ने धर्मवीर को  डॉ. अंबेडकर घोषित करने की नाकाम कोशिश की, चेतनशील दलित साहित्यकारों ने जब इनका डॉ अम्बेडकर बनने का सपना पूरा ना होने दिया तो वे अब दार्शनिक बनने चले। जो लोग पहले इन्हें अम्बेडकर घोषित करने की कुचेष्ठा कर रहे थे अब वे ही इन्हें ‘जारसत्ता’  दर्शन का  जनक घोषित करने की पूर्ण कोशिश में लगे हैं। इनके लेखन की तर्ज पर ही इनके दर्शन की शिकार भी ग़रीब-दलित औरतें ही हैं। इनके मतानुसार दलित स्त्रियों को केवल और केवल एक ही काम है और वह है ‘जारकर्म’। डॉ धर्मवीर का कहना है ‘दलित/गैर दलित स्त्रियों के इस ‘जारकर्म’ की हिमायत में भारत का कानून भी लिप्त है. कानून के हिसाब से भारत की हर  पत्नी ‘जारकर्म’  से जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती है। कानून को इस बात से कोई ऐतराज नहीं है कि वह ऐसा करती है। इसलिए हिन्दुस्तान के इस कानून को पढ़कर यदि कोई अंदाज़ा  लगाए कि भारत की नारियों के चरित्र कैसे हैं तो वह क्या ग़लती करता है?’ (‘अस्मितावाद बनाम वर्चस्ववाद’ कथादेशअप्रैल 2003) तात्पर्य यह है कि उनके अनुसार आज भारत की दलित -   गैर दलित  स्त्री के सामने  सामाजिक, आर्थिक से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, अस्मिता के कोई मुद्दे नहीं हैं। अगर स्त्री पर चर्चा होगी तो केवल उसके ‘जारकर्म’ की। इन लेखकों को दलित-गैर दलित महिलाओं के संघर्ष और त्याग से कोई सरोकार नहीं है उसका एक ही उद्देश्य है कि वे कैसे सिद्ध करें कि भारतीय स्त्री चरित्रहीन है। वे स्त्रियों के तन-मन  पर पूरा कब्जा चाहते हैं। धर्मवीर स्त्रियों के संदर्भ में  यौन  शुचिता का प्रश्न उठाकर अपने मनुवादी अहम की पुष्टि कर रहे हैं। वे दलित/गैर दलित स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति मानते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थेरीगाथा की स्त्रियां’ की भूमिका में कहा है “अपनी पुस्तक के शीर्षक के

जनसत्ता में संपादक के नाम अनीता भारती का पत्र. सौजन्‍य: अनीता भारती
पद ‘थेरीगाथा की स्त्रियां मैंने जानबूझ गलत लिखा है, सही पद ‘थेरीगाथा की भिक्षुणियां’ है, लेकिन गलत शीर्षक रखकर मैं बताना चाहता हूं कि बुद्ध ने मेरी स्त्रियां छीनी हैं। घर से बेघर करके और विवाह से छीनकर स्त्रियों को सन्यास वाली सामाजिक मृत्यु की भिक्षुणियों बनाना उसका धार्मिक अपहरण कहा जाना चाहिए।”
डॉ. धर्मवीर दलित/गैर दलित स्त्रियों की वैयक्तिक स्वतन्त्रता और उनके मौलिक अधिकार छीन कर उन्हें अपनी परिभाषा के अनुसार चलाना चाहते हैं। वे बुद्ध का दर्शन जो कि मैत्री, करूणा, समता और संवेदना पर आधारित है उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध करते हुए कहते हैं, “इस देश को बुद्ध की ज़रूरत  नहीं है। दलितों को बुद्ध की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। बुद्ध के लौटने की प्रार्थना करना सहीं नहीं है। वे अपने घर नहीं लौटे थे, तो देश में क्या लौटेंगे?  दलितो में क्या लौटेगें? बुद्ध को लौटना है तो पहले अपने घर लौटे। घर बारी  बने, पत्नी से प्यार करें, बच्चों को स्कूल भेजें और कबीर की तरह भगवान के गुण गाएं।” (धर्मवीर का बीज व्याख्यान) मैं धर्मवीर को बुद्ध विरोधी, अम्बेडकर विरोधी, प्रेमचन्द विरोधी चर्चा में न जाकर केवल दलित स्त्री विरोधी चर्चा में ही रहना चाहूंगी। डॉ. धर्मवीर “जारकर्म” का झण्डा दलित स्त्रियों पर गाड़ कर अपने आप पर गर्व करते हुए  कहते हैं कि   ” लेकिन आप   गर्व से कह सकते हैं कि परिवार से, समाज में, साहित्य में और कानून  में “जारसत्ता की खोज आप के धर्मवीर ने की है। आप अंग्रेजी में कह सकते हैं “IS THE FIIRST DALIT CONTRIBUTION TO THE WHOLE WORLD THINKING”  आगे वह और गर्वीले अंदाज में घोषणा करतें हैं “लोग मेरे इल्हाम से परेशान हैं। मुझे यह दैवी ज्ञान कैसे प्राप्त हो गया कि किस औरत के पेट में किस पुरुष का बच्चा है। लेकिन मैं इल्हाम से नीचे रहकर ही इस बात  को जानता हूं।”
डॉ. धर्मवीर यह मानने लगे हैं कि उनको दैवीय शक्ति प्राप्त हो गई है जिससे वह सभी दलित गैर दलित महिलाओं के भ्रूण परीक्षण कर लेगें। बुद्ध का विरोध करने वाले दलित
सौजन्‍य: गुगल
लेखक  ने आखिर ब्राह्मणवादी गढ्ढे में गिरकर अपना नैतिक पतन कर ही लिया। धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन के हजारों उदाहरण दिए जा  सकते   हैं। अब सवाल है कि धर्मवीर प्रेमचंद के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पडे हैं? उन्हे प्रेमचंद से क्या दुश्मनी है?
धर्मवीर जी को प्रेमचन्द इसलिए अप्रिय हैं क्योंकि प्रेमचन्द दलित स्त्री पात्रों को अधिक मानवीय, सहनशील, संघर्षमयी दिखाते हैं और दलित स्त्री लेखन भी प्रेमचन्द को नकारता नहीं है। वह उनकी खूबियों और कमियों को एक साथ स्वीकरता है। पिछले दस सालों से लगातार दलित महिलाएं शालीनता से लिख-लिखकर डॉ.धर्मवीर जी से अपनी बहस चला रही हैं। परन्तु डॉ. धर्मवीर उस शालीनता को ताक पर रखकर उनको निरन्तर चरित्रहीन, निठ्ठली, निकम्मी, आवारा, कामचोर, पेटपूजक और ना जाने किन-किन सम्बोधनों से नवाज़तें जा रहे हैं और उनके विरोध में ना तो दलित लेखक और ना ही दलित पत्रिकाएं कुछ कह रही हैं। तब दलित महिलाएं क्या करें? कहां जाएं?  चप्पल फेंक कर विरोध करना दलित महिलाओं के मन में जमा उनका अपने खिलाफ लिखा गया दलित साहित्य के प्रति उनका दुख है। दलित समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के साथ-साथ उनका चरित्रहनन  करने पर भी क्या दलित महिलाएं चुप बैठकर लिखती रहें? बिच्छू कितनी  बार काटेगा? आखिर आप कभी तो उसे अपने हाथ से हटायेगें?  कुछ दलित साहित्यकारों का मानना है कि विरोध करने से दलित आन्दोलन टूटेगा या फिर वे यह मानते हैं कि घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए थी। पर जब घर में ही समस्या हो तो समस्या का निदान कैसे  होगा?   दलित साहित्यकारों से खुला प्रश्न है जिस आन्दोलन में पचास प्रतिशत समाज की हिस्सेदारी को नगण्य घोषित किया जा रहा है उसको जानबूझ कर उपेक्षित किया जा रहा है क्या वैसा आन्दोलन वास्तव में दलित आन्दोलन हो सकता है? क्या दलित आन्दोलन के आधार स्तम्भ समता, समानता, बंधुत्व नहीं होने चाहिएं? क्या उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘जारसत्ता’ से उत्पन्न चरित्रहनन की बात होगी? क्या दलित साहित्य दलित समाज की अन्य समस्याओं को छुऐगा भी नहीं? दलित महिलाओं के बारे में सोचते समय उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर केवल उनकी यौनिक्ता  के मुद्दे  ही क्यों चर्चा में लाए जाते हैं? दलित महिलाओं के संघर्ष का आज के दलित आन्दोलन में क्या स्थान है?  क्या दलित साहित्यकार अम्बेडकर,  बुद्ध, फूले का  बेबुनियादी विरोध करके भी दलित साहित्यकार कहलाने लायक है? ये साहित्यकार मानवता का दामन छोड़कर अमानवीय होकर दलित चेतना की वकालत आखिर कब तक करेगें? बहस खुली है। दलित स्त्रियां जवाब चाहती हैं। उन्हें अपनी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान की रक्षा के लिए जवाब चाहिए। जो अपने आप को दलित साहित्यकार समझतें हैं, और जो धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन का मौन और साथ रहकर समर्थन कर रहे हैं, दलित महिलाएं  उनसे  भी जवाब चाहती हैं अन्यथा धर्मवीर के साथ-साथ वो भी अपने आप को सवालों के कटघरे में खड़े देखेंगे। आने वाल समय  से साहित्यकारों को जिनका प्रगतिशील चिंतन से कोई वास्ता नहीं है, जो एक मूल मंत्र “अवसरवाद” को लेकर चल रहे हैं, उनको कभी माफ नहीं करेगा। और दलित स्त्रियां तो कभी माफ नहीं करेंगी। धर्मवीर तो मात्र प्रतीक हैं. जो भी धर्मवीर बनने की कोशिश करेगा दलित महिलाएं उस साहित्यकार और उसके लेखन का हर स्तर पर विरोध करेंगी चाहे वह विरोध किसी को आक्रमक ही क्यों ना लगे।
छात्र जीवन से ही दलित आंदोलन में सक्रिय अनीता भारती ने कुछ समय तक दलित पत्र ‘मूकनायक’ का संपादन किया व सामाजिक क्रांतिकारी गब्दूराम बाल्मीकि पर एक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी. पत्र-पत्रिकाओं में दलित-आदिवासी महिलाओं के मुद्दों पर निरंतर विभिन्‍न विधाओं में लिखने वाली, पेशे से अध्‍यापिका अनीता ‘दलित लेखक संघ’ की महासचिव हैं. बिरसा मुंडा सम्मान, वीरांगना झलकारी बाई सम्मान, समेत कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित अनीता से anita.bharti@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011


अतः अन्ना का आना अभी "शुभ नहीं है"


डॉ.लाल रत्नाकर 
एक शिक्षक और कलाकार

बोया पेड़ बबूल का -आम कहाँ से खाय |
अन्ना जी का उत्तर प्रदेश जाना अभी शायद जल्दबाजी का काम है, जब पूरे देश से भ्रष्टाचार मिट जायेगा तो इस पिछड़े राज्य से भी मिट ही जायेगा . आखिर  बहन जी का उत्तर प्रदेश पर राज्य करना देश की पहली दलित प्रयोगशाला है, इसमे 'भ्रष्टाचार की बात भी बेमानी लगती है क्योंकि बेईमानों को हटाकर बिना बेईमानी के कैसे राज करेंगी' भ्रष्टाचार के आगोश में जब पूरा देश डूबा हो तो बहन जी का भ्रष्टाचार समुद्र में बूंद जैसा ही है.पर आज जिस तरह से 'भ्रष्टतम' समाज पैदा हो गया है उसका क्या होगा ? उसका ठीकरा प्रदेश के जन जन तक पर फोड़ा जा रहा है पर भ्रष्ट बिलकुल अलग और पुराने तरीके से ही लगे हैं. पहले उदारीकरण तो था नहीं आजकल भ्रष्टाचार में भी उदारता बरती जा रही है, फला फला के लिए  आज़ादी है, फला फला के लिए उसमें जेल, इसका इलाज कैसे होगा. यदि उत्तर प्रदेश में इनका यही हाल रहा तो बाकि के प्रदेश का क्या हश्र होगा. त्रिपाठी जी ने इशारे इशारे में ही उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व और वर्तमान पर इशारा किया पर अभूतपूर्व दलों की ओर इशारा तक नहीं किया है. पूरे प्रदेश में सिस्टम के नाम पर बहु बेटियों तथा निक्कमे स्वजातियों को बैठाये हुए है हर जगह, जिसका अदृश्य रूप जब जब सबके सामने आता है तो दिखाई देता है कि घोर भ्रष्टाचार और अत्याचार में लम्बे समय से डूबा है यह प्रदेश. लेकिन पुलिस की भर्ती में धांधली की आवाज़ तो हाई कोर्ट तक जाती है, पर सारी भर्तियों में - जातीय निक्कमों की फौज की फौज - सारे सरकारी दफ्तरों , विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में थोक में है पर उनपर न तो मिडिया नज़र उठाता है और न अन्ना हजारे निकलते हैं सुधार के लिए "दलित राज्य की उपलब्धियों को नकारने का मतलब तो समझ में आता ही होगा" पर सारी उपलब्धियों का श्रेय "द्विज" शक्तियों को देना बहुत बड़ी साजिश है भ्रष्टाचार को बनाये रखने की.
अतः अन्ना का आना अभी "शुभ नहीं है"
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अन्ना मामले पर शिक्षकों की नाराजगी

रामदत्त त्रिपाठी

अन्ना
अन्ना हज़ारे यूपी का दौरा करने वाले हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुहिम चलाना चाहते हैं.


लखनऊ यूनिवर्सिटी के कुलपति द्वारा ने विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को अन्ना हजारे के स्वागत में सभा करने और विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस में रुकने देने की अनुमति रद्द कर देने की शिक्षक और कर्मचारी संघ में तीखी प्रतिक्रिया हुई है.
समझा जाता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने राज्य सरकार के दबाव में यह कदम उठाया है.
लखनऊ विश्विद्यालय शिक्षक और कर्मचारी संघ प्रशासन के फैसले से बहुत नाराज है. दोनों संगठनों ने अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई.
शिक्षक संघ के अध्यक्ष डाक्टर दिनेश कुमार ने बताया कि वे और उनके साथी कुलपति प्रोफ़ेसर मनोज कुमार मिश्र से मिले थे और उनसे मालवीय सभागार में सभा कर लेने देने का अनुरोध किया. मगर कुलपति नही माने.
प्रशासन द्वारा एस सम्बन्ध में असहमति व्यक्त करने के कारण अतिथि गृह में कक्ष उपलब्ध कराना संभव नही है
मनोज दीक्षित, प्रोफेसर
डाक्टर दिनेश कुमार के अनुसार कुलपति ने कहा कि वह इस तरह का विवादास्पद कार्यक्रम नहीं होने देंगे.
दिनेश कुमार के मुताबिक़ इससे पहले उन्हें मालवीय सभागार में सभा की अनुमति दी गयी थी और उन्होंने उसके लिए आवश्यक धन राशि भी जमा कर दी थी.
शिक्षक संघ के अनुसार मालवीय सभागार के अलावा अन्ना हजारे तथा उनके साथियों किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल आदि के रुकने के लिए विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस देने से भी मना कर दिया गया है. गेस्ट हाउस के इंचार्ज प्रोफेसर मनोज दीक्षित ने इसकी पुष्टि की है.
मनोज दीक्षित ने शिक्षक संघ को लिखे एक पत्र में बताया है कि, ''प्रशासन द्वारा एस सम्बन्ध में असहमति व्यक्त करने के कारण अतिथि गृह में कक्ष उपलब्ध कराना संभव नही है.''
विश्वविद्यालय कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष जगदीश सिंह और महामंत्री राकेश यादव भी अपना विरोध दर्ज कराने के लिए प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित थे.
लखनऊ विश्विद्यालय परिसर गोमती नदी के किनारे झूले लाल मैदान के पास है , जहां पहली मई को अन्ना हजारे की जन सभा होनी है.
विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने इस आम सभा से पहले मालवीय सभागार में स्वागत कार्यक्रम रखा था. इसके बाद विश्वविद्यालय के शिक्षक, कर्मचारी और छात्र अन्ना हजारे की रैली में भी शामिल होने वाले थे.
इस घटना से मै बहुत आहत हूँ. आपने कार्य परिषद को भी विशवास में लेना उचित नही समझा. आपका यह कृत्य विश्विद्यालय की स्वायत्तता व् अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है.
अनिल सिंह, प्रोफेसर
विश्विद्यालय कार्यपरिषद के सदस्य अनिल कुमार सिंह ने कुलपति के फैसले की निंदा की है.
अनिल कुमार सिंह ने कुलपति को लिखे एक पत्र में कहा कि, ‘‘इस घटना से मै बहुत आहत हूँ. आपने कार्य परिषद को भी विशवास में लेना उचित नही समझा. आपका यह कृत्य विश्विद्यालय की स्वायत्तता व् अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है. आपके निर्णय से विश्विद्यालय की गरिमा को अपार क्षति हुई है.’’
अनिल कुमार सिंह ने याद दिलाया है कि इसके पहले जय प्रकाश नारायण , वीपी सिंह एवं अन्य सामाजिक राजनीतिक नेताओं की सभाएं विश्विद्यालय परिसर में होती रही हैं.
शिक्षक संघ के महासचिव डाक्टर आरबी सिंह का कहना है कि कुलपति के इस निर्णय को एक चुनौती के रूप में लिया गया है.
अब शिक्षक और छात्र भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन में ज्यादा सक्रियता से काम करेंगे. उनका कहना है अन्ना हजारे के जाने के बाद शिक्षक संघ इस मसले पर अपनी आम सभा की बैठक बुलाएगा.
कुलपति प्रोफ़ेसर मनोज कुमार ने फोन नहीं उठाया लेकिन गेस्ट हॉउस के इंचार्ज प्रोफ़ेसर मनोज दीक्षित ने सभागार और गेस्ट हॉउस का आरक्षण रद्द करने के निर्णय की पुष्टि की है
प्रेक्षकों का कहना है कि लखनऊ विश्विद्यालय के इस निर्णय से साफ़ है कि मायावती सरकार अन्ना हजारे के उत्तर प्रदेश दौरे से काफी असहज महसूस कर रही है.

(बी बी सी हिंदी से साभार)

वाह कुलपति महोदय आपने कर दिया कमाल !

विवि में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आप 'भ्रष्टाचारियों के साथ'

लविवि में अन्ना के लिए जगह नहीं

Apr 27, 03:01 am
-बुकिंग के बाद मालवीय सभागार और अतिथि गृह देने से किया इंकार
-विवि में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को झटका
लखनऊ, 26 अप्रैल (संवाद सूत्र) : भ्रष्टाचार के खिलाफ देश को एकजुट करने वाले गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में कोई जगह नहीं है। शिक्षक भले ही अन्ना को बुला कर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को बल देना चाहते हों लेकिन लविवि प्रशासन के लिए यह महज 'विवादित' कार्यक्रम है और ऐसा कोई कार्यक्रम वह अपने यहां कराने को राजी नहीं है। इसी वजह से विवि प्रशासन ने परिसर स्थित मालवीय सभागार व अतिथि गृह की पहली मई की उस बुकिंग को भी निरस्त कर दिया, जिसे शिक्षकों ने अन्ना के लिए आरक्षित कराया था।
मंगलवार को बुकिंग निरस्त होने की सूचना आने के बाद कुलपति प्रो. मनोज कुमार मिश्र से मिलने गए लूटा पदाधिकारियों ने मुलाकात के बाद बताया कि कुलपति ने परिसर में किसी भी 'विवादित' कार्यक्रम की अनुमति देने से मना कर दिया है। शिक्षकों के मुताबिक वे अन्ना का स्वागत करना चाहते हैं लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं है। शिक्षकों का आरोप है कि निर्धारित कार्यक्रम के दौरान मंच पर कुलपति, कुलसचिव और प्रतिकुलपति के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया था, लिहाजा यह कार्यवाही द्वेष की भावना से की गई है।
लूटा के कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ. दिनेश कुमार और महामंत्री डॉ. आरबी सिंह ने बताया कि अन्ना से कार्यक्रम की स्वीकृति मिलने पर एक मई के लिए बीती 23 अप्रैल को मालवीय सभागार बुक कराया गया था। इसके लिए निर्धारित पांच सौ रुपये का भुगतान भी कैशियर कार्यालय में कर दिया गया था। आमंत्रित अतिथियों में अन्ना हजारे, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल को ठहराने के लिए अतिथि कक्ष के छह कमरे दिए जाने की स्वीकृति भी विवि प्रशासन ने दे दी थी। शिक्षक कार्यक्रम की तैयारियों में जुटे थे कि इसी बीच लविवि प्रशासन ने उन्हें मालवीय सभागार की बुकिंग रद करने की सूचना भेज दी।
विवि के निर्णय के खिलाफ कार्यपरिषद सदस्य अनिल सिंह, लविवि शिक्षक संघ के कार्यवाहक अध्यक्ष दिनेश कुमार, महामंत्री आरबी सिंह और कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष जगदीश सिंह ने प्रेसवार्ता कर कुलपति की भूमिका को कठघरे में खड़ा किया। शिक्षकों ने कहा कि एक मई के बाद बैठक कर विवि प्रशासन के इस फैसले के विरोध में आंदोलन की रणनीति तय की जाएगी।
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''कार्यपरिषद सदस्य और जिम्मेदार नागरिक के नाते इस समाचार से आहत हूं। कुलपति ने एकतरफा फैसला लिया है, जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और विवि की गरिमा के विरुद्ध है।''
अनिल सिंह, कार्यपरिषद सदस्य
लखनऊ विश्वविद्यालय
''अन्ना हजारे के आगमन से विवि में होने वाली भीड़ को देखते हुए उनकी सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता था। किसी तरह की दुर्घटना से बचने के लिए कार्यक्रम रद किया गया है।''
प्रो.एसके द्विवेदी,प्रवक्ता,लखनऊ विश्वविद्यालय


सोमवार, 4 अप्रैल 2011

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जाति

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जाति
by Udit Raj on 04 अप्रैल 2011 को 15:12 बजे
 नई दिल्ली, 4 अप्रैल, 2011.

डॉ0 उदित राज, रा0 चेयरमैन, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसवंघ ने कहा कि लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि भ्रष्टाचार की कोई जाति नहीं होती लेकिन यह सच नहीं है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, श्री के.जी. बालाकृष्णन एवं कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, श्री पी.डी. दिनाकरन के साथ जो हुआ या हो रहा है, उससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भ्रष्टाचार की जाति है। यहां यह मतलब नहीं है कि ये भ्रष्ट हैं या ईमानदार। प्रश्न यह है कि दर्जनों हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के तथाकथित सवर्ण जज भ्रष्टाचार में डूबे हैं, उनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठती? के.जी. बालाकृष्णन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गयी और संज्ञान लिया गया। ऐसा अन्यों के मामले में क्यों नहीं?

डॉ0 उदित राज ने आगे कहा कि सन् 2000 में भारत के मुख्य न्यायाधीश, डॉ. ए.एस. आनंद थे। मध्य प्रदेश में जमीन घोटाला हुआ, श्री आनंद अपने प्रभाव का दुरूपयोग करते हुए अपनी पत्नी के माध्यम से झूठा शपथ-पत्र देकर वहां की सरकार से एक करोड़ से ज्यादा मुवावजा उठाया। इन्होंने अपनी जन्मतिथि में भी हेर-फेर किया जिससे देर तक न्यायपालिका में बने रहे।  जिन वकीलों ने उनकी मदद की, उनकी पदोन्नति हुई। वरिष्ठ पत्रकार श्री विनीत नारायण इनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना चाहते थे लेकिन राजनैतिक लोग डर गए। तब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन, को अपील भेजी, तो उन्होंने इस याचिका को उस समय के कानूनमंत्री, राम जेठमलानी के पास भेजा। उसके बाद जेठमलानी ने डॉ0 आनंद के पास उनकी टिप्पणी के लिए याचिका को अग्रसारित कर दिया। इनकी बचत में अरूण जेटली एवं अटल बिहार वाजपेयी आए और अंत में जेठमलानी को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा। कितना फर्क है कि एक दलित मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ बड़े आराम से भ्रष्टाचार की आवाज उठ रही है और सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका मंजूर कर ली। दूसरी तरफ जब सवर्ण मुख्य न्यायाधीश का मामला आया तो देश के कानूनमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। मामला ठीक उल्टा हुआ, क्योंकि इस्तीफा डॉ0 आनंद को देना चाहिए था। सवर्ण मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आवाज उठाने पर न केवल देश के कानूनमंत्री को जाना पड़ा बल्कि वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण को भूमिगत होना पड़ा। डॉ0 आनंद ने विनीत नारायण के खिलाफ जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में अवमानना का मुकदमा कायम करवा दिया। चूंकि हिजबुल मुजाहिदीन के निशाने पर विनीत नारायण थे और उन्हें श्रीनगर में रहकर अपनी पैरवी करनी थी, इसलिए ऐसा किया गया। विनीत नारायण के घर और दफ्तर पर छापे भी मारे गए। मजबूर होकर वे देश छोड़कर भाग गए। आज भी डॉ0 आनंद के खिलाफ सारे घोटालों की फाइलें पड़ी हुई हैं और जांच की जाए तो सिद्ध हो जाएगा कि भ्रष्टाचार के आरोप बिल्कुल सही थे। सवर्ण होने का फायदा कितना है, इससे भी जान सकते हैं कि डॉ0 आनंद को सेवानिवृत्त के बाद भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। मजे की बात है कि इनकी नियुक्ति डॉ0 ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के समय हुई। 

डॉ0 उदित राज ने बताया कि दूसरे सवर्ण मुख्य न्यायाधीश, श्री वाई.के. सब्बरवाल तो डॉ0 ए.एस. आनंद से भी कहीं आगे भ्रष्टाचार में निकले लेकिन उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कोई याचिका मंजूर नहीं हुई और शान से नौकरी करके सेवानिवृत्त हुए। दिल्ली के बड़े बिल्डरों से साठ-गांठ करके सैकड़ों कॉलोनियांें एवं लाखों दुकानों को सील कर दिया। लाखों लोग भुखमरी के कगार पर आ गए। हजारों मकान तोड़ दिए गए, जो दुकानें सील हुई थी उनको खोलने में बड़ा समय लगा। उसकी वजह से अरबों का रखा हुआ भीतर सामान सड़ गया या जंग लग गया। आवास से ही इनके बेटों ने कंपनी चलायी। सिकंदर रोड, कनॉट प्लेस, जो बहुत पॉश कालौनी है, इनके बेटों ने लगभग 100 करोड़ की सम्पत्ति खरीदी। भ्रष्टाचार सिद्ध नहीं हुआ है फिर भी यदि मान लिया जाए कि के.जी. बालाकृष्णन ने भ्रष्टाचार किया भी तो क्या यह सब्बरवाल से ज्यादा घातक है। 

डॉ0 उदित राज ने कहा कि ग़ाजियाबाद प्राविडेंट फंड के मुख्य आरोपी एवं गवाह को जेल में मार दिया गया। क्यों नहीं उस पर कोई बड़ा हंगामा हुआ? यहां तक कि तमाम हाई कोर्ट के जज जो इस मामले में लिप्त हैं, सीबीआई अदालत में पेश ही नहीं होते। इस घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के उस समय के जज तरून चटर्जी का नाम आया था। क्यों नहीं उस समय उनके खिलाफ कोई सक्रियता मीडिया से लेकर सरकार में हुई। कर्नाटक हाई कोर्ट के दलित ईसाई मुख्य न्यायाधीश, श्री पी.डी. दिनाकरन चिल्लाते रहे कि जिस जमीन को लेकर विवाद है, उसकी जांच की जाए तब उनके खिलाफ बार एसोसिएशन, मीडिया एवं जज कार्यवाही करंे। उनकी एक न सुनी गयी और अंत में उनको सजा मिल गयी। उनसे काम छीन लिया गया। यह अपने आपमें एक बड़ी सजा थी और उसके बाद उनको दूसरे हाई कोर्ट में भेज दिया गया। यदि मान लिया जाए कि इन्होंने जमीन के मामले में भ्रष्टाचार किया तो अपना पक्ष रखने का मौका तो इन्हें देना चाहिए था। यदि ये दलित न होते तो शायद इनके साथ ऐसा व्यवहार न होता। क्या हुआ, उस राजस्थान के जज के खिलाफ, जिसने दलित महिला भंवरी देवी के बलात्कार के मामले में कहा था कि सवर्ण ऐसा कर ही नहीं सकते? राजस्थान में सुशीला नागर, दलित जज, के साथ उनके वरिष्ठ गलत कृत्य करना चाहते थे, जब वे सफल नहीं हुए तो उल्टे सुशीला नागर को ही दंड भोगना पड़ा। इनकी पदोन्नति रोकी गयी और गलत स्थानों पर बार-बार तैनात किया गया। इसका विरोध करने के लिए इनके प्रगतिशील पति, ए.के. जैन, जो स्वयं जज थे, वे इस्तीफा देकर सार्वजनिक जीवन में आए। इस तरह से हजारों भ्रष्टाचार के मामले सवर्ण जजों के खिलाफ मिल जाएंगें लेकिन जैसा के.जी. बालाकृष्णन एवं पी.डी. दिनाकरन के साथ कथित भ्रष्टाचार के मामले में बार एसोसिएशन, मीडिया, सरकार एवं न्यायपालिका ने सक्रियता दिखाई, वैसा अन्यों के मामलों में क्यों नहीं होता? भ्रष्टाचार के दोहरे मानदंड क्यों? 

सुप्रीम कोर्ट में अब तक सैकड़ों जज नियुक्त एवं सेवानिवृत्त हो गए, अब तक उनमें से केवल तीन दलित जज हो सके। इसी तरह से हजारों जज हाई कोर्ट में नियुक्त हुए, उसमें से कुछ ही दलित एवं पिछड़े समाज से हुए। जो भी हुए उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में फंसाने की कोशिश की गयी।  जज बनने के लिए कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती। देश की इतनी बड़ी संस्था में पहुंचने के लिए काबिलियत का कोई भी मापदंड निर्धारित नहीं है। बस इतना ही है कि कौन किसका रिश्तेदार है? कौन समीकरण बैठाने में चतुर और चालाक है? कभी-कभार ही योग्यता के आधार पर जज की नियुक्ति होती है, जिसकी खुद ही योग्यता की जांच-पड़ताल न हो, वह यहां बैठकर क्या फैसला देगा? यही कारण है कि आज करोड़ों मुकदमे लंबित हैं। 
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C. L. Maurya

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